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________________ १८४ ] • श्री पार्वनाथ चरित - 'कुटुम्ब चञ्चलं शम्या समस्तासुखप्रदम् । धर्मध्वंसकर पापप्रेरक शत्रुसन्निभम् ।।१०।। पृह वाहनवस्तूनि राज्याल करणानि च । बनधान्यपदार्थान्यत्राधारेभान्यपराप्य हो ।।११।। यत्किञ्चिद् दृश्यते दस्तु श्रेष्ठ लोकत्रये स्थितम् । कालानलेन तत्सर्व भस्मीभावं प्रयास्यति ।१२।। इत्यनित्यं परिज्ञाय विश्व वस्तु चराचरम् । साधयध्वं बुधा मोक्षं नित्यमाशुगुणार्णयम् ।।१३।। शार्दूलविक्रीडितम् मायुश्चाक्षचयं बलं निजवपुः सर्व कुटुम्बं धनं । राज्यं वायुकथिताम्बुलहरीतुल्ये जगच्चञ्चलम् । ज्ञात्वेतीह भिवं जगत्त्रयहितं सौख्याम्बुधि शाश्वत दृञ्चिद्वृत्तयमैद्रतं बुधजना मुक्त्यै भजन सदा ।।१४।। नित्यानुप्रेक्षा वने लामहोतस्य मृगस्म शरण यथा । विद्यते न तथा पुसां मृत्युव्याघ्रादिना क्वचित् १५ दृग्वृत्तधर्मसद्दान तपोज्ञानय मादय: ।जिनाः सिद्धा मुनीन्द्राश्च स्युः शरण्याः सतां भवान् दुःखों की खान है, बहुत पिता को करने वाला है, छाया के समान है और धर्मादिक का नाश करने वाला है ।। कुटुम्ब बिजली के समान चञ्चल है, समस्त दुःखों को वेने वाला है, धर्म का विनाश करने वाला है, पाप का प्रेरक है और शत्रु के तुल्य है ।।१०।। ग्रहो ! घर वाहन प्रादि वस्तुए राज्य के अलंकारभूत छत्र चमरादि, धन धान्यादि पदार्थ तथा अन्य पदार्थ इस जगत् में मेघ के समान हैं ।।११।। तीनों लोकों में स्थित जो कुछ भी श्रेष्ठ बस्तु दिखाई देती है वह सब कालरूपी अग्नि के द्वारा भस्मभाव को प्राप्त हो जायगी ॥१२।। इस प्रकार समस्त चराचर वस्तुओं को अनित्य जानकर हे विद्वज्जन हो ! निरन्तर शीघ्र ही गुणों के सागर स्वरूप मोक्ष की साधना करो-मोक्ष प्राप्त करने का उद्यम करो ॥१३॥ आयु, इन्द्रिय समूह, शारीरिक बल, अपना शरीर, समस्त कुटुम्ब, धन, राज्य और जगद वायु से ताडित जल को तरङ्ग के समान चञ्चल है ऐसा जानकर हे विद्वज्जन हो ! मुक्ति प्राप्ति के लिये सदा वर्शन ज्ञान चारित्र तथा इन्द्रियदमन के द्वारा शीघ्र ही यहां उस मोक्ष की उपासना करो जो तीनों जगत् के लिये हिलकारी है, सुख का सागर है तथा स्थाई है ॥१४॥ ( इस तरह अनित्यानुप्रेक्षा का चिन्तवन किया ) जिस प्रकार वन में ध्यान के द्वारा पकड़े हुए मृग को शरण नहीं है उसी प्रकार मृत्युरूपी व्याघ्र प्रादि के द्वारा पकड़े हुए पुरुषों को कहीं शरण नहीं है ।।१५।। दर्शन, चारित्र, धर्म, सम्यग्दान, तप, ज्ञान, इन्द्रियदमन प्रावि, अरहंत सिद्ध और मुनिराज हो सत् १. एक अलोक: ख• पुग्नक नास्ति २. मेघनुल्यानि ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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