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________________ ---- - -- -- •भी पानाय परित. जानहीमो वपुःकमेनो व्यर्थः पापानवान्नृणाम् । दयां विना तपोधर्मः सर्वमस्ति निरर्थकम् ।।२।। तुषलण्डनयोगेन 'सम्यन्ते मा RISATIसष्टेग मोजमानोदयः क्वचिद ॥३॥ पपायुमपनाम्नवोस्पचते आतुचिद्धृतम् । तथा हिंसाकरेणेव तपसात्र सुखादि ॥४॥ प्रभाम्बरमायषा स्वर्ण गोशाच्च पयो न हि । जायते जातु धर्मों वा सुखं पञ्चाग्निसाधमात् ।। रावभीत्या यथान्धो धावन्नपि प्रियते पया। कुर्वन्नपि तपोऽशानी मज्जस्येव भवाणंवे ।।६।। हेबाहेयविचार - पुण्यं पापं हिताहितम् । देवादेवं भवं मोक्षं स्वासवं संवरं शुभम् ।।८७॥ निर्जरा तस्वविज्ञानं गुरु क फुगुक' श्रुतम् । कुशास्त्रं वेत्ति नाजानी आत्यन्ध इव दन्तिनम् ८८ पतो जैनमतं तथ्यं धर्म जीवदयावहम् । तपोऽनघं गृहाण स्वं त्यक्त्वेमं च दुराग्रहम् ।।८।। सन्ध्यतपसा मोक्षः सुखं वाचामगोचरम् । प्रज्ञानसपसा दुःखं भ्रमणं च अवाटवीः ||१०|| भवस्नेहेन सप्पं से हितं च धर्मसाधनम् । वचः प्रोक्तं मयेति त्यां होच्छता शुभमञ्जमा ६१ । उसके उदय से सुगंति में मूर्ख तापसों को बहुत भारी दुख होता है ॥१॥ मनुष्यों का माम हीन कायक्लेश, पापाखव का कारण होने से निरर्थक है। वास्तव में बया के बिना सप और धर्म सबमिरर्थक है ।।१२। जिस प्रकार तुषों के खण्डन से चांवल नहीं प्राप्त होते है उसी प्रकार पूर्ण कष्ट सहन करने से कहीं मोक्षमार्ग प्रादि प्राप्त नहीं होते ॥३॥जिस प्रकार जल के मथने से कभी भी पृत उत्पन्न नहीं होता उसी प्रकार हिसा केबान स्वरूप तप से यहां सुखादिक उत्पन्न नहीं होते हैं ॥४॥ इस जगत् में जिस प्रकार अन्धपापारण से स्वर्ण और गाय के सींग से दूध नहीं उत्पन्न होता है उसी प्रकार पञ्चाग्नि तप से कभी धर्म और सुख उत्पन्न नहीं होता है ॥८॥ जिस प्रकार अन्धा मनुष्य बाबा के भय से भागता हुमा भी मरता है, उसी प्रकार प्रशानी पुरुष तप करता हुमा भो संसार-सागर में सूखता ही है ॥८६॥ हेय-महेय के विचार को, पुण्य-पाप को, हित-अहित को, देव-प्रोब को, संसार-मोक्ष को, शुभानव और शुभ संबर को, निर्जरा को, तस्वविज्ञान को, गुरु कुगुरु को, सुशास्त्र और कुशास्त्र को प्रज्ञानी जीव उस प्रकार नहीं जानता है जिस प्रकार जम्मान्ध मनुष्य हाथी को नहीं जानता है ॥८७-८८। इसलिये तुम इस धुरायह को छोड़कर जीव दया को धारण करने वाले जैनमत और सत्यधर्म को स्वीकृत करो, तथा निर्दोष तप को ग्रहण करो ॥८६॥ नियंग्य तप से मोक्ष तथा बचनागोचर सुख प्राप्त होता है और महान तप से दुःख तथा संसाररूप प्रवियों में परिभ्रमण प्राप्त होता है॥१०॥ तेरो वास्तविक भलाई की इच्छा करते हुए मैंने पापके स्नेह से सत्य, हितकारी तबा धर्म को सिद्ध करने वाले बचन कहे हैं ॥६॥ इसलिये हे मित्र ! मन से विचार १. मभन्ते ग. २. भवाटवीम् मा।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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