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________________ १८२ * मौ पाश्र्श्वनाथ चरित * पुंसां कुबुद्धिदातारो जिनधर्मपराङमुखा: । से 'दुर्मेधाविनो मिथ्योदयात्स्युः पापकारिणः ॥८७ कालशुद्धयादिना जैनागमं मुक्त्यं पठन्ति ये । पाठयन्ति विचारशा 'निः पापाचारणान्विताः निःशङ्कादिगुणोपेता मर्मोपदेश तत्पराः । पाण्डित्यमद्भुतं ते च प्राप्नुवन्ति भवे भवे ॥ ८१ ॥ दूषणं जिनसूत्रस्य वदन्ति ज्ञानगर्विताः । पठन्ति स्वेच्छया कूटं शास्त्रं विनयदूरगाः || || पाठयन्ति न पाठा तद्गुणाच्छादकाश्च ये । ते ज्ञानावृतिपाकेन महामूर्खा भवन्त्यहो || ६१ निःशीला निर्दया दानव्रतपूजादिवजिताः । स्वेच्छाचाररता नानारम्भहिंसादिवर्तिनः ॥९२॥ परपीडाकरा पापकर्मवन्तो वृषातिया: । ये सातोदयेनात्र रोगिशाः स्युश्चतुर्गतौ ॥६३॥ पशूनां वा नृणां येऽत्र वियोगं कुर्वते शठाः । परस्त्रीधनवस्तून्यपहरन्त्यतिलोभिनः ।।१४।। प्रतिशोकाकुला अन्य विघ्न संतोष कारिणः । ते लभन्ते वियोगाश्च पुत्रदारादिवस्तुषु ||१५|| निर्दया येऽङ्गिनो हस्तादादिच्छेदनं मुदा भजन्ति परपीडां च नीचकमरताः शठाः ।। ६६ ।। देते हैं और जिनधर्म से पराङमुख रहते हैं ऐसे पाप करने वाले जीव मिथ्यात्व के उदय से दुर्बुद्धि होते हैं ।।८६-८७ जो मुक्ति के लिये कालशुद्धि श्रावि का विचार रखते हुए जैनागम को स्वयं पढ़ते हैं तथा दूसरों को पढ़ाते हैं, विचार को जानने वाले हैं, निर्दोष श्रावण से सहित हैं, निःशङ्कता प्रादि गुणों से सहित हैं तथा धर्म का उपदेश देने में रात्पर रहते हैं वे भवभव में प्राश्वर्यकारी पाण्डित्य को प्राप्त होते हैं ।॥ ओ ज्ञान के गर्व से युक्त हो जिनागम के दोष कहते हैं, अपनी इच्छानुसार कृत्रिम फल्पित शास्त्रों को पढते हैं, विनय से दूर रहते हैं, पढाने योग्य पाठ को नहीं पढाते हैं तथा गुणी जनों के गुणों का प्राच्छादन करते हैं वे ज्ञानावरण कर्म के उदय से महामूर्ख होते हे ।।६० - ६१ ।। जो शोल रहित है, दया रहित हैं, दान व्रत और पूजा आदि से रहित हैं स्वेच्छाचार में लोन हैं, नाना आरम्भ तथा हिंसा प्रावि में प्रवृत्त है, दूसरों को पोडा करने वाले हैं, पाप कर्मों से युक्त हैं तथा धर्म का उल्लंघन करने वाले हैं वे श्रसाता वेदनीय के उदय से चारों गतियों में रोगी होते हैं ।। ६२-६३ ।। जो सूर्ख इस भव में पशुओं और मनुष्यों का वियोग करते हैं, परस्त्री परधन श्रौर पर वस्तुनों का अपहरण करते हैं, अत्यन्त लोभी हैं, प्रत्यधिक शोक से युक्त हैं, और दूसरों के विघ्न में संतोष करते हैं वे पुत्र तथा स्त्री प्रावि वस्तुनों के वियोग को प्राप्त होते हैं ।।६४-६५।। जो निर्दय मनुष्य, हर्षपूर्वक किसी प्रारणी के हाथ पैर प्रावि श्रङ्गों का छेवन करते हैं, दूसरों को पीडा पहुंचाते हैं, नोच कार्यों में लीन रहते हैं, मूर्ख हैं, अपने प्रङ्गोपाङ्गों से १. दुबुं यः २. नि:पापचाराबिता म० ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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