SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१. *श्री पार्श्वनाथ चरित - नवा मामवाश्चैव नयधा यि कलानिनः । इति जीवसमासाः स्युरष्टानयतिसंख्यकाः ।।१।। पृथ्वसेजःसमीरा ष्टधा वादरसूक्ष्मत: । नित्येतरनिकोताश्चतुर्दा बादरसूक्ष्मतः ॥२०॥ निकोतसहितास्तद्रहिताः प्रत्येककायिन: । एकत्र मेलिता एते सर्वे भेदाश्चतुदंश ॥२१॥ एकाक्षा गुणितास्ते द्विचत्वारिंशत्प्रमाः स्फुटम् । पर्याप्तकेतरालब्धिपर्याप्त: म्युजिनागमे ।।२२।। विप्रकाराः सुराः स्युः पयांप्तापयप्तिमेदतः । तथा च नारका ज्ञेया द्विधा दुःखाम्धिमध्यगाः ।२३॥ बलस्थल नभश्चारिणः. संश्यसजिभेदत: । षडविधा गर्भजा जीवा: पञ्चेन्द्रियसमाह्वयाः ।२४। भोगभूमिमवा जीवा द्विषा स्थलखगामिन: । ते सर्व मेलिता प्रष्टभेदाश्व गुणिताः पुनः ।।२५।। पर्याप्ततरभेदाभ्यां षोडशव भवन्त्यपि । संघसंज्ञित्वमेदाम्या जनस्थ लखचारिणः ॥२६।। पधा संमूछिमास्ते पर्याप्तियुक्तास्तथेतराः । भवन्त्यलब्धिपर्याप्तकाः प्रत्येक किलाङ्गिनः ॥२७॥ कृता एक त स मा माना: ।संछिमाः सर्व स्युश्चतुस्त्रिशदङ्गिनः ।।२।। देव नारकियों के दो वो, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों के चौतीस, मनुष्यों के नो और विकलत्रयों के दौ-सब मिला कर प्रठानवे जीव समास होते हैं ॥१८-१६।। पृथिवी अल अग्नि और वायु इन पार के वावर सूक्ष्म की अपेक्षा पाठभेद, साधारण वनस्पति के निस्य निगोर और इतर निगो की अपेक्षा दो भेव और दोनों के चादर सूक्म को अपेक्षा चार भेव तथा प्रत्येक बनस्पति में सप्रतिष्ठित प्रत्येक प्रौर अप्रतिष्ठित्त को अपेक्षा वो भेद सब एकत्र मिलाकर एकेन्द्रिय के चौदह भेद होते हैं। ये चौदह मेव पर्याप्तक, नित्य पर्याप्सक, और लक्ष्य पर्याप्तक की अपेक्षा तीन तीन प्रकार के होते हैं इसलिये चौदह में तीन का गुणा करने पर जिनागम में एकेन्द्रियों के व्यालीस भेद माने गये हैं ।।२०-२२॥ देव, पर्याप्तक और अपर्याप्तक के भेद से दो प्रकार के हैं इसी प्रकार दुःखरूपी सागर के मध्य में रहने वाले भारको भी दो प्रकार के आनना चाहिये ।।२३॥ पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों के जलचर स्थलचर पौर नभश्वर की अपेक्षा तीन भेद हैं और ये तीनों भेद संझी प्रसंजी के भेद से वो दो प्रकार के होते हैं इस प्रकार छह भेद हुए । ये छह भेष गर्भज पञ्चेन्द्रिय तियंञ्चों के हैं । भोगसूमिज पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों के स्थलचर और नभश्चर के मेव से दो भेद हैं । दोनों मिलाकर पाठ मेद हुए । ये पाठों भेद पर्याप्तक और नित्यपर्याप्तक की अपेक्षा दो दो प्रकार के हैं प्रतः वो का मुरणा करने पर इनके सोलह मेव होते हैं । संमूछन जन्म वाले पंचेन्द्रिय सिर्यञ्चों के जलचर, स्थलचर और नभश्चर की अपेक्षा तीन भेव होते हैं और ये तीनों मेव संजी प्रसंगी की अपेक्षा दो भेद वाले होने से छह प्रकार के होते हैं ये छह भेद पर्याप्तक, नित्यपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्तक की अपेक्षा तीन तीन प्रकार होते हैं प्रतः संमूर्छन जन्म वाले पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों के अठारह मेद होते हैं । गर्भ जन्म बालों के सोलह और संमूर्धन जम्म बालों
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy