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________________ * विशतितम सर्ग [ २५ "संसारमुक्तभेदेन द्विधा जीवा भवन्त्यहो । मुक्ता भेदविनिःक्रांता अनन्तगुण भावनाः ॥eil भव्य भव्य प्रभेदेन द्विधा संसारिणोऽङ्गिनः । प्रसस्थावरभेदेन वा द्वेषा भवगामिनः 118011 एकाक्षा विकलाआः पञ्चाक्षास्त्रेवेति ते मताः । देवनारकसियंस्तृभेदाद्वा ते चतुविषाः ११॥ एकत्रितुः पचेद्रियमेवा पचषा । पृथ्व्यप्तेजोम रुवृक्षत्रसभेदात् षडङ्गिनः ॥१२॥ संज्ञिनोऽसंज्ञिनो द्वपक्षास्त्रयक्षा हि चतुरिन्द्रियाः । एकाक्षा वादराः सूक्ष्माः सप्तत्यङ्गिराशयः ॥ १३॥ पर्याप्ततरभेदेन ताः सप्तजीवयोनयः । गुणिता अखिला जीवसमासाः स्युहचतुर्दश ॥१४॥ प्रष्टषा धातवो वादर सूक्ष्मेण चतुविषाः । निस्येतरर्शनिकोला हि विकलत्रय देहिनः संजिनोऽसंशिनः प्रतिष्ठिता प्रप्रतिष्ठिताः । इति संसारिणो जीवभेदा एकोनविंशतिः ॥ १६॥ ते पर्याप्त लब्धिपर्याप्तंगता भुवि । सर्वे जीवसमासाः सप्तपञ्चाशत्प्रमा मताः ॥१७॥ स्थावराज्य द्विचत्वारिशद्भेदा: सुरनारकाः । द्विघा पञ्चातिर्यञ्चश्चतुस्त्रित्माः स्मृताः ११८ ।।१५।। वाद ने कहे हैं ||८|| संसारी और मुक्त के सेव से जीव वो प्रकार के होते हैं। ज्ञानचर्य है कि अनन्त गुरणों के पात्र मुक्त जीव मेदों से रहित हैं ॥६॥ संसारी जीव भव्य और अभव्य के भेद से दो प्रकार के हैं श्रथवा त्रस और स्थावर के भेद से भी संसारी प्राणी दो प्रकार के हैं ।। १० । एकेन्द्रिय विकलेति संसारी जीव सोन प्रकार के हैं । देव, नारक, तिर्यञ्च और मनुष्य के मेव से चार प्रकार के हैं ।।११।। एकेन्द्रिय द्वोद्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय के मेद से पांच प्रकार के हैं। पृन्दो जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस के भेद से छह प्रकार के हैं ।। १२ ।। एकेद्रिय के बादर सूक्ष्म को अपेक्षा दो भेद, विकलत्रय के द्वीन्द्रिय श्रीन्द्रिय चतुरिनिय की अपेक्षा तीन भेद और पञ्चेन्द्रिय के संज्ञा प्रसंज्ञी को अपेक्षा दो मेद इस तरह संसारी जोन लाख प्रकार के हैं ||१३|| ये सात प्रकार के जीव पर्याप्तक और अपर्याप्तक के मेद से दो दो प्रकार होते हैं इसलिए दो से गुणित होने पर छोवह जीव समास होते हैं ।। १४ ।। पृथिवी, जल, अग्नि और वायु इन चार धातुओं के बाहर सूक्ष्म की अपेक्षा दो दो भेद होने से आठ भेद, साधारण वनस्पति में नित्य निगोद और इतर निगोद इन दो के वावर और सूक्ष्म की अपेक्षा दो वो भेब होने से चार भेद, विकलत्रय के तीन भेव, पञ्चेन्द्रिय के संज्ञी और सी की अपेक्षा दो भेद तथा प्रत्येक वनस्पति के प्रतिष्ठित और पप्रतिष्ठित की अपेक्षा दो भेद-सव मिलाकर संसारी जीव के उन्नीस भंद होते हैं । १५-१६। ये उनीस प्रकार के जीव पर्याप्तक, नित्य पर्याप्तक और लक्ध्यपर्याप्तक के भेद से पृथिवी पर तीन प्रकार के होते हैं उस में तीन का गुरगा करने पर सद जीव समास संतावन माने गये हैं । १७। स्थावरों के व्यानीस, मुक्तिमिनः स ग ० ३.पप्तिमित्यपर्याप्त पर्याप्तिः ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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