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• श्री पार्श्वनाथ चरित .
चतुर्वशः सर्गः नर्भस्थो वन्दितो योऽत्र तरो जन्मनि संस्तुतः । त्रिजगत्पतिभिर्भक्त्या सोऽस्तु मे मतिसिद्धये ॥१।। मथ काश्चित्कुमारं तं भषयन्ति शिभूषणः । स्नापयन्स्यपरा मण्डयन्ति मण्डनवस्तुभिः ।।२।। कोहयन्ति मुदा काश्विदेव्य: संस्कारयन्ति च । प्रीत्या काचित्गृह रणन्ति कराम्बुजः परस्परम् ।। सतोऽसो स्मितमातन्वन् संसर्परिणभूतले । मुदं पियोस्ततानात्यन्तं वाल्या सवेष्टया ।।४।। विजगज्जनतानन्दकरं मेत्रप्रियं परम् । कलोज्ज्वलं तदास्यासीचन्द्रादधिकशवम् ।।५।। चन्द्रिकामलमस्यास्येन्दो' मुग्धस्मिसज्जितम् । प्रभूत्ते न ममस्तोषाधिः पित्रोर्ववृषेतराम् ।।६।। रम्ये मुखाम्बुजेऽस्यासोकमान्मनमनभारती । विश्वानन्दकरा रम्या मधुरा कर्णशर्मदा ।।७।। स्सलरपदं सनै रत्ननभूमौ स संचरन् । नेपथ्यमण्डितो रेजे पुण्यभूतिरिवापरा ॥
चतुर्दश सर्ग ओ गर्भ में प्राने पर यहां तीन जगत के स्वामियों के द्वारा बन्वित हुए और अम्म होने पर भक्तिपूर्वक संस्तुत हुए वे पार्श्वनाथ भगवान हमारी बुद्धि की सिद्धि के लिये हों ॥१॥
प्रधानन्तर कोई देवियां उन कुमार को आभूषणों से विभूषित करती थी, कोई स्नान कराती थीं, कोई सजावट की वस्तुओं से सुसज्जित करती थीं ॥२॥ कोई हर्ष से खिलाती थी, कोई संस्कारित करती थों और कोई प्रीतिपूर्वक करकमलों के द्वारा परस्पर बहरण करती थीं ॥३।। तदनन्तर मन्द मन्द मुस्काते और मणिमय पृथिवी तल पर इधर उधर चलते हुए वे बाल्यावस्था को प्रद्भुत चेष्टाओं से माता पिता के हर्ष को प्रत्याधिक विस्तृत करने लगे ।।४।। उस समय तीनों जगत् की जनता को प्रानन्वित करने वाला, नयनवल्लभ और कलाओं से उज्ज्वल उनका शंशव, चन्द्रमा से भी अधिक उत्कृष्ट जान पड़ता था ।।५।। इनके मुखरूपी चन्द्रमा पर चांदनी के समान निर्मल जो उत्कृष्ट सुन्दर मुस्कान थी उससे माता पिता के हृदय सम्बन्धी संतोष का सागर प्रत्यन्त वृद्धि को प्राप्त हो रहा था ।६।। क्रम क्रम से उनके सुन्दर मुखकमल में सब जीवों को पानंद करने वाली, रमणीय, मधुर और कानों को सुखदायक तोतली बोली प्रकट हुई ॥७॥ आभूषणों से सुशोभित तथा रत्नखचित भूमि पर मरनड़ाते परों से धीरे धीरे चलते हुए वे ऐसे १ मुख चन्द्र ।
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