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________________ पतुर्वशम सर्ग. पमृताहारपानाचं वृषेऽवयवव्रजम् । मादस्म गुणैः साद्धं सेषितस्प सुराविमिः ॥६॥ बाल्यावस्थामतीरयाप कौमारलं क्रमाविभुः । कीतिकान्तिवयोज्ञानरूपाविमुणभूषितम् ॥१॥ मतिश्रुतावधिज्ञानान्येवास्य सहजान्यहो । तरबोषि स निःशेषं तस्वं विश्वं शुभाशुभम् ॥११॥ कलाविज्ञानभातुर्य श्रुतज्ञानं महामतिः । विश्वार्थावगमं तस्य स्वयं परिणति ययौ ॥१२॥ 'प्रसोऽखिलजनाना स शिक्षां दातु समोऽप्यभूत् । गुरुश्च नापरोऽत्रास्माद्गुरुवा पातु विश्वचित् ।११ घेतोऽस्यालंकृतं विश्वहितं क्षायिकदृष्टिना [दर्शनात् ] । निसर्गेणाभवदक्ष निर्मलं रागदूरणम् ॥१४॥ जगत्रयहिता पाणी समस्तार्थप्रदर्शिनी । निःसन्देहा विविक्तास्य बभूवाशु स्वभावतः ॥१५॥ निरोपम्यं वपुः कान्तं शाम्यकान्त्यादिभूषितम् । पूर्षाशुभियंभावस्येव पूर्ण पन्द्रमण्डलम् ॥१६॥ वर्षाष्टमे स्वयं देवस्त्रिज्ञानज्ञः स पञ्चषा । पाददेणुव्रतान्येव गुणशिक्षावतानि च ॥१७॥ सप्सधा स्वर्गाणि स्वयोग्यान्यपराशि च । निशुसमा निरतीबाराणि मागारषाप्तये ॥१८॥ सुशोभित हो रहे थे मानों दूसरी पुण्य की पूर्ति ही हों ।। रेव प्रावि के द्वारा सेवित इन जिनबालक के अवयवों का समूह अमृतमम पाहार पान प्रावि से गुणों के साथ साथ पति को प्राप्त हो रहा था ॥६॥ कम क्रम से प्रभु बाल्य अवस्था को व्यतीत कर नीति, कान्ति, बचम, भारतमा रूप प्रादि गुरषों से विभूषित कुमार अवस्था को प्राप्त हुए ॥१०॥ महो। मति, भुत पौर अवधि ये तीन शान इन्हें जन्म से ही थे । इन शानों के द्वारा ये समस्त शुभ अशुभ तत्वों को संपूर्णरूप से जानते थे ॥११॥ कला विज्ञान सम्बन्धी चतुराई, श्रुतज्ञान, महामतिमान और समस्त पदार्थों का ज्ञान उनके स्वयं हो परिपाक को प्राप्त हुमा पा ॥१२॥ यही कारण है कि ये समस्त जीवों को शिक्षा देने में समर्थ थे। इस जगत में इनसे अधिकोष्ठ समस्त पदार्थों को जानने वाला दूसरा गुरु कभी पा भी नहीं ॥१३॥ सब जीवों का हित करने वाला इनका चित्त क्षायिक सम्यग्दर्शन से अलंकृत था, स्वभाव से चतुर था, निर्मल था और राग से दूर रहने वाला था ॥१४॥ तीनों लोकों का हित करने वाली, समस्त पदार्थों को दिखाने वाली, सन्देह रहित और पवित्र वारयो इन्हें शीघ्र ही स्वभाव से प्राप्त हई थो ॥१५॥ अनुपम, सुन्दर तथा शान्ति पौर कान्ति प्रादि से विभूषित इनका शरीर शाभूषणों को कांति से पूर्ण चन्द्रमण्डल के समान सुशोभित हो रहा था ॥१६॥ तीन माग के ज्ञाता श्री पार्श्वनाथ देव ने पाठ वर्ष की अवस्था में स्वयं ही पांच प्रावत, गुणवत पौर शिक्षाबत के भेद से सात शोलवत तथा स्वर्ग प्राप्त कराने वाले अपने योग्य अन्य मिरतिचार व्रत गृहस्थ धर्म को प्राप्ति के लिये मन बचन काय की शुद्धता पूर्वक प्रहरण १. नतोऽसिल ग. ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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