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________________ १७० ] * श्री पार्श्वनाथ चरित * गजाश्वविक्रियापन्नैर्दिव्यैः सुरकुमारकैः । प्रारोहणादिभिः प्रीत्या कदाचिद्रमते विभुः ||१६| मयूरकी चहंसादिकृतवेषामरैः समम् । क्रोडेदसौ मुदान्येषु रूपनेपथ्यमण्डितः ।। २० ।। कदाचिद्रूपमादाय सुरास्तद्वयसा समम् । नानाजल वनक्रीड़ादा क्रीडयन्ति तम् ।। २१ ।। कदाचित्स्वं यशः शृण्वन् गन्धर्वैरुदितं महत् । स्वगुणोत्पन्नगीतानि किनारीणां च कर्हिचित् । २२ । ग्रन्यदाप्सरसां नृत्यं पश्यन्नेव सुखावहम् । कुर्वन् काव्यादिगोष्ठीं स लभते समंवान्वहम्।। २३ ।। इत्यादिविविधैः क्रीडाविनोदः स परं सुखम् । भजनाप क्रमाद्दिध्यं यौवनं श्रीजिनेश्वरः ।। २४ । इन्द्रनीलनिभं रम्यं स्वेदादिदूरगम् । नवहस्तसमुत्त ुङ्ग समतादिगुणाङ्किनम् ||२५|| दिव्यादिसमसंस्थानं वास्थिबन्धनम् । भूषाङ्गदीप्तिभिः कार्य यौवनेऽस्य व्यभात्तराम् । २६ नील शिरोरुहम् । शिरोऽस्य मरिणतेजोभिर्मेरोः शृङ्गमिवाभी|२७| निसर्गरुचिरेऽप्यभूत् । विभोः शोभा परा सर्वशुभानामिवाकराः ||२८| दिव्यमुकुटार्थ भूषितं पट्टे ऽतिविस्तीर किये ७-१६ कभी हाथी घोड़ा आदि की विक्रिया को प्राप्त विम्य देवकुमारों के साथ प्रारोहण आदि के द्वारा प्रीतिपूर्वक क्रीडा करते थे । भावार्थ - देव कुमार कभी विक्रिया से हाथी घोड़ा प्रावि का रूप रखते थे और पार्श्व प्रभु उन पर चढ़ कर कोड़ा करते थे ||१६|| वे पार्श्वनाथ, किसी अन्य समय रूप तथा वेषभूषा से सुशोभित मयूर, कोच और हंस श्रादि का वेष धारण करने वाले देवों के साथ हर्वपूर्वक छोड़ा करते ये ||२०|| कभी वेब उनकी अवस्था के समान रूप रखकर नाना प्रकार की जल क्रोडा तथा वन क्रीडा प्रावि के द्वारा उन्हें क्रीडा कराते थे ।। २१ ।। कभी गन्धवों के द्वारा गाये हुए अपने महान यश को सुनते थे तो कभी अपने गुणों से उत्पन्न किनरियों के गीत श्रवरण करते थे। किसी समय अप्सराधों का सुखोत्पादक नृत्य देखते थे और कभी काव्याविक की गोष्ठी करते थे । यह सब करते हुए वे प्रतिदिन सुख को प्राप्त हो रहे थे ।।२२-२३। इत्यादि नाना प्रकार के क्रीडा- विनोदों से परम सुख को प्राप्त होते हुए वे जिनेन्द्र क्रम क्रम से दिव्य यौवन को प्राप्त हुए ||२४|| यौवन के समय जो इन्द्रनीलमणि के समान था, मनोहर था, मल तथा पसीना धादि से दूर था, नौ हाथ ऊंचा था, समता आदि गुणों से सहित था, समचतुरस्र संस्थान से युक्त था, और वज्रवृषभनाराच संहनन का धारक या ऐसा उनका शरीर प्राभूषण तथा शरीर की कान्ति से अत्यधिक सुशोभित हो रहा था ।। २५-२६ ।। दिव्यमाला और मुकुट प्रावि से विभूषित तथा नील केशों से युक्त इनका शिर मणियों के तेज से मेरु पर्वत के शिखर के समान सुशोभित होने लगा ||२७|| प्रत्यन्त विस्तृत और स्वभाव से सुन्दर १. हस्तमं तु ० २. मिवाकरा ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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