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• चतुर्वशम सर्ग .
[ ११ जगन्ने त्रस्य देवस्य सुदीर्घ नयनोत्पले । धेजतुर्विभ्रमा मदनराज्ञः शराविव ॥२६॥ मणिकुण्डलभूषाम्यां प्रभोः कणों रराजतुः । सेवतावित चन्द्रार्काम्या सुगीतादिपारगौ ॥३०॥ मुखेन्दोः किं पृथक् शोभा वय॑तेऽस्य तरां यदि । जगद्धितोध्वनिरस्मानिःसरत्यमृताधिकः ॥३१।। स्मिताशु सुन्दरं तस्य मुखमापाटलाधरम् । चन्द्रमाण्डलमानित्य नभी दन्ताविशिषिः । ३२। रेजेऽस्य नासिका तुझा 'ह्यायता विधिना परा । मुखामोदं समाधातु कल्पितेव 'प्रणालिका ।३३। मणिहारेण बक्षोऽम्य विस्तीर्ण रुचिरं ब्यभात् । वीरविद्याधियो रम्यं क्रीडास्थलमिवोजितम् । ३४० केयूरकटकायंभूषिती वाहू दधे जिनः । कल्पद्रुमाधिवाभीष्टप्रयो गजकरोपमो ॥शा जिनस्याङ्ग लयो भान्ति मुद्रिकानस्वरश्मिभिः । उन्नतान्दश सद्धर्मान् व्यक्तीक मिवोचताः॥३६॥ मध्येऽसौ दिव्यदेहस्य गम्भीरी नाभिमादधौ । सरसीमिव साता लक्ष्मीहंसीनिषेविताम् ॥३७॥ मेखलांशुकभूषाचे रेजे तस्य कटीतटम् । अलप मदनारेरिस प्रायभूमुजो पहम् ॥३॥ प्रभु के ललाट तट पर भी समस्त शुभ परमाणुषों की खान के समान परम शोभा विधमान भो ॥२८॥ जगत के नेत्र स्वरूप पावदेव के प्रत्यन्त विशाल नेत्र अपने विभ्रम-हाव भाव विलास प्रावि के द्वारा कामभूपाल के बाणोंके समान सुशोभित हो रहे थे ॥२६॥ सुन्दर गीत प्रादि के पारगामी प्रभु के काम मणिमय कुण्डलों से ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानों चन्द्र पौर सूर्य के द्वारा सेवित ही हो रहे हों ॥३०॥ इनके मुखरूपी चन्द्रमा की शोभा का पृथक् पया वर्णन किया जाये जबकि उससे जगहितकारी और प्रमृत से भी अधिक विम्यध्वनि निकलेगीप्रकट होगी।३१॥ मन्द मुसकान से सुन्दर और गुलाबी पोठ से सहित उनका मुख संतों पारि की किरणों से घर मण्डल को जीत कर सुशोभित हो रहा था।३२॥ इनकी ऊंची और लम्बी नाक ऐसो सुशोभित हो रही थी मानों मुख को सुगन्ध को सूधने के लिये विधाता के द्वारा बनाई हुई नाली ही हो ॥३३॥ इनका चौड़ा और सुन्दर वक्षःस्थल मणियों के हार से ऐसा सुशोभित हो रहा था मानों वोर विद्यारूप लक्ष्मी का मनोहर तथा उत्कृष्ट कीगस्थल हो हो ।॥३४॥ पार्व जिनेन्द्र बाजूबन्द तथा बलय प्रादि से विभूषित और हाथी की संड की उपमा से सहित जिन भुजानों को धारण कर रहे थे वे ऐसी जान पड़ती थीं मानों प्रभोष्ट फल को आने वाले कल्पवृक्ष ही हों ॥३५॥ जिनेन्द्र भगवान को अंगुलियां अंगूठी तथा नखों की किरणों से ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानों उत्तम क्षमा प्रादि वंश भेष्ठ धर्मों को प्रकट करने के लिये ही उद्यत हो रही हों ॥३६॥ वे भगवान् सुन्दर शरीर के मध्य में भवर से सहित तथा लक्ष्मीरूपी हंसी से सेवित सरसी के समान गहरी नाभि को धारण कर रहे थे ॥३७॥ मेखला, वस्त्र तथा प्राभूषण मावि के द्वारा उनकी कमर ऐसी
१. सूतादिपारमःस. २. हापितास, ग. ३. प्रनालिका स.ग.।