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________________ त्रयोविंशतितम सर्ग. [ 315 टीकाकर्तृ प्रशस्तिः गल्लीलालतनूजेन जानक्युदरसंभुवा / पन्नालालेन बालेन सागरप्रामवासिना // 1 // श्रीश्रुतसागराभिल्यमुनीन्द्रस्य महामतेः / समासाद्य समावेशं भव्यकल्याणकारकम् // 2 // पारवंमाथचरित्रस्य रचित्तस्य महाधिया। __ भट्टारकपदास्य न जिनधर्मप्रभाविणा // 3 // सकलकोराचार्येण टोकंषा रचिता शुभा। सार्धतिकसहस्राब्बे सुगते वीरनिवृतेः // 4 // वंशाखकृष्णपक्षस्य प्रतिपत्सत्तिथी रवेः / ___ वासरेापराह च पूर्णषा भुवि वतंताम् // 5 // मोवाय भव्यजीवानां यावश्चन्द्रदिवाकरम् / / शोधयन्तु बुधा एतां स्वधियामलयोन्मलाम् // 6 // प्रज्ञानावा प्रमादाद्वा स्खलितं यत्पदे पदे। क्षमच विबुधास्तन्मे जानवारिधिसनिभाः // 7 // येन कर्माष्टकं घग्धं शुक्लध्यानानलेन / श्रीमान् पाश्र्वजिनेन्द्रोऽसौ पातु मां भववारिधेः / / श्री श्रुतसागराभिल्यो मुनीन्द्रो महितोऽमरः / सधर्मवत्सलो नित्यं पातु मां गृहकर्दमात् // 6 //
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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