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* श्री पार्श्वनाथ चरित *
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स्वत्तः प्रबोधमासाच भव्या यास्यन्ति निर्वृतिम् । हनिष्यन्ति व्यधाराति मोहशत्रुच केचन ।।४।। उद्गतस्त्वं जिनेशात्र प्रमोदं कर्तुमद्भ तम् । इन्तु मोहतमो दर्शयितु सन्मार्गमञ्जमा ।।४।। त्वयि प्रणयमाषत्त मुक्तिषी: स्वयमुत्सुका । स्वविवाहाय यास्यन्त्युत्कृष्टता निखिला गुणाः ४२ नमस्तुभ्यं जिनेन्द्राय नमस्ते गुणसिन्धवे । नमस्तेऽचिन्त्यमाहात्म्याय ते भव्याजभानवे ।४३। इति स्तुत्वा तमारोप्य स स्वार देवनायकः । करमुच्चालयामास मेरुप्रस्थानसंभ्रमी ।।४४।। मादिकल्पेशिनोऽप्यनुमध्यासीनं जगद्गुरुम् । भेजे सितातपत्रेणशानेन्द्रोऽपि तवा स्वयम् ।।४।। सनत्कुमारमाहेन्द्रस्वामिनी जिनपुङ्गवम् । चामरैस्तं ध्यधुन्वातां क्षीराब्धिीचिसन्निभैः ।४६। अयेश नन्द वर्चस्व भव लोकत्रयाधिपः । इत्युच्चः सद्गिरो देवाश्चक्रुः कोलाहलं तदा १४७। खमुत्पेतुस्ततः शकाः प्रोच्चरज्जयघोषणा: । तन्वन्त: सुरचापानि स्ववपुर्भूषणांशुभिः ।।४।। केवलज्ञान रूपी सूर्य के लिये उदयाचल होप्रोगे । तुम अकारण जगत् के बन्धु हो तथा सबका हित करने वाले हो ॥३६॥ प्रापसे प्रबोध को पाकर भव्यजीव निर्वाण को प्राप्त होंगे और कितने ही भव्यजीव नाना प्रकार के पापरूपी शत्रु तथा मोहरूपी वैरी को नष्ट करेंगे ॥४०॥हे जिनेन्द्र ! तुम यहां अद्भुत हर्ष को करने, मोह तिमिर को हरने और सन्मार्ग को अच्छी तरह दिखाने के लिये उत्पन्न हुए हो ॥४१॥ मुक्तिरूपी लक्ष्मी प्रपने विवाह के लिये स्वयं उत्कण्ठित होकर प्राप में स्नेह को धारण कर रही है तथा समस्त गुण प्रापमें उत्कृष्टता को प्राप्त होंगे ॥४२॥ श्राप जिनेन्द्र के लिये नमस्कार हो । गुणों के सागरस्वरूप प्रापके लिये नमस्कार हो । अचिन्त्य महिमा से युक्त आपके लिये नमस्कार हो और भव्यजीव रूप कमलों को विकसित करने के लिये सूर्यस्वरूप आपके लिये नमस्कार हो ॥४३॥
इस प्रकार स्तुति कर इन्द्र ने जिनबालक को अपनी गोद में लिया और मेरु पर्वत के लिये प्रस्थान करने की शीघ्रता करते हुए उसने अपना हाथ ऊपर की ओर चलाया ॥४४॥ उस समय सौधर्मेन्द्र की गोद में स्थित अगद्गुरु जिनबालक के ऊपर सफेद छत्र लगा कर ऐशानेन्द्र भी स्वयं उनकी सेवा कर रहा था ।४५। सनत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग के इन्द्र क्षीरसागर की लहरों के समान चामरों के द्वारा जिनेन्द्र बालक को कम्पित कर रहे ये अर्थात् उन पर सफेद चामर ढोर रहे थे ॥४६॥ हे ईश ! अयवंत होमो, समृद्धिमान होमो, वृद्धि को प्राप्त होओ, और तीनलोक के स्वामी होमो-इस प्रकार उच्चस्थर से उत्तम वचन कहने वाले देव उस समय कोलाहल कर रहे थे।॥४७॥ तदनन्तर जो उच्चस्बर से जयजयकार कर रहे थे, तथा अपने शरीर और आभूषणों को फिरणों १. मोशम् २ विविध पापात्रुम ३. एष श्लोक; मा प्रतौ नास्ति ।