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* त्रयोदशम सर्ग *
[ १६१ विश्वसेनः समुद्भिन्नपुलकं गात्रमुहन् ।विस्फारित सनेत्राम्या पोमा सन् दन नम्॥४७॥ मायानिद्रा निराकृत्य शच्या देवी प्रबोधिता । समं स्वपरिवारेणैक्षिष्ट हृष्टा अगरपतिम् ॥४८॥ तेजःपूजमिवोमूतं शुभाणूनां चयं विषा । परब्रह्मस्वरूपं वा साक्षात्प्रत्यक्षमागतम् । ४६।। साई शमादिकल्पेशं तावद्राष्टां जगत्पते: । पितरौ निसरां प्रीतो परिपूर्णमनोरथी ।।५।। ततस्तौ त्रिजगस्पूज्या पूजयामास देवराट् । महाप्रविचित्रश्च भूषण: सम्भिरंसुकैः ॥५॥ प्रोत्या नो प्रशशंसेति सौधर्मेन्द्रः सहामरैः । पुण्ययन्तौ युवां धन्यौ ययोः पुत्रो जगद्गुरुः ।।५२॥ सौभाग्यम्य पर कोटिं युवां प्राप्नो जगदितो । विश्वग्रण्यौ युवां लोके युधौ कल्याणभागिनी।। ५३॥ पूज्यो स्तुत्यो सतां मान्यौ युवा लोकत्रयेऽद्भुतो । युक्योर्न तुला लोके पितरी त्रिजगत्पितुः ।।४।। जिनागारमियागारमिदमाराध्यमद्य नः । सेव्यो चाच्यों यतोऽस्मद्गुरीगुरूपमिणो युवाम् ।५५॥ इत्यभिष्टुन्य सौ सूनुमर्पयित्वा स तत्करे । शक: प्रोतःक्षणं तस्थौ कुर्यस्तत्तीर्थकृस्कयाम् ॥५६।। गृहागरण में सुवर्णमय सिंहासन पर जिनेन्द्र देव को बैठा दिया ॥४६॥ रोमाञ्चित शरीर को धारण करने वाले राजा विश्वसेन ने विस्तृत नेत्रों द्वारा प्रीतिपूर्वक उस पुत्र को देखा ॥४७॥ मायामयी निद्रा को दूर कर इन्द्राणी के द्वारा जगाई हुई बाह्मी देवी ने भी हर्ष विभोर होकर अपने परिवार के साथ जगत्पत्ति-जिनेन्द्र को देखा ॥४८॥ उस समय जगस्पति-जिनेन्द्र, कान्ति से ऐसे जान पड़ते थे . मानों तेज का पुञ्ज हो प्रकट हुमा है, अथवा सुभ परमाणुत्रों का पिण्ड है अथवा प्रत्यक्ष माया हुमा परब्रह्म का स्वरूप हो है ।।४।। चिने के माता पिता ने जिमेल के साथ इन्द्राणी तथा सौधर्मेन्द्र को भी देखा जिससे वे प्रत्यन्त प्रसन और परिपूर्ण मनोरय हो गये अर्थात् उनके मनोरथ पूर्ण हो गये ॥५०॥ सामन्तर सममेंद्र ने तीन जगद के द्वारा पूज्य उन माता पिता को महामूल्यवान विचित्र मालपणों, मालामों और वस्त्रों से पूजा की ॥५१॥ सौधर्मेन्द्र ने देवों के साथ प्रीसिपूर्वक उनको इस प्रकार प्रशंसा की-पाप बोनों महान पुण्यवान् तथा धन्यभाग हैं जिनके कि जगदगुरु पुत्ररूप से प्रवतीर्ण हुए हैं ।।५२।। प्राप दोनों सौभाग्य की परम कोटि को प्राप्त हए हैं, जगत् हितकारी हैं, लोक में सबके अग्रणी हैं, विद्वान है, कल्याण के भागी हैं, पूज्य है, स्तुत्य है, सत्पुरुषों के मान्य हैं, और तीनों लोकों में पद्धत हैं । लोक में प्राप दोनों की उपमा नहीं है क्योंकि आप त्रिलोकीनाथ के माता पिता है । यह घर माज हम लोगों को जिनमन्दिर के समान पूज्य हो गया है। धर्म से युक्त प्राप दोनों हम लोगों के सेवनीय तथा पूजनीय है क्योंकि प्राप हमारे गुर के गुरु-माता पिता है।५३-५५। इस प्रकार माता-पिता की स्तुति कर तथाउनके हाथ में पुत्र को समर्पित कर प्रीति से भरा हुमा इन्द्र क्षण भर खड़ा
१. तो प्रनाष्टाम् इतिच्छेदः ।