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________________ १६२ ] • श्री पारवनाथ चरित है कृत्स्नमिन्द्रोवितं श्रुत्वा मेरो जन्ममहोत्सवम् । प्रमोदविस्मयादेस्तो परां कोटि समाश्रितो ।५।। भूयः सकानया भूत्या जातकर्ममहोत्सबम् । कुरुतस्तो समं पोरबन्धुभिः समहोत्सवः ॥५८।। नानापर्णध्वजैदिव्यतोरण रचनाकितैः । महोत्सर्जनाचक्र : स्वःपुरी वा तवा पुरीम् ।।६।। भूपामोदिशो सेवाः पटवासैस्ततं नमः । गीतमङ्गलवायाचदिक्वक बधिरीकृतम् ॥६०।। पुरीबीध्यस्ता भान्ति रत्नघूर्णजस्वस्तिकः । धन्यनद्रवससिक्ता स्व:पुर्ण इव वीषयः ॥६॥ तदुस्समेऽसिमः पौरो गोतवाचंच नर्तन: । मङ्गले राजलोकोऽभूत्सुप्रीत्यानन्दनिर्भरः ॥६२।। पादौ हि परया भूस्या जातकर्ममहोत्सवे । मिनागारे जिने शानो विश्वकल्याण वृद्धये ॥६३।। परमोत्सवमाचक निश्वसेनादयो जनाः ।महाभिषेक पूजाः सर्वाम्युदयसाधनम् ॥६४।। दीनानाथाङ्गिपविम्यो दयो बानाम्यनेकशः । स्वजने म्यो यथायोग्यं वस्त्रभूषादि भूपतिः ।।६।। म सदा दृश्यते कोऽपि दीनो वा 'दुबिधो जनः । कृपणो वाष्पपूर्णाक्षो निःप्रमोदोऽप्यकौतुकः।।६६।। रहा और उन्हीं तीर्थकर की कथा करता रहा ॥५६॥ इन्द्र के द्वारा कथित, मेरु पर्वत पर होने वाले समस्त जन्म महोत्सव को सुनकर माता पिता हर्ष तथा प्राश्चर्य प्रावि की परम कोटि को प्राप्त हुए ॥७॥ तवनम्तर इन्द्र को माता से उन्होंने महोत्सव से परिपूर्ण नागरिक जनों तथा बन्धु वर्ग के साथ बंभव के अनुसार जम्ममहोत्सव किया ॥५८॥ उस समय लोगों ने रङ्ग विरङ्गी बजामों, नाना रचनामों से युक्त विष्य तोरणों तथा अन्य महोत्सवों से अपनी नगरी को स्वर्गपुरी के समान बना दिया था ।।५६॥ धूप की सुगन्ध से विशाए रुक गई सुगन्धित पूर्णो से आकाश व्याप्त हो गया और गीत तथा मङ्गल बाजे प्रादि से दिशात्रों का समूह बहिरा हो गया ॥६॥ उस समय रत्न यूरणं से निर्मित स्वस्तिकों से नगर को गलियां पन्दन के प्रप से सींची गई स्वर्गपुरी की गलियों के समान सुशोभित हो रहीं थीं ॥५१॥ उस उत्सव में समस्त नागरिक लोग, गायन वादन नृत्य तथा अन्य मङ्गलाचारों से उत्तम प्रीति तपा मामय से परिपूर्ण राज परिवार हो गये थे प्रर्याद जैसा उत्सव राज परिवार में किया जा रहा था बंसा ही उत्सव समस्त नागरिक लोग कर रहे थे ॥६२।। जातकर्म के महोत्सव में राजा विश्वसेन प्रावि जनों ने सबसे पहले जिन मन्दिर में समस्त कल्यारणों की वृद्धि के लिये परम विभूति के साथ जिन प्रतिमानों के महाभिषेक सभा पूजा मावि के द्वारा सब अभ्युदयों का साधनभूत परम उत्सव किया था ॥६३-६४।। राजा ने दोन प्रनाथ जनों तथा स्तुति पाठकों को अनेक बार दान दिया और प्रात्मीय जनों को यथायोग्य वस्त्राभूषणावि दिये ॥६५।। उस समय कोई ऐसा मनुष्य नहीं दिखाई । परिनः २. पश्रुपूर्णनेत्रः।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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