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________________ १५० ] * श्री पार्श्वनाथ चरित है तदापूर्य नभोऽशेषं देवदुन्दुभयोऽध्वनन् । समन्तादप्सरोभिः प्रारेभे मृत्यं मनोहरम् ।।७।। कालागर्वादिसद्ध पमहान धूमस्तदोदगात् । पुण्यार्था बहवः क्षिप्ताः शान्तिपुष्टयाद्यकाङ क्षिमिः। सोचमोऽधादिकल्पेशो विभोः प्रथममज्जने । प्रस्तावनाविधिकृत्वा कलशोद्धारमादधे ।।१।। प्राददे कलशं हैममैशानेन्द्रोऽपि धर्मधीः । चचितं चन्दनाद्यैः सत्कलशोद्धारमन्त्रवित् ।।२।। शेषः कल्पाधिपभैजे परिचारकता मुदा । जयनन्दादिघोषोपर्यथोक्तपरिचर्यया ॥३॥ देव्यः साप्सरसः सर्वाः शच्यादिकाः परिचारिकाः । बभूवुः परिचारिण्यो मङ्गलद्रव्यपारणयः ।।१४।। पूतं स्वायंभुवं देहं स्प्रष्टु दुग्धाच्छशोणितम् । योग्यं नान्यज्जलं ह्यस्ति विना क्षीराब्धिवारिणा। मत्वेति स्नानसंसिदयं प्रभोर्नाकाधिपैदा । स्नानीय कल्पितं नूनमम्भः 'पञ्चमवारिधेः १८६। तत: श्रेणीकृता देवा पानेतु प्रसृताः पयः 1 शातकुम्भमयः कुम्भः शुचि-क्षीराम्बुधे मुंदा ।८७ तदा तेषां किसान्योन्यकराग्रस्थ लाभृतः । कलशानशे व्योम दिव्यः, सान्च्यरिवाम्बुदः।८८ साथ अभिषेक करने के लिये उद्यत हुआ ॥७॥ उस समय वेवों के नगाड़े समस्त प्रकाश को व्याप्त कर शव कर रहे थे और अप्सराओं द्वारा सब ओर मनोहर नृत्य प्रारम्भ किया गया ।।७६।। उस समय कृष्णागुरु प्रादि की उत्तम घूप से बहुत भारी धुवां उठ रहा था उससे ऐसा जान पड़ता था मानों शान्ति तथा पुष्टि प्रावि की इच्छा करने वाले वेवों ने पुण्य के लिये बहुत सी पताकाए ही फहराई हों ।।१०।। तदनन्तर भगवान के प्रथम अभिबेक में तत्पर सौधर्मेन्द्र ने प्रारम्भिक विधि कर कलश उठाया ।।८।। धर्मबुद्धि मोर कलश रामे के उत्तम मन्त्रों को जानने वाले ऐशानेन्द्र ने भी चन्दनादि से चश्चित सुवर्णकलश उठाया ।।२।। शेष इन्द्रों ने जय नन्द आदि घोषणामों के समूहों तथा पयोक्त परिचर्या द्वारा हर्षपूर्वक परिचारकपना प्राप्त किया अर्थात् शेष इन्द्र, सौधर्म और ऐशानेन्द्र की पासामुसार कार्य सम्पन्न कर रहे थे ।।८३॥ जो चारों प्रोर घूम रही थी तथा हाथों में मङ्गल तव्य लिये हुए थीं ऐसी अप्सराओं सहित इन्द्राणी प्रादि समस्त वेवियां परिचारिकाएं बब पई थी अर्थात् अभिषेक के कार्य में सहायता कर रही थीं ॥४॥ दूध के समान शुक्ल रुधिर से युक्त भगवान के पवित्र शरीर को छूने के लिये क्षीरसागर के जल के बिना अन्य जल योग्य नहीं है ऐसा मान कर इन्द्रों ने भगवान के प्रभिबेक लिये पञ्चमसागर-क्षीरसागर का जल ही स्नान के योग्य निश्चित किया ॥८५८६॥ तदनन्तर पंक्तिबद्ध देव, सुवर्णमय कलशों द्वारा क्षीरसागर का पवित्र जल लाने के लिये हर्षपूर्वक चल पड़े ।।७।। उस समय उनके परस्पर हाथों के अग्रभाग में स्थित जल से भरे हुए दिव्य कलशों से प्राकाश ऐसा व्याप्त हो गया जैसे सन्ध्या के बादलों से ही १. बोरसमुद्रस्थ २. मुवर्णमयः ३. ए२ श्लोकः ७० प्रती नास्ति ४. अलेन प्राभृताः ते ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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