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________________ • प्रयोविशतितम सर्ग . [ २९. प्रयोविंशतितमः सर्गः 'प्रसंस्पसुरसंसेव्यं चतुःसंघविभूषितम् । जिनेन्द्रं शिरसा वन्दे बगरसम्बोधनोधतम् ।।१।। अप्सरःसु मटन्तीषु विविघं नर्तन परम् । तदग्रेऽतिमनोहारिहावभावलयादिभिः ॥२॥ किनरीषु सुगायन्तीषु सुकण्ठीषु लसत्स्वनम् । तज्जयोद्भवगीतानि मनोज्ञानि शुभान्यपि ।।३।। मिष्यामोहादिशक्षा पर विजये १२ । गध महादुन्दुभिषु घनत्सु निर्भरम् ॥४।। वेष्टितो नाकिनाघेश्चतुःसंघच अमराट् । कुर्वन धर्ममयी तृष्टि दिव्यध्वनिसुधारसैः ॥५।। प्रौणयन्भम्यसस्यादीन्' स्वमुक्तिफलकारिणः । प्रार्यखण्डं शुभाकोण विजहार जिनाग्रणीः ।।६॥ मिप्याज्ञानतमोराशि विघटग्य वचोंऽशुभिः । जिनेनो द्योतयामास मोक्षमार्ग गतभ्रमम् ।।७।। तत्वोऽमृतमास्थाच दाहं मोहालकामजम् । हत्यापुः परमं सोख्यं स्वात्मजं बहवो बुधाः ।।८।। प्रयोविंशतितम सर्ग जो पसंख्य देवों के द्वारा सम्यक् प्रकार से सेवनीय थे, जो पतुर्विध संघ से विभूषित थे तथा जगत् को सम्बोषित करने के लिये उद्यत थे ऐसे धी पार्वजिनेन्न को शिर से नमस्कार करता हूँ ॥१॥ का अप्सराये भगवान के प्रागे अत्यन्त मनोहर हावभाव और लय प्रादि के नारा नाना प्रकार का उत्कृष्ट नृत्य कर रही थीं ॥२॥ जब कलकण्ठी किन्तरियां मधुर स्वर से उनके मनोहर तथा शुभ विजय गीत गा रहीं थीं ।।३।। जब गन्धर्व देव मिथ्यामोह पादि रामुमों को जीत लेने का उत्कृष्ट पाठ पढ़ रहे थे और बड़े बड़े दुन्दुभि बाजे जब अत्यधिक शम्य कर रहे ये सब इन्द्रों के समूहों और चतुर्विध संघों से वेष्टित भगवान जिनेन्द्र दिव्यम्वनिस्पी अमृत रस के द्वारा धर्मवृष्टि करते हुए तथा स्वर्ग और मोक्षरूपी फल को उत्पन्न करने वाले भव्यतीवरूपी पान को संतुष्ट करते हुए शुभ प्रायखण्ड में विहार कर रहे थे ॥४-५॥ जिनरामरूपी सूर्य ने विध्यध्वनि रूपो किरणों के द्वारा मिथ्याज्ञानरूपी अन्धकार की राशि को विघटित कर भ्रम रहित मोक्षमार्ग को प्रकाशित किया था ॥७॥ उमके वचन कमी अमृत का मास्वाद कर प्रमेक विद्वज्जनों ने मोह इन्द्रिय तथा काम से उत्पन्न वाह को नष्ट किया था और उसके फलस्वरूप स्वात्मोत्थ परमसुख को प्राप्त किया था ॥॥ मुरासुरसंचन २. सत्त्वाचीन ३० । - - -
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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