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* दशम सर्ग ,
[ १२१ समसुप्रविभक्ताङ्गमित्यस्या वपुरद्भुतम् । स्त्रीसगस्य प्रतिच्छन्दभावेनेब व्यधाद्विधिः ।।१।। सा' खनी नररत्नानां गुणानामाकामा परा । पतनी ध्रुतानी ना संपद' ला महानिधिः ।।६२।। सौभाग्यस्य परा कोटि: सौरूप्यस्योत्तमाकरा । सौहार्दस्य महाप्रीतिः सौजन्यस्य परा स्थितिः ।६३।। कलाविज्ञानचातुविवेकानां च भारती । राशिर्वा यशसां सासी सतीत्वस्य परा धृतिः ।।६४।। रूपलावण्यसंपत्त्या जनानन्दविधायिनी ।सा बभी नितरां लोके परा लक्ष्मीरिवोज्जिता ॥६॥ किमत्र बहुनोक्त न स्युर्यानि लक्षणान्यपि । स्त्रीणां तानि समस्तानि श्रेष्ठान्यस्या भवन्त्यहो ६६ पुसां संजायते रागः शृङ्गाररसवर्णनेः । ततोऽतिरिणतोऽस्माभिर्न सवैराग्यमानसः ।।६७।। प्रेयसी साभवद्भतु : प्रारणेभ्योऽतिगरीयसी । इन्द्राणीव सुरेशस्य परप्रणयभूमिका ।।६।। सुखसन्तानवृद्धयर्थ दम्पतो तो मनोहरी । भोगकोडा प्रकुर्वन्तौ मग्नौ स्तः शर्मवारिधौ ।।६।। अथ संक्रन्दन: प्राह धनदं प्रति धर्मधीः । पानतेन्द्रस्य विज्ञाय शेषषण्मासजीवितम् ।।७।। करने के लिये उत्सुक ही हो ॥६०। जिसके समस्त प्रङ्ग समानरूप से अच्छी तरह विभक्त हैं ऐसा उसका आश्चर्यकारक शरीर ऐसा जान पड़ता था मानों विधाता ने स्त्रीसृष्टि का प्रतिबिम्ब रखने के अभिप्राय से ही उसकी रचना को थी ।।६।।
__ यह नररूपी रत्नों की खान थी, गुणों की उत्कृष्ट खदान थी, सरस्वती देवी के समान पवित्र करने वाली थी अथवा संपदानों की बड़ी भारी निधि थी ॥६२।। सौभाग्य की चरम अवधि थी, सौन्दर्य की उत्तम खान थी, सौहार्द की महाप्रीति थी, सौजन्य की उत्कृष्ट स्थिति थी, कला विज्ञान चातुर्य और विवेक की सरस्वती थी, यज्ञ की राशि थी और सतीत्व की उत्कृष्ट प्राधार थी ॥६३-६४॥ रूप तथा सौन्दर्यरूपी सम्पत्ति के द्वारा मनुष्यों के प्रानन्द को उत्पन्न करने वाली वह ब्राह्मी लोक में उत्कृष्ट तथा प्रबल लक्ष्मी के समान अत्यधिक सुशोभित हो रही थी ॥६५॥ अहो ! यहां बहुत कहने से क्या लाभ है ? स्त्रियों के जो भी श्रेष्ठ लक्षण हैं वे सभी इसके विद्यमान थे ॥६६॥ क्योंकि शृङ्गार रस के वर्णन से पुरुषों को राग उत्पन्न होता है इसलिये वैराग्य सहित चित्त को धारण करने वाले हमने उसका अधिक वर्णन नहीं किया है ॥६७॥ उत्कृष्ट स्नेह की भूमि स्वरूप बह रानी इन्द्र को इन्द्राणी के समान पति के लिये प्रारणों से भी अधिक प्रिय यो ॥६८।। सुख सन्तति की वृद्धि के लिये भोग क्रीडा करते हुए वे मनोहर दम्पति सुखसागर में निमग्न रहते थे ॥६६॥
अथानन्तर धर्म में बुद्धि रखने वाले इन्द्र ने, 'प्रानतेन्द्र को प्रायु छह माह शेष रही हैं' ऐसा जानकर कुबेर से कहा ॥७०।। हे धनद ! त्रिलोकीनाथ पाश्वनाथ तीर्थकर मुक्ति १. मा व नीद मुगलानां क० २. इन्द्रः ।