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________________ १२० ] *श्री पार्श्वनाथ चरित मखेन्दुरश्मिभिवाह मृदू तस्या विरेजतुः । 'भूषाकल्पामशाखे वा मरिणनेपथ्यदीप्तिभिः ।।५२।। सुस्वरं कोमलं कण्ठं सा दधे रत्नभूषितम् । पुत्रगीतादिसंसक्त सरस्वत्या गृहोपमम् ॥५३॥ कान्तितेजोभिराभाति मुखमस्या मनोहरम् । दन्तादिज्योत्स्नया दीप्तं पूर्ण वा शशिमण्डलम्। ५४। कपोलावलकानस्या दधतुः प्रतिबिम्बितान् । स्वकान्तिसंचये यद्वर्पणी च मुखादिककान् ।। ५५।। तस्या नासानमव्यग्रं तन्मुखानं स्थितं बम । 'आस्थामादामवाधातु सनि:स्वसितमुत्थितम् १५६।। तस्या नेत्रोत्पले भातः पुत्ररूपविलोकने । लोलुपे तारके बा सविभ्रमेऽनङ्गदीपके ॥५७।। कर्णाभरणाविन्यासः करणों तस्या रराजतु: । सरस्वत्या इवास्थानी जिनवाधवरणोत्सुको ।।८।। अष्टमीचन्द्रसादृश्यमस्या भालं तरां व्यधात् । मण्डनानादिरश्म्योधैर्दपैराश्रीविडम्बकम् ॥५६।। उत्तमाङ्ग बभौ तस्याः कचभारेण सुन्दरम् । पुष्पस्रग्भूषणायश्च जिनादौ नमनोत्सुकम् ।।६।। से सहित अपने राजा का क्रोडाचल ही हो ॥५१॥ उसको कोमल भुजाएं नखरूपी चन्द्रमा की किरणों से ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानों मरिणमय प्राभूषणों की कान्ति से युक्त भूषणाङ्ग कल्पवृक्ष की शाखाएं ही हों ॥५२॥ वह सुन्दर स्वर और रत्नों से विभूषित जिस कोमल फण्ठ को धारण करती थी वह पुत्रों के गीतादि से सहित सरस्वती के गृह के समान जान पड़ता था ॥५३।। दन्त आदि की किरणों से देदीप्यमान उसका मनोहर मुख, कान्ति और तेज से पूर्ण चन्द्र बिम्ब के समान सुशोभित हो रहा था ॥५४॥ जिस प्रकार दर्पण अपने कान्तिकलाप में प्रतिबिम्बित मुख प्रादि को धारण करते हैं उसी प्रकार उसके कपोल अपने कान्तिकलाप में प्रतिबिम्बित अलकों-केशों के अग्रभाग को धारण करते थे ॥५.५।। उसके मुखाग्रभाग में स्थित उसका निराकुल नासिका का अग्रभाग ऐसा सुशोभित हो रहा था मानों उत्तम श्यासोच्छ्वास से सहित मुख को सुगन्ध को सू घने के लिये ही उद्यत हुआ हो ॥५६॥ हाय भाव से सहित तथा काम को उत्तेजित करने वाले उसके नेत्रोत्पल ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानों पुत्र का रूप देखने के लिये सतृष्ण नेत्रों की कनीनिकाए पुतलियां ही हों ।।५७।। करालंकारों के विन्यास से उसके कान ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानों जिनेन्द्र भगवान के वचन सुनने के लिये उत्सुक सरस्वती के प्रास्थान-सभामण्डप ही हों ।।५।। प्राभूषण तथा शरीर प्रादि की किरणों के समूह से दर्पण की शोभा को तिरस्कृत करने वाला उसका ललाट अष्टमी के चन्द्रमा की समानता को अच्छी तरह धारण कर रहा था ॥५९।। केशों के भार से सुन्दर तथा पुष्पमाला और प्राभूषणों आदि से मनोहर उसका शिर ऐसा सुशोभित हो रहा था मानों जिनेन्द्र देव आदि को नमस्कार १. भूषणाङ्गकल्पवृक्ष शाखा सहशे भूषाकपाङ्ग का ख• २. दीप्तं क. ३. कपोलो अलमान अस्या इतिच्छेदः ४ यादपणौ च क... मुबसगंघ ६. शिर: ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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