________________
प्रस्तावना
संवत् १४९९ में महसाना (गुजरात) में होना लिखा है। डा० ज्योतिप्रसाद जैन एवं डा० प्रेमसागर भी इसी संवत् को सही मानते हैं। लेकिन डा० ज्योतिप्रसाद इनका पूरा जीवन ८१ वर्ष स्वीकार करते हैं जो अब लेखक को प्राप्त विभिन्न पट्टावलियों के अनुसार वह सही नहीं जान पड़ता । सकलकीर्ति रास में उनकी विस्तृत जीवन गाथा है। उसमें स्पष्ट रूप से संवत् १४४३ को जन्म एवं संवत् में स्वर्गवास होने को स्वीकार किया है।
तत्कालीन सामाजिक अवस्था
भट्टारक सकलकीर्ति के समय देश की सामाजिक स्थिति अच्छी नहीं थी। समाज में सामाजिक एवं धार्मिक चेतना का अभाव था। शिक्षा की बहुत कभी थी। साधुओं का अभाव था । भट्टारकों के नग्न रहने की प्रथा थी । स्वयं भट्टारक सकलकीर्ति भी नग्न रहते थे। लोगों में धार्मिक श्रद्धा बहुत थी । तीर्थ यात्रा बड़े - बड़े संघों में होती थी। उनका नेतृत्व करने वाले साधु होते थे। तीर्थ यात्राएँ बहुत लम्बी होती थीं तथा वहाँ से सकुशल लौटने पर बड़े-बड़े उत्सव एवं समारोह किये जाते थे । भट्टारकों ने पंचकल्याणक प्रतिष्ठाओं एवं अन्य धार्मिक समारोह करने की अच्छी प्रथा डाल दी थी । इनके संघ में मुनि, आर्यिका आवक आदि सभी होते थे। साधुओं में ज्ञान प्राप्ति की काफी अभिलाषा होती थी, तथा संघ के सभी साधुओं को पढ़ाया जाता था । ग्रन्थ रचना करने का भी खूब प्रचार हो गया था । भट्टारक गण भी खूब ग्रन्थ रचना करते थे । वे प्रायः अपने ग्रन्थ श्रावकों के आग्रह से निबद्ध करते रहते थे । व्रत उपवास की समाप्ति पर श्रावकों द्वारा इन ग्रन्थों की प्रतियाँ विभिन्न ग्रन्थ भंडारों को भेंट स्वरूप दे दी जाती थीं। भट्टारकों के साथ हस्तलिखित ग्रन्थों के बस्ते के बस्ते होते थे। समाज में स्त्रियों की स्थिति अच्छी नहीं थी और न उनके पढ़ने-लिखने का साधन था । व्रतोद्यापन पर उनके आग्रह से ग्रन्थों की स्वाध्यायार्थ प्रतिलिपि कराई जाती थी और उन्हें साधु-सन्तों को पढ़ने को दे दिया जाता था।
साहित्य सेवा
साहित्य सेवा में सकलकीर्ति का जबरदस्त योग रहा। कभी कभी तो ऐसा मालूम होने लगता है जैसे उन्होंने अपने साधु जीवन के प्रत्येक क्षणका उपयोग किया हो। संस्कृत, प्राकृत एवं राजस्थानी भाषा पर इनका पूर्ण अधिकार था। वे सहज रूपमें ही काव्य रचना करते थे । इसलिये उनके मुख से जो भी वाक्य निकलता था वही काव्य रूप में परिवर्तित हो जाता था । साहित्य रचना की परम्परा सकलकीर्ति ने ऐसी डाली कि राजस्थान के बागड़ एवं गुजरात प्रदेश में होने वाले अनेक साधु सन्त ने साहित्य की खूब सेवा की तथा स्वाध्याय के प्रति जन साधारण की भावना को जायत किया। इन्होंने अपने अन्तिम २२ वर्ष के जीवन में २७ से अधिक संस्कृत रचनाएं एवं ८ राजस्थानी रचनाएँ निबद्ध की थीं।
९
राजस्थान में ग्रन्थ भंडारों को जो अभी खोज हुई है उनमें हमें अभी तक निम्न रचनाएँ उपलब्ध हो सकी हैं।
संस्कृत की रचनाएँ
१. मूलाचार प्रदीप, २. प्रश्नोत्तरोपासकाचार, ३ आदिपुराण, ४, उत्तरपुराण, ५ शांतिनाथ चरित्र, ६. वर्द्धमान चरित्र, ७. मल्लिनाथ चरित्र, ८. यशोधर चरित्र, ९. धन्यकुमार चरित्र, १०. सुकुमाल चरित्र, ११. सुदर्शन चरित्र १२. सद्भाषितावलि, १३. पार्श्वनाथ चरित्र, १४. व्रतकथा