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________________ ४४ ] * श्री पार्श्वनाथ चरित - यविभाति पुरं द्वादशसहस्रपथैर्वरैः । सहस्रचत्वरैनिस्यैरारामालयपछि क्तभिः ।। कल्याणाकतुं मायाता जिनेशां यत्र नाकिनः । रसिं कुर्वन्त्यमा स्त्रीभिस्तत्को वर्णयितु प्रभुः ।।४०।। इत्यादिवर्णनोपेते पुरे राजा शुभोदयात् । वनवीर्याभिधोऽतीववीर्यशाली बभूव हि ।।४।। स्यागी भोगी सदाचारी तशीसाविशोभितः । नीसिमागंरतो दक्षो जैन: सोऽभाद्गुणोत्करैः ।।४२।। बभूव विजया तस्य देवी रूपगुणकभूः । लाएगा हर देनेला वातिपुण्योपलक्षिता ।।४३।। अच्युतात्सोऽमरएच्युत्वा पुण्यपाकासयोः सुतः । प्रभवद्वचनाभिः सन्नाम्ना' बसमाजभाक् ।।४४।। जिनालये जिनेन्द्राणां महाभिषेकमभुतम् । भूत्या चकार माङ्गल्यकरं माङ्गल्यवृद्धये ।।४।। दीनानापजनेभ्यश्च याचकेभ्यो नुपो ददौ । दानानि बहुधा प्रीत्य सूनुजन्ममहोत्सवे ।।४६।। गीतनतनवापाच : केतुमालादिमण्डन: । महोत्सवस्तदा प्राभूस्पुरै च राजमन्दिरे ।।४।। पयः पानाविक रम्यस्तद्योग्यमंधुरवरैः । प्रत्यहं सगुण: सा वद्ध ते बालचन्द्रवत् ।।४।। सौ क्षुद्र द्वारों, बारह हजार उत्कृष्ट राजमार्गों, एक हजार चौराहों तथा निरन्तर हरे भरे रहने वाले माग बगीचों और महलों की पंक्तियों से सुशोभित है ॥३८-३६। तीर्थंकरों के कल्याणक को करने के लिये प्राये हुए वेव भी जहां अपनी स्त्रियों के साथ क्रीडा करते हैं तब उसका वर्णन करने के लिये कौन समर्थ है ? ॥४०॥ इत्यादि वर्णना से सहित उस नगर में वनवीर्य नामका राजा रहता था जो पुण्योबप से प्रत्यन्त शक्तिशाली था ॥४१॥ वह राजा त्यागी, भोगी, सदाचारी, व्रत शोल मावि से विभूषित, नीतिमार्ग में रत, चतुर, तथा जैनधर्म का धारक था और गुणों के समूह से शोभापमान था ॥४२॥ उस राजा की विजया नामकी रानी थी, जो सौन्दर्य गुण की अद्वितीय भूमि थी, सोमर्यरूपी समुद्र की बेला के समान थी तथा प्रत्यधिक पुण्य से सहित थी ।।४।। वह विद्युत्प्रभ नामका देव प्रच्युत स्वर्ग से सपुत होकर पुण्योदय से उन दोनों के बल के समान शरीर को धारण करने वाला वचनाभि मामका पुत्र हा ॥४४॥ राजा मे मङ्गल वृद्धि के लिये जिन मन्दिर में जिमप्रतिमानों का वैभव पूर्वक मङ्गलकारी प्राश्चर्यजनक महाभिषेक किया ॥४५॥ राजा ने पुषजन्म के महोत्सव में प्रीति के लिये दोन प्रनाथ जनों तथा याचकों को बहुत प्रकार के दान दिये ॥४६॥ उस समय नगर तथा राज महल में गोत, मुस्य, बारित्र प्रावि सया पताका और बन्दनमाला प्रावि की सजावट से बहुत भारी उत्सव हमा था ॥४७॥ वह पुत्र, बालकोधित मधुर, उत्कृष्ट तथा रमणीय दुग्धपान प्राधि कार्यो से प्रतिदिन गुणों के साथ साम बालचन्द्र बोयज के चन्द्रमा के समान बढ़ने लगा ।।४।। १. मासिपुग्योपलक्षिता क. २.स नाम्ना क.
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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