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________________ I I · I ! * पञ्चदश सर्ग अंबरा शर्मा मुक्ति हेतु निखिलगुणनिधि स्वर्ग सोपानभूतं पोतं संसारवार्षी भवभयचकिताः संवरं सर्वयत्नात् [ १६३ कर्मघ्नं धर्ममूलं ह्यसुखचयहरं सेवितं तीर्थनार्थः । निर्जराज द्विधा प्रोफा संवरेण समं यात्र निर्जरा क्रियते निर्जरा जायते पुंसां कर्मणां हि यथा यदारावतयात्र स्यात् सर्वेषां कर्मणां मुक्तिस्त्रीजननी farari अपक्वा स्रफलान्यत्र पच्यन्ते हा मरणा कुर्वीध्वं मोक्षहेतोश्चरणसुतपसा ध्यान रत्नत्रयाद्यैः ॥ ८१ ॥ संवरानुप्रेक्षा सविपाकाविपाकतः | जिनंराद्या च सर्वेषां सुनीनां तपसा परा ॥ ८२ ॥ ॥ बुधैः । तपोवृत्तादिना देया साविपाका शिवप्रदा ||८३॥ यथा । निकटीभावमायाति मोक्षलक्ष्मीस्तथा तथा ।। ६४ ।। क्षयः । तदा मोक्षो यतीशानामनन्त गुणसागरः ||५|| करा । जगद्धिता सतां मान्या निर्जरा कर्मताशिनी ॥ ८६ ॥ यथा । तथा कर्माणि हग्ज्ञानत्तपोवृत्तयमादिभिः ॥८७॥ स्वाध्याय आदि के द्वारा अनन्त सुख को करने वाला संवर निरन्तर करना चाहिये ॥ ८० ॥ जो सुख का सागर है, मुक्ति का कारण है, समस्त गुणों का भाण्डार है, स्वर्ग की सीढी रूप है, कर्मों को नष्ट करने वाला है, धर्म का मूल है, दुःख समूह को हरने वाला है, तीर्थङ्करों के द्वारा सेवित है, और संसार सागर में जहाजस्वरूप है ऐसे संवर को है संसार के भय से भीत पुरुषो! मोक्षप्राप्ति के लिये ध्यान तथा रत्नत्रय यादि के द्वारा संपूर्ण प्रयत्न से प्राप्त करो ॥८१॥ ( इस प्रकार संवर अनुप्रेक्षा का चिन्तवन किया ) इस जगत् में जिनेन्द्र भगवान् ने सविधाक और प्रविपाक के भेद से निर्जरा दो प्रकार की कही है। उनमें से पहली सविपाक निर्जरा सभी जीवों के होती है और दूसरी प्रविपाक निर्जरा तप के द्वारा मुनियों के होती है ।। ६२ ।। इस जगत् में विद्वज्जनों के द्वारा तप और सम्यक् चारित्र श्रादि से संबर के साथ जो निर्जरा की जाती है वह मोक्ष को देने वाली प्रविपाक निर्जरा ग्रहण करने योग्य है ||८३|| पुरुषों के जैसे जैसे कर्मों की निर्जरा होती जाती है वैसे वैसे ही मोक्ष लक्ष्मी निकटभाव को प्राप्त होती जाती है || ८४|| जब यहां मुनियों के आराधना के द्वारा समस्त कर्मों का क्षय हो जाता है तब अनन्त गुणों का सागर स्वरूप मोक्ष प्राप्त होता है । ६५। निर्जरा मुक्तिरूपी स्त्री की माता है, समस्त सुखों की खान है, गुणों का प्राकर है जगत् हितकारी है, सत्पुरुषों को मान्य है तथा कर्मों का नाश करने वाली है ।। ८६ ।। जिस प्रकार यहां गर्मी द्वारा बिना पके श्राम के फल पका लिये जाते हैं उसी प्रकार दर्शन ज्ञान तप चारित्र तथा इन्द्रिय दमन आदि के द्वारा उदयावली में प्रप्राप्त
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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