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________________ ३०४ ] * श्री पार्श्वनाथ चरित # जगामाशु स्वभावेन स्वस्त्रवान मारूढा स ऊष्यगतिजेन हि । ग्रनन्तसुखसम्पन्नः स्वाधीनो मूर्तिवजितः ।। ५१ ।। श्रावणे मासि सप्तम्यां सितपक्षे दिनादिमे' मागे विशाखनक्षत्रे शुभलग्नादिके परे ।। ५२ ।। अनन्तसुखसंलीनो विभूषितः । मूर्तश्चरमाङ्गाद्धि किञ्चिदूना कृतिर्महान् ।। ५३ ।। वन्द्योजगत्त्रयाधीश नित्यो ज्ञानमयोऽद्भुतः । केवलज्ञानगम्योऽतिसूक्ष्मः सिद्धो निरञ्जनः ॥ ५४॥ तत्रास्थादपि धर्मास्तिकायाभावादुर्गातिच्युतः । श्रनन्तकालमासाद्य मुक्तिकान्तां सुदुर्लभाम् ।। ५५ । १ तन्मोक्षगमनं शाश्या स्वचिह्न रथ निर्जराः । चतुरंगकायकाः सेन्द्रा महाभूत्युपलक्षिताः ।। ५६ ।। धर्मामृतरसाशिनः । तत्राजग्मुजिनेन्द्रस्य प्रास्तपूजा चिकीर्षया ।। ५७ ।। पवित्र परमं दिव्यं शरीरं मोक्षसाधनम् । विभोर्मत्वा व्यशुदेवाः पराद्वर्थं शिविकापितम् ५८ । ततो देहस्य देवेन्द्राश्चक्रु पूजां महाभुताम् । चन्दनागुरुक पूराद्यैः सुद्रच्यैः सुगन्धिभिः ।। ५६ । प्रणेमुः परया भक्त्या मूहर्ता सर्वे दिशेकसः । पवित्रं तच्छरीरं प्रभोदिव्यं शिवकारणम् ।। ६० ।। ऊर्ध्वं गति स्वभाव से शीघ्र ही लोकाग्र की उत्कृष्ट शिखर पर जा पहुँचे । वे अनंत सुख से सम्पन्न, स्वाधीन और शरीर रहित थे ।। ५०-५१ ।। वे श्रावण शुक्ला सप्तमी के पूर्वाह्न काल में विशाखा नक्षत्र तथा उत्तम शुभ लग्न आदि के रहते हुये निर्धारण को प्राप्त हुये थे ।। ५२ ।। : जो सुख में निमग्न थे, आठ कर्मों के प्रभाव में प्रकट होने वाले धमन्तज्ञानावि माठ गुणों से विभूषित थे, प्रमूर्त थे, अन्तिम शरीर से कुछ कम प्राकृति को धारण करने बाले थे, महान थे, सीम जगत् के स्वामियों के द्वारा वन्दनीय थे, नित्य थे, प्रभुत थे, केवलज्ञान गम्य थे, अत्यन्त सूक्ष्म थे, सिद्ध थे, निरञ्जन - कर्मकालिमा से रहित थे तथा धर्माfront का प्रभाव होने से लोकाग्र के मागे गति से रहित थे ऐसे श्री पाश्वंजिनेन्द्र प्रत्यभ्स दुर्लभ मुक्तिरूपी कान्ता को प्राप्तकर उसी लोकाप्रभाग में प्रनन्त काल के लिये स्थिर हो गये ।।५३ - ५५।। तदनन्तर प्रपने अपने चिह्नों से उनके मोक्षगमन का समाचार जानकर महाविभूति से युक्त, इन्द्र सहित चारों निकाय के वेब धर्मरूप अमृत रस का सेवन करते हुए अपने अपने वाहनों पर प्रारूढ होकर जिनेन्द्र भगवान के निर्धारण क्षेत्र की पूजा करने की इच्छा से वहां आये १५६ - ५७ ।। देवों ने विभु के मोक्ष के साधनभूत परमोवारिक शरीर को परम पवित्र मान कर उत्कृष्ट शिक्षिका में विराजमान किया || १८ || पश्चात् इन्द्रों में उनके शरीर की चन्दन प्रगुरु कर्पूर प्राहि सुगन्धित द्रव्यों से महान प्रभूत पूजा की ॥४६॥ समस्त देवों ने मोक्ष के काररणभूत भगवान् के उस पवित्र विष्य शरीर को परम भक्ति से हिर १ पूर्वा ।
SR No.090346
Book TitleParshvanath Charitam
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorPannalal Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages328
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size9 MB
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