Book Title: Mahabharat Samhita Part 04
Author(s): Bhandarkar Oriental Research Institute
Publisher: Bhandarkar Oriental Research Institute
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE MAHABHARATA TEXT AS CONSTITUTED IN ITS CRITICAL EDITION VOLUME IV ANUSASANA, ASVAMEDHIKA,, ASRAMAVASIKA-, MAUSALA-, AMAHAPRASTHANIKA-, AND SVARGAROHANA-PARVANS. बधीतमस्तु जति नाम PUBLISHED BY THE BHANDARKAR ORIENTAL RESEARCH INSTITUTE POONA 1975 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ All rights reserved Printed by Dr. R. N. Dandekar, at the Bhandarlear Institute Press, Poona 4 and Published by Dr. R. N. Dandekar, Hon. Secretary, Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona 411 004 (India). Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिकित्सितपाठात्मिका महाभारत-संहिता . चतुर्थः खण्डः अनुशासन - आश्वमेधिक - आश्रमवासिक - मौसल - महाप्रस्थानिक - स्वर्गारोहण-पर्वाणि / श्रीतम भाण्डारकरप्राच्यविद्या संशोधनमन्दिरेण प्रकाशिता पुण्यपत्तनम् शकाब्दाः 1897 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका pp. 2493-2749 2493-2746 13 अनुशासनपर्व अध्यायाः 1-154 . दानधर्मपर्ष 1-152 मृत्युगौतम्यादिसंवादः 1 सुदर्शनोपाल्यानम् 2 विश्वामित्रोपाख्यानम् 3-4. शुक्रवासवसंवादः 5 देवपुरुषकारबळावलम् 6. कर्मफलवर्णनम् . पूज्यवर्णनम् / सुगावानरसंवादः 9 नीचस्योपदेशनिवेधः 10 -भियो, निवासस्थानानि 11 भावनोपाख्यानम् 12 शुभाशुभकर्मफलम् 13 / उपमन्यूपाख्यानम् 14-17 शिवस्तवः 14 शिवसहस्रनाम 17 शिवस्तुतिमाहात्म्यम् 18 मटावऋदिक्संवादः 19-22 पात्रपरीक्षा 23 देवपित्र्यदानफलम् 24 ब्रह्मघातिस्वरूपम् 25 तीर्थप्रशंसा 26 गङ्गाप्रशंसनम् 27 मतगोपाख्यानम् 28 इन्द्रमतङ्गसंवादः 29-30 वीतहग्योपाख्यानम् 31 . पूज्यपुरुषवर्णनम् 32 माझणप्रयांसा 33-36 पृथिवीवासुदेवसंवादः 34 पानपरीक्षा 37 खीखभावकथनम् ३८-३९विपुलोपाख्यानम् 40-43 विवाहधर्माः 44-46 रेक्थविभागः 47 2493-2496 2496-2499 2499-2502 2602-2503 2503-2506 2505-2506 2506-2507 2507-2508 2508-2511 -2511-2512 2612-2014 2614-2516 2515-2533 2520-2521 2528-2532 2533-2536 2536-2541 2641-2543 2543-2547 2547 2547-2650 2550-2554 2554-2565 2555-2556 2556-2559 2659-2560 2660-2564 2661-2562 2564 ..9864-2566 " 66-2572 2572-2575 5-2577 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (6 ) 'वर्णसंकरः 44 पुत्रप्रणिधिः 49 व्यवनोपाख्यानम् 50 व्यवननहुषसंवादः 51 व्यवनकृशिकसंवादः 52-56 यमनियमफलानि 57 ब्राह्मणप्रशंसा 58 अतिथियज्ञः 59 क्षत्रियधर्माः 60 भूमिदानप्रशंसा 61 अबदानप्रशंसा 62 नक्षत्रयोगदानम् 63 काञ्चनादिदानम् 64 . तिलादिदानफलम् 65 पानीयदानफलम् 66 विलादिदानप्रशंसा 67 गोदानफलम् 68 नुगोपाख्यानम् 69 नाचिकेतोपाख्यानम् 70 गोप्रदानिकम् 71-73 व्रतनियमफलम् 74 गोप्रदानिकम् 75-80 श्रीगोसंवादः 81 गोकोकप्रश्नः 2 सुवर्णोत्पत्तिः 83-85 कार्तिकेयोत्पत्तिः 84 तारकवधः 86 श्राद्धकल्पः 87-92 प्रतविशेषाः 93 प्रतिग्रहदोषाः 94 शपथाध्यायः 95-96 छनोपानहोत्पत्तिः 97 छत्रोपानहदानम् 98 मारामादिनिर्माणम् 19 बलिप्रदानम् 100 दीपादिदानम् 101 . पुष्पादिदानफलम् 102 दीपादिदानफलम् 103 ब्रह्मस्वहरणम् 104 इशिकूटम् 105.----..... 2577-2579 2579-2580 2580-2581 2581-2583 2583-2591 2591-2593 2593-2594 25952595-2596 2596-2599 2599-2601 2601-2603 2603 2603-2606 2606 2606-2608 2608-2609 2609-2610 2610-2613. 2613-2616 2617-2618 2618-2626 2626-2627 2627-2629 2629-2637 2631-2634 2637-2638 2638-2644 2644-2645 2645-2647 . 2647-2654 2654-2655 2656-2666 2656-2657 2657-2658 2658-2661 2661-2662 2662-2663 9863-2664 2664-2668 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अनशनमाहात्म्यम् 106 मायुष्याख्यानम् 107 ज्येष्ठकनिष्वृत्तिः 108 उपवासविधिः 109 उपवासफलम् 110 शौचानुपृच्छा 111 संसारचक्रम् 112-114 महिंसाफलम् 195-197 कीटोपाख्यानम् 118-120 मैत्रेयभिक्षा 121-123 . शाण्डिलीसुमनासंवादः 124 सान्त्वप्रशंसा 125 . उमामहेश्वरसंवादः१२६-१३४ विष्णुसहस्त्रनाम 135 माझणप्रशंसा 136 पवनार्जुनसंवादः 137-142 कृष्णमाहात्म्यम् 143 दुर्वासोमाहात्म्यम् 144 ईश्वरप्रशंसा 145-146 धर्मनिर्णयः 147-148 युधिष्ठिरप्रश्नः 149 धर्मसंशयः 150 वंशानुकीर्तनम् 151 युधिष्ठिरप्रविप्रयाणम् 152 .88 भीष्मस्वर्गारोहणपर्व 153-154 : भीष्मस्वर्गानुज्ञा 153 भीष्मस्वर्गगमनम् 154 15 आश्वमेधिकपर्व अध्यायाः 1-96 3669-2671 2671-2676 2676 2677-2679 2679-2684 2884-2685 2685-2690 2690-2695 2695-2698 2698-2700 2700-2701 2701-2702 2702-2721 2721-2726 2726-2727 2727-2733 3733-2736 2736-2738 2738-2740 3740-2743 2743 2743 2744-2745 2746-2746 2746-3749 2046-3748 . 2748-2749 2750-2859 89 2760-2859 मश्वमेधपर्व 1-96 युधिष्ठिरसांत्वनम् 1 ग्यासवाक्यम् 2 संवर्तमरुत्तीयम् 3-10 वासुदेववाक्यम् 11-13 हास्तिनपुरप्रवेशः 14 इन्द्रप्रस्थे कृष्णार्जुनयोः समाविहारः 15 अनुगीता 16-50 श्रीकृष्णस्य द्वारकां प्रति प्रस्थानम् 51 2760 2750-2761 3761-2764 2764-2766 2766-2767 2767-2768 2768-2807 2807-2809 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (6) उत्तङ्कोपाख्यानम् 52-57 वासुदेवेन वसुदेवं प्रति युदाख्यानम् 58-60 वसुदेवेन ममिमन्योः भाददानम् 1 . पाण्डवानां मरुत्तनिधिगमः 62-64 परिक्षित्संजीवनम् 65-69 युधिडिरस्य यशदीक्षा 70-71 भईनस अचानुसरणम् 72-79 ब्रैगतविजयः 73 वज्रदत्तपराजयः 74-75 सैन्धवपराजयः 76-77 बभ्रुवाहनयुदम् 78-82 मागधपराजयः 83 एकलब्यसुतपराजयः 84 . गान्धारपराजयः 85.. यशशयतननिर्माणम् 86 / / यज्ञसमृदिः 87 अर्जुनप्रत्यागमनम् 88-89 यूपोच्छ्यः 90. . ... यसमाप्तिः 91 .. नकुलोपाख्यानम् 91-96 2810-2818 2818-2821 2821-2822 2822-2824 2825-2839 2829-2831 2831-2844 2832-2833 2833-2835 -2835-2838 2838-2842 2842-2843 2843-2848 .2844-2845 2845-2846 2846-2847 2847-2848 2848-2850 2850-2851 2861-2859 15 आश्रमवासिकपर्व अध्यायाः 1-47 2860-2901 2860-2888 9. भाभमवासपर्व 1-35 एतराट्रशुश्रूषा 1-3 भीमापनयः 4 धृतराष्ट्रस्य वनगमनसंकल्पः 5-6 स्यासागमनम् . व्यासवाक्यम् 8 युधिष्ठिरानुशासनम् 9-12 धृतराष्ट्रवाक्यम् 13-16 'भीमसेनवाक्यम् 17. अर्जुनयुधिष्ठिरयोः वाक्वे 18 विदुरवाक्यम् 19 श्राद्यज्ञः 20 धृतराष्ट्रस्य वनगमनम् 21 कुन्तीवाक्यम् 22-23 धृतराष्ट्रादीनां व्यासाश्रमगमनम् 25 2860-2862 2862 2862-2864 2864-2866 2866-2866 2866-2869 2869-2873 2873-2874 2874 2874-2875 2876 2875-2876 2876-2878 2879-2880 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2881 2881-2882 2882-2884 2884-2885 2885-2887 2887-2888 .2888 2889-2897 शतयूपप्रमः 27 पाण्डवशोकः 28 पाण्डवानां धतराष्ट्राश्रमाभिगमनम् 29-31 पाण्डववर्णनम् 32 विदुरसायुज्यम् 33 . व्यासागमनम् 34 व्यासवाक्यम् 35 91 पुत्रदर्शनपर्व 36-44 कर्णजन्मकथनम् 38 . दुर्योधनादिदर्शनम् 40-41 वैशंपायनवाक्यम् 42 जनमेजयस्य परिक्षिदर्शनम् 43 युधिडिरनिवर्तनम् 44 92 नारदागमनपर्व 45-47 . रतराष्ट्रादीनां दावानौ वाहः 45 युधिष्ठिरशोकः 46 धृतराष्ट्रश्राद्धकरणम् 47 2890 2892-2894 2894-2895 2895 2896-9897 2897-2901 2897-2899 2899-2900 2900-2901 2902-2913 2902-2913 मौसलपर्व अध्यायाः 1-9 मौसपर्व 1-9 मुनिशापात्साम्बस्य मुसलप्रसवः 2 उत्पातदर्शनम् 3 वृष्ण्यन्धकादिविनाशः४ रामकृष्णावतारसमाप्तिः 5 अर्जुनागमनम् / बसुदेव विकापः . वसुदेवनिधनम् / वज्राभिषेकः 8 व्यासार्जुनसमागमः 9 महाप्रस्थानिकपर्व मध्यावाः 1-3 2902-2903 2903-2904 2904-2905 2905-2907 2907-2908 2908-2909 2909-2911 2911-2913 2914-2918 2914-2918 94 महाप्रस्थानिकपर्व 1-3 पाण्डवप्रव्रजनम् 1 भीमादिपतनम् 2 इन्द्रयुधिष्ठिरसंवादः 3 2914-2915 2915-2916 2916-2918 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (10) 2919-2926 2919-2926 18 स्वर्गारोहणपर्व अध्यायाः 1-5 95 स्वर्गारोहणपर्व 1-5 स्वर्गे नारदवाक्यम् / देवदूतविसर्जनम् / युधिष्ठिरवर्गारोहणम् 3-5 2919-2920 2920-2922 2922-2926 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः खण्डः Page #12 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुशासनपर्व अथ तं सायुपाशेन बद्धा सर्पममर्षितः / युधिष्ठिर उवाच / लुब्धकोऽर्जुनको नाम गौतम्याः समुपानयत् // 11 शमो बहुविधाकारः सूक्ष्म उक्तः पितामह / / तां चाब्रवीदयं ते स पुत्रहा पन्नगाधमः / न च मे हृदये शान्तिरस्ति कृत्वेदमीदृशम् // 1 . | ब्रूहि क्षिप्रं महाभागे वध्यतां केन हेतुना // 12 अस्मिन्नर्थे बहुविधा शान्तिरुक्ता त्वयानघ / अग्नौ प्रक्षिप्यतामेष च्छिद्यतां खण्डशोऽपि वा। वकृते का नु शान्तिः स्याच्छमाद्बहुविधादपि // 2 / न ह्ययं बालहा पापश्चिरं जीवितुमर्हति // 13 शराचितशरीरं हि तीव्रव्रणमुदीक्ष्य च / गौतम्युवाच। शमं नोपलभे वीर दुष्कृतान्येव चिन्तयन् // 3 विस्जैनमबुद्धिस्त्वं न वथ्योऽर्जुनक त्वया / रुधिरेणावसिक्ताङ्गं प्रस्रवन्तं यथाचलम् / को ह्यात्मानं गुरुं कुर्यात्प्राप्तव्ये सति चिन्तयन् // त्वां दृष्ट्वा पुरुषव्याघ्र सीदे वर्षा स्विवाम्बुजम् // 4 प्लवन्ते धर्मलघवो लोकेऽम्भसि यथा प्लवाः / अतः कष्टतरं किं नु मत्कृते यत्पितामहः / मजन्ति पापगुरवः शस्त्रं स्कन्नमिवोदके // 15 इमामवस्थां गमितः प्रत्यमित्रै रणाजिरे / न चामृत्युभविता वै हतेऽस्मितथैवान्ये नृपतयः सहपुत्राः सबान्धवाः // 5 को वात्ययः स्यादहतेऽस्मिञ्जनस्य / वयं हि धार्तराष्ट्राश्च कालमन्युवशानुगाः / अस्योत्सर्गे प्राणयुक्तस्य जन्तोकृत्वेदं निन्दितं कर्म प्राप्स्यामः कां गतिं नृप // 6 मृत्योर्लोकं को नु गच्छेदनन्तम् // 16 अहं तव ह्यन्तकरः सुहृद्वधकरस्तथा / लुब्धक उवाच / न शान्तिमधिगच्छामि पश्यंस्त्वां दुःखितं क्षितौ // जानाम्येवं नेह गुणागुणज्ञाः भीष्म उवाच / सर्वे नियुक्ता गुरवो वै भवन्ति / परतत्रं कथं हेतुमात्मानमनुमश्यसि / स्वस्थस्यैते तूपदेशा भवन्ति कर्मण्यस्मिन्महाभाग सूक्ष्मं ह्येतदतीन्द्रियम् // 8 तस्मात्क्षुद्रं सर्पमेनं हनिष्ये // 17 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / समीप्सन्तः कालयोगं त्यजन्ति संवादं मृत्युगौतम्योः काललुब्धकपन्नगैः // 9 ___ सद्यः शुचं त्वर्थविदस्त्यजन्ति / गौतमी नाम कौन्तेय स्थविरा शमसंयुता / श्रेयः क्षयः शोचतां नित्यशो हि सर्पण दृष्टं स्खं पुत्रमपश्यद्गतचेतनम् // 10 तस्मात्त्याज्यं जहि शोकं हतेऽस्मिन् // 18 - 2493 - Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 1. 19 ] महाभारते [ 13. 1. 36 गौतम्युवाच / यज्ञं हत्वा भागमवाप चैव। न चैवार्तिर्विद्यतेऽस्मद्विधानां शूली देवो देववृत्तं कुरु त्वं धर्मारामः सततं सज्जनो हि / क्षिप्रं सर्प जहि मा भूद्विशङ्का // 25 नित्यायस्तो बालजनो न चास्ति भीष्म उवाच / धर्मो ह्येष प्रभवाम्यस्य नाहम् // 19 असकृत्प्रोच्यमानापि गौतमी भुजगं प्रति / न ब्राह्मणानां कोपोऽस्ति कुतः कोपाच्च यातना। लुब्धकेन महाभागा पापे नैवाकरोन्मतिम् // 26 मार्दवाक्षम्यतां साधो मुच्यतामेष पन्नगः / / 20 ईषदुच्छ्रसमानस्तु कृच्छ्रात्संस्तभ्य पन्नगः / लुब्धक उवाच। उत्ससर्ज गिरं मन्दा मानुषीं पाशपीडितः // 27. हत्वा लाभः श्रेय एवाव्ययं स्या को न्वर्जुनक दोषोऽत्र विद्यते मम बालिश / __त्सद्यो लाभो बलवद्भिः प्रशस्तः / अस्वतनं हि मां मृत्युर्विवशं यदचूचुदत् / / 28 कालाल्लाभो यस्तु सद्यो भवेत तस्यायं वचनाद्दष्टो न कोपेन न काम्यया / हते श्रेयः कुत्सिते त्वीदृशे स्यात् // 21 तस्य तत्किल्विषं लुब्ध विद्यते यदि किल्बिषम् // गौतम्युवाच / लुब्धक उवाच / कार्थप्राप्तिर्गृह्य शत्रु निहत्य यद्यन्यवशगेनेदं कृतं ते पन्नगाशुभम् / का वा शान्तिः प्राप्य शत्रु नमुक्त्वा / कारणं वै त्वमप्यत्र तस्मात्त्वमपि किल्विषी // 3. कस्मात्सौम्य भुजगे न क्षमेयं मृत्पात्रस्य क्रियायां हि दण्डचक्रादयो यथा / मोक्षं वा किं कारणं नास्य कुर्याम् // 22 कारणत्वे प्रकल्प्यन्ते तथा त्वमपि पन्नग / / 31 लुब्धक उवाच / किल्बिषी चापि मे वध्यः किल्बिषी चासि पनग। अस्मादेकस्माद्बहवो रक्षितव्या आत्मानं कारणं ह्यत्र त्वमाख्यासि भुजंगम // 32 नैको बहुभ्यो गौतमि रक्षितव्यः / सर्प उवाच / कृतागसं धर्मविदस्त्यजन्ति सर्व एते ह्यस्ववशा दण्डचक्रादयो यथा / सरीसृपं पापमिमं जहि त्वम् // 23 तथाहमपि तस्मान्मे नैष हेतुर्मतस्तव // 33 गौतम्युवाच / अथ वा मतमेतत्ते तेप्यन्योन्यप्रयोजकाः / नास्मिन्हते पन्नगे पुत्रको मे कार्यकारणसंदेहो भवत्यन्योन्यचोदनात् / / 34 संप्राप्स्यते लुब्धक जीवितं वै / एवं सति न दोषो मे नास्मि वध्यो न किल्बिषी। गुणं चान्यं नास्य वधे प्रपश्ये किल्बिषं समवाये स्यान्मन्यसे यदि किल्बिषम् // ___ तस्मात्सर्प लुब्धक मुश्च जीवम् // 24 लुब्धक उवाच / लुब्धक उवाच / कारणं यदि न स्याद्वै न कर्ता स्यास्त्वमप्युत / वृत्रं हत्वा देवराट् श्रेष्ठभाग्वै विनाशे कारणं त्वं च तस्माद्वध्योऽसि मे मतः॥ - 2494 - Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 1. 37 ] अनुशासनपर्व [ 13. 1. 60 असत्यपि कृते कार्ये नेह पन्नग लिप्यते / सर्वे कालेन सृज्यन्ते ह्रियन्ते च तथा पुनः॥४९ तस्मान्नात्रैव हेतुः स्याद्वध्यः किं बहु भाषसे // 37 एवं ज्ञात्या कथं मां त्वं सदोषं सर्प मन्यसे / सर्प उवाच / अथ चैवंगते दोषो मयि त्वमपि दोषवान् // 50 कार्याभावे क्रिया न स्यात्सत्यसत्यपि कारणे / सर्प उवाच / तस्मात्त्वमस्मिन्हेतौ मे वाच्यो हेतुर्विशेषतः // 38 निर्दोषं दोषवन्तं वा न त्वा मृत्यो ब्रवीम्यहम् / यद्यहं कारणत्वेन मतो लुब्धक तत्त्वतः / त्वयाहं चोदित इति ब्रबीम्येतावदेव तु // 51 अन्यः प्रयोगे स्यादत्र किल्बिषी जन्तुनाशने॥३९ | यदि काले तु दोषोऽस्ति यदि तत्रापि नेष्यते / लुब्धक उवाच / दोषो नैव परीक्ष्यो मे न ह्यत्राधिकृता वयम् // 52 वथ्यस्त्वं मम दुर्बुद्धे बालघाती नृशंसकृत् / निर्मोक्षस्त्वस्य दोषस्य मया कार्यो यथा तथा / भाषसे किं बहु पुनर्वध्यः सन्पन्नगाधम // 40 मृत्यो विदोषः स्यामेव यथा तन्मे प्रयोजनम् // 53 सर्प उवाच / भीष्म उवाच / यथा हवींषि जुह्वाना मखे वै लुब्धकविजः / सर्पोऽथार्जुनकं प्राह श्रुतं ते मृत्युभाषितम् / न फलं प्राप्नुवन्त्यत्र परलोके तथा ह्यहम् / / 41 नानागसं मां पाशेन संतापयितुमर्हसि // 54 लुब्धक उवाच / भीष्म उवाच / मृत्योः श्रुतं मे वचनं तव चैव भुजंगम / तथा युवति तस्मिंस्तु पन्नगे मृत्युचोदिते / नैव तावद्विदोषत्वं भवति त्वयि पन्नग // 55 भाजगाम ततो मृत्युः पन्नगं चाब्रवीदिदम् // 42 मृत्युस्त्वं चैव हेतुर्हि जन्तोरस्य विनाशने / कालेनाहं प्रणुदितः पन्नग त्वामचूचुदम् / उभयं कारणं मन्ये न कारणमकारणम् // 56 विनाशहेतुर्नास्य त्वमहं वा प्राणिनः शिशोः // 43 धिमत्युं च दुरात्मानं क्रूरं दुःखकरं सताम् / यथा वायुर्जलधरान्विकर्षति ततस्ततः / त्वां चैवाहं वधिष्यामि पापं पापस्य कारणम् // 57 तद्वज्जलदवत्सर्प कालस्याहं वशानुगः // 44 मात्त्विका राजसाश्चैव तामसा ये च केचन / भावाः कालात्मकाः सर्वे प्रवर्तन्ते हि जन्तुषु // 45 विवशौ कालवशगावावां तद्दिष्टकारिणौ / जङ्गमाः स्थावराश्चैव दिवि वा यदि वा भुवि / नावां दोषेण गन्तव्यौ यदि सम्यक्प्रपश्यसि // 58 सर्वे कालात्मकाः सर्प कालात्मकमिदं जगत् // 46 लुब्धक उवाच / प्रवृत्तयश्च या लोके तथैव च निवृत्तयः / युवामुभी कालवशौ यदि वै मृत्युपन्नगौ / तासां विकृतयो याश्च सर्वं कालात्मकं स्मृतम् // 47 हर्षक्रोधौ कथं स्यातामेतदिच्छामि वेदितुम् // 59 आदित्यश्चन्द्रमा विष्णुरापो वायुः शतक्रतुः / मृत्युरुवाच। अग्निः खं पृथिवी मित्र ओषध्यो वसवस्तथा // 48 | याः काश्चिदिह चेष्टाः स्युः सर्वाः कालप्रचोदिताः / सरितः सागराश्चैव भावाभावौ च पन्नग। / पूर्वमेवैतदुक्तं हि मया लुब्धक कालतः // 60 - 2495 - मृत्युवाच / Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 1. 61 ] महाभारते [ 13. 2.0 - तस्मादुभी कालवशावावां तद्दिष्टकारिणौ। स्वकर्मप्रत्ययाल्लोकांस्त्रीन्विद्धि मनुजर्षभ // 74 नावां दोषेण गन्तव्यौ त्वया लुब्धक कर्हि चित् // न तु त्वया कृतं पार्थ नापि दुर्योधनेन वै / भीष्म उवाच। कालेन तत्कृतं विद्धि विहता येन पार्थिवाः // 75 अथोपगम्य कालस्तु तस्मिन्धर्मार्थसंशये / वैशंपायन उवाच / अब्रवीत्पन्नगं मृत्युं लुब्धमर्जुनकं च तम् // 62 इत्येतद्वचनं श्रुत्वा बभूव विगतज्वरः / काल उवाच / युधिष्ठिरो महातेजाः पप्रच्छेदं च धर्मवित् // 76 नैवाई नाप्ययं मृत्यु यं लुब्धक पन्नगः / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि किल्बिषी जन्तुमरणे न वयं हि प्रयोजकाः॥६३ प्रथमोऽध्यायः // 1 // . अकरोद्यदयं कर्म तन्नोऽर्जुनक चोदकम् / प्रणाशहेतुर्नान्योऽस्य वध्यतेऽयं स्वकर्मणा // 64 यदनेन कृतं कर्म तेनायं निधनं गतः / युधिष्ठिर उवाच / विनाशहेतुः कर्मास्य सर्वे कर्मवशा वयम् // 65 पितामह महाप्राज्ञ सर्वशास्त्रविशारद / कर्मदायादवाल्लोकः कर्मसंबन्धलक्षणः / श्रुतं मे महदाख्यानमिदं मतिमतां वर // 1 कर्माणि चोदयन्तीह यथान्योन्यं तथा वयम् // 66 भूयस्तु श्रोतुमिच्छामि धर्मार्थसहितं नृप। यथा मृत्पिण्डतः कर्ता कुरुते यद्यदिच्छति / कथ्यमानं त्वया किंचित्तन्मे व्याख्यातुमर्हसि // 2 एवमात्मकृतं कर्म मानवः प्रतिपद्यते // 67 केन मृत्युर्गृहस्थेन धर्ममाश्रित्य निर्जितः। यथा छायातपौ नित्यं सुसंबद्धौ निरन्तरम् / इत्येतत्सर्वमाचक्ष्व तत्त्वेन मम पार्थिव // 3 तथा कर्म च कर्ता च संबद्धावात्मकर्मभिः // 68 ... भीष्म उवाच / एवं नाहं न वै मृत्युन सर्पो न तथा भवान् / . अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / न चेयं ब्राह्मणी वृद्धा शिशुरेवात्र कारणम् // 69 यथा मृत्युर्गृहस्थेन धर्ममाश्रित्य निर्जितः // 4 तस्मिंस्तथा ब्रुवाणे तु ब्राह्मणी गौतमी नृप। मनोः प्रजापते राजन्निक्ष्वाकुरभवत्सुतः / स्वकर्मप्रत्ययाल्लोकान्मत्वार्जुनकमब्रवीत् // 70 तस्य पुत्रशतं जज्ञे नृपतेः सूर्यवर्चसः // 5 नैव कालो न भुजगो न मृत्युरिह कारणम् / दशमस्तस्य पुत्रस्तु दशाश्वो नाम भारत / स्वकर्मभिरयं बालः कालेन निधनं गतः // 71 माहिष्मत्यामभूद्राजा धर्मात्मा सत्यविक्रमः // 6 मया च तत्कृतं कर्म येनायं मे मृतः सुतः। दशाश्वस्य सुतस्त्वासीद्राजा परमधार्मिकः / यातु कालस्तथा मृत्यूमुश्चार्जुनक पन्नगम् // 72 सत्ये तपसि दाने च यस्य नित्यं रतं मनः // 7 भीष्म उवाच / मदिराश्व इति ख्यातः पृथिव्यां पृथिवीपतिः / ततो यथागतं जग्मुर्मृत्युः कालोऽथ पन्नगः / धनुर्वेदे च वेदे च निरतो योऽभवत्सदा // 8 अभूद्विरोषोऽर्जुनको विशोका चैव गौतमी // 73 / मदिराश्वस्य पुत्रस्तु द्युतिमान्नाम पार्थिवः / / एतच्छ्रुत्वा शमं गच्छ मा भूश्चिन्तापरो नृप। महाभागो महातेजा महासत्त्वो महाबलः // 9 -2496 - Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 2. 10 ] अनुशासनपर्व [ 13. 2. 39 पुत्रो द्युतिमतस्त्वासीत्सुवीरो नाम पार्थिवः / न ह्यल्पं दुष्कृतं नोऽस्ति येनामि शमागतः / धर्मात्मा कोशवांश्चापि देवराज इवापरः / / 10 भवतां वाथ वा मह्यं तत्त्वेनैतद्विमृश्यताम् // 25 सुवीरस्य तु पुत्रोऽभूत्सर्वसंग्रामदुर्जयः।। एतद्राज्ञो वचः श्रुत्वा विप्रास्ते भरतर्षभ / दुर्जयेत्यभिविख्यातः सर्वशास्त्रविशारदः // 11 नियता वाग्यताश्चैव पावकं शरणं ययुः // 26 दुर्जयस्येन्द्रवपुषः पुत्रोऽग्निसदृशद्युतिः / तान्दर्शयामास तदा भगवान्हव्यवाहनः / दुर्योधनो नाम महाराजासीद्राजसत्तम / 12 स्वं रूपं दीप्तिमत्कृत्वा शरदर्कसमद्युतिः / / 2. तस्येन्द्रसमवीर्यस्य संग्रामेष्वनिवर्तिनः / . ततो महात्मा तानाह दहनो ब्राह्मणर्षभान् / विषयश्च प्रभावश्च तुल्यमेवाभ्यवर्तत // 13 वरयाम्यात्मनोऽर्थाय दुर्योधनसुतामिति // 28 रत्नैर्धनैश्च पशुभिः सस्यैश्चापि पृथग्विधैः / ततस्ते काल्यमुत्थाय तस्मै राज्ञे न्यवेदयन् / नगरं विषयश्चास्य प्रतिपूर्ण तदाभवत् // 14 ब्राह्मणा विस्मिताः सर्वे यदुक्तं चित्रभानुना // 29 न तस्य विषये चाभूत्कृपणो नापि दुर्गतः / ततः स राजा तच्छ्रुत्वा वचनं ब्रह्मवादिनाम् / व्याधितो वा कृशो वापि तस्मिन्नाभून्नरः क्वचित् / / अवाप्य परमं हर्षं तथेति प्राह बुद्धिमान् // 30 सुदक्षिणो मधुरवागनसूयुर्जितेन्द्रियः / प्रायाचत नृपः शुल्कं भगवन्तं विभावसुम् / धर्मात्मा चानृशंसश्च विक्रान्तोऽथाविकत्थनः॥१६ नित्यं सांनिध्यमिह ते चित्रभानो भवेदिति / यज्वा वदान्यो मेधावी ब्रह्मण्यः सत्यसंगरः / | तमाह भगवानमिरेवमस्त्विति पार्थिवम् // 31 न चावमन्ता दाता च वेदवेदाङ्गपारगः // 17 ततः सांनिध्यमद्यापि माहिष्मत्यां विभावसोः / तं नर्मदा देवनदी पुण्या शीतजला शिवा / दृष्टं हि सहदेवेन दिशो विजयता तदा // 32 चकमे पुरुषश्रेष्ठं स्वेन भावेन भारत // 18 ततस्तां समलंकृत्य कन्यामहतवाससम् / तस्य जज्ञे तदा नद्यां कन्या राजीवलोचना / ददौ दुर्योधनो राजा पावकाय महात्मने // 33 नाम्ना सुदर्शना राजन्रूपेण च सुदर्शना // 19 प्रतिजग्राह चाग्निस्तां राजपुत्री सुदर्शनाम् / ताहापा न नारीषु भूतपूर्वा युधिष्ठिर / विधिना वेददृष्टेन वसोर्धारामिवाध्वरे // 34 दुर्योधनसुता याहगभवद्वरवर्णिनी // 20 तस्या रूपेण शीलेन कुलेन वपुषा श्रिया। तामग्रिश्चकमे साक्षाद्राजकन्यां सुदर्शनाम् / अभवत्प्रीतिमानग्निर्गभं तस्यां समादधे // 35 भूत्वा च ब्राह्मणः साक्षाद्वरयामास तं नृपम् // 21 तस्यां समभवत्पुत्रो नाम्नानेयः सुदर्शनः / दरिद्रश्वासवर्णश्च ममायमिति पार्थिवः / शिशुरेवाध्यगात्सर्वं स च ब्रह्म सनातनम् // 36 न दित्सति सुतां तस्मै तां विप्राय सुदर्शनाम् // 22 अथौघवान्नाम नृपो नृगस्यासीस्पितामहः / ततोऽस्य वितते यज्ञे नष्टोऽभूद्धव्यवाहनः / तस्याप्योघवती कन्या पुत्रश्चौघरथोऽभवत् // 37 ततो दुर्योधनो राजा वाक्यमाहविजस्तदा // 23 / तामोघवान्ददौ तस्मै स्वयमोघवती सुताम् / दुष्कृतं मम किं न स्याद्भवतां वा द्विजर्षभाः। | सुदर्शनाय विदुषे भार्यार्थे देवरूपिणीम् / / 38 येन नाशं जगामाग्निः कृतं कुपुरुषेष्विव / / 24 / स गृहस्थाश्रमरतस्तया सह सुदर्शनः / म,भा, 17 - 2497 - Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 2. 39 ] महाभारते [13. 2. 68 कुरुक्षेत्रेऽवसद्राजन्नोघवत्या समन्वितः // 39 नान्यमात्मप्रदानात्स तस्या वत्रे वरं द्विजः // 54 गृहस्थश्वावजेष्यामि मृत्युमित्येव स प्रभो।। सा तु राजसुता स्मृत्वा भर्तुर्वचनमादितः। प्रतिज्ञामकरोद्धीमान्दीप्ततेजा विशां पते // 40 तथेति लज्जमाना सा तमुवाच द्विजर्षभम् / / 55 तामथौघवतीं राजन्स पावकसुतोऽब्रवीत् / ततो रहः स विप्रर्षिः सा चैवोपविवेश ह। . अतिथेः प्रतिकूलं ते न कर्तव्यं कथंचन // 41 संस्मृत्य भर्तुर्वचनं गृहस्थाश्रमकाङ्गिणः // 56 येन येन च तुष्येत नित्यमेव त्वयातिथिः / अथेमान्समुपादाय स पावकिरुपागमत् / अप्यात्मनः प्रदानेन न ते कार्या विचारणा // 42 मृत्युना रौद्रभावेन नित्यं बन्धुरिवान्वितः // 57 एतद्रुतं मम सदा हृदि संपरिवर्तते / ततस्त्वाश्रममागम्ब स पावकसुतस्तदा / गृहस्थानां हि सुश्रोणि नातिथेर्विद्यते परम् // 43 तामाजुहावौघवली कासि यातेति चासकृत् // 58 प्रमाणं यदि वामोरु वचस्ते मम शोभने / तस्मै प्रतिवचः सा तु भर्ने न प्रददौ तदा / इदं वचनमव्यमा हृदि त्वं धारयेः सदा // 44 कराभ्यां तेन विप्रेण स्पृष्टा भर्तृव्रता सती // 59 निष्क्रान्ते मयि कल्याणि तथा संनिहितेऽनघे। उच्छिष्टास्मीति मन्वाना लज्जिता भर्तुरेव च / नातिथिस्तेऽवमन्तव्यः प्रमाणं यद्यहं तव / / 45 तूष्णीभूताभवत्साध्वी न चोवाचाथ किंचन // 60 तमब्रवीदोघवती यता मूर्ध्नि कृताञ्जलिः / अथ तां पुनरेवेदं प्रोवाच स सुदर्शनः / न मे त्वद्वचनात्किचिदकर्तव्यं कथंचन // 46 क्क सा साध्वी व सा याता गरीयः किमतो मम // जिगीषमाणं तु गृहे तदा मृत्युः सुदर्शनम् / पतिव्रता सत्यशीला नित्यं चैवार्ज रता / पृष्ठतोऽन्वगमद्राजरन्ध्रान्वेषी तदा सदा // 47 कथं न प्रत्युदेत्यद्य स्मयमांना यथा पुरा // 62 इध्मार्धं तु गते तस्मिन्नग्निपुत्रे सुदर्शने / उटजस्थस्तु तं विप्रः प्रत्युवाच सुदर्शनम् / अतिथिाह्मणः श्रीमांस्तामाहौघवतीं तदा // 48 अतिथिं विद्धि संप्राप्तं पावके ब्राह्मणं च माम् // आतिथ्यं दत्तमिच्छामि त्वयाद्य वरवर्णिनि / अनया छन्द्यमानोऽहं भार्यया तव सत्तम / प्रमाणं यदि धर्मस्ते गृहस्थाश्रमसंमतः // 49 तैस्तैरतिथिसत्कारैराजवेऽस्या दृढं मनः // 64 इत्युक्ता तेन विप्रेण राजपुत्री यशस्विनी। अनेन विधिना सेयं मामर्चति शुभानना / विधिना प्रतिजग्राह वेदोक्तेन विशां पते // 50 अनुरूपं यदत्राद्य तद्भवान्वक्तुमर्हति // 65 आसनं चैव पाद्यं च तस्मै दत्त्वा द्विजातये। कूटमुद्गरहस्तस्तु मृत्युस्तं वै समन्वयात् / प्रोवाचौघवती विप्रं केनार्थः किं ददामि ते // 51 हीनप्रतिज्ञमत्रैनं वधिष्यामीति चिन्तयन् // 66 तामब्रवीत्ततो विप्रो राजपुत्री सुदर्शनाम् / सुदर्शनस्तु मनसा कर्मणा चक्षुषा गिरा। त्वया ममार्थः कल्याणि निर्विशङ्के तदाचर // 52 त्यक्तेय॑त्यक्तमन्युश्च स्मयमानोऽब्रवीदिदम् // 67 यदि प्रमाणं धर्मस्ते गृहस्थाश्रमसंमतः / सुरतं तेऽस्तु विप्राग्य प्रीतिर्हि परमा मम / प्रदानेनात्मनो राज्ञि कर्तुमर्हसि मे प्रियम् // 53 गृहस्थस्य हि धर्मोऽत्र्यः संप्राप्तातिथिपूजनम् // 68 तथा संछन्द्यमानोऽन्यैरीप्सितैर्नृपकन्यया। / अतिथिः पूजितो यस्य गृहस्थस्य -तु गच्छति / -2498 - Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 2. 69] अनुशासनपर्व [ 13. 3. 1 नान्यस्तस्मात्परो धर्म इति प्राहुर्मनीषिणः // 69 / यत्र नावृत्तिमभ्येति शाश्वतांस्तान्सनातनान् / / 84 प्राणा हि मम दाराश्च यच्चान्यद्विद्यते वसु / अनेन चैव देहेन लोकांस्त्वमभिपत्स्यसे / अतिथिभ्यो मया देयमिति मे व्रतमाहितम् / / 70 निर्जितश्च त्वया मृत्युरैश्वर्यं च तवोत्तमम् // 85 निःसंदिग्धं मया वाक्यमेतत्ते समुदाहृतम् / पश्च भूतान्यतिक्रान्तः स्ववीर्याच मनोभवः / तेनाहं विप्र सत्येन स्वयमात्मानमालभे // 71 / गृहस्थधर्मेणानेन कामक्रोधौ च ते जितौ / / 86 पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च पञ्चमम् / स्नेहो रागश्च तन्द्री च मोहो द्रोहश्च केवलः / बुद्धिरात्मा मनः कालो दिशश्चैव गुणा दश // 72 तव शुश्रूषया राजनराजपुत्र्या विनिर्जिताः // 87 नित्यमेते हि पश्यन्ति देशिनां देहसंश्रिताः। भीष्म उवाच / सुकृतं दुष्कृतं चापि कर्म धर्मभृतां वर / / 73 शुक्लानां तु सहस्रेण वाजिनां रथमुत्तमम् / यथैषा नानृता वाणी मयाद्य समुदाहृता। युक्तं प्रगृह्य भगवान्व्यवसायो जगाम तम् // 88 तेन सत्येन मां देवाः पालयन्तु दहन्तु वा // 74 मृत्युरात्मा च लोकाश्च जिता भूतानि पञ्च च / ततो नादः समभवद्दिक्षु सर्वासु भारत / बुद्धिः कालो मनो व्योम कामक्रोधौ तथैव च // असकृत्सत्यमित्येव नैतन्मिथ्येति सर्वशः / / 75 तस्माद्गृहाश्रमस्थस्य नान्यदैवतमस्ति वै / उटजात्तु ततस्तस्मान्निश्चक्राम स वै द्विजः / ऋतेऽतिथिं नरव्याघ्र मनसैतद्विचारय // 90 वपुषा खं च भूमिं च व्याप्य वायुरिवोद्यतः॥७६ अतिथिः पूजितो यस्य ध्यायते मनसा शुभम् / खरेण विप्रः शैक्षण त्रील्लोकाननुनादयन् / न तत्क्रतुशतेनापि तुल्यमाहुर्मनीषिणः / / 91 उवाच चैनं धर्मज्ञं पूर्वमामत्र्य नामतः // 77 पात्रं त्वतिथिमासाद्य शीलाढ्यं यो न पूजयेत् / धर्मोऽहमस्मि भद्रं ते जिज्ञासार्थं तवानघ / स दत्त्वा सुकृतं तस्य क्षपयेत ह्यनर्चितः // 92 प्राप्तः सत्यं च ते ज्ञात्वा प्रीतिर्मे परमा त्वयि // एतत्ते कथितं पुत्र मयाख्यानमनुत्तमम् / विजितश्च त्वया मृत्युर्योऽयं त्वामनुगच्छति / यथा हि विजितो मृत्युर्गृहस्थेन पुराभवत् / / 93 ध्रान्वेषी तव सदा त्वया धृत्या वशीकृतः // 79 धन्यं यशस्यमायुष्यमिदमाख्यानमुत्तमम् / न चास्ति शक्तिस्त्रैलोक्ये कस्यचित्पुरुषोत्तम / बुभूषताभिमन्तव्यं सर्वदुश्चरितापहम् // 94 पतिव्रतामिमां साध्वीं तवोद्वीक्षितुमप्युत // 80 / य इदं कथयेद्विद्वानहन्यहनि भारत / रक्षिता त्वद्गुणैरेषा पतिव्रतगुणैस्तथा। सुदर्शनस्य चरितं पुण्याललोकानवाप्नुयात् / / 95 अधृष्या यदियं ब्रूयात्तथा तन्नान्यथा भवेत् // 81 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि एषा हि तपसा स्वेन संयुक्ता ब्रह्मवादिनी / द्वितीयोऽध्यायः // 2 // पावनाथं च लोकस्य सरिच्छ्रेष्ठा भविष्यति // 82 अर्धेनौघवती नाम त्वामधेनानुयास्यति / युधिष्ठिर उवाच / शरीरेण महाभागा योगो ह्यस्या वशे स्थितः॥८३ ब्राह्मण्यं यदि दुष्प्रापं त्रिभिवर्णेनराधिप / अनया सह लोकांश्च गन्तासि तपसार्जितान् / कथं प्राप्तं महाराज क्षत्रियेण महात्मना // 1 -2499 - Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 3. 2] महाभारते [13. 4. 10 . विश्वामित्रेण धर्मात्मन्ब्राह्मणत्वं नरर्षभ / किमेतदिति तत्त्वेन प्रब्रूहि भरतर्षभ / श्रोतुमिच्छामि तत्त्वेन तन्मे ब्रूहि पितामह // 2 देहान्तरमनासाद्य कथं स ब्राह्मणोऽभवत् // 17 तेन पमितवीर्येण वसिष्ठस्य महात्मनः / एतत्तत्त्वेन मे राजन्सर्वमाख्यातुमर्हसि / हतं पुत्रशतं सद्यस्तपसा प्रपितामह // 3 मतंगस्य यथातत्त्वं तथैवैतद्भवीहि मे // 18 यातुधानाश्च बहवो राक्षसास्तिग्मतेजसः / स्थाने मतंगो ब्राह्मण्यं नालभद्भरतर्षभ / मन्युनाविष्टदेहेन सष्टाः कालान्तकोपमाः // 4 चण्डालयोनौ जातो हि कथं ब्राह्मण्यमाप्नुयात् // 19 महान्कुशिकवंशश्व ब्रह्मर्षिशतसंकुलः / - इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि स्थापितो नरलोकेऽस्मिन्विद्वान्ब्राह्यणसंस्तुतः // 5 तृतीयोऽध्यायः // 3 // ऋचीकस्यात्मजश्चैव शुनःशेपो महातपाः / विमोक्षितो महासत्रात्पशुतामभ्युपागतः // 6 भीष्म उवाच / हरिश्चन्द्रऋतौ देवांस्तोषयित्वात्मतेजसा / श्रूयतां पार्थ तत्त्वेन विश्वामित्रो यथा पुरा / पुत्रतामनुसंप्राप्तो विश्वामित्रस्य धीमतः // 7 ब्राह्मणत्वं गतस्तात ब्रह्मर्षित्वं तथैव च // 1 नाभिवादयते ज्येष्ठं देवरातं नराधिप / भरतस्यान्वये चैवाजमीढो नाम पार्थिवः / पुत्राः पञ्चशताश्चापि शप्ताः श्वपचतां गताः // 8 बभूव भरतश्रेष्ठ यज्वा धर्मभृतां वरः // 2 त्रिशङ्कबन्धुसंत्यक्त इक्ष्वाकुः प्रीतिपूर्वकम् / तस्य पुत्रो महानासीजहुर्नाम नरेश्वरः। अवाक्शिरा दिवं नीतो दक्षिणामाश्रितो दिशम् // दुहितृत्वमनुप्राप्ता गङ्गा यस्य महात्मनः // 3 विश्वामित्रस्य विपुला नदी राजर्षिसेविता / तस्यात्मजस्तुल्यगुणः सिन्धुद्वीपो महायशाः / कौशिकीति शिवा पुण्या ब्रह्मर्षिगणसेविता // 10 सिन्धुद्वीपाच्च राजर्षिर्बलाकाश्वो महाबलः // 4 तपोविनकरी चैव पञ्चचूडा सुसंमता। वल्लभस्तस्य तनयः साक्षाद्धर्म इवापरः / रम्भा नामाप्सराः शापाद्यस्य शैलत्वमागता // 11 कुशिकस्तस्य तनयः सहस्राक्षसमद्युतिः // 5 तथैवास्य भयावद्धवा वसिष्ठः सलिले पुरा / कुशिकस्यात्मजः श्रीमानगाधिर्नाम जनेश्वरः / आत्मानं मज्जयामास विपाशः पुनरुत्थितः // 12 अपुत्रः स महाबाहुर्वनवासमुदावसत् // 6 तदाप्रभृति पुण्या हि विपाशाभून्महानदी / कन्या जज्ञे सुता तस्य वने निवसतः सतः / विख्याता कर्मणा तेन वसिष्ठस्य महात्मनः // 13 नाना सत्यवती नाम रूपेणाप्रतिमा भुवि // 7 वाग्भिश्च भगवान्येन देवसेनाप्रगः प्रभुः / तां वव्रे भार्गवः श्रीमांश्यवनस्यात्मजः प्रभुः / स्तुतः प्रीतमनाश्चासीच्छापाच्चैनममोचयत् // 14 / ऋचीक इति विख्यातो विपुले तपसि स्थितः॥८ ध्रुवस्यौत्तानपादस्य ब्रह्मर्षीणां तथैव च / स तां न प्रददौ तस्मै ऋचीकाय महात्मने / मध्ये ज्वलति यो नित्यमुदीचीमाश्रितो दिशम् // 15 / दरिद्र इति मत्वा वै गाधिः शत्रुनिबर्हणः // 9 तस्यैतानि च कर्माणि तथान्यानि च कौरव / प्रत्याख्याय पुनर्यान्तमब्रवीद्राजसत्तमः / क्षत्रियस्येत्यतो जातमिदं कौतूहलं मम // 16 | शुल्कं प्रदीयतां मह्यं ततो वेत्स्यसि मे सुताम् // -2500 - Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 4. 11] अनुशासनपर्व [13. 4. 38 ऋचीक उवाच / ततः सा त्वरितं गत्वा तत्सर्व प्रत्यवेदयत् / किं प्रयच्छामि राजेन्द्र तुभ्यं शुल्कमहं नृप।। मातुश्चिकीर्षितं राजन्नचीकस्तामथाब्रवीत् // 24 दुहितुर्ब्रह्मसंसक्तो मात्राभूत्ते विचारणा // 11 गुणवन्तमपत्यं वै त्वं च सा जनयिष्यथः / गाधिरुवाच / जनन्यास्तव कल्याणि मा भूद्वै प्रणयोऽन्यथा // तव चैव गुणश्लाघी पुत्र उत्पत्स्यते शुभे / चन्द्ररश्मिप्रकाशानां हयानां वातरंहसाम् / अस्मद्वंशकरः श्रीमांस्तव भ्राता च वंशकृत् // 26 एकत: श्यामकर्णानां सहस्रं देहि भार्गव // 12 ऋतुस्नाता च साश्वत्थं त्वं च वृक्षमुदुम्बरम् / भीष्म उवाच / परिष्वजेथाः कल्याणि तत इष्टमवाप्स्यथः // 27 ततः स भृगुशार्दूलच्यवनस्यात्मजः प्रभुः / चरुद्वयमिदं चैव मत्रपूतं शुचिस्मिते / अब्रवीद्वरुणं देवमादित्यं पतिमम्भसाम् // 13 त्वं च सा चोपयुञ्जीथां ततः पुत्राववाप्स्यथः // 28 एकतः श्यामकर्णानां यानां चन्द्रवर्चसाम् / ततः सत्यवती हृष्टा मातरं प्रत्यभाषत / सहस्रं वातवेगानां भिक्षे त्वां देवसत्तम // 14 यहचीकेन कथितं तच्चाचख्यौ चरुद्वयम् // 29 तथेति वरुणो देव आदित्यो भृगुसत्तमम् / तामुवाच ततो माता सुतां सत्यवतीं तदा / उवाच यत्र ते छन्दस्तत्रोत्स्थास्यन्ति वाजिनः // 15 पुत्रि मूर्धा प्रपन्नायाः कुरुष्व वचनं मम // 30 ध्यातमात्रे ऋचीकेन हयानां चन्द्रवर्चसाम् / भर्ना य एष दत्तस्ते चर्मत्रपुरस्कृतः / गङ्गाजलात्समुत्तस्थौ सहस्रं विपुलौजसाम् // 16 एतं प्रयच्छ मह्यं त्वं मदीयं त्वं गृहाण च // 31 अदूरे कन्यकुब्जस्य गङ्गायास्तीरमुत्तमम् / व्यत्यासं वृक्षयोश्चापि करवाव शुचिस्मिते / अश्वतीथं तदद्यापि मानवाः परिचक्षते // 17 . यदि प्रमाणं वचनं मम मातुरनिन्दिते // 32 तत्तदा गाधये तात सहस्रं वाजिनां शुभम् / व्यक्तं भगवता चात्र कृतमेवं भविष्यति / ऋचीकः प्रददौ प्रीतः शुल्काथं जपतां वरः // ततो मे त्वच्चरौ भावः पादपे च सुमध्यमे / ततः स विस्मितो राजा गाधिः शापभयेन च / कथं विशिष्टो भ्राता ते भवेदित्येव चिन्तय / / 33 ददौ तां समलंकृत्य कन्यां भृगुसुताय वै // 19 तथा च कृतवत्यौ ते माता सत्यवती च सा / जप्राह पाणिं विधिना तस्या ब्रह्मर्षिसत्तमः / अथ गर्भावनुप्राप्ते उभे ते वै युधिष्ठिर // 34 सा च तं पतिमासाद्य परं हर्षमवाप ह // 20 दृष्ट्वा गर्भमनुप्राप्तां भायां स च महानृषिः / स तुतोष च विप्रर्षिस्तस्या वृत्तेन भारत / नवाच तां सत्यवती दुर्मना भृगुसत्तमः // 35 छन्दयामास चैवैनां वरेण वरवर्णिनीम् // 21 / व्यत्यासेनोपयुक्तस्ते चर्व्यक्तं भविष्यति / मात्रे तत्सर्वमाचख्यौ सा कन्या राजसत्तमम् / व्यत्यासः पादपे चापि सुव्यक्तं ते कृतः शुभे // 36 अथ तामनवीन्माता सुतां किंचिदवाङ्मुखीम् / / 22 / मया हि विश्वं यद्ब्रह्म त्वच्चरौ संनिवेशितम् / / ममापि पुत्रि भर्ता ते प्रसादं कर्तुमर्हति / क्षत्रवीयं च सकलं चरौ तस्या निवेशितम् // 37 अपत्यस्य प्रदानेन समर्थः स महातपाः // 23 त्रिलोकविख्यातगुणं त्वं विप्रं जनयिष्यसि / - 2501 - Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 4. 38] महाभारते [ 13. 5.4 सा च क्षत्रं विशिष्टं वै तत एतत्कृतं मया // 38 चक्रको मारुतन्तव्यो वातघ्नोऽथाश्वलायनः // 53 व्यत्यासस्तु कृतो यस्मात्त्वया मात्रा तथैव च। / श्यामायनोऽथ गाय॑श्च जाबालिः सुश्रुतस्तथा / तस्मात्सा ब्राह्मणश्रेष्ठं माता ते जनयिष्यति // 39 कारीषिरथ संश्रुत्यः परपौरवतन्तवः // 54 क्षत्रियं तूप्रकर्माणं त्वं भद्रे जनयिष्यसि / महानृषिश्च कपिलस्तथर्षिस्तारकायनः / न हि ते तत्कृतं साधु मातृस्नेहेन भामिनि // 40 तथैव चोपगहनस्तथर्षिश्चार्जुनायनः // 55 . सा श्रुत्वा शोकसंतप्ता पपात वरवर्णिनी। मार्गमित्रिर्हिरण्याक्षो जङ्घारिर्बभ्रुवाहनः / .. भूमौ सत्यवती राजश्छिन्नेव रुचिरा लता / / 41 / / सूतिर्विभूतिः सूतश्च सुरङ्गश्च तथैव हि // 56 प्रतिलभ्य च सा संज्ञां शिरसा प्रणिपत्य च। आराद्धिर्नामयश्चैव चाम्पेयोज्जयनौ तथा / उवाच भार्या भर्तारं गाधेयी ब्राह्मणर्षभम् // 42 नवतन्तुर्बकनखः शयोनरतिरेव च // 57 प्रसादयन्त्यां भार्यायां मयि ब्रह्मविदां वर। शयोरुहश्चारुमत्स्यः शिरीषी चाथ गार्दभिः / प्रसादं कुरु विप्रर्षे न मे स्यात्क्षत्रियः सुतः // 43 उज्जयोनिरदापेक्षी नारदी च महानृषिः / कामं ममोग्रकर्मा वै पौत्रो भवितुमर्हति / विश्वामित्रात्मजाः सर्वे मुनयो ब्रह्मवादिनः // 58 न तु मे स्यात्सुतो ब्रह्मन्नेष मे दीयतां वरः // 44 तन्नैष क्षत्रियो राजन्विश्वामित्रो महातपाः / एवमस्त्विति होवाच स्वां भायाँ सुमहातपाः। ऋचीकेनाहितं ब्रह्म परमेतद्युधिष्ठिर // 59 ततः सा जनयामास जमदग्निं सुतं शुभम् // 45 एतत्ते सर्वमाख्यातं तत्त्वेन भरतर्षभ / विश्वामित्रं चाजनयद्गार्भार्या यशस्विनी / विश्वामित्रस्य वै जन्म सोमसूर्याग्मितेजसः // 60 ऋषेः प्रभावाद्राजेन्द्र ब्रह्मर्षि ब्रह्मवादिनम् // 46 / यत्र यत्र च संदेहो भूयस्ते राजसत्तम / ततो ब्राह्मणतां यातो विश्वामित्रो महातपाः / / तत्र तत्र च मां ब्रूहि च्छेत्तास्मि तव संशयान् // क्षत्रियः सोऽप्यथ तथा ब्रह्मवंशस्य कारकः // 47 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि तस्य पुत्रा महात्मानो ब्रह्मवंशविवर्धनाः / चतुर्थोऽध्यायः // 4 // तपस्विनो ब्रह्मविदो गोत्रकार एव च // 48 मधुच्छन्दश्च भगवान्देवरातश्च वीर्यवान् / - युधिष्ठिर उवाच / अक्षीणश्च शकुन्तश्च बभ्रुः कालपथस्तथा // 49 आनृशंस्यस्य धर्मस्य गुणान्भक्तजनस्य च / याज्ञवल्क्यश्च विख्यातस्तथा स्थूणो महाव्रतः / श्रोतुमिच्छामि कास्न्येन तन्मे हि पितामह // 1 उलूको यमदूतश्च तथर्षिः सैन्धवायनः // 50 भीष्म उवाच / कर्णजङ्घश्च भगवान्गालवश्च महानृषिः / विषये काशिराजस्य प्रामान्निष्क्रम्य लुब्धकः / ऋषिर्वज्रस्तथाख्यातः शालङ्कायन एव च // 51 सविषं काण्डमादाय मृगयामास वै मृगम् // 2 लालाट्यो नारदश्चैव तथा कूर्चमुखः स्मृतः / तत्र चामिषलुब्धेन लुब्धकेन महावने / वादुलिर्मुसलश्चैव रक्षोग्रीवस्तथैव च // 52 अविदूरे मृगं दृष्ट्वा बाणः प्रतिसमाहितः // 3 अनिको नैकभृच्चैव शिलायूपः सितः शुचिः। तेन दुर्वारितास्त्रेण निमित्तचपलेषुणा / -2502 - Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 5. 4] अनुशासनपर्व [13. 6.1 महान्वनतरुर्विद्धो मृगं तत्र जिघांसता // 4 सुदीर्घमभिनिःश्वस्य दीनो वाक्यमुवाच ह // 19 स तीक्ष्णविषदिग्धेन शरेणातिबलात्कृतः / / अनतिक्रमणीयानि दैवतानि शचीपते / उत्सृज्य फलपत्राणि पादपः शोषमागतः // 5 यत्राभवस्तत्र भवस्तन्निबोध सुराधिप / 20 तस्मिन्वृक्षे तथाभूते कोटरेषु चिरोषितः / अस्मिन्नहं द्रुमे जातः साधुभिश्च गुणैर्युतः / न जहाति शुको वासं तस्य भक्त्या वनस्पतेः // बालभावे च संगुप्तः शत्रुभिश्च न धर्षितः // 21 निष्प्रचारो निराहारो ग्लानः शिथिलवागपि / / किमनुक्रोशवैफल्यमुत्पादयसि मेऽनघ / कृतज्ञः सह वृक्षेण धर्मात्मा स व्यशुष्यत // 7 आनृशंस्येऽनुरक्तस्य भक्तस्यानुगतस्य च // 22 वमुदारं महासत्त्वमतिमानुषचेष्टितम् / अनुक्रोशो हि साधूनां सुमहद्धर्मलक्षणम् / समदुःखसुखं ज्ञात्वा विस्मितः पाकशासनः // 8 अनुक्रोशश्च साधूनां सदा प्रीतिं प्रयच्छति // 23 ततश्चिन्तामुपगतः शक्रः कथमयं द्विजः। त्वमेव दैवतैः सर्वैः पृच्छयसे धर्मसंशयान् / तिर्यग्योनावसंभाव्यमानृशंस्यं समास्थितः // 9 अतस्त्वं देव देवानामाधिपत्ये प्रतिष्ठितः // 24 अथ वा नात्र चित्रं हीत्यभवद्वासवस्य तु। नार्हसि त्वं सहस्राक्ष त्याजयित्वेह भक्तितः / प्राणिनामिह सर्वेषां सर्व. सर्वत्र दृश्यते // 10 समर्थमुपजीव्येमं त्यजेयं कथमद्य वै // 25 ततो ब्राह्मणवेषेण मानुषं रूपमास्थितः / तस्य वाक्येन सौम्येन हर्षितः पाकशासनः / अवतीर्य महीं शक्रस्तं पक्षिणमुवाच ह // 11 शुकं प्रोवाच धर्मज्ञमानृशंस्येन तोषितः // 26 शुक भोः पक्षिणां श्रेष्ठ दाक्षेयी सुप्रजास्त्वया / वरं वृणीष्वेति तदा स च वव्रे वरं शुकः / पृच्छे त्वा शुष्कमेतं वै कस्मान्न त्यजसि द्रुमम् // आनृशंस्यपरो नित्यं तस्य वृक्षस्य संभवम् / / 27 अथ पृष्ठः शुकः प्राह मूळ समभिवाद्य तम् / विदित्वा च दृढां शक्रस्तां शुके शीलसंपदम् / खागतं देवराजाय विज्ञातस्तपसा मया // 13 प्रीतः क्षिप्रमथो वृक्षममृतेनावसिक्तवान् // 28 ततो दशशताक्षेण साधु साध्विति भाषितम् / ततः फलानि पत्राणि शाखाश्चापि मनोरमाः / अहो विज्ञानमित्येवं तपसा पूजितस्ततः // 14 शुकस्य दृढभक्तित्वाच्छ्रीमत्त्वं चाप स द्रुमः // 29 तमेवं शुभकर्माणं शुकं परमधार्मिकम् / शुकस्य कर्मणा तेन आनृशंस्यकृतेन ह / विजानन्नपि तां प्राप्तिं पप्रच्छ बलसूदनः // 15 आयुषोऽन्ते महाराज प्राप शक्रसलोकताम् // 30 निष्पत्रमफलं शुष्कमशरण्यं पतत्रिणाम् / एवमेव मनुष्येन्द्र भक्तिमन्तं समाश्रितः / किमर्थ सेवसे वृक्षं यदा महदिदं वनम् // 16 सर्वार्थसिद्धिं लभते शुकं प्राप्य यथा द्रुमः / / 31 अन्येऽपि बहवो वृक्षाः पत्रसंछन्नकोटराः / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि शुभाः पर्याप्तसंचारा विद्यन्तेऽस्मिन्महावने // 17 पञ्चमोऽध्यायः // 5 // गतायुषमसामर्थ्य क्षीणसारं हतश्रियम् / विमृश्य प्रज्ञया धीर जहीमं ह्यस्थिरं द्रुमम् // 18 युधिष्ठिर उवाच / तदुपश्रुत्य धर्मात्मा शुकः शक्रेण भाषितम् / / पितामह महाप्राज्ञ सर्वशास्त्रविशारद / -2503 - Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 6. 1] महाभारते [ 13. 6. 30 देवे पुरुषकारे च किंस्विच्छ्रेष्ठतरं भवेत् // 1 शौचेन लभते विप्रः क्षत्रियो विक्रमेण च / भीष्म उवाच / वैश्यः पुरुषकारेण शूद्रः शुश्रूषया श्रियम् // 16 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / नादातारं भजन्त्यर्था न कीवं नापि निष्क्रियम् / वसिष्ठस्य च संवादं ब्रह्मणश्च युधिष्ठिर // 2 नाकर्मशीलं नाशूरं तथा नैवातपस्विनम् // 17 दैवमानुषयोः किंस्वित्कर्मणोः श्रेष्ठमित्युत / गेन लोकाचयः सृष्टा दैत्याः सर्वाश्च देवताः / पुरा वसिष्ठो भगवान्पितामहमपृच्छत // 3 म एष भगवान्विष्णुः समुद्रे तप्यते तपः // 18 ततः पद्मोद्भवो राजन्देवदेवः पितामहः / खं चेत्कर्मफलं न स्यात्सर्वमेवाफलं भवेत् / स्वाच मधुरं वाक्यमर्थवढेतुभूषितम् // 4 लोको दैवं समालम्ब्य उदासीनो भवेन्न त // 19 नाबीजं जायते किंचिन्न वीजेन विना फलम् / अकृत्वा मानुषं कर्म यो दैवमनुवर्तते / वीजादीजं प्रभवति बीजादेव फलं स्मृतम् // 5 वृथा श्राम्यति संप्राप्य पति कीबमिवाङ्गाना // 20 याशं वपते बीजं क्षेत्रमासाद्य कर्षकः / न तथा मानुषे लोके भयमस्ति शुभाशुभे / सुकृते दुष्कृते वापि तादृशं लभते फलम् // 6 यथा त्रिदशलोके हि भयमल्पेन जायते // 21 यथा बीजं विना क्षेत्रमुप्तं भवति निष्फलम् / कृतः पुरुषकारस्तु दैवमेवानुवर्तते / तथा पुरुषकारेण विना दैवं न सिध्यति // . न दैवमकृते किंचित्कस्यचिदातुमर्हति // 22 क्षेत्रं पुरुषकारस्तु दैवं बीजमुदाहृतम् / यदा स्थानान्यनित्यानि दृश्यन्ते देवतेष्वपि / क्षेत्रबीजसमायोगात्ततः सत्यं समृध्यते // 8 / कथं कर्म विना दैवं स्थास्यते स्थापयिष्यति // 23 कर्मणः फलनिवृत्तिं स्वयमभाति कारकः। . न देवतानि लोकेऽस्मिन्यापारं यान्ति कस्यचित् / प्रत्यक्षं दृश्यते लोके कृतस्याप्यकृतस्य च // 9 व्यासङ्गं जनयन्त्युप्रमात्माभिभवशङ्कया // 24 . शुभेन कर्मणा सौख्यं दुःखं पापेन कर्मणा / ऋषीणां देवतानां च सदा भवति विग्रहः / कृतं सर्वत्र लभते नातं भुज्यते कचित् // 1. कस्य वाचा ह्यदैवं स्याद्यतो दैवं प्रवर्तते // 25 कृती सर्वत्र लभते प्रतिष्ठां भाग्यविक्षतः / कथं चास्य समुत्पत्तिर्यथा दैवं प्रवर्तते / भकृती लभते भ्रष्टः क्षते क्षारावसेचनम् // 11 . एवं त्रिदशलोकेऽपि प्राप्यन्ते बहवश्छलाः // 26 तपसा रूपसौभाग्यं रत्नानि विविधानि च / आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः / . प्राप्यते कर्मणा सर्व न दैवादकृतात्मना // 12 आत्मैव चात्मनः साक्षी कृतस्याप्यकृतस्य च // 27 तथा स्वर्गश्च भोगच निष्ठा या च मनीषिता। कृतं च विकृतं किंचित्कृते कर्मणि सिध्यति / सर्व पुरुषकारेण कृतेनेहोपपद्यते // 13 सुकृते दुष्कृतं कर्म न यथार्थं प्रपद्यते // 28 ज्योतींषि त्रिदशा नागा यक्षाश्चन्द्रार्कमारुताः।। देवानां शरणं पुण्यं सर्व पुण्यैरवाप्यते / सर्वे पुरुषकारेण मानुष्यादेवतां गताः // 14 पुण्यशीलं नरं प्राप्य किं देवं प्रकरिष्यति // 29 अर्थो वा मित्रवर्गो वा ऐश्वर्य वा कुलान्वितम् / पुरा ययातिर्विभ्रष्टच्यावितः पतितः क्षितौ / श्रीश्चापि दुर्लभा भोक्तुं तथैवाकृतकर्ममिः॥ 15 पुनरारोपितः स्वर्ग दौहित्रैः पुण्यकर्मभिः // 30 -2504 - Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. 6. 31] अनुशासनपर्व 13. 7.6 पुरूरवाश्च राजर्षिर्द्विजैरभिहितः पुरा / सुनिहितमपि चार्थं दैवतै रक्ष्यमाणं ऐल इत्यभिविख्यातः स्वर्ग प्राप्तो महीपतिः // 31 ___ व्ययगुणमपि साधुं कर्मणा संश्रयन्ते // 45 अश्वमेधादिभिर्यज्ञैः सत्कृतः कोसलाधिपः / भवति मनुजलोकाद्देवलोको विशिष्टो महर्षिशापात्सौदासः पुरुषादत्वमागतः // 32 ___ बहुतरसुसमृद्ध्या मानुषाणां गृहाणि / अश्वत्थामा च रामश्च मुनिपुत्रौ धनुर्धरौ / पितृवनभवनाभं दृश्यते चामराणां न गच्छतः स्वर्गलोकं सुकृतेनेह कर्मणा // 33 न च फलति विकर्मा जीवलोकेन दैवम् // वसुर्यज्ञशतैरिष्ट्वा द्वितीय इव वासवः / व्यपनयति विमार्ग नास्ति दैवे प्रभुत्वं मिथ्याभिधानेनैकेन रसातलतलं गतः // 34 ___ गुरुमिव कृतमय्यं कर्म संयाति दैवम् / बलिवैरोचनिर्बद्धो धर्मपाशेन दैवतैः / अनुपहतमदीनं कामकारेण दैवं विष्णोः पुरुषकारेण पातालशयनः कृतः // 35 ___ नयति पुरुषक्कारः संचितस्तत्र तत्र // 47 शक्रस्योदस्य चरणं प्रस्थितो जनमेजयः / एतत्ते सर्वमाख्यातं मया वै मुनिसत्तम / द्विजस्त्रीणां वधं कृत्वा किं दैवेन न वारितः // 36 फलं पुरुषकारस्य सदा संदृश्य तत्त्वतः // 48 अज्ञानाद्राह्मणं हत्वा स्पृष्टो बालवधेन च। अभ्युत्थानेन देवस्य समारब्धेन कर्मणा / वैशंपायनविप्रर्षिः किं दैवेन निवारितः // 37 विधिना कर्मणा चैव स्वर्गमार्गमवाप्नुयात् // 49 गोप्रदानेन मिथ्या च ब्राह्मणेभ्यो महामखे। इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि -पुरा नगश्च राजर्षिः कृकलासत्वमागतः / / 38 षष्ठोऽध्यायः॥ 6 // धुन्धुमारश्च राजर्षिः सत्रेष्वेव जरां गतः / प्रीतिदायं परित्यज्य सुष्वाप स गिरिप्रजे // 39 युधिष्ठिर उवाच / पाण्डवानां हृतं राज्यं धार्तराष्ट्रमहाबलैः / कर्मणां मे समस्तानां शुभानां भरतर्षभ / पुनः 'प्रत्याहृतं चैव न दैवाद्भुजसंश्रयात् // 40 फलानि महतां श्रेष्ठ प्रब्रूहि परिपृच्छतः // 1 तपोनियमसंयुक्ता मुनयः संशितव्रताः / भीष्म उवाच / किं ते दैवबलाच्छापमुत्सृजन्ते न कर्मणा // 41 रहस्यं यदृषीणां तु तच्छृणुष्व युधिष्ठिर / पापमुत्सृजते लोके सर्व प्राप्य सुदुर्लभम् / या गतिः प्राप्यते येन प्रेत्यभावे चिरेप्सिता // 2 लोभमोहसमापन्नं न दैवं त्रायते नरम् // 42 येन येन शरीरेण यद्यत्कर्म करोति यः। यथाग्निः पवनोद्भूतः सूक्ष्मोऽपि भवते महान् / तेन तेन शरीरेण तत्तत्फलमुपाश्नुते // 3 तथा कर्मसमायुक्तं दैवं साधु विवर्धते / / 43 यस्यां यस्यामवस्थायां यत्करोति शुभाशुभम् / यथा तैलक्षयाद्दीपः प्रम्लानिमुपगच्छति / तस्यां तस्यामवस्थावां भुङ्क्ते जन्मनि जन्मनि // 4 तथा कर्मक्षयादेवं प्रम्लानिमुपगच्छति // 44 न नश्यति कृतं कर्म सदा पञ्चेन्द्रियैरिह / विपुलमपि धनौघं प्राप्य भोगान्त्रियो वा ते ह्यस्य साक्षिणो नित्यं षष्ठ आत्मा तथैव च // 5 पुरुष इह न शक्तः कर्महीनोऽपि भोक्तुम् / / चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद्वाचं दद्याच्च सूनृताम् / .भा. 14 - 2505 - Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 7. 6] महाभारते [ 13. 8.2 अनुव्रजेदुपासीत स यज्ञः पञ्चदक्षिणः // 6 योऽसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम्॥ यो दद्यादपरिक्लिष्टमन्नमध्वनि वर्तते / यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो विन्दति मातरम् / श्रान्तायादृष्टपूर्वाय तस्य पुण्यफलं महत् // 7 एवं पूर्वकृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति // 22 . स्थण्डिले शयमानानां गृहाणि शयनानि च / अचोद्यमानानि यथा पुष्पाणि च फलानि च। चीरवल्कलसंवीते वासांस्याभरणानि च // 8 स्वकालं नातिवर्तन्ते तथा कर्म पुराकृतम् // 23 वाहनासनयानानि योगात्मनि तपोधने। जीर्यन्ति जीर्यतः केशा दन्ता जीर्यन्ति जीर्यतः / अग्नीनुपशयानस्य राजपौरुषमुच्यते // 9 चक्षुःश्रोत्रे च जीर्येते तृष्णैका तु न जीर्यते // 24 रसानां प्रतिसंहारे सौभाग्यमनुगच्छति / येन प्रीणाति पितरं तेन प्रीतः प्रजापतिः / भामिषप्रतिसंहारे पशून्पुत्रांश्च विन्दति // 10 प्रीणाति मातरं येन पृथिवी तेन पूजिता। अवाक्शिरास्तु यो लम्बेदुदवासं च यो वसेत् / येन प्रीणात्युपाध्यायं तेन स्याद्ब्रह्म पूजितम् // 25 सततं चैकशायी यः स लभेतेप्सितां गतिम् // 11 / सर्वे तस्याद्रता धर्मा यस्यैते त्रय आहताः। पाद्यमासनमेवाथ दीपमन्नं प्रतिश्रयम् / अनादृतास्तु यस्यैते सर्वास्तस्याफलाः क्रियाः // 26 दद्यादतिथिपूजार्थं स यज्ञः पञ्चदक्षिणः // 12 वैशंपायन उवाच / वीरासनं वीरशय्यां वीरस्थानमुपासतः / भीष्मस्य तद्वचः श्रुत्वा विस्मिताः कुरुपुंगवाः / अक्षयास्तस्य वै लोकाः सर्वकामगमास्तथा // 13 आसन्प्रहृष्टमनसः प्रीतिमन्तोऽभवंस्तदा // 27 धनं लभेत दानेन मौनेनाज्ञां विशां पते / यन्मश्रे भवति वृथा प्रयुज्यमाने उपभोगांश्च तपसा ब्रह्मचर्येण जीवितम् // 14 ___ यत्सोमे भवति वृथाभिषयमाणे / रूपमैश्वर्यमारोग्यमहिंसाफलमभुते / यञ्चाग्नौ भवति वृथाभिहूयमाने फलमूलाशिनां राज्यं स्वर्गः पर्णाशिनां तथा // 15 _____ तत्सर्वं भवति वृथाभिधीयमाने // 28 प्रायोपवेशनाद्राज्यं सर्वत्र सुखमुच्यते / इत्येतदृषिणा प्रोक्तमुक्तवानस्मि यद्विभो / स्वर्ग सत्येन लभते दीक्षया कुलमुत्तमम् // 16 शुभाशुभफलप्राप्तौ किमतः श्रोतुमिच्छसि // 29 गवान्यः शाकदीक्षायां स्वर्गगामी तृणाशनः / स्त्रियस्त्रिषवणं स्नात्वा वायुं पीत्वा क्रतुं लभेत् // इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि सलिलाशी भवेद्यश्च सदाग्निः संस्कृतो द्विजः / सप्तमोऽध्यायः // 7 // महं साधयतो राज्यं नाकपृष्ठमनाशके // 18 उपवासं च दीक्षां च अभिषेकं च पार्थिव / युधिष्ठिर उवाच / कृत्वा द्वादशवर्षाणि वीरस्थानाद्विशिष्यते // 19 के पूज्याः के नमस्कार्याः कान्नमस्यसि भारत / अधीत्य सर्ववेदान्वै सद्यो दुःखात्प्रमुच्यते। एतन्मे सर्वमाचक्ष्व येषां स्पृहयसे नृप // 1 मानसं हि चरन्धर्म स्वर्गलोकमवाप्नुयात् // 20 / उत्तमापद्गतस्यापि यत्र ते वर्तते मनः / या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः। मनुष्यलोके सर्वस्मिन्यदमुत्रेह चाप्युत // 2 -2506 - Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 8. 3] अनुशासनपर्व [ 18.9.1 भीष्म उवाच / यन्मे कृतं ब्राह्मणेषु तेनाद्य न तपाम्यहम् // 16 स्पृहयामि द्विजातीनां येषां ब्रह्म परं धनम् / ब्रह्मण्य इति मामाहुस्तया वाचास्मि तोषितः / येषां स्वप्रत्ययः स्वर्गस्तपःस्वाध्यायसाधनः // 3 एतदेव पवित्रेभ्यः सर्वेभ्यः परमं स्मृतम् / / 17 येषां वृद्धाश्च बालाश्च पितृपैतामहीं धुरम् / / पश्यामि लोकानमलान्छुचीन्ब्राह्मणयायिनः / उद्वहन्ति न सीदन्ति तेषां वै स्पृह्याम्यहम् // 4 तेषु मे तात गन्तव्यमहाय च चिराय च // 18 विद्यास्वभिविनीतानां दान्तानां मृदुभाषिणाम् / यथा पत्याश्रयो धर्मः स्त्रीणां लोके युधिष्ठिर / श्रुतवृत्तोपपन्नानां सदाक्षरविदां सताम् // 5 स देवः सा गतिर्नान्या क्षत्रियस्य तथा द्विजाः // संसत्सु वदतां येषां हंसानामिव संघशः / क्षत्रियः शतवर्षी च दशवर्षी च ब्राह्मणः / मङ्गल्यरूपा रुचिरा दिव्यजीमूतनिःस्वनाः // 6 पितापुत्रौ च विज्ञेयौ तयोहिं ब्राह्मणः पिता // 20 सम्यगुच्चारिता वाचः श्रूयन्ते हि युधिष्ठिर / / नारी तु पत्यभावे वै देवरं कुरुते पतिम् / शुश्रूषमाणे नृपतौ प्रेत्य चेह सुखावहाः // 7 पृथिवी ब्राह्मणालाभे क्षत्रियं कुरुते पतिम् // 21 ये चापि तेषां श्रोतारः सदा सदसि संमताः / पुत्रवञ्च ततो रक्ष्या उपास्या गुरुवञ्च ते / विज्ञानगुणसंपन्नास्तेषां च स्पृहयाम्यहम् / / 8 अग्निवच्चोपचर्या वै ब्राह्मणाः कुरुसत्तम / 22 सुसंस्कृतानि प्रयताः शुचीनि गुणवन्ति च।। ऋजून्सतः सत्यशीलान्सर्वभूतहिते रतान् / ददत्यन्नानि तृप्त्यर्थं ब्राह्मणेभ्यो युधिष्ठिर। आशीविषानिव क्रुद्धान्द्विजानुपचरेत्सदा // 23 ये चापि सततं राजस्तेषां च स्पृहयाम्यहम् // 9 तेजसस्तपसश्चैव नित्यं बिभ्येाधिष्ठिर / शक्यं ह्येवाहवे योद्धं न दातुमनसूयितम् / उभे चैते परित्याज्ये तेजश्चैव तपस्तथा // 24 शूरा वीराश्च शतशः सन्ति लोके युधिष्ठिर / व्यवसायस्तयोः शीघ्रमुभयोरेव विद्यते / तेषां संख्यायमानानां दानशूरो विशिष्यते // 10 हन्युः क्रुद्धा महाराज ब्राह्मणा ये तपस्विनः // 25 धन्यः स्यां यद्यहं भूयः सौम्य ब्राह्मणकोऽपि वा। भूयः स्यादुभयं दत्तं ब्राह्मणाद्यदकोपनात् / कुले जातो धर्मगतिस्तपोविद्यापरायणः // 11 / कुर्यादुभयतःशेषं दत्तशेषं न शेषयेत् // 26 न मे त्वत्तः प्रियतरो लोकेऽस्मिन्पाण्डुनन्दन।। दण्डपाणिर्यथा गोषु पालो नित्यं स्थिरो भवेत् / त्वत्तश्च मे प्रियतरा ब्राह्मणा भरतर्षभ // 12 ब्राह्मणान्ब्रह्म च तथा क्षत्रियः परिपालयेत् // 27 यथा मम प्रियतरास्त्वत्तो विप्राः कुरूद्वह। पितेव पुत्रान्रक्षेथा ब्राह्मणान्ब्रह्मतेजसः / तेन सत्येन गच्छेयं लोकान्यत्र स शंतनुः // 13 / गृहे चैषामवेक्षेथाः कच्चिदस्तीह जीवनम् // 28 न मे पिता प्रियतरो ब्राह्मणेभ्यस्तथाभवत् / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि न मे पितुः पिता वापि ये चान्येऽपि सुहृज्जनाः // अष्टमोऽध्यायः॥८॥ न हि मे वृजिनं किंचिद्विद्यते ब्राह्मणेष्विह / अणु वा यदि वा स्थूलं विदितं साधुकर्मभिः // 15 युधिष्ठिर उवाच / / कर्मणा मनसा वापि वाचा वापि परंतप / | ब्राह्मणानां तु यो लोके प्रतिश्रुत्य पितामह / -2507 - Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 9. 1] महाभारते [13. 10. 3 न प्रयच्छन्ति मोहात्ते के भवन्ति महामते // 1 प्रतिश्रुत्य भवेद्देयं नाशा कार्या हि ब्राह्मणैः // 15 एतन्मे तत्त्वतो हि धर्म धर्मभृतां वर। . ब्राह्मणो ह्याशया पूर्व कृतया पृथिवीपते / प्रतिश्रुत्य दुरात्मानो न प्रयच्छन्ति ये नराः // 2 सुसमिद्धो यथा दीप्तः पावकस्तद्विधः स्मृतः // 16 भीष्म उवाच / यं निरीक्षेत संक्रुद्ध आशया पूर्वजातया। यो न दद्यात्प्रतिश्रुत्य स्वल्पं वा यदि वा बहु / / प्रदहेत हि तं राजन्कक्षमक्षय्यभुग्यथा // 10 आशास्तस्य हताः सर्वाः क्लीबस्येव प्रजाफलम् // 3 स एव हि यदा तुष्टो वचसा प्रतिनन्दति / यां रात्रिं जायते पापो यां च रात्रिं विनश्यति। भवत्यगदसंकाशो विषये तस्य भारत / / 18 एतस्मिन्नन्तरे यद्यत्सुकृतं तस्य भारत / पुत्रान्पौत्रान्पशृंश्चैव वान्धवान्सचिवांस्तथा। यच्च तस्य हुतं किंचित्सर्वं तस्योपहन्यते // 4 पुरं जनपदं चैव शान्तिरिष्टेव पुष्यति // 19 अत्रैतद्वचनं प्राहुर्धर्मशास्त्रविदो जनाः / एतद्धि परमं तेजो ब्राह्मणस्येह दृश्यते। .. निशम्य भरतश्रेष्ठ बुद्ध्या परमयुक्तया // 5 सहस्रकिरणस्येव सवितुर्धरणीतले // 20 अपि चोदाहरन्तीमं धर्मशास्त्रविदो जनाः / तस्माद्दातव्यमेवेह प्रतिश्रुत्य युधिष्ठिर / अश्वानां श्यामकर्णानां सहस्रेण स मुच्यते // 6 यदीच्छेच्छोभनां जाति प्राप्तुं भरतसत्तम // 21 अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / ब्राझणस्य हि दत्तेन ध्रुवं स्वर्गो ह्यनुत्तमः / सृगालस्य च संवादं वानरस्य च भारत // 7 शक्यं प्राप्तुं विशेषेण दानं हि महती क्रिया // 22 तौ सखायौ पुरा ह्यास्तां मानुषत्वे परंतप / इतो दत्तेन जीवन्ति देवताः पितरस्तथा / अन्यां योनि समापन्नौ सार्गाली वानरी तथा // 8 तस्माद्दानानि देयानि ब्राह्मणेभ्यो विजानता // 23 ततः परासून्खादन्तं सृगालं वानरोऽब्रवीत् / महद्धि भरतश्रेष्ठ ब्राह्मणस्तीर्थमुच्यते। श्मशानमध्ये संप्रेक्ष्य पूर्वजातिमनुस्मरन् / / 9 / / वेलायां न तु कस्यांचिद्गच्छेद्विप्रो ह्यपूजितः // 24 किं त्वया पापकं कर्म कृतं पूर्वं सुदारुणम् / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि यस्त्वं श्मशाने मृतकान्पूतिकानत्सि कुत्सितान् // नवमोऽध्यायः॥९॥ एवमुक्तः प्रत्युवाच सृगालो वानरं तदा / ब्राह्मणस्य प्रतिश्रुत्य न मया तदुपाकृतम् // 11 युधिष्ठिर उवाच / तत्कृते पापिकां योनिमापन्नोऽस्मि प्लवंगम / मित्रसौहृदभावेन उपदेशं करोति यः / तस्मादेवंविधं भक्ष्यं भक्षयामि बुभुक्षितः // 12 जात्यावरस्य राजर्षे दोषस्तस्य भवेन्न वा // 1 इत्येतद्भवतो राजन्ब्राह्मणस्य मया श्रुतम् / एतदिच्छामि तत्त्वेन व्याख्यातुं वै पितामह / कथां कथयतः पुण्यां धर्मज्ञस्य पुरातनीम् // 13 सूक्ष्मा गतिर्हि धर्मस्य यत्र मुह्यन्ति मानवाः // 2 श्रुतं चापि मया भूयः कृष्णस्यापि विशां पते / भीष्म उवाच / कथां कथयतः पूर्वं ब्राह्मणं प्रति पाण्डव // 14 / अत्र ते वर्तयिष्यामि शृणु राजन्यथागमम् / एवमेव च मां नित्यं ब्राह्मणाः संदिशन्ति वै। | ऋषीणां वदतां पूर्वं श्रुतमासीद्यथा मया // 3 -2508 - Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 10. 4 ] अनुशासनपर्व [13. 10. 30 उपदेशो न कर्तव्यो जातिहीनस्य कस्यचित् / | विज्ञातमेवं भवतु करिष्ये प्रियमात्मनः // 16 उपदेशे महान्दोष उपाध्यायस्य भाष्यते / / 4 गत्वाश्रमपदादूरमुटजं कृतवांस्तु सः / निदर्शनमिदं राजशृणु मे भरतर्षभ / तत्र वेदिं च भूमिं च देवतायतनानि च / दुरुक्तवचने राजन्यथा पूर्व युधिष्ठिर / निवेश्य भरतश्रेष्ठ नियमस्थोऽभवत्सुखम् // 17 ब्रह्माश्रमपदे वृत्तं पार्श्वे हिमवतः शुभे // 5 अभिषेकांश्च नियमान्देवतायतनेषु च / तत्राश्रमपदं पुण्यं नानावृक्षगणायुतम् / बलिं च कृत्वा हुत्वा च देवतां चाप्यपूजयत् // 18 बहुगुल्मलताकीणं मृगद्विजनिषेवितम् // 6 संकल्पनियमोपेतः फलाहारो जितेन्द्रियः / सिद्धचारणसंघुष्टं रम्यं पुष्पितकाननम् / नित्यं संनिहिताभिश्च ओषधीभिः फलैस्तथा // 19 व्रतिभिर्बहुभिः कीर्णं तापसैरुपशोभितम् // 7 अतिथीन्पूजयामास यथावत्समुपागतान् / ब्राह्मणैश्च महाभागैः सूर्यज्वलनसंनिभैः / एवं हि सुमहान्कालो व्यत्यक्रामत्स तस्य वै // 20 नियमव्रतसंपन्नैः समाकीणं तपस्विभिः / अथास्य मुनिरागच्छत्संगत्या वै तमाश्रमम् / दीक्षितैर्भरतश्रेष्ठ यताहारैः कृतात्मभिः // 8 संपूज्य स्वागतेनर्षि विधिवत्पर्यतोषयत् // 21 वेदाध्ययनघोषैश्च नादितं भरतर्षभ / अनुकूलाः कथाः कृत्वा यथावत्पर्यपृच्छत / वालखिल्यैश्च बहुभिर्यतिभिश्च निषेवितम् // 9 ऋषिः परमतेजस्वी धर्मात्मा संयतेन्द्रियः // 22 तंत्र कश्चित्समुत्साहं कृत्वा शूद्रो दयान्वितः / एवं स बहुशस्तस्य शूद्रस्य भरतर्षभ / आगतो ह्याश्रमपदं पूजितश्च तपस्विभिः // 10 सोऽगच्छदाश्रममृषिः शूद्रं द्रष्टुं नरर्षभ // 23 सांस्तु दृष्ट्वा मुनिगणान्देवकल्पान्महौजसः / / अथ तं तापसं शूद्रः सोऽब्रवीद्भरतर्षभ / वहतो विविधा दीक्षाः संप्रहृष्यत भारत // 11 पितृकार्य करिष्यामि तत्र मेऽनुग्रहं कुरु // 24 अथास्य बुद्धिरभवत्तपस्ये भरतर्षभ / बाढमित्येव तं विप्र उवाच भरतर्षभ / ततोऽब्रवीत्कुलपति पादौ संगृह्य भारत // 12 शुचिर्भूत्वा स शूद्रस्तु तस्यर्षेः पाद्यमानयत् / / 25 भवत्प्रसादादिच्छामि धर्मं चर्तुं द्विजर्षभ / अथ दांश्च वन्याश्च ओषधीभरतर्षभ / तन्मां त्वं भगवन्वक्तुं प्रव्राजयितुमर्हसि // 13 पवित्रमासनं चैव बृसी च समुपानयत् // 26 वर्णावरोऽहं भगवशद्रो जात्यास्मि सत्तम / अथ दक्षिणमावृत्य बृसी परमशीर्षिकाम् / शुश्रूषां कर्तुमिच्छामि प्रपन्नाय प्रसीद मे // 14 कृतामन्यायतो दृष्ट्वा ततस्तमृषिरब्रवीत् // 27 कुलपतिरुवाच / कुरुष्वैतां पूर्वशीर्षा भव चोदङ्मुखः शुचिः / न शक्यमिह शूद्रेण लिङ्गमाश्रित्य वर्तितुम् / स च तत्कृतवाशूद्रः सर्वं यदृषिरब्रवीत् // 28 आस्यतां यदि ते बुद्धिः शुश्रूषानिरतो भव // 15 यथोपदिष्टं मेधावी दर्भादीस्तान्यथातथम् / भीष्म उवाच / हव्यकव्यविधिं कृत्स्नमुक्तं तेन तपस्विना // 29 एवमुक्तस्तु मुनिना स शूद्रोऽचिन्तयन्नृप / / ऋषिणा पितृकार्ये च स च धर्मपथे स्थितः। कथमत्र मया कार्यं श्रद्धा धर्मे परा च मे। पितृकार्ये कृते चापि विसृष्टः स जगाम ह // 30 - 2509 - Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 10. 31] महाभारते [13. 10. 54 . अथ दीर्घस्य कालस्य स तप्यशूद्रतापसः / मीष्म उवाच / वने पञ्चत्वमगमत्सुकृतेन च तेन वै / बाढमित्येव तं राजा प्रत्युवाच युधिष्ठिर / अजायत महाराज राजवंशे महाद्युतिः // 31 यदि ज्ञास्यामि वक्ष्यामि अजानन्न तु संवदे // 4 // तथैव स ऋषिस्तात कालधर्ममवाप्य ह। पुरोहित उवाच / पुरोहितकुले विप्र आजातो भरतर्षभ / / 32 पुण्याहवाचने नित्यं धर्मकृत्येषु चासकृत् / एवं तौ तत्र संभूतावुभौ शूद्रमुनी तदा / क्रमेण वर्धितौ चापि विद्यासु कुशलावुभौ // 33 शान्तिहोमेषु च सदा किं त्वं हससि वीक्ष्य माम् // अथर्ववेदे वेदे च बभूवर्षिः सुनिश्चितः / सव्रीडं वै भवति हि मनो मे हसता त्वया / कामया शापितो राजन्नान्यथा वक्तुमर्हसि // 45 कल्पप्रयोगे चोत्पन्ने ज्योतिषे च परं गतः। भाव्यं हि कारणेनात्र न ते हास्यमकारणम् / सख्ये चापि परा प्रीतिस्तयोश्चापि व्यवर्धत // 34 कौतूहलं मे सुभृशं तत्त्वेन कथयस्व मे // 46 पितर्युपरते चापि कृतशौचः स भारत / अभिषिक्तः प्रकृतिभी राजपुत्रः स पार्थिव / राजोवाच / अभिषिक्तेन स ऋषिरभिषिक्तः पुरोहितः // 35 एवमुक्ते त्वया विप्र यदवाच्यं भवेदपि / स तं पुरोधाय सुखमवसद्भरतर्षभ / अवश्यमेव वक्तव्यं शृणुष्वैकमना द्विज // 47 राज्यं शशास धर्मेण प्रजाश्च परिपालयन् // 36 पूर्वदेहे यथा वृत्तं तन्निबोध द्विजोत्तम / . पुण्याहवाचने नित्यं धर्मकार्येषु चासकृत् / जातिं स्मराम्यहं ब्रह्मन्नवधानेन मे शृणु // 48 उत्स्मयन्प्राहसञ्चापि दृष्ट्वा राजा पुरोहितम् / शूद्रोऽहमभवं पूर्व तापसो भृशसंयुतः / एवं स बहुशो राजन्पुरोधसमुपाहसत् / / 37 ऋषिरुप्रतपास्त्वं च तदाभूर्द्विजसत्तम // 49 लक्षयित्वा पुरोधास्तु बहुशस्तं नराधिपम् / प्रीयता हि तदा ब्रह्मन्ममानुग्रहबुद्धिना / उत्स्मयन्तं च सततं दृष्ट्वासौ मन्युमानभूत् // 38 पितृकार्ये त्वया पूर्वमुपदेशः कृतोऽनघ / अथ शून्ये पुरोधास्तु सह राज्ञा समार्गतः। बृस्यां दर्भेषु हव्ये च कव्ये च मुनिसत्तम / / 5. कथाभिरनुकूलाभी राजानमभिरामयत् // 39 एतेन कर्मदोषेण पुरोधास्त्वमजायथाः / ततोऽब्रवीन्नरेन्द्रं स पुरोधा भरतर्षभ / अहं राजा च विप्रेन्द्र पश्य कालस्य पर्ययम् / वरमिच्छाम्यहं त्वेकं त्वया दत्तं महाद्युते // 40 / मत्कृते युपदेशेन त्वया प्राप्तमिदं फलम् // 51 राजोवाच / एतस्मात्कारणाद्ब्रह्मन्प्रहसे त्वां द्विजोत्तम / वराणां ते शतं दद्यां किमुतैकं द्विजोत्तम / न त्वां परिभवन्ब्रह्मन्प्रहसामि गुरुभवान् // 52 स्नेहाच्च बहुमानाच्च नास्त्यदेयं हि मे तव // 41 विपर्ययेण मे मन्युस्तेन संतप्यते मनः / पुरोहित उवाच / जातिं स्मराम्यहं तुभ्यमतस्त्वां प्रहसामि वै // 53 एकं वै वरमिच्छामि यदि तुष्टोऽसि पार्थिव / एवं तवोग्रं हि तप उपदेशेन नाशितम् / यद्ददासि महाराज सत्यं तद्वद मानृतम् // 42 / पुरोहितत्वमुत्सृज्य यतस्व त्वं पुनर्भवे // 54 - 2510 - Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 10. 55] अनुशासनपर्व [18. 11.6 %3 इतस्त्वमधमामन्यां मा योनि प्राप्स्यसे द्विज / स चोपदेशः कर्तव्यो येन धर्ममवाप्नुयात् // 69 गृह्यतां द्रविणं विप्र पूतात्मा भव सत्तम / / 55 एतत्ते सर्वमाख्यातमुपदेशे कृते सति / भीष्म उवाच / महान्क्लेशो हि भवति तस्मान्नोपदिशेत्कचित् // 70 ततो विसृष्टो राज्ञा तु विप्रो दानान्यनेकशः / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि ब्राह्मणेभ्यो ददौ वित्तं भूमिं ग्रामांश्च सर्वशः // 56 दशमोऽध्यायः // 10 // कृच्छ्राणि चीर्वा च ततो यथोक्तानि द्विजोत्तमः / तीर्थानि चाभिगत्वा वै दानानि विविधानि च // 57 दत्त्वा गाश्चैव विप्राणां पूतात्मा सोऽभवहिजः / युधिष्ठिर उवाच / तमेव चाश्रमं गत्वा चचार विपुलं तपः / / 58 कीदृशे पुरुषे तात स्त्रीषु वा भरतर्षभ / ततः सिद्धिं परां प्राप्तो ब्राह्मणो राजसत्तम। श्रीः पद्मा वसते नित्यं तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 संमतश्चाभवत्तेषामाश्रमेऽऽश्रमवासिनाम् // 59 भीष्म उवाच एवं प्राप्तो महत्कृच्छ्रमृषिः स नृपसत्तम / अत्र ते वर्तयिष्यामि यथादृष्टं यथाश्रुतम् / ब्राह्मणेन न वक्तव्यं तस्माद्वर्णावरे जने // 60 रुक्मिणी देवकीपुत्रसंनिधौ पर्यपृच्छत // 2 वर्जयेदुपदेशं च सदैव ब्राह्मणो नृप / नारायणस्याङ्कगतां ज्वलन्ती उपदेशं हि कुर्वाणो द्विजः कृच्छ्रमवाप्नुयात् / / 61 दृष्ट्या श्रियं पद्मसमानवक्ताम् / एषितव्यं सदा वाचा नृपेण द्विजसत्तमात्।। कौतूहलाद्विस्मितचारुनेत्रा न प्रवक्तव्यमिह हि किंचिद्वर्णावरे जने // 62 पप्रच्छ माता मकरध्वजस्य / / 3 प्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्यास्त्रयो वर्णा द्विजातयः / कानीह भूतान्युपसेवसे त्वं एतेषु कथयनराजन्ब्राह्मणो न प्रदुष्यति / / 63 संतिष्ठती कानि न सेवसे त्वम् / तस्मात्सद्भिर्न वक्तव्यं कस्यचित्ििचदप्रतः / तानि त्रिलोकेश्वरभूतकान्ते सूक्ष्मा गतिर्हि धर्मस्य दुर्जेया ह्यकृतात्मभिः // 64 ___ तत्त्वेन मे ब्रूहि महर्षिकन्ये // 4 तस्मान्मौनानि मुनयो दीक्षां कुर्वन्ति चाहताः। एवं तदा श्रीरभिभाष्यमाणा . दुरुक्तस्य भयाद्राजन्नानुभाषन्ति किंचन // 65 देव्या समक्षं गरुडध्वजस्य / धार्मिका गुणसंपन्नाः सत्यार्जवपरायणाः / उवाच वाक्यं मधुराभिधानं दुरुक्तवाचाभिहताः प्राप्नुवन्तीह दुष्कृतम् // 66 मनोहरं चन्द्रमुखी प्रसन्ना // 5 उपदेशो न कर्तव्यः कदाचिदपि कस्यचित् / / वसामि सत्ये सुभगे प्रगल्भे उपदेशाद्धि तत्पापं ब्राह्मणः समवाप्नुयात् // 67 दक्षे नरे कर्मणि वर्तमाने। विमृश्य तस्मात्प्राज्ञेन वक्तव्यं धर्ममिच्छता। नाकर्मशीले पुरुषे वसामि सत्यानृतेन हि कृत उपदेशो हिनस्ति वै // 68 न नास्तिके सांकरिके कृतघ्ने / वक्तव्यमिह पृष्टेन विनिश्चित्य विपर्ययम् / / न भिन्नवृत्ते न नृशंसवृत्ते - 2511 - Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. 11. 6] महाभारते [13. 12. 1 न चापि चौरे न गुरुष्वसूये // 6 सरःसु फुल्लोत्पलपङ्कजेषु / ये चाल्पतेजोबलसत्त्वसारा नदीषु हंसस्वननादितासु हृष्यन्ति कुप्यन्ति च यत्र तत्र / क्रौञ्चावघुष्टस्वरशोभितासु // 15 न देवि तिष्ठामि तथाविधेषु विस्तीर्णकूलह्रदशोभितासु नरेषु संसुप्तमनोरथेषु // 7 तपस्विसिद्धद्विजसेवितासु / यश्चात्मनि प्रार्थयते न किंचि वसामि नित्यं सुबहूदकासु यश्च स्वभावोपहतान्तरात्मा। सिंहैर्गजैश्चाकुलितोदकासु। तेष्वल्पसंतोषरतेषु नित्यं / मत्ते गजे गोवृषभे नरेन्द्र नरेषु नाहं निवसामि देवि // 8 सिंहासने सत्पुरुषे च नित्यम् // 16 वसामि धर्मशीलेषु धर्मज्ञेषु महात्मसु / यस्मिन्गृहे हूयते हव्यवाहो वृद्धसेविषु दान्तेषु सत्त्वज्ञेषु महात्मसु // 9 गोब्राह्मणश्चाय॑ते. देवताश्च / स्त्रीषु क्षान्तासु दान्तासु देवद्विजपरासु च / काले च पुष्पैर्बलयः क्रियन्ते वसामि सत्यशीलासु स्वभावनिरतासु च // 10 ___ तस्मिन्गृहे नित्यमुपैमि वासम् // 17 प्रकीर्णभाण्डामनवेक्ष्यकारिणीं / स्वाध्यायनित्येषु द्विजेषु नित्यं सदा च भर्तुः प्रतिकूलवादिनीम् / क्षत्रे च धर्माभिरते सदैव / परस्य वेश्माभिरतामलज्जा वैश्ये च कृष्याभिरते वसामि ___ मेवंविधां स्त्री परिवर्जयामि // 11 शूद्रे च शुश्रूषणनित्ययुक्ते // 18 लोलामचोक्षामवलेहिनी च नारायणे त्वेकमना वसामि व्यपेतधैर्यां कलहप्रियां च / __ सर्वेण भावेन शरीरभूता। निद्राभिभूतां सततं शयाना तस्मिन्हि धर्मः सुमहान्निविष्टो ___ मेवंविधां स्त्री परिवर्जयामि // 12 . ब्रह्मण्यता चात्र तथा प्रियत्वम् / / 19 सत्यासु नित्यं प्रियदर्शनासु नाहं शरीरेण वसामि देवि सौभाग्ययुक्तासु गुणान्वितासु / . नैवं मया शक्यमिहाभिधातुम् / . वसामि नारीषु पतिव्रतासु यस्मिस्तु भावेन वसाभि पुंसि ___ कल्याणशीलासु विभूषितासु // 13 ___स वर्धते धर्मयशोर्थकामैः // 20 यानेषु कन्यासु विभूषणेषु इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि ___ यज्ञेषु मेघेषु च वृष्टिमत्सु। एकादशोऽध्यायः // 11 // वसामि फुल्लासु च पद्मिनीषु नक्षत्रवीथीषु च शारदीषु // 14 युधिष्ठिर उवाच। शैलेषु गोष्ठेषु तथा वनेषु स्त्रीपुंसयोः संप्रयोगे स्पर्शः कस्याधिको भवेत् / - 2512 - Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 12. 1] अनुशासनपर्व [ 13. 12. 27 एतन्मे संशयं राजन्यथावद्वक्तुमर्हसि / / 1 महता त्वथ खेदेन आरुह्याश्वं नराधिपः / भीष्म उवाच / पुनरायात्पुरं तात स्त्रीभूतो नृपसत्तम // 15 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम / पुत्रा दाराश्च भृत्याश्च पौरजानपदाश्च ते। भङ्गाश्वनेन शक्रस्य यथा वैरमभूत्पुरा // 2 किं न्विदं त्विति विज्ञाय विस्मयं परमं गताः // 16 पुरा भङ्गाश्वनो नाम राजर्षिरतिधार्मिकः / अथोवाच स राजर्षिः स्त्रीभूतो वदतां वरः / अपुत्रः स नरव्याघ्र पुत्रार्थ यज्ञमाहरत् // 3 मृगयामस्मि निर्यातो बलैः परिवृतो दृढम् / अग्निष्टुं नाम राजर्षिरिन्द्रद्विष्टं महाबलः / . उद्धान्तः प्राविशं घोरामटवीं दैवमोहितः // 17 प्रायश्चित्तेषु मानां पुत्रकामस्य चेष्यते // 4 अटव्यां च सुघोरायां तृष्णार्तो नष्टचेतनः / इन्द्रो ज्ञात्वा तु तं यज्ञं महाभागः सुरेश्वरः / सरः सुरुचिरप्रख्यमपश्यं पक्षिभिर्वृतम् // 18 अन्तरं तस्य राजरन्विच्छन्नियतात्मनः // 5 तत्रावगाढः स्त्रीभूतो व्यक्तं दैवान्न संशयः / कस्यचित्त्वथ कालस्य मृगयामटतो नृप / अतृप्त इव पुत्राणां दाराणां च धनस्य च // 19 इदमन्तरमित्येव शक्रो नृपममोहयत् // 6 उवाच पुत्रांश्च ततः स्त्रीभूतः पार्थिवोत्तमः / एकाश्वेन च राजर्पिर्धान्त इन्द्रेण मोहितः / संप्रीत्या भुज्यतां राज्यं वनं यास्यामि पुत्रकाः / न दिशोऽविन्दत नृपः क्षुत्पिपासादितस्तदा / / 7 अभिषिच्य स पुत्राणां शतं राजा वनं गतः // 20 इतश्चेतश्च वै धाक श्रमतृष्णार्दितो नृपः / तामाश्रमे स्त्रियं तात तापसोऽभ्यवपद्यत। सरोऽपश्यत्सुरुचिरं पूर्णं परमवारिणा / तापसेनास्य पुत्राणामाश्रमेऽप्यभवच्छतम् // 21 सोऽवगाह्य सरस्तात पाययामास वाजिनम् / / 8 अथ सा तान्सुतान्गृह्य पूर्वपुत्रानभाषत / अथ पीतोदकं सोऽश्वं वृक्षे बद्धा नृपोत्तमः / पुरुषत्वे सुता यूयं स्त्रीत्वे चेमे शतं सुताः // 22 अवगाह्य ततः स्नातो राजा स्त्रीत्वमवाप ह // 9 एकत्र भुज्यतां राज्यं भ्रातृभावेन पुत्रकाः / आत्मानं स्वीकृतं. दृष्ट्वा ब्रीडितो नृपसत्तमः / सहिता भ्रातरस्तेन राज्यं बुभुजिरे तदा // 23 चिन्तानुगतसर्वात्मा व्याकुलेन्द्रियचेतनः // 10 तान्दृष्ट्वा भ्रातृभावेन भुञ्जानान्राज्यमुत्तमम् / आरोहिष्ये कथं त्वश्वं कथं यास्यामि वै पुरम् / चिन्तयामास देवेन्द्रो मन्युनामिपरिप्लुतः। अग्निष्टुं नाम इष्टं मे पुत्राणां शतमौरसम् // 11 उपकारोऽस्य राजर्षेः कृतो नापकृतं मया // 24 जातं महाबलानां वै तान्प्रवक्ष्यामि किं त्वहम् / ततो ब्राह्मणरूपेण देवराजः शतक्रतुः / दारेषु चास्मदीयेषु पौरजानपदेषु च / / 12 भेदयामास तान्गत्वा नगरं वै नृपात्मजान् // 25 मृदुत्वं च तनुत्वं च विल्लवत्वं तथैव च / भ्रातृणां नास्ति सौभ्रानं येऽप्येकस्य पितुः सुताः। स्त्रीगुणा ऋषिभिः प्रोक्ता धर्मतत्त्वार्थदर्शिभिः / राज्यहेतोर्विवदिताः कश्यपस्य सुरासुराः // 26 व्यायामः कर्कशत्वं च वीर्यं च पुरुपे गुणाः // 13 / यूयं भङ्गाश्वनापत्यास्तापसस्येतरे सुताः। पौरुषं विप्रनष्टं मे स्त्रीत्वं केनापि मेऽभवत् / कश्यपस्य सुराश्चैव असुराश्च सुतास्तथा / स्त्रीभावात्कथमश्वं तु पुनरारोढुमुत्सहे / / 14 / युष्माकं पैतृकं राज्यं भुज्यते तापसात्मजैः॥२७ म.भा.३१५ -- 2513 - Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. 12. 28 ] महाभारते [ 13. 13.2 इन्द्रेण भेदितास्ते तु युद्धेऽन्योन्यमपातयन् / कारणं श्रोतुमिच्छामि तन्मे वक्तुमिहार्हसि // 41 तच्छ्रुत्वा तापसी चापि संतप्ता प्ररुरोद ह // 28 स्युवाच / ब्राह्मणच्छद्मनाभ्येत्य तामिन्द्रोऽथान्वपृच्छत / स्त्रियास्त्वभ्यधिकः स्नेहो न तथा पुरुषस्य वै / केन दुःखेन संतप्ता रोदिषि त्वं वरानने // 29 तस्मात्ते शक्र जीवन्तु ये जाताः स्त्रीकृतस्य वै // 42 ब्राह्मणं तु ततो दृष्ट्वा सा स्त्री करुणमब्रवीत् / भीष्म उवाच / पुत्राणां द्वे शते ब्रह्मन्कालेन विनिपातिते // 30 एवमुक्ते ततस्त्विन्द्रः प्रीतो वाक्यमुवाच ह / अहं राजाभवं विप्र तत्र पुत्रशतं मया। सर्व एवेह जीवन्तु पुत्रास्ते सत्यवादिनि // 43 समुत्पन्नं सुरूपाणां विक्रान्तानां द्विजोत्तम // 31 वरं च वृणु राजेन्द्र यं त्वमिच्छसि सुव्रत / / कदाचिन्मृगयां यात उद्धान्तो गहने वने / पुरुषत्वमथ स्त्रीत्वं मत्तो यदभिकाङ्क्षसि // 44 अवगाढश्च सरसि स्त्रीभूतो ब्राह्मणोत्तम / पुत्रान्राज्ये प्रतिष्ठाप्य वनमस्मि ततो गतः // 32 स्त्युवाच / स्त्रियाश्च मे पुत्रशतं तापसेन महात्मना / स्त्रीत्वमेव वृणे शक्र प्रसन्ने त्वयि वासव // 45 आश्रमे जनितं ब्रह्मन्नीतास्ते नगरं मया // 33 एवमुक्तस्तु देवेन्द्रस्तां स्त्रियं प्रत्युवाच ह। तेषां च वैरमुत्पन्नं कालयोगेन वै द्विज। पुरुषत्वं कथं त्यक्त्वा स्त्रीत्वं रोचयसे विभो // 46 एतच्छोचामि विप्रेन्द्र देवेनाभिपरिप्लुता // 34 / एवमुक्तः प्रत्युवाच स्त्रीभूतो राजसत्तमः / इन्द्रस्तां दुःखितां दृष्ट्वा अब्रवीत्परुषं वचः / स्त्रियाः पुरुषसंयोगे प्रीतिरभ्यधिका सदा / पुरा सुदुःसहं भद्रे मम दुःखं त्वया कृतम् // 35 एतस्मात्कारणाच्छक स्त्रीत्वमेव वृणोम्यहम् // 47 इन्द्रद्विष्टेन यजता मामनादृत्य दुर्मते / रमे चैवाधिकं स्त्रीत्वे सत्यं वै देवसत्तम / इन्द्रोऽहमस्मि दुर्बुद्धे वैरं ते यातितं मया // 36 स्त्रीभावेन हि तुष्टोऽस्मि गम्यतां त्रिदशाधिप॥४८ इन्द्रं तु दृष्ट्वा राजर्षिः पादयोः शिरसा गतः / / एवमस्त्विति चोक्त्वा तामापृच्छय त्रिदिवं गतः / प्रसीद त्रिदशश्रेष्ठ पुत्रकामेन स क्रतुः / एवं स्त्रिया महाराज अधिका प्रीतिरुच्यते // 49 इष्टस्त्रिदशशार्दूल तत्र मे क्षन्तुमर्हसि // 37 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि प्रणिपातेन तस्येन्द्रः परितुष्टो वरं ददौ / द्वादशोऽध्यायः // 12 // पुत्रा वै कतमे राजञ्जीवन्तु तव शंस मे / स्त्रीभूतस्य हि ये जाताः पुरुषस्याथ येऽभवन्॥३८ युधिष्ठिर उवाच / किं कर्तव्यं मनुष्येण लोकयात्राहितार्थिना / तापसी तु ततः शक्रमुवाच प्रयताञ्जलिः।। स्त्रीभूतस्य हि ये जातास्ते मे जीवन्तु वासव // 39 कथं वै लोकयात्रां तु किंशीलश्च समाचरेत् / / 1 इन्द्रस्तु विस्मितो हृष्टः स्त्रियं पप्रच्छ तां पुनः। भीष्म उवाच / पुरुषोत्पादिता ये ते कथं द्वेष्याः सुतास्तव // 40 कायेन त्रिविधं कर्म वाचा चापि चतुर्विधम् / स्त्रीभूतस्य हि ये जाताः स्नेहस्तेभ्योऽधिकः कथम्। / मनसा त्रिविधं चैव दश कर्मपथांस्त्यजेत् // 2 - 2514 - Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 13. 3] अनुशासनपव [13. 14. 21 प्राणातिपातं स्तैन्यं च परदारमथापि च / भवतां कीर्तयिष्यामि व्रतेशाय यथातथम् // 8 त्रीणि पापानि कायेन सर्वतः परिवर्जयेत् // 3 वैशंपायन उवाच / असत्प्रलापं पारुष्यं पैशुन्यमनृतं तथा / एवमुक्त्वा तु भगवान्गुणांस्तस्य महात्मनः / चत्वारि वाचा राजेन्द्र न जल्पेन्नानुचिन्तयेत् / / 4 | उपस्पृश्य शुचिर्भूत्वा कथयामास धीमतः // 9 भनभिध्या परस्वेषु सर्वसत्त्वेषु सौहृदम् / वासुदेव उवाच / कर्मणा फलमस्तीति त्रिविधं मनसा चरेत् // 5 शुश्रूषध्वं ब्राह्मणेन्द्रास्त्वं च तात युधिष्ठिर / तस्माद्वाकायमनसा नाचरेदशुभं नरः / त्वं चापगेय नामानि निशामय जगत्पतेः // 10 शुभाशुभान्याचरन्हि तस्य तस्याश्नुते फलम् // 6 यदवाप्तं च मे पूर्व साम्बहेतोः सुदुष्करम् / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि यथा च भगवान्दृष्टो मया पूर्वं समाधिना // 11 त्रयोदशोऽध्यायः // 13 // शम्बरे निहते पूर्व रौक्मिणेयेन धीमता। अतीते द्वादशे वर्षे जाम्बवत्यब्रवीद्धि माम् // 12 युधिष्ठिर उवाच / प्रद्युम्नचारुदेष्णादीन्रुक्मिण्या वीक्ष्य पुत्रकान् / पुत्रार्थिनी मामुपेत्य वाक्यमाह युधिष्ठिर // 13 पितामहेशाय विभो नामान्याचक्ष्व शंभवे / शूरं बलवतां श्रेष्ठं कान्तरूपमकल्मषम् / बभ्रवे विश्वमादाय महाभाग्यं च तत्त्वतः / / 1 आत्मतुल्यं मम सुतं प्रयच्छाच्युत माचिरम् // 14 भीष्म उवाच / न हि तेऽप्राप्यमस्तीह त्रिषु लोकेषु किंचन / सुरासुरगुरो देव विष्णो त्वं वक्तुमर्हसि / लोकान्सजेस्त्वमपरानिच्छन्यदुकुलोद्वह // 15 शिवाय विश्वरूपाय यन्मां पृच्छयुधिष्ठिरः // 2 त्वया द्वादश वर्षाणि वायुभूतेन शुष्यता / नाम्नां सहस्रं देवस्य तण्डिना ब्रह्मयोनिना / आराध्य पशुभर्तारं रुक्मिण्या जनिताः सुताः॥१६ निवेदितं ब्रह्मलोके ब्रह्मणो यत्पुराभवत् // 3 चारुदेष्णः सुचारुश्च चारुवेषो यशोधरः। द्वैपायनप्रभृतयस्तथैवेमे तपोधनाः / चारुश्रवाश्चारुयशाः प्रद्युम्नः शंभुरेव च // 17 ऋषयः सुव्रता दान्ताः शृण्वन्तु गदतस्तव // 4 यथा ते जनिताः पुत्रा रुक्मिण्याश्चारुविक्रमाः / ध्रुवाय नन्दिने होत्रे गोप्ने विश्वसृजेऽग्नये / / तथा ममापि तनयं प्रयच्छ बलशालिनम् // 18 महाभाग्यं विभो ब्रूहि मुण्डिनेऽथ कपर्दिने / 5 इत्येवं चोदितो देव्या तामवोचं सुमध्यमाम् / वासुदेव उवाच / अनुजानीहि मां राज्ञि करिष्ये वचनं तव / न गतिः कर्मणां शक्या वेत्तुमीशस्य तत्त्वतः / / 6 | सा च मामब्रवीद्गच्छ विजयाय शिवाय च // 19 हिरण्यगर्भप्रमुखा देवाः सेन्द्रा महर्षयः। ब्रह्मा शिवः काश्यपश्च नद्यो देवा मनोनुगाः / न विदुर्यस्य निधनमादिं वा सूक्ष्मदर्शिनः / / क्षेत्रौषध्यो यज्ञवाहाच्छन्दांस्य॒षिगणा धरा // 20 स कथं नरमात्रेण शक्यो ज्ञातुं सतां गतिः // 7 / समुद्रा दक्षिणा स्तोभा ऋक्षाणि पितरो प्रहाः। तस्याहमसुरन्नस्य कांश्चिद्भगवतो गुणान् / | देवपन्यो देवकन्या देवमातर एव च // 21 - 2515 -- Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. 14. 22] महाभारते [ 13. 14. 43 मन्वन्तराणि गावश्च चन्द्रमाः सविता हरिः। कुरङ्गबर्हिणाकीणं मार्जारभुजगावृतम् / सावित्री ब्रह्मविद्या च ऋतवो वत्सराः क्षपाः // 22 पूगेश्च मृगजातीनां महिषर्कनिषेवितम् // 33 क्षणा लवा मुहूर्ताश्च निमेषा युगपर्ययाः / नानापुष्परजोमिश्रो गजदानाधिवासितः / रक्षन्तु सर्वत्र गतं त्वां यादव सुखावहम् / दिव्यस्त्रीगीतबहुलो मारुतोऽत्र सुखो क्वौ // 34 अरिष्टं गच्छ पन्थानमप्रमत्तो भवानघ // 23 धारानिनादैविहगप्रणादैः एवं कृतस्वस्त्ययनस्तयाहं ___ शुभैस्तथा बृंहितैः कुञ्जराणाम् / . तामभ्यनुज्ञाय कपीन्द्रपुत्रीम् / गीतैस्तथा किंनराणामुदारैः पितुः समीपे नरसत्तमस्य शुभैः स्वनैः सामगानां च वीर // 35 मातुश्च राज्ञश्च तथाहुकस्य // 24 अचिन्त्यं मनसाप्यन्यैः सरोभिः समलंकृतम् / तमर्थमावेद्य यदब्रवीन्मां विशालैश्चाग्निशरणैर्भूषितं कुशसंवृतम् // 36 . विद्याधरेन्द्रस्य सुता भृशार्ता / विभूषितं पुण्यपवित्रतोयया तानभ्यनुज्ञाय तदातिदुःखा ___ सदा च जुष्टं नृप जझुकन्यया / द्दं तथैवातिबलं च रामम् // 25 महात्मभिर्धर्मभृतां वरिष्ठैप्राप्यानुज्ञां गुरुजनादहं ताय॑मचिन्तयम् / महर्षिभिभूषितमग्निकल्पैः // 37 सोऽवहद्धिमवन्तं मां प्राप्य चैनं व्यसर्जयम् // 26 वाय्वाहारैरम्बुपैर्जप्यनित्यैः तत्राहमद्भुतान्भावानपश्यं गिरिसत्तमे / ___ संप्रक्षालैर्यतिभिर्ध्याननित्यैः। क्षेत्रं च तपसां श्रेष्ठं पश्याम्याश्रममुत्तमम् // 27 धूमाशनैरूष्मपैः क्षीरपैश्च दिव्यं वैयाघ्रपद्यस्य उपमन्योर्महात्मनः / विभूषितं ब्राह्मणेन्द्रैः समन्तात् // 38 पूजितं देवगन्धर्वैाहया लक्ष्म्या समन्वितम् // 28 गोचारिणोऽथाश्मकुट्टा दन्तोलूखलिनस्तथा / धवककुभकदम्बनारिकेलैः मरीचिपाः फेनपाश्च तथैव मृगचारिणः // 39 कुरबककेतकजम्बुपाटलाभिः / सुदुःखान्नियमांस्तांस्तान्वहतः सुतपोन्वितान् / वटवरुणकवत्सनाभबिल्वैः पश्यन्नुत्फुल्लनयनः प्रवेष्टुमुपचक्रमे // 40 सरलकपित्थप्रियालसालतालैः // 29 सुपूजितं देवगणैर्महात्मभिः बदरीकुन्दपुग्नागैरशोकाम्रातिमुक्तकैः / / _ शिवादिभिर्भारत पुण्यकर्मभिः / भल्लातकैर्मधूकैश्च चम्पकैः पनसैस्तथा // 30 रराज तञ्चाश्रममण्डलं सदा वन्यैर्बहुविधैर्वृक्षैः फलपुष्पप्रदैर्युतम् / / दिवीव राजरविमण्डलं यथा // 41 पुष्पगुल्मलताकीणं कदलीषण्डशोभितम् / / 31 क्रीडन्ति सपँर्नकुला मृगैर्व्याघ्राश्च मित्रवत् / नानाशकुनिसंभोज्यैः फलवृक्षरलंकृतम् / प्रभावाद्दीप्ततपसः संनिकर्षगुणान्विताः // 42 यथास्थानविनिक्षिप्तैर्भूषितं वनराजिभिः // 32 तत्राश्रमपदे श्रेष्ठे सर्वभूतमनोरमे / रुरुवारणशार्दूलसिंहद्वीपिसमाकुलम् / सेविते द्विजशार्दूलैर्वेदवेदाङ्गपारगैः // 43 - 2516 - Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 14. 44] अनुशासनपर्व [13. 14. 70 नानानियमविख्यातैषिभिश्च महात्मभिः / तथा पुत्रसहस्राणामयुतं च ददौ प्रभुः / प्रविशन्नेव चापश्यं जटाचीरधरं प्रभुम् / / 44 कुशद्वीपं च स ददौ राज्येन भगवानजः / / 57 तेजसा तपसा चैव दीप्यमानं यथानलम् / तथा शतमुखो नाम धात्रा सृष्टो महासुरः / शिष्यमध्यगतं शान्तं युवानं ब्राह्मणर्षभम् / येन वर्षशतं साग्रमात्ममांस तोऽनलः / शिरसा वन्दमानं मामुपमन्युरभाषत // 45 तं प्राह भगवास्तुष्टः किं करोमीति शंकरः // 58 स्वागतं पुण्डरीकाक्ष सफलानि तपांसि नः। तं वै शतमुखः प्राह योगो भवतु मेऽद्भुतः / यत्पूज्यः पूजयसि नो द्रष्टव्यो द्रष्टुमिच्छसि॥४६ / बलं च दैवतश्रेष्ठ शाश्वतं संप्रयच्छ मे // 59 तमहं प्राञ्जलिर्भूत्वा मृगपक्षिष्वथानिषु / स्वायंभुवः क्रतुशापि पुत्रार्थमभवत्पुरा / धर्मे च शिष्यवर्गे च समपृच्छमनामयम् // 47 आविश्य योगेनात्मानं त्रीणि वर्षशतान्यपि // 60 ततो मां भगवानाह सान्ना परभवल्गुना / तस्य देवोऽददत्पुत्रान्सहस्रं ऋतुसंमितान् / लप्स्यसे तनयं कृष्ण आत्मतुल्यंमसंशयम् // 48 योगेश्वरं देवगीतं वेत्थ कृष्ण न संशयः // 61 तपः सुमहदास्थाय नोपयेशानमीश्वरम् / वालखिल्यां मघवता अवज्ञाताः पुरा किल। इह देवः सपत्नीकः समाक्रीडत्यधोक्षज // 49 तैः क्रुद्धभगवान्रुद्रस्तपसा तोषितो ह्यभूत् // 62 इहैव देवताश्रेष्टं देवाः सपिंगणाः पुरा / तांश्चापि दैवतश्रेष्ठः प्राह प्रीतो जगत्पतिः / तपसा ब्रह्मचर्येण सत्येन च दमेन च। सुपर्ण सोमहर्तारं तपसोत्पादयिष्यथ // 63 तोषयित्वा शुभान्कामान्प्राप्नुवंरते जनार्दन // 50 महादेवस्य शेषाच्च आपो नष्टाः पुराभवन् / तेजसां तपसां चैव निधिः स भगवानिह / ताश्च सप्तकपालेन देवैरन्याः प्रवर्तिताः // 64 शुभाशुभान्वितान्भावान्यि सृजन्संक्षिपन्नपि / अत्रे र्यापि भर्तारं संत्यज्य ब्रह्मवादिनी / आस्ते देव्या सहाचिन्त्यो यं प्रार्थयसि शत्रुहन् / / नाहं तस्य मुनेभूयो वशगा स्यां कथंचन / हिरण्यकशिपुर्योऽभूदानयो मेरुकम्पनः / इत्युक्त्वा सा महादेवमगच्छच्छरणं किल // 65 तेन सर्वामरैश्वर्यं शास्त्राप्त समार्बुदम् // 52 निराहारा अयादत्रस्त्रीणि वर्षशतान्यपि / तस्यैव पुत्रप्रवरो मन्दरो नाम विश्रुतः / अशेत मुसलेष्वेव प्रसादार्थं भवस्य सा // 66 महादेववराच्छकं वर्षाबुदमयोधयत् / / 53 तामब्रवीद्धसन्देवो भविता वै सुतस्तव / विष्णोश्चक्रं च तद्वोरं वज्रमाखण्डलस्य च / वंशे तवैव नाम्ना तु ख्यातिं यास्यति चेप्सिताम् // शीणं पुराभवत्तात ग्रहस्याङ्गेषु केशव // 54 शाकल्यः संशितात्मा वै नव वर्षशतान्यपि / अद्यमानाश्च विबुधा ग्रहेण सुबलीयसा / आराधयामास भवं मनोयज्ञेन केशव // 68 शिवदत्तवराअनुरसुरेन्द्रान्लुरा भृशम् / / 55 तं चाह भगवांस्तुष्टो अन्थकारो भविष्यसि / शुष्टो विद्युत्प्रभस्यापि त्रिलोकेश्वरतामदात् / वत्साक्षया च ते कीर्तिलोक्ये वै भविष्यति / शतं वर्षसहस्राणां सर्वलोकेश्वरोऽभवत् / अक्षयं च कुलं तेऽस्तु महर्षिभिरलंकृतम् // 69 ममैवानुचरो नित्यं भवितासीति चाब्रवीत् / / 56 / सावर्णिश्चापि विख्यात ऋषिरासीत्कृते युगे। -2517 - Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 14. 70] महाभारते [13. 14. 97 इह तेन तपस्तप्तं षष्टिं वर्षशतान्यथ / / 70 जनन्यास्तद्वचः श्रुत्वा तदाप्रभृति शत्रुहन् / तमाह भगवान्रुद्रः साक्षात्तुष्टोऽस्मि तेऽनघ / मम भक्तिर्महादेवे नैष्ठिकी समपद्यत // 85 ग्रन्थकृल्लोकविख्यातो भवितास्यजरामरः // 71 ततोऽहं तप आस्थाय तोषयामास शंकरम् / मयापि च यथा दृष्टो देवदेवः पुरा विभुः / दिव्यं वर्षसहस्रं तु पादाङ्गुष्ठाप्रविष्ठितः // 86 साक्षात्पशुपतिस्तात तच्चापि शृणु माधव / / 72 एक वर्षशतं चैव फलाहारस्तदाभवम् / यदर्थ व महादेवः प्रयतेन मया पुरा / द्वितीयं शीर्णपर्णाशी तृतीयं चाम्बुभोजनः / भाराधितो महातेजास्तच्चापि शृणु विस्तरम् / / 73 शतानि सप्त चैवाहं वायुभक्षस्तदाभवम् // 8. यदवाप्तं च मे पूर्व देवदेवान्महेश्वरात् / ततः प्रीतो महादेवः सर्वलोकेश्वरः प्रभुः / तत्सर्वमखिलेनाद्य कथयिष्यामि तेऽनघ / 74 शक्ररूपं स कृत्वा तु सर्वैर्देवगणैर्वृतः / पुरा कृतयुगे तात ऋषिरासीन्महायशाः / सहस्राक्षस्तदा भूत्वा वज्रपाणिर्महायशाः॥ 88 व्याघ्रपाद इति ख्यातो वेदवेदाङ्गपारगः / सुधावदातं रक्ताक्षं स्तब्धकणं मदोत्कटम् / तस्याहमभवं पुत्रो धौम्यश्चापि ममानुजः // 75 आवेष्टितकरं रौद्रं चतुर्दष्ट्र महागजम् // 89 कस्यचित्त्वथ कालस्य धौम्येन सह माधव / समास्थितश्च भगवान्दीप्यमानः स्वतेजसा / भागच्छमाश्रमं क्रीडन्मुनीनां भावितात्मनाम् / / 76 आजगाम किरीटी तु हारकेयूरभूषितः // 90 तत्रापि च मया दृष्टा दुह्यमाना पयस्विनी / पाण्डुरेणातपत्रेण ध्रियमाणेन मूर्धनि / लक्षितं च मया क्षीरं स्वादुतो ह्यमृतोपमम् / / 77 सेव्यमानोऽप्सरोभिश्च दिव्यगन्धर्वनादितः // 91 ततः पिष्टं समालोड्य तोयेन सह माधव / ततो मामाह देवेन्द्रः प्रीतस्तेऽहं द्विजोत्तम / आवयोः क्षीरमित्येव पानार्थमुपनीयते // 78 वरं वृणीष्व मत्तस्त्वं यत्ते मनसि वर्तते // 92 अथ गव्यं पयस्तात कदाचित्प्राशितं मया। शक्रस्य तु वचः श्रुत्वा नाहं प्रीतमनाभवम् / ततः पिष्टरसं तात न मे प्रीतिमुदावहत् // 79 अब्रुवं च तदा कृष्ण देवराजमिदं वचः // 93 ततोऽहमब्रुवं बाल्याजननीमात्मनस्तदा / नाहं त्वत्तो वरं काझे नान्यस्मादपि दैवतात् / क्षीरोदनसमायुक्तं भोजनं च प्रयच्छ मे // 80 महादेवाहते सौम्य सत्यमेतद्भवीमि ते // 94 ततो मामब्रवीन्माता दुःखशोकसमन्विता। पशुपतिवचनाद्भवामि सद्यः पुत्रस्नेहात्परिष्वज्य मूर्ध्नि चाघ्राय माधव / / 81 ___कृमिरथ वा तरुरप्यनेकशाखः / कुतः क्षीरोदनं वत्स मुनीनां भावितात्मनाम् / अपशुपतिवरप्रसादजा मे वने निवसतां नित्यं कन्दमूलफलाशिनाम् // 82 त्रिभुवनराज्यविभूतिरप्यनिष्टा // 95 अप्रसाद्य विरूपाक्षं वरदं स्थाणुमव्ययम् / अपि कीट: पतंगो वा भवेयं शंकराज्ञया। कुतः क्षीरोदनं वत्स सुखानि वसनानि च // 83 / | न तु शक्र त्वया दत्तं त्रैलोक्यमपि कामये // 96 तं प्रपद्य सदा वत्स सर्वभावेन शंकरम् / यावच्छशाङ्कशकलामलबद्धमौलितत्प्रसादाच कामेभ्यः फलं प्राप्स्यसि पुत्रक // 84 / न प्रीयते पशुपतिर्भगवान्ममेशः / - 2518 - Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 14. 97 ] अनुशासनपर्व [13. 14. 123 तावज्जरामरणजन्मशताभिघातै तुषारगिरिकूटाभं सिताभ्रशिखरोपमम् / / 109 १ःखानि देहविहितानि समुद्वहामि // 97 तमास्थितश्च भगवान्देवदेवः सहोमया। दिवसकरशशाङ्कवह्निदीप्तं अशोभत महादेवः पौर्णमास्यामिवोडुराट् // 110 त्रिभुवनसारमपारमाधमेकम् / तस्य तेजोभवो वह्निः समेघः स्तनयिनुमान् / अजरममरमप्रसाद्य रुद्रं सहस्रमिव सूर्याणां सर्वमावृत्य तिष्ठति // 111 जगति पुमानिह को लभेत शान्तिम् // 98 ईश्वरः सुमहातेजाः संवर्तक इवानलः / शक्र उवाच / युगान्ते सर्वभूतानि दिधक्षुरिव चोद्यतः // 112 कः पुनस्तव हेतुर्वै ईशे कारणकारणे। तेजसा तु तदा व्याप्ते दुर्निरीक्ष्ये समन्ततः / येन देवादृतेऽन्यस्मात्प्रसाद नाभिकासि // 99 पुनरुद्विग्नहृदयः किमेतदिति चिन्तयम् // 113 उपमन्युरुवाच / मुहूर्तमिव तत्तेजो व्याप्य सर्वा दिशो दश / हेतुभिर्वा किमन्यैस्ते ईशः कारणकारणम् / / प्रशान्तं च क्षणेनैव देवदेवस्य मायया // 114 न शुश्रुम यदन्यस्य लिङ्गमभ्यर्च्यते सुरैः // 100 अथापश्यं स्थितं स्थाणु भगवन्तं महेश्वरम् / कस्यान्यस्य सुरैः सर्वैर्लिङ्गं मुक्त्वा महेश्वरम् / / सौरभेयगतं सौम्यं विधूममिव पावकम् / अर्च्यतेऽर्चितपूर्व वा ब्रूहि यद्यस्ति ते श्रुतिः।।१०१ सहितं चारुसङ्गिया पार्वत्या परमेश्वरम् / / 115 यस्य ब्रह्मा च विष्णुश्च त्वं चापि सह दैवतैः / नीलकण्ठं महात्मानमसक्तं तेजसां निधिम् / अर्चयध्वं सदा लिङ्गं तस्माच्छ्रेष्ठतमो हि सः।। 102 अष्टादशभुजं स्थाणुं सर्वाभरणभूषितम् // 116 तस्माद्वरमहं काङ्के निधनं वापि कौशिक / शुक्लाम्बरधरं देवं शुक्लमाल्यानुलेपनम् / गच्छ वा तिष्ठ वा शक्र यथेष्टं बलसूदन / / 103 शुक्लध्वजमनाधृष्यं शुल्लयज्ञोपवीतिनम् / / 117 काममेष वरो मेऽस्तु शापो वापि महेश्वरात् / गायद्भिर्नृत्यमानैश्च उत्पतद्भिरितस्ततः / न चान्यां देवता काङ्ग्रे सर्वकामफलान्यपि // 104 वृतं पारिषदैर्दिव्यैरात्मतुल्यपराक्रमैः // 118 एवमुक्त्वा तु देवेन्द्रं दुःखादाकुलितेन्द्रियः / बालेन्दुमुकुटं पाण्डं शरच्चन्द्रमिवोदितम् / न प्रसीदति मे रुद्रः किमेतदिति चिन्तयन् / त्रिभिर्नेत्रैः कृतोद्दयोतं त्रिभिः सूर्येरिवोदितैः / / अथापश्यं क्षणेनैव तमेवैरावतं पुनः // 105 अशोभत च देवस्य माला गात्रे सितप्रभे / हंसकुन्देन्दुसदृशं मृणालकुमुदप्रभम् / जातरूपमयैः पद्मग्रंथिता रत्नभूषिता / / 120 वृषरूपधरं साक्षात्क्षीरोदमिव सागरम् // 106 मूर्तिमन्ति तथास्त्राणि सर्वतेजोमयानि च / कृष्णपुच्छं महाकायं मधुपिङ्गललोचनम् / मया दृष्टानि गोविन्द भवस्यामिततेजसः // 121 जाम्बूनदेन दाम्ना च सर्वतः समलंकृतम् / / 107 इन्द्रायुधसहस्राभं धनुस्तस्य महात्मनः / रक्ताक्षं सुमहानासं सुकणं सुकटीतटम् / पिनाकमिति विख्यातं स च वै पन्नगो महान् // सुपाश्वं विपुलस्कन्धं सुरूपं चारुदर्शनम् // 108 सप्तशीर्षो महाकायस्तीक्ष्णदंष्ट्रो विषोल्बणः / ककुदं तस्य चाभाति स्कन्धमापूर्य विष्ठितम् / ज्यावेष्टितमहाग्रीवः स्थितः पुरुषविग्रहः // 123 -- 2519 - Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 14. 124 महाभारते [13. 14. 151 शरश्च सूर्यसंकाशः कालानलसमद्युतिः / त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवी येन निःक्षत्रिया कृता / यत्तदस्त्रं महाघोरं दिव्यं पाशुपतं महत् // 124 जामदग्न्येन गोविन्द रामेणाक्लिष्टकर्मणा // 138 अद्वितीयमनिर्देश्यं सर्वभूतभयावहम् / दीप्तधारः सुरौद्रास्यः सर्पकण्ठाप्रवेष्टितः / सस्फुलिङ्गं महाकायं विसृजन्तमिवानलम् // 125 अभच्छुलिनोऽभ्याशे दीप्तवह्निशिखोपमः // 139 एकपादं महादंष्ट्र सहस्रशिरसोदरम् / असंख्येयानि चास्त्राणि तस्य दिव्यानि धीमतः / सहस्रभुज जिह्वाक्षमुनिरन्तमिवानलम् // 126 प्राधान्यतो मयैतानि कीर्तितानि तवानघ // 140 ब्राह्मानाराणादैन्द्रादाग्नेयादपि वारुणात् / सव्यदेशे तु देवस्य ब्रह्मा लोकपितामहः। . यद्विशिष्टं महाबाहो सर्वशस्त्रविघातनम् / / 127 दिव्यं विमानमास्थाय हंसयुक्तं मनोजवम् // 141 येन तत्रिपुरं दग्ध्वा क्षणाद्भस्मीकृतं पुरा / वामपार्श्वमतश्चैव तथा नारायणः स्थितः / शरेणैकेन गोविन्द महादेवेन लीलया // 128 वैनतेयं समास्थाय शङ्खचक्रगदाधरः // 142 निर्ददाह जगत्कृत्स्नं त्रैलोक्यं सचराचरम् / / स्कन्दो मयूरमास्थाय स्थितो देव्याः समीपतः / महेश्वरभुजोत्सृष्टं निमेषार्धान्न संशयः // 129 शक्ति कण्ठे समादाय द्वितीय इव पावकः॥१४३ नावध्यो यस्य लोकेऽस्मिन्ब्रह्मविष्णुसुरेष्वपि / पुरस्ताच्चैव देवस्य नन्दि पश्याम्यवस्थितम् / तदहं दृष्टवांस्तात आश्चर्याद्भुतमुत्तमम् // 130 शूलं विष्टभ्य तिष्ठन्तं द्वितीयमिव शंकरम् / / 144 गुह्ममस्त्रं परं चापि तत्तुल्याधिकमेव वा / स्वायंभुवाद्या मनवो भृग्वाद्या ऋषयस्तथा / : यत्तच्छूलमिति ख्यातं सर्वलोकेषु शूलिनः // 131 शक्राद्या देवताश्चैव सर्व एव समभ्ययुः // 145 दारयेद्यन्महीं कृत्स्ना शोषयेद्वा महोदधिम् / तेऽभिवाद्य महात्मानं परिवार्य समन्ततः / संहरेद्वा जगत्कृत्स्नं विसृष्टं शूलपाणिना // 532 अस्तुवन्धिविधैः स्तोत्रैर्महादेवं सुरास्तदा // 146 यौवनाश्वो हतो येन मांधाता सबलः पुरा / ब्रह्मा भवं तदा स्तुन्वन्रथन्तरमुदीरयन् / चक्रवर्ती महातेजास्त्रिलोकविजयी नृपः // 133 ज्येष्ठसाम्ना च देवेशं जगी नारायणस्तदा। महाबलो महावीर्यः शक्रतुल्यपराक्रमः / गृणशक्रः परं ब्रह्म शतरुद्रीयमुत्तमम् // 147 करस्थेनैव गोविन्द लवणस्येह रक्षसः / / 534 ब्रह्मा नारायणश्चैव. देवराजश्व कौशिकः / तच्छूलमतितीक्ष्णाग्रं सुभीमं लोमहर्षणम् / अशोभन्त महात्मानस्वयत्रय इवामयः / / 148 त्रिशिखां भृकुटीं कृत्वा तर्जमानमिव स्थितम् // तेषां मध्यगतो देवो रराज भगवाशिवः / विधूमं सार्चिषं कृष्णं कालसूर्यमिवोदितम् / शरद्धनविनिर्मुक्तः परिविष्ट इवांशुमान् / सर्पहस्तमनिर्देश्यं पाशहस्तमिवान्तकम् / ततोऽहमस्तुवं देवं स्तवेनानेन सुव्रतम् // 149 दृष्टवानस्मि गोविन्द तदत्रं रुद्रसंनिधौ / / 136 नमो देवाधिदेवाय महादेवाय वै नमः / परशुस्तीक्ष्णधारश्च दत्तो रामस्य यः पुरा / शक्राय शक्ररूपाय शक्रवेषधराय च / / 150 महादेवेन तुष्टेन क्षत्रियाणां क्षयंकरः / नमस्ते वज्रहस्ताय पिङ्गलायारुणाय च / कार्तवीर्यो हतो येन चक्रवर्ती महामृधे // 137 / पिनाकपाणये नित्यं खड्गशूलधराय. च // 151 - 2520 - Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 14. 152] अनुशासनपर्व [ 13. 14. 180 नमस्ते कृष्णवासाय कृष्णकुञ्चितमूर्धजे / मोहितश्चास्मि देवेश तुभ्यं रूपविपर्ययात् / कृष्णाजिनोत्तरीयाय कृष्णाष्टमिरताय च // 152 तेन नायं मया दत्तं पाद्यं चापि सुरेश्वर // 166 शुक्लवर्णाय शुक्लाय शुक्लाम्बरधराय च / एवं स्तुत्वाहमीशानं पाद्यमयं च भक्तितः / शुक्लभस्मावलिप्ताय शुक्लकर्मरताय च // 153 कृताञ्जलिपुटो भूत्वा सर्व तस्मै न्यवेदयम् // 167 त्वं ब्रह्मा सर्वदेवानां रुद्राणां नीललोहितः / ततः शीताम्बुसंयुक्ता दिव्यगन्धसमन्विता / आत्मा च सर्वभूतानां सांख्ये पुरुष उच्यसे॥१५४ / पुष्पवृष्टिः शुभा तात पपात मम मूर्धनि // 168 ऋषभस्त्वं पवित्राणां योगिनां निष्कलः शिवः। / दुन्दुभिश्च ततो दिव्यस्ताडितो देवकिंकरैः / आश्रमाणां गृहस्थस्त्वमीश्वराणां महेश्वरः। ववौ च मारुतः पुण्यः शुचिगन्धः सुखावहः // कुबेरः सर्वयक्षाणां ऋतूना विष्णुरुच्यसे // 155 ततः प्रीतो महादेवः सपत्नीको वृषध्वजः / पर्वतानां महामेरुनक्षत्राणां च चन्द्रमाः / अब्रवीत्रिदशांस्तत्र हर्षयन्निव मां तदा // 170 वसिष्ठस्त्वमृषीणां च प्रहाणां सूर्य उच्यसे // 156 पश्यध्वं त्रिदशाः सर्वे उपमन्योर्महात्मनः / भारण्यानां पशूनां च सिंहस्त्वं परमेश्वरः / मयि भक्तिं परां दिव्यामेकभावादवस्थिताम्॥१७१ प्राम्याणां गोवृषश्चासि भगवाल्लोकपूजितः // 157 एवमुक्तास्ततः कृष्ण सुरास्ते शूलपाणिना / आदित्यानां भवान्विष्णुर्वसूनां चैव पावकः / ऊचुः प्राञ्जलयः सर्वे नमस्कृत्वा वृषध्वजम् // 172 पक्षिणां वैनतेयश्च अनन्तो भुजगेषु च // 158 भगवन्देवदेवेश लोकनाथ जगत्पते / सामवेदश्व वेदानां यजुषां शतरुद्रियम् / लभतां सर्वकामेभ्यः फलं त्वत्तो द्विजोत्तमः // 173 सनत्कुमारो योगीनां सांख्यानां कपिलो ह्यसि / / एवमुक्तस्ततः शर्वः सुरैर्ब्रह्मादिभिस्तथा / शक्रोऽसि मरुतां देव पितॄणां धर्मराडसि / / आह मां भगवानीशः प्रहसन्निव शंकरः // 174 ब्रह्मलोकश्च लोकानां गतीनां मोक्ष उच्यसे / / 160 वत्सोपमन्यो प्रीतोऽस्मि पश्य मां मुनिपुंगव / क्षीरोदः सागराणां च शैलानां हिमवान्गिरिः / दृढभक्तोऽसि विप्रर्षे मया जिज्ञासितो ह्यसि // 175 वर्णानां ब्राह्मणश्चासि विप्राणां दीक्षितो द्विजः / अनया चैव भक्त्या ते अत्यर्थं प्रीतिमानहम् / आदिस्त्वमसि लोकानां संहर्ता काल एव च // तस्मात्सर्वान्ददाम्यद्य कामांस्तव यथेप्सितान् / यथान्यदपि लोकेषु सत्त्वं तेजोधिकं स्मृतम् / एवमुक्तस्य चैवात्र महादेवेन मे विभो / तत्सर्व भगवानेव इति मे निश्चिता मतिः // 162 हर्षादश्रूण्यवर्तन्त लोमहर्षश्च जायते // 177 नमस्ते भगवन्देव नमस्ते भक्तवत्सल / अब्रुवं च तदा देवं हर्षगद्गदया गिरा। योगेश्वर नमस्तेऽस्तु नमस्ते विश्वसंभव // 163 जानुभ्यामवनि गत्वा प्रणम्य च पुनः पुनः॥१७८ प्रसीद मम भक्तस्य दीनस्य कृपणस्य च / अद्य जातो ह्यहं देव अद्य मे सफलं तपः / बनैश्वर्येण युक्तस्य गतिभव सनातन / / 164 यन्मे साक्षान्महादेवः प्रसन्नस्तिष्ठतेऽग्रतः // 179 यं चापराधं कृतवानज्ञानात्परमेश्वर / यं न पश्यन्ति चाराध्य देवा ह्यमितविक्रमम् / मद्भक्त इति देवेश तत्सर्व क्षन्तुमर्हसि // 165 / तमहं दृष्टवान्देवं कोऽन्यो धन्यतरो मया // 180 म.भा. 316 - 2521 - Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 14. 181] महाभारते [13. 15. 7 15 . एवं ध्यायन्ति बिद्वांसः परं तत्त्वं सनातनम् / स्मृतः स्मृतश्च ते विप्र सदा दास्यामि दर्शनम् / / षड्विंशकमिति ख्यातं यत्परात्परमक्षरम् // 181 एवमुक्त्वा स भगवान्सूर्यकोटिसमप्रभः। स एष भगवान्देवः सर्वतत्त्वादिरव्ययः। ममेशानो वरं दत्त्वा तत्रैवान्तरधीयत // 196 सर्वतत्त्वविधानज्ञः प्रधानपुरुषेश्वरः // 182 एवं दृष्टो मया कृष्ण देवदेवः समाधिना / योऽसृजद्दक्षिणादङ्गाद्ब्रह्माणं लोकसंभवम् / तदवाप्तं च मे सर्वं यदुक्तं तेन धीमता // 197 वामपार्धात्तथा विष्णुं लोकरक्षार्थमीश्वरः / / प्रत्यक्षं चैव ते कृष्ण पश्य सिद्धान्व्यवस्थितान् / युगान्ते चैव संप्राप्ते रुद्रमङ्गात्सृजत्प्रभुः // 183 ऋषीन्विद्याधरान्यक्षान्गधर्वाप्सरसस्तथा // 198 स रुद्रः संहरन्कृरलं जगत्स्थावरजङ्गमम् / पश्य वृक्षान्मनोरम्यान्सदा पुष्पफलान्वितान् / कालो भूत्वा महातेजाः संवर्तक इवानलः // 184 सर्वर्तुकुसुमैयुक्तान्निग्धपत्रान्सुशाखिनः / एष देवो महादेवो जगत्सृष्ट्वा चराचरम् / सर्वमेतन्महाबाहो दिव्यभावसमन्वितम् // .199 कल्पान्ते चैव सर्वेषां स्मृतिमाक्षिप्य तिष्ठति॥१८५ इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि सर्वगः सर्वभूतात्मा सर्वभूतभवोद्भवः / चतुर्दशोऽध्यायः // 14 // आस्ते सर्वगतो नित्यमदृश्यः सर्वदैवतैः॥ 186 यदि देयो वरं मह्यं यदि तुष्टश्च मे प्रभुः / उपमन्युरुवाच। भक्तिर्भवतु मे नित्यं शाश्वती त्वयि शंकर // 187 एतान्सहस्रशश्वान्यान्समनुध्यातवान्हरः। अतीतानागतं चैव वर्तमानं च यद्विभो / कस्मात्प्रसाद भगवान्न कुर्यात्तव माधव // 1 जानीयामिति मे बुद्धिस्त्वत्प्रसादात्सुरोत्तम॥ 188 त्वादृशेन हि देवानां श्लाघनीयः समागमः / क्षीरोदनं च भुञ्जीयामक्षयं सह बान्धवैः / ब्रह्मण्येनानृशंसेन श्रद्दधानेन चाप्युत / आश्रमे च सदा मह्यं सांनिध्यं परमस्तु ते॥१८९ जप्यं च ते प्रदास्यामि येन द्रक्ष्यसि शंकरम् // 2 एवमुक्तः स मां प्राह भगवाल्लोकपूजितः / कृष्ण उवाच / महेश्वरो महातेजाश्चराचरगुरुः प्रभुः // 190 अब्रुवं तमहं ब्रह्मस्त्वत्प्रसादान्महामुने / अजरश्चामरश्चैव भव दुःखविवर्जितः। द्रक्ष्ये दितिजसंघानां मर्दनं त्रिदशेश्वरम् // 3 शीलवान्गुणसंपन्नः सर्वज्ञः प्रियदर्शनः // 191 दिनेऽष्टमे च विप्रेण दीक्षितोऽहं यथाविधि। . अक्षयं यौवनं तेऽस्तु तेजश्चैवानलोपमम् / दण्डी मुण्डी कुशी चीरी घृताक्तो मेखली तथा // क्षीरोदः सागरश्चैव यत्र यत्रेच्छसे मुने // 192 मासमेकं फलाहारो द्वितीयं सलिलाशनः / तत्र ते भविता कामं सांनिध्यं पयसो निधेः / / तृतीयं च चतुर्थं च पञ्चमं चानिलाशनः // 5 क्षीरोदनं च भुङ्ख त्वममृतेन समन्वितम् // 193 / एकपादेन तिष्ठंश्च ऊर्ध्वबाहुरतन्द्रितः / बन्धुभिः सहितः कल्पं ततो मामुपयास्यसि। तेजः सूर्यसहस्रस्य अपश्यं दिवि भारत // 6 सांनिध्यमाश्रमे नित्यं करिष्यामि द्विजोत्तम // 194 तस्य मध्यगतं चापि तेजसः पाण्डुनन्दन / तिष्ठ वत्स यथाकामं नोत्कण्ठां कर्तुमर्हसि / इन्द्रायुधपिनद्धाङ्गं विद्युन्मालागवाक्षकम् / - 2522 - Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 15. 7] अनुशासनपर्व [ 13. 15. 33 नीलशैलचयप्रख्यं बलाकाभूषितं धनम् // 7 मरीचिरङ्गिरा अत्रिः पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः // 20 तस्मास्थितश्च भगवान्देव्या सह महाद्युतिः / मनवः सप्तसोमश्च अथर्वा सबृहस्पतिः / तपसा तेजसा कान्त्या दीप्तया सह भार्यया // 8 भृगुर्दक्षः कश्यपश्च वसिष्ठः काश्य एव च // 21 रराज भगवांस्तत्र देव्या सह महेश्वरः / छन्दांसि दीक्षा यज्ञाश्च दक्षिणाः पावको हविः / सोमेन सहितः सूर्यो यथा मेघस्थितस्तथा // 9 यज्ञोपगानि द्रव्याणि मूर्तिमन्ति युधिष्ठिर // 22 संहृष्टरोमा कौन्तेय विस्मयोत्फुल्ललोचनः / प्रजानां पतयः सर्वे सरितः पन्नगा नगाः / अपश्यं देवसंघानां गतिमातिहरं हरम् // 10 देवानां मातरः सर्वा देवपल्यः सकन्यकाः // 23 किरीटिनं गदिनं शूलपाणि सहस्राणि मुनीनां च अयुतान्यर्बुदानि च। व्याघ्राजिनं जटिलं दण्डपाणिम् / नमस्यन्ति प्रभु शान्तं पर्वताः सागरा दिशः // 24 पिनाकिनं वज्रिणं तीक्ष्णदंष्ट्र गन्धर्वाप्सरसश्चैव गीतवादित्रकोविदाः / शुभाङ्गदं व्यालयज्ञोपवीतम् // 11 दिव्यतानेन गायन्तः स्तुवन्ति भवमद्भुतम् / दिव्यां मालामुरसानेकवर्णा विद्याधरा दानवाश्च गुह्यका राक्षसास्तथा // 25 समुद्वहन्तं गुल्फ़देशावलम्बाम् / सर्वाणि चैव भूतानि स्थावराणि चराणि च / चन्द्रं यथा परिविष्टं ससंध्यं नमस्यन्ति महाराज वाङ्मनःकर्मभिर्विभुम् / : वर्षात्यये तद्वदपश्यमेनम् // 12 पुरस्ताद्विष्ठितः शर्वो ममासीत्रिदशेश्वरः // 26 प्रमथानां गणैश्चैव समन्तात्परिवारितम् / पुरस्ताद्विष्ठितं दृष्ट्वा ममेशानं च भारत / शरदीव सुदुष्प्रेक्ष्यं परिविष्टं दिवाकरम् // 13 सप्रजापतिशकान्तं जगन्मामभ्युदैक्षत // 27 एकादश तथा चैनं रुद्राणां वृषवाहनम् / ईक्षितुं च महादेवं न मे शक्तिरभूत्तदा / अस्तुवन्नियतात्मानः कर्मभिः शुभकर्मिणम् // 14 ततो मामब्रवीदेवः पश्य कृष्ण वदस्व च // 28 आदित्या वसवः साध्या विश्वेदेवास्तथाश्विनौ / / शिरसा वन्दिते देवे देवी प्रीता उमाभवत् / विश्वाभिः स्तुतिभिर्देवं विश्वेदेवं समस्तुवन् // 15 ततोऽहमस्तुवं स्थाणुं स्तुतं ब्रह्मदिभिः सुरैः // 29 शतक्रतुश्च भगवान्विष्णुश्चादि तिनन्दनौ / नमोऽस्तु ते शाश्वत सर्वयोने ब्रह्मा रथन्तरं साम ईरयन्ति भवान्तिके // 16 ब्रह्माधिपं त्वामृषयो वदन्ति / योगीश्वराः सुबहवो योगदं पितरं गुरुम् / तपश्च सत्त्व च रजस्तमश्च ब्रह्मर्षयश्च ससुतास्तथा देवर्षयश्च वै // 17 त्वामेव सत्यं च वदन्ति सन्तः // 30 पृथिवी चान्तरिक्षं च नक्षत्राणि ग्रहास्तथा। त्वं वै ब्रह्मा च रुद्रश्च वरुणोऽग्निर्मनुर्भवः / मासार्धमासा ऋतवो रात्र्यः संवत्सराः क्षणाः॥१८ / धाता त्वष्टा विधाता च त्वं प्रभुः सर्वतोमुखः // 31 मुहूर्ताश्च निमेषाश्च तथैव युगपर्ययाः / त्वत्तो जातानि भूतानि स्थावराणि चराणि च / दिव्या राजन्नमस्यन्ति विद्याः सर्वा दिशस्तथा // | स्वमादिः सर्वभूतानां संहारश्च त्वमेव हि // 32 सनत्कुमारो वेदाश्च इतिहासास्तथैव च। ये चेन्द्रियार्थाश्च मनश्च कृत्स्नं -2523 - Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 13. 33] महाभारते [13. 16.5 ये वायवः सप्त तथैव चाग्निः / प्रधानविधियोगस्थस्त्वामेव विशते बुधः // 45 ये वा दिविस्था देवताश्चापि पुंसां एवमुक्ते मया पार्थ भवे चार्तिविनाशने / तस्मात्परं त्वामृषयो वदन्ति // 33 चराचर जगत्सवं सिंहनादमथाकरोत् // 46 वेदा यज्ञाश्च सोमश्च दक्षिणा पावको हविः / सविप्रसंघाश्च सुरासुराश्च यज्ञोपगं च यत्किचिद्भगवांस्तदसंशयम् // 34 नागाः पिशाचाः पितरो वयांसि / इष्ट दत्तमधीतं च व्रतानि नियमाश्च ये / / रक्षोगणा भूतगणाश्च सर्वे ह्वीः कीर्तिः श्रीर्युतिस्तुष्टिः सिद्धिश्चैव त्वदर्पणा // महर्षयश्चैव तथा प्रणेमुः // 4. कामः क्रोधो भयं लोभो मदः स्तम्भोऽथ मत्सरः। मम मूर्ध्नि च दिव्यानां कुसुमानां सुगन्धिनाम् / आधयो व्याधयश्चैव भगवंस्तनयास्तव // 36 . राशयो निपतन्ति स्म वायुश्च सुसुखो ववौ // 48 कृतिर्विकारः प्रलयः प्रधानं प्रभवोऽव्ययः। निरीक्ष्य भगवान्देवीमुमां मां च जगद्धितः / मनसः परमा योनिः स्वभावश्चापि शाश्वतः / शतक्रतुं चाभिवीक्ष्य स्वयं मामाह शंकरः // 49 भव्यक्तः पावन विभो सहस्रांशो हिरण्मयः॥३. विद्मः कृष्ण परां भक्तिमस्मासु तव शत्रुहन् / भादिर्गुणानां सर्वेषां भवान्वै जीवनाश्रयः। क्रियतामात्मनः श्रेयः प्रीतिर्हि परमा त्वयि // 50 महानात्मा मतिर्ब्रह्मा विश्वः शंभुः स्वयंभुवः // 38 वृणीष्वाष्टौ वरान्कृष्ण दातास्मि तव सत्तम / बुद्धिः प्रशोपलब्धिश्च संविख्यातिधृतिः स्मृतिः। अहि यादवशार्दूल यानिच्छसि सुदुर्लभान् // 51 पर्यायवाचकैः शब्दैर्महानात्मा विभाव्यसे // 39 / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि त्वां बुद्धा ब्राह्मणो विद्वान्न प्रमोहं निगच्छति / पञ्चदशोऽध्यायः // 15 // हृदयं सर्वभूतानां क्षेत्रसस्त्वमृषिष्टुतः // 40 सर्वतःपाणिपादस्त्वं सर्वतोक्षिशिरोमुखः।। कुष्ण उवाच / सर्वतःश्रुतिमालोके सर्वमावृत्य तिष्ठसि // 41 / मूर्धा निपत्य नियतस्तेजःसंनिचये ततः / फलं त्वमसि तिग्मांशो निमेषादिषु कर्मसु / / परमं हर्षमागम्य भगवन्तमथाब्रुवम् // 1 त्वं वै प्रभार्चिः पुरुषः सर्वस्य हृदि संस्थितः। धर्मे दृढत्वं युधि शत्रुघातं अणिमा लघिमा प्राप्तिरीशानो ज्योतिरव्ययः // 42 ___. यशस्तथाऽयं परमं बलं च / त्वयि बुद्धिर्मतिर्लोकाः प्रपन्नाः संश्रिताश्च ये। योगप्रियत्वं तव संनिकर्ष ध्यानिनो नित्ययोगाश्च सत्यसंधा जितेन्द्रियाः॥४३ वृणे सुतानां च शतं शतानि // 2 यस्त्वां ध्रुवं वेदयते गुहाशयं एवमस्त्विति तद्वाक्यं मयोक्तः प्राह शंकरः॥ 3 ___ प्रभुं पुराणं पुरुषं विश्वरूपम् / सतो मां जगतो माता धरणी सर्वपावनी / हिरण्मयं बुद्धिमतां परां गतिं उवाचोमा प्रणिहिता शर्वाणी तपसां निधिः // 4 स बुद्धिमान्बुद्धिमतीत्य तिष्ठति // 44 दत्तो भगवता पुत्रः साम्बो नाम तवानघ / विदित्वा सप्त सूक्ष्माणि षडङ्गं त्वां च मूर्तितः। / मत्तोऽप्यष्टौ वरानिष्ठान्गृहाण त्वं ददामि ते / - 2524 - Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 16. 5] अनुशासनपर्व [ 13. 16. 29 प्रणम्य शिरसा सा च मयोक्ता पाण्डुनन्दन // 5 जातीमरणभीरूणां यतीनां यततां विभो / द्विजेष्वकोपं पितृतः प्रसाद निर्वाणद सहस्रांशो नमस्तेऽस्तु सुखाश्रय // 15 शतं सुतानामुपभोगं परं च। ब्रह्मा शतक्रतुर्विष्णुर्विश्वेदेवा महर्षयः / कले प्रीतिं मातृतश्च प्रसादं न विदुस्त्वां तु तत्त्वेन कुतो वेत्स्यामहे वयम् // 16 शमप्राप्तिं प्रवृणे चापि दाक्ष्यम् // 6 त्वत्तः प्रवर्तते कालस्त्वयि कालश्च लीयते / देव्युवाच / कालाख्यः पुरुषाख्यश्च ब्रह्माख्यश्च त्वमेव हि // 17 एवं भविष्यत्यमरप्रभाव तनवस्ते स्मृतास्तिस्रः पुराणज्ञैः सुरर्षिभिः / नाहं मृषा जातु वदे कदाचित् / अधिपौरुषमध्यात्ममधिभूताधिदैवतम् / भार्यासहस्राणि च षोडशैव अधिलोक्याधिविज्ञानमधियज्ञस्त्वमेव हि // 18 तासु प्रियत्वं च तथाक्षयत्वम् // 7 त्वां विदित्वात्मदेहस्थं दुर्विदं दैवतैरपि / प्रीति चाश्यां बान्धवानां सकाशा विद्वांसो यान्ति निर्मुक्ताः परं भावमनामयम् // 19 रदामि ते वपुषः काम्यतां च / अनिच्छतस्तव विभो जन्ममृत्युरनेकतः / भोक्ष्यन्ते वै सप्तति शतानि द्वारं त्वं स्वर्गमोक्षाणामाक्षेप्ता त्वं ददासि च // 20 गृहे तुभ्यमतिथीनां च नित्यम् // 8 त्वमेव मोक्षः स्वर्गश्च कामः क्रोधस्त्वमेव हि / ___ वासुदेव उवाच / सत्त्वं रजस्तमश्चैव अधश्चोध्वं त्वमेव हि // 21 एवं दत्त्वा वरान्देवो मम देवी च भारत / ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च स्कन्देन्द्रौ सविता यमः / अन्तर्हितः क्षणे तस्मिन्सगणो मीमपूर्वज // 9 वरुणेन्दू मनुर्धाता विधाता त्वं धनेश्वरः / / 22 एतदत्यद्भुतं सर्व ब्राह्मणायातितेजसे / भूर्वायुर्योतिरापश्च वाग्बुद्धिस्त्वं मतिर्मनः / उपमन्यवे मया कृत्स्नमाख्यातं कौरवोत्तम // 10 कर्म सत्यानृते चोभे त्वमेवास्ति च नास्ति च / / 23 नमस्कृत्वा तु स प्राह देवदेवाय सुव्रत / इन्द्रियाणीन्द्रियार्थाश्च तत्परं प्रकृतेर्बुवम् / नास्ति शर्वसमो दाने नास्ति शर्वसमो रणे / विश्वाविश्वपरो भावश्चिन्त्याचिन्त्यस्त्वमेव हि // 24 नास्ति शर्वसमो देवो नास्ति शर्वसमा गतिः।।११ यच्चैतत्परमं ब्रह्म यच्च तत्परमं पदम् / ऋषिरासीत्कृते तात तण्डिरित्येव विश्रुतः / या गतिः सांख्ययोगानां स भवान्नात्र संशयः // 25 दश वर्षसहस्राणि तेन देवः समाधिना / नूनमद्य कृतार्थाः स्म नूनं प्राप्ताः सतां गतिम् / आराधितोऽभूद्भक्तेन तस्योदकं निशामय // 12 यां गतिं प्राप्नुवन्तीह ज्ञाननिर्मलबुद्धयः / / 26 म दृष्ट्वान्महादेवमस्तौषीच्च स्तवैर्विभुम् / .. अहो मूढाः स्म सुचिरमिमं कालमचेतसः / पवित्राणां पवित्रस्त्वं गतिर्गतिमतां वर / यन्न विद्मः परं देवं शाश्वतं यं विदुर्बुधाः // 27 अत्युनं तेजसा तेजस्तपसां परमं तपः // 13 / / सोऽयमासादितः साक्षाद्बहुभिर्जन्मभिर्मया / विश्वावसुहिरण्याक्षपुरुहूतनमस्कृत / भक्तानुग्रहकृदेवो यं ज्ञात्वामृतमभुते // 28 भूरिकल्याणद विभो पुरुसत्य नमोऽस्तु ते // 14 / देवासुरमनुष्याणां यच्च गुह्यं सनातनम् / - 2525 - Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 16. 29 ] महाभारते [18. 16. 59 गुहायां निहितं ब्रह्म दुर्विज्ञेयं सुरैरपि // 29 / प्राणायामपरा नित्यं यं विशन्ति जपन्ति च // 44 स एष भगवान्देवः सर्वकृत्सर्वतोमुखः / अयं स देवयानानामादित्यो द्वारमुच्यते / सर्वात्मा सर्वदर्शी च सर्वगः सर्ववेदिता // 30 अयं च पितृयानानां चन्द्रमा द्वारमुच्यते // 45 प्राणकृत्प्राणभृत्प्राणी प्राणदः प्राणिनां गतिः / / एष कालगतिश्चित्रा संवत्सरयुगादिषु। देहकृदेहभृदेही देहभुग्देहिनां गतिः // 31 भावाभावौ तदात्वे च अयने दक्षिणोत्तरे // 46 अध्यात्मगतिनिष्ठानां ध्यानिनामात्मवेदिनाम् / एवं प्रजापतिः पूर्वमाराध्य बहुभिः स्तवैः / . अपुनर्मारकामानां या गतिः सोऽयमीश्वरः // 32 वरयामास पुत्रत्वे नीललोहितसंज्ञितम् // 47 अयं च सर्वभूतानां शुभाशुभगतिप्रदः / ऋम्भिर्यमनुशंसन्ति तंत्रे कर्मणि बहुचः। अयं च जन्ममरणे विदध्यात्सर्वजन्तुषु / / 33 / यजुर्भिर्यं त्रिधा वेद्यं जुह्वत्यध्वर्यवोऽध्वरे // 48 अयं च सिद्धिकामानामृषीणां सिद्धिदः प्रभुः सामभियं च गायन्ति सामगाः शुद्धबुद्धयः / अयं च मोक्षकामानां द्विजानां मोक्षदः प्रभुः // यज्ञस्य परमा योनिः पतिश्चायं परः स्मृतः // 49 भूराद्यान्सर्वभुवनानुत्पाद्य सदिवौकसः / रात्र्यह:श्रोत्रनयनः पक्षमासशिरोभुजः / बिभर्ति देवस्तनुभिरष्टाभिश्च ददाति च // 35 ऋतुवीर्यस्तपोधैर्यो ह्यब्दगुह्योरुपादवान् // 50 अतः प्रवर्तते सर्वमस्मिन्सर्वं प्रतिष्ठितम् / मृत्युर्यमो हुताशश्च कालः संहारवेगवान् / अस्मिंश्च प्रलयं याति अयमेकः सनातनः // 36 | कालस्य परमा योनिः कालश्चायं सनातनः // 51 अयं स सत्यकामानां सत्यलोकः परः सताम् / चन्द्रादित्यौ सनक्षत्रौ सग्रहौ सह वायुना / अपवर्गश्च मुक्तानां कैवल्यं चात्मवादिनाम् // 37 | ध्रुयः सप्तर्षयश्चैव भुवनाः,सप्त एव च // 52 अयं ब्रह्मादिभिः सिर्गुहायां गोपितः प्रभुः / प्रधानं महदव्यक्तं विशेषान्तं सवैकृतम् / देवासुरमनुष्याणां न प्रकाशो भवेदिति // 38 / ब्रह्मादि स्तम्बपर्यन्तं भूतादि सदसञ्च यत् // 53 तं त्वां देवासुरनरास्तत्त्वेन न विदुर्भवम् / अष्टौ प्रकृतयश्चैव प्रकृतिभ्यश्च यत्परम् / मोहिताः खल्वनेनैव हृच्छयेन प्रवेशिताः // 39 अस्य देवस्य यद्भागं कृत्स्नं संपरिवर्तते // 54 ये चैनं संप्रपद्यन्ते भक्तियोगेन भारत / एतत्परममानन्दं यत्तच्छाश्वतमेव च / तेषामेवात्मनात्मानं दर्शयत्येष हृच्छयः / / 40 एषा गतिर्विरक्तानामेष भावः परः सताम् // 55 यं ज्ञात्वा न पुनर्जन्म मरणं चापि विद्यते / एतत्पदमनुद्विग्नमेतद्ब्रह्म सनातनम् / यं विदित्वा परं वेचं वेदितव्यं न विद्यते // 41 शास्त्रवेदाङ्गविदुषामेतद्ध्यानं परं पदम् // 56 यं लब्ध्वा परमं लाभं मन्यते नाधिकं पुनः। इयं सा परमा काष्ठा इयं सा परमा कला। प्राणसूक्ष्मां परां प्राप्तिमागच्छत्यक्षयावहाम् // 42 / इयं सा परमा सिद्धिरियं सा परमा गतिः // 57 यं सांख्या गुणतत्त्वज्ञाः सांख्यशास्त्रविशारदाः। इयं सा परमा शान्तिरियं सा निर्वृतिः परा / सूक्ष्मज्ञानरताः पूर्वं ज्ञात्वा मुच्यन्ति बन्धनैः // 43 - यं ताप्य कृतकृत्याः स्म इत्यमन्यन्त वेधसः // 58 यं च वेदविदो वेद्यं वेदान्तेषु प्रतिष्ठितम् / इयं तुष्टिरियं सिद्धिरियं श्रुतिरियं स्मृतिः / - 2526 - Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 16. 59] अनुशासनपर्व [13. 17. 11 अध्यात्मगतिनिष्ठानां विदुषां प्राप्तिरव्यया / / 59 शर्वस्य शास्त्रेषु तथा दश नामशतानि वै / / 74 यजतां यज्ञकामानां यज्ञविपुलदक्षिणैः / गुह्यानीमानि नामानि तण्डिभगवतोऽच्युत / या गतिर्दैवतैर्दिव्या सा गतिस्त्वं सनातन // 60 देवप्रसादाद्देवेश पुरा प्राह महात्मने / / 75 जप्यहोमव्रतैः कृच्छनियमैर्देहपातनैः। इति श्रीमहाभारले अनुशासनपर्वगि तप्यतां या गतिर्देव वैराजे सा गतिर्भवान् // 61 षोडशोऽध्यायः // 16 // कर्मन्यासकृतानां च विरक्तानां ततस्ततः / या गतिर्ब्रह्मभवने सा गतिस्त्वं सनातन / / 62 वारदेव उवाच / अपुनर्मारकामानां वैराग्ये वर्ततां परे / ततः स प्रयतो भूत्वा मम तात युधिष्ठिर / विकृतीनां लयानां च सा गतिस्त्वं सनातन // 63 प्राञ्जलिः प्राह विप्रर्पि मसंहारमादितः // 1 ज्ञानविज्ञाननिष्टानां निरुपाख्या निरञ्जना / उपमन्युरुवाच / कैवल्या या गतिर्देव परमा सा गतिर्भवान // 64 ब्रह्मप्रोक्तैर्ऋषिप्रोक्तैर्वेदवेदाङ्गसंभवैः / वेदशास्त्रपुराणोक्ताः पश्चैता गतयः स्मृताः।। सर्वलोकेषु विख्यातैः स्थाणुं स्तोष्यामि नामभिः // त्वत्प्रसादाद्धि लभ्यन्ते न लभ्यन्तेऽन्यथा विभो // महद्भिर्विहितैः सत्यैः सिद्धैः सर्वार्थसाधकैः / इति तण्डिस्तपोयोगात्तुष्टावेशानमव्ययम् / ऋषिणा तण्डिना भक्त्या कृतैर्देवकृतात्मना // 3 जगौ च परमं ब्रह्म यत्पुरा लोककृजगौ / / 66 यथोक्तीकविख्यातैर्मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः / ब्रह्मा शतक्रतुर्विष्णुर्विश्वेदेवा महर्षयः / प्रवरं प्रथमं म्बग्यं सर्वभूतहितं शुभम् / न विदुस्त्वामिति ततस्तुष्टः प्रोवाच तं शिवः // 67 श्रुतैः सर्वत्र जगति ब्रह्मलोकावतारितैः // 4 अक्षयश्चाव्ययश्चैव भविता दुःखवर्जितः / यत्तद्रहस्यं परमं ब्रह्मप्रोक्तं सनातनम् / यशस्वी तेजसा युक्तो दिव्यज्ञानसमन्वितः / / 68 वक्ष्ये यदुकुलश्रेष्ठ शृणुष्वावहितो मम // 5 ऋषीणामभिगम्यश्च सूत्रकर्ता सुतस्तव / परत्वेन भवं देवं भक्तस्त्वं परमेश्वरम् / मत्प्रसादाहिजश्रेष्ठ भविष्यति न संशयः / / 69 तेन ते श्रावयिष्यामि यत्तद्ब्रह्म सनातनम // 6 कं वा कामं ददाम्यद्य ब्रूहि यद्वत्स काङ्क्षसे / न शक्यं विस्तरात्कृत्सं वक्तुं शर्वस्य केनचित् / प्राञ्जलिः स उवाचेदं त्वयि भक्तिर्दृढास्तु मे // 70 युक्तेनापि विभूतीनामपि वर्षशतैरपि / / 7 एवं दत्त्वा वरं देवो वन्द्यमानः सुरर्षिभिः / यस्यादिमध्यमन्तश्च सुरैरपि न गम्यते / स्तूयमानश्च विबुधैस्तत्रैवान्तरधीयत / / 71 कस्तस्य शक्नुयाद्वक्तुं गुणान्कात्स्न्येन माधव // 8 अन्तर्हिते भगवति सानुगे यादवेश्वर / किं तु देवस्य महतः संक्षिपार्थपदाक्षरम / ऋषिराश्रममागम्य ममैतत्प्रोक्तानिह // 72 शक्तितश्चरितं वक्ष्ये प्रसादात्तस्य चैव हि // 9 यानि च प्रथितान्यादौ तण्डिराख्यातवान्मम / अप्राप्येह ततोऽनुज्ञां न शक्यः स्त तुमीश्वरः / नामानि मानवश्रेष्ठ तानि त्वं शृणु सिद्धये // 73 यदा तेनाभ्यनुज्ञातः स्तुवत्येव सदा भवम् // 10 दश नामसहस्राणि वेदेष्वाह पितामहः / / अनादिनिधनस्याहं सर्वयोनेर्महात्मनः / -2527 ~~ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. 17. 11] महाभारते [13. 17. 39 नाम्नां कंचित्समुद्देशं वक्ष्ये ह्यव्यक्तयोनिनः // 11 / शान्तीनामपि या शान्तिद्युतीनामपि या द्युतिः। वरदस्य वरेण्यस्य विश्वरूपस्य धीमतः / दान्तानामपि यो दान्तो धीमतामपि या च धीः॥ शृणु नामसमुद्देशं यदुक्तं पद्मयोनिना // 12 देवानामपि यो देवो मुनीनामपि यो मुनिः / दश नामसहस्राणि यान्याह प्रपितामहः / यज्ञानामपि यो यज्ञः शिवानामपि यः शिवः // 26 तानि निर्मध्य मनसा दध्नो घृतमिवोद्धृतम् // 13 रुद्राणामपि यो रुद्रः प्रभुः प्रभवतामपि / गिरेः सारं यथा हेम पुष्पात्सारं यथा मधु / योगिनामपि यो योगी कारणानां च कारणम् // 27 घृतात्सारं यथा मण्डस्तथैतत्सारमुद्धृतम् // 14 यतो लोकाः संभवन्ति न भवन्ति यतः पुनः / सर्वपाप्मापहमिदं चतुर्वेदसमन्वितम् / सर्वभूतात्मभूतस्य हरस्यामिततेजसः // 28 प्रयत्नेनाधिगन्तव्यं धायं च प्रयतात्मना / अष्टोत्तरसहस्रं तु नाम्नां शर्वस्य मे शृणु। शान्तिदं पौष्टिकं चैव रक्षोघ्नं पावनं महत् // 15 यच्छ्रुत्वा मनुजश्रेष्ठ सर्वान्कामानवाप्स्यसि // 29 इदं भक्ताय दातव्यं श्रद्दधानास्तिकाय च / नाश्रधानरूपाय नास्तिकायाजितात्मने // 16 स्थिरः स्थाणुः प्रभुर्भानुः प्रवरो वरदो वरः / यश्वाभ्यसूयते देवं भूतात्मानं पिनाकिनम् / सर्वात्मा सर्वविख्यातः सर्वः सर्वकरो भवः // 30 स कृष्ण नरकं याति सह पूर्वैः सहानुगैः // 17 जटी चर्मी शिखण्डी च सर्वाङ्गः सर्वभावनः / इदं ध्यानमिदं योगमिदं ध्येयमनुत्तमम् / हरिश्च हरिणाक्षश्च सर्वभूतहरः प्रभुः // 31 इदं जप्यमिदं ज्ञानं रहस्यमिदमुत्तमम् / प्रवृत्तिश्च निवृत्तिश्च नियतः शाश्वतो ध्रुवः / इदं ज्ञात्वान्तकालेऽपि गच्छेद्धि परमां गतिम् // 18 श्मशानचारी भगवान्खचरो गोचरोऽर्दनः / / 32 पवित्रं मङ्गलं पुण्यं कल्याणमिदमुत्तमम् / अभिवाद्यो महाकर्मा तपस्वी भूतभावनः / निगदिष्ये महाबाहो स्तवानामुत्तमं स्तवम् / / 19 उन्मत्तवेशप्रच्छन्नः सर्वलोकप्रजापतिः // 33 इदं ब्रह्मा पुरा कृत्वा सर्वलोकपितामहः / महारूपो महाकायः सर्वरूपो महायशाः / सर्वस्तवानां दिव्यानां राजत्वे समकल्पयत् // 20 महात्मा सर्वभूतश्च विरूपो वामनो मनुः // 34 वदाप्रभृति चैवायमीश्वरस्य महात्मनः / लोकपालोऽन्तर्हितात्मा प्रसादो हयगर्दभिः / स्तवराजेति विख्यातो जगत्यमरपूजितः / पवित्रश्च महांश्चैव नियमो नियमाश्रयः // 35 ब्रह्मलोकादयं चैव स्तवराजोऽवतारितः // 21 / सर्वकर्मा स्वयंभूश्च आदिरादिकरो निधिः / यस्मात्तण्डिः पुरा प्राह तेन तण्डिकृतोऽभवत् / सहस्राक्षो विरूपाक्षः सोमो नक्षत्रसाधकः // 36 स्वर्गाश्चैवात्र भूलोकं तण्डिना ह्यवतारितः // 22 चन्द्रसूर्यगतिः केतुर्ग्रहो प्रहपतिर्वरः / सर्वमङ्गलमङ्गल्यं सर्वपापप्रणाशनम् / अद्रिरद्यालयः कर्ता मृगबाणार्पणोऽनघः // 37 निगविष्ये महाबाहो स्तवानामुत्तमं स्तवम् // 23 महातपा घोरतपा अदीनो दीनसाधकः / ब्रह्मणामपि यद्ब्रह्म पराणामपि यत्परम् / संवत्सरकरो मन्त्रः प्रमाणं परमं तपः // 38 तेजसामपि यत्तेजस्तपसामपि यत्तपः॥ 24 योगी योज्यो महाबीजो महारेता महातपाः / - 2528 - Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 17. 391 अनुशासनपर्व [ 13. 17. 69 सुवर्णरेताः सर्वज्ञः सुबीजो वृषवाहनः / / 39 हुताशनसहायश्च प्रशान्तात्मा हुताशनः // 54 दशबाहुस्त्वनिमिषो नीलकण्ठ उमापतिः / उग्रतेजा महातेजा जयो विजयकालवित् / विश्वरूपः स्वयंश्रेष्ठो बलवीरो बलो गणः // 40 ज्योतिषामयनं सिद्धिः संधिर्विग्रह एव च // 55 गणकर्ता गणपतिदिग्वासाः काम्य एव च। | शिखी दण्डी जटी ज्वाली मूर्तिजो मूर्धगो बली / पवित्रं परमं मनः सर्वभावकरो हरः // 41 / वैणवी पणवी ताली कालः कालकटंकटः / / 56 कमण्डलुधरो धन्वी बाणहस्तः कपालवान् / नक्षत्रविग्रहविधिर्गुणवृद्धिर्लयोऽगमः / अशनी शतघ्नी खड्गी पट्टिशी चायुधी महान् // 42 प्रजापतिर्दिशाबाहुर्विभागः सर्वतोमुखः // 57 स्रुवहस्तः सुरूपश्च तेजस्तेजस्करो निधिः / विमोचनः सुरगणो हिरण्यकवचोद्भवः / उष्णीषी च सुवक्त्रश्च उदग्रो विनतस्तथा // 43 मेढजो बलचारी च महाचारी स्तुतस्तथा // 58 दीर्घश्च हरिकेशश्च सुतीर्थः कृष्ण एव च / सर्वतूर्यनिनादी च सर्ववाद्यपरिग्रहः / सगालरूपः सर्वार्थो मुण्डः कुण्डी कमण्डलुः // 44 व्यालरूपो विलावासी हेममाली तरंगवित् // 59 अजश्च मृगरूपश्च गन्धधारी कपद्यपि / त्रिदशस्त्रिकालधृक्कर्मसर्वबन्धविमोचनः / ऊर्ध्वरेता ऊर्ध्वलिङ्ग ऊर्ध्वशायी नभस्तलः // 45 बन्धनस्त्वसुरेन्द्राणां युधि शत्रुविनाशनः / / 60 त्रिजटश्चीरवासाश्च रुद्रः सेनापतिर्विभुः / सांख्यप्रसादो दुर्वासाः सर्वसाधुनिषेवितः / अहश्वरोऽथ नक्तं च तिग्ममन्युः सुवर्चसः / / 46 प्रस्कन्दनो विभागश्च अतुल्यो यज्ञभागवित् // 61 गजहा दैत्यहा लोको लोकधाता गुणाकरः / सर्वावासः सर्वचारी दुर्वासा वासवोऽमरः / सिंहशार्दूलरूपश्च आर्द्रचर्माम्बरावृतः // 47 हेमो हेमकरो यज्ञः सर्वधारी धरोत्तमः // 62 कालयोगी महानादः सर्ववासश्चतुष्पथः / लोहिताक्षो महाक्षश्च विजयाक्षो विशारदः / निशाचरः प्रेतचारी भूतचारी महेश्वरः // 48 संग्रहो निग्रहः कर्ता सर्पचीरनिवासनः // 63 बहुभूतो बहुधनः सर्वाधारोऽमितो गतिः / मुख्योऽमुख्यश्च देहश्च देहर्द्धिः सर्वकामदः / नृत्यप्रियो नित्यन” नर्तकः सर्वलासकः / / 49 सर्वकालप्रसादश्च सुबलो बलरूपधृक् // 64 घोरो महातपाः पाशो नित्यो गिरिचरो नभः / आकाशनिधिरूपश्च निपाती उरगः खगः / सहस्रहस्तो विजयो व्यवसायो ह्यनिन्दितः // 50 रौद्ररूपोंऽशुरादित्यो वसुरश्मिः सुवर्चसी // 65 अमर्षणो मर्षणात्मा यज्ञहा कामनाशनः / वसुवेगो महावेगो मनोवेगो निशाचरः / दक्षयज्ञापहारी च सुसहो मध्यमस्तथा // 51 / सर्वावासी श्रियावासी उपदेशकरो हरः // 66 तेजोपहारी बलहा मुदितोऽर्थो जितो वरः। मुनिरात्मपतिलॊके संभोज्यश्च सहस्रदः / गम्भीरघोषो गम्भीरो गम्भीरबलवाहनः // 52 पक्षी च पक्षिरूपी च अतिदीप्तो विशां पतिः // 67 न्यग्रोधरूपो न्यग्रोधो वृक्षकर्णस्थितिर्विभुः / उन्मादो मदनाकारो अर्थार्थकररोमशः / तीक्ष्णतापश्च हर्यश्वः सहायः कर्मकालवित् / / 53 वामदेवश्च वामश्च प्राग्दक्षिण्यश्च वामनः // 68 विष्णुप्रसादितो यज्ञ: समुद्रो वडवामुखः। सिद्धयोगापहारी च सिद्धः सर्वार्थसाधकः / म. भा. 317 - 2529 - Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 17. 69 ] महाभारते [ 13. 17.99 भिक्षुश्च भिक्षुरूपश्च विषाणी मृदुरव्ययः // 69 महावक्षा महोरस्को अन्तरात्मा मृगालयः // 84 महासेनो विशाखश्च षष्टिभागो गवां पतिः। / लम्बनो लम्बितोष्ठश्च महामायः पयोनिधिः / वज्रहस्तश्च विष्कम्भी चमूस्तम्भन एव च // 70 महादन्तो महादंष्ट्रो महाजिह्वो महामुखः // 85 ऋतुर्ऋतुकरः कालो मधुर्मधुकरोऽचलः / महानखो महारोमा महाकेशो महाजटः / वानस्पत्यो वाजसेनो नित्यमाश्रमपूजितः // 71 असपनः प्रसादश्च प्रत्ययो गिरिसाधनः / / 86 ब्रह्मचारी लोकचारी सर्वचारी सुचारवित् / / स्नेहनोऽस्नेहनश्चैव अजितश्च महामुनिः / . ईशान ईश्वरः कालो निशाचारी पिनाकधृक् // 72 वृक्षाकारो वृक्षकेतुरनलो वायुवाहनः / / 87 नन्दीश्वरश्च नन्दी च नन्दनो नन्दिवर्धनः / मण्डली मेरुधामा च देवदानवदर्पहा / भगस्याक्षिनिहन्ता च कालो ब्रह्मविदां वरः // 73 अथर्वशीर्षः सामास्य ऋक्सहस्रामितेक्षणः // 88 चतुर्मुखो महालिङ्गश्चारुलिङ्गस्तथैव च / यजःपादभुजो गुह्यः प्रकाशो जङ्गमस्तथा। लिङ्गाध्यक्षः सुराध्यक्षो लोकाध्यक्षो युगावहः // 74 अमोघार्थः प्रसादश्च अभिगम्यः सुदर्शनः // 89 वीजाध्यक्षो बीजकर्ता अध्यात्मानुगतो बलः / उपहारप्रियः शर्वः कनकः काञ्चनः स्थिरः / इतिहासकरः कल्पो गौतमोऽथ जलेश्वरः / / 75 नाभिनन्दिकरो भाव्यः पुष्करस्थपतिः स्थिरः॥९० दम्भो ह्यदम्भो वैदम्भो वश्यो वश्यकरः कविः / द्वादशस्त्रासनश्चाद्यो यज्ञो यज्ञसमाहितः / / लोककर्ता पशुपतिर्महाकर्ता महौषधिः // 76 / नक्तं कलिश्च कालश्च मकरः कालपूजितः // 91 अक्षरं परमं ब्रह्म बलवाञ्शक एव च / सगणो गणकारश्च भूतभावनसारथिः / / नीतियनीतिः शुद्धात्मा शुद्धो मान्यो मनोगतिः // भस्मशायी भस्मगोप्ता भस्मभूतस्तस्र्गणः // 92 बहुप्रसादः स्वपनो दर्पणोऽथ त्वमित्रजित् / अगणश्चैव लोपश्च महात्मा सर्वपूजितः / / वेदकारः सूत्रकारो विद्वान्समरदर्शनः // 78 शङ्कस्त्रिशङ्कः संपन्नः शुचिर्भूतनिषेवितः // 93 महामेघनिवासी च महाघोरो वशीकरः / आश्रमस्थः कपोतस्थो विश्वकर्मा पतिर्वरः।। अग्निज्वालो महाज्वालो अतिधूम्रो हुतो हविः // 79 शाखो विशाखस्ताम्रोष्ठो ह्यम्बुजाल: सुनिश्चयः // वृषणः शंकरो नित्यो वर्चस्वी धूमकेतनः। कपिलोऽकपिलः शूर आयुश्चैव परोऽपरः / नीलस्तथाङ्गलुब्धश्च शोभनो निरवग्रहः // 80 गन्धर्वो ह्यदितिस्तायः सुविज्ञेयः सुसारथिः // 95 स्वस्तिदः स्वस्तिभावश्च भागी भागकरो लघुः। परश्वधायुधो देव अर्थकारी सुबान्धवः / उत्सङ्गश्च महाङ्गश्च महागर्भः परो युवा // 81 तुम्बवीणी महाकोप ऊर्ध्वरेता जलेशयः // 96 कृष्णवर्णः सुवर्णश्च इन्द्रियः सर्वदेहिनाम् / उग्रो वंशकरो वंशो वंशनादो ह्यनिन्दितः / महापादो महाहस्तो महाकायो महायशाः // 82 / सर्वाङ्गरूपो मायावी सुहृदो ह्यनिलोऽनलः // 97 महामूर्धा महामात्रो महानेत्रो दिगालयः। बन्धनो बन्धकर्ता च सुबन्धनविमोचनः / महादन्तो महाकर्णो महामेढो महाहनुः // 83 स यज्ञारिः स कामारिर्महादंष्ट्रो महायुधः // 98 महानासो महाकम्बुर्महाग्रीवः श्मशानधृक् / / बाहुस्त्वनिन्दितः शर्वः शंकरः शंकरोऽधनः / -2530 - Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 17. 99 अनुशासनपर्व 13. 17. 129 अमरेशो महादेभो विश्वदेवः सुरारिहा // 99 महाकेतुर्धनुर्धातुकसानुचरश्चलः // 114 अहिर्बुध्नो निर्जतिश्च चेकितानो हरिस्तथा। आवेदनीय आवेशः सर्वगन्धसुखावहः / अजैकपाच कापाली त्रिशङ्करजितः शिवः // 100 तोरणस्तारणो वायुः परिधावति चैकतः / / 115 धन्वन्तरिधूमकेतुः स्कन्दो वैश्रवणस्तथा / संयोगो वर्धनो वृद्धो महावृद्धो गणाधिपः / धाता शक्रश्च विष्णुश्च मित्रस्त्वष्टा ध्रुवो धरः॥ 101 नित्य आत्मसहायश्च देवासुरपतिः पतिः // 116 प्रभावः सर्वगो वायुर्यमा सविता रविः / युक्तश्च युक्तबाहुश्च द्विविधश्च सुपर्वणः / उदप्रश्च विधाता च मान्धाता भूतभावनः // 102 आषाढश्च सुषाढश्च ध्रुवो हरिहणो हरः // 117 रतितीर्थश्च वाग्मी च सर्वकामगुणावहः / वपुरावर्तमानेभ्यो वसुश्रेष्ठो महापथः / पद्मगर्भो महागर्भश्चन्द्रवक्त्रो मनोरमः // 103 शिरोहारी विमर्षश्च सर्वलक्षणभूपितः / / 118 बलवांश्चोपशान्तश्च पुराणः पुण्यचञ्चुरी / अक्षश्च रथयोगी च सर्वयोगी महाबलः / कुरुकर्ता कालरूपी कुरुभूतो महेश्वरः // 104 समाम्नायोऽसमाम्नायस्तीर्थदेवो महारथः // 119 सर्वाशयो दर्भशायी सर्वेषां प्राणिनां पतिः / निर्जीवो जीवनो मत्रः शुभाक्षो बहुकर्कशः / देवदेवमुखोऽसक्तः सदसत्सर्वरत्नवित् / / 105 रत्नप्रभूतो रक्ताङ्गो महार्णवनिपानवित् // 120 कैलासशिखरावासी हिमवद्गिरिसंश्रयः / मूलो विशालो ह्यमृतो व्यक्ताव्यक्तस्तपोनिधिः / कूलहारी कुलकर्ता बहुविद्यो बहुप्रदः // 106 आरोहणो निरोहश्च शैलहारी महातपाः / / 121 वणिजो वर्धनो वृक्षो नकुलश्चन्दनश्छदः / सेनाकल्पो महाकल्पो युगायुगकरो हरिः / सारग्रीवो महाजवरलोलश्च महौषधः // 187 युगरूपो महारूप: पवनो गहनो नगः // 122 सिद्धार्थकारी सिद्धार्थश्छन्दोव्याकरणोत्तरः / न्यायनिर्वापणः पादः पण्डितो ह्यचलोपमः / सिंहनादः सिंहदंष्ट्रः सिंहगः सिंहवाहनः / / 108 बहुमालो महामालः सुमालो बहुलोचनः // 123 प्रभावात्मा जगत्कालस्तालो लोकहितस्तरुः / विस्तारो लवणः कूपः कुसुमः सफलोदयः / सारङ्गो नवचक्राङ्गः केतुमाली सभावनः / / 109 वृषभो वृषभावाङ्गो मणिविल्यो जटाधरः // 124 भूतालयो भूतपतिरहोरात्रमनिन्दितः। इन्दुर्विसर्गः सुमुखः सुरः सर्वायुधः सहः / वाहिता सर्वभूतानां निलयश्च विभुर्भवः / / 110 निवेदनः सुधाजातः सुगन्धारो महाधनुः / / 125 अमोघः संयतो ह्यश्वो भोजनः प्राणधारणः / गन्धमाली च भगवानुत्थानः सर्वकर्मणाम् / धृतिमान्मतिमान्दक्षः सत्कृतश्च युगाधिपः // 111 मन्थानो बहुलो बाहुः सकलः सर्वलोचनः॥१२६ गोपालि[पति मो गोचर्मवसनो हरः। तरस्ताली करस्ताली ऊर्ध्वसंहननो यहः / हिरण्यबाहुश्च तथा गुहापाल प्रवेशिनाम् / / 112 छत्रं सुच्छत्रो विख्यातः सर्वलोकाश्रयो महान् / प्रतिष्ठायी महाहर्षो जितकामो जितेन्द्रियः / मुण्डो विरूपो विकृतो दण्डिमुण्डो विकुर्वणः / गन्धारश्च सुरालश्च तपःकर्मरतिर्धनुः // 113 / / हयक्षः ककुभो वनी दीप्तजिह्वः सहस्रपात् // 128 महागीतो महानृत्तो ह्यप्सरोगणसेवितः / सहस्रमूर्धा देवेन्द्रः सर्वदेवमयो गुरुः / --- 2531 - Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 17. 129 ] महाभारते [ 13. 17. 158 सहस्रबाहुः सर्वाङ्गः शरण्यः सर्वलोककृत् // 129 उद्भिदस्त्रिक्रमो वैद्यो विरजो विरजोम्बरः // 144 पवित्रं त्रिमधुर्मत्रः कनिष्ठः कृष्णपिङ्गलः / ईड्यो हस्ती सुरव्याघ्रो देवसिंहो नरर्षभः / ब्रह्मदण्डविनिर्माता शतघ्नी शतपाशधृक् // 130 विबुधाप्रवरः श्रेष्ठः सर्वदेवोत्तमोत्तमः // 145 पत्नगर्भो महागर्भो ब्रह्मगर्भो जलोद्भवः / प्रयुक्तः शोभनो वन ईशानः प्रभुरव्ययः / गभस्तिब्रह्मकृद्ब्रह्मा ब्रह्मविद्राह्मणो गतिः // 131 गुरुः कान्तो निजः सर्गः पवित्रः सर्ववाहनः / अनन्तरूपो नैकात्मा तिग्मतेजाः स्वयंभुवः / शृङ्गी शृङ्गप्रियो बभ्र राजराजो निरामयः / ऊर्ध्वगात्मा पशुपतितिरंहा मनोजवः // 132 अभिरामः सुरगणो विरामः सर्वसाधनः / / 147 चन्दनी पद्ममालाग्र्यः सुरभ्युत्तरणो नरः / ललाटाक्षो विश्वदेहो हरिणो ब्रह्मवर्चसः / कर्णिकारमहास्रग्वी नीलमौलिः पिनाकधृक् / स्थावराणां पतिश्चैव नियमेन्द्रियवर्धनः / / 148 उमापतिरुमाकान्तो जाह्नवीधृगुमाधवः।। सिद्धार्थः सर्वभूतार्थोऽचिन्त्यः सत्यव्रतः शुचिः / वरो वराहो वरदो वरेशः सुमहास्वनः // 134 व्रताधिपः परं ब्रह्म मुक्तानां परमा गतिः // 149 महाप्रसादो दमनः शत्रुहा श्वेतपिङ्गलः / विमुक्तो मुक्ततेजाश्च श्रीमाश्रीवर्धनो जगत् / प्रीतात्मा प्रयतात्मा च संयतात्मा प्रधानधृक् // यथाप्रधानं भगवानिति भक्त्या स्तुतो मया // 150 सर्वपार्श्वसुतस्तायो धर्मसाधारणो वरः / यं न ब्रह्मादयो देवा विदुर्य न महर्षयः / चराचरात्मा सूक्ष्मात्मा सुवृषो गोवृषेश्वरः // 136 तं स्तव्यमच्यं वन्द्यं च कः स्तोष्यति जगत्पतिम् // साध्यर्षिर्वसुरादित्यो विवस्वान्सविता मृडः / भक्तिमेव पुरस्कृत्य मया यज्ञपतिर्वसुः / व्यासः सर्वस्य संक्षेपो विस्तरः पर्ययो नयः॥१३७ ततोऽभ्यनुज्ञां प्राप्यैव स्तुतो मतिमतां वरः // 152 ऋतुः संवत्सरो मासः पक्षः संख्यासमापनः / शिवमभिः स्तुवन्देवं नामभिः पुष्टिवर्धनैः। कला काष्ठा लवो मात्रा मुहूर्तोऽहः क्षपाः क्षणाः // नित्ययुक्तः शुचिर्भूत्वा प्राप्नोत्यात्मानमात्मना॥१५३ विश्वक्षेत्रं प्रजाबीजं लिङ्गमाद्यस्त्वनिन्दितः / एतद्धि परमं ब्रह्म स्वयं गीतं स्वयंभुवा / सदसद्व्यक्तमव्यक्तं पिता माता पितामहः // 135 ऋषयश्चैव देवाश्च स्तुवन्त्येतेन तत्परम् // 154 स्वर्गद्वारं प्रजाद्वारं मोक्षद्वारं त्रिविष्टपम् / स्तूयमानो महादेवः प्रीयते चात्मनामभिः / निर्वाणं ह्रादनं चैव ब्रह्मलोकः परा गतिः // 140 भक्तानुकम्पी भगवानात्मसंस्थान्करोति तान् // 155 देवासुरविनिर्माता देवासुरपरायणः / तथैव च मनुष्येषु ये मनुष्याः प्रधानतः / देवासुरगुरुर्देवो देवासुरनमस्कृतः // 54 1 आस्तिकाः श्रद्धधानाञ्च बहुभिर्जन्मभिः स्तवैः // देवासुरमहामात्रो देवासुरगणाश्रयः / जाग्रतश्च स्वपन्तश्च व्रजन्तः पथि संस्थिताः / देवासुरगणाध्यक्षो देवासुरगणाग्रणीः / / 142 स्तवन्ति स्तुपमानाश्च तष्यन्ति च रमन्ति च / देवातिदेवो देवर्षिर्देवासुरवरप्रदः / जन्मकोटिसहत्रेषु नानासंसारयोनिषु / / 157 देवासुरेश्वरो देवो देवासुरमहेश्वरः // 143 जन्तोर्विशुद्धपापस्य भवे भक्तिः प्रजायते / सर्वदेवमयोऽचिन्त्यो देवतात्मात्मसंभवः / उत्पन्ना च भवे भक्तिरनन्या सर्वभावतः // 158 - 2532 - Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 17. 159 ] अनुशासनपर्व [13. 18. 13 कारणं भावितं तस्य सर्वमुक्तस्तु सर्वतः / एतद्देवेषु दुष्प्रापं मनुष्येषु न लभ्यते // 159 वैशंपायन उवाच / निर्विघ्ना निश्चला रुद्रे भक्तिरव्यभिचारिणी। महायोगी ततः प्राह कृष्णद्वैपायनो मुनिः / तस्यैव च प्रसादेन भक्तिरुत्पद्यते नृणाम् / पठस्व पुत्र भद्रं ते प्रीयतां ते महेश्वरः // 1 यया यान्ति परां सिद्धिं तद्भावगतचेतसः॥ 160 पुरा पुत्र मया मेरौ तप्यता परमं तपः / ये सर्वभावोपगताः परत्वेनाभवन्नराः / पुत्रहेतोर्महाराज स्तव एषोऽनुकीर्तितः / / 2 प्रपन्नवत्सलो देवः संसारात्तान्समुद्धरेत् // 161 लब्धवानस्मि तान्कामानहं वै पाण्डुनन्दन / एवमन्ये न कुर्वन्ति देवाः संसारमोचनम् / तथा त्वमपि शर्वाद्धि सर्वान्कामानवाप्स्यसि // 3 मनुष्याणां महादेवादन्यत्रापि तपोबलात् / / 162 चतुःशीर्षस्ततः प्राह शक्रस्य दयितः सखा / इति तेनेन्द्रकल्पेन भगवान्सदसत्पतिः / आलम्बायन इत्येव विश्रुतः करुणात्मकः // 4 कृत्तिवासाः स्तुतः कृष्ण तण्डिना शुद्धबुद्धिना।।१६३ मया गोकर्णमासाद्य तपस्तप्त्वा शतं समाः / स्तवमेतं भगवतो ब्रह्मा स्वयमधारयत् / अयोनिजानां दान्तानां धर्मज्ञानां सुवर्चसाम् // 5 ब्रह्मा प्रोवाच शक्राय शक्रः प्रोवाच मृत्यवे / / 164 अजराणामदुःखानां शतवर्षसहस्रिणाम् / मृत्युः प्रोवाच रुद्राणां रुद्रेभ्यस्तण्डिमागमत् / लब्धं पुत्रशतं शर्वात्पुरा पाण्डुनृपात्मज // 6 महता तपसा प्राप्तस्तण्डिना ब्रह्मसद्मनि // 165 वाल्मीकिश्चापि भगवान्युधिष्ठिरमभाषत / तण्डिः प्रोवाच शुक्राय गौतमायाह भार्गवः / विवादे साम्नि मुनिभिर्ब्रह्मनो वै भवानिति / वैवस्वताय मनवे गौतमः प्राह माधव // 166 उक्तः क्षणेन चाविष्टस्तेनाधर्मेण भारत // 7 नारायणाय साध्याय मनुरिष्टाय धीमते / सोऽहमीशानमनघमस्तौषं शरणं गतः / यमाय प्राह भगवान्साध्यो नारायणोऽच्युतः॥१६७ मुक्तश्चास्म्यवशः पापा ततो दुःखविनाशनः / नाचिकेताय भगवानाह वैवस्वतो यमः / आह मां त्रिपुरनो वै यशस्तेऽऽयं भविष्यति // 8 मार्कण्डेयाय वार्ष्णेय नाचिकेतोऽभ्यभाषत // 168 जामदग्न्यश्च कौन्तेयमाह धर्मभृतां वरः / मार्कण्डेयान्मया प्राप्तं नियमेन जनार्दन / ऋषिमध्ये स्थितस्तात तपन्निव विभावसुः // 9 तवाप्यहममित्रघ्न स्तवं ददयद्य विश्रुतम् / पितृविप्रवधेनाहमालॊ वै पाण्डवाग्रज | स्वर्ण्यमारोग्यमायुष्यं धन्यं बल्यं तथैव च // 169 शुचिर्भूत्वा महादेवं गतवाशरणं नृप // 10 न तस्य विघ्नं कुर्वन्ति दानवा यक्षराक्षसाः / नामभिश्चास्तुवं देवं ततस्तुष्टोऽभवद्भवः / पिशाचा यातुधानाश्च गुह्यका भुजगा अपि // 140 परशुं च ददौ देवो दिव्यान्यस्त्राणि चैव मे // 11 यः पठेत शुचिर्भूत्वा ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः। पापं न भविता तेऽद्य अजेयश्च भविष्यसि / अभग्नयोगो वर्ष तु सोऽश्वमेधफलं लभेत् // 171 न ते प्रभविता मृत्युयशस्वी च भविष्यसि // 12 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि आह मां भगवाने शिखण्डी शिवविग्रहः / सप्तदशोऽध्यायः // 17 // / यदवाप्तं च मे सर्वं प्रसादात्तस्य धीमतः // 13 -2533 - Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. 18. 14 ] महाभारते [ 13. 18.37 D असितो देवलश्चैव प्राह पाण्डुसुतं नृपम् / सरस्वत्यास्तटे तुष्टो मनोयज्ञेन पाण्डव // 25 शापाच्छक्रस्य कौन्तेय चितो धर्मोऽनशन्मम / तुल्यं मम सहस्रं तु सुतानां ब्रह्मवादिनाम् / तन्मे धर्म यशश्चाग्यमायुश्चैवाददद्भवः // 14 आयुश्चैव सपुत्रस्य संवत्सरशतायुतम् // 26 . ऋषिर्गृत्समदो नाम शक्रस्य दयितः सखा / पराशर उवाच / प्राहाजमीढं भगवान्बृहस्पतिसमद्युतिः // 15 प्रसाद्याहं पुरा शर्वं मनसाचिन्तयं नृप। वसिष्ठो नाम भगवांश्चाक्षुषस्य मनोः सुतः / महातपा महातेजा महायोगी महायशाः / शतक्रतोरचिन्त्यस्य सत्रे वर्षसहस्रिके। वेदव्यासः श्रियावासो ब्रह्मण्यः करुणात्मकः // 20 वर्तमानेऽब्रवीद्वाक्यं सान्नि ह्युच्चारिते मया // 16 अपि नामेप्सितः पुत्रो मम स्याद्वै महेश्वरात् / . रथन्तरं द्विजश्रेष्ठ न सम्यगिति वर्तते / इति मत्वा हृदि मतं प्राह मां सुरसत्तमः // 28 समीक्षस्व पुनर्बुद्ध्या हर्ष त्यक्त्वा द्विजोत्तम / मयि संभवतस्तस्य फलात्कृष्णो भविष्यति / अयज्ञवाहिनं पापमकार्षीस्त्वं सुदुर्मते // 17 सावर्णस्य मनोः सर्गे सप्तर्षिश्च भविष्यति // 29 एवमुक्त्वा महाक्रोधात्प्राह रुष्टः पुनर्वचः / वेदानां च स वै व्यस्ता कुरुवंशकरस्तथा / प्रज्ञया रहितो दुःखी नित्यं भीतो वनेचरः।। इतिहासस्य कर्ता च पुत्रस्ते जगतो हितः // 30 दश वर्षसहस्राणि दशाष्टौ च शतानि च // 18 भविष्यति महेन्द्रस्य दयितः स महामुनिः / नष्टपानीययवसे मृगैरन्यैश्च वर्जिते / अजरश्चामरश्चैव पराशर सुतस्तव / / 31 : अयज्ञीयद्रुमे देशे रुरुसिंहनिषेविते / एवमुक्त्वा स भगवांस्तत्रैवान्तरधीयत / भविता त्वं मृगः क्रूरो महादुःखसमन्वितः // 19 युधिष्ठिर महायोगी वीर्यपानक्षयोऽव्ययः // 32 तस्य वाक्यस्य निधने पार्थ जातो ह्यहं मृगः।। माण्डव्य उवाच / / ततो मां शरणं प्राप्तं प्राह योगी महेश्वरः // 20 / अचौरश्चौरशङ्कायां शूले भिन्नो ह्यहं यदा / अजरश्चामरश्चैव भविता दुःखवर्जितः। तत्रस्थेन स्तुतो देवः प्राह मां वै महेश्वरः // 33 साम्यं समस्तु ते सौख्यं युवयोर्वर्धतां क्रतुः // 21 मोक्षं प्राप्स्यसि शूलाच्च जीविष्यसि समार्बुदम् / अनुग्रहानेवमेष करोति भगवान्विभुः / रुजा शूलकृता चैव न ते विप्र भविष्यति / परं धाता विधाता च सुखदुःखे च सर्वदा // 22 आधिभिर्व्याधिभिश्चैव वर्जितस्त्वं भविष्यसि // 34 अचिन्त्य एष भगवान्कर्मणा मनसा गिरा।। पादाच्चतुर्थात्संभूत आत्मा यस्मान्मुने तव / न मे तात युधिश्रेष्ठ विद्यया पण्डितः समः // 23 त्वं भविष्यस्यनुपमो जन्म वै सफलं कुरु // 35 जैगीषव्य उवाच / तीर्थाभिषेकं सफलं त्वमविनेन चाप्स्यसि / ममाष्टगुणमैश्वर्य दत्तं भगवता पुरा / स्वर्ग चैवाक्षयं विप्र विदधामि तवोर्जितम् // 36 यत्नेनास्पेन बलिना वाराणस्यां युधिष्ठिर // 24 एवमुक्त्वा तु भगवान्वरेण्यो वृषवाहनः / गार्ग्य उवाच। महेश्वरी महाराज कृत्तिवासा महाद्युतिः / चतुःषष्ट्यङ्गमददात्कालज्ञानं ममाद्भुतम् / सगणो दैवतश्रेष्ठस्तत्रैवान्तरधीयत / / 37 - 2534 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 18. 38] अनुशासनपर्व [ 13. 18. 56 गालव उवाच। विश्वामित्राभ्यनुज्ञातो ह्यहं पितरमागतः / भनवीन्मां ततो माता दुःखिता रुदती भृशम् // 38 कौशिकेनाभ्यनुज्ञातं पुत्रं वेदविभूषितम् / न तात तरुणं दान्तं पिता त्वां पश्यतेऽनघ // 39 श्रुत्वा जनन्या वचनं निराशो गुरुदर्शने / नियतात्मा महादेवमपश्यं सोऽब्रवीच्च माम् // 40 पिता माता च ते त्वं च पुत्र मृत्युविवर्जिताः / भविष्यथ विश क्षिप्रं द्रष्टासि पितरं क्षये // 41 अनुज्ञातो भगवता गृहं गत्वा युधिष्ठिर / अपश्यं पितरं तात इष्टिं कृत्वा विनिःसृतम् // 42 उपस्पृश्य गृहीत्वेमं कृशांश्च शरणाद्गुरून् / तान्विसृज्य च मां प्राह पिता सानाविलेक्षणः॥४३ प्रणमन्तं परिष्वज्य मूर्ध्नि चाघ्राय पाण्डव / दिष्ट्या दृष्टोऽसि मे पुत्र कृतविद्य इहागतः / / 44 उवाच / पतान्यत्यद्भुतान्येव कर्माण्यथ महात्मनः / प्रोक्तानि मुनिभिः श्रुत्वा विस्मयामास पाण्डवः / / ततः कृष्णोऽब्रवीद्वाक्यं पुनर्मतिमतां वरः / युधिष्ठिरं धर्मनित्यं पुरुहूतमिवेश्वरः // 46 आदित्यचन्द्रावनिलानलौ च ___ द्यौर्भूमिरापो वसवोऽथ विश्वे / धातार्यमा शुक्रबृहस्पती च रुद्राः ससाध्या वरुणो वित्तगोपः // 47 ब्रह्मा शक्रो मारुतो ब्रह्म सत्यं वेदा यज्ञा दक्षिणा वेदवाहाः / सोमो यष्टा यच्च हव्यं हविश्च रक्षा दीक्षा नियमा ये च केचित् / / 48 स्वाहा वषड्ब्राह्मणाः सौरभेया धर्म चक्रं कालचक्रं चरं च / - 2535 यशो दमो बुद्धिमती स्थितिश्च शुभाशुभं मुनयश्चैव सप्त // 49 अग्र्या बुद्धिर्मनसा दर्शने च ___ स्पर्श सिद्धिः कर्मणां या च सिद्धिः / गणा देवानामूष्मपाः सोमपाश्च लेखाः सुयामास्तुषिता ब्रह्मकायाः॥५० आभास्वरा गन्धपा दृष्टिपाश्च वाचा विरुद्धाश्च मनोविरुद्धाः / शुद्धाश्च निर्वाणरताश्च देवाः स्पर्शाशना दर्शपा आज्यपाश्च // 51 चिन्तागता ये च देवेषु मुख्या ये चाप्यन्ये देवताश्चाजमीढ / सुपर्णगन्धर्वपिशाचदानवा यक्षास्तथा पन्नगाश्चारणाश्च // 52 सूक्ष्म स्थूलं मृदु यच्चाप्यसूक्ष्म सुखं दुःखं सुखदुःखान्तरं च / सांख्यं योगं यत्पराणां परं च शर्वाज्जातं विद्धि तत्कीर्तितं मे // 53 तत्संभूता भूतकृतो वरेण्याः सर्वे देवा भुवनस्यास्य गोपाः / आविश्येमां धरणीं येऽभ्यरक्ष न्पुरातनी तस्य देवस्य सृष्टिम् // 54 विचिन्वन्तं मनसा तोष्टुवीमि किंचित्तत्त्वं प्राणहतो तोऽस्मि / ददातु देवः स वरानिहेष्टा नभिष्टुतो नः प्रभुरव्ययः सदा // 55 इमं स्तवं संनियम्येन्द्रियाणि शुचिर्भूत्वा यः पुरुषः पठेत / अभग्नयोगो नियतोऽब्दमेकं स प्राप्नुयादश्वमेधे फलं यत् // 56 - Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. 18. 57 ] महाभारते [13. 19. 22 वेदान्कृत्स्नान्ब्राह्मणः प्राप्नुयाच भीष्म उवाच / जयेद्राजा पृथिवीं चापि कृत्स्नाम् / अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / वैश्यो लाभं प्राप्नुयान्नैपुणं च अष्टावक्रस्य संवादं दिशया सह भारत // 10 शूद्रो गति प्रेत्य तथा सुखं च // 57 निवेष्टुकामस्तु पुरा अष्टावक्रो महातपाः / स्तवराजमिमं कृत्वा रुद्राय दधिरे मनः / ऋषेरथ वदान्यस्य कन्यां वने महात्मनः / / 11 सर्वदोषापहं पुण्यं पवित्रं च यशस्विनम् / / 58 सुप्रभां नाम वै नाम्ना रूपेणाप्रतिमां भुवि / यावन्त्यस्य शरीरेषु रोमकूपाणि भारत / गुणप्रबहाँ शीलेन साध्वीं चारित्रशोभनाम् // 12 तावद्वर्षसहस्राणि स्वर्गे वसति मानवः // 59 सा तस्य दृष्ट्वैव मनो जहार शुभलोचना। . इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि वनराजी यथा चित्रा बसन्ते कुसुमाचिता // 1 // अष्टादशोऽध्यायः // 18 // ऋषिस्तमाह देया मे सुता तुभ्यं शृणुष्व मे / 19 गच्छ तावदिशं पुण्यामुत्तरां द्रक्ष्यसे ततः // 14 युधिष्ठिर उवाच। अष्टावक्र उवाच / यदिदं सहधर्मेति प्रोच्यते भरतर्षभ / पाणिग्रहणकाले तु स्त्रीणामेतत्कथं स्मृतम् / / 1 किं द्रष्टव्यं मया तत्र वक्तुमर्हति मे भवान् / तथेदानी मया कार्य यथा वक्ष्यति मां भवान् // : आर्ष एष भवेद्धर्मः प्राजापत्योऽथ वासुरः / यदेतत्सहधर्मेति पूर्वमुक्तं महर्षिभिः // 2 वदान्य उवाच / संदेहः सुमहानेष विरुद्ध इति में मतिः / धनदं समतिक्रम्य हिमवन्तं तथैव च / इह यः सहधर्मो वै प्रेत्यायं विहितः क नु // 3 रुद्रस्यायतनं दृष्ट्वा सिद्धचारणसेवितम् / / 16 / स्वर्गे मृतानां भवति सहधर्मः पितामह / प्रहृष्टैः पार्षदैर्जुष्टं नृत्यद्भिर्विविधाननैः / पूर्वमेकस्तु म्रियते क चैकस्तिष्ठते वद // 4 दिव्याङ्गरागैः पैशाचैर्वन्यैर्नानाविधैस्तथा // 17 नानाकर्मफलोपेता नानाकर्मनिवासिनः / पाणितालसतालैश्च शम्यातालैः समैस्तथा। नानानिरयनिष्ठान्ता मानुषा बहवो यदा // 5 संप्रहृष्टैः प्रनृत्यद्भिः शर्वस्तत्र निषेव्यते // 18 अनृताः स्त्रिय इत्येवं सूत्रकारो व्यवस्यति / इष्टं किल गिरौ स्थानं तदिव्यमनुशुश्रुम / . यदानृताः स्त्रियस्तात सहधर्मः कुतः स्मृतः॥ 6 नित्यं संनिहितो देवस्तथा पारिषदाः शुभाः॥ 19 अमृताः स्त्रिय इत्येवं वेदेष्वपि हि पठ्यते / तत्र देव्या तपस्तप्तं शंकरार्थ सुदुश्चरम् / धर्मोऽयं पौर्विकी संज्ञा उपचारः क्रियाविधिः // 7 अतस्तदिष्टं देवस्य तथोमाया इति श्रुतिः // 20 गह्वरं प्रतिभात्येतन्मम चिन्तयतोऽनिशम् / तत्र कूपो महान्पार्श्वे देवस्योत्तरतस्तथा / निःसंदेहमिदं सर्वं पितामह यथा श्रुतिः // 8 ऋतवः कालरात्रिश्च ये दिव्या ये च मानुषाः // 21 यदेतद्यादृशं चैतद्यथा चैतत्प्रवर्तितम् / सर्वे देवमुपासन्ते रूपिणः किल तत्र ह / निखिलेन महाप्राज्ञ भवानेतद्भवीतु मे / / 9 / तदतिक्रम्य भवनं त्वया यातव्यमेव हि // 22 -2536 - Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 19 23] अनुशासनपर्व [ 13. 20. 24 20 ततो नीलं वनोद्देशं द्रक्ष्यसे मेघसंनिभम / ते राक्षसास्तदा राजन्भगवन्तमथाब्रुवन् / रमणीयं मनोग्राहि तत्र द्रक्ष्यसि वै स्त्रियम् / / 23 असौ वैश्रवणो राजा स्वयमायाति तेऽन्तिकम् // तपस्विनी महाभागां वृद्धां दीक्षामनुष्ठिताम् / विदितो भगवानस्य कार्यमागमने च यत् / द्रष्टव्या सा त्वया तत्र संपूज्या चैव यत्नतः // 24 पश्यैनं त्वं महाभागं ज्वलन्तमिव तेजसा // 11 तो रटा विनिवृत्तस्त्वं ततः पाणिं ग्रहीष्यसि / ततो वैश्रवणोऽभ्येत्य अष्टावक्रमनिन्दितम् / पद्येष समयः सत्यः साध्यतां तत्र गम्यताम // 25 विधिवत्कुशलं पृष्ट्वा ततो ब्रह्मर्षिमब्रवीत् // 12 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि सुखं प्राप्तो भवान्कञ्चित्कि वा मत्तश्चिकीर्षसि / एकोनविंशोऽध्यायः॥ 19 // ब्रहि सर्वं करिष्यामि यन्मां त्वं वक्ष्यसि द्विज // भवनं प्रविश त्वं मे यथाकामं द्विजोत्तम / अष्टावक्र उवाच / सत्कृतः कृतकार्यश्च भवान्यास्यत्यविघ्नतः // 14 प्राविशद्भवनं खं वै गृहीत्वा तं द्विजोत्तमम् / तथास्तु साधयिष्यामि तत्र यास्याम्यसंशयम् / आसनं स्वं ददौ चैव पाद्यमयं तथैव च // 15 यत्र स्वं वदसे साधो भवान्भवतु सत्यवाक् // 1 अथोपविष्टयोस्तत्र मणिभद्रपुरोगमाः / भीष्म उवाच। निषेदुस्तत्र कौबेरा यक्षगन्धर्वराक्षसाः // 16 ततोऽगच्छत्स भगवानुत्तरामुत्तमां दिशम् / ततस्तेषां निषण्णानां धनदो वाक्यमब्रवीत् / हिमवन्तं गिरिश्रेष्ठं सिद्धचारणसेवितम् / / 2 भवच्छन्दं समाज्ञाय नृत्येरन्नप्सरोगणाः // 17 म गत्वा द्विजशार्दूलो हिमवन्तं महागिरिम् / आतिथ्यं परमं कार्य शुश्रूषा भवतस्तथा। अभ्यगच्छन्नदी पुण्यां बाहुदां धर्मदायिनीम् // 3 संवर्ततामित्युवाच मुनिर्मधुरया गिरा // 18 अशोके विमले तीर्थे स्नात्वा तय॑ च देवताः / / अथोर्वरा मिश्रकेशी रम्भा चैवोर्वशी तथा / तत्र वासाय शयने कौश्ये सुखमुवास ह / / 4 अलम्बुसा घृताची च चित्रा चित्राङ्गदा रुचिः // ततो रात्र्यां व्यतीतायां प्रातरुत्थाय स द्विजः / मनोहरा सुकेशी च सुमुखी हासिनी प्रभा / मात्वा प्रादुश्चकारामिं हुत्वा चैव विधानतः / / 5 विद्युता प्रशमा दान्ता विद्योता रतिरेव च // 20 रुद्राणीकूपमासाद्य वदे तत्र समाश्वसत् / एताश्चान्याश्च वै बह्वयः प्रनृताप्सरसः शुभाः। विश्रान्तश्च समुत्थाय कैलासमभितो ययौ // 6 अवादयंश्च गन्धर्वा वाद्यानि विविधानि च // 21 सोऽपश्यत्काञ्चनद्वारं दीप्यमानमिव श्रिया। अथ प्रवृत्ते गान्धर्वे दिव्ये ऋषिरुपावसत् / मन्दाकिनी च नलिनी धनदस्य महात्मनः / / 7 दिव्यं संवत्सरं तत्र रमन्वै सुमहातपाः॥ 22 अथ से राक्षसाः सर्वे येऽभिरक्षन्ति पद्मिनीम् / ततो वैश्रवणो राजा भगवन्तमुवाच ह / प्रत्युत्थिता भगवन्तं मणिभद्रपुरोगमाः // 8 साग्रः संवत्सरो यातस्तव विप्रेह पश्यतः // 23 स तान्प्रत्यर्चयामास राक्षसान्भीमविक्रमान् / हार्योऽयं विषयो ब्रह्मन्गान्धर्वो नाम नामतः / निवेदयत मां क्षिप्रं धनदायेति चाब्रवीत् // 9 / छन्दतो वर्ततां विप्र यथा वदति वा भवान् // 24 म. भा. 318 - 2537 - Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 20. 25 ] महाभारते [18. 29.51 अतिथिः पूजनीयस्त्वमिदं च भवतो गृहम् / मनोदृष्टिहरै रम्यैः सर्वतः संवृतं शुभैः // 37 सर्वमाज्ञाप्यतामाशु परवन्तो वयं त्वयि // 25 / ऋषिः समन्ततोऽपश्यत्तत्र तत्र मनोरमम् / अथ वैश्रवणं प्रीतो भगवान्प्रत्यभाषत / ततोऽभवत्तस्य चिन्ता क मे वासो भवेदिति // 38 अर्चितोऽस्मि यथान्यायं गमिष्यामि धनेश्वर // 26 / अथ द्वारं सममितो गत्वा स्थित्वा ततोऽब्रवीत् / प्रीतोऽस्मि सदृशं चैव तव सर्व धनाधिप / अतिथिं मामनुप्राप्तमनुजानन्तु येऽत्र वै // 39 तव प्रसादाद्भगवन्महर्षेश्च महात्मनः / अथ कन्यापरिवृता गृहात्तस्माद्विनिःसृताः। नियोगादद्य यास्यामि वृद्धिमानृद्धिमान्भव // 27 नानारूपाः सप्त विभो कन्याः सर्वा मनोहराः // अथ निष्क्रम्य भगवान्प्रययावुत्तरामुखः / यां यामपश्यत्कन्यां स सा सा तस्य मनोऽहरत् / कैलासं मन्दरं हैमं सर्वाननुचचार ह // 28 नाशक्नुवद्धारयितुं मनोऽथास्यावसीदति // 41 तानतीत्य महाशैलान्कैरातं स्थानमुत्तमम् / ततो धृतिः समुत्पन्ना तस्य वित्रस्य धीमतः / प्रदक्षिणं ततश्चक्रे प्रयतः शिरसा नमन् / अथ तं प्रमदाः प्राहुभगवान्प्रविशत्विति // 42 धरणीमवतीर्याथ पूतात्मासौ तदाभवत् // 29 स च तासां सुरूपाणां तस्यैव भवनस्य च / स तं प्रदक्षिणं कृत्वा त्रिः शैलं चोत्तरामुखः / कौतूहलसमाविष्टः प्रविवेश गृहं द्विजः / / 43 समेन भूमिभागेन ययौ प्रीतिपुरस्कृतः // 30 तत्रापश्यजरायुक्तामरजोम्बरधारिणीम् / ततोऽपरं वनोद्देशं रमणीयमपश्यत / वृद्धां पर्यङ्कमासीनां सर्वाभरणभूषिताम् / / 44 सर्वर्तुभिर्मूलफलैः पक्षिभिश्च समन्वितम् / स्वस्तीति चाथ तेनोक्ता सा स्त्री प्रत्यवदत्तदा / रमणीयैर्वनोद्देशैस्तत्र तत्र विभूषितम् // 31 प्रत्युत्थाय च तं विप्रमास्यतामित्युवाच ह // 45 तत्राश्रमपदं दिव्यं ददर्श भगवानथ / अष्टावक्र उवाच / शैलांश्च विविधाकारान्काश्चनारत्नभूषितान् / सर्वाः स्वानालयान्यान्तु एका मामुपतिष्ठतु / मणिभूमौ निविष्टाश्च पुष्करिण्यस्तथैव च / / 32 सुप्रज्ञाता सुप्रशान्ता शेषा गच्छन्तु च्छन्दतः॥४६ अन्यान्यपि सुरम्याणि ददर्श सुबहून्यथ / / ततः प्रदक्षिणीकृत्य कन्यास्तास्तमृषिं तदा / भृशं तस्य मनो रेमे महर्षेर्भावितात्मनः // 33 निराकामन्गृहात्तस्मात्सा वृद्धाथ व्यतिष्ठत // 47 स तत्र काञ्चनं दिव्यं सर्वरत्नमयं गृहम् / अथ तां संविशन्प्राह शयने भास्वरे तदा / ददर्शाद्भुतसंकाशं धनदस्य गृहाद्वरम् // 34 त्वयापि सुप्यतां भद्रे रजनी ह्यतिवर्तते // 48 महान्तो यत्र विविधाः प्रासादाः पर्वतोपमाः / संलापात्तेन विप्रेण तथा सा तत्र भाषिता / विमानानि च रम्याणि रत्नानि विविधानि च // द्वितीये शयने दिव्ये संविवेश महाप्रभे // 49 मन्दारपुष्पैः संकीर्णा तथा मन्दाकिनी नदी। अथ सा वेपमानाङ्गी निमित्तं शीतजं तदा / स्वयंप्रभाश्च मणयो वर्भूमिश्च भूषिता // 36 व्यपदिश्य महर्षेः शयनं चाध्यरोहत // 50 नानाविधैश्च भवनैर्विचित्रमणितोरणैः / / स्वागतं स्वागतेनास्तु भगवांस्तामभाषत / मुक्ताजालपरिक्षितैर्मणिरत्नविभूषितैः / सोपागूहद्भुजाभ्यां तु ऋषिं प्रीत्या नरर्षभ / / 51 -2538 - Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 20. 52] अनुशासनपर्व 1 13. 21.2 निर्विकारमृषिं चापि काष्ठकुड्योपमं तदा। नैता जानन्ति पितरं न कुलं न च मातरम् / दुःखिता प्रेक्ष्य संजल्पमकार्षीदृषिणा सह / / 52 न भ्रातृन्न च भर्तारं न पुत्रान्न च देवरान् // 66 ब्रह्मन्न कामकारोऽस्ति स्त्रीणां पुरुषतो धृतिः। लीलायन्त्यः कुलं घ्नन्ति कूलानीव सरिद्वराः / कामेन मोहिता चाहं त्वां भजन्ती भजस्व माम् / / दोषांश्च मन्दान्मन्दासु प्रजापतिरभाषत / / 67 प्रहृष्टो भव विप्रर्षे समागच्छ मया सह / भीष्म उवाच / उपगृह च मां विप्र कामार्ताहं भृशं त्वयि // 54 ततः स ऋषिरेकाग्रस्तां स्त्रियं प्रत्यभाषत / एतद्धि तव धर्मात्मस्तपसः पूज्यते फलम् / . आस्यतां रुचिरं छन्दः किं वा कार्यं ब्रवीहि मे // प्रार्थितं दर्शनादेव भजमानां भजस्व माम् / / 55 सा स्त्री प्रोवाच भगवन्द्रक्ष्यसे देशकालतः / सा चेदं वनं चेदं यच्चान्यदपि पश्यसि / वस तावन्महाप्राज्ञ कृतकृत्यो गमिष्यसि // 69 प्रभुत्वं तव सर्वत्र मयि चैव न संशयः // 56 ब्रह्मर्षिस्तामथोवाच स तथेति युधिष्ठिर / सर्वान्कामान्विधास्यामि रमस्व सहितो मया / / वत्स्येऽहं यावदुत्साहो भवत्या नात्र संशयः // 70 रमणीये वने विप्र सर्वकामफलप्रदे / / 57 अथर्षिरभिसंप्रेक्ष्य स्त्रियं तां जरयान्विताम् / त्वद्वशाहं भविष्यामि रंस्यसे च मया सह / चिन्तां परमिकां भेजे संतप्त इव चाभवत् / / 71 सर्वान्कामानुपानानो ये दिव्या ये च. मानुषाः // यद्यदङ्गं हि सोऽपश्यत्तस्या विप्रर्षभस्तदा / नातः परं हि नारीणां कार्यं किंचन विद्यते / नारमत्तत्र तत्रास्य दृष्टी रूपपराजिता // 72 यथा पुरुषसंसर्गः परमेतद्धि नः फलम् // 59 देवतेयं गृहस्यास्य शापान्नूनं विरूपिता / आत्मच्छन्देन वर्तन्ते नार्यो मन्मथचोदिताः। अस्याश्च कारणं वेत्तुं न युक्तं सहसा मया // 73 न च दह्यन्ति गच्छन्त्यः सुतप्तैरपि पांसुभिः / / 60 इति चिन्ताविषक्तस्य तमर्थं ज्ञातुमिच्छतः। ___ अष्टावक्र उवाच / व्यगमत्तदहःशेषं मनसा व्याकुलेन तु // 74 परदारानहं भद्रे न गच्छेयं कथंचन / अथ सा स्त्री तदोवाच भगवन्पश्य वै रवेः। दूषितं धर्मशास्त्रेषु परदाराभिमर्शनम् // 61 रूपं संध्याभ्रसंयुक्तं किमुपस्थाप्यतां तव // 75 भद्रे निवेष्टकामं मां विद्धि सत्येन चै शपे / स उवाच तदा तां स्त्री स्नानोदकमिहानय / विषयेष्वनभिज्ञोऽहं धर्मार्थं किल संततिः // 62 - उपासिष्ये ततः संध्यां वाग्यतो नियतेन्द्रियः // 76 एवं लोकान्गमिष्यामि पुत्रैरिति न संशयः / / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि भद्रे धर्म विजानीष्व ज्ञात्वा चोपरमस्व ह // 63 विंशतितमोऽध्यायः // 20 // स्वयुवाच / नानिलोऽग्निर्न वरुणो न चान्ये त्रिदशा द्विज / भीष्म उवाच। प्रियाः स्त्रीणां यथा कामो रतिशीला हि योषितः॥ अथ सा स्त्री तमुक्त्वा तु विप्रमेवं भवत्विति / सहस्रका यता नारी प्राप्नोतीह कदाचन / तैलं दिव्यमुपादाय स्नानशाटीमुपानयत् // 1 तथा शतसहस्रेषु यदि काचित्पतिव्रता // 65 / अनुज्ञाता च मुनिना सा स्त्री तेन महात्मना / =2539 - Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 21.2] महाभारते [ 13. 21. 24 अथास्य तैलेनाङ्गानि सर्वाण्येवाभ्यमृक्षयत् // 2 अष्टावक्र उवाच / शनैश्चोत्सादितस्तत्र स्नानशालामुपागमत् / हरन्ति दोषजातानि नरं जातं यथेच्छकम् / भद्रासनं ततश्चित्रं ऋषिरन्वाविशन्नवम् // 3 प्रभवामि सदा धृत्या भद्रे स्वं शयनं ब्रज // 14 अथोपविष्टश्च यदा तस्मिन्भद्रासने तदा। स्वयुवाच / सापयामास शनकैस्तमृर्षि सुखहस्तवत् / शिरसा प्रणमे विप्र प्रसादं कर्तुमर्हसि / दिव्यं च विधिवच्चक्रे सोपचारं मुनेस्तदा // 4 भूमौ निपतमानायाः शरणं भव मेऽनघ // 15 स तेन सुसुखोष्णेन तस्या हस्तसुखेन च। यदि वा दोषजातं त्वं परदारेषु पश्यसि / व्यतीतां रजनी कृत्स्नां नाजानात्स महाव्रतः॥ 5 आत्मानं स्पर्शयाम्यद्य पाणि गृहीष्व मे द्विज // 16 तत उत्थाय स मुनिस्तदा परमविस्मितः / न दोषो भविता चैव सत्येनैतद्भवीम्यहम् / पूर्वस्यां दिशि सूर्य च सोऽपश्यदुदितं दिवि // 6 स्वतत्रां मां विजानीहि योऽधर्मः सोऽस्तु वै मयि॥ तस्य बुद्धिरियं किं नु मोहस्तत्त्वमिदं भवेत् / / अष्टावक्र उवाच / भथोपास्य सहस्रांशु किं करोमीत्युवाच ताम् // 7 स्वतश्रा स्वं कथं भद्रे ब्रूहि कारणमत्र वै / सा चामृतरसप्रख्यमृषेरन्नमुपाहरत् / नास्ति लोके हि काचित्स्त्री या वै स्वातन्यमईति // तस्य स्वादुतयानस्य न प्रभूतं चकार सः। पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने / व्यगमच्चाप्यहःशेषं ततः संध्यागमत्पुनः // 8 पुत्राश्च स्थविरीभावे न स्त्री स्वातण्यमर्हति // 19 अथ स्त्री भगवन्तं सा सुप्यतामित्यचोदयत् / स्युवाच / तत्र वै शयने दिव्ये तस्य तस्याश्च कल्पिते // 9 कौमारं ब्रह्मचर्य मे कन्यवास्मि न संशयः / / __ अष्टावक्र उवाच / कुरु मा विमति विप्र श्रद्धां विजहि मा मम / / 20 न भद्रे परदारेषु मनो मे संप्रसज्जति / अष्टावक्र उवाच / उत्तिष्ठ भद्रे भद्रं ते स्वप वै विरमस्व च // 10 यथा मम तथा तुभ्यं यथा तव तथा मम / भीष्म उवाच / जिज्ञासेयमृषेस्तस्य विघ्नः सत्यं नु किं भवेत् // 21 सा तदा तेन विप्रेण तथा धृत्या निवर्तिता। आश्चयं परमं हीदं किं नु श्रेयो हि मे भवेत् / स्वतबास्मीत्युवाचैनं न धर्मच्छलमस्ति ते // 11 दिव्याभरणवत्रा हि कन्येयं मामुपस्थिता // 22 __ अष्टावक्र उवाच / किं त्वस्याः परमं रूपं जीर्णमासीत्कथं पुनः / नास्ति स्वतन्त्रता स्त्रीणामस्वतत्रा हि योषितः / कन्यारूपमिहाद्यैव किमिहात्रोत्तरं भवेत् // 23 प्रजापतिमतं ह्येतन्न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति // 12 यथा परं शक्तिधृतेर्न व्युत्थास्ये कथंचन / स्युवाच / न रोचये हि व्युत्थानं धृत्यैवं साधयाम्यहम् // 24 बाधते मैथुनं विप्र मम भक्तिं च पश्य वै। इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि अधर्म प्राप्स्यसे विप्र यन्मां त्वं नाभिनन्दसि॥१३ | .. एकविंशतितमोऽध्यायः॥२१॥ - 2540 - Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 22. 11 अनुशासनपर्व [ 13. 23. 4 22 अभ्यगच्छत तं विप्रं न्यायतः कुरुनन्दन // 13 युधिष्ठिर उवाच / पृष्टश्च तेन विप्रेण दृष्टं त्वेतन्निदर्शनम् / न विभेति कथं सा स्त्री शापस्य परमातेः / प्राह विप्रं तदा विप्रः सुप्रीतेनान्तरात्मना // 14 कथं निवृत्तो भगवांस्तद्भवान्प्रब्रवीतु मे // 1 भवताहमनुज्ञातः प्रस्थितो गन्धमादनम् / तस्य पोत्तरतो देशे दृष्टं तदैवतं महत् // 15 भीष्म उवाच / तया चाहमनुज्ञातो भवांश्चापि प्रकीर्तितः / भष्टावक्रोऽन्वपृच्छत्तां रूपं विकुरुषे कथम् / श्रावितश्चापि तद्वाक्यं गृहमभ्यागतः प्रभो // 16 न घानृतं ते वक्तव्यं ब्रूहि ब्राह्मणकाम्यया // 2 तमुवाच ततो विप्रः प्रतिगृह्णीष्व मे सुताम् / / स्त्रयुवाच। नक्षत्रतिथिसंयोगे पात्रं हि परमं भवान् // 17 सावापृथिवीमात्रैषा काम्या ब्राह्मणसत्तम / भीष्म उवाच / शृणुष्वावहितः सर्वं यदिदं सत्यविक्रम // 3 अष्टावक्रस्तथेत्युक्त्वा प्रतिगृह्य च तां प्रभो। उत्तरां मां दिशं विद्धि दृष्टं स्त्रीचापलं च ते / कन्यां परमधर्मात्मा प्रीतिमांश्चाभवत्तदा // 18 भव्युत्थानेन ते लोका जिताः सत्यपराक्रम // 4 कन्यां तां प्रतिगृह्मैव भार्यां परमशोभनाम् / जिज्ञासेयं प्रयुक्ता मे स्थिरीकर्तुं तवानघ / उवास मुदितस्तत्र आश्रमे स्वे गतज्वरः // 19 स्थविराणामपि स्त्रीणां बाधते मैथुनज्वरः // 5 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि तुष्टः पितामहस्तेऽद्य तथा देवाः सवासवाः / . द्वाविंशतितमोऽध्यायः॥ 22 // स त्वं येन च कार्येण संप्राप्तो भगवानिह // 6 23 प्रेषितस्तेन विप्रेण कन्यापित्रा द्विजर्षभ / युधिष्ठिर उवाच / वोपदेशं कर्तुं वै तच्च सर्व कृतं मया // 7 किमाहुर्भरतश्रेष्ठ पात्रं विप्राः सनातनम् / क्षेमी गमिष्यसि गृहाश्रमश्च न भविष्यति / / ब्राह्मणं लिङ्गिनं चैव ब्राह्मणं वाप्यलिङ्गिनम् // 1 कन्यां प्राप्स्यसि तां विप्र पुत्रिणी च भविष्यति // काम्यया पृष्टवांस्त्वं मां ततो व्याहृतमुत्तरम् / भीष्म उवाच / अनतिक्रमणीयैषा कृत्स्नैलोकैस्त्रिभिः सदा // 9 स्ववृत्तिमभिपन्नाय लिङ्गिने वेतराय वा / गच्छस्व सुकृतं कृत्वा किं वान्यच्छ्रोतुमिच्छसि / देयमाहुमहाराज उभावेतौ तपस्विनौ // 2 यावद्भवीमि विप्रर्षे अष्टावक्र यथातथम् // 10 युधिष्ठिर उवाच / ऋषिणा प्रसादिता चास्मि तव हेतोजिर्षभ। श्रद्धया परया पूतो यः प्रयच्छेद्विजातये / तस्य संमाननाथ मे त्वयि वाक्यं प्रभाषितम् // 11 / हव्यं कव्यं तथा दानं को दोषः स्यात्पितामह // 3 मृत्वा तु वचनं तस्याः स विप्रः प्राञ्जलिः स्थितः। भीष्म उवाच / अनुज्ञातस्तया चापि स्वगृहं पुनरावजत् / / 12 | श्रद्धापूतो नरस्तात दुर्दान्तोऽपि न संशयः / गृहमागम्य विश्रान्तः स्वजनं प्रतिपूज्य च। पूतो भवति सर्वत्र किं पुनस्त्वं महीपते // // 4 -2541 - Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 23. 5] महाभारते [ 13. 23. 24 युधिष्ठिर उवाच / मार्कण्डेय उवाच / न ब्राह्मणं परीक्षेत दैवेषु सततं नरः / अश्वमेधसहस्रं च सत्यं च तुलया धृतम् / . कव्यप्रदाने तु बुधाः परीक्ष्यं ब्राह्मणं विदुः // 5 नाभिजानामि यद्यस्य सत्यस्यार्धमवाप्नुयात् // 14 भीष्म उवाच / भीष्म उवाच / न ब्राह्मणः साधयते हव्यं दैवात्प्रसिध्यति / इत्युक्त्वा ते जग्मुराशु चत्वारोऽमिततेजसः / देवप्रसादादिज्यन्ते यजमाना न संशयः // 6 पृथिवी काश्यपोऽग्निश्च प्रकृष्टायुश्च भार्गवः // 15 ब्राह्मणा भरतश्रेष्ठ सततं ब्रह्मवादिनः / __युधिष्ठिर उवाच। मार्कण्डेयः पुरा प्राह इह लोकेषु बुद्धिमान् // 7 यदिदं ब्राह्मणा लोके व्रतिनो भुञ्जते हविः / युधिष्ठिर उवाच / भुक्तं ब्राह्मणकामाय कथं तत्सुकृतं भवेत् // 16 अपूर्वोऽप्यथ वा विद्वान्संबन्धी वाथ यो भवेत् / भीष्म उवाच / तपस्वी यज्ञशीलो वा कथं पात्रं भवेत्तु सः // 8 आदिष्टिनो ये राजेन्द्र ब्राह्मणा वेदपारगाः / भीष्म उवाच / भुञ्जते ब्रह्मकामाय व्रतलुप्ता भवन्ति ते // 17 कुलीनः कर्मकृद्वैद्यस्तथा चाप्यानृशंस्यवान् / युधिष्ठिर उवाच / हीमानृजुः सत्यवादी पात्रं पूर्वे च ते त्रयः // 9 अनेकान्तं बहुद्वारं धर्ममाहुर्मनीषिणः / तत्रेदं शृणु मे पार्थ चतुर्णां तेजसां मतम् / / किं निश्चितं भवेत्तत्र तन्मे ब्रूहि पितामह // 18 पृथिव्याः काश्यपस्याग्नेर्मार्कण्डेयस्य चैव हि // 10 भीष्म उवाच। पृथिव्युवाच / अहिंसा सत्यमक्रोध आनृशंस्यं दमस्तथा। यथा महार्णवे क्षिप्तः क्षिप्रं लोष्ठो विनश्यति। आर्जवं चैव राजेन्द्र निश्चितं धर्मलक्षणम् // 19 तथा दुश्चरितं सर्व त्रय्यावृत्त्या विनश्यति // 11 ये तु धर्म प्रशंसन्तश्चरन्ति पृथिवीमिमाम् / काश्यप उवाच। अनाचरन्तस्तद्धर्म संकरे निरताः प्रभो // 20 सर्वे च वेदाः सह षभिरङ्गैः तेभ्यो रत्नं हिरण्यं वा गामश्वान्वा ददाति यः। सांख्यं पुराणं च कुले च जन्म / दश वर्षाणि विष्ठां स भुङ्क्ते निरयमाश्रितः // 21 नैतानि सर्वाणि गतिर्भवन्ति मेदानां पुल्कसानां च तथैवान्तावसायिनाम् / शीलव्यपेतस्य नरस्य राजन् // 12 कृतं कर्माकृतं चापि रागमोहेन जल्पताम् // 22 अग्निरुवाच / वैश्वदेवं च ये मूढा विप्राय ब्रह्मचारिणे / अधीयानः पण्डितं मन्यमानो ददतीह न राजेन्द्र ते लोकान्भुञ्जतेऽशुभान् // 23 यो विद्यया हन्ति यशः परेषाम् / युधिष्ठिर उवाच। ब्रह्मन्स तेनाचरते ब्रह्महत्यां किं परं ब्रह्मचर्यस्य किं परं धर्मलक्षणम् / लोकास्तस्य ह्यन्तवन्तो भवन्ति // 13 / / किं च श्रेष्ठतमं शौचं तन्मे ब्रूहि पितामह // 24 -2542 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 23. 25] अनुशासनपर्व [ 13. 24.8 M भीष्म उवाच / ये त्वेवंगुणजातीयास्तेभ्यो दत्तं महाफलम् / ब्रह्मचर्य परं तात मधुमांसस्य वर्जनम् / सहस्रगुणमाप्नोति गुणाहय प्रदायकः // 37 मर्यादायां स्थितो धर्मः शमः शौचस्य लक्षणम् // प्रज्ञाश्रुताभ्यां वृत्तेन शीलेन च समन्वितः / युधिष्ठिर उवाच / तारयेत कुलं कृत्नमेकोऽपीह द्विजर्षभः // 38 कस्मिन्काले चरेद्धर्म कस्मिन्कालेऽर्थमाचरेत् / / गामश्वं वित्तमन्नं वा तद्विधे प्रतिपादयेत् / कस्मिन्काले सुखी च स्यात्तन्मे ब्रूहि पितामह // 26 द्रव्याणि चान्यानि तथा प्रेत्यभावे न शोचति // 39 - भीष्म उवाच / तारयेत कुलं कृत्स्नमेकोऽपीह द्विजोत्तमः / किमङ्ग पुनरेकं वै तस्मात्पात्रं समाचरेत् / / 40 काल्यमर्थं निषेवेत ततो धर्ममनन्तरम् / निशम्य च गुणोपेतं ब्राह्मणं साधुसंमतम् / पश्चात्कामं निषेवेत न च गच्छेत्प्रसङ्गिताम् // 27 दूरादानाययेत्कृत्ये सर्वतश्चाभिपूजयेत् // 41 ब्राह्मणांश्चाभिमन्येत गुरूंश्चाप्यभिपूजयेत्। इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि सर्वभूतानुलोमश्च मृदुशीलः प्रियंवदः // 28 ज्योविंशोऽध्यायः // 23 // अधिकारे यदनृतं राजगामि च पैशुनम् / / 24 गुरोश्वालीककरणं समं तद्ब्रह्महत्यया // 29 युधिष्ठिर उवाच / प्रहरेन्न नरेन्द्रेषु न गां हन्यात्तथैव च / श्राद्धकाले च देवे च धर्मे चापि पितामह / भ्रूणहत्यासमं चैतदुभयं यो निषेवते // 30 इच्छामीह त्वयाख्यातं विहितं यत्सुरर्षिभिः // 1 नाग्निं परित्यजेजातु न च वेदान्परित्यजेत् / भीष्म उवाच। न च ब्राह्मणमाकोशेत्सम तद्ब्रह्महत्यया // 31 देवं पूर्वाहिके कुर्यादपराह्ने तु पैतृकम् / युधिष्ठिर उवाच / मङ्गलाचारसंपन्नः कृतशौचः प्रयत्नवान् // 2 कीदृशाः साधवो विप्राः केभ्यो दत्तं महाफलम् / मनुष्याणां तु मध्याह्ने प्रदद्यादुपपत्तितः / कीदृशानां च भोक्तव्यं तन्मे ब्रूहि पितामह / / 32 कालहीनं तु यदानं तं भागं रक्षसां विदुः // 3 भीष्म उवाच / लवितं चावलीढं च कलिपूर्वं च यत्कृतम् / अक्रोधना धर्मपराः सत्यनित्या दमे रताः / रजस्वलाभिदृष्टं च तं भागं रक्षसां विदुः // 4 तादृशाः साधवो विप्रास्तेभ्यो दत्तं महाफलम् // | अवघुष्टं च यद्भुक्तमव्रतेन च भारत / अमानिनः सर्वसहा दृष्टार्था विजितेन्द्रियाः / परामृष्टं शुना चैव तं भागं रक्षसां विदुः // 5 सर्वभूतहिता मैत्रास्तेभ्यो दत्तं महाफलम् / / 34 केशकीटावपतितं क्षुतं श्वभिरवेक्षितम् / / अलुब्धाः शुचयो वैद्या हीमन्तः सत्यवादिनः / / रुदितं चावधूतं च तं. भागं रक्षसां विदुः // 6 स्वकर्मनिरता ये च तेभ्यो दत्तं महाफलम् / / 35 / निरोंकारेण यद्भुक्तं सशस्त्रेण च भारत / साङ्गांश्च चतुरो वेदान्योऽधीयीत द्विजर्षभः / / दुरात्मना च यद्भुक्तं तं भागं रक्षसां विदुः / / 7 षड्मयो निवृत्तः कर्मभ्यस्तं पात्रमृषयो विदुः // 36 / परोच्छिष्टुं च यमुक्तं परिभुक्तं च यद्भवेत् / -2543 - Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 24.8] महाभारते [ 13. 24. 38 देवे पिये च सततं तं भागं रक्षसां विदुः / / 8 / अजपा ब्राह्मणाश्चैव श्राद्धे नार्हन्ति केतनम् // 23 गर्हितं निन्दितं चैव परिविष्टं समन्युना / श्राद्धे दैवे च निर्दिष्टा ब्राह्मणा भरतर्षभ / दैवं वाप्यथ वा पैत्र्यं तं भागं रक्षसां विदुः // 9 / दातुः प्रतिग्रहीतुश्च शृणुष्वानुग्रहं पुनः / / 24 मत्रहीनं क्रियाहीनं यच्छ्राद्धं परिविष्यते। चीर्णव्रता गुणैर्युक्ता भवेयुर्येऽपि कर्षकाः / त्रिभिर्वर्णैर्नरश्रेष्ठ तं भागं रक्षसां विदुः // 10 सावित्रीज्ञाः क्रियावन्तस्ते राजन्केतनक्षमाः // 25 भाच्याहुति विना चैव यत्किचित्परिविष्यते / क्षात्रधर्मिणमप्याजौ केतयेत्कुलजं द्विजम् / दुराचारैश्च यद्भुक्तं तं भागं रक्षसां विदुः // 11 न त्वेव वणिजं तात श्राद्धेषु परिकल्पयेत् // 26 थे भागा रक्षसां प्रोक्तास्त उक्ता भरतर्षभ / अग्निहोत्री च यो विप्रो ग्रामवासी च यो भवेत्। भत कवं विसर्गस्य परीक्षां ब्राह्मणे शृणु // 12 अस्तेनश्चातिथिज्ञश्च स राजन्केतनक्षमः // 27 गावन्तः पतिता विप्रा जडोन्मत्तास्तथैव च / सावित्री जपते यस्तु त्रिकालं भरतर्षभ / देचे पाप्यथ वा पिज्ये राजन्नाईन्ति केतनम् // 13 भिक्षावृत्तिः क्रियावांश्च स राजन्केतनक्षमः // 28 श्वित्री कुष्ठी च क्लीबश्च तथा यक्ष्महतश्च यः। उदितास्तमितो यश्च तथैवास्तमितोदितः / अपस्मारी च यश्चान्धो राजन्नार्हन्ति सत्कृतिम् / / अहिंस्रश्चाल्पदोषश्च स राजन्केतनक्षमः // 29 चिकित्सका देवलका वृथानियमधारिणः / अकल्कको ह्यतर्कश्च ब्राह्मणो भरतर्षभ / सोमविक्रयिणश्चैव श्राद्धे नार्हन्ति केतनम् // 15 ससंज्ञो भैक्ष्यवृत्तिश्च स राजन्केतनक्षमः // 30 गायना नर्तकाश्चैव प्लवका वादकास्तथा। अव्रती कितवः स्तेनः प्राणिविक्रय्यथो वणिक् / स्वका योधकाश्चैव राजन्नाहन्ति केतनम् / / 16 / पश्चाच्च पीतवान्सोमं स राजन्केतनक्षमः // 31 होतारो वृषलानां च वृषलाध्यापकास्तथा / अर्जयित्वा धनं पूर्व दारुणैः कृषिकर्मभिः / तथा वृषलशिष्याश्च राजन्नाईन्ति केतनम् // 17 भवेत्सर्वातिथिः पश्चात्स राजन्केतनक्षमः / / 32 अनुयोक्ता च यो विप्रो अनुयुक्तश्च भारत / ब्रह्मविक्रयनिर्दिष्टं स्त्रिया यच्चार्जितं धनम् / चाइतस्तावपि श्राद्धं ब्रह्मविक्रयिणी हि तौ // 18 अदेयं पितृदेवेभ्यो यच्च कैव्यादुपार्जितम् / / 35 भग्रणीयः कृतः पूर्व वर्णावरपरिग्रहः / क्रियमाणेऽप्यवर्गे तु यो द्विजो भरतर्षभ / ब्राह्मणः सर्वविद्योऽपि राजन्नाईति केतनम् // 19 / न व्याहरति यद्युक्तं तस्याधर्मो गवानृतम् / / 34 अनप्रयश्च ये विप्रा मृतनिर्यातकाश्च ये। श्राद्धस्य ब्राह्मणः कालः प्राप्तं दधि घृतं तथा / स्तेनाश्च पतिताश्चैव राजन्नार्हन्ति केतनम् / / 20 सोमक्षयश्च मांसं च यदारण्यं युधिष्ठिर // 35 भपरिज्ञातपूर्वाश्च गणपूर्वाश्च भारत / श्राद्धापवर्गे विप्रस्य स्वधा वै स्वदिता भवेत् / पुत्रिकापूर्वपुत्राश्च श्राद्धे नाहन्ति केतनम् // 21 क्षत्रियस्याप्यथो ब्रूयात्प्रीयन्तां पितरस्त्विति // 31 ऋणकर्ता च यो राजन्यश्च वाधुषिको द्विजः। / अपवर्गे तु वैश्यस्य श्राद्धकर्मणि भारत / प्राणिविक्रयवृत्तिश्च राजन्नार्हन्ति केतनम् / / 22 / अक्षय्यमभिधातव्यं स्वस्ति शूद्रस्य भारत // 37 स्त्रीपूर्वाः काण्डपृष्ठाश्च यावन्तो भरतर्षभ / | पुण्याहवाचनं दैवे ब्राह्मणस्य विधीयते / -2544 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. 24. 38 ] अनुशासनपर्व [ 13. 24. 65 % 3D एतदेव निरोंकारं क्षत्रियस्य विधीयते / तद्भक्तास्तद्गृहा राजस्तद्धनास्तदपाश्रयाः / वैश्यस्य चैव वक्तव्यं प्रीयन्तां देवता इति // 38 अर्थिनश्च भवन्त्यर्थे तेषु दत्तं महाफलम् // 51 कर्मणामानुपूर्वी च विधिपूर्वकृतं शृणु / तस्करेभ्यः परेभ्यो वा ये भयार्ता युधिष्ठिर। जातकर्मादिकान्सास्त्रिषु वर्णेषु भारत / अर्थिनो भोक्तुमिच्छन्ति तेषु दत्तं महाफलम् // 52 ब्रह्मक्षत्रे हि मत्रोक्ता वैश्यस्य च युधिष्ठिर // 39 अकल्ककस्य विप्रस्य भैक्षोत्करकृतात्मनः / विप्रस्य रशना मौञ्जी मौर्वी राजन्यगामिनी। बटवो यस्य भिक्षन्ति तेभ्यो दत्तं महाफलम् // 53 बाल्वजीत्येव वैश्यस्य धर्म एष युधिष्ठिर // 40 हृतस्वा हृतदाराश्च ये विप्रा देशसंप्लवे / दातुः प्रतिग्रहीतुश्च धर्माधर्माविमौ शृणु। अर्थार्थमभिगच्छन्ति तेभ्यो दत्तं महाफलम् // 54 ब्राह्मणस्यानृतेऽधर्मः प्रोक्तः पातकसंज्ञितः। . व्रतिनो नियमस्थाश्च ये विप्राः श्रुतसंमताः / चतुर्गुणः क्षत्रियस्य वैश्यस्याष्टगुणः स्मृतः // 41 तत्समाप्त्यर्थमिच्छन्ति तेषु दत्तं महाफलम् // 55 नान्यत्र ब्राह्मणोऽनीयात्पूर्व विप्रेण केतितः / अव्युत्क्रान्ताश्च धर्मेषु पाषण्डसमयेषु च / यवीयान्पशुहिंसायां तुल्यधर्मो भवेत्स हि // 42 कृशत्राणाः कृशधनास्तेषु दत्तं महाफलम् // 56 अथ राजन्यवैश्याभ्यां यद्यश्नीयात्तु केतितः / कृतसर्वस्वहरणा निर्दोषाः प्रभविष्णुभिः / यवीयान्पशुहिंसायां भागाधं समवाप्नुयात् / / 43 स्पृहयन्ति च भुक्तान्नं तेषु दत्तं महाफलम् // 57 देवं वाप्यथ वा पित्र्यं योऽश्नीयाब्राह्मणादिषु / तपस्विनस्तपोनिष्ठास्तेषां भैक्षचराश्च ये / अस्नातो ब्राह्मणो राजस्तस्याधर्मो गवानृतम् / / 44 अर्थिनः किंचिदिच्छन्ति तेषु दन्तं महाफलम् // 58 आशौचो ब्राह्मणो राजन्योऽश्नीयाब्राहाणादिषु / महाफलविधिने श्रुतस्ते भरतर्षभ / ज्ञानपूर्वमथो लोभात्तस्याधर्मो गवानृतम् / / 45 निरयं येन गच्छन्ति स्वर्ग चैव हि तच्छृणु // 59 अन्नेनान्नं च यो लिप्सेत्कर्मार्थं चैव भारत / गुर्वथं वाभयाथ वा वर्जयित्वा युधिष्ठिर / आमन्त्रयति राजेन्द्र तस्याधर्मोऽनृतं स्मृतम् // 46 येऽनृतं कथयन्ति स्म ते वै निरयगामिनः // 60 अवेदव्रतचारित्रातिभिर्वर्णैर्युधिष्ठिर / परदाराभिहर्तारः परदाराभिमर्शिनः / मन्त्रवत्परिविष्यन्ते तेष्वधर्मो गवानृतम् / / 47 परदारप्रयोक्तारस्ते वै निरयगामिनः // 61 युधिष्ठिर उवाच / ये परस्वापहर्तारः परस्वानां च नाशकाः / पित्र्यं वाप्यथ वा दैवं दीयते यत्पितामह / / सूचकाश्च परेषां ये ते वै निरयगामिनः // 62 एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं दत्तं येषु महाफलम् // 48 प्रपाणां च सभानां च संक्रमाणां च भारत / भीष्म उवाच / अगाराणां च भेत्तारो नरा निरयगामिनः // 63 येषां दाराः प्रतीक्षन्ते सुवृष्टिमिव कर्षकाः / अनाथां प्रमदां बालां. वृद्धां भीतां तपस्विनीम् / उच्छेषपरिशेषं हि तान्भोजय युधिष्ठिर / / 49 वञ्चयन्ति नरा ये च ते वै निरयगामिनः // 64 चारित्रनियता राजन्ये कृशाः शवृत्तयः / वृत्तिच्छेदं गृहच्छेदं दारच्छेदं च भारत / अर्थिनश्चोपगच्छन्ति तेषु दत्तं महाफलम् // 50 / मित्रच्छेदं तथाशायास्ते वै निरयगामिनः / / 65 म.भा. 19 - 2545 - Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 24. 66] महाभारते [ 13. 24.95 सूचकाः संधिभत्तारः परवृत्त्युपजीवकाः / एते पूर्वर्षिभिदृष्टाः प्रोक्ता निरयगामिनः / अकृतज्ञाश्च मित्राणां ते वै निरयगामिनः / / 66 भागिनः स्वर्गलोकस्य वक्ष्यामि भरतर्षभ // 81 पाषण्डा दूषकाश्चैव समयानां च दूषकाः / सर्वेष्वेव तु कार्येषु दैवपूर्वेषु भारत / ये प्रत्यवसिताश्चैव ते वै निरयगामिनः // 67 हन्ति पुत्रान्पशून्कृत्स्नान्ब्राह्मणातिक्रमः कृतः // 82 कृताशं कृतनिर्वेशं कृतभक्तं कृतश्रमम् / दानेन तपसा चैव सत्येन च युधिष्ठिर / भेदैर्ये व्यपकर्षन्ति ते वै निरयगामिनः // 68 ये धर्ममनुवर्तन्ते ते नराः स्वर्गगामिनः / / 83 पर्यश्नन्ति च ये दारानग्निभृत्यातिथींस्तथा। शुश्रूषाभिस्तपोभिश्च श्रुतमादाय भारत। . उत्सन्नपितृदेवेज्यास्ते वै निरयगामिनः // 69 ये प्रतिग्रहनिःस्नेहास्ते नराः स्वर्गगामिनः // 84 वेदविक्रयिणश्चैव वेदानां चैव दूषकाः / भयात्पापात्तथाबाधादारियाद्व्याधिधर्षणात् / वेदानां लेखकाश्चैव ते वै निरयगामिनः // 70 यत्कृते प्रतिमुच्यन्ते ते नराः स्वर्गगामिनः // 85 चातुराश्रम्यबाह्याश्च श्रुतिबाह्याश्च ये नराः। क्षमावन्तश्च धीराश्च धर्मकार्येषु चोत्थिताः / विकर्मभिश्च जीवन्ति ते वै निरयगामिनः // 71 मङ्गलाचारयुक्ताश्च ते नराः स्वर्गगामिनः / / 86 केशविक्रयिका राजन्विषविक्रयिकाश्च ये। निवृत्ता मधुमांसेभ्यः परदारेभ्य एव च / क्षीरविक्रयिकाश्चैव ते वै निरयगामिनः // 72 निवृत्ताश्चैव मद्येभ्यस्ते नराः स्वर्गगामिनः // 87 ब्राह्मणानां गवां चैव कन्यानां च युधिष्ठिर / आश्रमाणां च कर्तारः कुलानां चैव भारत / येऽन्तरं यान्ति कार्येषु ते वै निरयगामिनः // 73 देशानां नगराणां च ते नराः स्वर्गगामिनः / / 88 शस्त्रविक्रयकाश्चैव कर्तारश्च युधिष्ठिर / वस्त्राभरणदातारो भक्षपानान्नदास्तथा। शल्यानां धनुषां चैव ते वै निरयगामिनः // 74 कुटुम्बानां च दातारस्ते नराः स्वर्गगामिनः // 89 शल्यैर्वा शङ्कभिर्वापि श्वभ्रर्वा भरतर्षभ / सर्वहिंसानिवृत्ताश्च नराः सर्वसहाश्च ये। ये मार्गमनुरुन्धन्ति ते वै निरयगामिनः // 75 सर्वस्याश्रयभूताश्च ते नराः स्वर्गगामिनः // 90 उपाध्यायांश्च भृत्यांश्च भक्तांश्च भरतर्षभ / मातरं पितरं चैव शुश्रूषन्ति जितेन्द्रियाः / ये त्यजन्त्यसमर्थांस्तांस्ते वै निरयगामिनः // 76 / भ्रातॄणां चैव सस्नेहास्ते नराः स्वर्गगामिनः / / 91 अप्राप्तदमकाश्चैव नासानां वेधकास्तथा / ढ्याश्च बलवन्तश्च यौवनस्थाश्च भारत। . बन्धकाश्च पशूनां ये ते वै निरयगामिनः // 77 ये वै जितेन्द्रिया धीरास्ते नराः स्वर्गगामिनः॥९२ अगोप्तारश्छलद्रव्या बलिषड्भागतत्पराः / अपराद्धेषु सस्नेहा मृदवो मित्रवत्सलाः / समर्थाश्चाप्यदातारस्ते वै निरयगामिनः // 78 आराधनसुखाश्चापि ते नराः स्वर्गगामिनः // 93 क्षान्तान्दान्तांस्तथा प्राज्ञान्दीर्घकालं सहोषितान् / / सहस्रपरिवेष्टारस्तथैव च सहस्रदाः। त्यजन्ति कृतकृत्या ये ते वै निरयगामिनः // 79 त्रातारश्च सहस्राणां पुरुषाः स्वर्गगामिनः // 54 बालानामथ वृद्धानां दासानां चैव ये नराः / / सुवर्णस्य च दातारो गवां च भरतर्षभ / अदत्त्वा भक्षयन्त्यग्रे ते वै निरयगामिनः / / 80 / यानानां वाहनानां च ते नराः स्वर्गगामिनः // 95 -2546 - Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 24. 96] अनुशासनपर्व [ 13. 26. 7 वैवाहिकानां कन्यानां प्रेष्याणां च युधिष्ठिर। उत्पादयति यो विघ्नं तं विद्याद्ब्रह्मघातिनम् // 7 दातारो वाससां चैव ते नराः स्वर्गगामिनः // 96 यः प्रवृत्तां श्रुतिं सम्यक्शास्त्रं वा मुनिभिः कृतम् / विहारावसयोद्यानकूपारामसभाप्रदाः / दूषयत्यनभिज्ञाय तं विद्याद्ब्रह्मघातिनम् // 8 वप्राणां चैव कर्तारस्ते नराः स्वर्गगामिनः // 97 आत्मजां रूपसंपन्नां महतीं सदृशे वरे / निवेशनानां क्षेत्राणां वसतीनां च भारत / न प्रयच्छति यः कन्यां तं विद्याद्ब्रह्मघातिनम् // 9 दातारः प्रार्थितानां च ते नराः स्वर्गगामिनः // 98 अधर्मनिरतो मूढो मिथ्या यो वै द्विजातिषु / रसानामथ बीजानां धान्यानां च युधिष्ठिर। दद्यान्मर्मातिगं शोकं तं विद्याद्ब्रह्मघातिनम् // 10 खयमुत्पाद्य दातारः पुरुषाः स्वर्गगामिनः / / 99 चक्षुषा विप्रहीनस्य पङ्गुलस्य जडस्य वा। यस्मिन्कस्मिन्कुले जाता बहुपुत्राः शतायुषः / हरेत यो वै सर्वस्वं तं विद्याद्ब्रह्मघातिनम् // 11 सानुक्रोशा जितक्रोधाः पुरुषाः स्वर्गगामिनः // 100 आश्रमे वा वने वा यो प्रामे वा यदि वा पुरे / एतदुक्तममुत्राथं देवं पित्र्यं च भारत। अनि समुत्सृजेन्मोहात्तं विद्याद्ब्रह्मघातिनम् // 12 धर्माधर्मौ च दानस्य यथा पूर्वर्षिभिः कृतौ // 101 इति भीमहाभारते अनुशासनपर्वणि इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि पञ्चविंशतितमोऽध्यायः // 25 // तुर्विंशतितमोऽध्यायः॥२४॥ 25 युधिष्ठिर उवाच / युधिष्ठिर उवाच। तीर्थानां दर्शनं श्रेयः स्नानं च भरतर्षभ / इदं मे तत्त्वतो राजन्वक्तुमर्हसि भारत / श्रवणं च महाप्राज्ञ श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः // 1 अहिंसयित्वा केनेह ब्रह्महत्या विधीयते // 1 पृथिव्यां यानि तीर्थानि पुण्यानि भरतर्षभ / म उवाच / वक्तुमर्हसि मे तानि श्रोतास्मि नियतः प्रभो // 2 व्यासमामत्र्य राजेन्द्र पुरा यत्पृष्टवानहम् / भीष्म उवाच / तत्तेऽहं संप्रवक्ष्यामि तदिहैकमनाः शृणु // 2 इममङ्गिरसा प्रोक्तं तीर्थवंशं महायुते / चतुर्थस्त्वं वसिष्ठस्य तत्त्वमाख्याहि मे मुने। श्रोतुमर्हसि भद्रं ते प्राप्स्यसे धर्ममुत्तमम् // 3 अहिंसयित्वा केनेह ब्रह्महत्या विधीयते // 3 तपोवनगतं विप्रमभिगम्य महामुनिम् / इति पृष्टो महाराज पराशरशरीरजः / पप्रच्छाङ्गिरसं वीर गौतमः संशितव्रतः / / 4 अब्रवीन्निपुणो धर्मे निःसंशयमनुत्तमम् // 4 अस्ति मे भगवन्कश्चित्तीर्थेभ्यो धर्मसंशयः / ब्राह्मणं स्वयमाहूय भिक्षार्थे कृशवृत्तिनम् / . तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि तन्मे शंस महानुने // 5 त्यान्नास्तीति यः पश्चात्तं विद्याद्ब्रह्मघातिनम् // 5 पस्पृश्य फलं किं स्यात्तेषु तीर्थेषु वै मुने / मध्यस्थस्येह विप्रस्य योऽनूचानस्य भारत। प्रेत्यभावे महाप्राज्ञ तद्यथास्ति तथा वद // 6 वृत्तिं हरति दुर्बुद्धिस्तं विद्याद्ब्रह्मघातिनम् // 6 अङ्गिरा उवाच / गोकुलस्य तृषार्तस्य जलार्थे वसुधाधिप / / सप्ताहं चन्द्रभागां वै वितस्तामूर्मिमालिनीम् / -2547 - Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 26.7] महाभारते [ 13. 26. 35 विगाह्य वै निराहारो निर्ममो मुनिवद्भवेत् // 7 वैमानिक उपस्पृश्य किङ्किणीकाश्रमे तथा / काश्मीरमण्डले नद्यो याः पतन्ति महानदम्। निवासेऽप्सरसां दिव्ये कामचारी महीयते // 21 ता नदीः सिन्धुमासाद्य शीलवान्स्वर्गमाप्नुयात् // 8 कालिकाश्रममासाद्य विपाशायां कृतोदकः / पुष्करं च प्रभासं च नैमिषं सागरोदकम् / ब्रह्मचारी जितक्रोधस्त्रिरात्रान्मुच्यते भवात् // 22 देविकामिन्द्रमार्ग च स्वर्णबिन्दुं विगाह्य च।। आश्रमे कृत्तिकानां तु स्नात्वा यस्तर्पयेत्पितॄन् / विबोध्यते विमानस्थः सोऽप्सरोभिरभिष्टुतः // 9 तोषयित्वा महादेवं निर्मलः स्वर्गमाप्नुयात् // 2 // हिरण्यबिन्दु विक्षोभ्य प्रयतश्चाभिवाद्य तम् / महापुर उपस्पृश्य त्रिरात्रोपोषितो नरः / कुशेशयं च देवत्वं पूयते तस्य किल्बिषम् / / 10 त्रसानां स्थावराणां च द्विपदानां भयं त्यजेत् // 24 इन्द्रतोयां समासाद्य गन्धमादनसंनिधौ। देवदारुवने स्नात्वा धूतपाप्मा कृतोदकः / करतोयां कुरङ्गेषु त्रिरात्रोपोषितो नरः। देवलोकमवाप्नोति सप्तरात्रोषितः शुचिः // 25 अश्वमेधमवाप्नोति विगाह्य नियतः शुचिः // 11 कौशन्ते च कुशस्तम्बे द्रोणशर्मपदे तथा / गङ्गाद्वारे कुशावर्ते बिल्वके नेमिपर्वते / आपःप्रपतने स्नातः सेव्यते सोऽप्सरोगणैः // 26 तथा कनखले स्नात्वा धूतपाप्मा दिवं व्रजेत् // 12 चित्रकूटे जनस्थाने तथा मन्दाकिनीजले / अपां हद उपस्पृश्य वाजपेयफलं लभेत् / विगाह्य वै निराहारो राजलक्ष्मी निगच्छति // 27 ब्रह्मचारी जितक्रोधः सत्यसंधस्त्वहिंसकः // 13 श्यामायास्त्वाश्रमं गत्वा उष्य चैवाभिषिच्य च / यत्र भागीरथी गङ्गा भजते दिशमुत्तराम् / त्रीस्त्रिरात्रान्स संधाय गन्धर्वनगरे वसेत् / / 28 महेश्वरस्य निष्ठाने यो नरस्त्वभिषिच्यते / रमण्यां च उपस्पृश्य तथा वै गन्धतारिके / एकमासं निराहारः स्वयं पश्यति देवताः // 14 एकमासं निराहारस्त्वन्तर्धानफलं लभेत् // 29 सप्तगने त्रिगङ्गे च इन्द्रमार्गे च तर्पयन् / कौशिकीद्वारमासाद्य वायुभक्षस्त्वलोलुपः / सुधां वै लभते भोक्तुं यो नरो जायते पुनः॥१५ एकविंशतिरात्रेण स्वर्गमारोहते नरः // 30 महाश्रम उपस्पृश्य योऽग्निहोत्रपरः शुचिः / मतङ्गवाप्यां यः स्नायादेकरात्रेण सिध्यति / एकमासं निराहारः सिद्धिं मासेन स व्रजेत् // 16 विगाहति ह्यनालम्बमन्धकं वै सनातनम् // 31 महाह्रद उपरपृश्य भृगुतुङ्गे त्वलोलुपः / नैमिषे स्वर्गतीर्थे च उपस्पृश्य जितेन्द्रियः / त्रिरात्रोपोषितो भूत्वा मुच्यते ब्रह्महत्यया // 17 फलं पुरुषमेधस्य लभेन्मासं कृतोदकः // 32 कन्याकूप उपस्पृश्य बलाकायां कृतोदकः / गङ्गाह्रद उपस्पृश्य तथा चैवोत्पलावने / देवेषु कीर्ति लभते यशसा च विराजते // 18 अश्वमेधमवाप्नोति यत्र मासं कृतोदकः // 33 देशकाल उपस्पृश्य तथा सुन्दरिकाहदे। गङ्गायमुनयोस्तीर्थे तथा कालंजरे गिरौ।। अश्विभ्यां रूपवर्चस्यं प्रेत्य वै लभते नरः // 19 षष्टिहद उपस्पृश्य दानं नान्यद्विशिष्यते // 34 महागङ्गामुपस्पृश्य कृत्तिकाङ्गारके तथा / दश तीर्थसहस्राणि तिस्रः कोट्यस्तथापराः / पक्षमेकं निराहारः स्वर्गमाप्नोति निर्मलः // 20 / समागच्छन्ति माध्यां तु प्रयागे भरतर्षभ // 35 -2548 - Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 26. 36 ] अनुशासनपर्व [13. 26. 65 माघमासं प्रयागे तु नियतः संशितव्रतः। यस्य कन्यादे वासो देवलोकं स गच्छति // 50 स्नात्वा तु भरतश्रेष्ठ निर्मलः स्वर्गमाप्नुयात् // 36 प्रभासे त्वेकरात्रेण अमावास्यां समाहितः / मरुद्गण उपस्पृश्य पितृणामाश्रमे शुचिः / सिध्यतेऽत्र महाबाहो यो नरो जायते पुनः // 51 वैवस्वतस्य तीर्थे च तीर्थभूतो भवेन्नरः // 37 उज्जानक उपस्पृश्य आर्टिषेणस्य चाश्रमे / तथा ब्रह्मशिरो गत्वा भागीरथ्यां कृतोदकः / पिङ्गायाश्चाश्रमे स्नात्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते // 52 एकमासं निराहारः सोमलोकमवाप्नुयात् // 38 कुल्यायां समुपस्पृश्य जप्त्वा चैवाघमर्षणम् / कपोतके नरः स्नात्वा अष्टावक्रे कृतोदकः / अश्वमेधमवाप्नोति त्रिरात्रोपोषितः शुचिः // 53 द्वादशाहं निराहारो नरमेधफलं लभेत् // 39 पिण्डारक उपरपृश्य एकरात्रोषितो नरः / मुखपृष्ठं गयां चैव निर्ऋतिं देवपर्वतम् / . अग्निष्टोममवाप्नोति प्रभातां शर्वरीं शुचिः // 54 तृतीयां क्रौञ्चपादी च ब्रह्महत्या विशुध्यति // 40 तथा ब्रह्मसरो गत्वा धर्मारण्योपशोभितम् / कलश्यां वाप्युपस्पृश्य वेद्यां च बहुशोजलाम / पुण्डरीकमवाप्नोति प्रभातां शर्वरीं शुचिः // 55 अग्नेः पुरे नरः स्नात्वा विशालायां कृतोदकः / / मैनाके पर्वते स्नात्वा तथा संध्यामुपास्य च / देवह्नद उपस्पृश्य ब्रह्मभूतो विराजते // 41 कामं जित्वा च वै मासं सर्वमेधफलं लभेत् // 56 पुरापवर्तनं नन्दा महानन्दां च सेव्य वै / विख्यातो हिमवान्पुण्यः शंकरश्वशुरो गिरिः / नन्दने सेव्यते दान्तस्त्वप्सरोभिरहिंसकः // 42 आकरः सर्वरत्नानां सिद्धचारणसेवितः // 57 उर्वशीकृत्तिकायोगे गत्वा यः सुसमाहितः।। शरीरमुत्सृजेत्तत्र विधिपूर्वमनाशके / लौहित्ये विधिवत्स्नात्वा पुण्डरीकफलं लभेत् // 43 अध्रुवं जीवितं ज्ञात्वा यो वै वेदान्तगो द्विजः॥ रामहृद उपस्पृश्य विशालायां कृतोदकः / अभ्यर्च्य देवतास्तत्र नमस्कृत्य मुनींस्तथा / द्वादशाहं निराहारः कल्मषाद्विप्रमुच्यते // 44 / / ततः सिद्धो दिवं गच्छेद्ब्रह्मलोकं सनातनम् // 59 महाह्रद उपस्पृश्य शुद्धेन मनसा नरः / कामं क्रोधं च लोभं च यो जित्वा तीर्थमावसेत् / एकमासं निराहारो जमदग्निगतिं लभेत् // 45 न तेन किंचिन्न प्राप्तं तीर्थाभिगमनाद्भवेत् // 60 विन्ध्ये संताप्य चात्मानं सत्यसंधस्त्वहिंसकः / यान्यगम्यानि तीर्थानि दुर्गाणि विषमाणि च / षण्मासं पदमास्थाय मासेनैकेन शुध्यति // 46 मनसा तानि गम्यानि सर्वतीर्थसमासतः // 61 नर्मदायामुपस्पृश्य तथा सूर्पारकोदके / इदं मेध्यमिदं धन्यमिदं स्वर्ग्यमिदं सुखम् / एकपक्षं निराहारो राजपुत्रो विधीयते // 47 / इदं रहस्यं देवानामाप्लाव्यानां च पावनम् // 62 जम्बूमार्गे त्रिभिर्मासैः संयतः सुसमाहितः। इदं दद्याहि जातीनां साधूनामात्मजस्य वा।। अहोरात्रेण चैकेन सिद्धि समधिगच्छति // 48 सुहृदां च जपेत्कर्णे शिष्यस्यानुगतस्य वा // 63 कोकामुखे विगाह्यापो गत्वा चण्डालिकाश्रमम् / / दत्तवान्गौतमस्येदमङ्गिरा वै महातपाः / शाकभक्षश्चीरवासाः कुमारीविन्दते दश / / 49 गुरुभिः समनुज्ञातः काश्यपेन च धीमता // 64 वैवस्वतस्य सदनं न स गच्छेत्कदाचन / महर्षीणामिदं जप्यं पावनानां तथोत्तमम् / - 2549 - Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 28. 65 ] महाभारते [13. 27.25 जपंश्चाभ्युत्थितः शश्वनिर्मलः स्वर्गमाप्नुयात् // 65 ततस्ते भीष्ममामय पाण्डवांश्च महर्षयः / इदं यश्चापि शृणुयाद्रहस्यं त्वगिरोमतम् / अन्तर्धानं गताः सर्वे सर्वेषामेव पश्यताम् // 12 उत्तमे च कुले जन्म लभेजातिं च संस्मरेत् // 66 तानृषीन्सुमहाभागानन्तर्धानगतानपि / इति श्रीमहाभारते भनुशासनपर्वणि पाण्डवास्तुष्टुवुः सर्वे प्रणेमुश्च मुहुर्मुहुः // 13 षडिंशोऽध्यायः // 26 // प्रसन्नमनसः सर्वे गाङ्गेयं कुरुसत्तमाः। 27 उपतस्थुर्यथोद्यन्तमादित्यं मनकोविदाः // 14 पैशंपायन उवाच / प्रभावात्तपसस्तेषामृषीणां वीक्ष्य पाण्डवाः / बृहस्पतिसमं बुद्ध्या क्षमया ब्रह्मणः समम् / प्रकाशन्तो दिशः सर्वा विस्मयं परमं ययुः // 15 पराक्रमे शक्रसममादित्यसमतेजसम् // 1 महाभाग्यं परं तेषामृषीणामनुचिन्त्य ते / गाङ्गेयमर्जुनेनाजौ निहतं भूरिवर्चसम् / पाण्डवाः सह भीष्मेण कथाश्चक्रस्तदाश्रयाः॥१६ भ्रातृभिः सहितोऽन्यैश्च पर्युपास्ते युधिष्ठिरः / / 2 कथान्ते शिरसा पादौ स्पृष्ट्वा भीष्मस्य पाण्डवः / शयानं वीरशयने कालाकाङ्गिणमच्युतम् / धर्म्य धर्मसुतः प्रश्नं पर्यपृच्छाधिष्ठिरः // 17 आजग्मुर्भरतश्रेष्ठं द्रष्टुकामा महर्षयः / / 3 के देशाः के जनपदा आश्रमाः के च पर्वताः / अत्रिर्वसिष्ठोऽथ भृगुः पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः / / प्रकृष्टाः पुण्यतः काश्च ज्ञेया नद्यः पितामह // 18 अङ्गिरा गौतमोऽगस्त्यः सुमतिः स्वायुरात्मवान् // भीष्म उवाच / विश्वामित्रः स्थूलशिराः संवर्तः प्रमतिर्दमः / अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / उशना बृहस्पतिर्व्यासछ्यवनः काश्यपो ध्रुवः / / 5 / शिलोच्छवृत्तेः संवादं सिद्धस्य च युधिष्ठिर // 19 दुर्वासा जमदग्निश्च मार्कण्डेयोऽथ गालयः / / इमां कश्चित्परिक्रम्य पृथिवीं शैलभूषिताम् / भरद्वाजश्च रैभ्यश्च यवक्रीतस्त्रितस्तथा / / 6 असकृतिपदां श्रेष्ठः श्रेष्ठस्य गृहमेधिनः // 2. स्थूलाक्षः शकलाक्षश्च कण्वो मेधातिथिः कृशः / शिलवृत्तेर्गृहं प्राप्तः स तेन विधिनार्चितः / नारदः पर्वतश्चैव सुधन्वाथैकतो द्वितः / / 7 कृतकृत्य उपातिष्ठत्सिद्धं तमतिथिं तदा // 21 नितंभूर्भुवनो धौम्यः शतानन्दोऽकृतव्रणः। तौ समेत्य महात्मानौ सुखासीनौ कथाः शुभाः / जामदग्यस्तथा रामः काम्यश्चेत्येवमादयः / चक्रतुर्वेदसंबद्धास्तच्छेषकृतलक्षणाः / / 22 . . समागता महात्मानो भीष्मं द्रष्टुं महर्षयः // 8 शिलवृत्तिः कथान्ते तु सिद्धमामय यत्नतः। तेषां महात्मनां पूजामागतानां युधिष्ठिरः / प्रश्नं पप्रच्छ मेधावी यन्मां त्वं परिपृच्छसि // 23 भ्रातृभिः सहितश्चक्रे यथावदनुपूर्वशः // 9 शिलवृत्तिरुवाच / ते पूजिताः सुखासीनाः कथाश्चक्रुर्महर्षयः / / के देशाः के जनपदाः केऽऽश्रमाः के च पर्वताः। भीष्माश्रिताः सुमधुराः सर्वेन्द्रियमनोहराः // 10 | प्रकृष्टाः पुण्यतः काश्च ज्ञेया नद्यस्तदुच्यताम् / / 24 भीष्मस्तेषां कथाः श्रुत्वा ऋषीणां भावितात्मनाम्।। सिद्ध उवाच / मेने दिविस्थमात्मानं तुष्ट्या परमया युतः // 11 / ते देशास्ते जनपदास्तेऽऽश्रमास्ते च पर्वताः / - 2550 - Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 27. 25] अनुशासनपर्व [ 13. 27. 55 येषां भागीरथी गङ्गा मध्येनैति सरिद्वरा // 25 / तिष्ठेयथेष्टं यश्चापि गङ्गायां स विशिष्यते // 40 तपसा ब्रह्मचर्येण यज्ञैस्त्यागेन वा पुनः / अग्नौ प्राप्तं प्रधूयेत यथा तूलं द्विजोत्तम / गतिं तां न लभेजन्तुर्गङ्गां संसेव्य यां लभेत् // 26 तथा गङ्गावगाढस्य सर्वं पापं प्रधूयते // 41 स्पृष्टानि येषां गाङ्गेयैस्तोयैर्गात्राणि देहिनाम् / भूतानामिह सर्वेषां दुःखोपहतचेतसाम् / न्यस्तानि न पुनस्तेषां त्यागः स्वर्गाद्विधीयते // 27 गतिमन्वेषमाणानां न गङ्गासदृशी गतिः // 42 सर्वाणि येषां गाङ्गेयस्तोयैः कृत्यानि देहिनाम् / भवन्ति निर्विषाः सर्पा यथा ताय॑स्य दर्शनात् / गां त्यक्त्वा मानवा विप्र दिवि तिष्ठन्ति तेऽचलाः / / गङ्गाया दर्शनात्तद्वत्सर्वपापैः प्रमुच्यते // 43 पूर्वे वयसि कर्माणि कृत्वा पापानि ये नराः। अप्रतिष्ठाश्च ये केचिदधर्मशरणाश्च ये। पश्चाद्गङ्गां निषेवन्ते तेऽपि यान्त्युत्तमां गतिम् // 29 तेषां प्रतिष्ठा गङ्गेह शरणं शर्म वर्म च // 44 . मातानां शुचिभिस्तोयैर्गाङ्गेयैः प्रयतात्मनाम् / प्रकृष्टैरशुभैर्घस्ताननेकैः पुरुषाधमान् / व्युष्टिर्भवति या पुंसां न सा ऋतुशतैरपि / / 30 पततो नरके गङ्गा संश्रितान्प्रेत्य तारयेत् / / 45 यावदस्थि मनुष्यस्य गङ्गातोयेषु तिष्ठति / ते संविभक्ता मुनिभिनं देवैः सवासवैः / तावद्वर्षसहस्राणि स्वर्ग प्राप्य महीयते // 31 / / येऽभिगच्छन्ति सततं गङ्गामभिगतां सुरैः॥ 46 अपहत्य तमस्तीव्र यथा भात्युदये रविः / विनयाचारहीनाश्च अशिवाश्च नराधमाः / तथापहत्य पाप्मानं भाति गङ्गाजलोक्षितः / / 32 ते भवन्ति शिवा विप्र ये वै गङ्गां समाश्रिताः॥ विसोमा इव शर्वर्यो विपुष्पास्तरवो यथा। यथा सुराणाममृतं पितृणां च यथा स्वधा / तद्वदेशा दिशश्चैव हीना गङ्गाजलैः शुभैः / / 33 सुधा यथा च नागानां तथा गङ्गाजलं नृणाम् / / 48 वर्णाश्रमा यथा सर्वे स्वधर्मज्ञानवर्जिताः / उपासते यथा बाला मातरं क्षुधयार्दिताः / कतवश्च यथासोमास्तथा गङ्गां विना जगत् / / 34 श्रेयस्कामास्तथा गङ्गामुपासन्तीह देहिनः / / 49 यथा हीनं नभोऽर्केण भूः शैलैः खं च वायुना / स्वायंभुवं यथा स्थानं सर्वेषां श्रेष्ठमुच्यते / तथा देशा दिशश्चैव गङ्गाहीना न संशयः // 35 स्नातानां सरितां श्रेष्ठा गङ्गा तद्वदिहोच्यते / / 5. त्रिषु लोकेषु ये केचित्प्राणिनः सर्व एव ते / / यथोपजीविनां धेनुर्देवादीनां धरा स्मृता / तर्प्यमाणाः परां तृप्तिं यान्ति गङ्गाजलैः शुभैः // 36 तथोपजीविनां गङ्गा सर्वप्राणभृतामिह // 51 यस्तु सूर्येण निष्टतं गाङ्गेयं पिबते जलम् / देवाः सोमार्कसंस्थानि यथा सत्रादिभिर्मखैः / गवां निरिनिर्मुक्ताद्यावकात्तद्विशिष्यते // 37 अमृतान्युपजीवन्ति तथा गङ्गाजलं नराः // 52 इन्दुव्रतसहस्रं तु चरेद्यः कायशोधनम् / जाह्नवीपुलिनोत्थाभिः सिकताभिः समुक्षितः / पिबेद्यश्चापि गङ्गाम्भः समौ स्यातां न वा समौ // / मन्यते पुरुषोऽऽत्मानं दिविष्ठमिव शोभितम् // 53 तिष्ठेयुगसहस्रं तु पादेनैकेन यः पुमान् / जाह्नवीतीरसंभूतां मृदं मूर्धा बिभर्ति यः / मासमेकं तु गङ्गायां समौ स्यातां न वा समौ // बिभर्ति रूपं सोऽव.स्य तमोनाशात्सुनिर्मलम् // 54 लम्बेतावाक्शिरा यस्तु युगानामयुतं पुमान् / / गङ्गामिभिरथो दिग्धः पुरुषं पवनो यदा। - 2551 - Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 27. 55] महाभारते [18. 27. 82 स्पृशते सोऽपि पाप्मानं सद्य एवापमार्जति / / 55 आ देहपतनाद्गङ्गामुपास्ते यः पुमानिह // 70 व्यसनैरभितप्तस्य नरस्य विनशिष्यतः / गगनाद्यां महापुण्यां पतन्तीं वै महेश्वरः / गङ्गादर्शनजा प्रीतिर्व्यसनान्यपकर्षति / / 56 दधार शिरसा देवी तामेव दिवि सेवते // 71 हंसारावैः कोकरवै रवैरन्यैश्च पक्षिणाम् / अलंकृतास्त्रयो लोकाः पथिभिर्विमलैत्रिभिः / पस्पर्ध गङ्गा गन्धर्वान्पुलिनैश्च शिलोच्चयान् // 57 यस्तु तस्या जलं सेवेत्कृतकृत्यः पुमान्भवेत् // 72 हंसादिभिः सुबहुभिर्विविधैः पक्षिभिर्वृताम् / दिवि ज्योतिर्यथादित्यः पितॄणां चैव चन्द्रमाः / गङ्गां गोकुलसंबाधां दृष्ट्वा स्वर्गोऽपि विस्मृतः // 58 देवेशश्च यथा नृणां गङ्गेह सरितां तथा // 73 न सा प्रीतिर्दिविष्ठस्य सर्वकामानुपानतः / मात्रा पित्रा सुतैर्दारैर्वियुक्तस्य धनेन वा / अभवद्या परा प्रीतिगङ्गायाः पुलिने नृणाम् / / 59 न भवेद्धि तथा दुःखं यथा गङ्गावियोगजम् // 74 वाङ्मनःकर्मजैर्ग्रस्तः पापैरपि पुमानिह / नारण्यैर्नेष्टविषयैर्न सुतैन धनागमैः / / वीक्ष्य गङ्गां भवेत्पूतस्तत्र मे नास्ति संशयः // 60 तथा प्रसादो भवति गङ्गां वीक्ष्य यथा नृणाम् // सप्तावरान्सप्त परान्पितॄस्तेभ्यश्च ये परे / पूर्णमिन्दुं यथा दृष्ट्वा नृणां दृष्टिः प्रसीदति / पुमांस्तारयते गङ्गां वीक्ष्य स्पृष्ट्वावगाह्य च // 61 गङ्गां त्रिपथगां दृष्ट्वा तथा दृष्टिः प्रसीदति // 76 श्रुतामिलषिता दृष्टा स्पृष्टा पीतावगाहिता / तद्भावस्तद्गतमनास्तन्निष्टस्तत्परायणः / गङ्गा तारयते नृणामुभौ वंशौ विशेषतः // 62 गङ्गां योऽनुगतो भक्त्या स तस्याः प्रियतां व्रजेत् // दर्शनात्स्पर्शनात्पानात्तथा गङ्गेति कीर्तनात् / भूःस्थैः स्वस्थैर्दिविष्टैश्च भूतै रुच्चावचैरपि / पुनात्यपुण्यान्पुरुषाशतशोऽथ सहस्रशः // 63 गङ्गा विगाह्या सततमेतत्कार्यतमं सताम् // 78 य इच्छेत्सफलं जन्म जीवितं श्रुतमेव च / त्रिषु लोकेषु पुण्यत्वाद्ङ्गायाः प्रथितं यशः / स पितॄस्तर्पयेद्गङ्गामभिगम्य सुरांस्तथा // 64 यत्पुत्रान्सगरस्यैषा भस्माख्याननयहिवम् // 79 न सुतैर्न च वित्तेन कर्मणा न च तत्फलम् / वाय्वीरिताभिः सुमहास्वनाभिप्राप्नुयात्पुरुषोऽत्यन्तं गङ्गां प्राप्य यदाप्नुयात् / / 65 * द्रुताभिरत्यर्थसमुच्छ्रिताभिः / जात्यन्धैरिह तुल्यास्ते मृतैः पङ्गुभिरेव च / गङ्गोर्मिभिर्भानुमतीभिरिद्धः समर्था ये न पश्यन्ति गङ्गां पुण्यजलां शिवाम् / सहस्ररश्मिप्रतिमो विभाति // 80 . भूतभव्यभविष्यज्ञैर्महर्षिभिरुपस्थिताम् / पयस्विनीं घृतिनीमत्युदारां देवैः सेन्द्रैश्च को गङ्गां नोपसेवेत मानवः॥ 67 समृद्धिनी वेगिनी दुर्विगाह्याम् / वानप्रस्थैर्गृहस्थैश्च यतिभिर्ब्रह्मचारिभिः / गङ्गां गत्वा यैः शरीरं विसृष्टं विद्यावद्भिः श्रितां गङ्गां पुमान्को नाम नाश्रयेत् // ___गता धीरास्ते विबुधैः समत्वम् // 81 उत्क्रामद्भिश्च यः प्राणैः प्रयतः शिष्टसंमतः / / अन्धाञ्जडान्द्रव्यहीनांश्च गङ्गा चिन्तयेन्मनसा गङ्गां स गतिं परमां लभेत् // 69 यशस्विनी बृहती विश्वरूपा / न भयेभ्यो भयं तस्य न पापेभ्यो न राजतः। / देवैः सेन्र्मुनिभिर्मानवैश्च . --- 2552 -- Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 27. 82] अनुशासनपर्व [13. 27. 98 निषेविता सर्वकामैर्यनक्ति / / 82 गङ्गोक्षितानां भुवनस्य पन्थाः // 90 ऊर्जावती मधुमती महापुण्यां त्रिवम॑गाम् / क्षान्त्या मह्या गोपने धारणे च त्रिलोकगोत्रीं ये गङ्गां संश्रितास्ते दिवं गताः॥ ___दीप्त्या कृशानोस्तपनस्य चैव / यो वत्स्यति द्रक्ष्यति वापि मर्त्य- . तुल्या गङ्गा संमता ब्राह्मणानां ___ स्तस्मै प्रयच्छन्ति सुखानि देवाः। ___ गुहस्य ब्रह्मण्यतया च नित्यम् / / 91 तद्भाविताः स्पर्शने दर्शने य ऋषिष्टुतां विष्णुपदी पुराणी _ स्तस्मै देवा गतिमिष्टां दिशन्ति // 84 ___ सुपुण्यतोयां मनसापि लोके / दक्षां पृथ्वीं बृहतीं विप्रकृष्टां सर्वात्मना जाह्नवीं ये प्रपन्नाशिवामृतां सुरसां सुप्रसन्नाम् / / ___ स्ते ब्रह्मणः सदनं संप्रयाताः // 92 विभावरी सर्वभूतप्रतिष्ठां लोकानिमान्नयति या जननीव पुत्रागङ्गां गता ये त्रिदिवं गतास्ते // 85 ___ सर्वात्मना सर्वगुणोपपन्ना। ख्यातिर्यस्याः खं दिवं गां च नित्यं स्वस्थानमिष्टमिह ब्राह्ममभीप्समानपुरा दिशो विदिशश्चावतस्थे / गङ्गा सदैवात्मवशैरुपास्या // 93 तस्या जलं सेव्य सरिद्वराया उनां जुष्टां मिषतीं विश्वतोया- माः सर्वे कृतकृत्या भवन्ति // 86 मिरां वत्री रेवतीं भूधराणाम् / इयं गङ्गेति नियतं प्रतिष्ठा शिष्टाश्रयाममृतां ब्रह्मकान्तां गुहस्य रुक्मस्य च गर्भयोषा / गङ्गां श्रयेदात्मवान्सिद्धिकामः // 94 प्रातत्रिमार्गा घृतवहा विपाप्मा प्रसाद्य देवान्सविभून्समस्तागङ्गावतीर्णा वियतो विश्वतोया // 87 न्भगीरथस्तपसोग्रेण गङ्गाम् / सुतावनीध्रस्य हरस्य भार्या गामानयत्तामभिगम्य शश्वदिवो भुवश्चापि कक्ष्यानुरूपा / न्पुमान्भयं नेह नामुत्र विद्यात् // 95 भव्या पृथिव्या भाविनी भाति राज उदाहृतः सर्वथा ते गुणानां नगङ्गा लोकानां पुण्यदा वै त्रयाणाम् // 88 ____ मयैकदेशः प्रसमीक्ष्य बुद्ध्या / मधुप्रवाहा घृतरागोद्धृतामि शक्तिन मे काचिदिहास्ति वक्तुं महोर्मिभिः शोभिता ब्राह्मणैश्च / गुणान्सर्वान्परिमातुं तथैव // 96 दिवश्युता शिरसात्ता भवेन मेरोः समुद्रस्य च सर्वरत्नैः गङ्गावनीध्रात्रिदिवस्य माला // 89 संख्योपलानामुदकस्य वापि। योनिर्वरिष्ठा विरजा वितन्वी वक्तुं शक्यं नेह गङ्गाजलानां शुष्मा इरा वारिवहा यशोदा। गुणाख्यानं परिमातुं तथैव // 97 विश्वावती चाकृतिरिष्टिरिद्धा तस्मादिमान्परया श्रद्धयोक्ताप. मा. 320 -2553 - Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 27.98] महाभारते [ 18. 28. 15 न्गुणान्सञ्जिाह्नवीजांस्तथैव / गुणैः समुदितः सर्वैर्वयसा च समन्वितः / भजेद्वाचा मनसा कर्मणा च तस्माद्भवन्तं पृच्छामि धर्म धर्मभृतां वर // 1 भक्त्या युक्तः परया श्रद्धधानः // 98 क्षत्रियो यदि वा वैश्यः शूद्रो वा राजसत्तम / लोकानिमांस्त्रीन्यशसा वितत्य ब्राह्मण्यं प्राप्नुयात्केन तन्मे व्याख्यातुमर्हसि // 2 सिद्धि प्राप्य महतीं तां दुरापाम् / तपसा वा सुमहता कर्मणा वा श्रुतेन वा। गङ्गाकृतानचिरेणैव लोका ब्राह्मण्यमथ चेदिच्छेत्तन्मे ब्रूहि पितामह // 3 __ न्यथेष्टमिष्टान्विचरिष्यसि त्वम् // 99 भीष्म उवाच / तव मम च गुगैर्महानुभावा ब्राह्मण्यं तात दुष्प्रापं वर्णैः क्षत्रादिभित्रिभिः / जुषतु मतिं सततं स्वधर्मयुक्तैः / परं हि सर्वभूतानां स्थानमेतद्युधिष्ठिर // 4 अभिगतजनवत्सला हि गङ्गा बह्वीस्तु संसरन्योनीर्जायमानः पुनः पुनः / भजति युनक्ति सुखैश्च भक्तिमन्तम् // 100 / पर्याये तात कस्मिंश्चिद्राह्मणो नाम जायते // 5 भीष्म उवाच / अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / इति परममतिर्गुणाननेका मतङ्गस्य च संवादं गर्दभ्याश्च युधिष्ठिर // 6. शिलरतये त्रिपथानुयोगरूपान् / द्विजातेः कस्यचित्तात तुल्यवर्णः सुतः प्रभुः / बहुविधमनुशास्य तथ्यरूपा मतङ्गो नाम नाम्नाभूत्सर्वैः समुदितो गुणैः // 7 गगनतलं द्युतिमान्विवेश सिद्धः // 101 स यज्ञकारः कौन्तेय पित्रा सृष्टः परंतप / शिलवृत्तिस्तु सिद्धस्य वाक्यैः संबोधितस्तदा। प्रायागर्दभयुक्तेन रथेनेहाशुगामिना // 8 गङ्गामुपास्य विधिवत्सिद्धि प्राप्तः सुदुर्लभाम् // स बालं गर्दभं राजन्वहन्तं मातुरन्तिके / तस्मात्त्वमपि कौन्तेय भक्त्या परमया युतः। निरविध्यत्प्रतोदेन नासिकायां पुनः पुनः // 9 गङ्गामभ्येहि सततं प्राप्स्यसे सिद्धिमुत्तमाम् / / 103 तं तु तीव्रव्रणं दृष्ट्वा गर्दभी पुत्रगृद्धिनी / वैशंपायन उवाच / उवाच मा शुचः पुत्र चण्डालस्त्वाधितिष्ठति // 10 श्रुत्वेतिहासं भीष्मोक्तं गङ्गायाः स्तवसंयुतम् / ब्राह्मणे दारुणं नास्ति मैत्रो ब्राह्मण उच्यते / युधिष्ठिरः परां प्रीतिमगच्छद्भातृभिः सह // 104 आचार्यः सर्वभूतानां शास्ता किं प्रहरिष्यति / / 11 इतिहासमिमं पुण्यं शृणुयाद्यः पठेत वा। अयं तु पापप्रकृतिर्बाले न कुरुते दयाम् / गङ्गायाः स्तवसंयुक्तं स मुच्येत्सर्वकिल्बिषैः // स्वयोनि मानयत्येष भावो भावं निगच्छति // 12 इति श्रीमहाभारते अनुशासनतपर्वणि एतच्छ्रुत्वा मतङ्गस्तु दारुणं रासभीवचः / सप्तविंशतितमोऽध्यायः // 27 // अवतीर्य रथात्तर्ण रासभी प्रत्यभाषत // 13 बेहि रासभि कल्याणि माता मे येन दूषिता / युधिष्ठिर उवाच / कथं मां वेत्सि चण्डालं क्षिप्रं रासभि शंस मे // प्रज्ञाश्रुताभ्यां वृत्तेन शीलेन च यथा भवान्। / केन जातोऽस्मि चण्डालो ब्राह्मण्यं येन मेऽनशत् / --- 2554 - 28 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 28. 15 ] अनुशासनपर्व [ 18. 29. 13 29 तत्त्वेनैतन्महाप्राज्ञे ब्रूहि सर्वमशेषतः // 15 / चण्डालयोनौ जातेन न तत्प्राप्यं कथंचन // 28 गर्दभ्युवाच। इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि ब्राह्मण्यां वृषलेन त्वं मत्तायां नापितेन ह / अष्टाविंशोऽध्यायः // 28 // जातस्त्वमसि चण्डालो ब्राह्मण्यं तेन तेऽनशत् / / एवमुक्तो मतङ्गस्तु प्रत्युपायाद्गृहं प्रति / भीष्म उवाच / तमागतमभिप्रेक्ष्य पिता वाक्यमथाब्रवीत् // 17 एवमुक्तो मतङ्गस्तु संशितात्मा यतव्रतः / मया त्वं यज्ञसंसिद्धौ नियुक्तो गुरुकर्मणि / . अतिष्ठदेकपादेन वर्षाणां शतमच्युत // 1 कस्मात्प्रतिनिवृत्तोऽसि कच्चिन्न कुशलं तव // 18 तमुवाच ततः शक्रः पुनरेव महायशाः / मतङ्ग परमं स्थानं प्रार्थयन्नतिदुर्लभम् // 2 मतङ्ग उवाच / मा कृथाः साहसं पुत्र नैष धर्मपथस्तव / अयोनिरग्र्ययोनिर्वा यः स्यात्स कुशली भवेत् / अप्राप्यं प्रार्थयानो हि नचिराद्विनशिष्यसि // 3 कुशलं तु कुतस्तस्य यस्येयं जननी पितः // 19 मतङ्ग परमं स्थानं वार्यमाणो मया सकृत् / ब्राह्मण्यां वृषलाज्जातं पितर्वेदयतीह माम् / चिकीर्षस्येव तपसा सर्वथा न भविष्यसि // 4 अमानुषी गर्दभीयं तस्मात्तप्स्ये तपो महत् / / 20 तिर्यग्योनिगतः सर्वो मानुष्यं यदि गच्छति / एवमुक्त्वा स पितरं प्रतस्थे कृतनिश्चयः / स जायते पुल्कसो वा चण्डालो वा कदाचन // 5 ततो गत्वा महारण्यमतप्यत महत्तपः // 21 पुंश्चलः पापयोनिर्वा यः कश्चिदिह लक्ष्यते / ततः संतापयामास विबुधास्तपसान्वितः / स तस्यामेव सुचिरं मतङ्ग परिवर्तते // 6 मतङ्गः सुसुखं प्रेप्सुः स्थानं सुचरितादपि // 22 ततो दशगुणे काले लभते शूद्रतामपि / तं तथा तपसा युक्तमुवाच हरिवाहनः / शद्रयोनावपि ततो बहुशः परिवर्तते // 7 मतङ्ग तप्यसे किं त्वं भोगानुत्सृज्य मानुषान् // 23 ततत्रिंशद्गुणे काले लभते वैश्यतामपि / वरं ददानि ते हन्त वृणीष्व त्वं यदिच्छसि / वैश्यतायां चिरं कालं तत्रैव परिवर्तते // 8 यच्चाप्यवाप्यमन्यत्ते सर्व प्रब्रूहि माचिरम् // 24 ततः षष्टिगुणे काले राजन्यो नाम जायते / मतङ्ग उवाच / राजन्यत्वे चिरं कालं तत्रैव परिवर्तते // 9 ब्राह्मण्यं कामयानोऽहमिदमारब्धवांस्तपः / ततः षष्टिगुणे काले लभते ब्रह्मबन्धुताम् / गच्छेयं तदवाप्येह वर एष वृतो मया // 25 ब्रह्मबन्धुश्चिरं कालं तत्रैव परिवर्तते // 10 एतच्छ्रुत्वा तु वचनं तमुवाच पुरंदरः / ततस्तु द्विशते काले लभते काण्डपृष्ठताम् / ब्राह्मण्यं प्रार्थयानस्त्वमप्राप्यमकृतात्मभिः // 26 काण्डपृष्ठश्चिरं कालं तत्रैव परिवर्तते // 11 श्रेष्ठं यत्सर्वभूतेषु तपो यन्नातिवर्तते। ततस्तु त्रिशते काले लभते द्विजतामपि / सदग्र्यं प्रार्थयानस्त्वमचिराद्विनशिष्यसि / / 27 / तां च प्राप्य चिरं कालं तत्रैव परिवर्तते // 12 देवतासुरमत्र्येषु यत्पवित्रं परं स्मृतम् / ततश्चतुःशते काले श्रोत्रियो नाम जायते / - 2555 - Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 29. 13 ] महाभारते [ 13. 31. 4. श्रोत्रियत्वे चिरं कालं तत्रैव परिवर्तते // 13 / ब्राह्मण्यं यदि दुष्प्रापं त्रिभिवणैः शतक्रतो। तदैव क्रोधहाँ च कामद्वेषौ च पुत्रक। सुदुर्लभं तदावाप्य नानुतिष्ठन्ति मानवाः॥९ अतिमानातिवादौ तमाविशन्ति द्विजाधमम् // 14 यः पापेभ्यः पापतमस्तेषामधम एव सः। तांश्चेन्जयति शत्रून्स तदा प्राप्नोति सद्गतिम् / ब्राह्मण्यं योऽवजानीते धनं लब्ध्वेव दुर्लभम् // 10 भथ ते वै जयन्त्येनं तालाग्रादिव पात्यते // 15 हुष्प्रापं खलु विप्रत्वं प्राप्तं दुरनुपालनम् / मतङ्ग संप्रधायैतद्यदहं त्वामचूचुदम् / दुरवापमवाप्यैतन्नानुतिष्ठन्ति मानवाः // 11 वृणीष्व काममन्यं त्वं ब्राह्मण्यं हि सुदुर्लभम्॥१६ एकारामो ह्यहं शक्र निद्वंद्वो निष्परिग्रहः / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि अहिंसादमदानस्थः कथं नामि विप्रताम् // 1: एकोनत्रिंशोऽध्यायः // 29 // यथाकामविहारी स्यां कामरूपी विहंगमः / ब्रह्मक्षत्राविरोधेन पूजां च प्राप्नुयामहम् / . भीष्म उवाच / यथा ममाक्षया कीर्तिर्भवेच्चापि पुरंदर // 13 एवमुक्तो मतङ्गस्तु भृशं शोकपरायणः / इन्द्र उवाच / भतिष्ठत गयां गत्वा सोऽङ्गुष्ठेन शतं समाः // 1 छन्दोदेव इति ख्यातः स्त्रीणां पूज्यो भविष्यसि॥१४ सुदुष्करं वहन्योगं कशो धमनिसंततः / भीष्म उवाच / त्वगस्थिभूतो धर्मात्मा स पपातेति नः श्रुतम् // 2 एवं तस्मै वरं दत्त्वा वासवोऽन्तरधीयत। . . तं पतन्तमभिद्रुत्य परिजग्राह वासवः / प्राणांस्त्यत्वा मतङ्गोऽपि प्राप तत्स्थानमुत्तमम् // 15 वराणामीश्वरो दाता सर्वभूतहिते रतः / / 3 एवमेतत्परं स्थानं ब्राह्मण्यं नाम भारत / शक्र उवाच / तञ्च दुष्प्रापमिह वै महेन्द्रवचनं यथा // 16 मतङ्ग ब्राह्मणत्वं ते संवृतं परिपन्थिभिः / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि पूजयन्सुखमाप्नोति दुःखमाप्नोत्यपूजयन् // 4 -त्रिंशोऽध्यायः॥३०॥ ब्राह्मणे सर्वभूतानां योगक्षेमः समाहितः। ब्राह्मणेभ्योऽनुतृप्यन्ति पितरो देवतास्तथा // 5 युधिष्ठिर उवाच / ब्राह्मणः सर्वभूतानां मतङ्ग पर उच्यते / श्रुतं मे महदाख्यानमेतत्कुरुकुलोद्वह / ब्राह्मणः कुरुते तद्धि यथा यद्यच्च वाञ्छति // 6 सुदुष्प्रापं ब्रवीषि त्वं ब्राह्मण्यं वदतां वर // 1 बह्वीस्तु संसरन्योनीर्जायमानः पुनः पुनः / विश्वामित्रण च पुरा ब्राह्मण्यं प्राप्तमित्युत / पर्याये तात कस्मिंश्चिद्राह्मण्यमिह विन्दति // 7 श्रयते वदसे तच्च दुष्प्रापमिति सत्तम // 2 मतङ्ग उवाच / वीतहव्यश्च राजर्षिः श्रुतो मे विप्रतां गतः / किं मां तुदसि दुःखातं मृतं मारयसे च माम्। तदेव तावद्गाङ्गेय श्रोतुमिच्छाम्यहं विभो // 3 तं तु शोचामि यो लब्ध्वा ब्राह्मण्यं न बुभूषते // 8 / स केन कर्मणा प्राप्तो ब्राह्मण्यं राजसत्तम। . -2556 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 31. 4) अनुशासनपर्व [ 13 31. 38 वरेण तपसा वापि तन्मे व्याख्यातुमर्हसि // 4 | तत्र तं राजशार्दू निवसन्तं महीपतिम् / भीष्म उवाच। आगत्य हेहया भूयः पर्यधावन्त भारत // 19 शृणु राजन्यथा राजा वीतहव्यो महायशाः। स निष्पत्य ददौ युद्धं तेभ्यो राजा महाबलः / क्षत्रियः सन्पुनः प्राप्तो ब्राह्मण्यं लोकसत्कृतम् // 5 देवासुरसमं घोरं दिवोदासो महाद्युतिः // 20 मनोर्महात्मनस्तात प्रजाधर्मेण शासतः / स तु युद्धे महाराज दिनानां दशतीर्दश / बभूव पुत्रो धर्मात्मा शर्यातिरिति विश्रुतः // 6 हतवाहनभूयिष्ठस्ततो दैन्यमुपागमत् / / 21 तस्यान्ववाये द्वौ राजनराजानौ संबभूवतुः। हतयोधस्ततो राजन्क्षीणकोशश्च भूमिपः / हेहयस्तालजवश्व वत्सेषु जयतां वर / / 7 दिवोदासः पुरी हित्वा पलायनपरोऽभवत् / / 22 हेयस्य तु पुत्राणां दशसु स्त्रीषु भारत। . स त्वाश्रममुपागम्य भरद्वाजस्य धीमतः / शतं बभूव प्रख्यातं शूराणामनिवर्तिनाम् // 8 जगाम शरणं राजा कृताञ्जलिररिंदम / / 23 तुल्यरूपप्रभावाणां विदुषां युद्धशालिनाम् / राजोवाच / धनुर्वेदे च वेदे च सर्वत्रैव कृतश्रमाः // 9 भगवन्वैतहव्यमें युद्धे वंशः प्रणाशितः / काशिष्वपि नृपो राजन्दिवोदासपितामहः / अहमेकः परिघुनो भवन्तं शरणं गतः / / 24 हर्यश्व इति विख्यातो बभूव जयतां वरः / / 10 शिष्यस्नेहेन भगवन्स मां रक्षितुमईसि / स बीतहव्यदायादैरागत्य पुरुषर्षभ / निःशेषो हि कृतो वंशो मम तैः पापकर्मभिः॥२५ गङ्गायमुनयोर्मध्ये संग्रामे विनिपातितः // 11 तमुवाच महाभागो भरद्वाजः प्रतापवान् / तंतु हत्वा नरवरं हेहयास्ते महारथाः। न भेतव्यं न भेतव्यं सौदेव व्येतु ते भयम् // 26 प्रतिजग्मुः पुरी रम्यां वत्सानामकुतोभयाः // 12 अहमिष्टिं करोम्यद्य पुत्रार्थं ते विशां पते / हर्यश्वस्य तु दायादः काशिराजोऽभ्यपिच्यत / वैतहव्यसहस्राणि यथा त्वं प्रसहिष्यसि // 27 सुदेवो देवसंकाशः साक्षाद्धर्म इवापरः // 13 ततः इष्टिं चकारर्पिस्तस्य वै पुत्रकामिकीम् / स पालयन्नेव महीं धर्मात्मा काशिनन्दनः। अथास्य तनयो जज्ञे प्रतर्दन इति श्रुतः / / 28 तैर्वीतहव्यैरागत्य युधि सवैर्विनिर्जितः // 14 स जातमात्रो ववृधे समाः सद्यस्त्रयोदश / तमप्याजौ विनिर्जित्य प्रतिजग्मुर्यथागतम् / वेदं चाधिजगे कृत्स्नं धनुर्वेदं च भारत // 29 सौदेविस्त्वथ काशीशो दिवोदासोऽभ्यषिच्यत॥१५ योगेन च समाविष्टो भरद्वाजेन धीमता / दिवोदासस्तु विज्ञाय वीर्यं तेषां महात्मनाम् / तेजो लौक्यं स संगृह्य तस्मिन्देशे समाविशत् // वाराणसी महातेजा निर्ममे शक्रशासनात् // 16 ततः स कवची धन्वी बाणी दीप्त इवानलः / विप्रक्षत्रियसंबाधां वैश्यशूद्रसमाकुलाम् / प्रययौ स धनुर्धन्वन्विवर्षरिव तोयदः // 31 नैकद्रव्योच्चयवतीं समृद्धविपणापणाम् / / 17 तं दृष्ट्वा परमं हर्ष सुदेवतनयो ययौ / गङ्गायां उत्तरे कूले वप्रान्ते राजसत्तम / मेने च मनसा दग्धान्वैतहव्यान्स पार्थिवः // 32 गोमत्या दक्षिणे चैव शक्रस्येवामरावतीम् // 18 / ततस्तं यौवराज्येन स्थापयित्वा प्रतर्दनम् / -2557 - Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 31. 33] महाभारते [13. 31. 62 कृतकृत्यं तदात्मानं स राजा अभ्यनन्दत // 33 उत्सादितश्च विषयः काशीनां रत्नसंचयः // 47 ततस्तु वैतहव्यानां वधाय स महीपतिः / एतस्य वीर्यदृप्तस्य हतं पुत्रशतं मया। पुत्रं प्रस्थापयामास प्रतर्दनमरिंदमम् // 34 अस्येदानी वधाद्ब्रह्मन्भविष्याम्यनृणः पितुः // 48 सरथः स त संतीय गङ्गामाश पराक्रमी। तमुवाच कृपाविष्टो भृगुर्धर्मभृतां वरः। प्रययौ वीतहव्यानां पुरी परपुरंजयः // 35 नेहास्ति क्षत्रियः कश्चित्सर्वे हीमे द्विजातयः // 49 वैतहव्यास्तु संश्रुत्य रथघोषं समुद्धतम् / एवं तु वचनं श्रुत्वा भृगोस्तथ्यं प्रतर्दनः / निर्ययुनगराकारैः स्थैः पररथारुजैः // 36 पादावुपस्पृश्य शनैः प्रहसन्वाक्यमब्रवीत् // 50 निष्क्रम्य ते तरव्याघ्रा दंशिताश्चित्रयोधिनः / एवमप्यस्मि भगवन्कृतकृत्यो न संशयः / प्रतर्दनं समाजनुः शरवर्षेरुदायुधाः // 37 यदेष राजा वीर्येण स्वजातिं त्याजितो मया // 51 अझैश्च विविधाकारै रथौघैश्च युधिष्ठिर / अनुजानीहि मां ब्रह्मन्ध्यायस्वं च शिवेन माम् / अभ्यवर्षन्त राजानं हिमवन्तमिवाम्बुदाः // 38 त्याजितो हि मया जातिमेष राजा भृगूद्वह // 52 अस्त्रैरस्राणि संवार्य तेषां राजा प्रतर्दनः / ततस्तेनाभ्यनुज्ञातो ययौ राजा प्रतर्दनः / जघान तान्महातेजा वज्रानलसमैः शरैः // 39 यथागतं महाराज मुक्त्वा विषमिवोरगः // 53 कृत्तोत्तमाङ्गास्ते राजन्भल्लैः शतसहस्रशः / भृगोर्वचनमात्रेण स च ब्रह्मर्षितां गतः / अपतन्रुधिरार्द्राङ्गा निकृत्ता इव किंशुकाः // 40 वीतहव्यो महाराज. ब्रह्मवादित्वमेव च // 54 हतेषु तेषु सर्वेषु वीतहव्यः सुतेष्वथ / तस्य गृत्समदः पुत्रो रूपेणेन्द्र इवापरः / प्राद्रवन्नगरं हित्वा भृगोराश्रममप्युत // 41 शक्रस्त्वमिति यो दैत्यैर्निगृहीतः किलाभवत् // 55 ययौ भृगुं च शरणं वीतहव्यो नराधिपः / ऋग्वेदे वर्तते चाग्र्या श्रुतिरत्र विशां पते। अभयं च ददौ तस्मै राज्ञे राजन्भृगुस्तथा। यत्र गृत्समदो ब्रह्मन्ब्राह्मणैः स महीयते // 56 ततो ददावासनं च तस्मै शिष्यो भृगोस्तदा // 42 स ब्रह्मचारी विप्रर्षिः श्रीमान्गृत्समदोऽभवत् / अथानुपदमेवाशु तत्रागच्छत्प्रतर्दनः। पुत्रो गृत्समदस्यापि सुचेता अभवद्विजः // 57 स प्राप्य चाश्रमपदं दिवोदासात्मजोऽब्रवीत् // 43 वर्चाः सुतेजसः पुत्रो विहव्यस्तस्य चात्मजः / भो भो केऽत्राश्रमे सन्ति भृगोः शिष्या महात्मनः / विहव्यस्य तु पुत्रस्तु वितत्यस्तस्य चात्मजः // 58 द्रष्टुमिच्छे मुनिमहं तस्याचक्षत मामिति // 44 वितत्यस्य सुतः सत्यः सन्तः सत्यस्य चात्मजः / स तं विदित्वा तु भृगुर्निश्चक्रामाश्रमात्तदा / श्रवास्तस्य सुतश्चर्षिः श्रवसश्चाभवत्तमः // 59 पूजयामास च ततो विधिना परमेण ह // 45 तमसश्च प्रकाशोऽभूत्तनयो द्विजसत्तमः / उवाच चैनं राजेन्द्र किं कार्यमिति पार्थिवम् / प्रकाशस्य च वागिन्द्रो बभूव जयतां वरः // 60 स चोवाच नृपस्तस्मै यदागमनकारणम् // 46 तस्यात्मजश्च प्रमतिर्वेदवेदाङ्गपारगः / अयं ब्रह्मन्नितो राजा वीतहव्यो विसयंताम् / / घृताच्यां तस्य पुत्रस्तु रुरुर्नामोदपद्यत // 61 अस्य पुत्रैर्हि मे ब्रह्मन्कृत्स्नो वंशः प्रणाशितः। प्रमद्वरायां तु रुरोः पुत्रः समुदपद्यत / . -2558 - Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 31. 62] अनुशासनपर्व [13. 32. 24 शुनको नाम विप्रर्षिर्यस्य पुत्रोऽथ शौनकः // 62 सम्यग्ददति ये चेष्टान्क्षान्ता दान्ता जितेन्द्रियाः। एवं विप्रत्वमगमद्वीतहव्यो नराधिपः / सस्यं धनं क्षितिं गाश्च तान्नमस्यामि यादव // 10 भृगोः प्रसादाद्राजेन्द्र क्षत्रियः क्षत्रियर्षभ // 63 ये ते तपसि वर्तन्ते वने मूलफलाशनाः / तथैव कथितो वंशो मया गासमदस्तव / असंचयाः क्रियावन्तस्तान्नमस्यामि यादव // 11 विस्तरेण महाराज किमन्यदनुपृच्छसि // 64 ये भृत्यभरणे सक्ताः सततं चातिथिप्रियाः। इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि भुञ्जन्ते देवशेषाणि तान्नमस्यामि यादव // 12 एकत्रिंशत्तमोऽध्यायः // 31 // ये वेदं प्राप्य दुर्धर्षा वाग्मिनो ब्रह्मवादिनः / 32 . याजनाध्यापने युक्ता नित्यं तान्पूजयाम्यहम् // 13 युधिष्ठिर उवाच / प्रसन्नहृदयाश्चैव सर्वसत्त्वेषु नित्यशः / के पूज्याः के नमस्कार्या मानवैर्भरतर्षभ। आ पृष्ठतापात्स्वाध्याये युक्तास्तान्पूजयाम्यहम्॥१४ विस्तरेण तदाचक्ष्व न हि तृप्यामि कथ्यताम् // 1 गुरुप्रसादे स्वाध्याये यतन्ते ये स्थिरव्रताः / भीष्म उवाच / शुश्रूषवोऽनसूयन्तस्तान्नमस्यामि यादव // 15 सुव्रता मुनयो ये च ब्रह्मण्याः सत्यसंगराः / अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / वोढारो हव्यकव्यानां तान्नमस्यामि यादव // 16 नारदस्य च संवादं वासुदेवस्य चोभयोः // 2 भैक्ष्यचर्यासु निरताः कृशा गुरुकुलाश्रयाः / नारदं प्राञ्जलिं दृष्ट्वा पूजयानं द्विजर्षभान / निःसुखा निर्धना ये च तान्नमस्यामि यादव॥१७ केशवः परिपप्रच्छ भगवन्कान्नमस्यसि // 3 निर्ममा निष्प्रतिद्वंद्वा निटका निष्प्रयोजनाः / बहुमानः परः केषु भवतो यान्नमस्यसि / अहिंसानिरता ये च ये च सत्यव्रता नराः / शक्यं चेच्छ्रोतुमिच्छामि ब्रह्येतद्धर्मवित्तम // 4 दान्ताः शमपराश्चैव तान्नमस्यामि केशव // 18 .. नारद उवाच / देवतातिथिपूजायां प्रसक्ता गृहमेधिनः / शृणु गोविन्द यानेतान्पूजयाम्यरिमर्दन / कपोतवृत्तयो नित्यं तान्नमस्यामि यादव // 19 त्वत्तोऽन्यः कः पुमाल्लोके श्रोतुमेतदिहार्हति // 5 | येषां त्रिवर्गः कृत्येषु वर्तते नोपहीयते / वरुणं वायुमादित्यं पर्जन्यं जातवेदसम् / शिष्टाचारप्रवृत्ताश्च तान्नमस्याम्यहं सदा // 20 स्थाणुं स्कन्दं तथा लक्ष्मी विष्णुं ब्रह्माणमेव च // 6 ब्राह्मणास्त्रिषु लोकेषु ये त्रिवर्गमनुष्ठिताः / वाचस्पतिं चन्द्रमसमपः पृथ्वी सरस्वतीम् / अलोलुपाः पुण्यशीलास्तान्नमस्यामि केशव // 21 सततं ये नमस्यन्ति तान्नमस्याम्यहं विभो // 7 अब्भक्षा वायुभक्षाश्च सुधाभक्षाश्च ये सदा / तपोधनान्वेदविदो नित्यं वेदपरायणान् / व्रतैश्च विविधैर्युक्तास्तान्नमस्यामि माधव // 22 महान्वृिष्णिशार्दूल सदा संपूजयाम्यहम् // 8 अयोनीनग्नियोनींश्च ब्रह्मयोनीस्तथैव च / अभुक्त्वा देवकार्याणि कुर्वते येऽविकत्थनाः / सर्वभूतात्मयोनींश्च तान्नमस्याम्यहं द्विजान् // 23 संतुष्टाश्च क्षमायुक्तास्तान्नमस्याम्यहं विभो // 9 / नित्यमेतान्नमस्यामि कृष्ण लोककरानृषीन् / -2559 - Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. 32. 24 ] महाभारते [ 18. 33. 17 लोकज्येष्ठाञ्ज्ञाननिष्ठांस्तमोनाल्लोकभास्करान्॥२४ / पौरजानपदांश्चापि ब्राह्मणांश्च बहुश्रुतान् / तस्मात्त्वमपि वार्ष्णेय द्विजान्पूजय नित्यदा।। सान्त्वेन भोगदानेन नमस्कारैस्तथार्चयेत् // 3 पूजिताः पूजनार्हा हि सुखं दास्यन्ति तेऽनघ // 25 एतत्कृत्यतमं राज्ञो नित्यमेवेति लक्षयेत्। अस्मिल्लोके सदा ह्येते परत्र च सुखप्रदाः। यथात्मानं यथा पुत्रांस्तथैतान्परिपालयेत् // 4 त एते मान्यमाना वै प्रदास्यन्ति सुखं तव // 26 ये चाप्येषां पूज्यतमास्तान्दृढं प्रतिपूजयेत् / ये सर्वातिथयो नित्यं गोषु च ब्राह्मणेषु च / / तेषु शान्तेषु तद्राष्ट्र सर्वमेव विराजते // 5 नित्यं सत्ये च निरता दुर्गाण्यतितरन्ति ते // 27 ते पूज्यास्ते नमस्कार्यास्ते रक्ष्याः पितरो यथा। नित्यं शमपरा ये च तथा ये चानसूयकाः / / तेष्वेव यात्रा लोकस्य भूतानामिव वासवे // 6 नित्यं स्वाध्यायिनो ये च दुर्गाण्यतितरन्ति ते॥२८ अभिचारैरुपायैश्च दहेयुरपि तेजसा। सर्वान्देवान्नमस्यन्ति ये चैकं देवमाश्रिताः / निःशेषं कुपिताः कुर्युरुप्राः सत्यपराक्रमाः // 7 अधानाश्च दान्ताश्च दुर्गाण्यतितरन्ति ते // 29 नान्तमेषां प्रपश्यामि न दिशश्चाप्यपावृताः / तथैव विप्रप्रवरान्नमस्कृत्य यतव्रतान् / कुपिताः समुदीक्षन्ते दावेष्वग्निशिखा इव // 8 भवन्ति ये दानरता दुर्गाण्यतितरन्ति ते // 30 विद्यन्तेषां साहसिका गुणास्तेषामतीव हि। अग्नीनाधाय विधिवत्प्रयता धारयन्ति ये / कृपा इव तृणच्छन्ना विशुद्धा द्यौरिवापरे // 9 प्राप्ताः सोमाहुतिं चैव दुर्गाण्यतितरन्ति ते // 31 प्रसह्यकारिणः केचित्कार्पासमृदवोऽपरे / मातापित्रोणुरुषु च सम्यग्वर्तन्ति ये सदा।। सन्ति चैषामतिशठास्तथान्येऽतितपस्विनः // 10 यथा त्वं वृष्णिशार्दूलेत्युक्त्वैवं विरराम सः // 32 कृषिगोरक्ष्यमप्यन्ये भक्षमन्येऽप्यनुष्ठिताः / तस्मात्त्वमपि कौन्तेय पितृदेवद्विजातिथीन् / चोराश्चान्येऽनृताश्चान्ये तथान्ये नटनर्तकाः // 11 सम्यक्पूजय येन त्वं गतिमिष्टामवाप्स्यसि // 33 सर्वकर्मसु दृश्यन्ते प्रशान्तेष्वितरेषु च / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि विविधाचारयुक्ताश्च ब्राह्मणा भरतर्षभ / / 12 द्वात्रिंशत्तमोऽध्यायः // 32 // नानाकर्मसु युक्तानां बटुकर्मोपजीविनाम् / धर्मज्ञानां सतां तेषां नित्यमेवानुकीर्तयेत् / / 13 पितॄणां देवतानां च मनुष्योरगरक्षसाम् / . युधिष्ठिर उवाच। पुरोहिता महाभागा ब्राह्मणा वै नराधिप // 14 किं राज्ञः सर्वकृत्यानां गरीयः स्यात्पितामह / नैते देवैन पितृभिन गन्धर्वैन राक्षसैः / किं कुर्वन्कर्म नृपतिरुभौ लोकौ समभुते // 1 नासुरैर्न पिशाचैश्च शक्या जेतुं द्विजातयः / / 15 भीष्म उवाच / अदैवं दैवतं कुर्युदैवतं चाप्यदैवतम् / एतद्राज्ञः कृत्यतममभिषिक्तस्य भारत / यमिच्छेयुः स राजा स्याद्यं द्विष्णुः स पराभवेत् // ब्राह्मणानामनुष्ठानमत्यन्तं सुखमिच्छता।। परिवादं च ये कुर्युर्ब्राह्मणानामचेतसः / श्रोत्रियान्ब्राह्मणान्वृद्धान्नित्यमेवाभिपूजयेत् // 2 निन्दाप्रशंसाकुशलाः कीर्त्यकीर्तिपरावराः / - 2560 - Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 33. 17] अनुशासनपर्व [ 13. 34. 19 परिकुप्यन्ति ते राजन्सततं द्विषतां द्विजाः / / 17 ब्राह्मणेभ्यो हविर्दत्तं प्रतिगृह्णन्ति देवताः। ब्राह्मणा ये प्रशंसन्ति पुरुषः स प्रवर्धते / पितरः सर्वभूतानां नैतेभ्यो विद्यते परम् // 5 ब्राह्मणेयः पराक्रुष्टः पराभूयात्क्षणाद्धि सः / / 18 आदित्यश्चन्द्रमा वायुभूमिरापोऽम्बरं दिशः / शका यवनकाम्बोजास्तास्ताः क्षात्रेयजातयः / सर्वे ब्राह्मणमाविश्य सदान्नमुपभुञ्जते // 6 वृषलत्वं परिगता ब्राह्मणानामदर्शनात् / / 15 न तस्याश्नन्ति पितरो यस्य विप्रा न भुञ्जते / मिळाश्च कलिङ्गाश्च पुलिन्दाश्चाप्युशीनराः / देवाश्चाप्यस्य नाश्नन्ति पापस्य ब्राह्मणद्विषः // 7 कौलाः सर्पा माहिषकास्तास्ताः क्षत्रियजातयः॥२० ब्राह्मणेषु तु तुष्टेषु प्रीयन्ते पितरः सदा / वृषलत्वं परिगता ब्राह्मणानामदर्शनात् / तथैव देवता राजन्नात्र कार्या विचारणा // 8 श्रेयान्पराजयस्तेभ्यो न जयो जयतां वर / / 21 तथैव तेऽपि प्रीयन्ते येषां भवति तद्धविः / यस्तु सर्वमिदं हन्याद्ब्राह्मणं च न तत्समम / न च प्रेत्य विनश्यन्ति गच्छन्ति परमां गतिम्॥९ ब्रह्मवध्या महान्दोष इत्याहुः परमर्षयः // 22 / येन येनैव हविषा ब्राह्मणांस्तर्पयेन्नरः / परिवादो द्विजातीनां न श्रोतव्यः कथंचन / तेन तेनैव प्रीयन्ते पितरो देवतास्तथा / / 10 आसीताधोमुखस्तूष्णीं समुत्थाय व्रजेत वा / / 23 ब्राह्मणादेव तद्भूतं प्रभवन्ति यतः प्रजाः। न स जातो जनिष्यो वा पृथिव्यामिह कश्चन / यतश्चायं प्रभवति प्रेत्य यत्र च गच्छति // 11 यो ब्राह्मणविरोधेन सुखं जीवितुमुत्सहेत् // 24 वेदेष मार्ग स्वर्गस्य तथैव नरकस्य च / दुर्ग्रहो मुष्टिना वायुर्दुःस्पर्शः पाणिना शशी / आगतानागते चोभे ब्राह्मणो द्विपदां वरः / दुर्धरा पृथिवी मूळ दुर्जया ब्राह्मणा भुवि / / 25 ब्राह्मणो भरतश्रेष्ठ स्वधर्म वेद मेधया // 12 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि ये चैनमनुवर्तन्ते ते न यान्ति पराभवम् / त्रयस्त्रिंशत्तमोऽध्यायः // 33 / / न ते प्रेत्य विनश्यन्ति गच्छन्ति न पराभवम् // 34 ये ब्राह्मणमुखात्प्राप्तं प्रतिगृह्णन्ति वै वचः / भीष्म उवाच / कृतात्मानो महात्मानस्ते न यान्ति पराभवम् // 14 ब्राह्मणानेव सततं भृशं संप्रतिपूजयेत् / क्षत्रियाणां प्रतपतां तेजसा च बलेन च / एते हि सोमराजान ईश्वराः सुखदुःखयोः // 1 ब्राह्मणेष्वेव शाम्यन्ति तेजांसि च बलानि च // 15 एते भोगैरलंकारैरन्यैश्चैव किमिच्छकैः। भृगधोऽजयंस्तालजङ्घान्नीपानङ्गिरसोऽजयन् / सदा पूज्या नमस्कार्या रक्ष्याश्च पितृवन्नृपैः / / भरद्वाजो वैतहव्यानैलांश्च भरतर्षभ // 16 अतो राष्ट्रस्य शान्तिर्हि भूतानामिव वासवात् // 2 . चित्रायुधांश्चाप्यजयन्नेते कृष्णाजिनध्वजाः / जायतां ब्रह्मवर्चस्वी राष्ट्र वै ब्राह्मणः शुचिः। प्रक्षिप्याथ च कुम्भान्वै पारगामिनमारभेत् // 17 महारथश्च राजन्य एष्टव्यः शत्रुतापनः // 3 यत्किंचित्कथ्यते लोके श्रूयते पश्यतेऽपि वा। ब्राह्मणं जातिसंपन्नं धर्मज्ञं संशितव्रतम् / सर्व तद्ब्राह्मणेष्वेव गूढोऽग्निरिव दारुषु // 18 वासयेत गृहे राजन्न तस्मात्परमस्ति वे // 4 / अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / म.भा. 121 -2561 - Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 34. 19 ] महाभारते [ 18. 35. 16 संवादं वासुदेवस्य पृथ्व्याश्च भरतर्षभ // 19 सर्वान्नः सुहृदस्तात ब्राह्मणाः सुमनोमुखाः / वासुदेव उवाच / गीर्भिर्मङ्गलयुक्ताभिरनुध्यायन्ति पूजिताः // 2. मातरं सर्वभूतानां पृच्छे त्वा संशयं शुभे / सर्वानो द्विषतस्तात ब्राह्मणा जातमन्यवः / केनस्वित्कर्मणा पापं व्यपोहति नरो गृही // 20 गीर्भिरणयुक्ताभिरभिहन्युरपूजिताः॥ 3 अत्र गाथा ब्रह्मगीताः कीर्तयन्ति पुराविदः / पृथिव्युवाच / सष्ट्या द्विजातीन्धाता हि यथापूर्व समादधत् // 4 ब्राह्मणानेव सेवेत पवित्रं ह्येतदुत्तमम् / न वोऽन्यदिह कर्तव्यं किंचिदूर्ध्वं यथाविधि / ब्राह्मणान्सेवमानस्य रजः सर्व प्रणश्यति // 21 गुप्ता गोपायत ब्रह्म श्रेयो वस्तेन शोभनम् // 5 अतो भूतिरतः कीर्तिरतो बुद्धिः प्रजायते / स्वमेव कुर्वतां कर्म श्रीर्वो ब्राह्मी भविष्यति / अपरेषां परेषां च परेभ्यश्चैव ये परे // 22 प्रमाणं सर्वभूतानां प्रग्रहं च गमिष्यथ // .6 ब्राह्मणा यं प्रशंसन्ति पुरुषः स प्रवर्धते / न शौद्रं कर्म कर्तव्यं ब्राह्मणेन विपश्चिता / अथ यो ब्राह्मणाक्रुष्टः पराभवति सोऽचिरात् / / 23 शौद्रं हि कुर्वतः कर्म धर्मः समुपरुध्यते // 7 यथा महार्णवे क्षिप्त आमलोष्टो विनश्यति / श्रीश्च बुद्धिश्च तेजश्च विभूतिश्च प्रतापिनी / तथा दुश्चरितं कर्म पराभावाय कल्पते / / 24 स्वाध्यायेनैव माहात्म्यं विमलं प्रतिपत्स्यथ // 8 पश्य चन्द्रे कृतं लक्ष्म समुद्रे लवणोदकम् / हुत्वा चाहवनीयस्थं महाभाग्ये प्रतिष्ठिताः / . तथा भगसहस्रेण महेन्द्रं परिचिह्नितम् // 25 अग्रभोज्याः प्रसूतीनां श्रिया ब्रायानुकल्पिताः / / तेषामेव प्रभावेन सहस्रनयनो ह्यसौ / श्रद्धया परया युक्ता ह्यनभिद्रोहलब्धया / शतक्रतुः समभवत्पश्य माधव यादृशम् // 26 दमस्वाध्यायनिरताः सर्वान्कामानवाप्स्यथ / / 10 इच्छन्भूतिं च कीर्ति च लोकांश्च मधुसूदन / यञ्चैव मानुषे लोके यच्च देवेषु किंचन / ब्राह्मणानुमते तिष्ठेत्पुरुषः शुचिरात्मवान् / / 27 सर्वं तत्तपसा साध्यं ज्ञानेन विनयेन च // 11 इत्येतद्वचनं श्रुत्वा मेदिन्या मधुसूदनः / इत्येता ब्रह्मगीतास्ते समाख्याता मयानघ / साधु साध्वित्यथेत्युक्त्वा मेदिनी प्रत्यपूजयत् / / 28 विप्रानुकम्पार्थमिदं तेन प्रोक्तं हि धीमता // 12 एतां श्रुत्वोपमां पार्थ प्रयतो ब्राह्मणर्षभान् / भूयस्तेषां बलं मन्ये यथा राज्ञस्तपस्विनः। . सततं पूजयेथास्त्वं ततः श्रेयोऽभिपत्स्यसे // 29 दुरासदाश्च चण्डाश्च रभसाः क्षिप्रकारिणः // 13 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि सन्त्येषां सिंहसत्त्वाश्च व्याघ्रसत्त्वास्तथापरे / चतुस्त्रिंशत्तमोऽध्यायः॥३४॥ वराहमृगसत्त्वाश्च गजसत्त्वास्तथापरे / / 14 कर्पासमृदवः केचित्तथान्ये मकरस्पृशः / भीष्म उवाच / विभाध्यघातिनः केचित्तथा चक्षुहणोऽपरे // 15 जन्मनैव महाभागो ब्राह्मणो नाम जायते / सन्ति चाशीविषनिभाः सन्ति मन्दास्तथापरे / नमस्यः सर्वभूतानामतिथिः प्रसृताग्रभुक् // 1 विविधानीह वृत्तानि ब्राह्मणानां युधिष्ठिर // 16 - 2562 - Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 35. 17 ] अनुशासनपर्व [ 13, 36. 19 मेकला द्रमिडाः काशाः पौण्ड्राः कोल्लगिरास्तथा / ते विश्रब्धाः प्रभाषन्ते संयच्छन्ति च मां सदा / शौण्डिका दरदा दर्वाश्चौराः शबरबर्बराः // 17 प्रमत्तेष्वप्रमत्तोऽस्मि सदा सुप्तेषु जागृमि // 6 किराता यवनाश्चैव तास्ता क्षत्रियजातयः / ते मा शास्त्रपथे युक्तं ब्रह्मण्यमनसूयकम् / वृषलत्वमनुप्राप्ता ब्राह्मणानामदर्शनात् // 18 समासिञ्चन्ति शास्तारः क्षौद्रं मध्विव मक्षिकाः / / ब्राह्मणानां परिभवादसुराः सलिलेशयाः / यच्च भाषन्ति ते तुष्टास्तत्तद्गृह्नामि मेधया / ब्राह्मणानां प्रसादाच्च देवाः स्वर्गनिवासिनः // 19 समाधिमात्मनो नित्यमनुलोममचिन्तयन् // 8 अशक्यं स्प्रष्टुमाकाशभचाल्यो हिमवान्गिरिः / / | सोऽहं वागग्रसृष्टानां रसानामवलेहकः / अवार्या सेतुना गङ्गा दुर्जया ब्राह्मणा भुवि / / 20 स्वजात्यानधितिष्ठामि नक्षत्राणीव चन्द्रमाः // 9 न ब्राह्मणविरोधेन शक्या शास्तुं वसुंधरा। एतत्पृथिव्याममृतमेतच्चक्षुरनुत्तमम् / ब्राह्मणा हि महात्मानो देवानामपि देवताः // 21 यद्ब्राह्मणमुखाच्छास्त्रमिह श्रुत्वा प्रवर्तते // 10 तान्पूजयस्व सततं दानेन परिचर्यया / एतत्कारणमाज्ञाय दृष्ट्वा देवासुरं पुरा / यदीच्छसि महीं भोक्तुमिमां सागरमेखलाम् / / 22 युद्धं पिता मे हृष्टात्मा विस्मितः प्रत्यपद्यत / / 11 प्रतिग्रहेण तेजो हि विप्राणां शाम्यतेऽनघ / दृष्ट्वा च ब्राह्मणानां तु महिमानं महात्मनाम् / प्रतिग्रहं ये नेच्छेयुस्तेऽपि रक्ष्यास्त्वयानघ / / 23 पर्यपृच्छत्कथमिमे सिद्धा इति निशाकरम् // 12 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि सोम उवाच / पञ्चत्रिंशत्तमोऽध्यायः // 35 // ब्राह्मणास्तपसा सर्वे सिध्यन्ते वाग्बलाः सदा / भुजवीर्या हि राजानो वागस्नाश्च द्विजातयः // 13 भीष्म उवाच / प्रवसन्वाप्यधीयीत बहीर्दुर्वसतीर्वसन् / अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / निर्मन्युरपि निर्मानो यतिः स्यात्समदर्शनः // 14 शक्रशम्बरसंवादं तन्निबोध युधिष्ठिर / / 1 अपि चेजातिसंपन्नः सर्वान्वेदान्पितुहे / शक्रो ह्यज्ञातरूपेण जटी भूत्वा रजोरुणः / श्लाघमान इवाधीयेदाम्य इत्येव तं विदुः // 15 विरूपं रूपमास्थाय प्रश्नं पप्रच्छ शम्बरम् / / 2 / भूमिरेतौ निगिरति सर्पो बिलशयानिव / केन शम्बर वृत्तेन स्वजात्यानधितिष्ठसि / राजानं चाप्ययोद्धारं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम् // 16 श्रेष्ठं त्वां केन मन्यन्ते तन्मे प्रब्रूहि पृच्छतः / / 3 अतिमानः श्रियं हन्ति पुरुषस्याल्पमेधसः / शम्बर उवाच / गर्भेण दुष्यते कन्या गृहवासेन च द्विजः // 17 नासूयामि सदा विप्रान्ब्रह्माणं च पितामहम् / / इत्येतन्मे पिता श्रुत्वा सोमादद्भुतदर्शनात् / शास्त्राणि वदतो विप्रान्संमन्यामि यथासुखम् // 4 ब्राह्मणान्पूजयामास तथैवाहं महाव्रतान् // 18 श्रुत्वा च नावजानामि नापराध्यामि कर्हि चित् / भीष्म उवाच / अभ्याननुपृच्छामि पादौ गृह्णामि धीमताम् // 5. श्रुत्वैतद्वचनं शक्रो दानवेन्द्रमुखाच्च्युतम् / - 2563 - Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 36. 19 ] महाभारते [ 13. 38.4 द्विजान्संपूजयामास महेन्द्रत्वमवाप च // 19 सर्वत्र चानवस्थानमेतन्नाशनमात्मनः // 11 .. इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि भवेत्पण्डितमानी यो ब्राह्मणो वेदनिन्दकः / षट्त्रिंशत्तमोऽध्यायः // 36 // आन्वीक्षिकी तर्कविद्यामनुरक्तो निरर्थिकाम् // 12 हेतुवादान्ब्रुवन्सत्सु विजेताहेतुवादिकः / युधिष्ठिर उवाच / आक्रोष्टा चातिवक्ता च ब्राह्मणानां सदैव हि // 13 अपूर्व वा भवेत्पात्रमथ वापि चिरोषितम् / सर्वामिशङ्की मूढश्व बालः कटुकवागपि / दूरादभ्यागतं वापि किं पात्रं स्यात्पितामह // 1 बोद्धव्यस्तादृशस्तात नरश्वानं हि तं विदुः॥ 14 भीष्म उवाच / यथा श्वा भषितुं चैव हन्तुं चैवावसृज्यते / एवं संभाषणार्थाय सर्वशास्त्रवधाय च / क्रिया भवति केषांचिदुपांशुव्रतमुत्तमम् / अल्पश्रुताः कुतर्काश्च दृष्टाः स्पृष्टाः कुपण्डिसाः // यो यो याचेत यत्किचित्सर्वं दद्याम इत्युत // 2 श्रुतिस्मृतीतिहासादिपुराणारण्यवेदिनः / अपीडयन्भृत्यवर्गमित्येवमनुशुश्रुम / अनुरुन्ध्याद्वहुज्ञांश्च सारज्ञांश्चैव पण्डितान् / / 16 पीडयन्भृत्यवर्ग हि आत्मानमपकर्षति // 3 लोकयात्रा च द्रष्टव्या धर्मश्चात्महितानि च / अपूर्व वापि यत्पात्रं यच्चापि स्याच्चिरोषितम् / एवं नरो वर्तमानः शाश्वतीरेधते समाः / / 17 दूरादभ्यागतं चापि तत्पात्रं च विदुर्बुधाः // 4 ऋणमुन्मुच्य देवानामृषीणां च तथैव च / : ___ युधिष्ठिर उवाच / पितॄणामथ विप्राणामतिथीनां च पञ्चमम् / / 18 अपीडया च भृत्यानां धर्मस्याहिंसया तथा / पर्यायेण विशुद्धेन सुनिर्णिक्तेन कर्मणा / पात्रं विद्याम तत्त्वेन यस्मै दत्तं न संतपेत् // 5 एवं गृहस्थः कर्माणि कुर्वन्धर्मान्न हीयते // 19 मीष्म उवाच / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि ऋत्विक्पुरोहिताचार्याः शिष्याः संबन्धिबान्धवाः / सप्तत्रिंशत्तमोऽध्यायः // 37 // सर्वे पूज्याश्च मान्याश्च श्रुतवृत्तोपसंहिताः // 6 अतोऽन्यथा वर्तमानाः सर्वे नार्हन्ति सक्रियाम् / युधिष्ठिर उवाच / तस्मान्नित्यं परीक्षेत पुरुषान्प्रणिधाय वै // 7 स्त्रीणां स्वभावमिच्छामि श्रोतुं भरतसत्तम / अक्रोधः सत्यवचनमहिंसा दम आर्जवम् / स्त्रियो हि मूलं दोषाणां लघुचित्ताः पितामह // 1 अद्रोहो नातिमानश्च हीस्तितिक्षा तपः शमः // 8 भीष्म उवाच / यस्मिन्नेतानि दृश्यन्ते न चाकार्याणि भारत / / अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / भावतो विनिविष्टानि तत्पात्रं मानमर्हति // 9 / नारदस्य च संवादं पुंश्चल्या पञ्चचूडया // 2 तथा चिरोषितं चापि संप्रत्यागतमेव च। लोकाननुचरन्धीमान्देवर्षिर्नारदः पुरा / अपूर्व चैव पूर्व च तत्पात्रं मानमर्हति // 10 / ददर्शाप्सरसं ब्राह्मीं पञ्चचूडामनिन्दिताम् // 3 अप्रामाण्यं च वेदानां शास्त्राणां चातिलञ्चनम्। / तां दृष्ट्वा चारुसर्वाङ्गी पप्रच्छाप्सस्सं मुनिः / -2564 - Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 38. 41 अनुशासनपर्व 113. 38. 30 संशयो हृदि मे कश्चित्तन्मे ब्रूहि सुमध्यमे // 4 | न भयान्नाप्यनुक्रोशान्नार्थहेतोः कथंचन / एवमुक्ता तु सा विप्रं प्रत्युवाचाथ नारदम् / न ज्ञातिकुलसंबन्धास्त्रियस्तिष्ठन्ति भर्तृषु // 18 विषये सति वक्ष्यामि समर्थां मन्यसे च माम् / / 5 यौवने वर्तमानानां मृष्टाभरणवाससाम् / नारद उवाच / नारीणां स्वैरवृत्तानां स्पृहयन्ति कुलस्त्रियः // 19 न त्वामविषये भद्रे नियोक्ष्यामि कथंचन / याश्च शश्वद्वहुमता रक्ष्यन्ते दयिताः स्त्रियः / स्त्रीणां स्वभावमिच्छामि त्वत्तः श्रोतुं वरानने // 6 अपि ताः संप्रसज्जन्ते कुब्जान्धजडवामनैः // 20 भीष्म उवाच पङ्गुष्वपि च देवर्षे ये चान्ये कुत्सिताः नराः / एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य देवर्षेरप्सरोत्तमा / स्त्रीणामगम्यो लोकेऽस्मिन्नास्ति कश्चिन्महामुने // प्रत्युवाच न शक्ष्यामि स्त्री सती निन्दितुं स्त्रियः / यदि पुंसां गतिब्रह्म कथंचिन्नोपपद्यते / विदितास्ते स्त्रियो याश्च यादृशाश्च स्वभावतः / अप्यन्योन्यं प्रवर्तन्ते न हि तिष्ठन्ति भर्तृषु // 22 न मामर्हसि देवर्षे नियोक्तुं प्रश्न ईदृशे // 8 अलाभात्पुरुषाणां हि भयात्परिजनस्य च / तामुवाच स देवर्षिः सत्यं वद सुमध्यमे। वधबन्धभयाच्चापि स्वयं गुप्ता भवन्ति ताः // 23 मृषावादे भवेद्दोषः सत्ये दोषो न विद्यते // 9 चलस्वभावा दुःसेव्या दु ह्या भावतस्तथा / इत्युक्ता सा कृतमतिरभवच्चारुहासिनी। प्राज्ञस्य पुरुषस्येह यथा वाचस्तथा स्त्रियः // 24 स्त्रीदोषाशाश्वतान्सत्यान्भाषितुं संप्रचक्रमे // 10 नाग्निस्तृप्यति काष्ठानां नापगानां महोदधिः / पञ्चचूडोवाच / नान्तकः सर्वभूतानां न पुंसां वामलोचनाः // 25 कुलीना रूपवत्यश्च नाथवत्यश्च योषितः / इदमन्यच्च देवर्षे रहस्यं सर्वयोषिताम् / मर्यादासु न तिष्ठन्ति स दोषः स्त्रीषु नारद // 11 / दृष्ट्वैव पुरुषं हृद्यं योनिः प्रक्लिद्यते स्त्रियः // 26 न स्त्रीभ्यः किंचिदन्यद्वै पापीयस्तरमस्ति वै।। कामानामपि दातारं कर्तारं मानसान्त्वयोः / स्त्रियो हि मूलं दोषाणां तथा त्वमपि वेत्थ ह // 12 रक्षितारं न मृष्यन्ति भर्तारं परमं स्त्रियः // 27 समाज्ञातानृद्धिमतः प्रतिरूपान्वशे स्थितान् / न कामभोगान्बहुलान्नालंकारार्थसंचयान / पतीनन्तरमासाद्य नालं नार्यः प्रतीक्षितुम // 13 तथैव बहु मन्यन्ते यथा रत्यामनुग्रहम् / / 28 असद्धर्मस्त्वयं स्त्रीणामस्माकं भवति प्रभो। अन्तकः शमनो मृत्युः पातालं वडवामुखम् / पापीयसो नरान्यद्वै लजां त्यक्त्वा भजामहे / / 14 क्षुरधारा विषं सपों वह्निरित्येकतः स्त्रियः // 29 स्त्रियं हि यः प्रार्थयते संनिकर्ष च गच्छति / यतश्च भूतानि महान्ति पञ्च ईपञ्च कुरुते सेवां तमेवेच्छन्ति योषितः // 15 यतश्च लोका विहिता विधात्रा / अनर्थित्वान्मनुष्याणां भयात्परिजनस्य च / / यतः पुमांसः प्रमदाश्च निर्मितामर्यादायाममर्यादाः स्त्रियस्तिष्टन्ति भर्तृषु / / 16 स्तदैव दोषाः प्रमदासु नारद // 30 नासां कश्चिदगम्योऽस्ति नासां वयसि संस्थितिः / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि विरूपं रूपवन्तं वा पुमानित्येव भुते // 17 अष्टत्रिंशत्तमोऽध्यायः // 38 // - 2565 - Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 39. 1] महाभारते [13. 40. 14 युधिष्ठिर उवाच / भीष्म उवाच / इमे वै मानवा लोके स्त्रीषु सज्जन्त्यभीक्ष्णशः / एवमेतन्महाबाहो नात्र मिथ्यास्ति किंचन / मोहेन परमाविष्टा देवादिष्टेन पार्थिव / यथा ब्रवीषि कौरव्य नारी प्रति जनाधिप // 1 स्त्रियश्च पुरुषेष्वेव प्रत्यक्षं लोकसाक्षिकम् // 1 अत्र ते वर्तयिष्यामि इतिहासं पुरातनम् / अत्र मे संशयस्तीव्रो हृदि संपरिवर्तते / यथा रक्षा कृता पूर्व विपुलेन महात्मना // 2 कथमासां नराः सङ्गं कुर्वते कुरुनन्दन / प्रमदाश्च यथा सृष्टा ब्रह्मणा भरतर्षभ / . स्त्रियो वा तेषु रज्यन्ते विरज्यन्तेऽथ वा पुनः // 2 यदर्थं तच्च ते तात प्रवक्ष्ये वसुधाधिप // 3 . इति ताः पुरुषव्याघ्र कथं शक्याः स्म रक्षितुम् / न हि स्त्रीभ्यः परं पुत्र पापीयः किंचिदस्ति वै। प्रमदाः पुरुषेणेह तन्मे व्याख्यातुमर्हसि // 3 अग्निर्हि प्रमदा दीप्तो मायाश्च मयजा विभो / एता हि मयमायाभिर्वश्चयन्तीह मानवान् / न चासां मुच्यते कश्चित्पुरुषो हस्तमागतः।। क्षुरधारा विषं सर्पो मृत्युरित्येकत: स्त्रियः // 4 इमाः प्रजा महाबाहो धार्मिका इति नः श्रुतम् / गावो नवतृणानीव गृहन्त्येव नवान्नवान् // 4 स्वयं गच्छन्ति देवत्वं ततो देवानियाद्भयम् // 5 शम्बरस्य च या माया या माया नमुचेरपि / अथाभ्यगच्छन्देवास्ते पितामहमरिंदम / बलेः कुम्भीनसेश्चैव सर्वास्ता योषितो विदुः // 5 निवेद्य मानसं चापि तूष्णीमासम्नवाङ्मुखाः / / हसन्तं प्रहसन्त्येता रुदन्तं प्ररुदन्ति च। तेषामन्तर्गतं ज्ञात्वा देवानां स पितामहः / अप्रियं प्रियवाक्यैश्च गृहते कालयोगतः // 6 मानवानां प्रमोहाथं कृत्या नार्योऽसृजत्प्रभुः॥ // उशना वेद यच्छास्त्रं यच्च वेद बृहस्पतिः / पूर्वसर्गे तु कौन्तेय साध्व्यो नार्य इहाभवन् / स्त्रीबुद्ध्या न विशिष्यते ताः स्म रक्ष्याः कथं नरैः।। असाध्व्यस्तु समुत्पन्ना कृत्या सर्गात्प्रजापतेः // 8 अनृतं सत्यमित्याहुः सत्यं चापि तथानृतम् / ' ताभ्यः कामान्यथाकामं प्रादाद्धि स पितामहः / इति यास्ताः कथं वीर संरक्ष्याः पुरुषैरिह // 8 ताः कामलुब्धाः प्रमदाः प्रामनन्त नरांस्तदा / / 9 स्त्रीणां बुद्धयुपनिष्कर्षादर्थशास्त्राणि शत्रुहन् / क्रोधं कामस्य देवेशः सहायं चासजत्प्रभुः / बृहस्पतिप्रभृतिभिर्मन्ये सद्भिः कृतानि वै // 9 असज्जन्त प्रजाः सर्वाः कामक्रोधवशं गताः // 10 संपूज्यमानाः पुरुषैर्विकुर्वन्ति मनो नृषु / न च स्त्रीणां क्रिया काचिदिति धर्मो व्यवस्थितः / अपास्ताश्च तथा राजन्विकुर्वन्ति मनः स्त्रियः॥१० निरिन्द्रिया अमत्राश्च स्त्रियोऽनृतमिति श्रुतिः // 11 कस्ताः शक्तो रक्षितुं स्यादिति मे संशयो महान् / शय्यासनमलंकारमन्नपानमनार्यताम् / तन्मे हि महाबाहो कुरूणां वंशवर्धन // 11 दुर्वाग्भावं रतिं चैव ददौ स्त्रीभ्यः प्रजापतिः॥१२ यदि शक्या कुरुश्रेष्ठ रक्षा तासां कथंचन / न तासां रक्षणं कर्तुं शक्यं पुंसा कथंचन / कर्तुं वा कृतपूर्वा वा तन्मे वाख्यातुमर्हसि // 12 अपि विश्वकृता तात कुतस्तु पुरुषैरिह // 13 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि एकोनत्रिंशत्तमोऽध्यायः // 31 // वाचा वा वधबन्धैर्वा क्लेशैर्वा विविधैस्तथा / - 2566 - Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 40. 14 ] अनुशासनपर्व [ 13. 40. 43 न शक्या रक्षितुं नार्यस्ता हि नित्यमसंयताः // 14 भवत्यथ मुहूर्तेन चण्डालसमदर्शनः / / 29 इदं तु पुरुषव्याघ्र पुरस्ताच्छ्रुतवानहम् / शिखी जटी चीरवासाः पुनर्भवति पुत्रक / यथा रक्षा कृता पूर्व विपुलेन गुरुस्त्रियः / / 15 / बृहच्छरीरश्च पुनः पीवरोऽथ पुनः कृशः // 30 ऋषिरासीन्महाभागो देवशर्मेति विश्रुतः / गौरं श्यामं च कृष्णं च वर्ण विकुरुते पुनः / तस्य भार्या रुचिर्नाम रूपेणासदृशी भुवि / / 16 विरूपो रूपवांश्चैव युवा वृद्धस्तथैव च // 31 तस्या रूपेण संमत्ता देवगन्धर्वदानवाः। प्राज्ञो जडश्च मूकश्च हस्वो दीर्घस्तथैव च / विशेषतस्तु राजेन्द्र वृत्रहा पाकशासनः / / 17 . ब्राह्मणः क्षत्रियश्चैव वैश्यः शस्तथैव च / नारीणां चरितज्ञश्च देवशर्मा महामुनिः / प्रतिलोमानुलोमश्च भवत्यथ शतक्रतुः // 32 यथाशक्ति यथोत्साहं भाया तामभ्यरक्षत // 18 शुकवायसरूपी च हंसकोकिलरूपवान् / पुरंदरं च जानीते परस्त्रीकामचारिणम् / सिंहव्याघ्रगजानां च रूपं धारयते पुनः / / 33 तस्माद्यत्नेन भार्याया रक्षणं स चकार ह // 19 दैवं दैत्यमथो राज्ञां वपुर्धारयतेऽपि च / स कदाचिदृषिस्तात यज्ञं कर्तुमनास्तदा। सुकृशो वायुभग्नाङ्गः शकुनिर्विकृतस्तथा // 34 भार्यासंरक्षणं कार्य कथं स्यादित्यचिन्तयत् / / 20 चतुष्पाद्वहुरूपश्च पुनर्भवति बालिशः / रक्षाविधानं मनसा स विचिन्त्य महातपाः / मक्षिकामशकादीनां वपुर्धारयतेऽपि च // 35 आहूय दयितं शिष्यं विपुलं प्राह भार्गवम् // 21 न शक्यमस्य ग्रहणं कर्तुं विपुल केनचित् / यसकारो गमिष्यामि रुचिं चेमां सुरेश्वरः। अपि विश्वकृता तात येन सृष्टमिदं जगत् // 36 पुत्र प्रार्थयते नित्यं तां रक्षस्व यथाबलम् // 22 पुनरन्तर्हितः शक्रो दृश्यते ज्ञानचक्षुषा। अप्रमत्तेन ते भाव्यं सदा प्रति पुरंदरम् / वायुभूतश्च स पुनर्देवराजो भवत्युत / / 37 स हि रूपाणि कुरुते विविधानि भृगूद्वह // 23 एवं रूपाणि सततं कुरुते पाकशासनः / इत्युक्तो विपुलस्तेन तपस्वी नियतेन्द्रियः।। तस्माद्विपुल यत्नेन रक्षेमां तनुमध्यमाम् // 38 सदैवोग्रतपा राजन्नम्यर्कसदृशा तिः // 24 यथा रुचिं नावलिहेदेवेन्द्रो भृगुसत्तम / धर्मज्ञः सत्यवादी च तथेति प्रत्यभाषत / तावुपहितं न्यस्तं हविः श्वव दुरात्मवान // 39 पुनश्चेदं महाराज पप्रच्छ प्रस्थितं गुरुम् // 25 एवमाख्याय स मुनिर्यज्ञकारोऽगमत्तदा / कानि रूपाणि शक्रस्य भवन्त्यागच्छतो मुने। देवशर्मा महाभागस्ततो भरतसत्तम / / 40 वपुस्तेजश्च कीदृग्वै तन्मे व्याख्यातुमर्हसि // 26 विपुलस्तु वचः श्रुत्वा गुरोश्चिन्तापरोऽभवत् / ततः स भगवांस्तस्मै विपुलाय महात्मने / रक्षां च परमां चक्रे देवराजान्महाबलात् / / 41 पाचचक्षे यथातत्त्वं मायां शक्रस्य भारत / / 27 किं नु शक्यं मया कतुं गुरुदाराभिरक्षणे / बहुमायः स विप्रर्षे बलहा पाकशासनः / मायावी हि सुरेन्द्रोऽसौ दुर्धर्षश्चापि वीर्यवान् // तांस्तान्विकुरुते भावान्बहूनथ मुहुर्मुहुः / / 28 / नापिधायाश्रमं शक्यो रक्षितुं पाकशासनः / किरीटी वज्रभृद्धन्वी मुकुटी बद्धकुण्डलः / | उटजं वा तथा ह्यस्य नानाविधसरूपता // 43 -2567 - Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 40. 44] महाभारते [13. 41. 12 वायुरूपेण वा शक्रो गुरुपत्नी प्रधर्षयेत् / यं कालं नागतो राजन्गुरुस्तस्य महात्मनः / तस्मादिमां संप्रविश्य रुचिं स्थास्येऽहमद्य वै // 44 / क्रतुं समाप्य स्वगृहं तं कालं सोऽभ्यरक्षत // 5 // अथ वा पौरुषेणेयमशक्या रक्षितुं मया।। इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि बहुरूपो हि भगवान् यते हरिवाहनः / / 45 चत्वारिंशोऽध्यायः // 40 // सोऽहं योगबलादेनां रक्षिष्ये पाकशासनात् / 41 गात्राणि गात्रैरस्याहं संप्रवेक्ष्येऽभिरक्षितुम् // 46 भीष्म उवाच / याच्छिष्टामिमां पत्नी रुचिं पश्येत मे गुरुः / / ततः कदाचिद्देवेन्द्रो दिव्यरूपवपुर्धरः / शप्स्यत्यसंशयं कोपादिव्यज्ञानो महातपाः // 47 इदमन्तरमित्येवं ततोऽभ्यागादथाश्रमम् // 1 न चेयं रक्षितुं शक्या यथान्या प्रमदा नृभिः / रूपमप्रतिमं कृत्वा लोभनीयं जनाधिप / मायावी हि सुरेन्द्रोऽसावहो प्राप्तोऽस्मि संशयम् // दर्शनीयतमो भूत्वा प्रविवेश तमाश्रमम् // 2 अवश्यकरणीयं हि गुरोरिह हि शासनम् / स ददर्श तमासीनं विपुलस्य कलेवरम् / यदि त्वेतदहं कुर्यामाश्चर्यं स्यात्कृतं मया // 49 निश्चेष्टं स्तब्धनयनं यथालेख्यगतं तथा // 3 योगेनानुप्रविश्येह गुरुपत्न्याः कलेवरम् / रुचिं च रुचिरापाङ्गी पीनश्रोणिपयोधराम् / निर्मुक्तस्य रजोरूपान्नापराधो भवेन्मम // 50 पद्मपत्रविशालाक्षी संपूर्णेन्दुनिभाननाम् // 4 यथा हि शून्यां पथिकः सभामध्यावसेत्पथि / सा तमालोक्य सहसा प्रत्युत्थातुमियेष ह / तथाद्यावासयिष्यामि गुरुपत्न्याः कलेवरम् // 51 रूपेण विस्मिता कोऽसीत्यथ वक्तुमिहेच्छती // 5 असक्तः पद्मपत्रस्थो जलबिन्दुर्यथा चलः / उत्थातुकामापि सती व्यतिष्ठद्विपुलेन सा। एवमेव शरीरेऽस्या निवत्स्यामि समाहितः // 52 निगृहीता मनुष्येन्द्र न शशाक विचेष्टितुम् // 6 इत्येवं धर्ममालोक्य वेदवेदांश्च सर्वशः। तामावभाषे देवेन्द्रः साना परमवल्गुना। तपश्च विपुलं दृष्ट्वा गुरोरात्मन एव च // 53 / त्वदर्थमागतं विद्धिं देवेन्द्रं मां शुचिस्मिते // . इति निश्चित्य मनसा रक्षां प्रति स भार्गवः / क्लिश्यमानमनङ्गेन त्वत्संकल्पोद्भवेन वै / आतिष्ठत्परमं यत्नं यथा तच्छृणु पार्थिव // 54 तत्पर्याप्नुहि मां सुधु पुरा कालोऽतिवर्तते // 8 गुरुपत्नीमुपासीनो विपुलः स महातपाः। तमेक्वादिनं शक्रं शुश्राव विपुलो मुनिः। . उपासीनामनिन्द्याङ्गी कथाभिः समलोभयत् / / 55 गुरुपत्न्याः शरीरस्थो ददर्श च सुराधिपम् // 9 नेत्राभ्यां नेत्रयोरस्या रश्मीन्संयोज्य रश्मिभिः / न शशाक च सा राजन्प्रत्युत्थातुमनिन्दिता। विवेश विपुलः कायमाकाशं पवनो यथा // 56 वक्तुं च नाशकद्राजन्विष्टब्धा विपुलेन सा // 10 लक्षणं लक्षणेनैव वदनं वदनेन च / आकारं गुरुपल्यास्तु विज्ञाय स भृगूद्वहः / अविचेष्टन्नतिष्ठद्वै छायेवान्तर्गतो मुनिः / / 57 निजग्राह महातेजा योगेन बलवत्प्रभो। ततो विष्टभ्य विपुलो गुरुपन्याः कलेवरम् / / बबन्ध योगबन्धैश्च तस्याः सर्वेन्द्रियाणि सः॥११ उवास रक्षणे युक्तो न च सा तमबुध्यत / / 58 / तां निर्विकारां दृष्ट्वा तु पुनरेव शचीपतिः / - 2568 - Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 41. 12 ] अनुशासनपर्व [ 13. 42.4 उवाच वीडितो राजस्तां योगबलमोहिताम् // 12 अकिंचिदुक्त्वा ब्रीडितस्तत्रैवान्तरधीयत // 27 एटेहीति ततः सा तं प्रतिवक्तुमियेष च। मुहूर्तयाते शके तु देवशर्मा महातपाः / स तां वाचं गुरोः पत्न्या विपुलः पर्यवर्तयत् // 13 कृत्वा यज्ञं यथाकाममाजगाम स्वमाश्रमम् // 28 भोः किमागमने कृत्यमिति तस्याश्च निःसता। आगतेऽथ गुरौ राजन्विपुलः प्रियकर्मकृत् / वक्त्राच्छशाङ्कप्रतिमाद्वाणी संस्कारभूपिता // 14 रक्षितां गुरवे भायां न्यवेदयदनिन्दिताम् // 29 वीडिता सा त तद्वाक्यमुक्त्वा परवशा तदा। अभिवाद्य च शान्तात्मा स गुरुं गुरुवत्सलः / पुरंदरश्च संत्रस्तो बभूव विमनास्तदा / / 15 . विपुलः पर्युपातिष्ठद्यथापूर्वमशङ्कितः // 30 स तद्वैकृतमालक्ष्य देवराजो विशां पते। विश्रान्ताय ततस्तस्मै सहासीनाय भार्यया / अवैक्षत सहस्राक्षस्तदा दिव्येन चक्षुषा / / 16 निवेदयामास तदा विपुलः शक्रकर्म तत् // 31 ददर्श च मुनिं तस्याः शरीरान्तरगोचरम् / / तच्छ्रुत्वा स मुनिस्तुष्टो विपुलस्य प्रतापवान् / प्रतिबिम्बमिवादर्श गुरुपत्न्याः शरीरगम् // 17 बभूव शीलवृत्ताभ्यां तपसा नियमेन च // 32 स तं घोरेण तपसा युक्तं दृष्ट्वा पुरंदरः / विपुलस्य गुरौ वृत्ति भक्तिमात्मनि च प्रभुः / प्रावेपत सुसंत्रस्तः शापभीतस्तदा विभो / / 18 धर्मे च स्थिरतां दृष्ट्वा साधु साध्वित्युवाच ह // 33 विमुच्य गुरुपत्नी तु विपुलः सुमहातपाः / प्रतिनन्द्य च धर्मात्मा शिष्यं धर्मपरायणम् / स्वं कलेवरमाविश्य शक्र भीतमथाब्रवीत् // 19 वरेण च्छन्दयामास स तस्माद्गुरुवत्सलः / अजितेन्द्रिय पापात्मन्कामात्मक पुरंदर / अनुज्ञातश्च गुरुणा चचारानुत्तमं तपः // 34 न चिरं पूजयिष्यन्ति देवास्त्वां मानुषास्तथा // 20 तथैव देवशर्मापि सभार्यः स महातपाः / किं नु तद्विस्मृतं शक्र न तन्मनसि ते स्थितम् / निर्भयो बलवृत्रघ्नाच्चचार विजने जने // 35 गौतमेनासि यन्मुक्तो भगाङ्कपरिचिह्नितः // 21 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि जाने त्वां बालिशमतिमकृतात्मानमस्थिरम् / एकचत्वारिंशोऽध्यायः॥४१॥ मयेयं रक्ष्यते मूढ गच्छ पाप यथागतम् / / 22 नाहं त्वामद्य मूढात्मन्दहेयं हि स्वतेजसा / भीष्म उवाच। कृपायमाणस्तु न ते दग्धुमिच्छामि वासव // 23 विपुलस्त्वकरोत्तीव्र तपः कृत्वा गुरोर्वचः / स च घोरतपा धीमान्गुरुमे पापचेतसम् / तपोयुक्तमथात्मानममन्यत च वीर्यवान् // 1 दृष्ट्वा त्वां निर्दहेदद्य क्रोधदीप्तेन चक्षुषा // 24 स तेन कर्मणा स्पर्धन्पृथिवीं पृथिवीपते / नैवं तु शक्र कर्तव्यं पुनर्मान्याश्च ते द्विजाः / चचार गतभीः प्रीतो लब्धकीर्तिर्वरो नृषु // 2 मा गमः ससुतामात्योऽत्ययं ब्रह्मबलार्दितः // 25 / उभौ लोकौ जितौ चापि तथैवामन्यत प्रभुः / अमरोऽस्मीति यद्बुद्धिमेतामास्थाय वर्तसे / कर्मणा तेन कौरव्य तपसा विपुलेन च // 3 मावसंस्था न तपसामसाध्यं नाम किंचन // 26 / अथ काले व्यतिक्रान्ते कस्मिंश्चित्करुनन्दन / तच्छ्रुत्वा वचनं शक्रो विपुलस्य महात्मनः / | रुच्या भगिन्या दानं वै बभूव धनधान्यवत् // 4 म. भा. 322 -2569 - Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 42.5] महाभारते [13. 42. 33 एतस्मिन्नेव काले तु दिव्या काचिद्वराङ्गना / तयोविस्पर्धतोरेवं शपथोऽयमभूत्तदा / बिभ्रती परमं रूपं जगामाथ विहायसा // 5 मनसोद्दिश्य विपुलं ततो वाक्यमथोचतुः / / 20 तस्याः शरीरात्पुष्पाणि पतितानि महीतले / आवयोरनृतं प्राह यस्तस्याथ द्विजस्य वै / तस्याश्रमस्याविदूरे दिव्यगन्धानि भारत // 6 विपुलस्य परे लोके या गतिः सा भवेदिति // 21 तान्यगृहात्ततो राजन्रुचिर्नलिनलोचना / एतच्छ्रुत्वा तु विपुलो विषण्णवदनोऽभवत् / तदा निमत्रकस्तस्या अङ्गेभ्यः क्षिप्रमागमत् // 7 एवं तीव्रतपाश्चाहं कष्टश्चायं परिग्रहः // 22 तस्या हि भगिनी तात ज्येष्ठा नाम्ना प्रभावती / मिथुनस्यास्य किं मे स्यात्कृतं पापं यतो गतिः / भार्या चित्ररथस्याथ बभूवाङ्गेश्वरस्य वै // 8 अनिष्टा सर्वभूतानां कीर्तितानेन मेऽद्य वै // 23 पिनह्य तानि पुष्पाणि केशेषु वरवर्णिनी / एवं संचिन्तयन्नेव विपुलो राजसत्तम / आमन्त्रिता ततोऽगच्छद्रुचिरङ्गपतेहान् // 9 अवाङ्मुखो न्यस्तशिरा दध्यौ दुष्कृतमात्मनः // 24 पुष्पाणि तानि दृष्ट्वाथ तदाङ्गेन्द्रवराङ्गना। ततः षडन्यान्पुरुषानः काश्चनराजतैः / भगिनी चोदयामास पुष्पार्थे चारुलोचना // 10 अपश्यद्दीव्यमानान्वै लोभहर्षान्वितांस्तथा // 25 सा भत्रे सर्वमाचष्ट रुचिः सुरुचिरानना। कुर्वतः शपथं तं वै यः कृतो मिथुनेन वै / भगिन्या भाषितं सर्वमृषिस्तच्चाभ्यनन्दत // 11 / विपुलं वै समुद्दिश्य तेऽपि वाक्यमथाब्रुवन् // 26 ततो विपुलमानाय्य देवशर्मा महातपाः / यो लोभमास्थायास्माकं विषमं कर्तुमुत्सहेत् / पुष्पार्थे चोदयामास गच्छ गच्छेति भारत // 12 विपुलस्य परे लोके या गतिस्तामवाप्नुयात् // 25 विपुलस्तु गुरोर्वाक्यमविचार्य महातपाः / एतच्छ्रुत्वा तु विपुलो नापश्यद्धर्मसंकरम् / स तथेत्यब्रवीद्राजस्तं च देशं जगाम ह // 13 जन्मप्रभृति कौरव्य कृतपूर्वमथात्मनः // 28 यस्मिन्देशे तु तान्यासन्पतितानि नभस्तलात् / स प्रदध्यौ तदा राजन्नग्नावग्निरिवाहितः / अम्लानान्यपि तत्रासन्कुसुमान्यपराण्यपि // 14 दह्यमानेन मनसा शापं श्रुत्वा तथाविधम् // 29 ततः स तानि जग्राह दिव्यानि रुचिराणि च / तस्य चिन्तयतस्तात बह्वयो दिननिशा ययुः / प्राप्तानि स्वेन तपसा दिव्यगन्धानि भारत // 15 इदमासीनन्मनसि च रुच्या रक्षणकारितम् // 30 संप्राप्य तानि प्रीतात्मा गुरोर्वचनकारकः / लक्षणं लक्षणेनैव वदनं वदनेन च / ततो जगाम तूर्णं च चम्पां चम्पकमालिनीम् // 16 विधाय न मया चोक्तं सत्यमेतद्रोस्तदा // 31 स वने विजने तात ददर्श मिथुनं नृणाम् / / एतदात्मनि कौरव्य दुष्कृतं विपुलस्तदा / चक्रवत्परिवर्तन्तं गृहीत्वा पाणिना करम् // 17 अमन्यत महाभाग तथा तच्च न संशयः / / 32 तत्रैकस्तूर्णमगमत्तत्पदे परिवर्तयन् / स चम्पां नगरीमेत्य पुष्पाणि गुरवे ददौ / , एकस्तु न तथा राजंश्चक्रतुः कलहं ततः // 18 पूजयामास च गुरुं विधिवत्स गुरुप्रियः // 33 त्वं शीघ्रं गच्छसीत्येकोऽब्रवीन्नति तथापरः। इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि नेति नेति च तौ तात परस्परमथोचतुः // 15 द्विचत्वारिंशोऽध्यायः॥ 42 // -2570 - Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 43. 1] अनुशासनपर्व [13. 43. 26 न च त्वं कृतवान्किचिदागः प्रीतोऽस्मि तेन ते॥ 12 भीष्म उवाच / यदि त्वहं त्वा दर्वृत्तमद्राक्षं द्विजसत्तम / तमागतमभिप्रेक्ष्य शिष्यं वाक्यमथाब्रवीत् / शपेयं त्वामहं क्रोधान्न मेऽत्रास्ति विचारणा // 13 देवशर्मा महातेजा यत्तच्छृणु नराधिप / / 1 सज्जन्ति पुरुषे नार्यः पुंसां सोऽर्थश्च पुष्कलः / अन्यथा रक्षतः शापोऽभविष्यत्ते गतिश्च सा // 14 देवशर्मोवाच / रक्षिता सा त्वया पुत्र मम चापि निवेदिता। किं ते विपुल दृष्टं वै तस्मिन्नद्य महावने / अहं ते प्रीतिमांस्तात स्वस्ति मार्ग गमिष्यसि // 15 ते त्वा जानन्ति निपुण आत्मा च रुचिरेव च॥२ भीष्म उवाच / __ विपुल उवाच / ब्रह्मर्षे मिथुनं किं तत्के च ते पुरुषा विभो। इत्युक्त्वा विपुलं प्रीतो देवशर्मा महानृषिः / ये मां जानन्ति तत्त्वेन तांश्च मे वक्तुमर्हसि // 3 मुमोद स्वर्गमास्थाय सहभार्यः सशिष्यकः // 16 इदमाख्यातवांश्चापि ममाख्यानं महामुनिः / देवशर्मोवाच / मार्कण्डेयः पुरा राजन्गङ्गाकूले कथान्तरे // 17 यद्वै तन्मिथुनं ब्रह्मन्नहोरात्रं हि विद्धि तत् / तस्माद्भवीमि पार्थ त्या स्त्रियः सर्वाः सदैव च। चक्रवत्परिवर्तेत तत्ते जानाति दुष्कृतम् // 4 उभयं दृश्यते तासु सततं साध्वसाधु च // 18 ये च ते पुरुषा विप्र अझैभव्यन्ति हृष्टवत् / स्त्रियः साध्व्यो महाभागाः संमता लोकमातरः / ऋतस्तानभिजानीहि ते ते जानन्ति दुष्कृतम् // 5 धारयन्ति महीं राजन्निमां सवनकाननाम् // 19 न मां कश्चिद्विजानीत इति कृत्वा न विश्वसेत् / असाध्व्यश्चापि दुर्वृत्ताः कुलम्न्यः पापनिश्चयाः / नरो रहसि पापात्मा पापकं कर्म वै द्विज // 6 // विज्ञेया लक्षणैदुष्टैः स्वगात्रसहजैर्नृप // 20 कुर्वाणं हि नरं कर्म पापं रहसि सर्वदा। एवमेतासु रक्षा वै शक्या कर्तुं महात्मभिः / पश्यन्ति ऋतवश्चापि तथा दिननिशेऽप्युत // 7 अन्यथा राजशार्दूल न शक्या रक्षितुं स्त्रियः // 21 ते त्वां हर्षस्मितं दृष्ट्वा गुरोः कर्मा निवेदकम् / / एता हि मनुजव्याघ्र तीक्ष्णातीक्ष्णपराक्रमाः। स्मारयन्तस्तथा प्राहुस्ते यथा श्रुतवान्भवान् // 8 नासामस्ति प्रियो नाम मैथुने संगमे नृभिः // 22 अहोरात्रं विजानाति ऋतवश्चापि नित्यशः / एताः कृत्याश्च कार्याश्च कृताश्च भरतर्षभ / पुरुषे पापकं कर्म शुभं वा शुभकर्मणः // 9 न चैकस्मिन्रमन्त्येताः पुरुषे पाण्डुनन्दन / / 23 तत्त्वया मम यत्कर्म व्यभिचाराद्भयात्मकम् / नासु स्नेहो नृभिः कार्यस्तथैवेर्ध्या जनेश्वर / नाख्यातमिति जानन्तस्ते त्वामाहुस्तथा द्विज // 10 / खेदमास्थाय भुञ्जीत धर्ममास्थाय चैव हि // 24 ते चैव हि भवेयुस्ते लोकाः पापकृतो यथा / विहन्येतान्यथा कुर्वन्नरः कौरवनन्दन / कृत्वा नाचक्षतः कर्म मम यच्च त्वया कृतम् // 11 - सर्वथा राजशार्दूल युक्तिः सर्वत्र पूज्यते // 25 तथा शक्या च दुर्वृत्ता रक्षितुं प्रमदा द्विज / तेनैकेन तु रक्षा वै विपुलेन कृता स्त्रियाः / -2571 - Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 43. 26 ] महाभारते [13. 44. 25 नान्यः शक्तो नृलोकेऽस्मिन्रक्षितुं नृप योषितः॥ अपत्यजन्म शूद्रायां न प्रशंसन्ति साधवः / इति श्रीमहाभारते भनुशासनपर्वणि शूद्रायां जनयन्विप्रः प्रायश्चित्ती विधीयते // 12 त्रिचत्वारिंशत्तमोऽध्यायः // 3 // त्रिंशद्वर्षो दशवर्षी भार्यां विन्देत नग्निकाम् / एकविंशतिवर्षो वा सप्तवर्षामवाप्नुयात् // 13 युधिष्ठिर उवाच / यस्यास्तु न भवेद्धाता पिता वा भरतर्षभ / यन्मूलं सर्वधर्माणां प्रजनस्य गृहस्य च / नोपयच्छेत तां जातु पुत्रिकाधर्मिणी हि सा॥१४ पितृदेवातिथीनां च तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 त्रीणि वर्षाण्युदीक्षेत कन्या ऋतुमती सती / भीष्म उवाच / चतुर्थे त्वथ संप्राप्ते स्वयं भर्तारमर्जयेत् // 15 अयं हि सर्वधर्माणां धर्मश्चिन्त्यतमो मतः / प्रजनो हीयते तस्या रतिश्च भरतर्षभ / कीदृशाय प्रदेया स्यात्कन्येति वसुधाधिप // 2 अतोऽन्यथा वर्तमाना भवेद्वाच्या प्रजापतेः // 16 शीलवृत्ते समाज्ञाय विद्यां योनि च कर्म च / असपिण्डा च या मातुरसगोत्रा च या पितुः / भद्भिरेव प्रदातव्या कन्या गुणवते वरे। इत्येतामनुगच्छेत तं धर्म मनुरब्रवीत् // 17 ब्राह्मणानां सतामेष धर्मो नित्यं युधिष्ठिर // 3 युधिष्ठिर उवाच / भावाह्यमावहेदेवं यो दद्यादनुकूलतः। . शुल्कमन्येन दत्तं स्याहदानीत्याह चापरः। शिष्टानां क्षत्रियाणां च धर्म एष सनातनः // 4 बलादन्यः प्रभाषेत धनमन्यः प्रदर्शयेत् // 18 आत्माभिप्रेतमुत्सृज्य कन्याभिप्रेत एव यः / पाणिग्रहीता त्वन्यः स्यात्कस्य कन्या पितामह / अभिप्रेता च या यस्य तस्मै देया युधिष्ठिर / तत्त्वं जिज्ञासमानानां चक्षुर्भवतु नो भवान् // 19. गान्धर्वमिति तं धर्म प्राहुर्धर्मविदो जनाः // 5 . भीष्म उवाच / धनेन बहुना क्रीत्वा संप्रलोभ्य च बान्धवान् / यत्किचित्कर्म मानुष्यं संस्थानाय प्रकृष्यते / असुराणां नृपैतं वै धर्ममाहुर्मनीषिणः // 6 मत्रवन्मत्रितं तस्य मृषावादस्तु पातकः // 20 हत्वा छित्त्वा च शीर्षाणि रुदतां रुदतीं गृहात् / भार्यापत्यत्विगाचार्याः शिष्योपाध्याय एव च / प्रसह्य हरणं तात राक्षसं धर्मलक्षणम् // 7 मृषोक्ते दण्डमर्हन्ति नेत्याहुरपरे जनाः // 21 पश्चानां तु त्रयो धा द्वावधम्यौ युधिष्ठिर / न ह्यकामेन संवादं मनुरेवं प्रशंसति / पैशाच आसुरश्चैव न कर्तव्यौ कथंचन // 8 अयशस्यमधयं च यन्मृषा धर्मकोपनम् // 22 ब्राह्मः क्षात्रोऽथ गान्धर्व एते धा नरर्षभ / नैकान्तदोष एकस्मिंस्तहानं नोपलभ्यते / पृथग्वा यदि वा मिश्राः कर्तव्या नात्र संशयः॥९ धर्मतो यां प्रयच्छन्ति यां च क्रीणन्ति भारत // 23 तिस्रो भार्या ब्राह्मणस्य द्वे भार्ये क्षत्रियस्य तु / बन्धुभिः समनुज्ञातो मत्रहोमो प्रयोजयेत् / वैश्यः स्वजाति विन्देत तास्वपत्यं समं भवेत॥१० तथा सिध्यन्ति ते मत्रा नादत्तायाः कथंचन // 24 ब्राह्मणी तु भवेज्येष्ठा क्षत्रिया क्षत्रियस्य तु। / यस्त्वत्र मत्रसमयो भार्यापत्योर्मिथः कृतः / रत्यर्थमपि शूद्रा स्यान्नेत्याहुरपरे जनाः // 11 / तमेवाहुर्गरीयांसं यश्चासौ ज्ञातिभिः कृतः // 25 -2572 - Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 44. 26 अनुशासनपर्व [13. 44. 53 देवदत्तां पतिर्भायर्यां वेत्ति धर्मस्य शासनात् / / अतीव ह्यस्य धर्मेप्सा पितुर्मेऽभ्यधिकाभवत् // 39 सा दैवीं मानुषीं वाचमनृतां पर्युदस्यति / / 26 ततोऽहमब्रुवं राजन्नाचारेप्सुरिदं वचः / युधिष्ठिर उवाच / आचारं तत्त्वतो वेत्तुमिच्छामीति पुनः पुनः॥४० कन्यायां प्राप्तशुल्कायां ज्यायांश्चेदाव्रजेद्वरः / ततो मयैवमुक्ते तु वाक्ये धर्मभृतां वरः / धर्मकामार्थसंपन्नो वाच्यमत्रानृतं न वा // 27 पिता मम महाराज बाह्रीको वाक्यमब्रवीत् // 41 तस्मिन्नुभयतो दोपे कुर्वञ्छ्रेयः समाचरेत् / यदि वः शुल्कतो निष्टा न पाणिग्रहणं तथा / अयं नः सर्वधर्माणां धर्मश्चिन्त्यतमो मतः // 28 लाजान्तरमुपासीत प्राप्तशुल्का पतिं वृतम् // 42 तत्त्वं जिज्ञासमानानां चक्षुभवतु नो भवान् / न हि धर्मविदः प्राहुः प्रमाणं वाक्यतः स्मृतम् / तदेतत्सर्वमाचक्ष्व न हि तृप्यामि कथ्यताम् / / 29 येषां वै शुल्कतो निष्ठा न पाणिग्रहणात्तथा // 43 भीष्म उवाच / प्रसिद्ध भाषितं दाने तेषां प्रत्यसनं पुनः / न वै निष्ठाकरं शुल्कं ज्ञात्वासीत्तेन नाहृतम् / ये मन्यन्ते क्रयं शुल्कं न ते धर्मविदो जनाः // 44 न हि शुल्कपराः सन्तः कन्यां ददति कर्हि चित् / / न चैतेभ्यः प्रदातव्या न वोढव्या तथाविधा / अन्यैर्गुणैरुपेतं तु शुल्कं याचन्ति बान्धवाः / न व भार्या तिव्या न विक्रेया कथंचन // 45 अलंकृत्वा वहरवेति यो दद्यादनुकूलतः / / 31 ये च फ्रीणन्ति दासीवघे च विक्रीणते जनाः / तश्च तां च ददात्येव न शुल्कं विक्रयो न सः / भवेत्तेषां तथा निष्ठा लुब्धानां पापचेतसाम् // 46 प्रतिगृह्य भवेद्देयमेष धर्मः सनातनः // 32 अस्मिन्धर्मे सत्यवन्तं पर्यपृच्छन्त वै जनाः / दास्यामि भवते कन्यामिति पूर्व नभाषितम् / कन्यायाः प्राप्तशुल्कायाः शुल्कदः प्रशमं गतः // 47 ये चैवाहुर्ये च नाहुर्ये चावश्यं वदन्त्युत // 33 पाणिग्रहीता चान्यः स्यादत्र नो धर्मसंशयः। तस्मादा ग्रहणात्पाणेर्याचयन्ति परस्परम् / तन्नश्छिन्धि महाप्राज्ञ त्वं हि वै प्राज्ञसंमतः / कन्यावरः पुरा दत्तो मरुद्भिरिति न श्रुतम् // 34 तत्त्वं जिज्ञासमानानां चक्षुर्भवतु नो भवान् / / 48 नानिष्टाय प्रदातव्या कन्या इत्यृषिचोदितम् / तानेवं युवतः सर्वान्सत्यवान्वाक्यमब्रवीत् / तन्मूलं काममूलस्य प्रजनस्येति मे मतिः // 35 यत्रेष्टं तत्र देया स्यान्नात्र कार्या विचारणा / समीक्ष्य च बहून्दोपान्संवासाद्विद्विषाणयोः।। कुर्वते जीवतोऽप्येवं मृते नैवास्ति संशयः // 49 यथा निष्ठाकरं शुल्कं न जात्वासीत्तथा शृणु // 36 / देवरं प्रविशेत्कन्या तप्येद्वापि महत्तपः / अहं विचित्रवीर्याय द्वे कन्ये समुदावहम् / तमेवानुव्रता भूत्वा पाणिग्राहस्य नाम सा // 50 जित्वा च मागधान्सर्वान्काशीनथ च कोसलान् / लिखन्त्येव तु केषांचिदपरेषां शनैरपि / गृहीतपाणिरेकासीत्प्राप्तशुल्कापराभवत् // 37 इति ये संवदन्त्यत्र त एवं निश्चयं विदुः // 51 पाणौ गृहीता तत्रैव विसृज्या इति मे पिता। तत्पाणिग्रहणात्पूर्वमुत्तरं यत्र वर्तते / अब्रवीदितरां कन्यामावहत्स तु कौरवः / / 38 सर्वमङ्गलमत्रं वै मृपावादस्तु पातकः // 52 अप्यन्यामनुपप्रच्छ शङ्कमानः पितुर्वचः / पाणिग्रहणमत्राणां निष्ठा स्यात्सप्तमे पदे / - 2573 - Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 44. 53] महाभारते [ 13. 45. 249 45 पाणिग्राहस्य भार्या स्याद्यस्य चाद्भिः प्रदीयते // 53 भीष्म उवाच / अनुकूलामनुवंशां भ्रात्रा दत्तामुपाग्निकाम् / यथैवात्मा तथा पुत्रः पुत्रेण दुहिता समा। परिक्रम्य यथान्यायं भायाँ विन्देहिजोत्तमः // 54 तस्यामात्मनि तिष्ठन्त्यां कथमन्यो धनं हरेत् // 12 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि मातुश्च यौतकं यत्स्यात्कुमारीभाग एव सः / चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः॥४४॥ दौहित्र एव वा रिक्थमपुत्रस्य पितुर्हरेत् // 13 ददाति हि स पिण्डं वै पितुर्मातामहस्य च। युधिष्ठिर उवाच / पुत्रदौहित्रयोर्नेह विशेषो धर्मतः स्मृतः // 14 कन्यायाः प्राप्तशुल्कायाः पतिश्चेन्नास्ति कश्चन / अन्यत्र जातया सा हि प्रजया पुत्र ईहते / तत्र का प्रतिपत्तिः स्यात्तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 दुहितान्यत्र जातेन पुत्रेणापि विशिष्यते / / 15 भीष्म उवाच / दौहित्रकेण धर्मेण नात्र पश्यामि कारणम् / या पुत्रकस्याप्यरिक्थस्य प्रतिपत्सा तदा भवेत् // 2 विक्रीतासु च ये पुत्रा भवन्ति पितुरेव ते // 16 अथ चेत्साहरेच्छुल्कं क्रीता शुल्कप्रदस्य सा। असूयवस्त्वधर्मिष्ठाः परस्वादायिनः शठाः / तस्यार्थेऽपत्यमीहेत येन न्यायेन शक्नुयात् // 3 आसुरादधिसंभूता धर्माद्विषमवृत्तयः // 17 न तस्या मत्रवत्कार्य कश्चित्कुर्वीत किंचन // 4 अत्र गाथा यमोद्गीताः कीर्तयन्ति पुराविदः / स्वयं वृतेति सावित्री पित्रा वै प्रत्यपद्यत / धर्मज्ञा धर्मशास्त्रेषु निबद्धा धर्मसेतुषु // 18 तत्तस्यान्ये प्रशंसन्ति धर्मज्ञा नेतरे जनाः / / 5 यो मनुष्यः स्वकं पुत्रं विक्रीय धनमिच्छति / एतत्तु नापरे चक्रुर्न परे जातु साधवः / कन्यां वा जीवितार्थाय यः शुल्केन प्रयच्छति // साधूनां पुनराचारो गरीयो धर्मलक्षणम् / / 6 सप्तावरे महाघोरे निरये कालसाह्वये / अस्मिन्नेव प्रकरणे सुक्रतुर्वाक्यमब्रवीत् / स्वेदं मूत्रं पुरीषं च तस्मिन्प्रेत उपाश्रुते // 20 नप्ता विदेहराजस्य जनकस्य महात्मनः / / 7 आर्षे गोमिथुनं शुल्कं केचिदाहुम॒षैव तत् / / असदाचरिते मार्गे कथं स्यादनुकीर्तनम् / अल्पं वा बहु वा राजन्विक्रयस्तावदेव सः // 21 अनुप्रश्नः संशयो वा सतामेतदुपालभेत् / / 8 यद्यप्याचरितः कैश्चिन्नेष धर्मः कथंचन / असदेव हि धर्मस्य प्रमादो धर्म आसुरः / अन्येषामपि दृश्यन्ते लोभतः संप्रवृत्तयः // 22 नानुशुश्रुम जात्वेतामिमां पूर्वेषु जन्मसु // 9 वश्यां कुमारी विहितां ये च तामुपभुञ्जते / भार्यापत्योर्हि संबन्धः स्त्रीपुंसोस्तुल्य एव सः। एते पापस्य कर्तारस्तमस्यन्धेऽथ शेरते // 23 रतिः साधारणो धर्म इति चाह स पार्थिवः // 10 अन्योऽप्यथ न विक्रेयो मनुष्यः किं पुनः प्रजाः। अधर्ममूलैहि धनैर्न तैरर्थोऽस्ति कश्चन // 24 युधिष्ठिर उवाच। इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि अथ केन प्रमाणेन पुंसामादीयते धनम् / पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः // 15 // पुत्रवद्धि पितुस्तस्य कन्या भवितुमर्हति // 11 -9574 - Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 46. 1] अनुशासनपर्व [13. 47. 12 46 लालिता निगृहीता च स्त्री श्रीर्भवति भारत // 14 भीष्म उवाच / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि प्राचेतसस्य वचनं कीर्तयन्ति पुराविदः / षट्चत्वारिंशत्तमोऽध्यायः // 43 // यस्याः किंचिन्नाददते ज्ञातयो न स विक्रयः // 1 अहणं तत्कुमारीणामानृशंस्यतमं च तत् / युधिष्ठिर उवाच / सर्व च प्रतिदेयं स्यात्कन्यायै तदशेषतः / / 2 सर्वशास्त्रविधानज्ञ राजधर्मार्थवित्तम / पितृभिर्धातृभिश्चैव श्वशुरैरथ देवरैः / अतीव संशयच्छेत्ता भवान्वै प्रथितः क्षितौ // 1 पूज्या लालयितव्याश्च बहुकल्याणमीप्सुभिः / / 3 कचित्तु संशयो मेऽस्ति तन्मे ब्रूहि पितामह / पदि वै स्त्री न रोचेत पुमांसं न प्रमोदयेत् / / अस्यामापदि कष्टायामन्यं पृच्छाम कं वयम् // 2 अमोदनात्पुनः पुंसः प्रजनं न प्रवर्धते // 4 यथा नरेण कर्तव्यं यश्च धर्मः सनातनः / पूज्या लालयितव्याश्च स्त्रियो नित्यं जनाधिप / एतत्सर्वं महाबाहो भवान्व्याख्यातुमर्हति / / 3 अजिताश्च यत्रताः सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः। चतस्रो विहिता भार्या ब्राह्मणस्य पितामह / तदैव तत्कुलं नास्ति यदा शोचन्ति जामयः // 5 ब्राह्मणी क्षत्रिया वैश्या शूद्रा च रतिमिच्छतः // 4 जामीशप्तानि गेहानि निकृत्तानीव कृत्यया। तत्र जातेषु पुत्रेषु सर्वासां कुरुसत्तम / नैव भान्ति न वर्धन्ते श्रिया हीनानि पार्थिव / / 6 आनुपूर्येण कस्तेषां पित्र्यं दायाद्यमर्हति // 5 स्त्रियः पुंसां परिददे मनुर्जिगमिषुर्दिवम् / केन वा किं ततो हार्य पितृवित्तात्पितामह / अबलाः स्वल्पकौपीनाः सुहृदः सत्यजिष्णवः / / 7 एतदिच्छामि कथितं विभागस्तेषु यः स्मृतः // 6 य॑वो मानकामाश्व चण्डा असुहृदोऽबुधाः / भीष्म उवाच / स्त्रियो माननमर्हन्ति ता मानयत मानवाः / / 8 / ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यनयो वर्णा द्विजातयः / स्त्रीप्रत्ययों हि वो धर्मो रतिभोगाश्च केवलाः / / एतेषु विहितो धर्मो ब्राह्मणस्य युधिष्ठिर // 7 परिचर्यान्नसंस्कारास्तदायत्ता भवन्तु वः // 9 वैषम्यादथ वा लोभात्कामाद्वापि परंतप / उत्पादनमपत्यस्य जातस्य परिपालनम् / ब्राह्मणस्य भवेच्छूद्रा न तु दृष्टान्ततः स्मृता // 8 प्रीत्यर्थ लोकयात्रा च पश्यत स्त्रीनिबन्धनम् // 10 / शुद्रां शयनमारोप्य ब्राह्मणः पीडितो भवेत् / संमान्यमानाश्चैताभिः सर्वकार्याण्यवाप्स्यथ / प्रायश्चित्तीयते चापि विधिदृष्टेन हेतुना / / 9 विदेहराजदुहिता चात्र श्लोकमगायत / 11 तत्र जातेष्वपत्येषु द्विगुणं स्याद्युधिष्ठिर / नास्ति यज्ञः स्त्रियः कश्चिन्न श्राद्धं नोपवासकम् / अतस्ते नियम वित्त संप्रवक्ष्यामि भारत // 10 धर्मस्तु भर्तृशुश्रूषा तया स्वर्ग जयत्युत // 12 / लक्षण्यो गोवृषो यानं यत्प्रधानतमं भवेत् / पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने / ब्राह्मण्यास्तद्धरेत्पुत्र एकांशं वै पितुर्धनात् // 11 पुत्रास्तु स्थविरीभावे न स्त्री खातत्यमर्हति // 13 / शेषं तु दशधा कार्य ब्राह्मणस्वं युधिष्ठिर / श्रिय एताः स्त्रियो नाम सत्कार्या भूदिमिच्छता। तत्र तेनैव हर्तव्याश्चत्वारोऽशाः पितुर्धनात् // 12 - 2575 --- Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 47. 13] महाभारते [13. 47. 40 क्षत्रियायास्तु यः पुत्रो ब्राह्मणः सोऽप्यसंशयः / स तु भातृविशेषेण त्रीनंशान्हर्तुमर्हति // 13 वर्णे तृतीये जातस्तु वैश्यायां ब्राह्मणादपि / द्विरंशस्तेन हर्तव्यो ब्राह्मणवाद्युधिष्ठिर // 14 शूद्रायां ब्राह्मणाज्जातो नित्यादेयधनः स्मृतः / अल्पं वापि प्रदातव्यं शूद्रापुत्राय भारत // 15 दशधा प्रविभक्तस्य धनस्यैष भवेत्क्रमः / सवर्णासु तु जातानां समान्भागान्प्रकल्पयेत् // 16 भब्राह्मणं तु मन्यन्ते शूद्रापुत्रमनैपुणात् / त्रिषु वर्णेषु जातो हि ब्राह्मणाद्राह्मणो भवेत् // 17 स्मृता वर्णाश्च चत्वारः पञ्चमो नाधिगम्यते / हरेत्तु दशमं भागं शूद्रापुत्रः पितुर्धनात् / / 18 तत्तु दत्तं हरेत्पित्रा नादत्तं हर्तुमर्हति / अवश्यं हि धनं देयं शूद्रापुत्राय भारत / / 19 भानृशंस्यं परो धर्म इति तस्मै प्रदीयते / यत्र तत्र समुत्पन्नो गुणायैवोपकल्पते // 20 यदि वाप्येकपुत्रः स्यादपुत्रो यदि वा भवेत् / नाधिकं दशमादद्याच्छुद्रापुत्राय भारत // 21 त्रैवार्षिकाद्यदा भक्तादधिकं स्याहिजस्य तु / यजेत तेन द्रव्येण न वृथा साधयेद्धनम् // 22 त्रिसाहस्रपरो दायः स्त्रियो देयो धनस्य वै / तञ्च भ; धनं दत्तं नादत्तं भोक्तुमर्हति / / 23 स्त्रीणां तु पतिदायाद्यमुपभोगफलं स्मृतम् / नापहार स्त्रियः कुर्युः पतिवित्तात्कथंचन // 24 स्त्रियास्तु यद्भवेद्वित्तं पित्रा दत्तं युधिष्ठिर।। ब्राह्मण्यास्तद्धरेत्कन्या यथा पुत्रस्तथा हि सा। सा हि पुत्रसमा राजन्विहिता कुरुनन्दन // 25 एवमेतत्समुद्दिष्टं धर्मेषु भरतर्षभ / एत्तद्धर्ममनुस्मृत्य न वृथा साधयेद्धनम् / / 26 युधिष्ठिर उवाच / शूद्रायां ब्राह्मणाज्जातो यद्यदेयधनः स्मृतः। . केन प्रतिविशेषेण दशमोऽप्यस्य दीयते // 27 ब्राह्मण्यां ब्राह्मणाज्जातो ब्राह्मणः स्यान्न संशयः। क्षत्रियायां तथैव स्याद्वैश्यायामपि चैव हि // 28 कस्मात्ते विषमं भागं भजेरन्नृपसत्तम / . यदा सर्वे त्रयो वर्णास्त्वयोक्ता ब्राह्मणा इति // 29 भीष्म उवाच / दारा इत्युच्यते लोके नाम्नैकेन परंतप / प्रोक्तेन चैकनानायं विशेषः सुमहान्भवेत् // 30 तिस्रः कृत्वा पुरो भार्याः पश्चाद्विन्देत ब्राह्मणीम् / सा ज्येष्ठा सा च पूज्या स्यात्सा च ताभ्यो गरीयसी॥ स्नानं प्रसाधनं भर्तुर्दन्तधावनमञ्जनम् / हव्यं कव्यं च यच्चान्यद्धर्मयुक्तं भवेद्गृहे // 32 न तस्यां जातु तिष्ठन्त्यामन्या तत्कर्तुमर्हति / . ब्राह्मणी त्वेव तत्कुर्याद्ब्राह्मणस्य युधिष्ठिर / / 33 अन्नं पानं च माल्यं च वासांस्याभरणानि च / ब्राह्मण्यै तानि देयानि भर्तुः सा हि गरीयसी / मनुनाभिहितं शास्त्रं यच्चापि कुरुनन्दन / तत्राप्येष महाराज दृष्टो धर्मः सनातनः // 35 अथ चेदन्यथा कुर्याद्यदि कामाद्युधिष्ठिर / यथा ब्राह्मणचण्डालः पूर्वदृष्टस्तथैव सः // 36 ब्राह्मण्याः सद्दशः पुत्रः क्षत्रियायाश्च यो भवेत् / राजन्विशेषो नास्त्यत्र वर्णयोरुभयोरपि // 37 न तु जात्या समा लोके ब्राह्मण्याः क्षत्रिया भवेत् / ब्राह्मण्याः प्रथमः पुत्रो भूयान्स्याद्राजसत्तम / भूयोऽपि भूयसा हायं पितृवित्तायुधिष्ठिर // 38 यथा न सदृशी जातु ब्राह्मण्याः क्षत्रिया भवेत् / क्षत्रियायास्तथा वैश्या न जातु सदृशी भवेत् // श्रीश्च राज्यं च कोशश्च क्षत्रियाणां युधिष्ठिर / / -2576 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 47. 40] अनुशासनपर्व [13. 48. 5 विहितं दृश्यते राजन्सागरान्ता च मेदिनी // 40 | पञ्चमस्तु भवेद्भागः शूद्रापुत्राय भारत // 54 क्षत्रियो हि स्वधर्मेण श्रियं प्राप्नोति भूयसीम् / / सोऽपि दत्तं हरेत्पित्रा नादत्तं हर्तुमर्हति / राजा दण्डधरो राजनरक्षा नान्यत्र क्षत्रियात् // 41 / त्रिभिर्वर्णैस्तथा जातः शूद्रो देयधनो भवेत् // 55 ब्राह्मणा हि महाभागा देवानामपि देवताः / शूद्रस्य स्यात्सवणैव भार्या नान्या कथंचन / तेषु राजा प्रवर्तेत पूजया विधिपूर्वकम् // 42 शूद्रस्य समभागः स्याद्यदि पुत्रशतं भवेत् // 56 प्रणीतमृषिभिर्ज्ञात्वा धर्म शाश्वतमव्ययम् / जातानां समवर्णासु पुत्राणामविशेषतः। लुप्यमानः स्वधर्मेण क्षत्रियो रक्षति प्रजाः // 43 सर्वेषामेव वर्णानां समभागो धने स्मृतः // 57 दस्युमिह्रियमाणं च धनं दाराश्च सर्वशः / ज्येष्ठस्य भागो ज्येष्ठः स्यादेकांशो यः प्रधानतः। सर्वेषामेव वर्णानां त्राता भवति पार्थिवः // 44 एष दायविधिः पार्थ पूर्वमुक्तः स्वयंभुवा // 58 भूयास्यात्क्षत्रियापुत्रो वैश्यापुत्रान्न संशयः / समवर्णासु जातानां विशेषोऽत्यपरो नृप। भूयस्तेनापि हर्तव्यं पितृवित्ताधुधिष्ठिर / / 45 विवाहवैशेष्यकृतः पूर्वं पूर्वो विशिष्यते // 59 युधिष्ठिर उवाच / हरेज्येष्ठः प्रधानांशमेकं तुल्यासुतेष्वपि / उक्तं ते विधिवद्राजन्ब्राह्मणस्वे पितामह / मध्यमो मध्यमं चैव कनीयांस्तु कनीयसम् // 60 इतरेषां तु वर्णानां कथं विनियमो भवेत् // 46 एवं जातिषु सर्वासु सवर्णाः श्रेष्ठतां गताः / भीष्म उवाच। महर्षिरपि चैतद्वै मारीचः काश्यपोऽब्रवीत् // 61 क्षत्रियस्यापि भार्ये द्वे विहिते कुरुनन्दन / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि तृतीया च भवेच्छूद्रा न तु दृष्टान्ततः स्मृता // 47 सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः // 17 // एष एव क्रमो हि स्यात्क्षत्रियाणां युधिष्ठिर / 48 अष्टधातु भवेत्कार्य क्षत्रियस्वं युधिष्ठिर / / 48 युधिष्ठिर उवाच / क्षत्रियाथा हरेत्पुत्रश्चतुरोंऽशान्पितुर्धनात् / अर्थाश्रयाद्वा कामाद्वा वर्णानां वाप्यनिश्चयात् / युद्धावहारिकं यच्च पितुः स्यात्स हरेञ्च तत् // 49 अज्ञानाद्वापि वर्णानां जायते वर्णसंकरः // 1 पश्यापुत्रस्तु भागांस्त्रीन्शूद्रापुत्रस्तथाष्टमम् / तेषामेतेन विधिना जातानां वर्णसंकरे / सोऽपि दत्तं हरेत्पित्रा नादत्तं हर्तुमर्हति // 50 को धर्मः कानि कर्माणि तन्मे ब्रूहि पितामह // 2 एकैव हि भवेद्भार्या वैश्यस्य कुरुनन्दन / भीष्म उवाच / द्वितीया वा भवेच्छूद्रा न तु दृष्टान्ततः स्मृता // 51 चातुर्वर्ण्यस्य कर्माणि चातुर्वण्यं च केवलम् / वैश्यस्य वर्तमानस्य वैश्यायां भरतर्षभ / असजत्स ह यज्ञार्थे पूर्वमेव प्रजापतिः // 3 शद्रायां चैव कौन्तेय तयोर्विनियमः स्मृतः / / 52 भार्याश्चतस्रो विप्रस्य द्वयोरात्मास्य जायते / पञ्चधा तु भवेत्कार्य वैश्यस्वं भरतर्षभ। आनुपूर्व्याहयोहीनौ मातृजात्यौ प्रसूयतः // 4 तयोरपत्ये वक्ष्यामि विभागं च जनाधिप / / 53 / / परं शवाब्राह्मणस्यैष पुत्रः वैश्यापुत्रेण हर्तव्याश्चत्वारोंऽशाः पितुर्धनात् / / शूद्रापुत्रं पारशवं तवाहुः / म. भा. 323 - 2577 - Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 48.5] महाभारते [13. 48. 32 शुश्रूषकः स्वस्य कुलस्य स स्या हीना हीनात्प्रसूयन्ते वर्णाः पश्चदशैव ते // 18 स्वं चारित्रं नित्यमथो न जह्यात् / / 5 अगम्यागमनाच्चैव वर्तते वर्णसंकरः / सर्वानुपायानपि संप्रधार्य व्रात्यानामत्र जायन्ते सैरन्ध्रा मागधेषु च / समुद्धरेत्स्वस्य कुलस्य तन्तुम् / प्रसाधनोपचारज्ञमदासं दासजीवनम् / / 19 ज्येष्ठो यवीयानपि यो द्विजस्य व्रतश्चायोगवं सूते वागुरावनजीवनम् / शुश्रषवान्दानपरायणः स्यात् // 6 मैरेयकं च वैदेहः संप्रसूतेऽथ माधुकम् // 20 तिस्रः क्षत्रियसंबन्धाहयोरात्मास्य जायते / निषादो मुद्गरं सूते दाशं नावोपजीविनम् / हीनवर्णस्तृतीयायां शूद्र उग्र इति स्मृतः // 7 मृतपं चापि चण्डालः श्वपाकमतिकुत्सितम् / / 21 द्वे चापि भार्ये वैश्यस्य द्वयोरात्मास्य जायते / चतुरो भागधी सूते क्रूरान्मायोपजीविनः / शूद्रः शूद्रस्य चाप्येका शूद्रमेव प्रजायते / / 8 मांसस्वादुकरं सूदं सौगन्धर्मिति संज्ञितम् // 22 अतो विशिष्टस्त्वधमो गुरुदारप्रधर्षकः / वैदेहकाञ्च पापिष्ठं क्रूरं भार्योपजीविनम् / बाह्यं वर्णं जनयति चातुर्वर्ण्यविगर्हितम् // 9 निषादान्मद्रनाभं च खरयानप्रयायिनम् / / 23 अयाज्यं क्षत्रियो व्रात्यं सूतं स्तोमक्रियापरम् / चण्डालात्पुल्कसं चापि खराश्वगजभोजिनम् / वैश्यो वैदेहकं चापि मौद्गल्यमपवर्जितम् // 10 मृतचेलप्रतिच्छन्नं भिन्नभाजनभोजिनम् / / 24 - शूद्रश्चण्डालमत्युग्रं वध्यन्नं बाह्यवासिनम् / आयोगवीषु जायन्ते हीनवर्णासु ते त्रयः / ब्राह्मण्यां संप्रजायन्त इत्येते कुलपांसनाः / क्षुद्रो वैदेहकादन्ध्रो बहिर्यामप्रतिश्रयः / / 25 एते मतिमतां श्रेष्ठ वर्णसंकरजाः प्रभो // 11 कारावरो निषाद्यां तु चर्मकारात्प्रजायते / बन्दी तु जायते वैश्यान्मागधो वाक्यजीवनः / चण्डालापाण्डुसौपाकस्त्वक्सारव्यवहारवान् // 26 शद्रान्निषादो मत्स्यन्नः क्षत्रियाणां व्यतिक्रमात् // आहिण्डिको निषादेन वैदेह्यां संप्रजायते / शदादायोगवश्वापि वैश्यायां प्रामधर्मिणः / चण्डालेन तु सौपाको मौद्गल्यसमवृत्तिमान् // 27 ब्राह्मणैरप्रतिग्राह्यस्तथा स वनजीवनः // 13 निषादी चापि चण्डालात्पुत्रमन्तावसायिनम् / एतेऽपि सदृशं वर्ण जनयन्ति स्वयोनिषु / श्मशानगोचरं सूते बाबैरपि बहिष्कृतम् // // 28 मातृजात्यां प्रसूयन्ते प्रवरा हीनयोनिषु // 14 इत्येताः संकरे जात्यः पितृमातृव्यतिक्रमात् / यथा चतुर्पु वर्णेषु द्वयोरात्मास्य जायते / प्रच्छन्ना वा प्रकाशा वा वेदितव्याः स्वकर्मभिः // आनन्तर्यात्तु जायन्ते तथा बाह्याः प्रधानतः // 15 चतुर्णामेव वर्णानां धर्मो नान्यस्य विद्यते / ते चापि सदृशं वणं जनयन्ति स्वयोनिषु / वर्णानां धर्महीनेषु संज्ञा नास्तीह कस्यचित् // 30 परस्परस्य वर्तन्तो जनयन्ति विगर्हितान् // 16 यदृच्छयोपसंपन्नैर्यज्ञसाधुबहिष्कृतैः / यथा च शूद्रो ब्राह्मण्यां जन्तुं बाह्यं प्रसूयते / बाह्या बारितु जायन्ते यथावृत्ति यथाश्रयम् // 31 एवं बाह्यतराद्वाह्यश्चातुर्वात्प्रसूयते / / 17 चतुष्पथश्मशानानि शैलांश्चान्यान्वनस्पतीन् / प्रतिलोमं तु वर्तन्ते बाह्याद्बाह्यतरं पुनः। / युञ्जन्ते चाप्यलंकारास्तथोपकरणानि च // 32 -2578 - Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 48. 33 ] अनुशासनपर्व [ 13. 49. 7 गोब्राह्मणार्थे साहाय्यं कुर्बाणा वै न संशयः। शरीरमिह सत्त्वेन नरस्य परिकृष्यते / आनृशंस्यमनुक्रोशः सत्यवाक्यमथ क्षमा // 33 ज्येष्ठमध्यावरं सत्त्वं तुल्यसत्त्वं प्रमोदते // 46 स्वशरीरैः परित्राणं बाह्यानां सिद्धिकारकम् / ज्यायांसमपि शीलेन विहीनं नैव पूजयेत् / मनुजव्याघ्र भवति तत्र मे नास्ति संशयः // 34 अपि शूद्रं तु सद्वृत्तं धर्मज्ञमभिपूजयेत् // 47 यथोपदेशं परिकीर्तितासु आत्मानमाख्याति हि कर्मभिर्नरः नरः प्रजायेत विचार्य बुद्धिमान् / __ स्वशीलचारित्रकृतैः शुभाशुभैः / विहीनयोनिर्हि सुतोऽवसादये प्रनष्टमप्यात्मकुलं तथा नरः त्तितीर्षमागं सलिले यथोपलम् // 35 - पुनः प्रकाशं कुरुते स्वकर्मभिः / / 48 अविद्वांसमलं लोके विद्वांसमपि वा पुनः / / योनिष्वेतासु सर्वासु संकीर्णास्वितरासु च / नयन्ते ह्युत्पथं नायः कामक्रोधवशानुगम् // 36 यत्रात्मानं न जनयेदुधस्ताः परिवर्जयेत् / / 49 स्वभावश्चैव नारीणां नराणामिह दूषणम् / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि इत्यर्थं न प्रसज्जन्ते प्रमदासु विपश्चितः / / 34 अष्टचत्वारिंशत्तमोऽध्यायः // 48 // युधिष्ठिर उवाच / वर्णापेतमविज्ञातं नरं कलुषयोनिजम् / युधिष्ठिर उवाच / आर्यरूपमिवानायं कथं विद्यामहे नृप / / 38 ब्रूहि पुत्रान्कुरुश्रेष्ठ वर्णानां त्वं पृथक्पृथक् / भीष्म उवाच / कीदृश्यां कीदृशाश्चापि पुत्राः कस्य च के च ते॥ योनिसंकलुषे जातं नानाचारसमाहितम् / विप्रवादाः सुबहुशः श्रूयन्ते पुत्रकारिताः / कर्मभिः सज्जनाची”विज्ञेया योनिशुद्धता // 39 अत्र नो मुह्यतां राजन्संशयं छेत्तुमर्हसि // 2 अनार्यत्वमनाचारः क्रूरत्वं निष्क्रियात्मता। भीष्म उवाच / पुरुषं व्यञ्जयन्तीह लोके कलुषयोनिजम् // 40 आत्मा पुत्रस्तु विज्ञेयस्तस्यानन्तरजश्च यः / पित्र्यं वा भजते शीलं मातृजं वा तथोभयम् / नियुक्तजश्व विज्ञेयः सुतः प्रसृतजस्तथा // 3 न कथंचन संकीर्णः प्रकृति स्वां नियच्छति // 41 पतितस्य च भार्यायां भ; सुसमवेतया / यथैव सदृशो रूपे मातापित्रोहिं जायते / तथा दत्तकृतौ पुत्रावध्यूढश्च तथापरः॥ 4 व्याघ्रश्चित्रैस्तथा योनि पुरुषः स्वां नियच्छति / / षडपध्वंसजाश्चापि कानीनापसदास्तथा / कुलस्रोतसि संछन्ने यस्य स्यायोनिसंकरः। इत्येते ते समाख्यातास्तान्विजानीहि भारत / / 5 संश्रयत्येव तच्छीलं नरोऽल्पमपि वा बहु // 43 युधिष्ठिर उवाच। आर्यरूपसमाचारं चरन्तं कृतके पथि / षडपध्वंसजाः के स्युः के वाप्यपसदास्तथा / स्ववर्णमन्यवर्णं वा स्वशीलं शास्ति निश्चये // 44 एतत्सर्वं यथातत्त्वं व्याख्यातुं मे त्वमर्हसि // 6 नानावृत्तेषु भूतेषु नानाकर्मरतेषु च / भीष्म उवाच / जन्मवृत्तसमं लोके सुश्लिष्टं न विरज्यते // 45 / त्रिषु वर्णेषु ये पुत्रा ब्राह्मणस्य युधिष्ठिर / - 2579 - Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 49.7] महाभारते [13. 50.2 वर्णयोश्च द्वयोः स्यातां यौ राजन्यस्य भारत // 7 / शुक्र क्षेत्रं प्रमाणं वा यत्र लक्ष्येत भारत // 19 एको द्विवर्ण एवाथ तथात्रैवोपलक्षितः। भीष्म उवाच / पडपध्वंसजास्ते हि तथैवापसदाशृणु // 8 मातापितृभ्यां संत्यक्तं पथि यं तु प्रलक्षयेत् / चण्डालो व्रात्यवेनौ च ब्राह्मण्यां क्षत्रियासु च / न चास्य मातापितरौ ज्ञायते स हि कृत्रिमः // 20 यैश्यायां चैव शूद्रस्य लक्ष्यन्तेऽपसदात्रयः // 9 अस्वामिकस्य स्वामित्वं यस्मिन्संप्रतिलक्षयेत् / मागधो वामकश्चैव द्वौ वैश्यस्योपलक्षितौ। सवर्णस्तं च पोषेत सवर्णस्तस्य जायते // 21 ब्राह्मण्यां क्षत्रियायां च क्षत्रियस्यैक एव तु // 10 ___ युधिष्ठिर उवाच / ब्राह्मण्यां लक्ष्यते सूत इत्येतेऽपसदाः स्मृताः।। कथमस्य प्रयोक्तव्यः संस्कारः कस्य वा कथम्। पुत्ररेतो न शक्यं हि मिथ्या कर्तुं नराधिप // 11 देया कन्या कथं चेति तन्मे ब्रूहि पितामह // 22 युधिष्ठिर उवाच / भीष्म उवाच / क्षेत्र केचिदेवाहुः सुतं केचित्तु शुक्रजम् / / भात्मवत्तस्य कुर्वीत संस्कारं स्वामिवत्तथा // 23 तुल्यावेतौ सुतौ कस्य तन्मे ब्रूहि पितामह // 12 त्यक्तो मातापितृभ्यां यः सवर्ण प्रतिपद्यते / ___ भीष्म उवाच / तद्गोत्रवर्णतस्तस्य कुर्यात्संस्कारमच्युत // 24 रेतजो वा भवेत्पुत्रस्त्यक्तो वा क्षेत्रजो भवेत् / अथ देया तु कन्या स्यात्तद्वर्णेन युधिष्ठिर / अध्यूढः समयं भित्त्वेत्येतदेव निबोध मे // 13 संस्कर्तुं मातृगोत्रं च मातृवर्णविनिश्चये // 25 युधिष्ठिर उवाच / कानीनाध्यूढजौ चापि विज्ञेयौ पुत्रकिल्बिषौ / रेतोज विद्म वै पुत्र क्षेत्रजस्यागमः कथम् / तावपि स्वाविव सुतौ संस्कार्याविति निश्चयः // 26 अध्यूढं विद्म वै पुत्रं हित्वा च समयं कथम्॥१४ क्षेत्रजो वाप्यपसदो येऽध्यूढास्तेषु चाप्यथ / भीष्म उवाच / आत्मवद्वै प्रयुञ्जीरन्संस्कारं ब्राह्मणादयः / / 2. आत्मजं पुत्रमुत्पाद्य यस्त्यजेत्कारणान्तरे। धर्मशास्त्रेषु वर्णानां निश्चयोऽयं प्रदृश्यते। न तत्र कारणं रेतः स क्षेत्रस्वामिनो भवेत् // 15 एतत्ते सर्वमाख्यातं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि // 28 पुत्रकामो हि पुत्रार्थे यां वृणीते विशां पते / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि सत्र क्षेत्रं प्रमाणं स्यान्न वै तत्रात्मजः सुतः // 16 एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः // 19 // अन्यत्र क्षेत्रजः पुत्रो लक्ष्यते भरतर्षभ / न ह्यात्मा शक्यते हन्तुं दृष्टान्तोपगतो ह्यसौ // 17 युधिष्ठिर उवाच / कश्चिच्च कृतकः पुत्रः संग्रहादेव लक्ष्यते / दर्शने कीदृशः स्नेहः संवासे च पितामह / न तत्र रेतः क्षेत्र वा प्रमाणं स्याधुधिष्ठिर // 18 महाभाग्यं गवां चैव तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 युधिष्ठिर उवाच / भीष्म उवाच / कीदृशः कृतकः पुत्रः संग्रहादेव लक्ष्यते / हन्त ते कथयिष्यामि पुरावृत्तं महाद्युते / -2580 - Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 50. 21 अनुशासनपर्व [ 18. 51. 2 नहुषस्य च संवादं महर्षेच्यवनस्य च // 2 प्रकीर्य सर्वतः सर्वे जालं चकृषिरे तदा // 16 पुरा महर्षि,यवनो भार्गवो भरतर्षभ / अभीतरूपाः संहृष्टास्तेऽन्योन्यवशवर्तिनः / / उदवासकृतारम्भो बभूव सुमहाव्रतः // 3 बबन्धुस्तत्र मत्स्यांश्च तथान्याञ्जलचारिणः // 17 निहत्य मानं क्रोधं च प्रहर्ष शोकमेव च / तथा मत्स्यैः परिवृतं च्यवनं भृगुनन्दनम् / वर्षाणि द्वादश मुनिर्जलवासे धृतव्रतः // 4 आकर्षन्त महाराज जालेनाथ यदृच्छया // 18 भाइधत्सर्वभूतेषु विस्रम्भं परमं शुभम् / नदीशैवलदिग्धाङ्गं हरिश्मश्रुजटाधरम् / जलेचरेषु सत्त्वेषु शीतरश्मिरिव प्रभुः // 5 लग्गैः शङ्खगणैर्गात्रैः कोष्ठश्चित्ररिवावृतम् // 19 स्थाणुभूतः शुचिर्भूत्वा दैवतेभ्यः प्रणम्य च / तं जालेनोद्धृतं दृष्ट्वा ते तदा वेदपारगम् / गङ्गायमुनयोर्मध्ये जलं संप्रविवेश ह // 6 सर्वे प्राञ्जलयो दाशाः शिरोभिः प्रापतन्भुवि // 20 गङ्गायमुनयोर्वेगं सुमीमं भीमनिःस्वनम् / परिखेदपरित्रासाजालस्याकर्षणेन च / प्रतिजग्राह शिरसा पातवेगसमं जवे // 7 मत्स्या बभूवुपिन्नाः स्थलसंकर्षणेन च // 21 गङ्गा च यमुना चैव सरितश्चानुगास्तयोः / स मुनिस्तत्तदा दृष्ट्वा मत्स्यानां कदनं कृतम् / प्रदक्षिणमूर्षि चक्रुर्न चैनं पर्यपीडयन् / / 8 बभूव कृपयाविष्टो निःश्वसंश्च पुनः पुनः // 22 पन्तर्जले स सुष्वाप काष्ठभूतो महामुनिः / निषादा ऊचुः। ततश्चोर्ध्वस्थितो धीमानभवद्भरतर्षभ // 9 अज्ञानाद्यत्कृतं पापं प्रसादं तत्र नः कुरु / अलौकसां च सत्त्वानां बभूव प्रियदर्शनः / करवाम प्रियं किं ते तन्नो ब्रूहि महामुने / / 23 उपाजिघन्त च तदा मत्स्यास्तं हृष्टमानसाः / भीष्म उवाच / तत्र तस्यासतः कालः समतीतोऽभवन्महान् // 10 | इत्युक्तो मत्स्यमध्यस्थयवनो वाक्यमब्रवीत् / ततः कदाचित्समये कस्मिंश्चिन्मत्स्यजीविनः / यो मेऽद्य परमः कामस्तं शृणुध्वं समाहिताः॥२४ तं देशं समुपाजग्मुर्जालहस्ता महायुते // 11 प्राणोत्सर्ग विक्रयं वा मत्स्यैर्यास्याम्यहं सह / निषादा बहवस्तत्र मत्स्योद्धरणनिश्चिताः / संवासान्नोत्सहे त्यक्तुं सलिलाध्युषितानिमान् // 25 व्यायता बलिनः शूराः सलिलेष्वनिवर्तिनः। इत्युक्तास्ते निषादास्तु सुभृशं भयकम्पिताः / अभ्याययुश्च तं देशं निश्चिता जालकर्मणि // 12 / सर्वे विषण्णवदना नहुषाय न्यवेदयन् // 26 जालं च योजयामासुर्विशेषेण जनाधिप। इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि मत्स्योदकं समासाद्य तदा भरतसत्तम / / 13 पञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥५०॥ ततस्ते बहुभिर्योगैः कैवर्ता मत्स्यकाशिणः / गङ्गायमुनयोर्वारि जालैरभ्यकिरंस्ततः / / 14 भीष्म उवाच / जालं सुविततं तेषां नवसूत्रकृतं तथा / नहुषस्तु ततः श्रुत्वा च्यवनं तं तथागतम् / विस्तारायामसंपन्नं यत्तत्र सलिले क्षमम् // 15 / त्वरितः प्रययौ तत्र सहामात्यपुरोहितः // 1 ततस्ते सुमहच्चैव बलवच्च सुवर्तितम् / शौचं कृत्वा यथान्यायं प्राञ्जलिः प्रयतो नृपः / - 2581 - Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 51. 2] महाभारते [ 13. 51. 23 - आत्मानमाचचक्षे च च्यवनाय महात्मने // 2 नहुष उवाच / अर्चयामास तं चापि तस्य राज्ञः पुरोहितः / अर्धराज्यं समग्र वा निषादेभ्यः प्रदीयताम् / सत्यव्रतं महाभागं देवकल्पं विशां पते // 3. एतन्मूल्यमहं मन्ये किं वान्यन्मन्यसे द्विज // 12 नहुष उवाच / च्यवन उवाच। करवाणि प्रियं किं ते तन्मे व्याख्यातुमर्हसि / अर्धराज्यं समग्रं वा नाहमर्हामि पार्थिव / सर्व कर्तास्मि भगवन्यद्यपि स्यात्सुदुष्करम् // 4 सदृशं दीयतां मूल्यमृषिभिः सह चिन्त्यताम् // 13 च्यवन उवाच / भीष्म उवाच / श्रमेण महता युक्ताः कैवर्ता मत्स्यजीविनः।। महर्षेर्वचनं श्रुत्वा नहुषो दुःखकर्शितः। मम मूल्यं प्रयच्छेभ्यो मत्स्यानां विक्रयैः सह // 5 स चिन्तयामास तदा सहामात्यपुरोहितः // 14 नहुष उवाच / तत्र त्वन्यो वनचरः कश्चिन्मूलफलाशनः / सहस्रं दीयतां मूल्यं निषादेभ्यः पुरोहितः / नहुषस्य समीपस्थो गविजातोऽभवन्मुनिः॥ 15 निष्क्रयाथं भगवतो यथाह भृगुनन्दनः // 6 स समाभाष्य राजानमब्रवीहिजसत्तमः / च्यवन उवाच / तोषयिष्याम्यहं विप्रं यथा तुष्टो भविष्यति // 16 नाहं मिथ्यावचो बृयां स्वैरेष्वपि कुतोऽन्यथा / सहस्रं नाहमर्हामि किं वा त्वं मन्यसे नृप। भवतो यदहं ब्रूयां तत्कार्यमविशङ्कया // 17 सदृशं दीयतां मूल्यं स्वबुद्ध्या निश्चयं कुरु // 7 नहुष उवाच / नहुष उवाच / ब्रवीतु भगवान्मूल्यं महर्षः सदृशं भृगोः। . सहस्राणां शतं क्षिप्रं निषादेभ्यः प्रदीयताम् / परित्रायस्व मामस्माद्विषयं च कुलं च मे // 18 स्यादेतत्तु भवेन्मूल्यं किं वान्यन्मन्यते भवान् / / 8 हन्याद्धि भगवान्क्रुद्धस्त्रैलोक्यमपि केवलम् / __च्यवन उवाच / किं पुनीं तपोहीनं बाहुवीर्यपरायणम् // 19 नाहं शतसहस्रेण निमेयः पार्थिवर्षभ / अगाधेऽम्भसि मनस्य सामात्यस्य सहविजः। दीयतां सदृशं मूल्यममात्यैः सह चिन्तय / / 9 प्लवो भव महर्षे त्वं कुरु मूल्यविनिश्चयम् // 20 नहुष उवाच / भीष्म उवाच / नहुषस्य वचः श्रुत्वा गविजातः प्रतापवान् / कोटिः प्रदीयतां मूल्यं निषादेभ्यः पुरोहित / उवाच हर्षयन्सर्वानमात्यान्पार्थिवं च तम् // 21 यदेतदपि नौपम्यमतो भूयः प्रदीयताम् // 10 अनया महाराज द्विजा वर्णमहत्तमाः / च्यवन उवाच / गावश्च पृथिवीपाल गौमूल्यं परिकल्प्यताम् // 22 राजन्नार्हाम्यहं कोटि भूयो वापि महाद्युते। / नहुषस्तु ततः श्रुत्वा महर्षेर्वचनं नृप।। सदृशं दीयतां मूल्यं ब्राह्मणैः सह चिन्तय // 11 / हर्षेण महता युक्तः सहामात्यपुरोहितः // 23 -2582 - Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 51. 24 ] अनुशासनपर्व [ 13. 52. 1 अभिगम्य भृगोः पुत्रं च्यवनं संशितव्रतम् / च्यवन उवाच। इदं प्रोवाच नृपते वाचा संतपयन्निव // 24 कृपणस्य च यच्चक्षुर्मुनेराशीविषस्य च / उत्तिष्ठोत्तिष्ठ विर्षे गवा क्रीतोऽसि भार्गव / नरं समूलं दहति कक्षमग्निरिव ज्वलन् // 38 एतन्मूल्यमहं मन्ये तव धर्मभृतां वर // 25 प्रतिगृह्णाभि वो धेनुं कैवर्ता मुक्तकिल्बिषाः / . च्यवन उवाच / दिवं गच्छत वै क्षिप्रं मत्स्यैालोद्धृतैः सह // 39 उत्तिष्ठाम्येष राजेन्द्र सम्यक्क्रीतोऽस्मि तेऽनघ / भीष्म उवाच / गोभिस्तुल्यं न पश्याभि धनं किंचिदिहाच्युत // 26 ततस्तस्य प्रसादात्ते महावितात्मनः / कीर्तनं श्रवणं दानं दर्शनं चापि पार्थिव / निषादास्तेन वाक्येन सह मत्स्यैर्दिवं ययुः // 40 गवां प्रशस्यते वीर सर्वपापहरं शिवम् // 27 ततः स राजा नहुषो विस्मितः प्रेक्ष्य धीवरान् / गावो लक्ष्म्याः सदा मूलं गोषु पाप्मा न विद्यते / आरोहमाणांत्रिदिवं मत्स्यांश्च भरतर्षभ / 41 अन्नमेव सदा गावो देवानां परमं हविः // 28 ततस्तौ गविजश्चैव च्यवनश्च भृगद्वहः / स्वाहाकारवषदारी गोषु नित्यं प्रतिष्ठितौ / वराभ्यामनुरूपाभ्यां छन्दयामासतुर्नुपम् // 42 गावो यज्ञप्रणेच्यो वै तथा यज्ञस्य ता मुखम् // 29 ततो राजा महावीर्यो नहुषः पृथिवीपतिः / अमृतं ह्यक्षयं दिव्यं क्षरन्ति च वहन्ति च।। परमित्यब्रवीत्प्रीतस्तदा भरतसत्तम / / 43 / अमृतायतनं चैताः सर्वलोकनमस्कृताः // 30 ततो जग्राह धर्मे स स्थितिमिन्द्रनिभो नृपः / तेजसा वपुषा चैव गावो वह्निसमा भुवि / तथेति चोदितः प्रीतस्तावृषी प्रत्यपूजयत् // 44 गावो हि सुमहत्तेजः प्राणिनां च सुखप्रदाः // 31 समाप्तदीक्षच्यवनस्ततोऽगच्छत्स्वमाश्रमम् / निविष्टं गोकुलं यत्र श्वासं मुश्चति निर्भयम् / गविजश्च महातेजाः स्वमाश्रमपदं ययौ // 45 विराजयति तं देशं पाप्मानं चापकर्षति / / 32 निषादाश्च दिवं जग्मुस्ते च मत्स्या जनाधिप / गावः स्वर्गस्य सोपानं गावः स्वर्गेऽपि पूजिताः / नहुषोऽपि वरं लब्ध्वा प्रविवेश पुरं स्वकम् // 46 गावः कामदुघा देव्यो नान्यत्किचित्परं स्मृतम् // एतत्ते कथितं तात यन्मां त्वं परिपृच्छसि / इत्येतद्गोषु मे प्रोक्तं माहात्म्यं पार्थिवर्षभ / दर्शने यादृशः स्नेहः संवासे च युधिष्ठिर // 47 गुणैकदेशवचनं शवयं पारायणं न तु // 34 महाभाग्यं गवां चैव तथा धर्मविनिश्चयम् / निषादा ऊचुः / किं भूयः कथ्यतां वीर किं ते हृदि विवक्षितम् // दर्शनं कथनं चैव सहास्माभिः कृतं मुने। इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि सतां सप्तपदं मित्रं प्रसादं नः कुरु प्रभो // 35 एकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः // 51 // हवींषि सर्वाणि यथा ह्युपभुङ्क्ते हुताशनः / एवं त्वमपि धर्मात्मन्पुरुषाग्निः प्रतापवान // 36 युधिष्ठिर उवाच / प्रसादयामहे विद्वन्भवन्तं प्रणता वयम् / / संशथो मे महाप्राज्ञ सुमहान्सागरोपमः / अनुग्रहार्थमस्माकमियं गौः प्रतिगृह्यताम् / / 37 तन्मे शृणु महाबाहो श्रुत्वा चाख्यातुमर्हसि // 1 - 2583 - Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 52.2] महाभारते [13. 52. 30 कौतूहलं मे सुमहज्जामदग्न्यं प्रति प्रभो। प्रत्यग्राहयदव्यग्रो महात्मा नियतव्रतः // 15 रामं धर्मभृतां श्रेष्ठं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि // 2 सत्कृत्य स तथा विप्रमिदं वचनमब्रवीत् / कथमेष समुत्पन्नो रामः सत्यपराक्रमः / भगवन्परवन्तौ स्वो ब्रूहि किं करवावहे // 16 कथं ब्रह्मर्षिवंशे च क्षत्रधर्मा व्यजायत // 3 यदि राज्यं यदि धनं यदि गाः संशितव्रत / तदस्य संभवं राजनिखिलेनानुकीर्तय / यज्ञदानानि च तथा ब्रूहि सर्व ददामि ते / / 17 कौशिकाच कथं वंशात्क्षत्राद्वै ब्राह्मणोऽभवत् // 4 इदं गृहमिदं राज्यमिदं धर्मासनं च ते / अहो प्रभावः सुमहानासीद्वै सुमहात्मनोः / राजा स्वमसि शाध्युवी भृत्योऽहं परवांस्त्वयि // 18 रामस्य च नरव्याघ्र विश्वामित्रस्य चैव ह // 5 एवमुक्ते सतो वाक्ये च्यवनो भार्गवस्तदा / कथं पुत्रानतिक्रम्य तेषां नप्तृष्वथाभवत् / कुशिकं प्रत्युवाचेदं मुदा परमया युतः // 19 एष दोषः सुतान्हित्वा तन्मे व्याख्यातुमर्हसि // 6 / न राज्यं कामये राजन्न धनं न च योषितः / भीष्म उवाच / न च गा न च ते देशान्न यज्ञाम्श्रयतामिदम् // 2. भत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / नियमं कंचिदारप्स्ये युवयोर्यदि रोचते। च्यवनस्य च संवादं कुशिकस्य च भारत // 7 परिचर्योऽस्मि यत्ताभ्यां युवाभ्यामविशङ्कया // 21 एतं दोषं पुरा सृष्ट्वा भार्गवश्च्यवनस्तदा / एवमुक्ते तदा तेन दंपती तौ जहर्षतुः / आगामिनं महाबुद्धिः स्ववंशे मुनिपुंगवः // 8 प्रत्यव्रतां च तमृषिमेवमस्त्विति भारत // 22 संचिन्त्य मनसा सर्व गणदोषबलाबलम। अथ तं कुशिको हृष्टः प्रावेशयदनुत्तमम् / दग्धुकामः कुलं सर्व कुशिकानां तपोधनः / / 9 गृहोदेशं ततस्तत्र दर्शनीयमदर्शयत् / / 23 च्यवनस्तमनुप्राप्य कुशिकं वाक्यमब्रवीत् / इयं शय्या भगवतो यथाकाममिहोप्यताम् / वस्तुमिच्छा समुत्पन्ना त्वया सह ममानघ / / 10 प्रयतिष्यावहे प्रीतिमाहतुं ते तपोधन / / 24 कुशिक उवाच / अथ सूर्योऽतिचक्राम तेषां संवदतां तथा / भगवन्सहधर्मोऽयं पण्डितैरिह धार्यते / अथर्षिश्चोदयामास पानमन्नं तथैव च / / 25 प्रदानकाले कन्यानामुच्यते च सदा बुधैः // 11 तमपृच्छत्ततो राजा कुशिकः प्रणतस्तदा / यत्तु तावदतिक्रान्तं धर्मद्वारं तपोधन / किमन्मजातमिष्टं ते किमुपस्थापयाम्यहम् / / 26 तत्कार्य प्रकरिष्यामि तदनुज्ञातुमर्हसि / / 12 ततः स परया प्रीत्या प्रत्युवाच जनाधिपम् / ___ भीष्म उवाच / औपपत्तिकमाहारं प्रयच्छस्वेति भारत / / 27 अथासनमुपादाय च्यवनस्य महामुनेः / तद्वचः पूजयित्वा तु तथेत्याह स पार्थिवः / कुशिको भार्यया सार्धमाजगाम यतो मुनिः // 13 यथोपपन्नं चाहारं तस्मै प्रादाजनाधिपः // 28 प्रगृह्य राजा भृङ्गारं पाद्यमस्मै न्यवेदयत् / ततः स भगवान्भुक्त्वा दंपती प्राह धर्मवित् / कारयामास सर्वाश्च क्रियास्तस्य महात्मनः // 14 स्वप्नुमिच्छाम्यहं निद्रा बाधते मामिति प्रभो // 29 ततः स राजा च्यवनं मधुपर्क यथाविधि / सतः शय्यागृहं प्राप्य भगवानृषिसत्तमः / - 2584 - Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 52. 30 ] अनुशासनपर्व [ 13. 53. 17 संविवेश नरेन्द्रस्तु सपत्नीकः स्थितोऽभवत् // 30 अथ शून्येन मनसा प्रविवेश गृहं नृपः / न प्रबोध्योऽस्मि संसुप्त इत्युराचाथ भार्गवः / / ददर्श शयने तस्मिशयानं भृगुनन्दनम् // 4 संवाहितव्यौ पादौ मे जागर्तव्यं च वां निशि॥३१ विस्मितौ तौ तु दृष्ट्वा तं तदाश्चर्य विचिन्त्य च / अविशङ्कश्च कुशिकस्तथेत्याह स धर्मवित् / दर्शनात्तस्य च मुनेर्विश्रान्तौ संबभूवतुः // 5 न प्रबोधयतां तं च तौ तदा रजनीक्षये / / 32 यथास्थानं तु तौ स्थित्वा भूयस्तं संववाहतुः / यथादेशं महर्षेन्तु शुश्रूषापरमौ तदा / अथापरेण पार्श्वन सुष्वाप स महामुनिः // 6 बभूवतुर्महाराज प्रयतावथ दंपती // 33 . तेनैव च स कालेन प्रत्यबुध्यत वीर्यवान् / ततः स भगवान्विप्रः समादिश्य नराधिपम् / न च तौ चक्रतुः किंचिद्विकारं भयशङ्कितौ // 7 सुष्वापैकेन पार्श्वन दिवसानेकविंशतिम् // 34 प्रतिबुद्धस्तु स मुनिस्तौ प्रोवाच विशां पते / स तु राजा निराहारः सभार्यः कुरुनन्दन / तैलाभ्यङ्गो दीयतां मे स्नास्येऽहमिति भारत // 8 पर्युपासत तं हृष्टभयवनाराधने रतः // 35 तथेति तौ प्रतिश्रुत्य क्षुधितौ श्रमकर्शितौ / भार्गवस्तु समुत्तस्थौ स्वयमेव तपोधनः / शतपाकेन तैलेन महाहेणोपतस्थतुः // 9 अकिंचिदुक्त्वा तु गृहान्निश्चक्राम महातपाः // 36 ततः सुखासीनमृर्षि वाग्यतौ संववाहतुः / तमन्वगच्छतां तौ तु क्षुधितौ श्रमकर्शितौ / न च पर्याप्तमित्याह भार्गवः सुमहातपाः // 10 भार्यापती मुनिश्रेष्ठो न च ताबवलोकयत् // 37 यदा तौ निर्विकारौ तु लक्षयामास भार्गवः / तयोस्तु प्रेक्षतोरेव भार्गवाणां कुलोद्वहः / तत उत्थाय सहसा स्नानशालां विवेश ह / अन्तर्हितोऽभूद्राजेन्द्र ततो राजापतक्षितौ // 38 क्लप्तमेव तु तत्रासीत्नानीयं पार्थिवोचितम् // 11 स मुहूर्त समाश्वस्य सह देव्या महाद्युतिः / असत्कृत्य तु तत्सर्व तत्रैवान्तरधीयत / पुनरन्वेषणे यत्नमकरोत्परमं तदा / / 39 स मुनिः पुनरेवाथ नृपतेः पश्यतस्तदा / इति श्रीमहाभाले अनुशासनपर्वणि नासूयां चक्रतुस्तौ च दंपती भरतर्षभ // 12 द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः // 52 // अथ स्नातः स भगवान्सिहासनगतः प्रभुः / दर्शयामास कुशिकं सभार्यं भृगुनन्दनः // 13 युधिष्ठिर उवाच / संहृष्टवदनो राजा सभार्यः कुशिको मुनिम् / तस्मिन्नन्तर्हिते विप्रे राजा किमकरोत्तदा / सिद्धमन्नमिति प्रबो निर्विकारो न्यवेदयत् / / 14 भार्या चास्य महाभागा तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 आनीयतामिति मुनिस्तं चोवाच नराधिपम् / भीष्म उवाच। राजा च समुपाजढे तदन्नं सह भार्यया // 15 अदृष्ट्वा स महीपालस्तमृषि सह भार्यया। मांसप्रकारान्विविधाञ्शाकानि विविधानि च / परिश्रान्तो निववृते ब्रीडितो नष्टचेतनः // 2 वेसवारविकारांश्च पानकानि लघनि च // 16 स प्रविश्य पुरीं दीनो नाभ्यभाषत किंचन / रसालापूपकांश्चित्रान्मोदकानथ षाडवान् / तदेव चिन्तयामास च्यवनस्य विचेष्टितम् // 3 / रसान्नानाप्रकारांश्च वन्यं च मुनिभोजनम् // 17 घ.भा. 324 --2585 -- Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 53. 18] महाभारते [ 13. 53. 47 फलानि च विचित्राणि तथा भोज्यानि भूरिशः / भगवन्क रथो यातु ब्रवीतु भृगुनन्दनः / बदरेङ्गुदकाश्मर्यभल्लातकवटानि च // 18 यत्र वक्ष्यसि विप्रर्षे तत्र यास्यति ते रथः // 33 गृहस्थानां च यद्भोज्यं यच्चापि वनवासिनाम् / एकमुक्तस्तु भगवान्प्रत्युवाचाथ तं नृपम् / सर्वमाहारयामास राजा शापभयान्मुनेः // 19 / इतःप्रभृति यातव्यं पदकं पदकं शनैः / / 34 अथ सर्वमुपन्यस्तमग्रतच्यवनस्य तत् / श्रमो मम यथा न स्यात्तथा मे छन्दचारिणौ / ततः सर्व समानीय तञ्च शय्यासनं मुनिः // 20 सुखं चैवास्मि वोढव्यो जनः सर्वश्च पश्यतु // 35 वस्त्रैः शुभैरवच्छाद्य भोजनोपस्करैः सह / नोत्सार्यः पथिकः कश्चित्तेभ्यो दास्याम्यहं वसु / सर्वमादीपयामास च्यवनो भृगुनन्दनः // 21 / ब्राह्मणेभ्यश्च ये कामानर्थयिष्यन्ति मां पथि // 36 न च ती चक्रतुः कोपं दंपती सुमहाव्रतौ / सर्व दास्याम्यशेषेण धनं रत्नानि चैव हि / तयोः संप्रेक्षतोरेव पुनरन्तर्हितोऽभवत् // 22 क्रियतां निखिलेनैतन्मा विचारय पार्थिव // 37 तत्रैव च स राजर्षिस्तस्थौ तां रजनीं तदा / तस्य तद्वचनं श्रुत्वा राजा भृत्यानथाब्रवीत् / सभार्यो वाग्यतः श्रीमान्न च तं कोप आविशत् // यद्यद्भूयान्मुनिस्तत्तत्सर्वं देयमशङ्कितैः // 38 नित्यं संस्कृतमन्नं तु विविधं राजवेश्मनि / ततो रत्नान्यनेकानि स्त्रियो युग्यमजाविकम् / शयनानि च मुख्यानि परिषेकाश्च पुष्कलाः // 24 कृताकृतं च कनकं गजेन्द्राश्चाचलोपमाः // 39 वलं च विविधाकारमभवत्समुपार्जितम् / अन्वगच्छन्त तमृषि राजामात्याश्च सर्वशः / न शशाक ततो द्रष्टुमन्तरं च्यवनस्तदा // 25 हाहाभूतं च तत्सर्वमासीन्नगरमार्तिमत् // 40 पुनरेव च विप्रर्षिः प्रोवाच कुशिकं नृपम् / तौ तीक्ष्णाग्रेण सहसा प्रतोदेन प्रचोदितौ / सभार्यो मां रथेनाशु वह यत्र ब्रवीम्यहम् // 26 पृष्ठे विद्धौ कटे चैव निर्विकारौ तमूहतुः // 41 तथेति च प्राह नृपो निर्विशङ्कस्तपोधनम् / वेपमानौ निराहारौ पञ्चाशद्रात्रकर्शितौ / क्रीडारथोऽस्तु भगवन्नुत सांग्रामिको रथः // 27 कथंचिदूहतुर्वीरौ दंपती तं रथोत्तमम् / / 42 इत्युक्तः स मुनिस्तेन राज्ञा हृष्टेन तद्वचः / बहुशो भृशविद्वौ तौ क्षरमाणौ क्षतोद्भवम् / च्यवनः प्रत्युवाचेदं हृष्टः परपुरंजयम् // 28 ददृशाते महाराज पुष्पिताविव किंशुको / / 43 सज्जीकुरु रथं क्षिप्रं यस्ते सांग्रामिको मतः। तौ दृष्ट्वा पौरवर्गस्तु भृशं शोकपरायणः / सायुधः सपताकश्च सशक्तिः कणयष्टिमान् // 29 अभिशापभयात्रस्तो न च किंचिदुवाच ह // 44 कित्रिणीशतनिघोषो युक्तस्तोमरकल्पनैः / द्वन्द्वशश्चावन्सर्वे पश्यध्वं तपसो बलम् / गदाखड्गनिबद्धश्च परमेषुशतान्वितः / / 30 क्रुद्धा अपि मुनिश्रेष्ठं वीक्षितुं नैव शक्नुमः // 45 ततः स तं तथेत्युक्त्वा कल्पयित्वा महारथम् / अहो भगवतो बीर्य महर्षेर्भावितात्मनः / भायाँ वामे धुरि तदा चात्मानं दक्षिणे तथा // 31 / राज्ञश्चापि सभार्यस्य धैर्य पश्यत यादृशम् // 46 त्रिदंष्ट्र वज्रसूच्यग्रं प्रतोदं तत्र चादधत् / श्रान्तावपि हि कृच्छ्रेण रथमेतं समूहतुः / सर्वमेतत्ततो दत्त्वा नृपो वाक्यमथाब्रवीत् // 32 / न चैतयोर्विकारं वै ददर्श भृगुनन्दनः // 47 -2586 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 53. 48 ] अनुशासनपर्व [ 13.54. 3 मीन उवाच ! नैतच्चित्रं तु भगवंस्त्वयि सत्यपराक्रम // 62 ततः स निर्विकारौ तौ दृष्ट्वा भृगुकुलोद्वहः / इत्युक्तः प्रत्युवाचेदं च्यवनः कुशिकं तदा / वसु विश्राणयामास यथा वैश्रवणस्तथा // 48 आगच्छेथाः सभार्यश्च त्वमिहेति नराधिप // 63 तत्रापि राजा प्रीतात्मा यथाज्ञप्तमथाकरोत् / इत्युक्तः समनुज्ञातो राजर्षिरभिवाद्य तम् / ततोऽस्य भगवान्प्रीलो बभूव मुनिसत्तमः // 49 प्रययौ वपुषा युक्तो नगरं देवराजवत् // 64 अवतीर्य स्थश्रेष्ठादंपती तो मुमोच ह / तत एनमुपाजग्मुरमात्याः सपुरोहिताः / विमोच्य चैतौ विधिवत्ततो वाक्यमुवाच ह // 50 बलस्था गणिकायुक्ताः सर्वाः प्रकृतयस्तथा // 65 स्निग्धगम्भीरया वाचा भार्गवः सुप्रसन्नया / तैर्वृतः कुशिको राजा श्रिया परमया ज्वलन् / ददानि वां वरं श्रेष्टं तद्भूतामिति भारत / / 51 प्रविवेश पुरं हृष्टः पूज्यमानोऽथ बन्दिभिः // 66 सुकुमारौ च तो विद्वान्कराभ्यां मुनिसत्तमः / ततः प्रविश्य नगरं कृत्वा सर्वाहिकक्रियाः / पस्पर्शामृतकल्पाभ्यां स्नेहाद्भरतसत्तम / 52 भुक्त्वा सभार्यो रजनीमुवास स महीपतिः // 67 अथाब्रवीन्नपो वाक्यं श्रमो नास्त्यावयोरिह / ततस्तु तौ नवमभिवीक्ष्य यौवनं विश्रान्ती स्वः प्रभावात्ते ध्यानेनैवेति भार्गव // 53 परस्परं विगतजराविवामरौ / अथ तो भगवान्प्राह प्रहृष्ट-यवनस्तदा / ननन्दतुः शयनगतौ वपुर्धरौ न वृथा व्याहृतं पूर्व यन्मया तद्भविष्यति / / 54 श्रिया युतौ द्विजवरदत्तया तया // 68 रमणीयः समुद्देशो गङ्गातीरमिदं शुभम् / स चाप्यपि गुकुलकीर्तिवर्धनकंचित्कालं व्रतपरो निवत्स्यामीह पार्थिव / / 55 ___ स्तपोधनो वनमभिराममृद्धिमत् / गम्यतां स्वपुरं पुत्र विश्रान्तः पुनरेष्यसि / मनीषया बहुविधरत्नभूषितं इहस्थं मां सभार्यस्त्वं द्रष्टांस श्वो नराधिप / / 56 ससर्ज यन्नास्ति शतक्रतोरपि / / 69 न च मन्युस्त्वया कार्यः श्रेयस्ते समुपस्थितम् / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि यत्काङ्कितं हृदिस्थं ते तत्सर्वं संभावष्यति // 57 त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः // 53 // इत्येवमुक्तः कुशिकः प्रहृष्टेनान्तरात्मना / प्रोवाच मुनिशार्दूलमिदं वचनमर्थवत् // 58 भीष्म उवाच / न मे मन्युमहाभाग पूतोऽस्मि भगवस्त्वया / ततः स राजा राज्यन्ते प्रतिबुद्धो महामनाः / संवृत्तौ यौवनस्यौ खो वपुष्मन्ती बलान्वितौ / / 59 कृतपूर्वाह्नकः प्रायात्सभार्यस्तद्वनं प्रति // 1 प्रतोदेन व्रणा ये मे सभायस्य कृतास्त्वया। ततो ददर्श नृपतिः प्रासादं सर्वकाञ्चनम् / तान्न पश्यामि गात्रेषु स्वस्थोऽस्मि सह भार्यया॥ मणिस्तम्भसहस्राढ्यं गन्धर्वनगरोपमम् / इमां च देवीं पश्यामि मुने दिव्याप्सरोपमाम् / तत्र दिव्यानभिप्रायान्ददर्श कुशिकस्तदा / / 2 श्रिया परमया युक्तां यथादृष्टां मया पुरा // 61 पर्वतारम्यसानूंश्च नलिनीश्च सपङ्कजाः / तव प्रसादात्संवृत्तमिदं सर्व महामुने / चित्रशालाश्च विविधास्तोरणानि च भारत / --2587 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 54. 3] महामारते [13. 54. 32 शाद्वलोपचितां भूमि तथा काञ्चनकुट्टिमाम् // 3 - महार्हे शयने दिव्ये शयानं भृगुनन्दनम् // 18 सहकारान्प्रफुल्लांश्च केतकोद्दालकान्धवान् / तमभ्ययात्प्रहर्षेण नरेन्द्रः सह भार्यया / अशोकान्मुचुकुन्दांश्च फुल्लांश्चैवातिमुक्तकान् // 4 अन्तर्हितस्ततो भूयभ्यवनः शयनं च तत् // 19 चम्पकांस्तिलकान्भव्यान्पनसान्वञ्जुलानपि। ततोऽन्यस्मिन्वनोद्देशे पुनरेव ददर्श तम् / पुष्पितान्कर्णिकारांश्च तत्र तत्र ददर्श ह // 5 कौश्यां बृस्यां समासीनं जपमानं महाव्रतम् / श्यामां वारणपुष्पी च तथाष्टापदिकां लताम् / एवं योगबलाद्विप्रो मोहयामास पार्थिवम् / / 20 तत्र तत्र परिक्लप्ता ददर्श स महीपतिः // 6 क्षणेन तद्वनं चैव ते चैवाप्सरसां गणाः / वृक्षान्पद्मोत्पलधरान्सर्वतुकुसुमांस्तथा / गन्धर्वाः पादपाश्चैव सर्वमन्तरधीयत // 21 विमानच्छन्दकांश्चापि प्रासादान्पद्मसंनिभान् // 7 निःशब्दमभवच्चापि गङ्गाकूलं पुनर्नृप। शीतलानि च तोयानि क्वचिदुष्णानि भारत / कुशवल्मीकभूयिष्ठं बभूव च यथा पुरा // 22 आसनानि विचित्राणि शयनप्रवराणि च // 8 ततः स राजा कुशिकः सभार्यस्तेन कर्मणा / पर्यवान्सर्वसौवर्णान्परास्तिरणास्तृतान् / विस्मयं परमं प्राप्तस्तदृष्ट्वा महदद्भुतम् // 23 भक्ष्यभोज्यमनन्तं च तत्र तत्रोपकल्पितम् // 9 ततः प्रोवाच कुशिको भार्यां हर्षसमन्वितः / वाणीवादाञ्छुकांश्चापि शारिकाभृङ्गराजकान् / पश्य भद्रे यथा भावाश्चित्रा दृष्टाः सुदुर्लभाः // 24 कोकिलाञ्छतपत्रांश्च कोयष्टिमककुक्कुटान् // 10 प्रसादाद्धगुमुख्यस्य किमन्यत्र तपोबलात् / मयूरान्कुक्कुटांश्चापि पुत्रकाञ्जीवजीवकान् / तपसा तदवाप्यं हि यन्न शक्यं मनोरथैः / / 25 चकोरान्वानरान्हंसान्सारसांश्चक्रसाह्वयान् // 11 त्रैलोक्यराज्यादपि हि तप एव विशिष्यते / समन्ततः प्रणदितान्ददर्श सुमनोहरान् / तपसा हि सुतप्तेन क्रीडत्येष तपोधनः // 26 . कचिदप्सरसा संघान्गन्धर्वाणां च पार्थिव // 12 अहो प्रभावो ब्रह्मर्षेभ्यवनस्य महात्मनः / कान्ताभिरपरांस्तत्र परिष्वक्तान्ददर्श ह। इच्छन्नेष तपोवीर्यादन्याल्लोकान्सृजेदपि // 27 न ददर्श च तान्भूयो ददर्श च पुनर्नृपः / / 13 ब्राह्मणा एव जायेरन्पुण्यवाग्बुद्धिकर्मणः / गीतध्वनि सुमधुरं तथैवाध्ययनध्वनिम् / उत्सहेदिह कर्तुं हि कोऽन्यो वै च्यवनादृते // 28 हंसान्सुमधुरांश्चापि तत्र शुश्राव पार्थिवः // 14 / / ब्राह्मण्यं दुर्लभं लोके राज्यं हि सुलभं नरैः / तं दृष्ट्वात्यद्भुतं राजा मनसाचिन्तयत्तदा / ब्राह्मणस्य प्रभावाद्धि रथे युक्तौ स्वधुर्यवत् // 29 स्वप्नोऽयं चित्तविभ्रंश उताहो सत्यमेव तु // 15 इत्येवं चिन्तयानः स विदितश्यवनस्य वै। अहो सह शरीरेण प्राप्तोऽस्मि परमां गतिम् / संप्रेक्ष्योवाच स नृपं क्षिप्रमागम्यतामिति // 30 उत्तरान्वा कुरून्पुण्यानथ वाप्यमरावतीम् // 16 इत्युक्तः सहभार्यस्तमभ्यगच्छन्महामुनिम् / किं त्विदं महदाश्चर्य संपश्यामीत्यचिन्तयत् / शिरसा वन्दनीयं तमवन्दत स पार्थिवः / / 31 एवं संचिन्तयन्नेव ददर्श मुनिपुंगवम् / / 17 तस्याशिषः प्रयुज्याथ स मुनिस्तं नराधिपम् / तस्मिन्विमाने सौवर्णे मणिस्तम्भसमाकुले। निषीदेत्यब्रवीद्धीमान्सान्त्वयन्पुरुषर्षभ // 32 -2588 - Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 54. 38 ] अनुशासनपर्व [ 13. 55. 18 ततः प्रकृतिमापन्नो भार्गवो नृपते नृपम् / तैलाभ्यक्तस्य गमनं भोजनं च गृहे मम / उवाच श्लक्ष्णया वाचा तर्पयन्निव भारत // 33 समुपानीय विविधं यद्दग्धं जातवेदसा / राजन्सम्यग्जितानीह पञ्च पञ्चसु यत्त्वया / निर्याणं च रथेनाशु सहसा यत्कृतं त्वया // 5 मनःषष्ठानीन्द्रियाणि कृच्छ्रान्मुक्तोऽसि तेन वै // धनानां च विसर्गस्य वनस्यापि च दर्शनम् / सम्यगाराधितः पुत्र त्वयाहं वदतां वर। प्रासादानां बहूनां च काश्चनानां महामुने // 6 न हि ते वृजिनं किंचित्सुसूक्ष्ममपि विद्यते // 35 मणिविद्रुमपादानां पर्यङ्कानां च दर्शनम् / अनुजानीहि मां राजन्गमिष्यामि यथागतम् / पुनश्चादर्शनं तस्य श्रोतुमिच्छामि कारणम् // 7 प्रीतोऽस्मि तव राजेन्द्र वरश्च प्रतिगृह्यताम् // 36 अतीव ह्यत्र मुह्यामि चिन्तयानो दिवानिशम् / कुशिक उवाच / न चैवात्राधिगच्छामि सर्वस्यास्य विनिश्चयम् / अग्निमध्यगतेनेदं भगवन्संनिधौ मया / एतदिच्छामि कात्न्येन सत्यं श्रोतुं तपोधन // 8 वर्तितं भृगुशार्दूल यन्न दग्धोऽस्मि तद्बहु // 37 च्यवन उवाच / एष एव वरो मुख्यः प्राप्तो मे भृगुनन्दन / शृणु सर्वमशेषेण यदिदं येन हेतुना / यत्प्रीतोऽसि समाचारात्कुलं पूतं ममानघ // 38 न हि शक्यमनाख्यातुमेवं पृष्ठेन पार्थिव // 9 एष मेऽनुग्रहो विप्र जीविते च प्रयोजनम् / पितामहस्य वदतः पुरा देवसमागमे / एतद्राज्यफलं चैव तपश्चैतत्परं मम // 39 श्रुतवानस्मि यद्राजस्तन्मे निगदतः शृणु // 10 यदि तु प्रीतिमान्विप्र मयि त्वं भृगुनन्दन / ब्रह्मक्षत्रविरोधेन भविता कुलसंकरः / अस्ति मे संशयः कश्चित्तन्मे व्याख्यातुमर्हसि / / पौत्रस्ते भविता राजंस्तेजोवीर्यसमन्वितः // 11 ततः स्वकुलरक्षार्थमहं त्वा समुपागमम् / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि चतुष्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः // 54 // चिकीर्षन्कुशिकोच्छेदं संदिधक्षुः कुलं तव // 12 ततोऽहमागम्य पुरा त्वामवोचं महीपते / च्यवन उवाच। नियमं कंचिदारप्स्ये शुश्रूया क्रियतामिति // 13 वरश्च गृह्यतां मत्तो यश्च ते संशयो हृदि / न च ते दुष्कृतं किंचिदहमासादयं गृहे। तं च ब्रूहि नरश्रेष्ठ सर्वं संपादयामि ते // 1 तेन जीवसि राजर्षे न भवेथास्ततोऽन्यथा // 14 ___ कुशिक उवाच / एतां बुद्धि समास्थाय दिवसानेकविंशतिम् / यदि प्रीतोऽसि भगवंस्ततो मे वद भार्गव / सुप्तोऽस्मि यदि मां कश्चिद्वोधयेदिति पार्थिव // 15 कारणं श्रोतुमिच्छामि मद्गृहे वासकारितम् / / 2 यदा त्वया सभार्येण संसुप्तो न प्रबोधितः / शयनं चैकपार्श्वेन दिवसानेकविंशतिम् / अहं तदैव ते प्रीतो मनसा राजसत्तम / / 16 अकिंचिदुक्त्वा गमनं बहिश्च मुनिपुंगव / / 3 उत्थाय चास्मि निष्क्रान्तो यदि मां त्वं महीपते / अन्तर्धानमकस्माञ्च पुनरेव च दर्शनम् / पृच्छेः क्व यास्यसीत्येवं शपेयं त्वामिति प्रभो॥ पुनश्च शयनं विप्र दिवसानेकविंशतिम् // 4 / अन्तर्हितश्चास्मि पुनः पुनरेव च ते गृहे / -2589 - Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 55. 18 ] महाभारते [ 13. 56.9 योगमास्थाय संविष्टो दिवसानेकविंशतिम् // 18 / तीर्थयात्रां गमिष्यामि पुरा कालोऽतिवर्तते // 33 क्षुधितो मामसूयेथाः श्रमाद्वेति नराधिप / कुशिक उवाच / एतां बुद्धिं समास्थाय कर्शितौ वां मया क्षुधा॥१९ एष एव वरो मेऽद्य यत्त्वं प्रीतो महामुने / न च तेऽभूत्सुसूक्ष्मोऽपि मन्युर्मनसि पार्थिव / भवत्वेतद्यथात्थ त्वं तपः पौत्रे ममानघ / मभार्यस्य नरश्रेष्ठ तेन ते प्रीतिमानहम् // 20 ब्राह्मण्यं मे कुलस्यास्तु भगवन्नेष मे वरः // 34 भोजनं च समानाय्य यत्तदादीपितं मया / पुनश्चाख्यातुमिच्छामि भगवन्विस्तरेण वै / क्रुध्येथा यदि मात्सर्यादिति तन्मर्षितं च ते॥२१ कथमेष्यति विप्रत्वं कुलं मे भृगुनन्दन / ततोऽहं रथमारुह्य त्वामवोचं नराधिप / कश्चासौ भविता बन्धुर्मम कश्चापि संमतः // 35 सभार्यो मां वहस्वेति तच्च त्वं कृतवांस्तथा // 22 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि भविशको नरपते प्रीतोऽहं चापि तेन ते / पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः॥ 55 // धनोत्सर्गेऽपि च कृते न त्वां क्रोधः प्रधर्षयत् / / ततः प्रीतेन ते राजन्पुनरेतत्कृतं तव / च्यवन उवाच / सभार्यस्य वनं भूयस्तद्विद्धि मनुजाधिप / / 24 अवश्यं कथनीयं मे तवैतन्नरपुंगव / प्रीत्यर्थ तव चैतन्मे स्वर्गसंदर्शनं कृतम् / यदर्थं त्वाहमुच्छेत्तुं संप्राप्तो मनुजाधिप // 1 यत्ते वनेऽस्मिन्नृपते दृष्टं दिव्यं निदर्शनम् // 25 भृगूणां क्षत्रिया याज्या नित्यमेव जनाधिप / स्वर्गोदेशस्त्वया राजन्सशरीरेण पार्थिव / ते च भेदं गमिष्यन्ति दैवयुक्तेन हेतुना // 2 मुहूर्तमनुभूतोऽसौ सभार्येण नृपोत्तम // 26 क्षत्रियाश्च भृगून्सर्वान्वधिष्यन्ति नराधिप / निदर्शनार्थं तपसो धर्मस्य च नराधिप / आ गर्भादनुकृन्तन्तो दैवदण्डनिपीडिताः // 3 तत्र यासीस्पृहा राजस्तच्चापि विदितं मम // 27 तत उत्पत्स्यतेऽस्माकं कुले गोत्रविवर्धनः / ब्राह्मण्यं काङ्क्षसे हि त्वं तपश्च पृथिवीपते / औो नाम महातेजा ज्वलनार्कसमद्युतिः // 4 अवमन्य नरेन्द्रत्वं देवेन्द्रत्वं च पार्थिव / / 28 स त्रैलोक्यविनाशाय कोपाग्निं जनयिष्यति / एवमेतद्यथात्थ त्वं ब्राह्मण्यं तात दुर्लभम् / महीं सपर्वतवनां यः करिष्यति भस्मसात् // 5 ब्राह्मण्ये सति चर्षित्वमृषित्वे च तपस्विता // 29 कंचित्कालं तु तं वह्निं स एव शमयिष्यति / भविष्यत्येष ते कामः कुशिकात्कौशिको द्विजः / समुद्रे वडवावक्त्रे प्रक्षिप्य मुनिसत्तमः // 6 तृतीयं पुरुषं प्राप्य ब्राह्मणत्वं गमिष्यति // 30 पुत्रं तस्य महाभागमचीकं भृगुनन्दनम् / वंशस्ते पार्थिवश्रेष्ठ भृगूणामेव तेजसा / साक्षात्कृत्स्नो धनुर्वेदः समुपस्थास्यतेऽनघ // 7 पौत्रस्ते भविता विप्र तपस्वी पावकद्युतिः // 31 क्षत्रियाणामभावाय दैवयुक्तेन हेतुना / यः स देवमनुष्याणां भयमुत्पादयिष्यति / स तु तं प्रतिगृह्मैव पुत्रे संक्रामयिष्यति // 8 त्रयाणां चैव लोकानां सत्यमेतद्भवीमि ते // 32 जमदग्नौ महाभागे तपसा भावितात्मनि / वरं गृहाण राजर्षे यस्ते मनसि वर्तते / स चापि भृगुशार्दूलस्तं वेदं धारयिष्यति // 9 - 2590 - Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 58. 10] अनुशासनपर्व [ 13. 57. 15 कुलात्तु तव धर्मात्मन्कन्यां सोऽधिगमिष्यति / हीनां पार्थिवसंघातैः श्रीमद्भिः पृथिवीमिमाम् // 1 उद्भावनाथं भवतो वंशस्य नृपसत्तम / / 10 प्राप्य राज्यानि शतशो महीं जित्वापि भारत / गाधेदुहितरं प्राप्य पौत्रों तब महातपाः / कोटिशः पुरुषान्हत्वा परितप्ये पितामह // 2 ब्राह्मणं क्षत्रधर्माणं राममुत्पादयिष्यति // 11 का नु तासां वरस्त्रीणामवस्थाद्य भविष्यति / क्षत्रियं विप्रकर्माणं बृहस्पतिमिवौजसा। या हीनाः पतिभिः पुत्रैर्मातुलैर्धातृभिस्तथा / / 3 विश्वामित्रं तव कुले गाधेः पुत्रं सुधार्मिकम् / वयं हि तान्गुरून्हत्वा ज्ञातींश्च सुहृदोऽपि च / तपसा महता युक्तं प्रदास्यति महायुते / / 12 अवाक्शीर्षाः पतिष्यामो नरके नात्र संशयः // 4 स्त्रियौ तु कारणं तत्र परिवर्ते भविष्यतः / शरीरं योक्तुमिच्छामि तपसोग्रेण भारत / पितामहनियोगाद्वै नान्यथैतद्भविष्यति // 13 उपदिष्टमिहेच्छामि तत्त्वतोऽहं विशां पते // 5 तृतीये पुरुषे तुभ्यं ब्राझणत्वमुपैष्यति / वैशंपायन उवाच / भविता त्वं च संबन्धी भृगूणां भावितात्मनाम् / / युधिष्ठिरस्य तद्वाक्यं श्रुत्वा भीष्मो महामनाः / भीष्म उवाच / परीक्ष्य निपुणं बुद्ध्या युधिष्ठिरमभाषत / / 6 कुशिकस्तु मुनेर्वाक्यं च्यवनन्य महात्मनः / रहस्यमद्भुतं चैव शृणु वक्ष्यामि यत्त्वयि / श्रुत्वा हृष्टोऽभवद्राजा वाक्यं चेदमुवाच ह / या गतिः प्राप्यते येन प्रेत्यभावेषु भारत // 7 एवमस्त्विति धर्मात्मा तदा भरतसत्तम // 15 तपसा प्राप्यते स्वर्गस्तपसा प्राप्यते यशः / च्यवनस्तु महातेजाः पुनरेव नराधिपम् / / आयुःप्रकर्षा भोगाश्च लभ्यन्ते तपसा विभो / / 8 वरार्थ चोदयामास तमुवाच स पार्थिवः // 16 ज्ञानं विज्ञानमारोग्यं रूपं संपत्तथैव च / / पाढमेवं प्रहीष्यामि कार त्यत्रो महामुने / सौभाग्यं चैव तपसा प्राप्यते भरतर्षभ / / 9 ब्रह्मभूतं कुलं मेऽस्तु धर्मे चास्य मनो भवेत् // 17 / धनं प्राप्नोति तपसा मौनं ज्ञानं प्रयच्छति / एवमुक्तस्तथेत्येवं प्रत्युक्त्वा च्यवनो मुनिः। उपभोगांस्तु दानेन ब्रह्मचर्येण जीवितम् / / 10 अभ्यनुज्ञाय नृपति तीर्थयात्रां ययौ तदा // 18 अहिंसायाः फलं रूपं दीक्षाया जन्म वै कुले / एतत्ते कथितं सर्वमशेषेण यथा नृप / फलमूलाशिनां राज्यं स्वर्गः पर्णाशिनां भवेत् // 11 भृगूणां कुशिकानां च प्रति संबन्धकारणम् / / 19 पयोभक्षो दिवं याति लानेन द्रविणाधिकः / यथोक्तं मुनिना चापि तथा तदभवन्नप / गुरुशुश्रूषया विद्या नित्यश्राद्धेन संततिः // 12 जन्म रामस्य च मुनेर्विश्वामित्रस्य चैव ह / / 20 गवाड्यः शाकदीक्षाभिः स्वर्गमाहुस्तृणाशनात् / इति श्रीमहाभारते अनुशावनायणि स्त्रियस्त्रिषवणस्नानाद्वायुं पीत्वा ऋतुं लभेत् // 13 पटप व शत्तमोऽध्यायः // 56 // नित्यस्नायी भवेद्दक्षः संध्ये तु द्वे जपन्द्विजः / मलं साधयतो राज्यं नाकपृष्ठमनाशके // 14 युधिष्ठिर उवाच / स्थण्डिले शयमानानां गृहाणि शयनानि च / मुह्यामीव निशम्याच चिन्तयानः पुनः पुनः / चीरवल्कलवासोभिर्वासांस्याभरणानि च // 15 - 2591 - Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 57. 16 ] महाभारते [ 13. 57. 36 शय्यासनानि यानानि योगयुक्ते तपोधने / यावन्ति लोमानि भवन्ति धेन्वाअग्निप्रवेशे नियतं ब्रह्मलोको विधीयते // 16 स्तावत्फलं प्राप्नुते गोप्रदाता / रसानां प्रतिसंहारात्सौभाग्यमिह विन्दति / पुत्रांश्च पौत्रांश्च कुलं च सर्वआमिषप्रतिसंहारात्प्रजास्यायुष्मती भवेत् // 17 __ मासप्तमं तारयते परत्र // 29 उदवासं वसेद्यस्तु स नराधिपतिर्भवेत् / सदक्षिणां काञ्चनचारुशृङ्गी सत्यवादी नरश्रेष्ठ दैवतैः सह मोदते // 18 कांस्योपदोहां द्रविणोत्तरीयाम् / कीर्तिर्भवति दानेन तथारोग्यमहिंसया। धेनुं तिलानां ददतो द्विजाय द्विजशुश्रूषया राज्यं द्विजत्वं वापि पुष्कलम् // 19 ___ लोका वसूनां सुलभा भवन्ति // 30 पानीयस्य प्रदानेन कीर्तिर्भवति शाश्वती। स्वकर्मभिर्मानवं संनिबद्धं अन्नपानप्रदानेन तृप्यते कामभोगतः // 20 तीव्रान्धकारे नरके पतन्तम् / .. सान्त्वदः सर्वभूतानां सर्वशोकैर्विमुच्यते / महार्णवे नौरिव वायुयुक्ता देवशुश्रूषया राज्यं दिव्यं रूपं नियच्छति / / 21 दानं गवां तारयते परत्र // 31 दीपलोकप्रदानेन चक्षुष्मान्भवते नरः। यो ब्रह्मदेयां तु ददाति कन्यां प्रेक्षणीयप्रदानेन स्मृति मेधां च विन्दति // 22 भूमिप्रदानं च करोति विप्रे। गन्धमाल्यनिवृत्त्या तु कीर्तिर्भवति पुष्कला। ददाति चान्नं विधिवच्च यश्च केशश्मशून्धारयतामय्या भवति संततिः // 23. ___स लोकमाप्नोति पुरंदरस्य // 32 उपवासं च दीक्षां च अभिषेकं च पार्थिव। . नैवेशिकं सर्वगुणोपपन्नं कृत्वा द्वादश वर्षाणि वीरस्थानाद्विशिष्यते // 24 ___ ददाति वै यस्तु नरो द्विजाय / दासीदासमलंकारान्क्षेत्राणि च गृहाणि च / स्वाध्यायचारित्रगुणान्विताय ब्रह्मदेयां सुतां दत्त्वा प्राप्नोति मनुजर्षभ // 25 तस्यापि लोकाः कुरुषूत्तरेषु // 33 ऋतुभिश्चोपवासैश्च त्रिदिवं याति भारत / / धुर्यप्रदानेन गवां तथाश्वलभते च चिरं स्थानं बलिपुष्पप्रदो नरः // 26 लॊकानवाप्नोति नरो वसूनाम् / सुवर्णशृङ्गैस्तु विभूषितानां स्वर्गाय चाहुर्हि हिरण्यदानं . गवां सहस्रस्य नरः प्रदाता। ततो विशिष्टं कनकप्रदानम् // 34 प्राप्नोति पुण्यं दिवि देवलोक छत्रप्रदानेन गृहं वरिष्ठं मित्येवमाहुर्मुनिदेवसंघाः // 27 यानं तथोपानहसंप्रदाने / प्रयच्छते यः कपिलां सचैलां वस्त्रप्रदानेन फलं सुरूपं कांस्योपदोहां कनकाग्रशृङ्गीम् / गन्धप्रदाने सुरभिर्नरः स्यात् // 35 तैस्तैर्गुणैः कामदुधास्य भूत्वा पुष्पोपगं वाथ फलोपगं वा नरं प्रदातारमुपैति सा गौः // 28 यः पादपं स्पर्शयते द्विजाय। -2592 - Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 57. 36 ] अनुशासनपर्व [ 13. 58. 13 स स्त्रीसमृद्धं बहुरत्नपूर्ण लभत्ययत्नोपगतं गृहं वै / / 36 युधिष्ठिर उवाच / भक्षान्नपानीयरसप्रदाता यानीमानि बहिर्वेद्यां दानानि परिचक्षते / सर्वानवाप्नोति रसान्प्रकामम् / तेभ्यो विशिष्टं किं दानं मतं ते कुरुपुंगव // 1 . प्रतिश्रयाच्छादनसंप्रदाता प्राप्नोति तानेव न संशयोऽत्र // 37 कौतूहलं हि परमं तत्र मे वर्तते प्रभो। स्रग्धूपगन्धान्यनुलेपनानि दातारं दत्तमन्वेति यदानं तत्प्रचक्ष्व मे // 2 स्नानानि माल्यानि च मानवो यः। भीष्म उवाच / दद्याहिजेभ्यः स भवेदरोग अभयं सर्वभूतेभ्यो व्यसने चाप्यनुग्रहम् / स्तथाभिरूपश्च नरेन्द्रलोके // 38 यच्चाभिलषितं दद्यात्तृषितायाभियाचते // 3 बीजैरशून्यं शयनैरुपेतं दत्तं मन्येत यहत्त्वा तद्दानं श्रेष्ठमुच्यते / दद्याद्गृहं यः पुरुषो द्विजाय। . दत्तं दातारमन्वेति यदानं भरतर्षभ // 4 पुण्याभिरामं बहुरत्नपूर्ण . हिरण्यदानं गोदानं पृथिवीदानमेव च। लभत्यधिष्ठानवरं स राजन् // 39 एतानि वै पवित्राणि तारयन्त्यपि दुष्कृतम् // 5 सुगन्धचित्रास्तरणोपपन्नं एतानि पुरुषव्याघ्र साधुभ्यो देहि नित्यदा। दद्यान्नरो यः शयनं द्विजाय / दानानि हि नरं पापान्मोक्षयन्ति न संशयः // 6 रूपान्वितां पक्षवती मनोज्ञां यद्यदिष्टतमं लोके यच्चास्य दयितं गृहे। भार्यामयत्नोपगतां लभेत्सः // 40 तत्तद्गुणवते देयं तदेवाक्षयमिच्छता // 7 पितामहस्यानुचरो वीरशायी भवेन्नरः / प्रियाणि लभते लोके प्रियदः प्रियकृत्तथा / नाधिकं विद्यते तस्मादित्याहुः परमर्षयः // 41 प्रियो भवति भूतानामिह चैव परत्र च॥ 8 वैशंपायन उवाच / याचमानमभीमानादाशावन्तमकिंचनम् / तस्य तद्वचनं श्रुत्वा प्रीतात्मा कुरुनन्दनः / यो नार्चति यथाशक्ति स नृशंसो युधिष्ठिर // 9 नाश्रमेऽरोचयद्वासं वीरमार्गाभिकावया // 42 अमित्रमपि चेदीनं शरणैषिणमागतम् / ततो युधिष्ठिरः प्राह पाण्डवान्भरतर्षभ / व्यसने योऽनुगृह्णाति स वै पुरुषसत्तमः // 10 पितामहस्य यद्वाक्यं तद्वो रोचत्विति प्रभुः // 43 कृशाय ह्रीमते तात वृत्तिक्षीणाय सीदते। ततस्तु पाण्डवाः सर्वे द्रौपदी च यशस्विनी / अपहन्यात्क्षुधं यस्तु न तेन पुरुषः समः // 11 युधिष्ठिरस्य तद्वाक्यं बाढमित्यभ्यपूजयन् / / 44 ह्रिया तु नियतान्साधून्पुत्रदारैश्च कर्शितान् / / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि अयाचमानान्कौन्तेय सर्वोपायैर्निमत्रय // 12 सप्तपञ्चाशत्तमोऽध्यायः // 57 // आशिषं ये न देवेषु न मर्येषु च कुर्वते। अर्हन्तो नित्यसत्त्वस्था यथालब्धोपजीविनः // 13 अ. भा. 325 - 2593 - Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 58. 14 ] महाभारते [ 13. 58. 40 आशीविषसमेभ्यश्च तेभ्यो रक्षस्व भारत / यथा पत्याश्रयो धर्मः स्त्रीणां लोके सनातनः / तान्युक्तरुपजिज्ञास्य तथा द्विजवरोत्तमान् // 14 स देवः सा गतिर्नान्या तथास्माकं द्विजातयः // कृतैरावसथैर्नित्यं सप्रेष्यैः सपरिच्छदैः। यदि नो ब्राह्मणास्तात संत्यजेयुरपूजिताः / निमन्त्रयेथाः कौरव्य सर्वकामसुखावहैः // 15 पश्यन्तो दारुणं कर्म सततं क्षत्रिये स्थितम् // 30 यदि ते प्रतिगृह्णीयुः श्रद्धापूतं युधिष्ठिर / अवेदानामकीर्तीनामलोकानामयज्वनाम् / कार्यमित्येव मन्वाना धार्मिकाः पुण्यकर्मिणः // 16 कोऽस्माकं जीवितेनार्थस्तद्धि नो ब्राह्मणाश्रयम् // विद्यास्नाता व्रतस्नाता ये व्यपाश्रित्यजीविनः / अत्र ते वर्तयिष्यामि यथा धर्मः सनातनः / गूढस्वाध्यायतपसो ब्राह्मणाः संशितव्रताः // 17 राजन्यो ब्राह्मणं राजन्पुरा परिचचार ह / तेषु शुद्धेषु दान्तेषु स्वदारनिरतेषु च / वैश्यो राजन्यमित्येव शद्रो वैश्यमिति श्रुतिः॥३ः यत्करिष्यसि कल्याणं तत्त्वा लोकेषु धास्यति // दूराच्छूद्रेणोपचर्यो ब्राह्मणोऽग्निरिव ज्वलन् / यथाग्निहोत्रं सुहृतं सायं प्रातर्द्विजातिना।। संस्पृश्य परिचर्यस्तु वैश्येन क्षत्रियेण च // 33 तथा भवति दत्तं वै द्विजेभ्योऽथ कृतात्मना // 19 मृदुभावान्सत्यशीलान्सत्यधर्मानुपालकान् / एष ते विततो यज्ञः श्रद्धापूतः सदक्षिणः / आशीविषानिव क्रुद्धास्तानुपाचरत द्विजान् // 3 // विशिष्टः सर्वयज्ञेभ्यो ददतस्तात वर्तताम् / / 20 अपरेषां परेषां च परेभ्यश्चैव ये परे / निवापो दानसदृशस्तादृशेषु युधिष्ठिर / क्षत्रियाणां प्रतपता तेजसा च बलेन च / निवपन्पूजयंश्चैव तेष्वानृण्यं निगच्छति // 21 ब्राह्मणेष्वेव शाम्यन्ति तेजांसि च तपांसि च॥३। य एव नो न कुप्यन्ति न लुभ्यन्ति तृणेष्वपि / न मे पिता प्रियतरोन त्वं तात तथा प्रियः। त एव नः पूज्यतमा ये चान्ये प्रियवादिनः // 22 न मे पितुः पिता राजन्न चात्मा न च जीवितम् ये नो न बहु मन्यन्ते न प्रवर्तन्ति चापरे। त्वत्तश्च मे प्रियतरः पृथिव्यां नास्ति कश्चन / पुत्रवत्परिपाल्यास्ते नमस्तेभ्यस्तथाभयम् // 23 त्वत्तोऽपि मे प्रियतरा ब्राह्मणा भरतर्षभ // 37 ऋत्विक्पुरोहिताचार्या मृदुब्रह्मधरा हि ते। ब्रवीमि सत्यमेतच्च यथाहं पाण्डुनन्दन / क्षत्रेणापि हि संसृष्टं तेजः शाम्यति वै द्विजे // 24 तेन सत्येन गच्छेयं लोकान्यत्र स शंतनुः / / 3 अस्ति मे बलवानस्मि राजास्मीति युधिष्ठिर।। पंश्येयं च सतां लोकाञ्छुचीन्ब्रह्मपुरस्कृतान् / ब्राह्मणान्मा स्म पर्यश्नीर्वासोभिरशनेन च // 25 तत्र मे तात गन्तव्यमह्नाय च चिराय च / / 39 यच्छोभार्थ बलार्थ वा वित्तमस्ति तवानघ। सोऽहमेतादृशाल्लोकान्दृष्ट्वा भरतसत्तम / तेन ते ब्राह्मणाः पूज्याः स्वधर्ममनुतिष्ठता // 26 यन्मे कृतं ब्राह्मणेषु न तप्ये तेन पार्थिव / / 40 नमस्कार्यास्त्वया विप्रा वर्तमाना यथातथम् / / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि यथासुखं यथोत्साहं ललन्तु त्वयि पुत्रवत् / / 27 / अष्टपञ्चाशत्तमोऽध्यायः // 58 // को ह्मन्यः सुप्रसादानां सुहृदामल्पतोषिणाम् / वृत्तिमरीत्युपक्षेप्तुं त्वदन्यः कुरुसत्तम // 28 -2594 - Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 59. 1] अनुशासनपर्व [ 13. 60.6 कार्यमित्येव मन्वाना धर्मज्ञाः सूक्ष्मदर्शिनः // 13 युधिष्ठिर उवाच / अपि ते ब्रामणा भुक्त्वा गताः सोद्धरणान्गृहान् / यौ तु स्यातां चरणेनोपपन्नौ येषां दाराः प्रतीक्षन्ते पर्जन्यमिव कर्षकाः // 14 ____यौ विद्यया सदृशौ जन्मना च / अन्नानि प्रातःसवने नियता ब्रह्मचारिणः / ताभ्यां दानं कतरस्मै विशिष्ट ब्राह्मणास्तात भुञ्जानास्त्रेताग्नीप्रीणयन्तु ते // 15 मयाचमानाय च याचते च // 1 माध्यंदिनं ते सक्नं ददतस्तात वर्तताम् / भीष्म उवाच / गा हिरण्यानि वासांसि तेनेन्द्रः प्रीयतां तव // 16 श्रेयो वै याचतः पार्थ दत्तमाहुरयाचते / तृतीयं सवनं तत्ते वैश्वदेवं युधिष्ठिर / अर्हत्तमो वै धृतिमान्कृपणादधृतात्मनः / / 2 / यदेवेभ्यः पितृभ्यश्च विप्रेभ्यश्च प्रयच्छसि // 17 क्षत्रियो रक्षणधृतिर्ब्राह्मणोऽनर्थनाधृतिः / अहिंसा सर्वभूतेभ्यः संविभागश्च सर्वशः / ब्राह्मणो धृतिमान्विद्वान्देवान्प्रीणाति तुष्टिमान् // 3 दमस्त्यागो धृतिः सत्यं भवत्ववभृथाय ते // 18 / याच्यामाहुरनीशस्य अभिहारं च भारत / एष ते विततो यज्ञः श्रद्धापूतः सदक्षिणः / उद्वेजयति याचन्हि सदा भूतानि दस्युवत् // 4 विशिष्टः सर्वयज्ञेभ्यो नित्यं तात प्रवर्तताम् // 19 म्रियते याचमानो वै तमनु म्रियते ददत् / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि ददत्संजीवयत्येनमात्मानं च युधिष्ठिर // 5 एकोनषष्टितमोऽध्यायः॥ 59 // भानशंस्यं परो धर्मो याचते यत्प्रदीयते।। अयाचतः सीदमानान्सौंपायेनिमन्त्रय // 6 युधिष्ठिर उवाच। यदि वै तादृशा राष्ट्रे वसेयुस्ते द्विजोत्तमाः / दानं यज्ञक्रिया चेह किंस्वित्प्रेत्य महाफलम् / भस्मच्छन्नानिवान्नीस्तान्बुध्येथास्त्वं प्रयत्नतः / / 7 कस्य ज्यायः फलं प्रोक्तं कीदृशेभ्यः कथं कदा // तपसा दीप्यमानास्ते दहेयुः पृथिवीमपि / एतदिच्छामि विज्ञातुं याथातथ्येन भारत / पूज्या हि ज्ञानविज्ञानतपोयोगसमन्विताः // 8 विद्वजिज्ञासमानाय दानधर्मान्प्रचक्ष्व मे // 2 तेभ्यः पूजां प्रयुञ्जीथा ब्राह्मणेभ्यः परंतप / अन्तर्वेद्यां च यद्दत्तं श्रद्धया चानृशंस्यतः / ददद्बहुविधान्दायानुपच्छन्दानयाचताम् // 9 किंखिन्निःश्रेयसं तात तन्मे ब्रूहि पितामह // 3 यदग्निहोत्रे सुहुते सायंप्रातर्भवेत्फलम् / भीष्न उवाच / विद्यावेदव्रतवति तदानफलमुच्यते / / 10 रौद्रं कर्म क्षत्रियस्य सततं तात वर्तते / विद्यावेदव्रतस्नातानव्यपाश्रयजीविनः / तस्य वैतानिकं कर्म दानं चैवेह पावनम् // 4 गढस्वाध्यायतपसो ब्राह्मणान्संशितव्रतान् // 11 न तु पापकृतां राज्ञां प्रतिगृह्णन्ति साधवः / कतैरावसथैहृद्यैः सप्रेष्यैः सपरिच्छदैः / एतस्मात्कारणाद्यज्ञैर्यजेद्राजाप्तदक्षिणैः // 5 निमनयेथाः कोन्तेय कामेश्चान्यैर्द्विजोत्तमान् // 12 / अथ चेत्प्रतिगृह्णीयुर्दद्यादहरहर्नृपः / अपि ते प्रतिगृह्णीयुः श्रद्धापूतं युधिष्ठिर / श्रद्धामास्थाय परमां पावनं ह्येतदुत्तमम् // 6 - 2595 - Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 60.7] महाभारते [13. 61.9 ब्राह्मणांस्तर्पयेद्रव्यैस्ततो यज्ञे यतव्रतः। अप्याहुः सर्वमेवेति भूयोऽर्धमिति निश्चयः / मैत्रान्साधून्वेदविदः शीलवृत्ततपोन्वितान् // 7 चतुर्थं मतमस्माकं मनोः श्रुत्वानुशासनम् // 22 यत्ते तेन करिष्यन्ति कृतं तेन भविष्यति / शुभं वा यत्प्रकुर्वन्ति प्रजा राज्ञा सुरक्षिताः / यज्ञान्साधय साधुभ्यः स्वाद्वन्नान्दक्षिणावतः // 8 | चतुर्थं तस्य पुण्यस्य राजा चाप्नोति भारत // 23 इष्टं दत्तं च मन्येथा आत्मानं दानकर्मणा / जीवन्तं त्वानुजीवन्तु प्रजाः सर्वा युधिष्ठिर / पूजयेथा यायजूकांस्तवाप्यंशो भवेद्यथा // 9 पर्जन्यमिव भूतानि महाद्रुममिव द्विजाः // 24 प्रजावतो भरेथाश्च ब्राह्मणान्बहुभारिणः / कुबेरमिव रक्षांसि शतक्रतुमिवामराः / प्रजावांस्तेन भवति यथा जनयिता तथा // 10 ज्ञातयस्त्वानुजीवन्तु सुहृदश्च परंतप // 25 यावतो वै साधुधर्मान्सन्तः संवर्तयन्त्युत / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि सर्वे ते चापि भर्तव्या नरा ये बहुभारिणः // 11 षष्टितमोऽध्यायः॥ 60. // समृद्धः संप्रयच्छस्व ब्राह्मणेभ्यो युधिष्ठिर / धेनुरनडुहोऽन्नानि च्छत्रं वासांस्युपानहौ // 12 युधिष्ठिर उवाच / आज्यानि यजमानेभ्यस्तथान्नाद्यानि भारत / इदं देयमिदं देयमितीयं श्रुतिचोदना / अश्ववन्ति च यानानि वेश्मानि शयनानि च // 13 बहुदेयाश्च राजानः किंस्विद्देयमनुत्तमम् // 1 एते देया व्युष्टिमन्तो लघूपायाश्च भारत / __ भीष्म उवाच / अजुगुप्सांश्च विज्ञाय ब्राह्मणान्वृत्तिकर्शितान् // 14 / अति दानानि सर्वाणि पृथिवीदानमुच्यते / उपच्छन्नं प्रकाशं वा वृत्त्या तान्प्रतिपादय / अचला ह्यक्षया भूमिर्दोग्धी कामाननुत्तमान् // : राजसूयाश्वमेधाभ्यां श्रेयस्तत्क्षत्रियान्प्रति // 15 / दोग्ध्री वासांसि रत्नानि पशून्त्रीहियवांस्तथा / एवं पापैर्विमुक्तस्त्वं पूतः स्वर्गमवाप्स्यसि / भूमिदः सर्वभूतेषु शाश्वतीरेधते समाः // 3 संसयित्वा पुनः कोशं यद्राष्ट्रं पालयिष्यसि / / 16 यावद्भूमेरायुरिह तावद्भू मिद एधते / ततश्च ब्रह्मभूयस्त्वमवाप्स्यसि धनानि च। न भूमिदानादस्तीह परं किंचिद्युधिष्ठिर / / 4 आत्मनश्च परेषां च वृत्ति संरक्ष भारत // 17 अप्यल्पं प्रददुः पूर्व पृथिव्या इति नः श्रुतम् / पुत्रवच्चापि भृत्यान्स्वान्प्रजाश्च परिपालय / भूमिमेते ददुः सर्व ये भूमिं भुञ्जते जनाः // 5 योगक्षेमश्च ते नित्यं ब्राह्मणेष्वस्तु भारत // 18 स्वकर्मैवोपजीवन्ति नरा इह परत्र च / अरक्षितारं हर्तारं विलोप्तारमदायकम् / भूमिभूतिर्महादेवी दातारं कुरुते प्रियम् // 6 तं स्म राजकलिं हन्युः प्रजाः संभूय निघृणम् // य एतां दक्षिणां दद्यादक्षयां पृथिवीपतिः / अहं वो रक्षितेत्युक्त्वा यो न रक्षति भूमिपः / पुनर्नरत्वं संप्राप्य भवेत्स पृथिवीपतिः // 7 स संहत्य निहन्तव्यः श्वेव सोन्माद आतुरः // 20 यथा दानं तथा भोग इति धर्मेषु निश्चयः / पापं कुर्वन्ति यत्किचित्प्रजा राज्ञा ह्यरक्षिताः।। संग्रामे वा तनु ल हायाद्वा पृथिवीमिमाम् // 8 चतुर्थं तस्य पापस्य राजा भारत विन्दति // 21 / इत्येतां क्षत्रबन्धूनां वदन्ति परमाशिषम् / -2596 - Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 61.9 ] अनुशासनपर्व [ 13. 61. 37 पुनाति दत्ता पृथिवी दातारमिति शुश्रुम // 9 यथा जनित्री क्षीरेण स्वपुत्रं भरते सदा। अपि पापसमाचारं ब्रह्मनमपि वानृतम् / अनुगृह्णाति दातारं तथा सर्वरसैर्मही / / 23 सैव पापं पावयति सैव पापात्प्रमोचयेत् // 10 मृत्योर्वे किंकरो दण्डस्तापो वह्नः सुदारुणः / अपि पापकृतां राज्ञां प्रतिगृह्णन्ति साधवः / घोराश्च वारुणाः पाशा नोपसर्पन्ति भूमिदम् // 24 पृथिवीं नान्यदिच्छन्ति पावनं जननी यथा // 11 / पितॄश्च पितृलोकस्थान्देवलोके च देवताः / नामास्याः प्रियदत्तेति गुह्यं देव्याः सनातनम् / संतर्पयति शान्तात्मा यो ददाति वसुंधराम् // 25 दानं वाप्यथ वा ज्ञानं नाम्नोऽस्याः परमं प्रियम् / कृशाय म्रियमाणाय वृत्तिम्लानाय सीदते / तस्मात्प्राप्यैव पृथिवीं दद्याद्विप्राय पार्थिवः // 12 भूमिं वृत्तिकरी दत्त्वा सत्री भवति मानवः // 26 नाभूमिपतिना भूमिरधिष्ठेया कथंचन / यथा धावति गौर्वत्सं क्षीरमभ्युत्सृजन्त्युत / न वा पात्रेण वा गूहेदन्तर्धानेन वा चरेत्।। एवमेव महाभाग भूमिर्भवति भूमिदम् // 27 ये चान्ये भूमिमिच्छेयुः कुर्युरेवमसंशयम् / / 13 हलकृष्टां महीं दत्त्वा सबीजां सफलामपि / यः साधोभूमिमादत्ते न भूमि विन्दते तु सः।। उदीणं वापि शरणं तथा भवति कामदः // 28 भूमिं तु दत्त्वा साधुभ्यो विन्दते भूमिमेव हि / ब्राह्मणं वृत्तसंपन्नमाहिताग्निं शुचितम् / प्रेत्येह च स धर्मात्मा संप्राप्नोति महद्यशः // 14 नरः प्रतिग्राह्य महीं न याति यमसादनम् // 29 यस्य विप्रानुशासन्ति साधोभूमि सदैव हि / यथा चन्द्रमसो वृद्धिरहन्यहनि जायते / न तस्य शत्रवो राजन्प्रशासन्ति वसुंधराम् / / 15 तथा भूमिकृतं दानं सस्ये सस्ये विवर्धते / / 30 यत्किंचित्पुरुषः पापं कुरुते वृत्तिकर्शितः। अत्र गाथा भूमिगीताः कीर्तयन्ति पुराविदः / अपि गोचर्ममात्रेण भूमिदानेन पूयते // 16 याः श्रुत्वा जामदग्न्येन दत्ता भूः काश्यपाय वै // येऽपि संकीर्णकर्माणो राजानो रौद्रकर्मिणः / मामेवादत्त मां दत्त मां दत्त्वा मामवाप्स्यथ / तेभ्यः पवित्रमाख्येयं भूमिदानमनुत्तमम् // 17 अस्मिल्लोके परे चैव ततश्चाजनने पुनः // 32 अल्पान्तरमिदं शश्वत्पुराणा मेनिरे जनाः / य इमां व्याहृति वेद ब्राह्मणो ब्रह्मसंश्रितः / यो यजेदश्वमेधेन दद्याद्वा साधवे महीम् // 18 श्राद्धस्य हूयमानस्य ब्रह्मभूयं स गच्छति // 33 अपि चेत्सुकृतं कृत्वा शङ्करन्नपि पण्डिताः / कृत्यानामभिशस्तानां दुरिष्टशमनं महत् / अशक्यमेकमेवैतद्भूमिदानमनुत्तमम् // 19 प्रायश्चित्तमहं कृत्वा पुनात्युभयतो दश // 34 सुवर्ण रजतं वस्त्रं मणिमुक्तावसूनि च / पुनाति य इदं वेद वेद चाहं तथैव च / सर्वमेतन्महाप्राज्ञ ददाति वसुधां ददत् // 20 प्रकृतिः सर्वभूतानां भूमिवै शाश्वती मता // 35 तपो यज्ञः श्रुतं शीलमलोभः सत्यसंधता। अभिषिच्यैव नृपतिं श्रावयेदिममागमम् / गुरुदैवतपूजा च नातिवर्तन्ति भूमिदम् // 21 यथा श्रुत्वा महीं दद्यान्नादद्यात्साधुतश्च ताम् // 36 भर्तुनिःश्रेयसे युक्तास्यक्तात्मानो रणे हताः / सोऽयं कृत्स्नो ब्राह्मणार्थो राजार्थश्चाप्यसंशयम् / ब्रह्मलोकगताः सिद्धा नातिक्रामन्ति भूमिदम् // 22 / राजा हि धर्मकुशलः प्रथमं भूतिलक्षणम् // 37 -2597 - Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 61. 38 ] महाभारते [13. 61. 67 अथ येषामधर्मज्ञो राजा भवति नास्तिकः / न भूमिदानादेवेन्द्र परं किंचिदिति प्रभो। न ते सुखं प्रबुध्यन्ते न सुखं प्रस्वपन्ति च // 38 / विशिष्टमिति मन्यामि यथा प्राहुर्मनीषिणः // 53 सदा भवन्ति चोद्विग्नास्तस्य दुश्चरितैनराः / ये शूरा निहता युद्धे स्वता दानगृद्धिनः / योगक्षेमा हि बहवो राष्ट्र नास्याविशन्ति तत // 39 / सर्वे ते विबुधश्रेष्ठ नातिकामन्ति भूमिदम् // 54 अथ येषां पुनः प्राज्ञो राजा भवति धार्मिकः।। भर्तुनिःश्रेयसे युक्तास्यक्तात्मानो रणे हताः / सुखं ते प्रतिबुध्यन्ते सुसुखं प्रस्वपन्ति च // 40 ब्रह्मलोकगताः शूरा नातिकामन्ति भूमिदम् // 55 तस्य राज्ञः शुभैरार्यैः कर्मभिर्निर्वृताः प्रजाः / पश्च पूर्वादिपुरुषाः षट् च ये वसुधां गताः / योगक्षेमेण वृष्ट्या च विवर्धन्ते स्वकर्मभिः // 41 एकादश ददद्भूमि परित्रातीह मानवः // 56 स कुलीनः स पुरुषः स बन्धुः स च पुण्यकृत् / रत्नोपकीर्णां वसुधां यो ददाति पुरंदर / स दाता स च विक्रान्तो यो ददाति वसुंधराम् // 42 स मुक्तः सर्वकलुषैः स्वर्गलोके महीयते // 5.7 आदित्या इव दीप्यन्ते तेजसा भुवि मानवाः / / महीं स्फीतां ददद्राजा सर्वकामगुणान्विताम् / ददन्ति वसुधां स्फीतां ये वेदविदुपि द्विजे // 43 राजाधिराजो भवति तद्धि दानमनुत्तमम् // 58 यथा बीजानि रोहन्ति प्रकीर्णानि महीतले / सर्वकामसमायुक्तां काश्यपी यः प्रयच्छति / तथा कामाः प्ररोहन्ति भूमिदानसमार्जिताः // 44 सर्वभूतानि मन्यन्ते मां ददातीति वासव // 59 आदित्यो वरुणो विष्णुब्रह्मा सोमो हुताशनः / सर्वकामदुघां धेनुं सर्वकामपुरोगमाम् / शूलपाणिश्च भगवान्प्रतिनन्दन्ति भूमिदम् // 45 ददाति यः सहस्राक्ष स स्वर्ग याति मानवः // 60 भूमौ जायन्ति पुरुषा भूमौ निष्ठी व्रजन्ति च / मधुसर्पिःप्रवाहिन्यः पयोदधिवहास्तथा। चतुर्विधो हि लोकोऽयं योऽयं भूमिगुणात्मकः।। 46 सरितस्तर्पयन्तीह सुरेन्द्र वसुधाप्रदम् // 61 एषा माता पिता चैव जगतः पृथिवीपते / भूमिप्रदानान्पतिर्मुच्यते राजकिल्बिषात् / नानया सदृशं भूतं किंचिदस्ति जनाधिप / / 47 न हि भूमिप्रदानेन दानमन्यद्विशिष्यते // 62 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / ददाति यः समुद्रान्तां पृथिवीं शस्त्रनिर्जिताम् / बृहस्पतेश्च संवादमिन्द्रस्य च युधिष्ठिर // 48 तं जनाः कथयन्तीह यावद्धरति गौरियम् // 63 इट्वा क्रतुशतेनाथ महता दक्षिणायता / पुण्यामृद्धरसां भूमिं यो ददाति पुरंदर / मघवा वाग्विदां श्रेष्ठं पप्रच्छेदं बृहस्पतिम् // 49 न तस्य लोकाः क्षीयन्ते भूमिदानगुणार्जिताः // 64 भगवन्केन दानेन खर्गतः सुखमेधते / सर्वथा पार्थिवेनेह सततं भूतिमिच्छता। यदक्षयं महाघ च तद्भूहि वदतां वर // 50 भूर्देया विधिवच्छक पात्रे सुखमभीप्सता // 65 इत्युक्तः स सुरेन्द्रेण ततो देवपुरोहितः / अपि कृत्वा नरः पापं भूमिं दत्त्वा द्विजातये / बृहस्पतिर्महातेजाः प्रत्युवाच शतक्रतुम् / / 51 समुत्सृजति तत्पापं जीर्णां त्वचमिवोरगः // 66 सुवर्णदानं गोदानं भूमिदानं च वृत्रहन् / सागरान्सरितः शैलान्काननानि च सर्वशः / ददेतान्महाप्राज्ञः सर्वपापैः प्रमुच्यते // 52 सर्वमेतन्नरः शक्र ददाति वसुधां ददत् // 67 - 2598 - Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 61. 68 ] अनुशासनपर्व [ 13. 62.2 तडागान्युदपानानि स्रोतांसि च सरांसि च / नृत्यगीतपरा नार्यो दिव्यमाल्यविभूषिताः / स्नेहान्सर्वरसांश्चैव ददाति वसुधां ददत् // 68 उपतिष्ठन्ति देवेन्द्र सदा भूमिप्रदं दिवि / / 83 ओषधीः क्षीरसंपन्ना नगान्पुष्पफलान्वितान् / मोदते च सुखं स्वर्ग देवगन्धर्वपूजितः / काननोपलशैलांश्च ददाति वसुधां ददत् // 69 यो ददाति महीं सम्यग्विधिनेह द्विजातये // 84 अग्निष्टोमप्रभृतिभिरिष्ट्वा च स्वाप्तदक्षिणेः / शतभप्सरसश्चैव दिव्यमाल्यविभूषिताः / न तत्फलमवाप्नोति भूभिदानाद्यदभुते // 70 उपतिष्ठन्ति देवेन्द्र सदा भूमिप्रदं नरम् / / 85 दाता दशानुगृह्णाति दश हन्ःि तथा क्षिपन् / शङ्ख भद्रासनं छत्रं वराश्वा वरवारणाः / पूर्वदत्तां हरन्भूमिं नरकायोपगच्छति / / 71 भूमिप्रदानात्पुष्पाणि हिरण्यनिचयास्तथा // 86 न ददाति प्रतिश्रुत्य दत्त्वा वा हरते तु यः / आज्ञा सदाप्रतिहता जयशव्दो भवत्यथ / स बद्धो वारुणैः पाशैस्तप्यते मृत्युशासनात् / / 72 भूमिदानस्य पुष्पाणि फलं स्वर्गः पुरंदर // 87 आहिताग्निं सदायज्ञं कृशभृत्यं प्रियातिथिम् / / हिरण्यपुष्पाश्चौषध्यः कुशकाञ्चनशावलाः / ये भरन्ति द्विजश्रेष्ठं नोपसर्पन्ति ते यमम् // 73 अमृतप्रसवां भूमिं प्राप्नोति पुरुषो ददत् // 88 ब्राह्मणेष्वृणभूतं स्यात्पार्थिवस्य पुरंदर / नास्ति भूमिसमं दानं नास्ति मातृसमो गुरुः / इतरेषां तु वर्णानां तारयेत्कृशदुर्बलान् !! 74 नास्ति सत्यसमो धर्मों नास्ति दानसमो निधिः // नाच्छिन्द्यात्स्पर्शितां भूमि परेण त्रिदशाधिप / एतदाङ्गिरसाच्छ्रुत्वा वासबो वसुधामिमाम् / ब्राह्मणाय सुरश्रेष्ठ कृशभृत्याय कश्चन / / 75 वपुरत्नसमाकीणां ददावाङ्गिरसे तदा / / 90 अथाश्रु पतितं तेषां दीनानामवसीदताम् / य इमं श्रावयेच्छ्राद्ध भूमिदानस्य संस्तवम् / ब्राह्मणानां हृते क्षेत्रे हन्यात्रिपुरुषं कुलम // 76 न तस्य रक्षसां भागो नासुराणां भवत्युत // 91 भूमिपालं च्युतं राष्ट्रावस्तु संस्थापयेत्पुनः / अक्षयं च भवेद्दत्तं पितृभ्यस्तन्न संशयः / तस्य वासः सहस्राक्ष नाकपृष्ठे महीयते // 77 तस्माच्छ्राद्धेष्पिदं विप्रो भुञ्जतः श्रावयेद्विजान् // 92 इक्षुभिः संततां भूमि यवगोधूमसंकुलाम् / इत्येतत्सर्वदानानां श्रेष्ठमुक्तं तवानघ / गोऽश्ववाहनसंपूर्णां बाहुवीर्यसमार्जिताम् // 78 मया भरतशाईल किं भूयः श्रोतुमिच्छसि // 93 निधिगर्भा ददद्भूमिं सर्वरत्नपरिच्छदाम / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि अक्षयालभते लोकान्भूमिसत्रं हि तस्य तत् // 71 एकषष्टितमोध्यायः // 61 // विधूय कलुपं सर्वं विरजाः संमतः सताम् / लोके महीयते सद्भिर्यो ददाति वसुंधराम // 80 युधिष्ठिर उवाच। यथाप्सु पतितः शक्र तैलनिन्दुर्विसर्पति / कानि दानानि लोकेऽस्मिन्दातुकामो महीपतिः / तथा भूमिकृतं दानं सस्ये सरये विसर्पति // 81 / गुणाधिकेभ्यो विप्रेभ्यो दद्याद्भरतसत्तम / / 1 ये रणाग्रे महीपालाः शूराः समितिशोभनाः। केन तुष्यन्ति ते सद्यस्तुष्टाः किं प्रदिशन्त्युत / वध्यन्तेऽभिमुखाः शक्र ब्रह्मलोकं ब्रजन्ति ते // 82 / शंस मे तन्महाबाहो फलं पुण्यकृतं महत् // 2 - 2599 - Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. 62.3] महाभारते [ 13. 62. 31 दत्तं किं फलवद्राजन्निह लोके परत्र च / ब्राह्मणेष्वक्षयं दानमन्नं शूद्रे महाफलम् / भवतः श्रोतुमिच्छामि तन्मे विस्तरतो वद // 3 अन्नदानं च शूद्रे च ब्राह्मणे च विशिष्यते // 17 भीष्म उवाच / न पृच्छेद्गोत्रचरणं स्वाध्यायं देशमेव वा। इममर्थं पुरा पृष्टो नारदो देवदर्शनः / भिक्षितो ब्राह्मणेनेह जन्म वान्नं प्रयाचितः // 18 यदुक्तवानसौ तन्मे गदतः शृणु भारत // 4 अन्नदस्यान्नवृक्षाश्च सर्वकामफलान्विताः। नारद उवाच / भवन्तीहाथ वामुत्र नृपते नात्र संशयः // 19 अन्नमेव प्रशंसन्ति देवाः सर्षिगणाः पुरा / आशंसन्ते हि पितरः सुवृष्टिमिव कर्षकाः / लोकतनं हि यज्ञाश्च सर्वमन्ने प्रतिष्ठितम् // 5 अस्माकमपि पुत्रो वा पौत्रो वान्नं प्रदास्यति // 20 अन्नेन सदृशं दानं न भूतं न भविष्यति / ब्राह्मणो हि महद्भूतं स्वयं देहीति याचते / तस्मादन्नं विशेषेण दातुमिच्छन्ति मानवाः // 6 अकामो वा सकामो वा दत्त्वा पुण्यमवाप्नुयात् // अन्नमूर्जस्करं लोके प्राणाश्चान्ने प्रतिष्ठिताः / ब्राह्मणः सर्वभूतानामतिथिः प्रसृताप्रभुक् / अन्नेन धार्यते सर्व विश्वं जगदिदं प्रभो // 7 विप्रा यमभिगच्छन्ति भिक्षमाणा गृहं सदा // 22 अन्नाद्गृहस्था लोकेऽस्मिन्भिक्षवस्तत एव च / सत्कृताश्च निवर्तन्ते तदतीव प्रवर्धते / अन्नात्प्रभवति प्राणः प्रत्यक्षं नात्र संशयः // 8 महाभोगे कुले जन्म प्रेत्य प्राप्नोति भारत // 23 कुटुम्ब पीडयित्वापि ब्राह्मणाय महात्मने / दत्त्वा त्वन्नं नरो लोके तथा स्थानमनुत्तमम् / दातव्यं भिक्षवे चान्नमात्मनो भूतिमिच्छता // 9 मृष्टमृष्टान्नदायी तु स्वर्गे वसति सत्कृतः // 24 ब्राह्मणायाभिरूपाय यो दद्यादन्नमर्थिने / अन्नं प्राणा नराणां हि सर्वमन्ने प्रतिष्ठितम् / निदधाति निधि श्रेष्ठं पारलौकिकमात्मनः // 10 अन्नदः पशुमा-पुत्री धनवान्भोगवानपि // 25 श्रान्तमध्वनि वर्तन्तं वृद्धमर्हमुपस्थितम् / प्राणवांश्चापि भवति रूपवांश्च तथा नृप / अर्चयेद्भूतिमन्विच्छन्गृहस्थो गृहमागतम् // 11 अन्नदः प्राणदो लोके सर्वतः प्रोच्यते तु सः॥२६ क्रोधमुत्पतितं हित्वा सुशीलो वीतमत्सरः। अन्नं हि दत्त्वातिथये ब्राह्मणाय यथाविधि / अन्नदः प्राप्नुते राजन्दिवि चेह च यत्सुखम् // 12 प्रदाता सुखमाप्नोति देवैश्चाप्यभिपूज्यते // 27 नावमन्येदभिगतं न प्रणुद्यात्कथंचन / ब्राह्मणो हि महद्भूतं क्षेत्रं चरति पादवत् / अपि श्वपाके शुनि वा न दानं विप्रणश्यति // 13 उप्यते तत्र यद्वीजं तद्धि पुण्यफलं महत् // 28 यो दद्यादपरिक्लिष्टमन्नमध्वनि वर्तते / प्रत्यक्षं प्रीतिजननं भोक्तदात्रोर्भवत्युत / श्रान्तायादृष्टपूर्वाय स महद्धर्ममाप्नुयात् / / 14 सर्वाण्यन्यानि दानानि परोक्षफलवन्त्युत // 29 पितॄन्देवानृषीन्विप्रानतिथींश्च जनाधिप / अन्नाद्धि प्रसवं विद्धि रतिमन्नाद्धि भारत / यो नरः प्रीणयत्यन्नस्तस्य पुण्यफलं महत् // 15 धर्मार्थावन्नतो विद्धि रोगनाशं तथान्नतः // 30 कृत्वापि पापकं कर्म यो दद्यादन्नमर्थिने / अन्नं ह्यमृतमित्याह पुराकल्पे प्रजापतिः / / ब्राह्मणाय विशेषेण न स पापेन युज्यते // 16 अन्नं भुवं दिवं खं च सर्वमन्ने प्रतिष्ठितम् // 31 -2600 - Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 62. 32 ] अनुशासनपर्व [13. 63. 5 अन्नप्रणाशे भिद्यन्ते शरीरे पञ्च धातवः / चन्द्रमण्डलशुभ्राणि किङ्किणीजालवन्ति च / बलं बलवतोऽपीह प्रणश्यत्यन्नहानितः / / 32 तरुणादित्यवर्णानि स्थावराणि चराणि च // 46 आवाहाश्च विवाहाश्च यज्ञाश्चान्नमृते तथा / अनेकशतभौमानि सान्तर्जलवनानि च / न वर्तन्ते नरश्रेष्ठ ब्रह्म चात्र प्रलीयते // 33 वैडूर्यार्कप्रकाशानि रौप्यरुक्ममयानि च // 47 अन्नतः सर्वमेतद्धि यत्किंचित्स्थाणु जङ्गमम् / सर्वकामफलाश्चापि वृक्षा भवनसंस्थिताः / त्रिषु लोकेषु धर्मार्थमन्नं देयमतो बुधैः / / 34 वाप्यो वीथ्यः समाः कूपा दीर्घिकाश्चैव सर्वशः / / अन्नदस्य मनुष्यस्य बलमोजो यशः सुखम् / . घोषवन्ति च यानानि युक्तान्यथ सहस्रशः। कीर्तिश्च वर्धते शश्वत्रिषु लोकेषु पार्थिव / / 35 भक्ष्यभोज्यमयाः शैला वासांस्याभरणानि च // 49 मेधेष्वम्भः संनिधत्ते प्राणानां पवनः शिवः / क्षीरं स्रवन्त्यः सरितस्तथा चैवान्नपर्वताः / तच्च मेघगतं वारि शक्रो वर्षति भारत // 36 प्रासादाः पाण्डुराभ्राभाः शय्याश्च कनकोज्ज्वलाः / आदत्ते च रसं भौममादित्यः स्वगभस्तिभिः / तानन्नदाः प्रपद्यन्ते तस्मादन्नप्रदो भव // 50 वायुरादित्यतस्तांश्च रसान्देवः प्रजापतिः // 37 एते लोकाः पुण्यकृतामन्नदानां महात्मनाम् / तद्यदा मेघतो वारि पतितं भवति क्षितौ / तस्मादन्नं विशेषेण दातव्यं मानवैर्भुवि / / 51 तदा वसुमती देवी स्निग्धा भवति भारत // 38 / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि ततः सस्यानि रोहन्ति येन वर्तयते जगत् / द्विषष्टितमोऽध्यायः // 62 // मांसमेदोस्थिशुक्राणां प्रादुर्भावस्ततः पुनः // 39 संभवन्ति ततः शुक्रात्प्राणिनः पृथिवीपते / युधिष्ठिर उवाच / अग्नीषोमौ हि तच्छुकं प्रजनः पुष्यतश्च ह // 40 श्रुतं मे भवतो वाक्यमन्नदानस्य यो विधिः / एवमन्नं च सूर्यश्च पवनः शुक्रमेव च / नक्षत्रयोगस्येदानी दानकल्पं ब्रवीहि मे // 1 एक एव स्मृतो राशिर्यतो भूतानि जज्ञिरे // 41 प्राणान्ददाति भूतानां तेजश्च भरतर्षभ / ___ भीष्म उवाच। गृहमभ्यागतायाशु यो दद्यादन्नमर्थिने // 42 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / भीष्म उवाच / देवक्याश्चैव संवादं देवर्षे रदस्य च // 2 नारदेनैवमुक्तोऽहमदामन्नं सदा नृप / द्वारकामनुसंप्राप्तं नारदं देवदर्शनम् / अनसूयुस्त्वमप्यन्नं तस्मादेहि गतज्वरः / / 43 पप्रच्छैनं ततः प्रश्नं देवकी धर्मदर्शिनी // 3 दत्त्वान्नं विधिवद्राजन्विप्रेभ्यस्त्वमपि प्रभो। तस्याः संपृच्छमानाया देवर्षि रदस्तदा / यथावदनुरूपेभ्यस्ततः स्वर्गमवाप्स्यसि // 44 आचष्ट विधिवत्सर्वं यत्तच्छृणु विशां पते // 4 अन्नदानां हि ये लोकास्तांस्त्वं शृणु नराधिप / नारद उवाच / भवनानि प्रकाशन्ते दिवि तेषां महात्मनाम् / कृत्तिकासु महाभागे पायसेन ससर्पिषा / नानासंस्थानरूपाणि नानास्तम्भान्वितानि च // 45 / संतर्प्य ब्राह्मणान्साधूल्लोकानाप्नोत्यनुत्तमान् // 5 प. भा. 26 - 2601 - Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 63. 6] महाभारते [ 13. 63. 35 रोहिण्यां प्रथितैर्मासैर्माकैरन्नेन सर्पिषा। दत्त्वा यथोक्तं विप्रेभ्यो वृत्तिमिष्टां स विन्दति / पयोऽनुपानं दातव्यमानृण्यार्थं द्विजातये // 6 नरकादींश्च संक्लेशान्नाप्नोतीति विनिश्चयः // 21 दोग्ध्रीं दत्त्वा सवत्सां तु नक्षत्रे सोमदैवते / अनुराधासु प्रावारं वस्त्रान्तरमुपोषितः / गच्छन्ति मानुषाल्लोकात्स्वर्गलोकमनुत्तमम् // 7 दत्त्वा युगशतं चापि नरः स्वर्गे महीयते // 22 आर्द्रायां कृसरं दत्त्वा तैलमिश्रमुपोषितः। कालशाकं तु विप्रेभ्यो दत्त्वा मर्त्यः समूलकम् / नरस्तरति दुर्गाणि क्षुरधारांश्च पर्वतान् / / 8 ज्येष्ठायामृद्धिमिष्टां वै गतिमिष्टां च विन्दति // 23 अपूपान्पुनर्वसौ दत्त्वा तथैवान्नानि शोभने / मूले मूलफलं दत्त्वा ब्राह्मणेभ्यः समाहितः / यशस्वी रूपसंपन्नो बबन्ने जायते कुले // 9 पितृन्तीणयते चापि गतिमिष्टां च गच्छति // 24 पुष्ये तु कनकं दत्त्वा कृतं चाकृतमेव च / अथ पूर्वास्वषाढासु दधिपात्राण्युपोषितः / / अनालोकेषु लोकेषु सोमवत्स विराजते // 10 कुलवृत्तोपसंपन्ने ब्राह्मणे वेदपारगे। . आश्लेषायां तु यो रूप्यमृषभं वा प्रयच्छति / प्रदाय जायते प्रेत्य कुले सुबहुगोकुले // 25 स सर्वभयनिर्मुक्तः शात्रवानधितिष्ठति // 11 उदमन्थं ससर्पिष्कं प्रभूतमधुफाणितम् / मघासु तिलपूर्णानि वर्धमानानि मानवः / दत्त्वोत्तरास्वषाढासु सर्वकामानवाप्नुयात् // 26 प्रदाय पुत्रपशुमानिह प्रेत्य च मोदते // 12 दुग्धं त्वभिजिते योगे दत्त्वा मधुघृताप्लुतम् / फल्गुनीपूर्वसमये ब्राह्मणानामुपोषितः / धर्मनित्यो मनीषिभ्यः स्वर्गलोके महीयते // 27 भक्षान्फाणितसंयुक्तान्दत्त्वा सौभाग्यमृच्छति // 13 श्रवणे कम्बलं दत्त्वा वस्त्रान्तरितमेव च / घृतक्षीरसमायुक्तं विधिवत्षष्टिकौदनम् / श्वेतेन याति यानेन सर्वलोकानसंवृतान् // 28 उत्तराविषये दत्त्वा स्वर्गलोके महीयते // 14 गोप्रयुक्तं धनिष्ठासु यानं दत्त्वा समाहितः / यद्यत्प्रदीयते दानमुत्तराविषये नरैः / वस्त्ररश्मिधरं सद्यः प्रेत्य राज्यं प्रपद्यते / / 29 महाफलमनन्तं च भवतीति विनिश्चयः // 15 गन्धाशतभिषग्योगे दत्त्वा सागुरुचन्दनान् / हस्ते हस्तिरथं दत्त्वा चतुर्युक्तमुपोषितः / प्राप्नोत्यप्सरसां लोकान्प्रेत्य गन्धांश्च शाश्वतान् // 30 प्राप्नोति परमाललोकान्पुण्यकामसमन्वितात् // 16 पूर्वभाद्रपदायोगे राजमाषान्प्रदाय तु / चित्रायामृषभं दत्त्वा पुण्यान्गन्धांश्च भारत / / सर्वभक्षफलोपेतः स वै प्रेत्य सुखी भवेत् // 31 चरत्यप्सरसां लोके रमते नन्दने तथा // 17 औरभ्रमुत्तरायोगे यस्तु मांसं प्रयच्छति / स्वातावथ धनं दत्त्वा यदिष्टतममात्मनः / स पिनृन्प्रीणयति वै प्रेत्य चानन्त्यमभुते // 32 प्राप्नोति लोकान्स शुभानिह चैव महद्यशः // 18 कांस्योपदोहनां धेनुं रेवत्यां यः प्रयच्छति / विशाखायामनड्वाहं धेनुं दत्त्वा च दुग्धदाम् / सा प्रेत्य कामानादाय दातारमुपतिष्ठति // 33 सपासङ्गं च शकटं सधान्यं वस्त्रसंयुतम् // 19 / रथमश्वसमायुक्तं दत्त्वाश्विन्यां नरोत्तमः / पितॄन्देवांश्च प्रीणाति प्रेत्य चानन्त्यमश्नुते। हस्त्यश्वरथसंपन्ने वर्चस्वी जायते कुले // 34 न च दुर्गाण्यवाप्नोति स्वर्गलोकं च गच्छति // | भरणीषु द्विजातिभ्यस्तिलधेनुं प्रदाय वै / -2602 - Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 63. 35 ] अनुशासनपर्व [ 12. 65. 3 भीष्म उवाच / गाः सुप्रभूताः प्राप्नोति नरः प्रेस यशस्तथा // 35 पिपासया न म्रियते सोपच्छन्दश्च दृश्यते / भीष्म उवाच / न प्राप्नयाञ्च व्यसनं करकान्यः प्रयच्छति // 12 इत्येष लक्षणोद्देशः प्रोक्तो नक्षत्रयोगतः / प्रयतो ब्राह्मणाग्रेभ्यः श्रद्धया परया युतः / देवक्या नारदेनेह सा स्नुषाभ्योऽब्रवीदिदम् // 36 उपस्पर्शनषड्भागं लभते पुरुषः सदा // 13 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि यः साधनाथ काष्ठानि ब्राह्मणेभ्यः प्रयच्छति / त्रिषष्टितमोऽध्यायः // 63 // प्रतापार्थं च राजेन्द्र वृत्तवद्भयः सदा नरः // 14 सिध्यन्त्यर्थाः सदा तस्य कार्याणि विविधानि च / उपयुपरि शत्रूणां वपुषा दीप्यते च सः // 15 सर्वान्कामान्प्रयच्छन्ति ये प्रयच्छन्ति काश्चनम् / भगवांश्चास्य सुप्रीतो वह्निर्भवति नित्यशः / इत्येवं भगवानत्रिः पितामहसुतोऽब्रवीत् // 1 न तं त्यजन्ते पशवः संग्रामे च जयत्यपि // 16 पवित्रं शुच्यथायुष्यं पितॄणामक्षयं च तत् / / पुत्राञ्छ्रियं च लभते यश्छत्रं संप्रयच्छति / सुवर्ण मनुजेन्द्रेण हरिश्चन्द्रेण कीर्तितम् / / 2 चक्षुर्व्याधिं न लभते यज्ञभागमथानुते // 17 पानीयदानं परमं दानानां मनुरब्रवीत्। निदाघकाले वर्षे वा यश्छत्रं संप्रयच्छति / तस्माद्वापीश्च कूपांश्च तडागानि च खानयेत् // 3 नास्य कश्चिन्मनोदाहः कदाचिदपि जायते / अर्ध पापस्य हति पुरुषस्येह कर्मणः / कृच्छ्रात्स विषमाञ्चैव विप्र मोक्षमवाप्नुते // 18 कूपः प्रवृत्तपानीयः सुप्रवृत्तश्च नित्यशः / / 4 / / प्रदानं सर्वदानानां शकटस्य विशिष्यते / सर्वं तारयते वंशं यस्य खाते जलाशये / एवमाह महाभागः शाण्डिल्यो भगवानृषिः // 19 गावः पिबन्ति विप्राश्च साधवश्च नराः सदा // 5 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि निदाघकाले पानीयं यस्य तिष्ठत्यवारितम् / चतुःषष्टितमोऽध्यायः॥६॥ स दुर्ग विषमं कृच्छ्रे न कदाचिदवाप्नुते // 6 बृहस्पतेर्भगवतः पूष्णश्चैव भगस्य च / अश्विनोश्चैव वह्वेश्च प्रीतिभवति सर्पिषा / / 7 युधिष्ठिर उवाच / परमं भेषजं ह्येतद्यज्ञानामेतदुत्तमम् / दह्यमानाय विप्राय यः प्रयच्छत्युपानहौ / रसानामुत्तमं चैतत्फलानां चैतदुत्तमम् // 8 यत्फलं तस्य भवति तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 फलकामो यशस्कामः पुष्टिकामश्च नित्यदा / भीष्म उवाच / घृतं दद्याहिजातिभ्यः पुरुषः शुचिरात्मवान् // 9 / उपानही प्रयच्छेद्यो ब्राह्मणेभ्यः समाहितः। घृतं मासे आश्वयुजि विप्रेभ्यो यः प्रयच्छति / मर्दते कण्टकान्सर्वान्विषमान्निस्तरत्यपि / तस्मै प्रयच्छतो रूपं प्रीतो देवाविहाश्विनौ / / 10 स शत्रूणामुपरि च संतिष्ठति युधिष्ठिर // 2 पायसं सर्पिपा मिश्रं द्विजेभ्यो यः प्रयच्छति।। यानं चाश्वतरीयुक्तं तस्य शुभ्रं विशां पते / गृहं तस्य न रक्षांसि धर्षयन्ति कदाचन // 11 / उपतिष्ठति कौन्तेय रूप्यकाञ्चनभूषणम् / - 2603 - Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 65.3] महाभारते [ 13. 65. 29 शकटं दम्यसंयुक्तं दत्तं भवति चैव हि // 3 शुभं देशमयाचन्त यजेम इति पार्थिव // 17 युधिष्ठिर उवाच। देवा ऊचुः / यत्फलं तिलदाने च भूमिदाने च कीर्तितम् / भगवंस्त्वं प्रभुभूमेः सर्वस्य त्रिदिवस्य च / गोप्रदानेऽन्नदाने च भूयस्तद्रूहि कौरव // 4 यजेमहि महाभाग यज्ञं भवदनुज्ञया। भीष्म उवाच। नाननुज्ञातभूमिर्हि यज्ञस्य फलमश्रुते // 18 शृणुष्व मम कौन्तेय तिलदानस्य यत्फलम् / त्वं हि सर्वस्य जगतः स्थावरस्य चरस्य च / निशम्य च यथान्यायं प्रयच्छ कुरुसत्तम / / 5 प्रभुर्भवसि तस्मात्त्वं समनुज्ञातुमर्हसि // 19 पितॄणां प्रथमं भोज्यं तिलाः सृष्टाः स्वयंभुवा / ब्रह्मोवाच / तिलदानेन वै तस्मात्पितृपक्षः प्रमोदते // 6 ददामि मेदिनीभागं भवद्भयोऽहं सुरर्षभाः। माघमासे तिलान्यस्तु ब्राह्मणेभ्यः प्रयच्छति / यस्मिन्देशे करिष्यध्वं यज्ञं काश्यपनन्दनाः // 20 सर्वसत्त्वसमाकीणं नरकं स न पश्यति // 7 सर्वकामैः स यजते यस्तिलैर्यजते पितॄन् / देवा ऊचुः। न चाकामेन दातव्यं तिलश्राद्धं कथंचन // 8 भगवन्कृतकामाः स्मो यक्ष्यामस्त्वाप्तदक्षिणैः / महर्षेः कश्यपस्यैते गात्रेभ्यः प्रस्तास्तिलाः। इमं तु देशं मुनयः पर्युपासन्त नित्यदा // 21 ततो दिव्यं गता भावं प्रदानेषु तिलाः प्रभो॥९ भीष्म उवाच / पौष्टिका रूपदाश्चैव तथा पापविनाशनाः / ततोऽगस्त्यश्च कण्वश्च भृगुरत्रिर्वृषाकपिः / तस्मात्सर्वप्रदानेभ्यस्तिलदानं विशिष्यते // 10 असितो देवलश्चैव देवयज्ञमुपागमन् // 22 आपस्तम्बश्च मेधावी शङ्खश्च लिखितस्तथा / ततो देवा महात्मान ईजिरे यज्ञमच्युत / महर्षिौतमश्चापि तिलदानैर्दिवं गताः // 11 तथा समापयामासुर्यथाकालं सुरर्षभाः // 23 तिलहोमपरा विप्राः सर्वे संयतमैथुनाः / त इष्टयज्ञास्त्रिदशा हिमवत्यचलोत्तमे / समा गव्येन हविषा प्रवृत्तिषु च संस्थिताः // 12 षष्ठमंशं क्रतोस्तस्य भूमिदानं प्रचक्रिरे / / 24 सर्वेषामेव दानानां तिलदानं परं स्मृतम् / प्रादेशमात्रं भूमेस्तु यो दद्यादनुपस्कृतम् / अक्षयं सर्वदानानां तिलदानमिहोच्यते / / 13 न सीदति स कृच्छेषु न च दुर्गाण्यवाप्नुते // 25 उत्पन्ने च पुरा हव्ये कुशिकर्षिः परंतप / शीतवातातपसहां गृहभूमि सुसंस्कृताम् / तिलैरग्नित्रयं हुत्वा प्राप्तवान्गतिमुत्तमाम् // 14 प्रदाय सुरलोकस्थः पुण्यान्तेऽपि न चाल्यते // 26 इति प्रोक्तं कुरुश्रेष्ठ तिलदानमनुत्तमम् / मुदितो वसते प्राज्ञः शक्रेण सह पार्थिव / विधानं येन विधिना तिलानामिह शस्यते // 15 प्रतिश्रयप्रदाता च सोऽपि स्वर्गे महीयते // 27 अत ऊर्ध्वं निबोधेदं देवानां यष्टुमिच्छताम् / अध्यापककुले जातः श्रोत्रियो नियतेन्द्रियः / समागमं महाराज ब्रह्मणा वै स्वयंभुवा // 16 / गृहे यस्य वसेत्तुष्टः प्रधानं लोकमश्रुते // 28 देवाः समेत्य ब्रह्माणं भूमिभागं यियक्षवः। / तथा गवार्थे शरणं शीतवर्षसहं महत् / -2604 - Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 65. 29 ] अनुशासनपर्व [13. 65. 58 आसप्तमं तारयति कुलं भरतसत्तम / / 29 अमृतं वै गवां क्षीरमित्याह त्रिदशाधिपः / क्षेत्रभूमि ददल्लोके पुत्र श्रियमवाप्नुयात् / तस्माद्ददाति यो धेनुममृतं स प्रयच्छति // 44 रत्नभूमिं प्रदत्त्वा तु कुलवंशं विवर्धयेत् // 30 / अग्नीनामव्ययं ह्येतद्धौम्यं वेदविदो विदुः / न चोषरां न निर्दग्धां महीं दद्यात्कथंचन / तस्माद्ददाति यो धेनुं स होम्यं संप्रयच्छति॥ 45 न श्मशानपरीतां च न च पापनिषेविताम् // 31 स्वर्गो वै मूर्तिमानेष वृषभं यो गवां पतिम् / पारक्ये भूमिदेशे तु पितॄणां निर्वपेत्तु यः।। विप्रे गुणयुते दद्यात्स वै स्वर्गे महीयते // 46 तमिस्वामिपितृभिः श्राद्धकर्म विहन्यते // 32 प्राणा वै प्राणिनामेते प्रोच्यन्ते भरतर्षभ / तस्मात्क्रीत्वा महीं दद्यात्स्वल्पामपि विचक्षणः / तस्माददाति यो धेनुं प्राणान्वै स प्रयच्छति // 47 पिण्डः पितृभ्यो दत्तो वै तस्यां भवति शाश्वतः // गावः शरण्या भूतानामिति वेदविदो विदुः / अटवीपर्वताश्चैव नदीतीर्थानि यानि च। तस्माद्ददाति यो धेनुं शरणं संप्रयच्छति / / 48 सर्वाण्यस्वामिकान्याहुन हि तत्र परिग्रहः // 34 न वधार्थ प्रदातव्या न कीनाशे न नास्तिके / इत्येतद्भमिदानस्य फलमुक्तं विशां पते / / गोजीविने न दातव्या तथा गौः पुरुषर्षभ / / 49 अतः परं तु गोदानं कीर्तयिष्यामि तेऽनघ / / 35 / ददाति तादृशानां वै नरो गाः पापकर्मणाम् / गावोऽधिकास्तपस्विभ्यो यस्मात्सर्वेभ्य एव च। अक्षयं नरकं यातीत्येवमाहुर्मनीषिणः / / 50 तस्मान्महेश्वरो देवस्तपस्ताभिः समास्थितः // 36 न कृशां पापवत्सां वा बन्ध्या रोगान्वितां तथा / ब्रह्मलोके वसन्त्येताः सोमेन सह भारत / न व्यङ्गां न परिश्रान्तां दद्याद्गां ब्राह्मणाय वै // 51 आसां ब्रह्मर्षयः सिद्धाः प्रार्थयन्ति परां गतिम् / / दशगोसहस्रदः सम्यक्शक्रेण सह मोदते / पयसा हविषा दध्ना शकृताप्यथ चर्मणा। अक्षयालभते लोकान्नरः शतसहस्रदः / / 52 अस्थिभिश्चोपकुर्वन्ति शृङ्गैर्वालैश्च भारत // 38 इत्येतद्गोप्रदानं च तिलदानं च कीर्तितम् / नासां शीतातपौ. स्यातां सदैताः कर्म कुर्वते / तथा भूमिप्रदानं च शृणुष्वान्ने च भारत // 53 न वर्ष विषमं वापि दुःखमासां भवत्युत // 39 अन्नदानं प्रधानं हि कौन्तेय परिचक्षते / ब्राह्मणैः सहिता यान्ति तस्मात्परतरं पदम् / अन्नस्य हि प्रदानेन रन्तिदेवो दिवं गतः // 54 एकं गोब्राह्मणं तस्मात्प्रवदन्ति मनीषिणः // 40 श्रान्ताय क्षुधितायानं यः प्रयच्छति भूमिप / रन्तिदेवस्य यज्ञे ताः पशुत्वेनोपकल्पिताः / स्वायंभुवं महाभागं स पश्यति नराधिप / / 55 ततश्चर्मण्वती राजन्गोचर्मभ्यः प्रवर्तिता // 41 न हिरण्यैन वासोभि श्वदानेन भारत / पशुत्वाच्च विनिर्मुक्ताः प्रदानायोपकल्पिताः। प्राप्नुवन्ति नराः श्रेयो यथेहान्नप्रदाः प्रभो // 56 ता इमा विप्रमुख्येभ्यो यो ददाति महीपते / अन्नं वै परमं द्रव्यमन्नं श्रीश्च परा मता। निस्तरेदापदं कृच्छ्रां विषमस्थोऽपि पार्थिव // 42 - अन्नात्प्राणः प्रभवति तेजो वीर्य बलं तथा // 57 गवां सहस्रदः प्रेत्य नरकं न प्रपश्यति / सद्भयो ददाति यश्वान्नं सदैकाप्रमना नरः / सर्वत्र विजयं चापि लभते मनुजाधिप // 43 / न स दुर्गाण्यवाप्नोतीत्येवमाह पराशरः // 58 -2605 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 65. 59 ] महाभारते [13. 67.1 अर्चयित्वा यथान्यायं देवेभ्योऽन्नं निवेदयेत् / अन्ने दत्ते नरेणेह प्राणा दत्ता भवन्त्युत / यदन्नो हि नरो राजस्तदन्नास्तस्य देवताः // 59 प्राणदानाद्धि परमं न दानमिह विद्यते // 8 कौमुद्यां शुक्लपक्षे तु योऽन्नदानं करोत्युत।। श्रुतं हि ते महाबाहो लोमशस्यापि तद्वचः / स संतरति दुर्गाणि प्रेत्य चानन्त्यमभुते / / 60 प्राणान्दत्त्वा कपोताय यत्प्राप्तं शिबिना पुरा // 9 अभुक्त्वातिथये चान्नं प्रयच्छेद्यः समाहितः / तां गतिं लभते दत्त्वा द्विजस्यान्नं विशां पते / स वै ब्रह्मविदां लोकान्प्राप्नुयाद्भरतर्षभ // 61 गतिं विशिष्टां गच्छन्ति प्राणदा इति नः श्रुतम् / / सुकृच्छ्रामापदं प्राप्तश्चान्नदः पुरुषस्तरेत्। अन्नं चापि प्रभवति पानीयात्कुरुसत्तम / पापं तरति चैवेह दुष्कृतं चापकर्षति / / 62 नीरजातेन हि विना न किंचित्संप्रवर्तते // // 11 इत्येतदन्नदानस्य तिलदानस्य चैव ह। नीरजातश्च भगवान्सोमो ग्रहगणेश्वरः / भूमिदानस्य च फलं गोदानस्य च कीर्तितम् / / 63 अमृतं च सुधा चैव स्वाहा चैव वषट् तथा // 12 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि अन्नौषध्यो महाराज वीरुधश्च जलोद्भवाः / पञ्चषष्टितमोऽध्यायः // 65 // यतः प्राणभृतां प्राणाः संभवन्ति विशां पते // 13 देवानाममृतं चान्नं नागानां च सुधा तथा। युधिष्ठिर उवाच / पितॄणां च स्वधा प्रोक्ता पशूनां चापि वीरुधः // श्रुतं दानफलं तात यत्त्वया परिकीर्तितम् / अन्नमेव मनुष्याणां प्राणानाहुर्मनीषिणः / अन्नं तु ते विशेषेण प्रशस्तमिह भारत / / 1 तच्च सर्व नरव्याघ्र पानीयात्संप्रवर्तते // 15 पानीयदानं परमं कथं चेह महाफलम् / तस्मात्पानीयदानाद्वै न परं विद्यते कचित् / इत्येतच्छोतुमिच्छामि विस्तरेण पितामह // 2 / तच्च दद्यान्नरो नित्यं य इच्छेद्भूतिमात्मनः // 16. भीष्म उवाच। धन्यं यशस्यमायुष्यं जलदानं विशां पते / हन्त ते वर्तयिष्यामि यथावद्भरतर्षभ / शत्रूश्चाप्यधि कौन्तेय सदा तिष्ठति तोयदः // 17 गदतस्तन्ममाघेह शृणु सत्यपराक्रम / सर्वकामानवाप्नोति कीर्तिं चैवेह शाश्वतीम् / पानीयदानात्प्रभृति सर्वं वक्ष्यामि तेऽनघ // 3 प्रेत्य चानन्त्यमाप्नोति पापेभ्यश्च प्रमुच्यते // 18 यदन्नं यच्च पानीयं संप्रदायाश्नुते नरः। तोयदो मनुजव्याघ्र स्वगं गत्वा महाद्युते / न तस्मात्परमं दानं किंचिदस्तीति मे मतिः // 4 अक्षयान्समवाप्नोति लोकानित्यब्रवीन्मनुः // 19 अन्नात्प्राणभृतस्तात प्रवर्तन्ते हि सर्वशः। इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि तस्मादन्नं परं लोके सर्वदानेषु कथ्यते // 5 / षट्षष्टितमोऽध्यायः॥६६॥ अन्नाद्बलं च तेजश्च प्राणिनां वर्धते सदा / अन्नदानमतस्तस्माच्छ्रेष्ठमाह प्रजापतिः // 6 युधिष्ठिर उवाच / सावित्र्या ह्यपि कौन्तेय श्रुतं ते वचनं शुभम् / तिलानां कीदृशं दानमथ दीपस्य चैव ह / यतश्चैतद्यथा चैतदेवसत्रे महामते / / 7 | अन्नानां वाससां चैव भूय एव ब्रवीहि मे // 1 -2606 - Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 67. 2] अनुशासनपर्व [ 13. 67. 28 भीष्म उवाच / सर्वस्य हि प्रमाणं त्वं त्रैलोक्यस्यापि सत्तम // 14 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / यम उवाच। ब्राह्मणस्य च संवादं यमस्य च युधिष्ठिर // 2 शृणु तत्त्वेन विवर्षे प्रदानविधिमुत्तमम् / मध्यदेशे महान्यामो ब्राह्मणानां बभूव ह। तिलाः परमकं दानं पुण्यं चैवेह शाश्वतम् // 15 गगायमुनयोर्मध्ये यामुनस्य गिरेरधः // 3 तिलाश्च संप्रदातव्या यथाशक्ति द्विजर्षभ / पर्णशालेति विख्यातो रमणीयो नराधिप / नित्यदानात्सर्वकामांस्तिला निर्वर्तयन्त्युत // 16 विद्वांसस्तत्र भूयिष्ठा ब्राह्मणाश्चावसंस्तदा // 4 तिलाश्राद्धे प्रशंसन्ति दानमेतद्ध्यनुत्तमम् / अथ प्राह यमः कंचित्पुरुष कृष्णवाससम् / तान्प्रयच्छस्व विप्रेभ्यो विधिदृष्टेन कर्मणा // 17 रक्ताक्षमूर्ध्वरोमाणं काकजङ्घाक्षिनासिकम् / / 5 तिला भक्षयितव्याश्च सदा त्वालभनं च तैः / गच्छ त्वं ब्राह्मणग्रामं ततो गत्वा तमानय / कार्यं सततमिच्छद्भिः श्रेयः सर्वात्मना गृहे // 18 अगस्त्यं गोत्रतश्चापि नामतश्चापि शर्मिणम् // 6 तथापः सर्वदा देयाः पेयाश्चैव न संशयः / शमे निविष्टं विद्वांसमध्यापकमनादृतम् / पुष्करिण्यस्तडागानि कूपांश्चैवात्र खानयेत् // 19 मा चान्यमानयेथास्त्वं संगोत्रं तस्य पाश्वतः / / 7 एतत्सुदुर्लभतरमिह लोके द्विजोत्तम / स हि तादृग्गुणस्तेन तुल्योऽध्ययनजन्मना / आपो नित्यं प्रदेयास्ते पुण्यं ह्येतदनुत्तमम् / / 20 अपत्येषु तथा वृत्ते समस्तेनैव धीमता। प्रपाश्च कार्याः पानार्थं नित्यं ते द्विजसत्तम / तमानय यथोद्दिष्टं पूजा कार्या हि तस्य मे // 8 भुक्तेऽप्यथ प्रदेयं ते पानीयं वै विशेषतः // 21 स गत्वा प्रतिकूलं तच्चकार यमशासनम् / इत्युक्ते स तदा तेन यमदूतेन वै गृहान् / तमाक्रम्यानयामास प्रतिषिद्धो यमेव यः / / 9 नीतश्चकार च तथा सर्वं तद्यमशासनम् / / 22 तस्मै यमः समुत्थाय पूजां कृत्वा च वीर्यवान् / नीत्वा तं यमदूतोऽपि गृहीत्वा शर्मिणं तदा / प्रोवाच नीयतामेष सोऽन्य आनीयतामिति // 10 ययौ स धर्मराजाय न्यवेदयत चापि तम् // 23 एवमुक्ते तु वचने धर्मराजेन स द्विजः / तं धर्मराजो धर्मज्ञं पूजयित्वा प्रतापवान् / उवाच धर्मराजानं निर्विण्णोऽध्ययनेन वै / कृत्वा च संविदं तेन विसस यथागतम् // 24 यो मे कालो भवेच्छेपस्तं वसेयमिहाच्युत // 11 तस्यापि च यमः सर्वमुपदेशं चकार ह / यम उवाच / प्रत्येत्य च स तत्सर्वं चकारोक्तं यमेन तत् // 25 नाहं कालस्य विहितं प्राप्नोमीह कथंचन / तथा प्रशंसते दीपान्यमः पितृहितेप्सया / यो हि धर्म चरति वै तं तु जानामि केवलम् // 12 तस्मादीपप्रदो नित्यं संतारयति वै पितृन् / / 26 गच्छ विप्र त्वमद्यैव आलयं वं महाद्युते / दातव्याः सततं दीपास्तस्माद्भरतसत्तम / बहि वा त्वं यथा स्त्रैरं करवाणि क्रिमित्युत / / 13 / देवानां च पितृणां च चक्षुष्यास्ते मताः प्रभो॥ ब्राह्मण उवाच / रत्नदानं च सुमहापुण्यमुक्तं जनाधिप / यत्तत्र कृत्वा सुमहत्पुण्यं स्यात्तद्भवीहि मे। तानि विक्रीय यजते ब्राह्मणो ह्यभयंकरः // 28 ----- 2607 -- Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 67. 29 ] महाभारते [18. 68. 20 यद्वै ददाति विप्रेभ्यो ब्राह्मणः प्रतिगृह्य वै। प्रचोदनं देवकृतं गवां कर्मसु वर्तताम् / उभयोः स्यात्तदक्षय्यं दातुरादातुरेव च // 29 पूर्वमेवाक्षरं नान्यदभिधेयं कथंचन // 8 . यो ददाति स्थितः स्थित्यां तादृशाय प्रतिग्रहम् / प्रचारे वा निपाने वा बुधो नोद्वेजयेत गाः / उभयोरक्षयं धर्म तं मनुः प्राह धर्मवित् / / 30 तृषिता हभिवीक्षन्त्यो नरं हन्युः सबान्धवम् // वाससां तु प्रदानेन स्वदारनिरतो नरः। पितृसद्मानि सततं देवतायतनानि च / सुवस्त्रश्च सुवेषश्च भवतीत्यनुशुश्रुम // 31 पूयन्ते शकृता यासां पूतं किमधिकं ततः // 10 गावः सुवर्णं च तथा तिलाश्चैवानुवर्णिताः / ग्रासमुष्टि परगवे दद्यात्संवत्सरं तु यः / बहुशः पुरुषव्याघ्र वेदप्रामाण्यदर्शनात् // 32 अकृत्वा स्वयमाहारं व्रतं तत्सार्वकामिकम् // 11 विवाहांश्चैव कुर्वीत पुत्रानुत्पादयेत च। स हि पुत्रान्यशोऽथं च श्रियं चाप्यधिगच्छति / पुत्रलाभो हि कौरव्य सर्वलाभाद्विशिष्यते // 33 नाशयत्यशुभं चैव दुःस्वप्नं च व्यपोहति / / 12 इति श्रीमहाभारते अनुशासनतपर्वणि युधिष्ठिर उवाच / सप्तषष्टितमोऽध्यायः // 67 // देयाः किंलक्षणा गावः काश्चापि परिवर्जयेत् / 68 कीदृशाय प्रदातव्या न देयाः कीदृशाय च // 13 युधिष्ठिर उवाच / भीष्म उवाच / भूय एव कुरुश्रेष्ठ दानानां विधिमुत्तमम् / / असद्वृत्ताय पापाय लुब्धायानृतवादिने / . कथयस्व महाभाग भूमिदानं विशेषतः // 1 हव्यकव्यव्यपेताय न देया गौः कथंचन // 14 पृथिवीं क्षत्रियो दद्याद्ब्राह्मणस्तां स्वकर्मणा। भिक्षवे बहुपुत्राय श्रोत्रियायाहितामये / विधिवत्प्रतिगृह्णीयान्न त्वन्यो दातुमर्हति // 2 दत्त्वा दशगवां दाता लोकानाप्नोत्यनुत्तमान् // 15 सर्ववर्णैस्तु यच्छक्यं प्रदातुं फलकाटिभिः / यं चैव धर्म कुरुते तस्य पुण्यफलं च यत् / वेदे वा यत्समाम्नातं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि // 3 सर्वस्यैवांशभाग्दाता तन्निमित्तं प्रवृत्तयः / / 16 भीष्म उवाच / यश्चैनमुत्पादयति यश्चैनं त्रायते भयात् / तुल्यनामानि देयानि त्रीणि तुल्यफलानि च / यश्चास्य कुरुते वृत्ति सर्वे ते पितरत्रयः // 17 सर्वकामफलानीह गावः पृथ्वी सरस्वती / / 4 कल्मषं गुरुशुश्रूषा हन्ति मानो महद्यशः / यो याच्चापि शिष्याय धया ब्राह्मीं सरस्वतीम् / अपुत्रतां त्रयः पुत्रा अवृत्ति दश धेनवः // 18 पृथिवीगोप्रदानाभ्यां स तुल्यं फलमभुते / / 5 वेदान्तनिष्ठस्य बहुश्रुतस्य तथैव गाः प्रशंसन्ति न च देयं ततः परम् / प्रज्ञानतृप्तस्य जितेन्द्रियस्य / संनिकृष्टफलास्ता हि लध्वर्थाश्च युधिष्ठिर / शिष्टस्य दान्तस्य यतस्य चैव मातरः सर्वभूतानां गावः सर्वसुखप्रदाः / / 6 भूतेषु नित्यं प्रियवादिनश्च // 19 वृद्धिमाकाङ्क्षता नित्यं गावः कार्याः प्रदक्षिणाः / यः क्षुद्भयाद्वै न विकर्म कुर्यामङ्गलायतनं देव्यस्तस्मात्पूज्याः सदैव हि // 7 न्मृदुर्दान्तश्चातिथेयश्च. नित्यम् / -2608 - Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. 68. 20] अनुशासनपर्व [13. 69. 22 वृत्तिं विप्रायातिसृजेत तस्मै शतं सहस्राणि शतं गवां पुनः यस्तुल्यशीलश्च सपुत्रदारः // 20 पुनः शतान्यष्ट शतायुतानि / शुभे पात्रे ये गुणा गोप्रदाने त्वया पुरा दत्तमितीह शुश्रुम ___तावान्दोषो ब्राह्मणस्वापहारे। नृप द्विजेभ्यः क नु तद्गतं तव // 9 सर्वावस्थं ब्राह्मणस्वापहारो नृगस्ततोऽब्रवीत्कृष्णं ब्राह्मणस्याग्निहोत्रिणः / दाराश्चैषां दूरतो वर्जनीयाः // 21 प्रोषितस्य परिभ्रष्टा गौरेका मम गोधने // 10 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि गवां सहस्र संख्याता तदा सा पशुपैर्मम / अष्टषष्टितमोऽध्यायः // 68 // सा ब्राह्मणाय मे दत्ता प्रेत्यार्थमभिकाङ्कता // 11 अपश्यत्परिमार्गश्च तां यां परगृहे द्विजः / भीष्म उवाच / ममेयमिति चोवाच ब्राह्मणो यस्य साभवत् // 12 अत्रैव कीर्त्यते सद्भिाह्मणस्वाभिमर्शने / तावुभौ समनुप्राप्तौ विवदन्तौ भृशज्वरौ / नृगेण सुमहत्कृच्छं यदवाप्तं कुरूद्वह // 1 भवान्दाता भवान्हर्तेत्यथ तौ मां तदोचतुः॥ 13 निविशन्त्यां पुरा पार्थ द्वारवत्यामिति श्रुतिः / शतेन शतसंख्येन गवां विनिमयेन वै / अदृश्यत महाकूपस्तृणवीरुत्समावृतः // 2 याचे प्रतिग्रहीतारं स तु मामब्रवीदिदम् // 14 प्रयत्नं तत्र कुर्वाणास्तस्मात्कूपाजलार्थिनः / देशकालोपसंपन्ना दोग्ध्री क्षान्ताविवत्सला / श्रमेण महता युक्तास्तस्मिंस्तोये सुसंवृते // 3 स्वादुक्षीरप्रदा धन्या मम नित्यं निवेशने // 15 ददृशुस्ते महाकायं कृकलासमवस्थितम् / कृशं च भरते या गौर्मम पुत्रमपस्तनम् / तस्य चोद्धरणे यत्नमकुर्वस्ते सहस्रशः // 4 न सा शक्या मया हातुमित्युक्त्वा स जगाम ह // प्रग्रहैश्चर्मपट्टैश्च तं बवा पर्वतोपमम् / ततस्तमपरं विप्रं याचे विनिमयेन वै। नाशक्नुवन्समुद्धतुं ततो जग्मुर्जनार्दनम् // 5 गवां शतसहस्रं वै तत्कृते गृह्यतामिति // 17 समावृत्योदपानस्य कृकलासः स्थितो महान् / ब्राह्मण उवाच / तस्य नास्ति समुद्धर्तेत्यथ कृष्णे न्यवेदयन् // 6 न राज्ञां प्रतिगृह्णामि शक्तोऽहं स्वस्य मार्गणे / स वासुदेवेन समुद्धृतश्च सैव गौर्दीयतां शीघ्रं ममेति मधुसूदन // 18 ___पृष्टश्च कामान्निजगाद राजा। रुक्ममश्वांश्च ददतो रजतं स्यन्दनांस्तथा / नृगस्तदात्मानमथो न्यवेदय न जग्राह ययौ चापि तदा स ब्राह्मणर्षभः // 19 त्पुरातनं यज्ञसहस्रयाजिनम् // 7 एतस्मिन्नेव काले तु चोदितः कालधर्मणा / तथा ब्रुवाणं तमाह माधवः पितृलोकमहं प्राप्य धर्मराजमुपागमम् // 20 शुभं त्वया कर्म कृतं न पापकम् / यमस्तु पूजयित्वा मां ततो वचनमब्रवीत् / कथं भवान्दुर्गतिमीदृशीं गतो नान्तः संख्यायते राजंस्तव पुण्यस्य कर्मणः // 21 .. नरेन्द्र तब्रूहि किमेतदीदृशम् // 8 अस्ति चैव कृतं पापमज्ञानात्तदपि त्वया / म. भा. 327 -2609 - Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 69. 22] महाभारते [ 13. 70. 14 चरस्व पापं पश्चाद्वा पूर्व वा त्वं यथेच्छसि // 22 भीष्म उवाच / रक्षितास्मीति चोक्तं ते प्रतिज्ञा चानृता तव / अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / ब्राह्मणस्वस्य चादानं त्रिविधस्ते व्यतिक्रमः // 23 ऋषेरुद्दालकेर्वाक्यं नाचिकेतस्य चोभयोः // 2 पूर्वं कृच्छं चरिष्येऽहं पश्चाच्छुभमिति प्रभो। ऋषिरुद्दालकिर्दीक्षामुपगम्य ततः सुतम् / धर्मराजं ब्रुवन्नेवं पतितोऽस्मि महीतले // 24 त्वं मामुपचरस्वेति नाचिकेतमभाषत / अश्रौषं प्रच्युतश्चाहं यमस्योच्चैः प्रभाषतः / समाप्ते नियमे तस्मिन्महर्षिः पुत्रमब्रवीत् // 3 वासुदेवः समुद्धर्ता भविता ते जनार्दनः // 25 उपस्पर्शनसक्तस्य स्वाध्यायनिरतस्य च / पूणे वर्षसहस्रान्ते क्षीणे कर्मणि दुष्कृते / इध्मा दर्भाः सुमनसः कलशश्चाभितो जलम् / प्राप्स्यसे शाश्वताल्लोकाञ्जितान्स्वेनैव कर्मणा॥२६ विस्मृतं मे तदादाय नदीतीरादिहाव्रज // 4 कूपेऽऽत्मानमधःशीर्षमपश्यं पतितं च ह। गत्वानवाप्य तत्सर्व नदीवेगसमाप्लुतम् / तिर्यग्योनिमनुप्राप्तं न तु मामजहात्स्मृतिः // 27 न पश्यामि तदित्येवं पितरं सोऽब्रवीन्मुनिः // 5 त्वया तु तारितोऽस्म्यद्य किमन्यत्र तपोबलात् / क्षुत्पिपासाश्रमाविष्टो मुनिरुद्दालकिस्तदा / अनुजानीहि मां कृष्ण गच्छेयं दिवमद्य वै॥२८ यमं पश्येति तं पुत्रमशपत्स महातपाः // 6 अनुज्ञातः स कृष्णेन नमस्कृत्य जनार्दनम् / तथा स पित्राभिहतो वाग्वत्रेण कृताञ्जलिः / विमानं दिव्यमास्थाय ययौ दिवमरिंदम // 29 प्रसीदेति ब्रुवन्नेव गतसत्त्वोऽपतद्धवि // 7 ततस्तस्मिन्दिवं प्राप्ते नृगे भरतसत्तम। नाचिकेतं पिता दृष्ट्वा पतितं दुःखमूर्छितः / वासुदेव इमं श्लोकं जगाद कुरुनन्दन // 30 किं मया कृतमित्युक्त्वा निपपात महीतले // 8 ब्राह्मणस्वं न हर्तव्यं पुरुषेण विजानता। तस्य दुःखपरीतस्य स्वं पुत्रमुपगृहतः। ब्राह्मणस्वं हृतं हन्ति नृगं ब्राह्मणगौरिव // 31 व्यतीतं तदहःशेषं सा चोग्रा तत्र शर्वरी // 9 सतां समागमः सद्भिर्नाफलः पार्थ विद्यते / पित्र्येणाश्रुप्रपातेन नाचिकेतः कुरूद्वह / विमुक्तं नरकात्पश्य नृगं साधुसमागमात् // 32 प्रास्पन्दच्छयने कौश्ये वृष्ट्या सस्यमिवाप्लुतम् // 10 प्रदानं फलवत्तत्र द्रोहस्तत्र तथाफलः / स पर्यपृच्छत्तं पुत्रं श्लाघ्यं प्रत्यागतं पुनः / अपचारं गवां तस्माद्वर्जयेत युधिष्ठिर // 33 दिव्यैर्गन्धैः समादिग्धं क्षीणस्वप्नमिवोत्थितम्॥११ इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि अपि पुत्र जिता लोकाः शुभास्ते स्वेन कर्मणा। एकोनसप्ततितमोऽध्यायः॥ 69 // दिष्ट्या चासि पुनः प्राप्तो न हि ते मानुषं वपुः // प्रत्यक्षदर्शी सर्वस्य पित्रा पृष्टो महात्मना। अन्वथं तं पितुर्मध्ये महर्षीणां न्यवेदयत् / / 13 युधिष्ठिर उवाच। कुर्वन्भवच्छासनमाशु यातो दत्तानां फलसंप्राप्तिं गवां प्रब्रूहि मेऽनघ / ह्यहं विशालां रुचिरप्रभावाम् / विस्तरेण महाबाहो न हि तृप्यामि कथ्यताम् // 1 / वैवस्वतीं प्राप्य सभामपश्यं -2610 - 70 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 70. 14] अनुशासनपर्व [13. 70. 32 सहस्रशो योजनहैमभौमाम् // 14 तरुणादित्यवर्णानि स्थावराणि चराणि च // 23 दृष्ट्वैव मामभिमुखमापतन्तं भक्ष्यभोज्यमयाशैलान्वासांसि शयनानि च / गृहं निवेद्यासनमादिदेश / सर्वकामफलांश्चैव वृक्षान्भवनसंस्थितान् // 24 वैवस्वतोऽादिभिरर्हणैश्च नद्यो वीथ्यः सभा वापी दीर्घिकाश्चैव सर्वशः / भवत्कृते पूजयामास मां सः / / 15 घोषवन्ति च यानानि युक्तान्येव सहस्रशः // 25 ततस्त्वहं तं शनकैरवोचं क्षीरस्रवा वै सरितो गिरीश्च ___ वृतं सदस्यैरभिपूज्यमानम् / ___ सर्पिस्तथा विमलं चापि तोयम् / प्राप्तोऽस्मि ते विषयं धर्मराज वैवस्वतस्यानुमतांश्च देशालोकानहे यान्स्म तान्मे विधत्स्व // 16 ___ नदृष्टपूर्वान्सुबहूनपश्यम् // 26 यमोऽब्रवीन्मां न मृतोऽसि सौम्य सर्वं दृष्ट्वा तदहं धर्मराजयमं पश्येत्याह तु त्वां तपस्वी / __मवोचं वै प्रभविष्णु पुराणम् / पिता प्रदीप्ताग्निसमानतेजा क्षीरस्यैताः सर्पिषश्चैव नद्यः न तच्छक्यमनृतं विप्र कर्तुम् // 17 शश्वत्स्रोताः कस्य भोज्याः प्रदिष्टाः॥२७ दृष्टस्तेऽहं प्रतिगच्छस्व तात यमोऽब्रवीद्विद्धि भोज्यास्त्वमेता शोचत्यसौ तव देहस्य कर्ता। ये दातारः साधवो गोरसानाम / ददामि किं चापि मनःप्रणीतं अन्ये लोकाः शाश्वता वीतशोकाः प्रियातिथे तव कामान्वृणीष्व // 18 __ समाकीर्णा गोप्रदाने रतानाम् // 28 तेनैवमुक्तस्तमहं प्रत्यवोचं न त्वेवासां दानमात्र प्रशस्तं प्राप्तोऽस्मि ते विषयं दुर्निवय॑म् / पात्रं कालो गोविशेषो विधिश्च / इच्छाम्यहं पुण्यकृतां समृद्धा ज्ञात्वा देया विप्र गवान्तरं हि ल्लोकान्द्रष्टं यदि तेऽहं वराहः // 19 दुःखं ज्ञातुं पावकादित्यभूतम् // 29 यानं समारोप्य तु मां स देवो स्वाध्यायाढ्यो योऽतिमात्रं तपस्वी वाहैर्युक्तं सुप्रभं भानुमन्तम् / वैतानस्थो ब्राह्मणः पात्रमासाम् / संदर्शयामास तदा स्म लोका कृच्छ्रोत्सृष्टाः पोषणाभ्यागताश्च . सर्वास्तदा पुण्यकृता द्विजेन्द्र // 20 __द्वारैरेतैर्गोविशेषाः प्रशस्ताः // 30 अपश्यं तत्र वेश्मानि तैजसानि कृतात्मनाम् / तिस्रो रात्रीरद्भिपोष्य भूमौ नानासंस्थानरूपाणि सर्वरत्नमयानि च // 21 __ तृप्ता गावस्तर्पितेभ्यः प्रदेयाः। चन्द्रमण्डलशुभ्राणि किङ्किणीजालवन्ति च / वत्सैः प्रीताः सुप्रजाः सोपचाराअनेकशतभौमानि सान्त लवनानि च // 22 ____स्त्र्यहं दत्त्वा गोरसैर्वर्तितव्यं // 31 वैडूर्यार्कप्रकाशानि रूप्यरुक्ममयानि च / दत्त्वा धेनुं सुव्रतां कांस्यदोहां =2611 - Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 70. 32] महाभारते [13. 70.49 कल्याणवत्सामपलायिनीं च। प्राप्तो मया तात स मत्प्रसूतः यावन्ति लोमानि भवन्ति तस्या ___ प्रपत्स्यते वेदविधिप्रवृत्तः // 42 . स्तावद्वर्षाण्यभुते स्वर्गलोकम् // 32 शापो ह्ययं भवतोऽनुपहाय तथानड्वाहं ब्राह्मणाय प्रदाय प्राप्तो मया यत्र दृष्टो यमो मे। . दान्तं धुर्यं बलवन्तं युवानम् / दानव्युष्टिं तत्र दृष्ट्वा महार्थी कुलानुजीवं वीर्यवन्तं बृहन्तं निःसंदिग्धं दानधर्माश्चरिष्ये // 43 भुङ्क्ते लोकान्संमितान्धेनुदस्य // 33 इदं च मामब्रवीद्धर्मराजः गोषु क्षान्तं गोशरण्यं कृतज्ञं पुनः पुनः संप्रहृष्टो द्विजर्षे / ___ वृत्तिग्लानं तादृशं पात्रमाहुः / दानेन तात प्रयतोऽभूः सदैव वृत्तिग्लाने संभ्रमे वा महार्थे विशेषतो गोप्रदानं च कुर्याः // 44 ___ कृष्यर्थे वा होमहेतोः प्रसूत्याम् // 34 शुद्धो ह्यों नावमन्यः स्वधर्मागुर्वर्थे वा बालपुष्ट्याभिषङ्गा त्पात्रे देयं देशकालोपपन्ने / गावो दातुं देशकालोऽविशिष्टः / तस्माद्गावस्ते नित्यमेव प्रदेया अन्तर्जाताः सुक्रयज्ञानलब्धाः ___ मा भूञ्च ते संशयः कश्चिदत्र // 45 प्राणक्रीता निर्जिताश्चौदकाश्च // 35 एताः पुरा अददन्नित्यमेव नाचिकेत उवाच। शान्तात्मानो दानपथे निविष्टाः / श्रुत्वा वैवस्वतवचस्तमहं पुनरब्रुवम् / तपांस्युग्राण्यप्रतिशङ्कमानाअगोमी गोप्रदातॄणां कथं लोकान्निगच्छति // 36 ___स्ते वै दानं प्रददुश्चापि शक्त्या // 46 ततो यमोऽब्रवीद्धीमान्गोप्रदाने परां गतिम् / काले शक्त्या मत्सरं वर्जयित्वा गोप्रदानानुकल्पं तु गामृते सन्ति गोप्रदाः // 37 शुद्धात्मानः श्रद्धिनः पुण्यशीलाः / अलाभे यो गवां दद्याद्धृतधेनुं यतव्रतः। दत्त्वा तप्त्वा लोकममुं प्रपन्ना तस्यैता घृतवाहिन्यः क्षरन्ते वत्सला इव // 38 देदीप्यन्ते पुण्यशीलांश्च नाके // 47 घृतालाभे च यो दद्यात्तिलधेनुं यतव्रतः / एतद्दानं न्यायलब्धं द्विजेभ्यः स दुर्गात्तारितो धेन्वा क्षीरनद्यां प्रमोदते // 39 पात्रे दत्तं प्रापणीयं परीक्ष्य / तिलालाभे च यो दद्याजलधेनुं यतव्रतः / काम्याष्टम्यां वर्तितव्यं दशाह स कामप्रवहां शीतां नदीमेतामुषाभुते // 40 __रसैर्गवां शकृता प्रस्नवैर्वा // 48 एवमादीनि मे तत्र धर्मराजो न्यदर्शयत् / वेदव्रती स्याद्वृषभप्रदाता दृष्ट्वा च परमं हर्षमवापमहमच्युत // 41 वेदावाप्तिर्गोयुगस्य प्रदाने निवेदये चापि प्रियं भवत्सु तीर्थावाप्तिगोप्रयुक्तप्रदाने क्रतुर्महानल्पधनप्रचारः। पापोत्सर्गः कपिलायाः प्रदाने // 49 - 2612 - Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 70. 50] अनुशासनपर्व [13. 71. 12 गामप्येकां कपिलां संप्रदाय न्यायोपेतां कल्मषाद्विप्रमुच्येत् / युधिष्ठिर उवाच / गवां रसात्परमं नास्ति किंचि उक्तं वै गोप्रदानं ते नाचिकेतमृषि प्रति / गवां दानं सुमहत्तद्वदन्ति // 50 माहात्म्यमपि चवोक्तमुद्देशेन गवां प्रभो // 1 गावो लोकान्धारयन्ति क्षरन्त्यो नृगेण च यथा दुःखमनुभूतं महात्मना / गावश्चान्नं संजनयन्ति लोके / एकापराधादज्ञानात्पितामह महामते // 2 यस्तज्जानन्न गवां हार्दमेति द्वारवत्यां यथा चासौ निविशन्त्यां समुद्धृतः / - स वै गन्ता निरयं पापचेताः // 51 मोक्षहेतुरभूत्कृष्णस्तदप्यवधृतं मया // 3 यत्ते दातुं गोसहस्रं शतं वा किं त्वस्ति मम संदेहो गवां लोकं प्रति प्रभो / शताध वा दश वा साधुवत्साः / तत्त्वतः श्रोतुमिच्छामि गोदा यत्र विशन्त्युत // 4 अप्येकां वा साधये ब्राह्मणाय भीष्म उवाच / सास्यामुष्मिन्पुण्यतीर्था नदी वै // 52 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / प्राप्त्या पुष्ट्या लोकसंरक्षणेन यथापृच्छत्पद्मयोनिमेतदेव शतक्रतुः // 5 गावस्तुल्याः सूर्यपादैः पृथिव्याम् / शक्र उवाच। शब्दश्चैकः संततिश्चोपभोग स्वर्लोकवासिनां लक्ष्मीमभिभूय स्वया त्विषा / स्तस्माद्गोदः सूर्य इवाभिभाति // 53 / / गोलोकवासिनः पश्ये व्रजतः संशयोऽत्र मे // 6 गुरुं शिष्यो वरयेद्गोप्रदाने कीदृशा भगवल्लोका गवां तब्रूहि मेऽनघ / ___ स वै वक्ता नियतं स्वर्गदाता / यानावसन्ति दातार एतदिच्छामि वेदितुम् // 7 विधिज्ञानां सुमहानेष धर्मो कीदृशाः किंफलाः कःस्वित्परमस्तत्र वै गुणः / विधिं ह्याद्यं विधयः संश्रयन्ति // 54 कथं च पुरुषास्तत्र गच्छन्ति विगतज्वराः // 8 एतदानं न्यायलब्धं द्विजेभ्यः कियत्कालं प्रदानस्य दाता च फलमनुते / पात्रे दत्त्वा प्रापयेथाः परीक्ष्य / कथं बहुविधं दानं स्यादल्पमपि वा कथम् // 9 त्वय्याशंसन्त्यमरा मानवाश्च बह्वीनां कीदृशं दानमल्पानां वापि कीदृशम् / * वयं चापि प्रसृते पुण्यशीलाः // 55 अदत्त्वा गोप्रदाः सन्ति केन वा तच्च शंस मे // 10 इत्युक्तोऽहं धर्मराज्ञा महर्षे कथं च बहुदाता स्यादल्पदात्रा समः प्रभो। धर्मात्मानं शिरसाभिप्रणम्य / अल्पप्रदाता बहुदः कथं च स्यादिहेश्वर // 11 अनुज्ञातस्तेन वैवस्वतेन कीदृशी दक्षिणा चैव गोप्रदाने विशिष्यते / प्रत्यागमं भगवत्पादमूलम् // 56 एतत्तथ्येन भगवन्मम शंसितुमर्हसि // 12 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि सप्ततितमोऽध्यायः // 7 // एकसप्ततितमोऽध्यायः // 71 // - 2613 - Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 72.1] महाभारते [13. 72. 23 % 3D 72 मृदुर्दान्तो देवपरायणश्च ब्रह्मोवाच / सर्वातिथिश्चापि तथा दयावान् / योऽयं प्रश्नस्त्वया पृष्टो गोप्रदानाधिकारवात् / ईदृग्गुणो मानवः संप्रयाति नास्य प्रष्टास्ति लोकेऽस्मिंस्त्वत्तोऽन्यो हि शतक्रतो॥ लोकं गवां शाश्वतं चाव्ययं च // 12 सन्ति नानाविधा लोका यांस्त्वं शक्र न पश्यसि / न पारदारी पश्यति लोकमेनं पश्यामि यानहं लोकानेकपन्यश्च याः स्त्रियः // 2 ____ न वै गुरुघ्नो न मृषाप्रलापी / कर्मभिश्चापि सुशुभैः सुव्रता ऋषयस्तथा। सदापवादी ब्राह्मणः शान्तवेदो सशरीरा हि तान्यान्ति ब्राह्मणाः शुभवृत्तयः // 3 दोषैरन्यैर्यश्च युक्तो दुरात्मा // 13 . शरीरन्यासमोक्षेण मनसा निर्मलेन च / न मित्रध्रु.कृतिकः कृतघ्नः स्वप्नभूतांश्च ताल्लोकान्पश्यन्तीहापि सुव्रताः // 4 ____ शठोऽनृजुर्धर्मविद्वेषकश्च। .. ते तु लोकाः सहस्राक्ष शृणु यादृग्गुणान्विताः / न ब्रह्महा मनसापि प्रपश्येन तत्र क्रमते कालो न जरा न च पापकम् / द्रवां लोकं पुण्यकृतां निवासम् // 14 तथान्यन्नाशुभं किंचिन्न व्याधिस्तत्र न क्लमः॥ 5 एतत्ते सर्वमाख्यातं नैपुणेन सुरेश्वर / यद्यच्च गावो मनसा तस्मिन्वाञ्छन्ति वासव / गोप्रदानरतानां तु फलं शृणु शतक्रतो // 15 तत्सर्व प्रापयन्ति स्म मम प्रत्यक्षदर्शनात् / दायाद्यलब्धैरथैर्यो गाः क्रीत्वा संप्रयच्छति। कामगाः कामचारिण्यः कामात्कामांश्च भुञ्जते // 6 धर्मार्जितधनकीतान्स लोकानश्नुतेऽक्षयान् // 16 वाप्यः सरांसि सरितो विविधानि वनानि च। यो वै ब्रूते धनं जित्वा गाः क्रीत्वा संप्रयच्छति। गृहाणि पर्वताश्चैव यावद्र्व्यं च किंचन // 7 स दिव्यमयुतं शक्र वर्षाणां फलमभुते // 17 मनोज्ञं सर्वभूतेभ्यः सर्वं तत्र प्रदृश्यते। दायाद्या यस्य वै गावो न्यायपूर्वैरुपार्जिताः। ईदृशान्विद्धि ताल्लोकान्नास्ति लोकस्ततोऽधिकः // प्रदत्तास्ताः प्रदातॄणां संभवन्त्यक्षया ध्रुवाः // 18 तत्र सर्वसहाः क्षान्ता वत्सला गुरुवर्तिनः / प्रतिगृह्य च यो दद्याद्गाः सुशुद्धेन चेतसा / अहंकारैर्विरहिता यान्ति शक्र नरोत्तमाः // 9 तस्यापीहाक्षयाल्लोकान्ध्रुवान्विद्धि शचीपते // 19 यः सर्वमांसानि न भक्षयीत जन्मप्रभृति सत्यं च यो ब्रूयान्नियतेन्द्रियः / . पुमान्सदा यावदन्ताय युक्तः / गुरुद्विजसहः क्षान्तस्तस्य गोभिः समा गतिः॥२० मातापित्रोरर्चिता सत्ययुक्तः न जातु ब्राह्मणो वाच्यो यदवाच्यं शचीपते। शुभूषिता ब्राह्मणानामनिन्द्यः // 10 मनसा गोषु न द्रुह्येद्गोवृत्तिर्गोनुकम्पकः // 21 अक्रोधनो गोषु तथा द्विजेषु सत्ये धर्मे च निरतस्तस्य शक्र फलं शृणु। धर्मे रतो गुरुशुश्रूषकश्च / गोसहस्रेण समिता तस्य धेनुर्भवत्युत // 22 यावज्जीवं सत्यवृत्ते रतश्च क्षत्रियस्य गुणैरेभिरन्वितस्य फलं शृणु / दाने रतो यः क्षमी चापराधे // 11 / तस्यापि शततुल्या गौर्भवतीति विनिश्चयः // 23 -2614 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 72. 24 ] अनुशासनपर्व [13. 72. 41 वैश्यस्यैते यदि गुणास्तस्य पञ्चाशतं भवेत् / यश्चात्मविक्रयं कृत्वा गाः क्रीत्वा संप्रयच्छति / शद्रस्यापि विनीतस्य चतुर्भागफलं स्मृतम् // 24 यावतीः स्पर्शयेगा वै तावत्तु फलमश्नुते / एतचैवं योऽनुतिष्ठेत युक्तः लोम्नि लोम्नि महाभाग लोकाश्चास्याक्षयाः स्मृताः॥ __ सत्येन युक्तो गुरुशुश्रूषया च / संग्रामेष्वजयित्वा तु यो वै गाः संप्रयच्छति। दान्तः क्षान्तो देवता! प्रशान्तः आत्मविक्रयतुल्यास्ताः शाश्वता विद्धि कौशिक // शुचिर्बुद्धो धर्मशीलोऽनहंवाक् // 25 अलाभे यो गवां दद्यात्तिलधेनुं यतव्रतः / महत्फलं प्राप्नुते स द्विजाय दुर्गात्स तारितो धेन्वा क्षीरनद्यां प्रमोदते // 35 दत्त्वा दोग्ध्रीं विधिनानेन धेनुम् / न त्वेवासां दानमात्रं प्रशस्तं नित्यं दद्यादेकभक्तः सदा च पात्रं कालो गोविशेषो विधिश्च / सत्ये स्थितो गुरुशुश्रूषिता च // 26 कालज्ञानं विप्र गवान्तरं हि वेदाध्यायी गोषु यो भक्तिमांश्च दुःखं ज्ञातुं पावकादित्यभूतम् // 36 ___ नित्यं दृष्ट्वा योऽभिनन्देत गाश्च / स्वाध्यायाढ्यं शुद्धयोनि प्रशान्तं आ जातितो यश्च गवां, नमेत वैतानस्थं पापभीरं कृतज्ञम् / इदं फलं शक्र निबोध तस्य // 27 गोषु क्षान्तं नातितीक्ष्णं शरण्यं यत्स्यादिष्ट्वा राजसूये फलं तु वृत्तिग्लानं तादृशं पात्रमाहुः // 37 __ यत्स्यादिष्ट्वा बहुना काञ्चनेन / वृत्तिग्लाने सीदति चातिमात्रं एतत्तुल्यं फलमस्याहुरग्र्यं ___ कृष्यर्थं वा होमहेतोः प्रसूत्याम् / ___ सर्वे सन्तस्त्वृषयो ये च सिद्धाः // 28 गुर्वर्थ वा बालसंवृद्धये वा योऽयं भक्तान्किचिदप्राश्य दद्या धेनुं दद्याद्देशकाले विशिष्टे // 38 गोभ्यो नित्यं गोव्रती सत्यवादी / अन्तर्जाताः सुक्रयज्ञानलब्धाः शान्तो वृद्धो गोसहस्रस्य पुण्यं प्राणक्रीता निर्जिताश्चौकजाश्च / - संवत्सरेणाप्नुयात्पुण्यशीलः // 29 कृच्छोत्सृष्टाः पोषणाभ्यागताश्च य एकं भक्तमश्नीयाद्दद्यादेकं गवां च यत् / द्वारैरेतैर्गोविशेषाः प्रशस्ताः // 39 दश वर्षाण्यनन्तानि गोवती गोनुकम्पकः // 30 बलान्विता शीलवयोपपन्नाः एकेनैव च भक्तेन यः क्रीत्वा गां प्रयच्छति / ___ सर्वाः प्रशंसन्ति सुगन्धवत्यः / यावन्ति यस्य प्रोक्तानि दिवसानि शतक्रतो। यथा हि गङ्गा सरितां वरिष्ठा चावच्छतानां स गवां फलमाप्नोति शाश्वतम् // 31 __तथार्जुनीनां कपिला वरिष्ठा // 40 ब्राह्मणस्य फलं हीदं क्षत्रियेऽभिहितं शृणु। तिस्रो रात्रीस्त्वद्भिरुपोष्य भूमौ पञ्चवार्षिकमेतत्तु क्षत्रियस्य फलं स्मृतम् / __ तृप्ता गावस्तर्पितेभ्यः प्रदेयाः / ततोऽर्धेन तु वैश्यस्य शूद्रो वैश्यार्धतः स्मृतः // 32 / / वत्सैः पुष्टैः क्षीरपैः सुप्रचारा -2615 - Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. 72. 41] महाभारते [13. 73. 15 स्त्र्यहं दत्त्वा गोरसैर्वर्तितव्यम् // 41 घातयानं हि पुरुषं येऽनुमन्येयुरर्थिनः // 3 दत्त्वा धेनुं सुव्रतां साधुवत्सां घातकः खादको वापि तथा यश्चानुमन्यते / कल्याणवृत्तामपलायिनी च। यावन्ति तस्या लोमानि तावद्वर्षाणि मज्जति // 4 यावन्ति लोमानि भवन्ति तस्या ये दोषा यादृशाश्चैव द्विजयज्ञोपघातके / स्तावन्ति वर्षाणि वसत्यमुत्र // 42 विक्रये चापहारे च ते दोषा वै स्मृताः प्रभो॥५ तथानड्वाहं ब्राह्मणायाथ धुर्य अपहृत्य तु यो गां वै ब्राह्मणाय प्रयच्छति / __दत्त्वा युवानं बलिनं विनीतम् / यावद्दाने फलं तस्यास्तावन्निरयमृच्छति // 6 हलस्य वोढारमनन्तवीर्य सुवर्णं दक्षिणामाहुर्गोप्रदाने महाद्युते / प्राप्नोति लोकान्दशधेनुदस्य // 43 सुवर्णं परमं युक्तं दक्षिणार्थमसंशयम् // 7 कान्तारे ब्राह्मणान्गाश्च यः परित्राति कौशिक / गोप्रदानं तारयते सप्त पूर्वांस्तथा परान्।. क्षेमेण च विमुच्येत तस्य पुण्यफलं शृणु।। सुवर्ण दक्षिणां दत्त्वा तावहिगुणमुच्यते / / 8 अश्वमेधक्रतोस्तुल्यं फलं भवति शाश्वतम् // 44 सुवर्णं परमं दानं सुवर्णं दक्षिणा परा / मृत्युकाले सहस्राक्ष यां वृत्तिमनुकाङ्क्षते / सुवर्ण पावनं शक्र पावनानां परं स्मृतम् // 9 लोकान्बहुविधान्दिव्यान्यद्वास्य हृदि वर्तते // 45 कुलानां पावनं प्राहुर्जातरूपं शतक्रतो। तत्सर्वं समवाप्नोति कर्मणा तेन मानवः / एषा मे दक्षिणा प्रोक्ता समासेन महाद्युते // 10 गोभिश्च समनुज्ञातः सर्वत्र स महीयते // 46 भीष्म उवाच / यस्त्वेतेनैव विधिना गां वनेष्वनुगच्छति / एतत्पितामहेनोक्तमिन्द्राय भरतर्षभ / तृणगोमयपर्णाशी निःस्पृहो नियतः शुचिः // 47 इन्द्रो दशरथायाह रामायाह पिता तथा // 11 अकामं तेन वस्तव्यं मुदितेन शतक्रतो। राघवोऽपि प्रियभ्रात्रे लक्ष्मणाय यशखिने / मम लोके सुरैः साधं लोके यत्रापि चेच्छति // 48 ऋषिभ्यो लक्ष्मणेनोक्तमरण्ये वसता विभो // 12 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि पारंपर्यागतं चेदमृषयः संशितव्रताः / द्वासप्ततितमोऽध्यायः // 72 // दुर्धरं धारयामासू राजानश्चैव धार्मिकाः। 73 उपाध्यायेन गदितं मम चेदं युधिष्ठिर / / 13 इन्द्र उवाच / य इदं ब्राह्मणो नित्यं वदेब्राह्मणसंसदि / जानन्यो गामपहरेद्विक्रीयाद्वार्थकारणात् / यज्ञेषु गोप्रदानेषु द्वयोरपि समागमे // 14 एतद्विज्ञातुमिच्छामि का नु तस्य गतिर्भवेत् // 1 तस्य लोकाः किलाक्षय्या दैवतैः सह नित्यदा / ब्रह्मोवाच / इति ब्रह्मा स भगवानुवाच परमेश्वरः // 15 भक्षार्थ विक्रयार्थं वा येऽपहारं हि कुर्वते। इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दानार्थ वा ब्राह्मणाय तत्रेदं श्रूयतां फलम् // 2 त्रिसप्ततितमोऽध्यायः॥७३॥ विक्रया हि यो हिंस्याद्भक्षयेद्वा निरङ्कुशः / / -2616 - Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 74. 1] अनुशासनपर्व [13. 74. 28 74 दाता कुप्यति नो दान्तस्तस्मादानात्परो दमः // 14 युधिष्ठिर उवाच। यस्तु दद्यादकुप्यन्हि तस्य लोकाः सनातनाः / विस्रम्भितोऽहं भवता धर्मान्प्रवदता विभो। क्रोधो हन्ति हि यद्दानं तस्माद्दानात्परो दमः // 15 प्रवक्ष्यामि तु संदेहं तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 अदृश्यानि महाराज स्थानान्ययुतशो दिवि / व्रतानां किं फलं प्रोक्तं कीदृशं वा महाद्युते / ऋषीणां सर्वलोकेषु यानीतो यान्ति देवताः // 16 नियमानां फलं किं च स्वधीतस्य च किं फलम् // दमेन यानि नृपते गच्छन्ति परमर्षयः / दमस्येह फलं किं च वेदानां धारणे च किम् / / कामयाना महत्स्थानं तस्माद्दानात्परो दमः // 17 अध्यापने फलं किं च सर्व मिच्छामि वेदितुम् // 3 अध्यापकः परिक्लेशादक्षयं फलमभुते / अप्रतिग्राहके किं च फलं लोके पितामह / विधिवत्पावकं हुत्वा ब्रह्मलोके नराधिप // 18 तस्य किं च फलं दृष्टं श्रुतं यः संप्रयच्छति / / 4 अधीत्यापि हि यो वेदान्न्यायविद्भयः प्रयच्छति / स्वकर्मनिरतानां च शूराणां चापि किं फलम् / / गुरुकर्मप्रशंसी च सोऽपि स्वर्गे महीयते // 19 सत्ये च किं फलं प्रोक्तं ब्रह्मचर्ये च किं फलम् // क्षत्रियोऽध्ययने युक्तो यजने दानकर्मणि / पितृशुश्रूषणे किं च मातृशुश्रूषणे तथा / युद्धे यश्च परित्राता सोऽपि स्वर्गे महीयते // 20 आचार्यगुरुशुश्रूषास्वनुक्रोशानुकम्पने // 6 वैश्यः स्वकर्मनिरतः प्रदानाल्लभते महत् / एतत्सर्वमशेषेण पितामह यथातथम् / शूद्रः स्वकर्मनिरतः स्वर्ग शुश्रूषयार्च्छति // 21 वेत्तुमिच्छामि धर्मज्ञ परं कौतूहलं हि मे // 7 शूरा बहुविधाः प्रोक्तास्तेषामांश्च मे शृणु / भीष्म उवाच / शूरान्वयानां निर्दिष्टं फलं शूरस्य चैव ह // 22 यो व्रतं वै यथोद्दिष्टं तथा संप्रतिपद्यते। यज्ञशूरा दमे शूराः सत्यशूरास्तथापरे / अखण्डं सम्यगारब्धं तस्य लोकाः सनातनाः // 8 युद्धशूरास्तथैवोक्ता दानशूराश्च मानवाः // 23 नियमानां फलं राजन्प्रत्यक्षमिह दृश्यते / बुद्धिशूरास्तथैवान्ये क्षमाशूरास्तथापरे / नियमानां क्रतूनां च त्वयावाप्तमिदं फलम् // 9 आर्जवे च तथा शूराः शमे वर्तन्ति मानवाः // 24 खधीतस्यापि च फलं दृश्यतेऽमुत्र चेह च। तैस्तैस्तु नियमैः शूरा बहवः सन्ति चापरे / इहलोकेऽर्थवान्नित्यं ब्रह्मलोके च मोदते // // 10 वेदाध्ययनशूराश्च शूराश्चाध्यापने रताः // 25 दमस्य तु फलं राजशृणु त्वं विस्तरेण मे। गुरुशुश्रूषया शूराः पितृशुश्रूषयापरे / दान्ताः सर्वत्र सुखिनो दान्ताः सर्वत्र निर्वृताः॥ मातूशुश्रूषया शूरा भैक्ष्यशूरास्तथापरे // 26 यत्रेच्छागामिनो दान्ताः सर्वशत्रुनिषूदनाः / सांख्यशूराश्च बहवो योगशूरास्तथापरे / प्रार्थयन्ति च यद्दान्ता लभन्ते तन्न संशयः // 12 अरण्ये गृहवासे च शूराश्चातिथिपूजने / युज्यन्ते सर्वकामैर्हि दान्ताः सर्वत्र पाण्डव / / सर्वे यान्ति पराल्लोकान्स्वकर्मफलनिर्जितान् // 27 खर्गे तथा प्रमोदन्ते तपसा विक्रमेण च // 13 / धारणं सर्ववेदानां सर्वतीर्थावगाहनम् / दानयज्ञैश्च विविधैर्यथा दान्ताः क्षमान्विताः। / सत्यं च ब्रुवतो नित्यं समं वा स्यान्न वा समम् / / म, भा, 328 - 2617 - Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 74. 29 ] महाभारते [ 13. 75. 10 अश्वमेधसहस्रं च सत्यं च तुलया धृतम् / अश्वमेधसहस्राद्धि सत्यमेव विशिष्यते // 29 युधिष्ठिर उवाच / सत्येन सूर्यस्तपति सत्येनाग्निः प्रदीप्यते / विधि गवां परमहं श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः / सत्येन मारुतो वाति सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितम् // 30 येन ताशाश्वताल्लोकानखिलानभुवीमहि // 1 सत्येन देवान्प्रीणाति पितृन्वै ब्राह्मणांस्तथा।। सत्यमाहुः परं धर्म तस्मात्सत्यं न लञ्चयेत् // 31 भीष्म उवाच। मुनयः सत्यनिरता मुनयः सत्यविक्रमाः / न गोदानात्परं किंचिद्विद्यते वसुधाधिप / मुनयः सत्यशपथास्तस्मात्सत्यं विशिष्यते। गौर्हि न्यायागता दत्ता सद्यस्तारयते कुलम् // 2 सत्यवन्तः स्वर्गलोके मोदन्ते भरतर्षभ // 32 सतामर्थे सम्यगुत्पादितो यः दमः सत्यफलावाप्तिरुक्ता सर्वात्मना मया। स वै क्लुप्तः सम्यगिष्टः प्रजाभ्यः / असंशयं विनीतात्मा सर्वः स्वर्गे महीयते // 33 तस्मात्पूर्व ह्यादिकाले प्रवृत्तं ब्रह्मचर्यस्य तु गुणाञ्शृणु मे वसुधाधिप / गवां दाने शृणु राजन्विधि मे // 3 आ जन्ममरणाद्यस्तु ब्रह्मचारी भवेदिह / पुरा गोषूपनीतासु गोषु संदिग्धदर्शिना / न तम्य किंचिदप्राप्यमिति विद्धि जनाधिप // 34 मान्धात्रा प्रकृतं प्रश्नं बृहस्पतिरभाषत // 4 बह्वयः कोट्यस्त्वृषीणां तु ब्रह्मलोके वसन्त्युत। द्विजातिमभिसत्कृत्य श्वः कालमभिवेद्य च / सत्ये रतानां सततं दान्तानामूर्ध्वरेतसाम् // 35 प्रदानार्थे नियुञ्जीत रोहिणी नियतव्रतः // 5 ब्रह्मचर्यं दहेद्राजन्सर्वपापान्युपासितम् / आह्वानं च प्रयुञ्जीत समङ्गे बहुलेति च / ब्राह्मणेन विशेषेण ब्राह्मणो ह्यग्निरुच्यते // 36 प्रविश्य च गवां मध्यमिमां श्रुतिमुदाहरेत् // 6 प्रत्यक्षं च तवाप्येतद्ब्राह्मणेषु तपस्विषु / गौ माता गोवृषभः पिता मे बिभेति हि यथा शक्रो ब्रह्मचारिप्रधर्षितः / दिवं शर्म जगती मे प्रतिष्ठा / तद्ब्रह्मचर्यस्य फलमृषीणामिह दृश्यते // 37 प्रपद्यैवं शर्वरीमुष्य गोषु मातापित्रोः पूजने यो धर्मस्तमपि मे शृणु / मुनिर्वाणीमुत्सृजेद्गोप्रदाने // 7 शुश्रूषते यः पितरं न चासूयेत्कथंचन / स तामेकां निशां गोभिः समसख्यः समव्रतः। मातरं वानहंवादी गुरुमाचार्यमेव च // 38 ऐकात्म्यगमनात्सद्यः कल्मषाद्विप्रमुच्यते // 8 तस्य राजन्फलं विद्धि स्वलॊके स्थानमुत्तमम् / उत्सृष्टवृषवत्सा हि प्रदेया सूर्यदर्शने / न च पश्येत नरकं गुरुशुश्रूषुरात्मवान् // 39 त्रिविधं प्रतिपत्तव्यमर्थवादाशिषः स्तवाः // 9 ऊर्जस्विन्य ऊर्जमेधाश्च यज्ञो इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि गर्भोऽमृतस्य जगतश्च प्रतिष्ठा / चतुःसप्ततितमोऽध्यायः // 74 // क्षितौ राधःप्रभवः शश्वदेव प्राजापत्याः सर्वमित्यर्थवादः // 10 - 2618 - Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 75. 11] अनुशासनपर्व [ 13. 75. 27 गावो ममैनः प्रणुदन्तु सौर्या वेदव्रती स्याद्वृषभप्रदाता स्तथा सौम्याः स्वर्गयानाय सन्तु / वेदावाप्तिर्गोयुगस्य प्रदाने। आम्नाता मे ददतीराश्रयं तु तथा गवां विधिमासाद्य यज्वा तथानुक्ताः सन्तु सर्वाशिषो मे // 11 लोकानग्र्यान्विन्दते नाविधिज्ञः // 20 शेषोत्सर्गे कर्मभिर्देहमोक्षे कामान्सर्वान्पार्थिवानेकसंस्थासरस्वत्यः श्रेयसि संप्रवृत्ताः। न्यो वै दद्यात्कामदुघां च धेनुम् / यूयं नित्यं पुण्यकर्मोपवाह्या सम्यक्ताः स्युर्हव्यकव्यौघवत्यदिशध्वं मे गतिमिष्टां प्रपन्नाः // 12 स्तासामुक्ष्णां ज्यायसां संप्रदानम् // 21 या वै यूयं सोऽहमद्यैकभावो न चाशिष्यायाव्रतायोपकुर्या__युष्मान्दत्त्वा चाहमात्मप्रदाता / नाश्रद्धधानाय न वक्रबुद्धये / मनभ्युता मनएवोपपन्नाः गुह्यो ह्ययं सर्वलोकस्य धर्मो संधुक्षध्वं सौम्यरूपोग्ररूपाः // 13 __नेमं धर्म यत्र तत्र प्रजल्पेत् // 22 एवं तस्याने पूर्वमधु वदेत सन्ति लोके श्रद्धधाना मनुष्याः गवां दाता विधिवत्पूर्वदृष्टम् / सन्ति क्षुद्रा राक्षसा मानुषेषु / प्रतिव्याच्छेषमधु द्विजातिः येषां दानं दीयमानं ह्यनिष्टं प्रतिगृह्णन्वै गोप्रदाने विधिज्ञः // 14 नास्तिक्यं चाप्याश्रयन्ते ह्यपुण्याः॥२३ गां ददानीति वक्तव्यमय॑वस्त्रवसुप्रदः। बार्हस्पत्यं वाक्यमेतन्निशम्य अधस्या भरितव्या च वैष्णवीति च चोदयेत् // ये राजानो गोप्रदानानि कृत्वा / नाम संकीर्तयेत्तस्या यथासंख्योत्तरं स वै / लोकान्प्राप्ताः पुण्यशीलाः सुवृत्ताफलं षड्विंशदष्टौ च सहस्राणि च विंशतिः // 16 स्तान्मे राजन्कीर्त्यमानान्निबोध // 24 एवमेतान्गुणान्वृद्धान्गवादीनां यथाक्रमम् / उशीनरो विष्वगश्वो नृगश्च गोप्रदाता समाप्नोति समस्तानष्टमे क्रमे // 17 भगीरथो विश्रुतो यौवनाश्वः / गोदः शीली निर्भयश्चार्घदाता मान्धाता वै मुचुकुन्दश्च राजा न स्याहुःखी वसुदाता च कामी / भूरिद्युम्नो नैषधः सोमकश्च // 25 ऊधस्योढा भारत यश्च विद्वा पुरूरवा भरतश्चक्रवर्ती व्याख्यातास्ते वैष्णवाश्चन्द्रलोकाः // 18 यस्यान्वये भारताः सर्व एव / गा वै दत्त्वा गोव्रती स्यात्रिरात्रं तथा वीरो दाशरथिश्च रामो निशां चैकां संवसेतेह ताभिः / ये चाप्यन्ये विश्रुताः कीर्तिमन्तः॥२६ काम्याष्टम्यां वर्तितव्यं त्रिरात्रं तथा राजा पृथुकर्मा दिलीपो रसर्वा गोः शकृता प्रस्नवैर्वा // 19 दिवं प्राप्तो गोप्रदाने विधिज्ञः। . - 2619 - Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 75. 27] महाभारते [13. 76. 13 यज्ञैर्दानैस्तपसा राजधर्में भीष्म उवाच / र्मान्धाताभूद्रोप्रदानैश्च युक्तः // 27 वत्सलां गुणसंपन्नां तरुणीं वस्त्रसंवृताम् / तस्मात्पार्थ त्वमपीमां मयोक्तां दत्त्वेदृशीं गां विप्राय सर्वपापैः प्रमुच्यते // 4 बाईस्पती भारती धारयस्व / असुर्या नाम ते लोका गां दत्त्वा तत्र गच्छति / द्विजायेभ्यः संप्रयच्छ प्रतीतो पीतोदकां जग्धतृणां नष्टदुग्धां निरिन्द्रियाम् // 5 गाः पुण्या वै प्राप्य राज्यं कुरूणाम् // 28 जरोग्रामुपयुक्तार्था जीर्णा कूपमिवाजलम् / वैशंपायन उवाच / दत्त्वा तमः प्रविशति द्विजं क्लेशेन योजयेत् // 6 तथा सर्व कृतवान्धर्मराजो दुष्टा रुष्टा व्याधिता दुर्बला वा ___ भीष्मेणोक्तो विधिवद्गोप्रदाने। न दातव्या याश्च मूल्यैरदत्तः। स मान्धातुर्देवदेवोपदिष्टं क्लेशैविप्रं योऽफलैः संयुनक्ति सम्यग्धर्म धारयामास राजा // 29 तस्यावीर्याश्चाफलाश्चैव लोकाः // 7 इति नृप सततं गवां प्रदाने बलान्विताः शीलवयोपपन्नाः यवशकलान्सह गोमयैः पिबानः / सर्वाः प्रशंसन्ति सुगन्धवत्यः / क्षितितलशयनः शिखी यतात्मा यथा हि गङ्गा सरितां वरिष्ठा / वृष इव राजवृषस्तदा बभूव // 30 तथार्जुनीनां कपिला वरिष्ठा // 8 स नृपतिरभवत्सदैव ताभ्यः युधिष्ठिर उवाच / __प्रयतमना ह्यभिसंस्तुवंश्च गा वै / कस्मात्समाने बहुलाप्रदाने नृपधुरि च न गामयुक्त भूय ___ सद्भिः प्रशस्तं कपिलाप्रदानम् / स्तुरगवरैरंगमञ्च यत्र तत्र // // 31 विशेषमिच्छामि महानुभाव इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि श्रोतुं समर्थो हि भवान्प्रवक्तुम् // 9 पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः // 75 // भीष्म उवाच। वैशंपायन उवाच / वृद्धानां ब्रुवतां तात श्रुतं मे यत्प्रभाषसे। ततो युधिष्ठिरो राजा भूयः शांतनवं नृप / वक्ष्यामि तदशेषेण रोहिण्यो निर्मिता यथा // 10 गोदाने विस्तरं धीमान्पप्रच्छ विनयान्वितः // 1 प्रजाः सजेति व्यादिष्टः पूर्वं दक्षः स्वयंभुवा / युधिष्ठिर उवाच / असृजद्वृत्तिमेवाग्रे प्रजानां हितकाम्यया // 11 गोप्रदाने गुणान्सम्यक्पुनः प्रब्रूहि भारत / यथा ह्यमृतमाश्रित्य वर्तयन्ति दिवौकसः / न हि तृप्याम्यहं वीर शृण्वानोऽमृतमीदृशम् // 2 / तथा वृत्तिं समाश्रित्य वर्तयन्ति प्रजा विभो॥१२ इत्युक्तो धर्मराजेन तदा शांतनवो नृप / अचरेभ्यश्च भूतेभ्यश्वराः श्रेष्ठास्ततो नराः / सम्यगाह गुणांस्तस्मै गोप्रदानस्य केवलान् // 3 / | ब्राह्मणाश्च ततः श्रेष्ठास्तेषु यज्ञाः प्रतिष्ठिताः॥१३ - 2620 - Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 76. 14] अनुशासनपर्व [13. 76. 35 यज्ञैराप्यायते सोमः च स गोषु प्रतिष्ठितः / ध्वजं च वाहनं चैव तस्मात्स वृषभध्वजः // 28 सर्वे देवाः प्रमोदन्ते पूर्ववृत्तास्ततः प्रजाः // 14 ततो देवैर्महादेवस्तदा पशुपतिः कृतः। एतान्येव तु भूतानि प्राक्रोशन्वृत्तिकाङ्ख्या / ईश्वरः स गवां मध्ये वृषाङ्क इति चोच्यते // 29 वृत्तिदं चान्वपद्यन्त तृषिताः पितृमातृवत् // 15 एवमव्यप्रवर्णानां कपिलानां महौजसाम् / इतीदं मनसा गत्वा प्रजासर्गार्थमात्मनः / प्रदाने प्रथमः कल्पः सर्वासामेव कीर्तितः // 30 प्रजापतिर्बलाधानममृतं प्रापिबत्तदा // 16 लोकज्येष्ठा लोकवृत्तिप्रवृत्ता स गतस्तस्य तृप्तिं तु गन्धं सुरभिमुद्गिरन् / . रुद्रोपेताः सोमविष्यन्दभूताः / ददर्शोद्गारसंवृत्तां सुरभि मुखजां सुताम् // 17 सौम्याः पुण्याः कामदाः प्राणदाश्च सासृजत्सौरभेयीस्तु सुरभिर्लोकमातरः। .. ___गा वै दत्त्वा सर्वकामप्रदः स्यात् // 31 सुवर्णवर्णाः कपिलाः प्रजानां वृत्तिधेनवः // 18 इमं गवां प्रभवविधानमुत्तमं तासाममृतवर्णानां क्षरन्तीनां समन्ततः / पठन्सदा शुचिरतिमङ्गलप्रियः। बभूवामृतजः फेनः स्रवन्तीनामिवोर्मिजः // 19 विमुच्यते कलिकलुषेण मानवः स वत्समुखविभ्रष्टो भवस्य भुवि तिष्ठतः / प्रियं सुतान्पशुधनमाप्नुयात्तथा // 32 शिरस्यवाप तत्क्रुद्धः स तदोदक्षत प्रभुः / हव्यं कव्यं तर्पणं शान्तिकर्म ललाटप्रभवेनाक्ष्णा रोहिणीः प्रदहन्निव // 20 यानं वासो वृद्धबालस्य पुष्टिम् / तत्तेजस्तु ततो रौद्रं कपिला गा विशां पते / एतान्सर्वान्गोप्रदाने गुणान्वै नानावर्णत्वमनयन्मेघानिव दिवाकरः / / 21 दाता राजन्नाप्नुयाद्वै सदैव // 33 यास्तु तस्मादपक्रम्य सोममेवाभिसंश्रिताः / वैशंपायन उवाच। यथोत्पन्नाः स्ववर्णस्थास्ता नीता नान्यवर्णताम् // 22 पितामहस्याथ निशम्य वाक्यं अथ छुद्धं महादेवं प्रजापतिरभाषत / / राजा सह भ्रातृभिराजमीढः / अमृतेनावसिक्तस्त्वं नोच्छिष्टं विद्यते गवाम् // 23 सौवर्णकांस्योपदुहास्ततो गाः यथा ह्यमृतमादाय सोमो विष्यन्दते पुनः / पार्थो ददौ ब्राह्मणसत्तमेभ्यः // 34 तथा क्षीरं क्षरन्त्येता रोहिण्योऽमृतसंभवाः // 24 तथैव तेभ्योऽभिददौ द्विजेभ्यो न दुष्यत्यनिलो नाग्निर्न सुवर्ण न चोदधिः / गवां सहस्राणि शतानि चैव। नामृतेनामृतं पीतं वत्सपीता न वत्सला / / 25 यज्ञान्समुद्दिश्य च दक्षिणार्थे इमाल्लोकान्भरिष्यन्ति हविषा प्रसवेन च। लोकान्विजेतुं परमां च कीर्तिम् // 35 आसामैश्वर्यमश्रीहि सर्वामृतमयं शुभम् // 26 वृषभं च ददौ तस्मै सह ताभिः प्रजापतिः। इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि प्रसादयामास मनस्तेन रुद्रस्य भारत // 27 षट्सप्ततितमोऽध्यायः // 76 // प्रीतश्चापि महादेवश्चकार वृषभं तदा / -2621 - Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 77.1] महाभारते [13. 78.1 युवानमिन्द्रियोपेतं शतेन सह यूथपम् / भीष्म उवाच गवेन्द्रं ब्राह्मणेन्द्राय भूरिशृङ्गमलंकृतम् // 13 एतस्मिन्नेव काले तु वसिष्ठमुनिसत्तमम् / वृषभं ये प्रयच्छन्ति श्रोत्रियाय परंतप / इक्ष्वाकुवंशजो राजा सौदासो ददतां वरः॥ 1 ऐश्वर्यं तेऽभिजायन्ते जायमानाः पुनः पुनः // 14 सर्वलोकचरं सिद्धं ब्रह्मकोशं सनातनम् / नाकीर्तयित्वा गाः सुप्यान्नास्मृत्य पुनरुत्पतेत् / ' पुरोहितमिवं प्रष्टुमभिवाद्योपचक्रमे // 2 सायं प्रातर्नमस्येच्च गास्ततः पुष्टिमाप्नुयात् // 15 सौदास उवाच। गवां मूत्रपुरीषस्य नोद्विजेत कदाचन / न चासां मांसमश्नीयाद्गवां व्युष्टिं तथाश्नुते // 16 त्रैलोक्ये भगवन्किस्वित्पवित्रं कथ्यतेऽनघ / गाश्च संकीर्तयेन्नित्यं नावमन्येत गास्तथा। यत्कीर्तयन्सदा मर्त्यः प्राप्नुयात्पुण्यमुत्तमम् // 3 अनिष्टं स्वप्नमालक्ष्य गां नरः संप्रकीर्तयेत् // 17 भीष्म उवाच / गोमयेन सदा स्नायाद्गोकरीषे च संविशेत् / तस्मै प्रोवाच वचनं प्रणताय हितं तदा। श्लेष्ममूत्रपुरीषाणि प्रतिघातं च वर्जयेत् // 18 गवामुपनिषद्विद्वान्नमस्कृत्य गवां शुचिः // 4 सार्द्रचर्मणि भुञ्जीत निरीक्षन्वारुणी दिशम् / गावः सुरभिगन्धिन्यस्तथा गुग्गुलुगन्धिकाः। वाग्यतः सर्पिषा भूमौ गवां व्युष्टिं तथाभुते // 19 गावः प्रतिष्ठा भूतानां गावः स्वस्त्ययनं महत् // 5 | घृतेन जुहुयादग्निं घृतेन स्वस्ति वाचयेत् / गावो भूतं भविष्यच्च गावः पुष्टिः सनातनी। घृतं दद्याद्भुतं प्राशेगवां व्युष्टिं तथाश्रुते // 20 गावो लक्ष्म्यास्तथा मूलं गोषु दत्तं न नश्यति / गोमत्या विद्यया धेनुं तिलानामभिमत्र्य यः / अन्नं हि सततं गावो देवानां परमं हविः // 6 रसरत्नमयीं दद्यान्न स शोचेत्कृताकृते // 21 स्वाहाकारवषदारौ गोषु नित्यं प्रतिष्ठितौ। गावो मामुपतिष्ठन्तु हेमशृङ्गाः पयोमुचः / गावो यज्ञस्य हि फलं गोषु यज्ञाः प्रतिष्ठिताः // 7 सुरभ्यः सौरभेयाश्च सरितः सागरं यथा // 22 सायं प्रातश्च सततं होमकाले महामते। गावः पश्यन्तु मां नित्यं गावः पश्याम्यहं सदा / गावो ददति वै होम्यमृषिभ्यः पुरुषर्षभ / / 8 गावोऽस्माकं वयं तासां यतो गावस्ततो वयम् // 23 कानिचिद्यानि दुर्गाणि दुष्कृतानि कृतानि च / एवं रात्रौ दिवा चैव समेषु विषमेषु च / तरन्ति चैव पाप्मानं धेनुं ये ददति प्रभो // 9 महाभयेषु च नरः कीर्तयन्मुच्यते भयात् // 24 एकां च दशगुर्दद्याद्दश दद्याच्च गोशती / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि शतं सहस्रगुर्दद्यात्सर्वे तुल्यफला हि ते // 10 सप्तसप्ततितमोऽध्यायः॥ 77 // अनाहिताग्निः शतगुरयज्वा च सहस्रगुः / 78 समृद्धो यश्च कीनाशो नाय॑मर्हन्ति ते त्रयः // 11 वसिष्ठ उवाच / कपिलां ये प्रयच्छन्ति सवत्सां कांस्यदोहनाम् / / शतं वर्षसहस्राणां तपस्तप्तं सुदुश्चरम् / सुव्रतां वनसंवीतामुभौ लोकौ जयन्ति ते // 12 / गोभिः पूर्वविसृष्टाभिर्गच्छेम श्रेष्ठतामिति // 1 -2622 - Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 78. 2] अनुशासनपर्व [13. 79. 1 लोकेऽस्मिन्दक्षिणानां च सर्वासां वयमुत्तमाः। पलालधूम्रवर्णां तु सवत्सां कांस्यदोहनाम् / भवेम न च लिप्येम दोषेणेति परंतप / / 2 प्रदाय वस्त्रसंवीतां पितृलोके महीयते / / 17 स एव चेतसा तेन हतो लिप्येत सर्वदा। सवत्सां पीवरी दत्त्वा शितिकण्ठामलंकृताम् / शकृता च पवित्रार्थं कुर्वीरन्देवमानुषाः // 3 वैश्वदेवमसंबाधं स्थानं श्रेष्ठं प्रपद्यते // 18 तथा सर्वाणि भूताति स्थावराणि चराणि च / समानवत्सां गौरी तु धेनुं दत्त्वा पयस्विनीम् / प्रदातारश्च गोलोकान्गच्छेयुरिति मानद // 4 सुव्रतां वस्त्रसंवीतां वसूनां लोकमश्नुते // 19 ताभ्यो वरं ददौ ब्रह्मा तपसोऽन्ते स्वयं प्रभुः। पाण्डुकम्बलवर्णां तु सवत्सां कांस्यदोहनाम् / एवं भवत्विति विभुर्लोकांस्तारयतेति च / / 5 प्रदाय वस्त्रसंवीतां साध्यानां लोकमश्नुते // 20 उत्तस्थुः सिद्धिकामास्ता भूतभव्यस्य मातरः / वैराटपृष्ठमुक्षाणं सर्वरत्नैरलंकृतम् / तपसोऽन्ते महाराज गावो लोकपरायणाः / / 6 प्रदाय मरुतां लोकानजरान्प्रतिपद्यते // 21 तस्माद्गावो महाभागाः पवित्रं परमुच्यते।। वत्सोपपन्नां नीलाङ्गां सर्वरत्नसमन्विताम् / तथैव सर्वभूतानां गावस्तिष्ठन्ति मूर्धनि / / 7 गन्धर्वाप्सरसां लोकान्दत्त्वा प्राप्नोति मानवः // 22 समानवत्सां कपिलां धेनुं दत्त्वा पयस्विनीम् / शितिकण्ठमनड्वाहं सर्वरत्नैरलंकृतम् / सुव्रतां वस्त्रसंवीतां ब्रह्मलोके महीयते // 8 दत्त्वा प्रजापतेर्लोकान्विशोकः प्रतिपद्यते // 23 रोहिणी तुल्यवत्सां तु धेनुं दत्त्वा पयस्विनीम् / गोप्रदानरतो याति भित्त्वा जलदसंचयान् / सुव्रतां वस्त्रसंवीतां सूर्यलोके महीयते / / 9 विमानेनार्कवर्णेन दिवि राजविराजता // 24 समानवत्सां शबलां धेनुं दत्त्वा पयस्विनीम् / तं चारुवेवाः सुश्रोण्यः सहस्रं वरयोषितः / सुव्रतां वस्त्रसंवीतां सोमलोके महीयते // 10 रमयन्ति नरश्रेष्ठ गोप्रदानरतं नरम् / / 25 समानवत्सां श्वेतां तु धेनुं दत्त्वा पयस्विनीम् / वीणानां वल्लकीनां च नपुराणां च शिञ्जितैः / सुव्रतां वस्त्रसंवीतामिन्द्रलोके महीयते / / 11 हासैश्च हरिणाक्षीणां प्रसुप्तः प्रतिबोध्यते // 26 समानवत्सां कृष्णां तु दत्त्वा धेनुं पयस्विनीम् / यावन्ति लोमानि भवन्ति धेन्वासुव्रतां वनसंवीतामग्निलोके महीयते / / 12 ___ स्तावन्ति वर्षाणि महीयते सः / समानवत्सां धूम्रां तु दत्त्वा धेनुं पयस्विनीम् / स्वर्गाच्युतश्चापि ततो नृलोके सुव्रतां वस्त्रसंवीतां याम्यलोके महीयते // 13 कुले समुत्पत्स्यति गोमिनां सः // 27 अपां फेनसवर्णां तु सवत्सां कांस्यदोहनाम् / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि प्रदाय वस्त्रसंवीतां वारुणं लोकमश्नुते // 14 अष्टसप्ततितमोऽध्यायः // 78 // वातरेणुसवणां तु सवत्सां कांस्यदोहनाम् / - 79 प्रदाय वस्त्रसंवीतां वायुलोके महीयते / / 15 वसिष्ठ उवाच / हिरण्यवर्णा पिङ्गाक्षी सवत्सां कांस्यदोहनाम् / घृतक्षीरप्रदा गावो घृतयोन्यो घृतोद्भवाः / प्रदाय वस्त्रसंवीतां कौबेरं लोकमश्नुते / / 16 / घृतनद्यो घृतावर्तास्ता मे सन्तु सदा गृहे // 1 -2623 - Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 79.2] महाभारते [ 13. 80.6 घृतं मे हृदये नित्यं घृतं नाभ्यां प्रतिष्ठितम् / त्वचा लोम्नाथ शृङ्गैश्च वालैः क्षीरेण मेदसा। घृतं सर्वेषु गात्रेषु घृतं मे मनसि स्थितम् // 2 यज्ञं वहन्ति संभूय किमस्त्यभ्यधिकं ततः // 14 गावो ममाप्रतो नित्यं गावः पृष्ठत एव च / यया सर्वमिदं व्याप्तं जगत्स्थावरजङ्गमम् / गावो मे सर्वतश्चैव गवां मध्ये वसाम्यहम् // 3 तां धेनुं शिरसा वन्दे भूतभव्यस्य मातरम् // 15 इत्याचम्य जपेत्सायं प्रातश्च पुरुषः सदा। गुणवचनसमुच्चयैकदेशो यदह्ना कुरुते पापं तस्मात्स परिमुच्यते // 4 नृवर मयैष गवां प्रकीर्तितस्ते / / प्रासादा यत्र सौवर्णा वसोर्धारा च यत्र सा / न हि परमिह दानमस्ति गोभ्यो गन्धर्वाप्सरसो यत्र तत्र यान्ति सहस्रदाः॥ 5 भवति न चापि परायणं तथान्यत् // 16 नवनीतपङ्काः क्षीरोदाः दधिशैवलसंकुलाः। भीष्म उवाच / पहन्ति यत्र नद्यो वै तत्र यान्ति सहस्रदाः // 6 परमिदमिति भूमिपो विचिन्त्य . गवां शतसहस्रं तु यः प्रयच्छेद्यथाविधि / प्रवरमृषेर्वचनं ततो महात्मा। परामृद्धिमवाप्याथ स गोलोके महीयते // 7 व्यसृजत नियतात्मवान्द्विजेभ्यः दश चोभयतः प्रेत्य मातापित्रोः पितामहान् / सुबहु च गोधनमाप्तवांश्च लोकान् // 17 दधाति सुकृताल्लोकान्पुनाति च कुलं नरः // 8 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि धेन्वाः प्रमाणेन समप्रमाणां एकोनाशीतितमोऽध्यायः // 79 // धेनुं तिलानामपि च प्रदाय / पानीयदाता च यमस्य लोके युधिष्ठिर उवाच / न यातनां कांचिदुपैति तत्र // 9 पवित्राणां पवित्रं यच्छ्रेष्ठं लोके च यद्भवेत् / पवित्रमय्यं जगतः प्रतिष्ठा पावनं परमं चैव तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 दिवौकसां मातरोऽथाप्रमेयाः / भीष्म उवाच / अन्वालभेदक्षिणतो व्रजेच्च गावो महार्थाः पुण्याश्च तारयन्ति च मानवान् / दद्याश पात्रे प्रसमीक्ष्य कालम् // 10 धारयन्ति प्रजाश्चेमाः पयसा हविषा तथा // 2 घेनुं सवत्सां कपिलां भूरिशृङ्गां न हि पुण्यतमं किंचिद्रोभ्यो भरतसत्तम / कास्योपदोहां वसनोत्तरीयाम् / एताः पवित्राः पुण्याश्च त्रिषु लोकेष्वनुत्तमाः // 3 प्रदाय तां गाहति दुर्विगाह्यां देवानामुपरिष्टाच्च गावः प्रतिवसन्ति वै / याम्यां सभां वीतभयो मनुष्यः // 11 दत्त्वा चैता नरपते यान्ति स्वर्ग मनीषिणः // 4 सुरूपा बहुरूपाश्च विश्वरूपाश्च मातरः / मान्धाता यौवनाश्वश्च ययातिनहुषस्तथा / गावो मामुपतिष्ठन्तामिति नित्यं प्रकीर्तयेत् // 12 गावो ददन्तः सततं सहस्रशतसंमिताः / नातः पुण्यतरं दानं नातः पुण्यतरं फलम्।। गताः परमकं स्थानं देवैरपि सुदुर्लभम् / / 5 नातो विशिष्टं लोकेषु भूतं भवितुमर्हति // 13 / अपि चात्र पुरावृत्तं कथयिष्यामि तेऽनघ // 6 -2624 - Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 80.7] अनुशासनपर्व [13. 80. 34 ऋषीणामुत्तमं धीमान्कृष्णद्वैपायनं शुकः / रक्तोत्पलवनैश्चैव मणिदण्डैर्हिरण्मयैः / अभिवाद्याह्निकं कृत्वा शुचिः प्रयतमानमः। तरुणादित्यसंकाशैर्भान्ति तत्र जलाशयाः // 20 पितरं परिपप्रच्छ दृष्टलोकपरावरम् // 7 महार्हमणिपत्रैश्च काश्चनप्रभकेसरैः / को यज्ञः सर्वयज्ञानां वरिष्ठ उपलक्ष्यते / नीलोत्पलविमित्रैश्च सरोभिर्बहुपङ्कजैः // 21 किं च कृत्वा परं स्वर्ग प्राप्नुवन्ति मनीषिणः // 8 करवीरवनैः फुलैः सहस्रावर्तसंवृतैः / केन देवाः पवित्रेण स्वर्गमश्नन्ति वा विभो। संतानकवनैः फुलवृक्षैश्च समलंकृताः // 22 किं च यज्ञस्य यज्ञत्वं क्व च यज्ञः प्रतिष्ठितः // 9 निर्मलाभिश्च मुक्ताभिर्मणिभिश्च महाधनैः / दानानामुत्तमं किं च किं च सत्रमतः परम् / उद्धृतपुलिनास्तत्र जातरूपैश्च निम्नगाः / / 23 पवित्राणां पवित्रं च यत्तद्रूहि ममानघ // 10 सर्वरत्नमयश्चित्रैरवगाढा नगोत्तमैः / एतच्छ्रुत्वा तु वचनं व्यासः परमधर्मवित् / जातरूपमयैश्वान्यैर्हताशनसमप्रभैः // 24 पुत्रायात्कथयत्सर्वं तत्त्वेन भरतर्षभ // 11 सौवर्णगिरयस्तत्र मणिरत्नशिलोच्चयाः / व्यास उवाच / सर्वरत्नमयैर्भान्ति शृङ्गैश्चारुभिरुच्छ्रितैः // 25 गावः प्रतिष्ठा भूतानां तथा गावः परायणम् / नित्यपुष्पफलास्तत्र नगाः पत्ररथाकुलाः / गावः पुण्याः पवित्राश्च पावनं धर्म एव च // 12 दिव्यगन्धरसैः पुष्पैः फलैश्च भरतर्षभ // 26 पूर्वमासन्नशृङ्गा वै गावः इत्यनुशुश्रुमः / रमन्ते पुण्यकर्माणस्तत्र नित्यं युधिष्ठिर / शृङ्गार्थे समुपासन्त ताः किल प्रभुमव्ययम् // 13 सर्वकामसमृद्धार्था निःशोका गतमन्यवः // 27 ततो ब्रह्मा तु गाः प्रायमुपविष्टाः समीक्ष्य ह। विमानेषु विचित्रेषु रमणीयेषु भारत / ईप्सितं प्रददौ ताभ्यो गोभ्यः प्रत्येकशः प्रभुः // मोदन्ते पुण्यकर्माणो विहरन्तो यशस्विनः // 28 तासां शृङ्गाण्यजायन्त यस्या यादृङ्मनोगतम् / उपक्रीडन्ति तान्राजशुभाश्चाप्सरसां गणाः / नानावर्णाः शृङ्गय त्यस्ता व्यरोचन्त पुत्रक // 15 एताल्लोकानवाप्नोति गां दत्त्वा वै युधिष्ठिर // 29 ब्रह्मणा वरदत्तास्ता हव्यकव्यप्रदाः शुभाः। यासामधिपतिः पूषा मारुतो बलवान्बली। पुण्याः पवित्राः सुभगा दिव्यसंस्थानलक्षणाः / ऐश्वर्ये वरुणो राजा ता मां पान्तु युगंधराः // 30 गावस्तेजो महद्दिव्यं गवां दानं प्रशस्यते // 16 सुरूपा बहुरूपाश्च विश्वरूपाश्च मातरः / ये चैताः संप्रयच्छन्ति साधवो वीतमत्सराः। प्राजापत्या इति ब्रह्मञ्जपेन्नित्यं यतव्रतः // 31 ते वै सुकृतिनः प्रोक्ताः सर्वदानप्रदाश्च ते / गास्तु शुश्रूषते यश्च समन्वेति च सर्वशः / गवां लोकं तथा पुण्यमाप्नवन्ति च तेऽनघ // 17 तस्मै तुष्टाः प्रयच्छन्ति वरानपि सुदुर्लभान् // 32 यत्र वृक्षा मधुफला दिव्यपुष्पफलोपगाः / न द्रुह्येन्मनसा चापि गोषु ता हि सुखप्रदाः। पुष्पाणि च सुगन्धीनि दिव्यानि द्विजसत्तम // 18 | अर्चयेत सदा चैव नमस्कारैश्च पूजयेत् / सर्वा मणिमयी भूमिः सूक्ष्मकाञ्चनवालुका। दान्तः प्रीतमना नित्यं गवां व्युष्टिं तथाभुते // 33 सर्वत्र सुखसंस्पर्शा निष्पङ्का नीरजा शुभा // 19 / येन देवाः पवित्रेण भुञ्जते लोकमुत्तमम् / .म.भा. 329 - 2625 - Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 80. 34 ] महाभारते [13. 81. 12 यत्पवित्रं पवित्राणां तद्भुतं शिरसा वहेत् // 34 / / एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं संशयोऽत्र हि मे महान् // 1 घृतेन जुहुयादग्निं घृतेन स्वस्ति वाचयेत् / भीष्म उवाच / घृतं प्राशेद्धृतं दद्याद्गवां व्युष्टिं तथाभुते // 35 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / व्यहमुष्णं पिबेन्मूत्रं व्यहमुष्णं पिबेत्पयः / गोभिर्नृपेह संवादं श्रिया भरतसत्तम // 2 . गवामुष्णं पयः पीत्वा व्यहमुष्णं पुतं पिबेत् / श्रीः कृत्वेह वपुः कान्तं गोमध्यं प्रविवेश ह। म्यहमुष्णं घृतं पीत्वा वायुभक्षो भवेश्यहम् // 36 गावोऽथ विस्मितास्तस्या दृष्ट्वा रूपस्य संपदम् // 3 निर्हतैश्च यवैर्गोभिर्मासं प्रसृतयावकः / गाव ऊचुः। ब्रह्महत्यासमं पापं सर्वमेतेन शुध्यति // 37 कासि देवि कुतो वा त्वं रूपेणाप्रतिमा भुवि / पराभवार्थ दैत्यानां देवैः शौचमिदं कृतम्। विस्मिताः स्म महाभागे तव रूपस्य संपदा // 4 देवत्वमपि च प्राप्ताः संसिद्धाश्च महाबलाः // 38 इच्छामस्त्वां वयं ज्ञातुं का त्वं क च गमिष्यसि / गावः पवित्राः पुण्याश्च पावनं परमं महत् / . तत्त्वेन च सुवर्णाभे सर्वमेतद्भवीहि नः // 6 ताश्च दत्त्वा द्विजातिभ्यो नरः स्वर्गमुपाक्षुते॥ 39 श्रीरुवाच / गवां मध्ये शुचिर्भूत्वा गोमती मनसा जपेत् / लोककान्तास्मि भद्रं वः श्री स्नेह परिश्रुता / पूताभिरद्भिराचम्य शुचिर्भवति निर्मलः // 40 अग्निमध्ये गवां मध्ये ब्राह्मणानां च संसदि / मया दैत्याः परित्यक्ता विनष्टाः शाश्वतीः समाः // इन्द्रो विवस्वान्सोमश्च विष्णुरापोऽग्निरेव च / विद्यावेदव्रतस्माता ब्राह्मणाः पुण्यकर्मिणः // 41 मयाभिपना ऋध्यन्ते ऋषयो देवतास्तथा // . अध्यापयेरशिष्यान्वै गोमती यज्ञसंमिताम्।। त्रिरात्रोपोषितः श्रुत्वा गोमती लभते वरम् // 42 यांश्च द्विषाम्यहं गावस्ते विनश्यन्ति सर्वशः / धर्मार्थकामहीनाश्च ते भवन्त्यसुखान्विताः // 8 पुत्रकामश्च लभते पुत्रं धनमथापि च / पतिकामा च भर्तारं सर्वकामांश्च मानवः / एवंप्रभावां मां गावो विजानीत सुखप्रदाम् / गावस्तुष्टाः प्रयच्छन्ति सेविता वै न संशयः॥४३ इच्छामि चापि युष्मासु वस्तुं सर्वासु नित्यदा / एवमेता महाभागा यज्ञियाः सर्वकामदाः। आगता प्रार्थयानाहं श्रीजुष्टा भवतानघाः // 9 रोहिण्य इति जानीहि नैताभ्यो विद्यते परम् // 54 __ गाव ऊचुः। इत्युक्तः स महातेजाः शुकः पित्रा महात्मना। अनुवां पश्चलां च त्वां सामान्यां बहुभिः सह / पूजयामास गा नित्यं तस्मात्त्वमपि पूजय // 45 न त्वामिच्छाम भद्रं ते गम्यतां यत्र रोचते // 10 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि वपुष्मन्त्यो वयं सर्वाः किमस्माकं त्वयाध वै। अशीतितमोऽध्यायः॥ 8 // यत्रेष्टं गम्यतां तत्र कृतकार्या वयं त्वया // 11 श्रीरुवाच / युधिष्ठिर उवाच / किमेतद्वः क्षमं गावो यन्मां नेहाभ्यनन्दथ / मया गवां पुरीषं वै श्रिया जुष्टमिति श्रुतम् / न मां संप्रति गृह्णीथ कस्माद्वै दुर्लभां सतीम्॥१२ -2626 - Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 81. 13] अनुशासनपर्व [13. 82. 10 सत्यश्च लोकवादोऽयं लोके चरति सुव्रताः / भीष्म उवाच / वयं प्राप्त परिभवो भवतीति विनिश्चयः // 13 एवं कृत्वा तु समयं श्रीर्गोभिः सह भारत / महदुपं तपः कृत्वा मां निषेवन्ति मानवाः / पश्यन्तीनां ततस्तासां तत्रैवान्तरधीयत // 25 देवदानवगन्धर्वाः पिशाचोरगराक्षसाः // 14 एतद्गोशकृतः पुत्र माहात्म्यं तेऽनुवर्णितम् / क्षममेतद्धि वो गावः प्रतिगृहीत मामिह / माहात्म्यं च गवां भूयः श्रूयतां गदतो मम // 26 नावमन्या यहं सौम्यालोक्ये सचराचरे // 15 / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि गाव ऊचुः। एकाशीतितमोऽध्यायः // 81 // नावमन्यामहे देवि न त्वां परिभवामहे / अध्रुवा चलचित्तासि ततस्त्वां वर्जयामहे // 16 भीष्म उवाच / बहुनात्र किमुक्तेन गम्यतां यत्र वाठछसि / ये च गाः संप्रयच्छन्ति हुतशिष्टाशिनश्च ये / वपुष्मत्यो वयं सर्वाः किमस्माकं त्वयानघे // 17 तेषां सत्राणि यज्ञाश्च नित्यमेव युधिष्ठिर // 1 ऋते दधिघृतेनेह न यज्ञः संप्रवर्तते / श्रीरुबाच / तेन यज्ञस्य यज्ञत्वमतोमूलं च लभ्यते // 2 अवज्ञाता भविष्यामि सर्वलोकेषु मानदाः।। दानानामपि सर्वेषां गवां दानं प्रशस्यते। प्रत्याख्यानेन युष्माभिः प्रसादः क्रियतामिति // 18 गावः श्रेष्ठाः पवित्राश्च पावनं घेतदुत्तमम् // 3 महाभागा भवत्यो वै शरण्याः शरणागताम् / पुष्ट्यर्थमेताः सेवेत शान्त्यर्थमपि चैव ह / परित्रायन्तु मां नित्यं भजमानामनिन्दिताम् / पयो दधि घृतं यासां सर्वपापप्रमोचनम् // 4 माननां त्वहमिच्छामि भवत्यः सततं शुभाः // 19 गावस्तेजः परं प्रोक्तमिह लोके परत्र च / अप्येकाने तु वो वस्तुमिच्छामि च सुकुत्सिते। न गोभ्यः परमं किंचित्पवित्रं पुरुषर्षभ // 5 नवोऽस्ति कुत्सितं किंचिदनेष्वालक्ष्यतेऽनघाः॥२० अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / पुण्याः पवित्राः सुभगा ममादेशं प्रयच्छत / पितामहस्य संवादमिन्द्रस्य च युधिष्ठिर // 6 बसेयं यत्र चाङ्गेऽहं तन्मे व्याख्यातुमर्हथ // 21 पराभूतेषु दैत्येषु शके त्रिभुवनेश्वरे / भीष्म उवाच / प्रजाः समुदिताः सर्वाः सत्यधर्मपरायणाः // 7 एवमुक्तास्तु ता गावः शुभाः करुणवत्सलाः। अथर्षयः सगन्धर्वाः किंनरोरगराक्षसाः / संमन्य सहिताः सर्वाः श्रियमूचुनराधिप // 22 देवासुरसुपर्णाश्च प्रजानां पतयस्तथा / अवश्यं मानना कार्या तवास्माभिर्यशस्विनि / पर्युपासन्त कौरव्य कदाचिद्वै पितामहम् // 8 शकुन्मूत्रे निवस नः पुण्यमेतद्धि नः शुभे // 23 नारदः पर्वतश्चैव विश्वावसुहहाहुहू / श्रीरुवाच। दिव्यतानेषु गायन्तः पर्युपासन्त तं प्रभुम् // 9 दिष्ट्या प्रसादो युष्माभिः कृतो मेऽनुग्रहात्मकः / तत्र दिव्यानि पुष्पाणि प्रावहत्पवनस्तथा / एवं भवतु भद्रं वः पूजितास्मि सुखप्रदाः // 24 / आजदुर्ऋतवश्वापि सुगन्धीनि पृथक्पृथक् // 10 -2627 - Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 82. 11 ] महाभारते [ 13. 82. 38 तस्मिन्देवसमावाये सर्वभूतसमागमे / अदित्यास्तप्यमानायास्तपो घोरं सुदुश्वरम् / दिव्यवादित्रसंघुष्टे दिव्यस्त्रीचारणावृते / पुत्रार्थममरश्रेष्ठ पादेनैकेन नित्यदा // 25 इन्द्रः पप्रच्छ देवेशमभिवाद्य प्रणम्य च // 11 तां तु दृष्ट्वा महादेवीं तप्यमानां महत्तपः / देवानां भगवन्कस्माल्लोकेशानां पितामह / दक्षस्य दुहिता देवी सुरभिर्नाम नामतः // 26 उपरिष्टाद्वां लोक एतदिच्छामि वेदितुम् // 12 अतप्यत तपो घोरं हृष्टा धर्मपरायणा / / किं तपो ब्रह्मचर्य वा गोभिः कृतमिहेश्वर / कैलासशिखरे रम्ये देवगन्धर्वसेविते / / 27 देवानामुपरिष्टाद्यद्वसन्त्यरजसः सुखम् // 13 व्यतिष्ठदेकपादेन परमं योगमास्थिता / ततः प्रोवाच तं ब्रह्मा शक्रं बलनिसूदनम् / दश वर्षसहस्राणि दश वर्षशतानि च // 28 अवज्ञातास्त्वया नित्यं गावो बलनिसूदन // 14 संतप्तास्तपसा तस्या देवाः सर्षिमहोरगाः / तेन त्वमासां माहात्म्यं न वेत्थ शृणु तत्प्रभो / तत्र गत्वा मया सार्धं पर्युपासन्त तां शुभाम् // 29 गवां प्रभावं परमं माहात्म्यं च सुरर्षभ // 15 अथाहमब्रुवं तत्र देवीं तां तपसान्विताम् / यज्ञाझं कथिता गावो यश एव च वासव / किमर्थ तप्यसे देवि तपो घोरमनिन्दिते // 30 एताभिश्चाप्यते यज्ञो न प्रवर्तेत्कथंचन // 16 प्रीतस्तेऽहं महाभागे तपसानेन शोभने / धारयन्ति प्रजाश्चैव पयसा हविषा तथा / वरयस्व वरं देवि दातास्मीति पुरंदर // 31 एतासां तनयाश्चापि कृषियोगमुपासते // 17 / सुरभ्युवाच / जनयन्ति च धान्यानि बीजानि विविधानि च।। वरेण भगवन्मह्यं कृतं लोकपितामह / ततो यज्ञाः प्रवर्तन्ते हव्यं कव्यं च सर्वशः // 18 | एष एव वरो मेऽद्य यत्प्रीतोऽसि ममानघ // 32 पयो दधि घृतं चैव पुण्याश्चैताः सुराधिप / ब्रह्मोवाच / वहन्ति विविधान्भारान्क्षुत्तष्णापरिपीडिताः // 19 | तामेवं ब्रुवती देवीं सुरभी त्रिदशेश्वर / मुनींश्च धारयन्तीह प्रजाश्चैवापि कर्मणा / प्रत्यब्रुवं यद्देवेन्द्र तन्निबोध शचीपते // 33 पासवाकूटवाहिन्यः कर्मणा सुकृतेन च / अलोभकाम्यया देवि तपसा च शुभेन च / उपरिष्टात्तत्तोऽस्माकं वसन्त्येताः सदैव हि // 20 | प्रसन्नोऽहं वरं तस्मादमरत्वं ददानि ते // 34 एतत्ते कारणं शक्र निवासकृतमद्य वै / त्रयाणामपि लोकानामुपरिष्टान्निवत्स्यसि / गवां देवोपरिष्टाद्धि समाख्यातं शतक्रतो॥ 21 मत्प्रसादाच्च विख्यातो गोलोकः स भविष्यति // एता हि वरदत्ताश्च वरदाश्चैव वासव / मानुषेषु च कुर्वाणाः प्रजाः कर्म सुतास्तव / सौरभ्यः पुण्यकर्मिण्यः पावनाः शुभलक्षणाः // 22 निवत्स्यन्ति महाभागे सर्वा दुहितरश्च ते // 36 यदर्थं गा गताश्चैव सौरभ्यः सुरसत्तम / मनसा चिन्तिता भोगास्त्वया वै दिव्यमानुषाः / तच्च मे शृणु कात्स्न्येन वदतो बलसूदन // 23 / यच्च स्वर्गसुखं देवि तत्ते संपत्स्यते शुभे // 37 पुरा देवयुगे तात दैत्येन्द्रेषु महात्मसु / / तस्या लोकाः सहस्राक्ष सर्वकामसमन्विताः / त्रील्लोकाननुशासत्सु विष्णौ गर्भत्वमागते // 24 / न तत्र क्रमते मृत्युन जरा न च पावकः / - 2628 - Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 82. 38 ] अनुशासनपर्व [ 18. 83. 16 न दैन्यं नाशुभं किंचिद्विद्यते तत्र वासव / / 38 / परिवारेण वै दुःखं दुर्धरं चाकृतात्मभिः। तत्र दिव्यान्यरण्यानि दिव्यानि भवनानि च / भूयिष्ठं च नरेन्द्राणां विद्यते न शुभा गतिः // 2 विमानानि च युक्तानि कामगानि च वासव // 39 / पूयन्ते तेऽत्र नियतं प्रयच्छन्तो वसुंधराम् / वतैश्च विविधैः पुण्यैस्तथा तीर्थानुसेवनात् / / पूर्व च कथिता धर्मास्त्वया मे कुरुनन्दन // 3 तपसा महता चैव सुकृतेन च कर्मणा। एवमेव गवामुक्तं प्रदानं ते नृगेण ह / शक्यः समासादयितुं गोलोकः पुष्करेक्षण // 40 ऋषिणा नाचिकेतेन पूर्वमेव निदर्शितम् // 4 एतत्ते सर्वमाख्यातं मया शक्रानुपृच्छते। वेदोपनिषदे चैव सर्वकर्मसु दक्षिणा / न ते परिभवः कार्यो गवामरिनिसूदन // 41 सर्वक्रतुषु चोद्दिष्टं भूमिर्गावोऽथ काञ्चनम् // 5 भीष्म उवाच / तत्र श्रुतिस्तु परमा सुवर्ण दक्षिणेति वै / एतच्छ्रुत्वा सहस्राक्षः पूजयामास नित्यदा। एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं पितामह यथातथम् // 6 गाश्चक्रे बहुमानं च तासु नित्यं युधिष्ठिर // 42 किं सुवर्ण कथं जातं कस्मिन्काले किमात्मकम् / एतत्ते सर्वमाख्यातं पावनं च महायुते / किं दानं किं फलं चैव कस्माञ्च परमुच्यते // 7 पवित्रं परमं चापि गवां माहात्म्यमुत्तमम् / कस्माद्दानं सुवर्णस्य पूजयन्ति मनीषिणः / कीर्तितं पुरुषव्याघ्र सर्वपापविनाशनम् // 43 कस्माच्च दक्षिणार्थं तद्यज्ञकर्मसु शस्यते // 8 य इदं कथयेन्नित्यं ब्राह्मणेभ्यः समाहितः / कस्माच्च पावनं श्रेष्ठं भूमेर्गोभ्यश्च काञ्चनम् / हव्यकव्येषु यज्ञेषु पितृकार्येषु चैव ह / परमं दक्षिणार्थे च तद्रवीहि पितामह / / 9 सार्वकामिकमक्षय्यं पितृस्तस्योपतिष्ठति // 44 भीष्म उवाच / गोषु भक्तश्च लभते यद्यदिच्छति मानवः / शृणु राजन्नवहितो बहुकारणविस्तरम् / स्त्रियोऽपि भक्ता या गोषु ताश्व कामानवाप्नुयुः // जातरूपसमुत्पत्तिमनुभूतं च यन्मया // 10 पुत्रार्थी लभते पुत्रं कन्या पतिमवाप्नुयात् / पिता मम महातेजाः शंतनुर्निधनं गतः / धनार्थी लभते वित्तं धर्मार्थी धर्ममाप्नुयात् // 46 तस्य दित्सुरहं श्राद्धं गङ्गाद्वारमुपागमम् / / 11 विद्यार्थी प्राप्नुयाद्विद्यां सुखार्थी प्राप्नुयात्सुखम् / तत्रागम्य पितुः पुत्र श्राद्धकर्म समारभम् / न किंचिदुर्लभं चैव गवां भक्तस्य भारत / / 47 माता मे जाह्नवी चैव साहाय्यमकरोत्तदा // 12 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि ततोऽग्रतस्तपःसिद्धानुपवेश्य बहुनृषीन् / द्वयशीतितमोऽध्यायः // 82 // तोयप्रदानात्प्रभृति कार्याण्यहमथारभम् // 13 तत्समाप्य यथोदिष्टं पूर्वकर्म समाहितः / युधिष्ठिर उवाच / दातुं निर्वपणं सम्यग्यथावदहमारभम् // 14 उक्तं पितामहेनेदं गवां दानमनुत्तमम् / ततस्तं दर्भविन्यासं भित्त्वा सुरुचिराङ्गदः / विशेषेण नरेन्द्राणामिति धर्ममवेक्षताम् // 1 / / प्रलम्बाभरणो बाहुरुदतिष्ठद्विशां पते / / 15 राज्यं हि सततं दुःखमाश्रमाश्च सुदुर्विदाः। तमुत्थितमहं दृष्ट्वा परं विस्मयमागमम् / -2629 - Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 28. 18] महाभारते [13. 83. 48 प्रतिप्रहीता साक्षान्मे पितेति भरतर्षभ / 16 / ततो जित्वा महीं कृत्सां रामो राजीवलोचनः / ततो मे पुनरेवासीत्संज्ञा संचिन्त्य शास्त्रतः / आजहार क्रतुं वीरो ब्रह्मक्षत्रेण पूजितम् // 31 नायं वेदेषु विहितो विधिहस्त इति प्रभो। वाजिमेधं महाराज सर्वकामसमन्वितम् / पिण्डो देयो नरेणेह ततो मतिरभून्मम // 17 पावनं सर्वभूतानां तेजोद्युतिविवर्धनम् / / 32 साक्षान्नेह मनुष्यस्य पितरोऽन्तर्हिताः कचित्।। विपाप्मापि स तेजस्वी तेन ऋतुफलेन वै। गृहन्ति विहितं त्वेवं पिण्डो देयः कुशेष्विति // 18 नैवात्मनोऽथ लघुतां जामदग्न्योऽभ्यगच्छत // 35 ततोऽहं तदनात्य पितुर्हस्तनिदर्शनम् / स तु क्रतुवरेणेष्ट्वा महात्मा दक्षिणावता / शाचप्रमाणात्सूक्ष्मं तु विधि पार्थिव संस्मरन् // 19 पप्रच्छागमसंपन्नानृषीन्देवांश्च भार्गवः // 34 ततो दर्भेषु तत्सर्वमददं भरतर्षभ। पावनं यत्परं नृणामुने कर्मणि वर्तताम् / शास्त्रमार्गानुसारेण तद्विद्धि मनुजर्षभ // 20 / तदुच्यतां महाभागा इति जातघृणोऽप्रवीत् / ततः सोऽन्तर्हितो बाहुः पितुर्मम नराधिप / इत्युक्ता वेदशास्त्रज्ञास्ते तमूचुर्महर्षयः // 35 ततो मां दर्शयामासुः स्वप्नान्ते पितरस्तदा / / 21 बसिष्ठ उवाच / प्रीयमाणास्तु मामूचुः प्रीताः स्म भरतर्षभ / विज्ञानेन तवानेन यन्न मुह्यसि धर्मतः // 22 / देवतास्ते प्रयच्छन्ति सुवर्ण ये ददत्युत / त्वया हि कुर्वता शास्त्रं प्रमाणमिह पार्थिव / अग्निहि देवताः सर्वाः सुवर्णं च तदात्मकम् // 36 आत्मा धर्मः श्रुतं वेदाः पितरश्च महर्षिभिः // 23 तस्मात्सुवर्णं ददता दत्ताः सर्वाश्च देवताः / साक्षात्पितामहो ब्रह्मा गुरवोऽथ प्रजापतिः / भवन्ति पुरुषव्याघ्र न ह्यतः परमं विदुः // 37 प्रमाणमुपनीता वै स्थितिश्च न विचालिता // 24 . भूय एव च माहात्म्यं सुवर्णस्य निबोध मे। . तदिदं सम्यगारब्धं त्वयाद्य भरतर्षभ / गदतो मम विप्रर्षे सर्वशस्त्रभृतां वर // 38 किं तु भूमेर्गवां चार्थे सुवर्ण दीयतामिति // 25 / मया श्रुतमिदं पूर्व पुराणे भृगुनन्दन / एवं वयं च धर्मश्च सर्वे चास्मत्पितामहाः / प्रजापतेः कथयतो मनोः स्वायंभुवस्य वै // 39 पाविता वै भविष्यन्ति पावनं परमं हि तत् // 26 शूलपाणेर्भगवतो रुद्रस्य च महात्मनः / दश पूर्वान्दश परांस्तथा संतारयन्ति ते / गिरी हिमवति श्रेष्ठे तदा भृगुकुलोद्वह // 40 सुवर्ण ये प्रयच्छन्ति एवं मे पितरोऽब्रुवन् / / 27 | देव्या विवाहे निवृत्ते रुद्राण्या भृगुनन्दन / ततोऽहं विस्मितो राजन्प्रतिबुद्धो विशां पते / समागमे भगवतो देव्या सह महात्मनः / सुवर्णदानेऽकरवं मतिं भरतसत्तम // 28 ततः सर्वे समुद्विमा भगवन्तमुपागमन् // 41 इतिहासमिमं चापि शृणु राजन्पुरातनम् / ते महादेवमासीनं देवीं च वरदामुमाम् / जामदग्न्यं प्रति विभो धन्यमायुष्यमेव च // 29 | प्रसाद्य शिरसा सर्वे रुद्रमूभृगद्वह // 42 जामदग्न्येन रामेण तीव्ररोषान्वितेन वै / अयं समागमो देव देव्या सह तवानघ / त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवी कृता निःक्षत्रिया पुरा // 30 ] तपस्विनस्तपस्विन्या तेजस्विन्यातितेजसः / - 2630 - Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 83. 43 ] अनुशासनपर्व [ 13. 84. 11 अमोघतेजास्त्वं देव देवी चेयमुमा तथा // 43 प्रजग्मुः शरणं देवं ब्रह्माणमजरं प्रभुम // 57 अपत्यं युवयोर्देव बलवद्भविता प्रभो / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि तन्ननं त्रिषु लोकेषु न किंचिच्छेषयिष्यति // 44 त्र्यशीतितमोऽध्यायः / / 83 // तदेभ्यः प्रणतेभ्यस्त्वं देवेभ्यः पृथुलोचन। घरं प्रयच्छ लोकेश त्रैलोक्यहितकाम्यया / देवा ऊचुः / भपत्यार्थ निगृहीष्व तेजो ज्वलितमुत्तमम् // 45 असुरस्तारको नाम त्वया दत्तवरः प्रभो। इति तेषां कथयतां भगवान्गोवृषध्वजः। .. सुरानृषींश्च क्लिश्नाति वधस्तस्य विधीयताम् // 1 एवमस्त्विति देवांस्तान्विप्रर्षे प्रत्यभाषत // 46 तस्माद्भयं समुत्पन्नमस्माकं वै पितामह / इत्युक्त्वा चोर्ध्वमनयत्तद्रवो वृषवाहनः / परित्रायस्व नो देव न ह्यन्या गतिरस्ति नः // 2 कलरेताः समभवत्ततःप्रभृति चापि सः॥ 47 ब्रह्मोवाच / रुद्राणी तु ततः क्रुद्धा प्रजोच्छेदे तथा कृते / समोऽहं सर्वभूतानामधर्म नेह रोचये / पेवानथाब्रवीत्तत्र स्त्रीभावात्परुषं वचः // 48 हन्यतां तारकः क्षिप्रं सुरर्षिगणबाधकः // 3 यस्मादपत्यकामो वै भर्ता मे विनिवर्तितः / वेदा धर्माश्च नोत्सादं गच्छेयुः सुरसत्तमाः / तस्मात्सर्वे सुरा यूयमनपत्या भविष्यथ / / 49 विहितं पूर्वमेवात्र मया वै व्येतु वो ज्वरः // 4 मजोच्छेदो मम कृतो तस्माद्यष्माभिरद्य वै / देवा ऊचुः / तस्मात्प्रजा वः खगमाः सर्वेषां न भविष्यति / / वरदानाद्भगवतो दैतेयो बलगर्वितः / पावकस्तु न तत्रासीच्छापकाले भृगूढह / देवैर्न शक्यते हन्तुं स कथं प्रशभं व्रजेत् / / 5 देवा देव्यास्तथा शापादनपत्यास्तदाभवन् // 51 स हि नैव स्म देवानां नासुराणां न रक्षसाम् / रुद्रस्तु. तेजोऽप्रतिमं धारयामास तत्तदा। वध्यः स्यामिति जग्राह वरं त्वत्तः पितामह // 6 प्रस्कनं तु ततस्तस्मात्किंचित्तत्रापतद्भुवि // 52 देवाश्च शप्ता रुद्राण्या प्रजोच्छेदे पुरा कृते / तत्पपात तदा चामौ ववृधे चाद्भुतोपमम् / न भविष्यति वोऽपत्यमिति सर्वजगत्पते // 7 तेजस्तेजसि संपृक्तमेकयोनित्वमागतम् // 53 ब्रह्मोवाच / एतस्मिन्नेव काले तु देवाः शक्रपुरोगमाः / हुताशनो न तत्रासीच्छापकाले सुरोत्तमाः / असुरस्तारको नाम तेन संतापिता भृशम् / / 54 स उत्पादयितापत्यं वधार्थ त्रिदशद्विषाम् / / 8 श्रादित्या वसवो रुद्रा मरुतोऽथाश्विनावपि / तद्वै सर्वानतिक्रम्य देवदानवराक्षसान् / साध्याश्च सर्वे संत्रस्ता दैतेयस्य पराक्रमात / / 55 / मानुषानथ गन्धर्वान्नांगानथ च पक्षिणः / / 9 पानानि देवतानां हि विमानानि पुराणि च / | अस्त्रेणमोघपातेन शक्त्या तं घातयिष्यति / अषीणामाश्रमाश्चैव बभूवुरसुरैर्हृताः // 56 यतो वो भयमुत्पन्नं ये चान्ये सुरशत्रवः / / 10 से दीनमनसः सर्वे देवाश्च ऋषयश्च ह। सनातनो हि संकल्पः काम इत्यभिधीयते / -2631 - Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 84. 11] महाभारते [ 13. 84. 38 रुद्रस्य तेजः प्रस्कन्नमग्नौ निपतितं च तत् // 11 तत्रैनमभिगच्छध्वं कार्य वो यदि वह्निना // 25 तत्तेजोऽग्निर्महद्भूतं द्वितीयमिव पावकम् / गम्यतां साधयिष्यामो वयं ह्यग्निभयात्सुराः / वधार्थ देवशत्रूणां गङ्गायां जनयिष्यति / / 12 एतावदुक्त्वा मण्डूकस्त्वरितो जलमाविशत् // 26 स तु नावाप तं शापं नष्टः स हुतभुक्तदा।। हुताशनस्तु बुबुधे मण्डूकस्याथ पैशुनम् / तस्माद्वो भयहृद्देवाः समुत्पत्स्यति पावकिः / / 13 शशाप स तमासाद्य न रसान्वेत्स्यसीति वै // 2 // अन्विष्यतां वै ज्वलनस्तथा चाद्य नियुज्यताम्।। तं स संयुज्य शापेन मण्डूकं पावको ययौ / तारकस्य वधोपायः कथितो वै मयानघाः / / 14 अन्यत्र वासाय विभुनं च देवानदर्शयत् // 28 न हि तेजस्विनां शापास्तेजःसु प्रभवन्ति वै / / देवास्त्वनुग्रहं चक्रुर्मण्डूकानां भृगूद्वह / बलान्यतिबलं प्राप्य नबलानि भवन्ति वै॥ 15 यत्तच्छृणु महाबाहो गदतो मम सर्वशः // 29 हन्यादवध्यान्वरदानपि चैव तपस्विनः / देवा ऊचुः। .. संकल्पाभिरुचिः कामः सनातनतमोऽनलः // 16 अग्निशापादजिह्वापि रसज्ञानबहिष्कृताः / / जगत्पतिरनिर्देश्यः सर्वगः सर्वभावनः / सरस्वती बहुविधां यूयमुच्चारयिष्यथ / / 30 हृच्छयः सर्वभूतानां ज्येष्ठो रुद्रादपि प्रभुः // 17 बिलवासगतांश्चैव निरादानानचेतसः। अन्विष्यतां स तु क्षिप्रं तेजोराशिहुताशनः / गतासूनपि वः शुष्कान्भूमिः संधारयिष्यति / स वो मनोगतं कामं देवः संपादयिष्यति // 18 तमोगतायामपि च निशायां विचरिष्यथ // 31 एतद्वाक्यमुपश्रुत्य ततो देवा महात्मनः / इत्युक्त्वा तांस्ततो देवाः पुनरेव महीमिमाम् / जग्मुः संसिद्धसंकल्पाः पर्येषन्तो विभावसुम् // 19 परीयुर्बलनस्यार्थे न चाबिन्दन्हुताशनम् // 32 ततम्रलोक्यमृषयो व्यचिन्वन्त सुरैः सह / अथ तान्द्विरदः कश्चित्सुरेन्द्रद्विरदोपमः / कान्तो दर्शनं वह्नः सर्वे तद्गतमानसाः // 20 अश्वत्थस्थोऽग्निरित्येवं प्राह देवान्भृगूद्वह // 33 परेण तपसा युक्ताः श्रीमन्तो लोकविश्रुताः।। शशाप ज्वलनः सर्वान्द्विरदान्क्रोधमूर्छितः / लोकानन्वचरन्सिद्धाः सर्व एव भृगूढह / प्रतीपा भवतां जिह्वा भवित्रीति भृगूद्वह // 34 नष्टमात्मनि संलीनं नाधिजग्मुर्हताशनम् // 21 इत्युक्त्वा निःसतोऽश्वत्थादग्निर्वारणसूचितः। ततः संजातसंत्रासानग्नेर्दर्शनलालसान् / प्रविवेश शमीगर्भमथ वह्निः सुषुप्सया // 35 जलेचरः क्लान्तमनास्तेजसाग्नेः प्रदीपितः / अनुग्रहं तु नागानां यं चक्रुः शृणु तं प्रभो। उवाच देवान्मण्डूको रसातलतलोत्थितः / / 22 देवा भृगुकुलश्रेष्ठ प्रीताः सत्यपराक्रमाः // 36 रसातलतले देवा वसत्यग्निरिति प्रभो। देवा ऊचुः। संतापादिह संप्राप्तः पावकप्रभवादहम् // 23 प्रतीपया जिह्वयापि सर्वाहारान्करिष्यथ / स संसुप्तो जले देवा भगवान्हव्यवाहनः / वाचं चोच्चारयिष्यध्वमुच्चैरव्यञ्जिताक्षरम् / अपः संसृज्य तेजोभिस्तेन संतापिता वयम् / / 24 इत्युक्त्वा पुनरेवाग्निमनुसर्दिवौकसः // 37 तस्य दर्शनमिष्टं वो यदि देवा विभावसोः / अश्वत्थान्निःसृतश्चाग्निः शमीगर्भगृतस्तदा / -- 2632 - Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 84. 38 ] अनुशासनपर्व [ 13. 84. 65 शुकेन ख्यापितो विप्र तं देवाः समुपाद्रवन् // 38 अन्यत्र भवतो वीर्य तस्मात्रायस्व नस्ततः // 51 शशाप शुकमग्निस्तु वाग्विहीनो भविष्यसि / / इत्युक्तः स तथेत्युक्त्वा भगवान्हव्यकव्यभुक् / जिह्वां चावर्तयामास तस्यापि हुतभुक्तदा // 39 जगामाथ दुराधर्षो गङ्गां भागीरथीं प्रति // 52 दृष्ट्वा तु ज्वलनं देवाः शुकमूचुर्दयान्विताः। तया चाप्यभवन्मिश्रो गर्भश्चास्याभवत्तदा / भविता न त्वमत्यन्तं शकुने नष्टवागिति // 40 ववृधे स तदा गर्भः कक्षे कृष्णगतिर्यथा // 53 आवृत्तजिह्वस्य सतो वाक्यं कान्तं भविष्यति / तेजसा तस्य गर्भस्य गङ्गा विह्वलचेतना। बालस्येव प्रवृद्धस्य कलमव्यक्तमद्भुतम् // 41 संतापमगमत्तीव्र सा सोढुं न शशाक ह // 54 इत्युक्त्वा तं शमीगर्ने वह्निमालक्ष्य देवताः / आहिते ज्वलनेनाथ गर्भे तेजःसमन्विते / तदेवायतनं चक्रुः पुण्यं सर्वक्रियास्वपि // 42 गङ्गायामसुरः कश्चिद्भरवं नादमुत्सृजत् // 55 ततःप्रभृति चाप्यग्निः शमीगर्भेषु दृश्यते / अबुद्धापतितेनाथ नादेन विपुलेन सा / उत्पादने तथोपायमनुजग्मुश्च मानवाः // 43 वित्रस्तोद्धान्तनयना गङ्गा विप्लुतलोचना / आपो रसातले यास्तु संसृष्टाश्चित्रभानुना / विसंज्ञा नाशकद्गर्भ संधारयितुमात्मना // 56 ताः पर्वतप्रस्रवणैरूष्मां मुश्चन्ति भार्गव / सा तु तेजःपरीताङ्गी कम्पमाना च जाह्नवी / पावकेनाधिशयता संतप्तास्तस्य तेजसा // 44 उवाच वचनं विप्र तदा गर्भबलोद्धता / ततोऽग्निर्देवता दृष्ट्वा बभूव व्यथितस्तदा / न ते शक्तास्मि भगवंस्तेजसोऽस्य विधारणे // 57 किमागमनमित्येवं तानपृच्छत पावकः // 45 विमूढास्मि कृतानेन तथास्वास्थ्यं कृतं परम् / तमूचुर्विबुधाः सर्वे ते चैव परमर्षयः / विह्वला चास्मि भगवंस्तेजो नष्टं च मेऽनघ // 58 त्वां नियोक्ष्यामहे कार्ये तद्भवान्कर्तुमर्हति / धारणे नास्य शक्ताहं गर्भस्य तपतां वर / कृते च तस्मिन्भविता तवापि सुमहान्गुणः // 46 उत्स्रक्ष्येऽहमिमं दुःखान्न तु कामात्कथंचन // 59 अग्निरुवाच / न चेतसोऽस्ति संस्पर्शो मम देव विभावसो। ब्रूत यद्भवतां कार्य सर्व कर्तास्मि तत्सुराः / आपदर्थे हि संबन्धः सुसूक्ष्मोऽपि महाद्युते // 60 भवतां हि नियोज्योऽहं मा वोऽत्रास्तु विचारणा // यदत्र गुणसंपन्नमितरं वा हुताशन / / - देवा ऊचुः / त्वय्येव तदहं मन्ये धर्माधर्मों च केवलौ // 61 असुरस्तारको नाम ब्रह्मणो वरदर्पितः / तामुवाच ततो वह्निर्धार्यतां धार्यतामयम् / अस्मान्प्रबाधते वीर्याद्वधस्तस्य विधीयताम् / / 48 गर्भो मत्तेजसा युक्तो महागुणफलोदयः // 62 इमान्देवगणांस्तात प्रजापतिगणांस्तथा / शक्ता ह्यसि महीं कृत्स्ना वोढुं धारयितुं तथा / ऋषींश्चापि महाभागान्परित्रायस्व पावक // 49 न हि ते किंचिदप्राप्यं मद्रेतोधारणाहते // 63 अपत्यं तेजसा युक्तं प्रवीरं जनय प्रभो / सा वह्निना वार्यमाणा देवैश्चापि सरिद्वरा / यद्यं नोऽसुरात्तस्मान्नाशयेद्धव्यवाहन // 50 समुत्ससर्ज तं गर्भ मेरौ गिरिवरे तदा // 64 शप्तानां नो महादेव्या नान्यदस्ति परायणम् / / समर्था धारणे चापि रुद्रतेजःप्रधर्षिता / -2633 - Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 84. 65 ] महाभारते [ 13. 85.9 नाशकत्तं तदा गर्भ संधारयितुमोजसा // 65 एवं सुवर्णमुत्पन्नमपत्यं जातवेदसः / सा समुत्सृज्य तं दुःखादीप्तवैश्वानरप्रभम् / तत्र जाम्बूनदं श्रेष्ठं देवानामपि भूषणम् // 78 दर्शयामास चाग्निस्तां तदा गङ्गां भृगूढह / ततःप्रभृति चाप्येतज्जातरूपमुदाहृतम् / पप्रच्छ सरितां श्रेष्ठां कञ्चिद्गर्भः सुखोदयः // 66 / यत्सुवर्ण स भगवानग्निरीशः प्रजापतिः // 79 कीदृग्वर्णोऽपि वा देवि कीपश्च दृश्यते।। पवित्राणां पवित्रं हि कनकं द्विजसत्तम / . तेजसा केन वा युक्तः सर्वमेतद्रवीहि मे // 67 अग्नीषोमात्मकं चैव जातरूपमुदाहृतम् // 80 गङ्गोवाच / रत्नानामुत्तमं रत्नं भूषणानां तथोत्तमम् / जातरूपः स गर्भो वै तेजसा त्वमिवानल। पवित्रं च पवित्राणां मङ्गलानां च मङ्गलम् // 86 सुवर्णो विमलो दीप्तः पर्वतं चावभासयत् // 68 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि पद्मोत्पलविमिश्राणां ह्रदानामिव शीतलः / चतुरशीतितमोऽध्यायः // 84 // गन्धोऽस्य स कदम्बानां तुल्यो वै तपतां वर // 69 तेजसा तस्य गर्भस्य भास्करस्येव रश्मिभिः / वसिष्ठ उवाच / यद्रव्यं परिसंसृष्टं पृथिव्यां पर्वतेषु वा / अपि चेदं पुरा राम श्रुतं मे ब्रह्मदर्शनम् / तत्सर्वं काश्चनीभूतं समन्तात्प्रत्यदृश्यत / / 70 पितामहस्य यद्वृत्तं ब्रह्मणः परमात्मनः // 1 पर्यधावत शैलांश्च नदीः प्रस्रवणानि च / देवस्य महतस्तात वारुणीं बिभ्रतस्तनुम् / व्यदीपयत्तेजसा च त्रैलोक्यं सचराचरम् / / 71 ऐश्वर्ये वारुणे राम रुद्रस्येशस्य वै प्रभो // 2 एवंरूपः स भगवान्पुत्रस्ते हव्यवाहन / आजग्मुर्मुनयः सर्वे देवाश्चाग्निपुरोगमाः / सूर्यवैश्वानरसमः कान्त्या सोम इवापरः / यज्ञाङ्गानि च सर्वाणि वषट्कारश्च मूर्तिमान् // 3 एवमुक्त्वा तु सा देवी तत्रैवान्तरधीयत // 72 मूर्तिमन्ति च सामानि यजूंषि च सहस्रशः / पावकश्चापि तेजस्वी कृत्वा कार्य दिवौकसाम् / ऋग्वेदश्चागमत्तत्र पदक्रमविभूषितः // 4 जगामेष्टं ततो देशं तदा भार्गवनन्दन // 73 लक्षणानि स्वराः स्तोभा निरुक्तं स्वरभक्तयः / एतैः कर्मगुणैर्लोके नामानेः परिगीयते / ओंकारश्वावसन्नत्रे निग्रहप्रग्रहौ तथा / / 5 हिरण्यरेता इति वै ऋषिभिर्विबुधैस्तथा / वेदाश्च सोपनिषदो विद्या सावित्र्यथापि च / पृथिवी च तदा देवी ख्याता वसुमतीति वै // 74 भूतं भव्यं भविष्यच्च दधार भगवाशिवः / स तु गर्भो महातेजा गाङ्गेयः पावकोद्भवः / जुह्वच्चात्मन्यथात्मानं स्वयमेव तदा प्रभो // 6 दिव्यं शरवणं प्राप्य ववृधेऽद्भुतदर्शनः॥ 75 देवपल्यश्च कन्याश्च देवानां चैव मातरः / ददृशुः कृत्तिकास्तं तु बालार्कसदृशद्युतिम् / / आजग्मुः सहितास्तत्र तदा भृगुकुलोद्वह // 7 जातस्नेहाश्च तं बालं पुपुषुः स्तन्यविस्रवैः / / 76 यज्ञं पशुपतेः प्रीता वरुणस्य महात्मनः / ततः स कार्तिकेयत्वमवाप परमद्युतिः / स्वयंभुवस्तु ता दृष्ट्वा रेतः समपतद्भुवि / / 8 स्कन्नत्वात्स्कन्दतां चापि गुहावासाद्नुहोऽभवत् / / 77 / / तस्य शुक्रस्य निष्पन्दात्पांसून्संगृह्म भूमितः / - 2634 - Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 85. 9] अनुशासनपर्व [13. 85. 36 प्रास्यत्पूषा कराभ्यां वै तस्मिन्नेव हुताशने // 9 उद्दिष्टास्ते तथाङ्गारा ये धिष्ण्येषु दिवि स्थिताः / / ततस्तस्मिन्संप्रवृत्ते सत्रे ज्वलितपावके / आदिनाथश्च लोकस्य तत्परं ब्रह्म तद्र्वम् / ब्रह्मणो जुह्वतस्तत्र प्रादुर्भावो बभूव ह // 10 सर्वकामदमित्याहुस्तत्र हव्यमुदावहत् / / 24 स्कन्नमात्रं च तच्छु– सुवेण प्रतिगृह्य सः / ततोऽनवीन्महादेवो वरुणः परमात्मकः / आज्यवन्मअवच्चापि सोऽजुहोभृगुनन्दन // 11 मम सत्रमिदं दिव्यमहं गृहपतिस्त्विह // 25 ततः संजनयामास भूतग्रामं स वीर्यवान् / त्रीणि पूर्वाण्यपत्यानि मम तानि न संशयः / ततस्तु तेजसस्तस्माजज्ञे लोकेषु तैजसम् // 12 इति जानीत खगमा मम यज्ञफलं हि तत् / / 26 तमसस्तामसा भावा व्यापि सत्त्वं तथोभयम् / अग्निरुवाच / सगुणस्तेजसो नित्यं तमस्याकाशमेव च // 13 मदङ्गेभ्यः प्रसूतानि मदाश्रयकृतानि च / सर्वभूतेष्वथ तथा सत्त्वं तेजस्तथा तमः / ममैव तान्यपत्यानि वरुणो ह्यवशात्मकः / / 27 शुक्रे हुतेऽनौ तस्मिंस्तु प्रादुरासंस्त्रयः प्रभो // 14 अथाब्रवील्लोकगुरुर्ब्रह्मा लोकपितामहः / पुरुषा वपुषा युक्ता युक्ताः प्रसपजैर्गुणैः / ममैव तान्यपत्यानि मम शुक्र हुतं हि तत् // 28 भृगित्येव भृगुः पूर्वमङ्गारेभ्योऽङ्गिराभवत् / / 15 अहं वक्ता च मत्रस्य होता शुक्रस्य चैव ह / अङ्गारसंश्रयाञ्चैव कविरित्यपरोऽभवत् / यस्य बीजं फलं तस्य शुक्रं चेत्कारणं मतम् / / 29 सह ज्वालाभिरुत्पन्नो भृगुस्तस्मागुः स्मृतः // 16 ततोऽब्रुवन्देवगणाः पितामहमुपेत्य वै / मरीचिभ्यो मरीचिन्तु मारीचः कश्यपो ह्यभूत् / कृताञ्जलिपुटाः सर्वे शिरोभिरभिवन्द्य च // 30 अङ्गारेभ्योऽङ्गिरास्तात वालखिल्याः शिलोच्चयात् / वयं च भगवन्सर्वे जगच्च सचराचरम् / अत्रैवात्रेति च विभो जातमत्रिं वदन्त्यपि // 17 तवैव प्रसवाः सर्वे तस्मादग्निर्विभावसुः / तथा भस्मव्यपोहेभ्यो ब्रह्मर्षिगणसंमिताः। वरुणश्चेश्वरो देवो लभतां काममीप्सितम् // 31 वैखानसाः समत्पन्नास्तपःश्रुतगुणेप्सवः / निसर्गाद्वरुणश्चापि ब्रह्मणो यादसां पतिः / अश्रुतोऽस्य समुत्पन्नावश्विनौ रूपसंमतौ // 18 जग्राह वै भृगु पूर्वमपत्यं सूर्यवर्चसम् / / 32 शेषाः प्रजानां पतयः स्रोतोभ्यस्तस्य जज्ञिरे / ईश्वरोऽङ्गिरसं चाग्नेरपत्यार्थऽभ्यकल्पयत् / ऋषयो लोमकूपेभ्यः स्वेदाच्छन्दो मलात्मकम् // पितामहस्त्वपत्यं वै कविं जग्राह तत्त्ववित् // 33 एतस्मात्कारणादाहुरग्निं सर्वास्तु देवताः / तदा स दारुणः ख्यातो भृगुः प्रसवकर्मकृत् / ऋषयः श्रुतसंपन्ना वेदप्रामाण्यदर्शनात् / / 20 आग्नेयस्त्वङ्गिराः श्रीमान्कविाझो महायशाः / यानि दारूणि ते मासा निर्यासाः पक्षसंज्ञिताः / भार्गवाङ्गिरसौ लोके लोकसंतानलक्षणौ // 34 अहोरात्रा मुहूर्तास्तु पित्तं ज्योतिश्च वारुणम् // 21 एते विप्रवराः सर्वे प्रजानां पतयस्त्रयः / रौद्रं लोहितमित्याहुलॊहितात्कनकं स्मृतम् / सर्वं संतानमेतेषामिदमित्युपधारय / / 35 तन्मैत्रमिति विज्ञेयं धूमाञ्च वसवः स्मृताः // 22 भृगोस्तु पुत्रास्तत्रासन्सप्त तुल्या भृगोगुणैः / अर्चिषो याश्च ते रुद्रास्तथादित्या महाप्रभाः। / च्यवनो वज्रशीर्षश्व शुचिरौर्वस्तथैव च // 36 12635 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 85. 37 ] महाभारते [13. 85. 66 शुक्रो वरेण्यश्च विभुः सवनश्चेति सप्त ते / ते त्वनेनैव रूपेण प्रजनिष्यन्ति वै प्रजाः। भार्गवा वारुणाः सर्वे येषां वंशे भवानपि // 37 स्थापयिष्यन्ति चात्मानं युगादिनिधने तथा // 52 अष्टौ चाङ्गिरसः पुत्रा वारुणास्तेऽप्युदाहृताः / एवमेतत्पुरा वृत्तं तस्य यज्ञे महात्मनः / बृहस्पतिरुतथ्यश्च वयस्यः शान्तिरेव च // 38 देवश्रेष्ठस्य लोकादौ वारुणीं बिभ्रतस्तनुम् / / 53 घोरो विरूपः संवर्तः सुधन्वा चाष्टमः स्मृतः। अग्निब्रह्मा पशुपतिः शर्वो रुद्रः प्रजापतिः / एतेऽष्टावग्निजाः सर्वे ज्ञाननिष्ठा निरामयाः // 39 अग्नेरपत्यमेतद्वै सुवर्णमिति धारणा // 54 ब्राह्मणस्य कवेः पुत्रा वारुणास्तेऽप्युदाहृताः।। अन्यभावे च कुर्वन्ति वह्रिस्थानेषु काश्चनम् / अष्टौ प्रसवजैर्युक्ता गुणैर्ब्रह्मविदः शुभाः // 40 जामदग्न्य प्रमाणज्ञा वेदश्रुतिनिदर्शनात् // 55 कविः काव्यश्च विष्णुश्च बुद्धिमानुशनास्तथा / कुशस्तम्बे जुहोत्यग्निं सुवर्णं तत्र संस्थितम् / भृगुश्च विरजाश्चैव काशी चोग्रश्च धर्मवित् // 41 हुते प्रीतिकरीमृद्धि भगवांस्तत्र मन्यते // 56 अष्टौ कविसुता ह्येते सर्वमेमिर्जगत्ततम्। तस्मादग्निपराः सर्वा देवता इति शुश्रुम / प्रजापतय एते हि प्रजानां यैरिमाः प्रजाः // 42 ब्रह्मणो हि प्रसूतोऽग्निरनेरपि च काञ्चनम् // 50 एवमङ्गिरसश्चैव कवेश्च प्रसवान्वयैः / तस्माद्ये वै प्रयच्छन्ति सुवर्ण धर्मदर्शिनः / भृगोश्च भृगुशार्दूल वंशजैः सततं जगत् // 43 / देवतास्ते प्रयच्छन्ति समस्ता इति नः श्रुतम् // 58 वरुणश्चादितो विप्र जग्राह प्रभुरीश्वरः। तस्य चातमसो लोका गच्छतः परमां गतिम् / कविं तात भृगुं चैव तस्मात्तौ वारुणौ स्मृतौ // 44 स्वलॊके राजराज्येन सोऽभिषिच्येत भार्गव // 59 जग्राहाङ्गिरसं देवः शिखी तस्माद्भुताशनः / आदित्योदयने प्राप्ते विधिमत्रपुरस्कृतम् / तस्मादङ्गिरसो ज्ञेयाः सर्व एव तदन्वयाः॥ 45 ददाति काञ्चनं यो वै दुःस्वप्नं प्रतिहन्ति सः॥६० ब्रह्मा पितामहः पूर्वं देवताभिः प्रसादितः / ददात्युदितमात्रे यस्तस्य पाप्मा विधूयते / इमे नः संतरिष्यन्ति प्रजाभिर्जगदीश्वराः // 46 मध्याह्ने ददतो रुक्मं हन्ति पापमनागतम् // 61 सर्वे प्रजानां पतयः सर्वे चातितपस्विनः / ददाति पश्चिमां संध्यां यः सुवर्णं धृतव्रतः / त्वत्प्रसादादिमं लोकं तारयिष्यन्ति शाश्वतम् // 47 ब्रह्मवाय्वग्निसोमानां सालोक्यमुपयाति सः // 62 तथैव वंशकर्तारस्तव तेजोविवर्धनाः / सेन्द्रेषु चैव लोकेषु प्रतिष्ठां प्राप्नुते शुभाम् / भवेयुर्वेद विदुषः सर्वे वाक्पतयस्तथा // 48 इह लोके यशः प्राप्य शान्तपाप्मा प्रमोदते // 63 देवपक्षधराः सौम्याः प्राजापत्या महर्षयः / ततः संपद्यतेऽन्येषु लोकेष्वप्रतिमः सदा। आप्नुवन्ति तपश्चैव ब्रह्मचर्यं परं तथा // 49 अनावृतगतिश्चैव कामचारी भवत्युत // 64 सर्वे हि वयमेते च तवैव प्रसवः प्रभो। न च क्षरति तेभ्यः स शश्वञ्चैवाप्नुते महत् / देवानां ब्राह्मणानां च त्वं हि कर्ता पितामह // 50 / सुवर्णमक्षयं दत्त्वा लोकानाप्नोति पुष्कलान् // 65 मरीचिमादितः कृत्वा सर्वे चैवाथ भार्गवाः। यस्तु संजनयित्वाग्निमादित्योदयनं प्रति / अपत्यानीति संप्रेक्ष्य क्षमयाम पितामह // 51 / दद्याद्वै व्रतमुद्दिश्य सर्वान्कामान्समश्नते // 66 -2336 - Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 85. 67 ] अनुशासनपर्व [ 13. 86.23 अग्निरित्येव तत्प्राहुः प्रदानं वै सुखावहम् / ततस्ता वर्धमानस्य कुमारस्य महात्मनः / यथेष्टगुणसंपन्नं प्रवर्तकमिति स्मृतम् / / 67 तेजसाभिपरीताङ्गयो न कचिच्छर्म लेभिरे॥९ भीष्म उवाच / ततस्तेजःपरीताङ्गयः सर्वाः काल उपस्थिते / इत्युक्तः स वसिष्ठेन जामदग्न्यः प्रतापवान् / समं गर्भ सुषुविरे कृत्तिकास्ता नरर्षभ // 10 ददौ सुवर्ण विप्रेभ्यो व्यमुच्यत च किल्विषात् // ततस्तं षडधिष्ठानं गर्भमेकत्वमागतम् / एतत्ते सर्वमाख्यातं सुवर्णस्य महीपते / पृथिवी प्रतिजग्राह कान्तीपुरसमीपतः // 11 प्रदानस्य फलं चैव जन्म चाग्र्यमनुत्तमम् // 69 स गर्भो दिव्यसंस्थानो दीप्तिमान्पावकप्रभः / तस्मात्त्वमपि विप्रेभ्यः प्रयच्छ कनकं बहु / दिव्यं शरवणं प्राप्य ववृधे प्रियदर्शनः // 12 ददत्सुवर्ण नृपते किल्बिषाद्विप्रमोक्ष्यसि // 70 ददृशुः कृत्तिकास्तं तु बालं वह्निसमद्युतिम् / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि जातस्नेहाश्च सौहार्दात्पुपुषुः स्तन्यविस्रवैः // 13 पञ्चाशीतितमोऽध्यायः // 85 // अभवत्कार्तिकेयः स त्रैलोक्ये सचराचरे / स्कन्नत्वात्स्कन्दतां चाप गुहावासाद्नुहोऽभवत् / / 14 युधिष्ठिर उवाच। ततो देवास्त्रयस्त्रिंशदिशश्च सदिगीश्वराः / उक्ताः पितामहेनेह सुवर्णस्य विधानतः / रुद्रो धाता च विष्णुश्च यज्ञः पूषार्यमा भगः // विस्तरेण प्रदानस्य ये गुणाः श्रुतिलक्षणाः // 1 अंशो मित्रश्च साध्याश्च वसवो वासवोऽश्विनौ / यत्तु कारणमुत्पत्तेः सुवर्णस्येह कीर्तितम् / आपो वायुनभश्चन्द्रो नक्षत्राणि ग्रहा रविः // 16 स कथं तारकः प्राप्तो निधनं तद्भवीहि मे // 2 पृथग्भूतानि चान्यानि यानि देवार्पणानि वै / उक्तः स देवतानां हि अवध्य इति पार्थिव / आजग्मुस्तत्र तं द्रष्टुं कुमारं ज्वलनात्मजम् / न च तस्येह ते मृत्युविस्तरेण प्रकीर्तितः / / 3 ऋषयस्तुष्टुवुश्चैव गन्धर्वाश्च जगुस्तथा // 17 एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं त्वत्तः कुरुकुलोद्वह / षडाननं कुमारं तं द्विषडक्षं द्विजप्रियम् / कास्न्येन तारकवधं परं कौतूहलं हि मे // 4 पीनांसं द्वादशभुजं पावकादित्यवर्चसम् // 18 भीष्म उवाच। शयानं शरगुल्मस्थं दृष्ट्वा देवाः सहर्षिभिः / विपन्नकृत्या राजेन्द्र देवता ऋषयस्तथा / लेभिरे परमं हर्ष मेनिरे चासुरं हतम् // 19 कृत्तिकाश्चोदयामासुरपत्यभरणाय वै // 5 ततो देवाः प्रियाण्यस्य सर्व एव समाचरन् / न देवतानां काचिद्धि समर्था जातवेदसः। क्रीडतः क्रीडनीयानि ददुः पक्षिगणांश्च ह / 20 एकापि शक्ता तं गर्भ संधारयितुमोजसा // 6 सुपर्णोऽस्य ददौ पत्रं मयूरं चित्रबर्हिणम् / घण्णां तासां ततः प्रीतः पावको गर्भधारणात् / राक्षसाश्च ददुस्तस्मै वराहमहिषावुभौ // 21 स्वेन तेजोविसर्गेण वीर्येण परमेण च // 7 कुक्कुटं चाग्निसंकाशं प्रददौ वरुणः स्वयम् / तासु षट्कृत्तिका गर्भ पुपुषुर्जातवेदसः / चन्द्रमाः प्रददौ मेषमादित्यो रुचिरां प्रभाम् // 22 पटसु वर्त्मसु तेजोऽनेः सकलं निहितं प्रभो॥ 8 गवां माता च गा देवी ददौ शतसहस्रशः। -2637 - Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 86. 23 ] महाभारते [13. 87. 15 छागमग्निर्गुणोपेतमिला पुष्पफलं बहु // 23 वैशंपायन उवाच। सुधन्वा शकटं चैव रथं चामितकूबरम् / युधिष्ठिरेणैवमुक्तो भीष्मः शांतनवस्तदा / वरुणो वारुणान्दिव्यान्भुजंगान्प्रददौ शुभान् / इमं श्राद्धविधिं कृत्स्नं प्रवक्तुमुपचक्रमे // 2 सिंहान्सुरेन्द्रो व्याघ्रांश्च द्वीपिनोऽन्यांश्च दंष्ट्रिणः // ___मीष्म उवाच / श्वापदांश्च बहून्धोरांश्छत्राणि विविधानि च / शृणुष्वावहितो राजश्राद्धकल्पमिमं शुभम् / राक्षसासुरसंघाश्च येऽनुजग्मुस्तमीश्वरम् // 25 धन्यं यशस्यं पुत्रीयं पितृयज्ञं परंतप // 3 वर्धमानं तु तं दृष्ट्वा प्रार्थयामास तारकः / / देवासुरमनुष्याणां गन्धर्वोरगरक्षसाम् / उपायैर्बहुभिर्हन्तुं नाशकच्चापि तं विभुम् // 26 पिशाचकिंनराणां च पूज्या वै पितरः सदा // 4 सेनापत्येन तं देवाः पूजयित्वा गुहालयम् / पितॄन्पूज्यादितः पश्चादेवान्सतर्पयन्ति वै। शशंसुर्विप्रकारं तं तस्मै तारककारितम् / / 27 तस्मात्सर्वप्रयत्नेन पुरुषः पूजयेत्सदा // 5 स विवृद्धो महावीर्यो देवसेनापतिः प्रभुः / अन्वाहार्य महाराज पितॄणां श्राद्धमुच्यते / जघानामोघया शक्त्या दानवं तारकं गुहः // 28 तच्चामिषेण विधिना विधिः प्रथमकल्पितः॥ 6 तेन तस्मिन्कुमारेण क्रीडता निहतेऽसुरे। सर्वेष्वहःसु प्रीयन्ते कृतैः श्राद्धैः पितामहाः / सुरेन्द्रः स्थापितो राज्ये देवानां पुनरीश्वरः // 29 प्रवक्ष्यामि तु ते सर्वास्तिथ्यां तिथ्यां गुणागुणान् // स सेनापतिरेवाथ बभौ स्कन्दः प्रतापवान् / येष्वहःसु कृतैः श्राद्धैर्यत्फलं प्राप्यतेऽनघ / : ईशो गोप्ता च देवानां प्रियकृच्छंकरस्य च // 30 तत्सवं कीर्तयिष्यामि यथावत्तन्निबोध मे // 8 हिरण्यमूर्तिभंगवानेष एव च पावकिः / पितॄनय॑ प्रतिपदि प्राप्नुयात्स्वगृहे स्त्रियः। सदा कुमारो देवानां सेनापत्यमवाप्तवान् // 31 अभिरूपप्रजायिन्यो दर्शनीया बहुप्रजाः // 9 तस्मात्सुवर्ण मङ्गल्यं रत्नमक्षय्यमुत्तमम् / स्त्रियो द्वितीयां जायन्ते तृतीयायां तु वन्दिनः। सहजं कार्तिकेयस्य वह्नस्तेजः परं मतम् // 32 चतुर्थ्या क्षुद्रपशवो भवन्ति बहवो गृहे // 10 एवं रामाय कौरव्य वसिष्ठोऽकथयत्पुरा / पञ्चम्यां बहवः पुत्रा जायन्ते कुर्वतां नृप / तस्मात्सुवर्णदानाय प्रयतस्व नराधिप / / 33 कुर्वाणास्तु नराः षष्ठयां भवन्ति द्युतिभागिनः // रामः सुवर्णं दत्त्वा हि विमुक्तः सर्वकिल्बिषैः / कृषिभागी भवेच्छ्राद्धं कुर्वाणः सप्तमी नृप। त्रिविष्टपे महत्स्थानमवापासुलभं नरैः // 34 अष्टम्यां तु प्रकुर्वाणो वाणिज्ये लाभमाप्नुयात्॥१२ इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि नवम्यां कुर्वतः श्राद्धं भवत्येकशर्फ बहु / षडशीतितमोऽध्यायः // 86 // विवर्धन्ते तु दशमी गावः श्राद्धानि कुर्वतः // 13 कुप्यभागी भवेन्मर्त्यः कुर्वन्नेकादशीं नृप / युधिष्ठिर उवाच / ब्रह्मवर्चस्विनः पुत्रा जायन्ते तस्य वेश्मनि // 14 चातुर्वर्ण्यस्य धर्मात्मन्धर्मः प्रोक्तस्त्वयानघ / द्वादश्यामीहमानस्य नित्यमेव प्रदृश्यते / तथैव मे श्राद्धविधिं कृत्स्नं प्रब्रूहि पार्थिव // 1 / रजतं बहु चित्रं च सुवर्णं च मनोरमम् / / 15 -2638 - Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. 87. 16 ] - अनुशासनपर्व [13. 89.7 ज्ञातीनां तु भवेच्छेष्ठः कुर्वश्राद्धं त्रयोदशीम। | वाध्रीणसस्य मांसेन तृप्तिादशवार्षिकी // 9 अवश्यं तु युवानोऽस्य प्रमीयन्ते नरा गृहे // 16 / आनन्त्याय भवेदत्तं खड्गमांसं पितृक्षये / युद्धभागी भवेन्मर्त्यः श्राद्धं कुर्वश्चतुर्दशीम् / कालशाकं च लौहं चाप्यानन्त्यं छाग उच्यते॥१० अमावास्यां तु निवपन्सर्वान्कामानवाप्नुयात् / / 17 गाथाश्चाप्यत्र गायन्ति पितृगीता युधिष्ठिर / कृष्णपक्षे दशम्यादौ वर्जयित्वा चतुर्दशीम् / सनत्कुमारो भगवान्पुरा मय्यभ्यभाषत // 11 भाद्धकर्मणि तिथ्यः स्युः प्रशस्ता न तथेतराः / / 18 अपि नः स कुले जायाद्यो नो दद्यात्रयोदशीम् / यथा चैवापरः पक्षः पूर्वपक्षाद्विशिष्यते / मघासु सर्पिषा युक्तं पायसं दक्षिणायने // 12 तथा श्राद्धस्य पूर्वाहादपराहो विशिष्यते / / 19 आजेन वापि लौहेन मघारवेव यतव्रतः / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि . . हस्तिच्छायासु विधिवत्कर्णव्यजनवीजितम् // 13 सप्ताशीतितमोऽध्यायः // 87 // एष्टव्या बहवः पुत्रा यद्यकोऽपि गयां व्रजेत् / 88 यत्रासौ प्रथितो लोकेष्वक्षय्यकरणो वटः // 14 युधिष्ठिर उवाच / आपो मूलं फलं मांसमन्नं वापि पितृक्षये / किंस्विदत्तं पितृभ्यो वै भवत्यक्षयमीश्वर। यत्किंचिन्मधुसंमिश्रं तदानन्त्याय कल्पते // 15 किं हविश्चिररात्राय किमानन्त्याय कल्पते // 1 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि . भीष्म उवाच / अष्टाशीतितमोऽध्यायः॥ 88 // हवींषि श्राद्धकल्पे तु यानि श्राद्धविदो विदुः / तानि मे शृणु काम्यानि फलं चैषां युधिष्ठिर // 2 भीष्म उवाच / तिलैीहिययैरिद्भिमूलफलैस्तथा। यमस्तु यानि श्राद्धानि प्रोवाच शशबिन्दवे / दत्तेन मासं प्रीयन्ते श्राद्धन पितरो नृप / / 3 / / तानि मे शृणु काम्यानि नक्षत्रेषु पृथक्पृथक् // 1 वर्धमानतिलं श्राद्धमक्षयं मनुरब्रवीत् / श्राद्धं यः कृत्तिकायोगे कुर्वीत सततं नरः / सर्वेष्वेव तु भोज्येषु तिलाः प्राधान्यतः स्मृताः॥४ अग्नीनाधाय सापत्यो यजेत विगतज्वरः // 2 द्वौ मासौ तु भवेत्तृप्तिर्मत्स्यैः पितृगणस्य ह / / अपत्यकामो रोहिण्यामोजस्कामो मृगोत्तमे / श्रीन्मासानाविकेनाहुश्चातुर्मास्यं शशेन तु / / 5 फ्रूरकर्मा ददच्छाद्धमार्द्रायां मानवो भवेत् // 3 भाजेन मासान्प्रीयन्ते पश्चैव पितरो नृप। कृषिभागी भवेन्मर्त्यः कुर्वश्राद्धं पुनर्वसौ / वाराहेण तु षण्मासान्सप्त वै शाकुनेन तु // 6 पुष्टिकामोऽथ पुष्येण श्राद्धमीहेत मानवः // 4 मासानष्टौ पार्षतेन रौरवेण नवैव तु / आश्लेषायां ददच्छाद्धं वीरान्पुत्रान्प्रजायते / गवयस्य तु मांसेन तृप्तिः स्याद्दशमासिकी / / 7 ज्ञातीनां तु भवेच्छ्रेष्ठो मघासु श्राद्धमावपन् // 5 मासानेकादश प्रीतिः पितृणां माहिपेण तु। फल्गुनीषु ददच्छ्राद्धं सुभगः श्राद्धदो भवेत् / व्येन दत्ते श्राद्धे तु संवत्सरमिहोच्यते // 8 अपत्यभागुत्तरासु हस्तेन फलभाग्भवेत् / / 6 यथा गव्यं तथा युक्तं पायसं सर्पिषा सह। चित्रायां तु ददच्छ्राद्धं लभेद्रूपवतः सुतान् / - 2639 - Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 89.7] महाभारते [13. 90. 19 स्वातियोगे पितॄनय॑ वाणिज्यमुपजीवति // 7 एषामन्ये पतिदूषास्तथान्ये पतिपावनाः / बहुपुत्रो विशाखासु पित्र्यमीहन्भवेन्नरः / अपातेयास्तु ये राजन्कीर्तयिष्यामि ताञ्शृणु // अनुराधासु कुर्वाणो राजचक्र प्रवर्तयेत् // 8 कितवो भ्रूणहा यक्ष्मी पशुपालो निराकृतिः। आधिपत्यं व्रजेन्मयो ज्येष्ठायामपवर्जयन् / ग्रामप्रेष्यो वाधुषिको गायनः सर्वविक्रयी // 6 नरः कुरुकुलश्रेष्ठ श्रद्धादमपुरःसरः // 9 अगारदाही गरदः कुण्डाशी सोमविक्रयी। मूले त्वारोग्यमच्छेत यशोऽषाढास्वनुत्तमम् / सामुद्रिको राजभृत्यस्तै लिकः कूटकारकः // 7 उत्तरासु त्वषाढासु वीतशोकश्चरेन्महीम् // 10 पित्रा विवदमानश्च यस्य चोपपतिहे। . श्राद्धं त्वभिजिता कुर्वन्विद्यां श्रेष्ठामवाप्नुयात् / अभिशस्तस्तथा स्तेनः शिल्पं यश्वोपजीवति // 8 श्रवणे तु ददच्छाद्धं प्रेत्य गच्छेत्परां गतिम् // 11 पर्वकारश्च सूची च मित्रध्रुक्पारदारिकः / राज्यभागी धनिष्ठायां प्राप्नुयान्नापदं नरः / अव्रतानामुपाध्यायः काण्डपृष्ठस्तथैव च // .9 नक्षत्रे वारुणे कुर्वन्भिषक्सिद्धिमवाप्नुयात् // 12 श्वभिर्यश्च परिक्रामेद्यः शुना दष्ट एव च / पूर्वप्रोष्ठपदाः कुर्वन्बहु विन्देदजाविकम् / परिवित्तिश्च यश्च स्यादुश्चर्मा गुरुतल्पगः / उत्तरास्वथ कुर्वाणो विन्दते गाः सहस्रशः // 13 कुशीलवो देवलको नक्षत्रैर्यश्च जीवति // 10 बहुरूप्यकृतं वित्तं विन्दते रेवतीं श्रितः / एतानिह विजानीयादपातेयान्द्विजाधमान् / अश्वांश्चाश्वयुजे वेत्ति भरणीष्वायुरुत्तमम् / / 14 शूद्राणामुपदेशं च ये कुर्वन्त्यल्पचेतसः // 11 इमं श्राद्धविधिं श्रुत्वा शशबिन्दुस्तथाकरोत् / षष्टिं काणः शतं षण्डः श्वित्री यावत्प्रपश्यति / अक्लेशेनाजयच्चापि महीं सोऽनुशशास ह // 15 पतयां समुपविष्टायां तावदूषयते नृप / / 12 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि यद्वेष्टितशिरा भुङ्क्ते यद्भुङ्क्ते दक्षिणामुखः / एकोननवतितमोऽध्यायः // 89 // सोपानत्कश्च यद्भुङ्क्ते सर्व विद्यात्तदासुरम् // 13 असूयता च यद्दत्तं यच्च श्रद्धाविवर्जितम् / . युधिष्ठिर उवाच / सर्वं तदसुरेन्द्राय ब्रह्मा भागमकल्पयत् // 14 कीदृशेभ्यः प्रदातव्यं भवेच्छाद्धं पितामह / श्वानश्च पतिदूषाश्च नावेक्षेरन्कथंचन / द्विजेभ्यः कुरुशार्दूल तन्मे व्याख्यातुमर्हसि // 1 तस्मात्परिवृते दद्यात्तिलांश्चान्ववकीरयेत् // 15 भीष्म उवाच / तिलादाने च क्रव्यादा ये च क्रोधवशा गणाः / ब्राह्मणान्न परीक्षेत क्षत्रियो दानधर्मवित् / / यातुधानाः पिशाचाश्च विप्रलुम्पन्ति तद्धविः // 16 दैवे कर्मणि पित्र्ये तु न्याय्यमाहुः परीक्षणम् // 2 यावद्ध्यपतयः पतयां वै भुञ्जानाननुपश्यति / देवताः पूजयन्तीह दैवेनैवेह तेजसा / / तावत्फलाद्धंशयति दातारं तस्य बालिशम् // 17 उपेत्य तस्मादेवेभ्यः सर्वेभ्यो दापयेन्नरः // 3 / इमे तु भरतश्रेष्ठ विज्ञेयाः पतिपावनाः / श्राद्धे त्वथ महाराज परीक्षेद्राह्मणान्बुधः। ये त्वतस्तान्प्रवक्ष्यामि परीक्षस्वेह तान्द्विजान् // 18 कुलशीलवयोरूपैर्विद्ययाभिजनेन च // 4 वेदविद्याव्रतस्माता ब्राह्मणाः सर्व एव हि / -2640. - 90 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 90. 19 ] अनुशासनपर्व [13. 90. 42 पाङ्तेयान्यांस्तु वक्ष्यामि ज्ञेयास्ते पतिपावनाः // स्वकर्मनिरतान्दान्तान्कुले जातान्बहुश्रुतान् // 33 त्रिणाचिकेत: पञ्चाग्निनिसुपर्णः षडङ्गवित् / यस्य मित्रप्रधानानि श्राद्धानि च हवींषि च / ब्रह्मदेयानुसंतानश्छन्दोगो ज्येष्ठसामगः // 20 न प्रीणाति पितॄन्देवान्स्वर्गं च न स गच्छति // 34 मातापित्रोर्यश्च वश्यः श्रोत्रियो दशपूरुषः / ___ यश्च श्राद्ध कुरुते संगतानि ऋतुकालाभिगामी च धर्मपत्नीषु यः सदा। ___ न देवयानेन पथा स याति / वेदविद्याव्रतस्नातो विप्रः पति पुनात्युत // 21 स वै मुक्तः पिप्पलं बन्धनाद्वा अथर्वशिरसोऽध्येता ब्रह्मचारी यतव्रतः। . स्वर्गाल्लोकाच्यवते श्राद्धमित्रः // 35 सत्यवादी धर्मशीलः स्वकर्मनिरतश्च यः // 22 तस्मान्मित्रं श्राद्धकृन्नाद्रियेत ये च पुण्येषु तीर्थेषु अभिषेककृतश्रमाः / दद्यान्मित्रेभ्यः संग्रहार्थं धनानि / मखेषु च समत्रेषु भवन्त्यवभृथाप्लुताः // 23 यं मन्यते नैव शत्रु न मित्रं अक्रोधना अचपलाः क्षान्ता दान्ता जितेन्द्रियाः / __तं मध्यस्थं भोजयेद्धव्यकव्ये // 36 सर्वभूतहिता ये च श्राद्धेष्वेतान्निमत्रयेत् / यथोषरे बीजमुप्तं न रोहेएतेषु दत्तमक्षय्यमेते वै पतिपावनाः // 24 न्न चास्योप्ता प्राप्नुयाद्वीजभागम् / इमे परे महाराज विज्ञेयाः पङ्क्तिपावनाः / एवं श्राद्धं भुक्तमनर्हमाणेयतयो मोक्षधर्मज्ञा योगाः सुचरितव्रताः // 25 न चेह नामुत्र फलं ददाति // 37 ये चेतिहासं प्रयताः श्रावयन्ति द्विजोत्तमान् / ब्राह्मणो ह्यनधीयानस्तृणाग्निरिव शाम्यति / ये च भाष्यविदः केचिद्ये च व्याकरणे रताः // तस्मै श्राद्धं न दातव्यं न हि भस्मनि हूयते // 38 अधीयते पुराणं ये धर्मशास्त्राण्यथापि च / संभोजनी नाम पिशाचदक्षिणा अधीत्य च यथान्यायं विधिवत्तस्य कारिणः / / 27 सा नैव देवान्न पितृनुपैति / उपपन्नों गुरुकुले सत्यवादी सहस्रदः / इहैव सा भ्राम्यति क्षीणपुण्या अग्र्यः सर्वेषु वेदेषु सर्वप्रवचनेषु च / / 28 शालान्तरे गौरिव नष्टवत्सा // 39 यावदेते प्रपश्यन्ति पङ्क्तयास्तावत्पुनन्त्युत / यथाग्नौ शान्ते घृतमाजुहोति ततो हि पावनात्पतयाः पतिपावन उच्यते // 29 तन्नैव देवान्न पितृनुपैति / क्रोशादर्धतृतीयात्तु पावयेदेक एव हि / तथा दत्तं नर्तने गायने च ब्रह्मदेयानुसंतान इति ब्रह्मविदो विदुः / / 30 ___यां चानृचे दक्षिणामावृणोति // 40 अनृत्विगनुपाध्यायः स चेदग्रासनं व्रजेत् / उभौ हिनस्ति न भुनक्ति चैषा वत्विग्भिरननुज्ञातः पतया हरति दुष्कृतम् / / 31 / या चानृचे दक्षिणा दीयते वै / अथ चेद्वेदवित्सर्वैः पतिदोषैविवर्जितः / आघातनी गर्हितैषा पतन्ती न च स्यात्पतितो राजन्पङ्क्तिपावन एव सः // 32 तेषां प्रेतान्पातयेद्देवयानात् // 41 तस्मात्सर्वप्रयत्नेन परीक्ष्यामत्रयेहिजान् / | ऋषीणां समयं नित्यं ये चरन्ति युधिष्ठिर / -2641 - Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 90. 42] महाभारते [ 13. 91. 22 निश्चिताः सर्वधर्मज्ञास्तान्देवा ब्राह्मणान्विदुः // 42 संतापमगमत्तीव्र पुत्रशोकपरायणः // 7 स्वाध्यायनिष्ठा ऋषयो ज्ञाननिष्ठास्तथैव च / अथ कृत्वोपहार्याणि चतुर्दश्यां महामतिः। . तपोनिष्ठाश्च बोद्धव्याः कर्मनिष्ठाश्च भारत // 43 तमेव गणयशोकं विरात्रे प्रत्यबुध्यत // 8 कव्यानि ज्ञाननिष्ठेभ्यः प्रतिष्टाप्यानि भारत / तस्यासीत्प्रतिबुद्धस्य शोकेन पिहितात्मनः / तत्र ये ब्राह्मणाः केचिन्न निन्दति हि ते वराः॥ मनः संहृत्य विषये बुद्धिर्विस्तरगामिनी // 9 ये तु निन्दन्ति जल्पेषु न ताब्श्राद्धेषु भोजयेत् / ततः संचिन्तयामास श्राद्धकल्पं समाहितः / ब्राह्मणा निन्दिता राजन्हन्युखिपुरुषं कुलम् // 45 यानि तस्यैव भोज्यानि मूलानि च फलानि च // वैखानसानां वचनमृपीणां श्रूयते नृप। उक्तानि यानि चान्यानि यानि चेष्टानि तस्य ह / दूरादेव परीक्षेत ब्राह्मणान्वेदपारगान् / तानि सर्वाणि मनसा विनिश्चित्य तपोधनः // 11 प्रियान्वा यदि वा द्वेष्यांस्तेषु तच्छ्राद्धमावपेत् / / अमावास्यां महाप्राज्ञ विप्रानानांय्य पूजिताम् / यः सहस्रं सहस्राणां भोजयेदनृचां नरः / दक्षिणावर्तिकाः सर्वा वृसीः स्वयमथाकरोत् // 12 एकस्तान्मत्रवित्प्रीतः सर्वानह ति भारत / / 47 सप्त विप्रांस्ततो भोज्ये युगपत्समुपानयत् / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि ऋते च लवणं भोज्यं श्यामाकान्नं ददौ प्रभुः // 13 नवतितमोऽध्यायः // 9 // दक्षिणायास्ततो दर्भा विष्टरेषु निवेशिताः / पादयोश्चैव विप्राणां ये त्वन्त्रमुपभुञ्जते // 14. युधिष्ठिर उवाच। कृत्वा च दक्षिणायान्वै दर्भान्सुप्रयतः शुचिः / केन संकल्पितं श्राद्ध कस्मिन्काले किमात्मकम् / प्रददौ श्रीमते पिण्डं नामगोत्रमुदाहरन् // 15 भृग्वङ्गरसके काले मुनिना कतरेण वा / / 1 / तत्कृत्वा स मुनिश्रेष्टो धर्मसंकरमात्मनः / कानि श्राद्धेषु वानि तथा मूलफलानि च।। पश्चात्तापेन महता तप्यमानोऽभ्यचिन्तयत् // 16 धान्यजातिश्च का वा तन्मे ब्रूहि पितामह // 2 अकृतं मुनिभिः पूर्व किं मयैतदनुष्ठितम् / भीष्म उवाच / कथं नु शापेन न मां दहेयुर्ब्राह्मणा इति // 17 यथा श्राद्धं संप्रवृत्तं यस्मिन्काले यदात्मकम् / ततः संचिन्तयामास वंशकर्तारमात्मनः / येन संकल्पितं चैव तन्मे शृणु जनाधिप / 3 ध्यातमात्रस्तथा चात्रिराजगाम तपोधनः / / 18 स्वायंभुवोऽत्रिः कौरव्य परमर्षिः प्रतापवान् / अथात्रि तथा दृष्ट्वा पुत्रशोकेन कर्शितम् / तस्य वंशे महाराज दत्तात्रेय इति स्मृतः // 4 भृशमाश्वासयामास वाग्भिरिष्टाभिरव्ययः // 19 दत्तात्रेयस्य पुत्रोऽभून्निमि म तपोधनः / निमे संकल्पितस्तेऽयं पितृयज्ञस्तपोधनः / निमेश्चाप्यभवत्पुत्रः श्रीमान्नाम श्रिया वृतः / / 5 मा ते भूद्भीः पूर्वदृष्टो धर्मोऽयं ब्रह्मणा स्वयम् / / पूर्ण वर्षसहस्रान्ते स कृत्वा दुष्करं तपः / सोऽयं स्वयंभुविहितो धर्मः संकल्पितस्त्वया / कालधर्मपरीतात्मा निधनं समुपागतः / / 6 ऋते स्वयंभुवः कोऽन्यः श्राद्धेयं विधिमाहरेत् / / 2 / निमिस्तु कृत्वा शौचानि विधिदृष्टेन कर्मणा / आख्यास्यामि च ते भूयः श्राद्धेयं बिधिमुत्तमम् / -2642 - Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 91. 22] अनुशासनपर्व [ 13. 92. 4 स्वयंभुविहितं पुत्र तत्कुरुष्व निबोध मे // 22 कीर्तितास्ते महाभागाः कालस्य गतिगोचराः // 37 कृत्वाग्निकरणं पूर्व मत्रपूर्व तपोधन / अश्राद्धेयानि धान्यानि कोद्रवाः पुलकास्तथा / ततोऽयम्णे च सोमाय वरुणाय च नित्यशः // 23 / हिङ्गु द्रव्येषु शाकेषु पलाण्डं लशुनं तथा // 38 विश्वेदेवाश्च ये नित्यं पितृभिः सह गोचराः। पलाण्डुः सोभञ्जनकस्तथा गृञ्जनकादयः / तेभ्यः संकल्पिता भागाः स्वयमेव स्वयंभुवा // 24 - कूष्माण्डजात्यलाबुं च कृष्णं लवणमेव च // 39 स्तोतव्या चेह पृथिवी निवापस्येह धारिणी। ग्राम्यं वाराहमांसं च यच्चैवाप्रोक्षितं भवेत् / वैष्णवी काश्यपी चेति तथैवेहाक्षयेति च // 25 कृष्णाजाजी विडश्चैव शीतपाकी तथैव च / उदकानयने चैव स्तोतव्यो वरुणो विभुः / अङ्कराद्यास्तथा वा इह शृङ्गाटकानि च // 40 ततोऽग्निश्चैव सोमश्च आप्याय्याविह तेऽनघ / / 26 वर्जयेल्लवणं सर्व तथा जम्बूफलानि च / देवास्तु पितरो नाम निर्मिता वै स्वयंभुवा / अवक्षुतावरुदितं तथा श्राद्धेषु वर्जयत् // 41 ऊष्मपाः सुमहाभागास्तेषां भागाः प्रकल्पिताः / निवापे हव्यकव्ये वा गर्हितं च श्वदर्शनम् / ते श्राद्धनाच॑माना वै विमुच्यन्ते ह किल्बिषात् / / पितरश्चैव देवाश्च नाभिनन्दन्ति तद्धविः // 42 सप्तकः पितृवंशस्तु पूर्वदृष्टः स्वयंभुवा // 28 चण्डालश्वपचौ वज्यौ निवापे समुपस्थिते / विश्व चाग्निमुखा देवाः संख्याताः पूर्वमेव ते। काषायवासी कुष्ठी वा पतितो ब्रह्महापि वा // 43 तेषां नामानि वक्ष्यामि भागार्हाणां महात्मनाम् / / संकीर्णयोनिविप्रश्च संबन्धी पतितश्च यः / सहः कृतिविपाप्मा च पुण्यवत्पावनस्तथा। वर्जनीया बुधैरेते निवापे समुपस्थिते // 44 प्राग्निः क्षेमः समूहश्च दिव्यसानुस्तथैव च // 30 इत्येवमुक्त्वा भगवान्स्ववंशजमृर्षि पुरा / विवस्वान्वीर्यवान्हीमान्कीर्तिमान्कृत एव च। पितामहसभां दिव्यां जगामात्रिस्तपोधनः // 45 विपूर्वः सोमपूर्वश्च सूर्यश्रीश्चेति नामतः // 31 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि सोमपः सूर्यसावित्री दत्तात्मा पुष्करीयकः / एकनवतितमोऽध्यायः // 11 // उष्णीनाभो नभोदश्च विश्वायुःप्तिरेव च // 32 चमूहरः सुवेषश्च व्योमारिः शंकरो भवः / भीष्म उवाच / ईशः कर्ता कृतिदक्षो भुवनो दिव्यकर्मकृत // 33 तथा विधौ प्रवृत्ते तु सर्व एव महर्षयः / गणितः पञ्चवीर्यश्च आदित्यो रश्मिमांस्तथा। पितृयज्ञानकुर्वन्त विधिदृष्टेन कर्मणा / / 1 सप्तकृत्सोमवर्चाश्च विकृत्कविरेव च // 34 ऋषयो धर्मनित्यास्तु कृत्वा निवपनान्युत / अनुगोप्ता सुगोप्ता च नप्ता चेश्वर एव च / तर्पणं चाप्यकुर्वन्त तीर्थाम्भोभियतव्रताः // 2 जितात्मा मुनिवीर्यश्च दीप्तलोमा भयंकरः / / 35 निवापैीयमानैश्च चातुर्वर्ण्यन भारत / अतिकर्मा प्रतीतश्च प्रदाता चां शुमांस्तथा / तर्पिताः पितरो देवास्ते नान्नं जरयन्ति वै // 3 शैलाभः परमक्रोधी धीरोष्णी भूपतिस्तथा / / 36 / अजीर्णेनाभिहन्यन्ते ते देवाः पितृभिः सह / स्रजी वत्री वरी चैव विश्वेदेवाः सनातनाः / / सोममेवाभ्यपद्यन्त निवापान्नाभिपीडिताः॥ 4 - 2643 - Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 92.5] महाभारते [13. 93.6 तेऽब्रुवन्सोममासाद्य पितरोऽजीर्णऽपीडिताः / पितरोऽभिलषन्ते वै नावं चाप्यधिरोहतः / निवापान्नेन पीड्यामः श्रेयो नोऽत्र विधीयताम् / सदा नाबि जलं तज्ज्ञाः प्रयच्छन्ति समाहिताः // तान्सोमः प्रत्युवाचाथ श्रेयश्चेदीप्सितं सुराः। मासार्धे कृष्णपक्षस्य कुर्यान्निवपनानि वै। स्वयंभूसदनं यात स वः श्रेयो विधास्यति // 6 पुष्टिरायुस्तथा वीर्यं श्रीश्चैव पितृवर्तिनः / / 19 ते सोमवचनाद्देवाः पितृभिः सह भारत / पितामहः पुलस्त्यश्च वसिष्ठः पुलहस्तथा। मेरुशृङ्गे समासीनं पितामहमुपागमन् // 7 अङ्गिराश्च ऋतुश्चैव कश्यपश्च महानृषिः। पितर ऊचुः। एते कुरुकुलश्रेष्ठ महायोगेश्वराः स्मृताः // 20 निवापान्नेन भगवन्भृशं पीड्यामहे वयम् / / एते च पितरो राजन्नेष श्राद्धविधिः परः / प्रसादं कुरु नो देव श्रेयो नः संविधीयताम् // 8 प्रेतास्तु पिण्डसंबन्धान्मुच्यन्ते तेन कर्मणा // 21 इति तेषां वचः श्रुत्वा स्वयंभूरिदमब्रवीत् / इत्येषा पुरुषश्रेष्ठ श्राद्धोत्पत्तिर्यथागमम् / . . एष मे पार्श्वतो वहिर्युष्मच्छेयो विधास्यति // 9 ख्यापिता पूर्वनिर्दिष्टा दानं वक्ष्याम्यतः परम् // 22 ___ अग्निरुवाच / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि सहितास्तात भोक्ष्यामो निवापे समुपस्थिते / द्विनवतितमोऽध्यायः // 92 // जरयिष्यथ चाप्यन्नं मया साधं न संशयः // 10 एतच्छ्रुत्वा तु पितरस्ततस्ते विज्वराभवन् / युधिष्ठिर उवाच / एतस्मात्कारणाचाग्नेः प्राक्तनं दीयते नृप // 11 द्विजातयो व्रतोपेता हविस्ते यदि भुञ्जते / निवप्ते चाग्निपूर्वे वै निवापे पुरुषर्षभ। अन्नं ब्राह्मणकामाय कथमेतत्पितामह // 1 न ब्रह्मराक्षसास्तं वै निवापं धर्षयन्त्युत / ___ भीष्म उवाच / रक्षांसि चापवर्तन्ते स्थिते देवे विभावसौ // 12 अवेदोक्तव्रताश्चैव भुञ्जानाः कार्यकारिणः / पूर्व पिण्डं पितुर्दद्यात्ततो दद्यात्पितामहे / वेदोक्तेषु तु भुञ्जाना व्रतलुप्ता युधिष्ठिर // 2 प्रपितामहाय च तत एष श्राद्धविधिः स्मृतः॥ 13 याच्छ्राद्धे च सावित्री पिण्डे पिण्डे समाहितः / युधिष्ठिर उवाच / सोमायेति च वक्तव्यं तथा पितृमतेति च // 14 यदिदं तप इत्याहुरुपवासं पृथग्जनाः / रजस्वला च या नारी व्यङ्गिता कर्णयोश्च या। तपः स्यादेतदिह वै तपोऽन्यद्वापि किं भवेत् // 3 निवापे नोपतिष्ठेत संग्राह्या नान्यवंशजाः // 15 भीष्म उवाच / जलं प्रप्तरमाणश्च कीर्तयेत पितामहान् / मासार्धमासौ नोपवसेद्यत्तपो मन्यते जनः / नदीमासाद्य कुर्वीत पितॄणां पिण्डतर्पणम् // 16 आत्मतत्रोपघाती यो न तपस्वी न धर्मवित् / / 4 पूर्व स्ववंशजानां तु कृत्वाद्भिस्तर्पणं पुनः / त्यागस्यापि च संपत्तिः शिष्यते तप उत्तमम् / सुहृत्संबन्धिवर्गाणां ततो दद्याजलाञ्जलिम् // 17 सदोपवासी स भवेद्ब्रह्मचारी तथैव च // 5 कल्माषगोयुगेनाथ युक्तेन तरतो जलम् / | मुनिश्च स्यात्सदा विप्रो देवांश्चैव सदा यजेत् / -- 2644 - Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 93. 6 ] अनुशासनपर्व [ 13. 94. 13 कुटुम्बिको धर्मकामः सदास्वप्नश्च भारत // 6 अमृताशी सदा च स्यात्पवित्री च सदा भवेत् / युधिष्ठिर उवाच / ऋतवादी सदा च स्यान्नियतश्च सदा भवेत // 7 / ब्राह्मणेभ्यः प्रयच्छन्ति दानानि विविधानि च / विघसाशी सदा च स्यात्सदा चैवातिथिप्रियः।। दातृप्रतिग्रहीत्रोर्वा को विशेषः पितामह // 1 अमांसाशी सदा च स्यात्पवित्री च सदा भवेत् / / ___ भीष्म उवाच / __ युधिष्ठिर उवाच / साधोर्यः प्रतिगृह्णीयात्तथैवासाधुतो द्विजः / कथं सदोपवासी स्याद्ब्रह्मचारी च पार्थिव / / गुणवत्यल्पदोषः स्यान्निर्गुणे तु निमज्जति // 2 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / विघसाशी कथं च स्यात्कथं चैवातिथिप्रियः // 9 वृषादर्भश्च संवादं सप्तर्षीणां च भारत // 3 भीष्म उवाच / कश्यपोऽत्रिर्वसिष्ठश्च भरद्वाजोऽथ गौतमः / अन्तरा सायमाशं च प्रातराशं तथैव च / विश्वामित्रो जमदग्निः साध्वी चैवाप्यरुधन्ती // 4 सदोपवासी भवति यो न भुङ्क्तेऽन्तरा पुनः / / 10 सर्वेषामथ तेषां तु गण्डाभूत्कर्मकारिका / भार्या गच्छन्ब्रह्मचारी सदा भवति चैव ह। शूद्रः पशुसखश्चैव भर्ता चास्या बभूव ह // 5 ऋतवादी सदा च स्यादानशीलश्च मानवः // 11 ते वै सर्वे तपस्यन्तः पुरा चेरुर्महीमिमाम् / अभक्षयन्वृथा मांसममांसाशी भवत्युत / समाधिनोपशिक्षन्तो ब्रह्मलोकं सनातनम् / / 6 दानं ददत्पवित्री स्यादस्वप्नश्च दिवास्वपन // 12 अथाभवदनावृष्टिमहती कुरुनन्दन / भृत्यातिथिषु यो भुङ्क्ते भुक्तवत्सु नरः सदा। कृच्छ्रप्राणोऽभवद्यत्र लोकोऽयं वै क्षुधान्वितः॥ 7 अमृतं केवलं भुङ्क्ते इति विद्धि युधिष्ठिर / / 13 / कस्मिंश्चिच्च पुरा यज्ञे याज्येन शिबिसनुना / अभुक्तवत्सु नानाति ब्राह्मणेषु तु यो नरः / दक्षिणार्थेऽथ ऋत्विग्भ्यो दत्तः पुत्रो निजः किल // अभोजनेन तेनास्य जितः स्वर्गो भवत्युत // 14 / तस्मिन्कालेऽथ सोऽल्पायुर्दिष्टान्तमगमत्प्रभो। देवेभ्यश्च पितृभ्यश्च भृत्येभ्योऽतिथिभिः सह / / ते तं क्षुधाभिसंतप्ताः परिवार्योपतस्थिरे // 9 अवशिष्टानि यो भुङ्क्ते तमाहुर्विघसाशिनम् // 15 याज्यात्मजमथो दृष्ट्वा गतासमषिसत्तमाः / तेषां लोका ह्यपर्यन्ताः सदने ब्रह्मणः स्मृताः / अपचन्त तदा स्थाल्यां क्षुधार्ताः किल भारत // 10 उपस्थिता ह्यप्सरोभिर्गन्धर्वैश्च जनाधिप // 16 निराये मर्त्यलोकेऽस्मिन्नात्मानं ते परीप्सवः / देवतातिथिभिः सार्धं पितृभिश्चोपभुञ्जते / कृच्छ्रामापेदिरे वृत्तिमन्नहेतोस्तपस्विनः // 11 रमन्ते पुत्रपौत्रैश्च तेषां गतिरनुत्तमा // 17 अटमानोऽथ तान्मार्गे पचमानान्महीपतिः / राजा शैब्यो वृषादर्भिः क्लिश्यमानान्ददर्श ह / / 12 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि वृषादभिरुवाच / त्रिनवतितमोऽध्यायः॥ 93 // प्रतिग्रहस्तारयति पुष्टिवै प्रतिगृह्णताम् / मयि यद्विद्यते वित्तं तच्छृणुध्वं तपोधनाः // 13 - 2645 - Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 94. 14 ] महाभारते [ 13.94. 34 प्रियो हि मे ब्राह्मणो याचमानो इह ह्येतदुपादत्तं प्रेत्य स्यात्कटुकोदयम् / ___ दद्यामहं वोऽश्वतरीसहस्रम् / अप्रतिग्राह्यमेवैतत्प्रेत्य चेह सुखेप्सुना // 25 एकैकशः सवृषाः संप्रसूताः वसिष्ठ उवाच / सर्वेषां वै शीघ्रगाः श्वेतलोमाः // 14 शतेन निष्कं गणितं सहस्रेण च संमितम् / कुलंभराननडुहः शतंशता यथा बहु प्रतीच्छन्हि पापिष्ठां लभते गतिम् // 26 न्धुर्याशुभान्सर्वशोऽहं ददानि / कश्यप उवाच / पृथ्वीवाहान्पीवरांश्चैव ताव यत्पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः। ___ दग्र्या गृष्ट्यो धेनवः सुव्रताश्च // 15 सर्व तन्नालमेकस्य तस्माद्विद्वाशमं व्रजेत् / / 27 वरान्नामान्त्रीहियवं रसांश्च रत्नं चान्यदुर्लभं किं ददानि / भरद्वाज उवाच / मा स्माभक्ष्ये भावमेवं कुरुध्वं उत्पन्नस्य रुरोः शृङ्ग वर्धमानस्य वर्धते। . पुष्टयथं वै किं प्रयच्छाम्यहं वः // 16 प्रार्थना पुरुषस्येव तस्य मात्रा न विद्यते // 28 ऋषय ऊचुः। गौतम उवाच / राजन्प्रतिग्रहो राज्ञो मध्वास्वादो विषोपमः / न तल्लोके द्रव्यमस्ति यल्लोकं प्रतिपूरयेत् / तज्जानमानः कस्मात्त्वं कुरुषे नः प्रलोभनम् // 7 समुद्रकल्पः पुरुषो न कदाचन पूर्यते // 29 क्षत्रं हि दैवतमिव ब्राह्मणं समुपाश्रितम् / विश्वामित्र उवाच। अमलो ह्येष तपसा प्रीतः प्रीणाति देवताः / / 18 कामं कामयमानस्य यदा कामः समृध्यते / अह्नापीह तपो जातु ब्राह्मणस्योपजायते। अथैनमपरः कामस्तृष्णा विध्वति बाणवत् // 30 तद्दाव इव निर्दह्यात्प्राप्तो राजप्रतिग्रहः / / 19 जमदग्निवाच / कुशलं सह दानेन राजन्नस्तु सदा तव / प्रतिग्रहे संयमो चै तपो धारयते ध्रुवम् / अर्थिभ्यो दीयतां सर्वमित्युक्त्वा ते ततो ययुः // तद्धनं ब्राह्मणस्येह लुभ्यमानस्य विस्रवेत् // 31 अपक्कमेव तन्मांसमभूत्तेषां च धीमताम् / ___ अरुन्धत्युवाच / अथ हित्वा ययुः सर्वे वनमाहारकाविणः // 21 धर्मार्थ संचयो यो वै द्रव्याणां पक्षसंमतः / ततः प्रचोदिता राज्ञा वनं गत्वास्य मत्रिणः / तपःसंचय एवेह विशिष्टो द्रव्यसंचयात् / / 32 प्रचीयोदुम्बराणि स्म दानं दातुं प्रचक्रमुः // 22 उदुम्बराण्यथान्यानि हेमगर्भाण्युपाहरन् / गण्डोवाच / / भृत्यास्तेषां ततस्तानि प्रग्राहितुमुपाद्रवन् // 23 उग्रादितो भयाद्यस्माद्विभ्यतीमे ममेश्वराः / गुरूणीति विदित्वाथ न ग्राह्याण्यत्रिरब्रवीत् / बलीयांसो दुर्बलवद्विभेम्यहमतः परम् // 33 न स्म हे मूढविज्ञाना न स्म हे मन्दबुद्धयः / पशुसख उवाच / हैमानीमानि जानीमः प्रतिबुद्धाः स्म जागृमः॥२४ / यद्वै धर्मे परं नास्ति ब्राह्मणास्त द्धनं विदुः / -2646 - Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 94 34] अनुशासनपर्व [13.95. 10 विनयायं सुविद्वांसमुपासेथं यथातथम् / / 34 ऋषय ऊचुः। भीष्म उवाच / कुशलं सह दानाय तस्मै यस्य प्रजा इमाः / अथात्रिप्रमुखा राजन्वने तस्मिन्महर्षयः / फलान्युपधियुक्तानि य एवं नः प्रयच्छसि / / 35 व्यचरन्भक्षयन्तो वै मूलानि च फलानि च // 1 भीष्म उवाच। अथापश्यन्सुपीनांसपाणिपादमुखोदरम् / इत्युक्त्वा हेमगर्भाणि हित्वा तानि फलानि ते / परिव्रजन्तं स्थूलाङ्ग परिव्राजं शुनःसखम् // 2 ऋषयो जग्मुरन्यत्र सर्व एव धृतव्रताः / / 36 अरुन्धती तु तं दृष्ट्वा सर्वाङ्गोपचितं शुभा। भवितारो भवन्तो वै नैवमित्यब्रवीदृषीन / / 3 __ मन्त्रिणः ऊचुः। वसिष्ठ उवाच / उपधिं शङ्कमानास्ते हित्वेमानि फलानि वै / ततोऽन्येनैव गच्छन्ति विदितं तेऽस्तु पार्थिव // 37 नैतस्येह यथास्माकमग्निहोत्रमनिर्हतम् / इत्युक्तः स तु भृत्यैस्तैर्वृषादर्भिश्चकोप ह। सायं प्रातश्च होतव्यं तेन पीवाञ्शुनःसखः / / 4 तेषां संप्रतिकर्तुं च सर्वेषामगमगृहम // 38 अविरुवाच / स गत्वाहवनीयेऽसौ तीव्र नियममास्थितः। नैतस्येह यथास्माकं क्षुधा वीर्यं समाहतम् / जुहाव संस्कृतां मत्रैरेकैकामाहुतिं नृपः / / 39 कृच्छाधीनं प्रनष्टं च तेन पीवाञ्शुनःसखः // 5 तस्मादग्नेः समुत्तस्थौ कृत्या लोकभयंकरी / विश्वामित्र उवाच / तस्या नाम वृषादर्भिर्यातुधानीत्यथाकरोत् // 40 / नैतस्येह यथास्माकं शश्वच्छास्त्रं जरद्गवः / सा कृत्या कालरात्रीव कृताञ्जलिरुपस्थिता। अलसः क्षुत्परो मूर्खस्तेन पीवाञ्शुनःसखः // 6 वृषादर्भि नरपतिं किं करोमीति चाब्रवीत् // 41 जमदग्निरुवाच / वृषादर्भिरुवाच / नैतस्येह यथास्माकं भक्तमिन्धनमेव च / ऋषीणां गच्छ सप्तानामरुन्धत्यास्तथैव च / संचिन्त्य वार्षिकं किंचित्तेन पीवाशुनःसखः // 7 दासीभर्तुश्च दास्याश्च मनसा नाम धारय // 42 कश्यप उवाच / ज्ञात्वा नामानि चैतेषां सर्वानेनान्विनाशय / नैतस्येह यथास्माकं चत्वारश्च सहोदराः / विनष्टेषु यथा स्वैरं गच्छ यत्रेप्सितं तव // 43 / देहि देहीति भिक्षन्ति तेन पीवाञ्शुनसखः / / 8 ना तथेति प्रतिश्रुत्य यातुधानी स्वरूपिणी / भरद्वाज उवाच / जगाम तद्वनं यत्र विचेरुरते महर्षयः // 44 नैतस्येह यथास्माकं ब्रह्मबन्धोरचेतसः / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि शोको भार्यापवादेन तेन पीवाशुनःसखः // 9 चतुर्नवतितमोऽध्यायः / / 94 // गौतम उवाच। नैतस्येह यथास्माकं त्रिकौशेयं हि रावम् / -2647 - Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 95. 10 ] महाभारते [13. 95. 32 एकैकं वै त्रिवार्षीयं तेन पीवाञ्शुनःसखः / / 10 यातुधान्युवाच / भीष्म उवाच / समयेन विसानीतो गृहीध्वं कामकारतः / अथ दृष्ट्वा परिवाट्स तान्महर्षीशुनःसखः / / एकैको नाम मे प्रोक्त्वा ततो गृहीत माचिरम्॥२॥ अभिगम्य यथान्यायं पाणिस्पर्शमथाचरत् // 11 भीष्म उवाच / परिचर्या वने तां तु क्षुत्प्रतीघातकारिकाम् / 'विज्ञाय यातुधानी तां कृत्यामृषिवधैषिणीम् / अन्योन्येन निवेद्याथ प्रातिष्ठन्त सहैव ते // 12 अत्रिः क्षुधापरीतात्मा ततो वचनमब्रवीत् // 24 एकनिश्चयकार्याश्च व्यचरन्त वनानि ते। अरात्रिरत्रेः सा रात्रियाँ नाधीते त्रिरद्य वै / आददानाः समुद्धृत्य मूलानि च फलानि च // 13 अरात्रिरत्रिरित्येव नाम मे विद्धि शोभने // 25 कदाचिद्विचरन्तस्ते वृक्षरविरलैर्वृताम् / यातुधान्युवाच / शुचिवारिप्रसन्नोदां ददृशुः पद्मिनी शुभाम् // 14 यथोदाहृतमेतत्ते मयि नाम महामुने। ' बालादित्यवपुःप्रख्यैः पुष्करैरुपशोभिताम् / दुर्धार्यमेतन्मनसा गच्छावतर पद्मिनीम् // 26 वैदूर्यवर्णसदृशैः पद्मपत्रैरथावृताम् // 15 वसिष्ठ उवाच / नानाविधैश्च विहगैजलप्रकरसेविभिः।। वसिष्ठोऽस्मि वरिष्ठोऽस्मि वसे वासं गृहेष्वपि / एकद्वारामनादेयां सूपतीर्थामकर्दमाम् // 16 वरिष्ठत्वाच्च वासाच्च वसिष्ठ इति विद्धि माम्॥२७ वृषादर्भिप्रयुक्ता तु कृत्या विकृतदर्शना। यातुधान्युवाच / यातुधानीनि विख्याता पद्मिनी तामरक्षत // 17 नामनैरुक्तमेतत्ते दुःखव्याभाषिताक्षरम् / शुनःसखसहायास्तु बिसार्थं ते महर्षयः / नैतद्धारयितुं शक्यं गच्छावतर पद्मिनीम् / / 28 पद्मिनीमभिजग्मुस्ते सर्वे कृत्याभिरक्षिताम् // 18 __कश्यप उवाच / ततस्ते यातुधानी तां दृष्ट्वा विकृतदर्शनाम् / / कुलं कुलं च कुपपः कुपयः कश्यपो द्विजः / स्थितां कमलिनीतीरे कृत्यामूचुर्महर्षयः / / 19 काश्यः काशनिकाशत्वादेतन्मे नाम धारय // 29 एका तिष्ठसि का नु त्वं कस्यार्थे किं प्रयोजनम् // ____ यातुधान्युवाच। पद्मिनीतीरमाश्रित्य ब्रूहि त्वं किं चिकीर्षसि // 20 यथोदाहृतमेतत्ते मयि नाम महामुने / यातुधान्युवाच / दुर्धार्यमेतन्मनसा गच्छावतर पद्मिनीम् // 30 यास्मि सास्म्यनुयोगो मे न कर्तव्यः कथंचन / भरद्वाज उवाच / आरक्षिणीं मां पद्मिन्या वित्त सर्वे तपोधनाः॥२१ भरे सुतान्भरे शिष्यान्भरे देवान्भरे द्विजान् / ऋषय ऊचुः। भरे भार्यामनव्याजो भरद्वाजोऽस्मि शोभने // 31 सर्व एव क्षुधार्ताः स्म न चान्यत्किचिदस्ति नः / यातुधान्युवाच / भवत्याः संमते सर्वे गृह्णीमहि बिसान्युत / / 22 / नामनैरुक्तमेतत्ते दुःखव्याभाषिताक्षरम् / -2648 -- Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 95. 32 ] अनुशासनपर्व [13. 95. 52 नैतद्धारयितुं शक्यं गच्छावतर पद्मिनीम् // 32 यातुधान्युवाच / गौतम उवाच / नामनैरुक्तमेतत्ते दुःखव्याभाषिताक्षरम् / गोदमो दमगोऽधूमो दमो दुर्दर्शनश्च ते / नैतद्धारयितुं शक्यं गच्छावतर पद्मिनीम् // 42 विद्धि मां गौतमं कृत्ये यातुधानि निबोध मे // पशुसख उवाच / यातुधान्युवाच / सखा सखे यः सख्येयः पशूनां च सखा सदा। यथोदाहृतमेतत्ते मयि नाम महामुने / गौणं पशुसखेत्येवं विद्धि मामग्निसंभवे // 43 नैतद्धारयितुं शक्यं गच्छावतर पद्मिनीम् // 34 ___यातुधान्युवाच / विश्वामित्र उवाच / नामनैरुक्तमेतत्ते दुःखव्याभाषिताक्षरम् / विश्वेदेवाश्च मे मित्रं मित्रमस्मि गवां तथा।। नैतद्धारयितुं शक्यं गच्छावतर पद्मिनीम् // 44 विश्वामित्रमिति ख्यातं यातुधानि निबोध मे // 35 शुनःसख उवाच / यातुधान्युवाच / एभिरुक्तं यथा नाम नाहं वक्तुमिहोत्सहे / नामनैरुक्तमेतत्ते दुःखव्याभाषिताक्षरम् / शुनःसखसखायं मां यातुधान्युपधारय / / 45 नैतद्वारयितुं शक्यं गच्छावतर पद्मिनीम् // 36 यातुधान्युवाच / नाम तेऽव्यक्तमुक्तं वै वाक्यं संदिग्धया गिरा। जमदग्निरुवाच / तस्यात्सकृदिदानीं त्वं ब्रूहि यन्नाम ते द्विज // 46 जाजमद्यजजा नाम मृजा माह जिजायिषे / . शुनःसख उवाच / जमदग्निरिति ख्यातमतो मां विद्धि शोभने // 37 सकृदुक्तं मया नाम न गृहीतं यदा त्वया / यातुधान्युवाच / तस्मात्रिदण्डाभिहता गच्छ भस्मेति माचिरम्॥४७ यथोदाहृतमेतत्ते मयि नाम महामुने। भीष्म उवाच। नैतद्वारयितुं शक्यं गच्छावतर पद्मिनीम् // 38 सा ब्रह्मदण्डकल्पेन तेन मूर्ध्नि हता तदा। अरुन्धत्युवाच। कृत्या पपात मेदिन्यां भस्मसाच्च जगाम ह // 48 धरां धरित्री वसुधां भर्तुस्तिष्ठाम्यनन्तरम् / शुनःसखश्च हत्वा तां यातुधानी महाबलाम् / मनोऽनुरुन्धती भर्तुरिति मां विद्ध्यरुन्धतीम् / / 39 भुवि त्रिदण्डं विष्टभ्य शाद्वले समुपाविशत् // 49 यातुधान्युवाच / ततस्ते मुनयः सर्वे पुष्कराणि बिसानि च / नामनैरुक्तमेतत्ते दुःखव्याभाषिताक्षरम् / यथाकाममुपादाय समुत्तस्थुर्मुदान्विताः // 50 नैतद्धारयितुं शक्यं गच्छावतर पद्मिनीम् // 40 श्रमेण महता युक्तास्ते बिसानि कलापशः / गण्डोवाच / तीरे निक्षिप्य पद्मिन्यास्तर्पणं चक्रुरम्भसा // 51 गण्डं गण्डं गतवती गण्डगण्डेति संज्ञिता / अथोत्थाय जलात्तस्मात्सर्वे ते वै समागमन् / गण्डगण्डेव गण्डेति विद्धि मानलसंभवे // 41 / नापश्यंश्चापि ते तानि बिसानि पुरुषर्षभ // 52 -2649 - म.भा. 332 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 95. 53] महाभारते [ 13. 95.75 ऋषय ऊचुः। अन्योन्यस्यातिथिश्चास्तु बिसस्तैन्यं करोति यः // केन क्षुधाभिभूतानामस्माकं पापकर्मणा / गौतम उवाच / नृशंसेनापनीतानि बिसान्याहारकाविणाम् // 53 अधीत्य वेदांस्त्यजतु त्रीनग्नीनपविध्यतु / ते शङ्कमानास्त्वन्योन्यं पप्रच्छुर्द्विजसत्तमाः / विक्रीणातु तथा सोमं बिसस्तैन्यं करोति यः॥६५ त ऊचुः शपथं सर्वे कुर्म इत्यरिकर्शन // 54 उदपानप्लवे ग्रामे ब्राह्मणो वृषलीपतिः / त उक्त्वा बाढमित्येव सर्व एव शुनःसखम् / तस्य सालोक्यतां यातु विसस्तैन्यं करोति यः / / 66 क्षुधार्ताः सुपरिश्रान्ताः शपथायोपचक्रमुः // 55 विश्वामित्र उवाच / ___ अत्रिरुवाच / जीवतो वै गुरून्भृत्यान्भरन्त्वस्य परे जनाः / स गां स्पृशतु पादेन सूर्य च प्रतिमेहतु / अगतिर्बहुपुत्रः स्याद्विसस्तैन्यं करोति यः // 67 अनध्यायेष्वधीयीत बिसस्तैन्यं करोति यः // 56 अशुचिर्ब्रह्मकूटोऽस्तु ऋद्ध्या चैवाप्यहंकृतः / वसिष्ठ उवाच। कर्षको मत्सरी चास्तु बिसस्तैन्यं करोति यः॥६८ अनध्यायपरो लोके शुनः स परिकर्षतु / वर्षान्करोतु भृतको राज्ञश्चास्तु पुरोहितः / परिव्रावामवृत्तोऽस्तु बिसस्तैन्यं करोति यः // 57 अयाज्यस्य भवेत्विग्बिसस्तैन्यं करोति यः / / 69 शरणागतं हन्तु मित्रं स्वसुतां चोपजीवतु। अरुन्धत्युवाच / अर्थान्काङ्क्षतु कीनाशाद्विसस्तैन्यं करोति यः // 58 नित्यं परिवदेच्छश्रृं भर्तुर्भवतु दुर्मनाः / कश्यप उवाच / एका स्वादु समश्नातु बिसस्तैन्यं करोति या // 70 सर्वत्र सर्व पणतु न्यासलोपं करोतु च। ज्ञातीनां गृहमध्यस्था सक्तूनत्तु दिनक्षये / कूटसाक्षित्वमभ्येतु बिसस्तैन्यं करोति यः // 59 अभाग्यावीरसूरस्तु बिसस्तैन्यं करोति या // 71 वृथामांसं समश्नातु वृथादानं करोतु च / गण्डोवाच / यातु स्त्रियं दिवा चैव बिसस्तैन्यं करोति यः॥६० अनृतं भाषतु सदा साधुभिश्च विरुध्यतु / भरद्वाज उवाच / ददातु कन्यां शुल्केन बिसस्तैन्यं करोति या // 72 नृशंसस्त्यक्तधर्मोऽस्तु स्त्रीषु ज्ञातिषु गोषु च। साधयित्वा स्वयं प्राशेद्दास्ये जीवतु चैव ह / ब्राह्मणं चापि जयतां बिसस्तैन्यं करोति यः॥६१ / विकर्मणा प्रमीयेत बिसस्तैन्यं करोति या // 73 उपाध्यायमधः कृत्वा ऋचोऽध्येतु यजूंषि च / / पशुसख उवाच / जुहोतु च स कक्षाग्नौ विसस्तैन्यं करोति यः // 62 / / दास्य एव प्रजायेत सोऽप्रसूतिरकिंचनः / जमदग्निरुवाच / दैवतेष्वनमस्कारो बिसस्तैन्यं करोति यः // 74 पुरीषमुत्सृजत्वप्सु हन्तु गां चापि दोहिनीम् / शुनःसख उवाच / अनृतौ मैथुनं यातु बिसस्तैन्यं करोति यः // 63 / / अध्वर्यवे दुहितरं ददातु द्वेष्यो भार्योपजीवी स्याहूरबन्धुश्च वैरवान् / च्छन्दोगे वा चरितब्रह्मचर्ये / -2650 - Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 95. 75 ] अनुशासनपर्व [13. 96.8 आथर्वणं वेदमधीत्य विप्रः यशोधर्मार्थभागी च भवति प्रेत्य मानवः // 86 स्नायीत यो वै हरते बिसानि / / 75 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि पञ्चनवतितमोऽध्यायः // 15 // ऋषय ऊचुः। इष्टमेतद्विजातीनां योऽयं ते शपथः कृतः / भीष्म उवाच / त्वया कृतं बिसस्तैन्यं सर्वेषां नः शुनःसख // 76 अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / शुनःसख उवाच / यद्वृत्तं तीर्थयात्रायां शपथं प्रति तच्छृणु // 1 न्यस्तमाद्यमपश्यद्भिर्यदुक्तं कृतकर्मभिः / पुष्करार्थं कृतं स्तैन्यं पुरा भरतसत्तम / सत्यमेतन्न मिथ्यैतद्विसस्तैन्यं कृतं मया // 77 राजर्षिभिर्महाराज तथैव च द्विजर्षिभिः // 2 मया ह्यन्तर्हितानीह बिसानीमानि पश्यत / ऋषयः समेताः पश्चिमे वै प्रभासे परीक्षार्थ भगवतां कृतमेतन्मयानघाः / समागता मत्रममत्रयन्त / रक्षणार्थं च सर्वेषां भवतामहमागतः // 78 चराम सर्वे पृथिवीं पुण्यतीर्थी यातुधानी ह्यतिक्रुद्धा कृत्यैषा वो वधैषिणी / तन्नः कार्य हन्त गच्छाम सर्वे // 3 वृषादर्भिप्रयुक्तैषा निहता मे तपोधनाः // 79 शुक्रोऽङ्गिराश्चैव कविश्च विद्वांदुष्टा हिंस्यादियं पापा युष्मान्प्रत्यग्निसंभवा / स्तथागस्त्यो नारदपर्वतौ च / तस्मादस्म्यागतो विप्रा वासवं मां निबोधत // 80 भृगुर्वसिष्ठः कश्यपो गौतमश्च अलोभादक्षया लोकाः प्राप्ता वः सार्वकामिकाः / विश्वामित्रो जमदग्निश्च राजन् // 4 उत्तिष्ठध्वमितः क्षिप्रं तानवाप्नुत वै द्विजाः // 81 ऋषिस्तथा गालवोऽथाष्टकश्च भरद्वाजोऽरुन्धती वालखिल्याः / .. भीष्म उवाच / शिबिर्दिलीपो नहुषोऽम्बरीषो ततो महर्षयः प्रीतास्तथेत्युक्त्वा पुरंदरम् / राजा ययातिधुन्धुमारोऽथ पूरुः // 5 सहैव त्रिदशेन्द्रेण सर्वे जग्मुत्रिविष्टपम् // 82 जग्मुः पुरस्कृत्य महानुभावं एवमेते महात्मानो भोगैर्बहुविधैरपि / शतक्रतुं वृत्रहणं नरेन्द्र / क्षुधा परमया युक्ताश्छन्द्यमाना महात्मभिः। तीर्थाणि सर्वाणि परिक्रमन्तो नैव लोभं तदा चक्रुस्ततः स्वर्गमवाप्नुवन् // 83 माध्यां ययुः कौशिकी पुण्यतीर्थाम् // 6 तस्मात्सर्वास्ववस्थासु नरो लोभं विवर्जयेत् / / सर्वेषु तीर्थेष्वथ धूतपापा एष धर्मः परो राजन्नलोभ इति विश्रुतः // 84 जग्मुस्ततो ब्रह्मसरः सुपुण्यम् / इदं नरः सञ्चरितं समवायेषु कीर्तयेत् / देवस्य तीर्थे जलमग्निकल्पा मुखभागी च भवति न च दुर्गाण्यवाप्नुते // 85 _ विगाह्य ते भुक्तबिसप्रसूनाः / / 7 प्रीयन्ते पितरश्चास्य ऋषयो देवतास्तथा। केचिद्विसान्यखनस्तत्र राज-2651 - . Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 96.8] महाभारते [13. 96.24 नन्ये मृणालान्यखनस्तत्र विप्राः / सहैव ते पार्थिव पुत्रपौत्रैः // 15 / / अथापश्यन्पुष्करं ते ह्रियन्तं भृगुरुवाच / हृदादगस्त्येन समुद्धृतं वै // 8 प्रत्याक्रोशेदिहाक्रुष्टस्ताडितः प्रतिताडयेत् / तानाह सर्वानृषिमुख्यानगस्त्यः खादेच्च पृष्ठमांसानि यस्ते हरति पुष्करम् // 16 केनादत्तं पुष्करं मे सुजातम् / ___ वसिष्ठ उवाच। युष्माशङ्के दीयतां पुष्कर मे अस्वाध्यायपरो लोके श्वानं च परिकर्षतु / न वै भवन्तो हर्तुमर्हन्ति पद्मम् // 9 पुरे च भिक्षुर्भवतु यस्ते हरति पुष्करम् // 17 शृणोमि कालो हिंसते धर्मवीयं सेयं प्राप्ता वर्धते धर्मपीडा / ___ कश्यप उवाच / पुराधर्मो वर्धते नेह याव सर्वत्र सर्व पणतु न्यासे लोभं करोतु च / त्तावद्गच्छामि परलोकं चिराय // 10 कूटसाक्षित्वमभ्येतु यस्ते हरति पुष्करम् // 18 पुरा वेदान्ब्राह्मणा ग्राममध्ये गौतम उवाच / घुष्टस्वरा वृषलाश्रावयन्ति / जीवत्वहंकृतो बुद्ध्या विपणत्वधमेन सः। पुरा राजा व्यवहारानधा कर्षको मत्सरी चास्तु यस्ते हरति पुष्करम् // 19 न्पश्यत्यहं परलोकं व्रजामि // 11 ___ अङ्गिरा उवाच / पुरावरान्प्रत्यवरान्गरीयसो अशुचिब्रह्मकूटोऽस्तु श्वानं च परिकर्षतु / ___ यावन्नरा नावमंस्यन्ति सर्वे / ब्रह्महानिकृतिश्चास्तु यस्ते हरति पुष्करम् // 20 तमोत्तरं यावदिदं न वर्तते धुन्धुमार उवाच / __ तावद्जामि परलोकं चिराय // 12 अकृतज्ञोऽस्तु मित्राणां शूद्रायां तु प्रजायतु / पुरा प्रपश्यामि परेण मा एकः संपन्नमनातु यस्ते हरति पुष्करम् // 21 ___ न्बलीयसा दुर्बलान्भुज्यमानान् / पूरुरुवाच / तस्माद्यास्यामि परलोकं चिराय चिकित्सायां प्रचरतु भार्यया चैव पुष्यतु / __ न ह्युत्सहे द्रष्टुमीहड्नृलोके // 13 श्वशुरात्तस्य वृत्तिः स्याद्यस्ते हरति पुष्करम् // 22 तमाहुरार्ता ऋषयो महर्षि __न ते वयं पुष्करं चोरयामः / दिलीप उवाच / . मिथ्याभिषङ्गो भवता न कार्यः उदपानप्लवे ग्रामे ब्राह्मणो वृषलीपतिः / ___शपाम तीक्ष्णाञ्शपथान्महर्षे // 14 तस्य लोकान्स व्रजतु यस्ते हरति पुष्करम् // 23 ते निश्चितास्तत्र महर्षयस्तु शुक्र उवाच / संमन्यन्तो धर्ममेवं नरेन्द्र। पृष्ठमांसं समश्नातु दिवा गच्छतु मैथुनम् / ततोऽशपशपथात्पर्ययेण प्रेष्यो भवतु राज्ञश्च यस्ते हरति पुष्करम् // 24 -2652 - Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 96. 25 ] अनुशासनपर्व [13. 96. 43 जमदग्निरुवाच / शुनः कर्षतु वृत्त्यर्थे यस्ते हरति पुष्करम् // 34 अनध्यायेष्वधीयीत मित्रं श्राद्धे च भोजयेत् / भरद्वाज उवाच। श्राद्धे शूद्रस्य चाश्नीयाद्यस्ते हरति पुष्करम् // 25 सर्वपापसमादानं नृशंसे चानृते च यत् / शिबिरुवाच / तत्तस्यास्तु सदा पापं यस्ते हरति पुष्करम् // 35 अनाहिताग्निम्रियतां यज्ञे विघ्नं करोतु च। ___ अष्टक उवाच / तपस्विभिर्विरुध्येत यस्ते हरति पुष्करम् // 26 स राजास्त्वकृतप्रज्ञः कामवृत्तिश्च पापकृत् / - ययातिरुवाच। अधर्मेणानुशास्तूर्वी यस्ते हरति पुष्करम् // 36 अनृतौ जटी वतिन्यां वै भार्यायां संप्रजायतु / गालव उवाच / निराकरोतु वेदांश्च यस्ते हरति पुष्करम् / / 27 पापिष्ठेभ्यस्त्वनर्धार्हः स नरोऽस्तु स्वपापकृत् / नहुष उवाच / दत्त्वा दानं कीर्तयतु यस्ते हरति पुष्करम् // 37 अतिथि गृहस्थो नुदतु कामवृत्तोऽस्तु दीक्षितः / अरुन्धत्युवाच / विद्यां प्रयच्छतु भृतो यस्ते हरति पुष्करम् // 28 श्वश्वापवाद वदतु भर्तुर्भवतु दुर्मनाः / __ अम्बरीष उवाच / एका स्वादु समभातु या ते हरति पुष्करम् // 38 नृशंसस्त्यक्तधर्मोऽस्तु स्त्रीषु ज्ञातिषु गोषु च / वालखिल्या ऊचुः। ब्राह्मणं चापि जहतु यस्ते हरति पुष्करम् / / 29 एकपादेन वृत्त्यर्थं प्रामद्वारे स तिष्ठतु / . नारद उवाच / धर्मज्ञस्त्यक्तधर्मोऽस्तु यस्ते हरति पुष्करम् // 39 गूढोऽज्ञानी बहिः शास्त्रं पठतां विस्वरं पदम् / __पशुसख उवाच / गरीयसोऽवजानातु यस्ते हरति पुष्करम् // 30 अग्निहोत्रमनादृत्य सुखं स्वपतु स द्विजः / नाभाग उवाच / परिव्रावामवृत्तोऽस्तु यस्ते हरति पुष्करम् // 40 अनृतं भाषतु सदा सद्भिश्चैव विरुध्यतु / ' सुरभ्युवाच / शुल्केन कन्यां ददतु यस्ते हरति पुष्करम् // 31 बाल्वजेन निदानेन कांस्यं भवतु दोहनम् / कविरुवाच / दुह्येत परवत्सेन या ते हरति पुष्करम् // 41 पदा स गां ताडयतु सूर्यं च प्रति मेहतु / __ भीष्म उवाच / शरणागतं च त्यजतु यस्ते हरति पुष्करम् // 32 ततस्तु तैः शपथैः शप्यमानैविश्वामित्र उवाच / __ र्नानाविधैर्बहुभिः कौरवेन्द्र / मोतु भृतकोऽवर्षां राज्ञश्चास्तु पुरोहितः / सहस्राक्षो देवराट् संप्रहृष्टः ऋत्विगस्तु ह्ययाज्यस्य यस्ते हरति पुष्करम् // 33 समीक्ष्य तं कोपनं विप्रमुख्यम् // 42 पर्वत उवाच / अथाब्रवीन्मघवा प्रत्ययं स्वं प्रामे चाधिकृतः सोऽस्तु खरयानेन गच्छतु। समाभाष्य तमृर्षि जातरोषम् / - 2653 - Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 96. 43] महाभारते [ 13. 97. 12 ब्रह्मर्षिदेवर्षिनृपर्षिमध्ये सगच्छेद्ब्रह्मणो लोकमव्ययं च नरोत्तम // 54 यत्तन्निबोधेह ममाद्य राजन् / / 43 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि शक उवाच / षण्णवतितमोऽध्यायः // 96 // अध्वर्यवे दुहितरं ददातु ___ 97 च्छन्दोगे वा चरित ब्रह्मचर्ये / युधिष्ठिर उवाच / आथर्वणं वेदमधीत्य विप्रः यदिदं श्राद्धधर्मेषु दीयते भरतर्षभ / स्नायेत यः पुष्करमाददाति // 44 छत्रं चोपानही चैव केनैतत्संप्रवर्तितम् / सर्वान्वेदानधीयीत पुण्यशीलोऽस्तु धार्मिकः / कथं चैतत्समुत्पन्नं किमर्थं च प्रदीयते // 1 ब्रह्मणः सदनं यातु यस्ते हरति पुष्करम् // 45 न केवलं श्राद्धधर्मे पुण्यकेष्वपि दीयते / एतद्विस्तरतो राजश्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः // 2 अगस्त्य उवाच / भीष्म उवाच / आशीर्वादस्त्वया प्रोक्तः शपथो बलसूदन / शृणु राजन्नवहितश्छतोपानहविस्तरम् / दीयतां पुष्करं मह्यमेष धर्मः सनातनः // 46 यथैतत्प्रथितं लोके येन चैतत्प्रवर्तितम् // 3 इन्द्र उवाच / यथा चाक्षय्यतां प्राप्तं पुण्यतां च यथा गतम् / न मया भगवल्लोभाद्धृतं पुष्करमद्य वै / सर्वमेतदशेषेण प्रवक्ष्यामि जनाधिप // 4 धर्म तु श्रोतुकामेन हृतं न क्रोडुमर्हसि // 47 इतिहासं पुरावृत्तमिमं शृणु नराधिप। धर्मः श्रुतिसमुत्कर्षो धर्मसेतुरनामयः / जमदग्नेश्च संवादं सूर्यस्य. च महात्मनः // 5 आर्षो वै शाश्वतो नित्यमव्ययोऽयं मया श्रुतः॥४८ पुरा स भगवान्साक्षाद्धनुषाक्रीडत प्रभो। तदिदं गृह्यतां विद्वन्पुष्करं मुनिसत्तम।। संधाय संधाय शरांश्चिक्षेप किल भार्गवः // 6 अतिक्रमं मे भगवन्क्षन्तुमर्हस्यनिन्दित // 49 / / तान्क्षिप्तान्रेणुका सर्वांस्तस्येषून्दीप्ततेजसः / आनाय्य सा तदा तस्मै प्रादादसकृदच्युत // 7 इत्युक्तः स महेन्द्रेण तपस्वी कोपनो भृशम् / अथ तेन स शब्देन ज्यातलस्य शरस्य च / जग्राह पुष्करं धीमान्प्रसन्नश्चाभवन्मुनिः // 50 प्रहृष्टः संप्रचिक्षेप सा च प्रत्याजहार तान् // 8 प्रययुस्ते ततो भूयस्तीर्थानि वनगोचराः। ततो मध्याह्नमारूढे ज्येष्ठामूले दिवाकरे / पुण्यतीर्थेषु च तथा गात्राण्याप्लावयन्ति ते // 51 स सायकान्द्विजो विद्धा रेणुकामिदमब्रवीत् // आख्यानं य इदं युक्तः पठेत्पर्वणि पर्वणि / गच्छानय विशालाक्षि शरानेतान्धनु,युतान् / न मूर्ख जनयेत्पुत्रं न भवेच्च निराकृतिः // 52 / यावदेतान्पुनः सुभ्र क्षिपामीति जनाधिप // 10 न तमापस्पृशेत्काचिन्न ज्वरो न रुजश्च ह। सा गच्छत्यन्तरा छायां वृक्षमाश्रित्य भामिनी / विरजाः श्रेयसा युक्तः प्रेत्य स्वर्गमवाप्नुयात् // 53 तस्थौ तस्या हि संतप्तं शिरः पादौ तथैव च // 11 यश्च शास्त्रमनुध्यायेदृषिभिः परिपालितम् / / स्थिता सा तु मुहूर्त वै भर्तुः शापभयाच्छुभा। -2654 - Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 97. 12 ] अनुशासनपर्व [ 12. 98.8 ययावानयितुं भूयः सायकानसितेक्षणा / सत्राणि दानानि तथा संयोगा वित्तसंचयाः / प्रत्याजगाम च शरांस्तानादाय यशस्विनी // 12 अन्नतः संप्रवर्तन्ते यथा त्वं वेत्थ भार्गव // 25 सा प्रस्विन्ना सुचार्वङ्गी पद्धयां दुःखं नियच्छती / रमणीयानि यावन्ति यावदारम्भकाणि च / उपाजगाम भर्तारं भयाद्भर्तुः प्रवेपती // 13 सर्वमन्नात्प्रभवति विदितं कीर्तयामि ते // 26 स तामृषिस्ततः क्रुद्धो वाक्यमाह शुभाननाम् / सर्वं हि वेत्थ विप्र त्वं यदेतत्कीर्तितं मया / रेणुके किं चिरेण त्वमागतेति पुनः पुनः // 14 प्रसादये त्वा विप्रर्षे किं ते सूर्यो निपात्यते // 27 रेणुकोवाच / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि सप्तनवतितमोऽध्यायः // 97 // शिरस्तावत्प्रदीप्तं मे पादौ चैव तपोधन। . सूर्यतेजोनिरुद्धाहं वृक्षच्छायामुपाश्रिता // 15 युधिष्ठिर उवाच / एतस्मात्कारणाद्ब्रह्मंश्चिरमेतत्कृतं मया / एवं तदा प्रयाचन्तं भास्करं मुनिसत्तमः / एतज्ज्ञात्वा मम विभो मा क्रुधस्त्वं तपोधन // 16 जमदग्निर्महातेजाः किं कार्य प्रत्यपद्यत // 1 जमदग्निरुवाच / भीष्म उवाच। अद्यैनं दीप्तकिरणं रेणुके तव दुःखदम् / तथा प्रयाचमानस्य मुनिरग्निसमप्रभः / शरैर्निपातयिष्यामि सूर्यमस्त्राग्नितेजसा // 17 जमदग्निः शमं नैव जगाम कुरुनन्दन // 2 भीष्म उवाच / ततः सूर्यो मधुरया वाचा तमिदमब्रवीत् / स विस्फार्य धनुर्दिव्यं गृहीत्वा च बहूशरान् / कृताञ्जलिर्विप्ररूपी प्रणम्येदं विशां पते // 3 अतिष्ठत्सूर्यमभितो यतो याति ततोमुखः / / 18 चलं निमित्तं विप्रर्षे सदा सूर्यस्य गच्छतः / अथ तं प्रहरिष्यन्तं सूर्योऽभ्येत्य वचोऽब्रवीत् / कथं चलं वेत्स्यसि त्वं सदा यान्तं दिवाकरम् // 4 द्विजरूपेण कौन्तेय किं ते सूर्योऽपराध्यते // 19 जमदग्निरुवाच / आदत्ते रश्मिभिः सूर्यो दिवि विद्वंस्ततस्ततः / स्थिरं वापि चलं वापि जाने त्वां ज्ञानचक्षुषा / रसं स तं वै वर्षासु प्रवर्षति दिवाकरः // 20 अवश्यं विनयाधानं कार्यमद्य मया तव / / 5 ततोऽन्नं जायते विप्र मनुष्याणां सुखावहम् / अपराह्ने निमेषाधं तिष्ठसि त्वं दिवाकर / अन्नं प्राणा इति यथा वेदेषु परिपठ्यते / / 21 तत्र वेत्स्यामि सूर्य त्वां न मेऽत्रास्ति विचारणा // अथाभ्रेषु निगूढश्व रश्मिभिः परिवारितः / सर्य उवाच। सप्त द्वीपानिमान्ब्रह्मन्वर्षेणाभिप्रवर्षति // 22 असंशयं मां विप्रर्षे वेत्स्यसे धन्विनां वर / ततस्तदौषधीनां च वीरुधां पत्रपुष्पजम् / / अपकारिणं तु मां विद्धि भगवशरणागतम् // 7 सर्व वर्षाभिनिवृत्तमन्नं संभवति प्रभो // 23 भीष्म उवाच / जातकर्माणि सर्वाणि व्रतोपनयनानि च / ततः प्रहस्य भगवाञ्जमदग्निरुवाच तम् / गोदानानि विवाहाश्च तथा यज्ञसमृद्धयः // 24 / न भीः सूर्य त्वया कार्या प्रणिपातगतो ह्यसि // 8 -2655 - Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. 98.9] महाभारते [ 13. 99.12 ब्राह्मणेष्वार्जवं यच्च स्थैर्य च धरणीतले / | छत्रोपानहदानस्य फलं भरतसत्तम // 22 सौम्यतां चैव सोमस्य गाम्भीर्यं वरुणस्य च // 9 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दीप्तिमग्नेः प्रभां मेरोः प्रतापं तपनस्य च। ___ अष्टनवतितमोऽध्यायः // 98 // एतान्यतिक्रमेद्यो वै स हन्याच्छरणागतम् // 10 भवेत्स गुरुतल्पी च ब्रह्महा च तथा भवेत् / युधिष्ठिर उवाच / सुरापानं च कुर्यात्स यो हन्याच्छरणागतम् // 11 आरामाणां तडागानां यत्फलं कुरुनन्दन। एतस्य त्वपनीतस्य समाधिं तात चिन्तय। तदहं श्रोतुमिच्छामि त्वत्तोऽद्य भरतर्षभ // 1 यथा सुखगमः पन्था भवेत्त्वद्रश्मितापितः // 12 भीष्म उवाच / भीष्म उवाच / सुप्रदर्शा वनवती चित्रधातुविभूषिता / एतावदुक्त्वा स तदा तूष्णीमासीभृगूद्वहः / उपेता सर्वबीजैश्च श्रेष्ठा भूमिरिहोच्यते // 2 अथ सूर्यो ददौ तस्मै छत्रोपानहमाशु वै // 13 तस्याः क्षेत्रविशेषं च तडागानां निवेशनम् / सूर्य उवाच / . औदकानि च सर्वाणि प्रवक्ष्याम्यनुपूर्वशः // 3 महर्षे शिरसनाणं छत्रं मद्रश्मिवारणम् / तडागानां च वक्ष्यामि कृतानां चापि ये गुणाः / प्रतिगृह्णीष्व पद्भयां च त्राणार्थ चर्मपादुके // 14 त्रिषु लोकेषु सर्वत्र पूजितो यस्तडागवान् // 4 अद्यप्रभृति चैवैतल्लोके संप्रचरिष्यति। अथ वा मित्रसदनं मैत्रं मित्रविवर्धनम्। . पुण्यदानेषु सर्वेषु परमक्षय्यमेव च // 15 कीर्तिसंजननं श्रेष्ठं तडागानां निवेशनम् // 5 भीष्म उवाच / धर्मस्यार्थस्य कामस्य फलमाहुर्मनीषिणः / उपानच्छत्रमेतद्वै सूर्येणेह प्रवर्तितम् / तडागं सुकृतं देशे क्षेत्रमेव महाश्रयम् // 6 पुण्यमेतदभिख्यातं त्रिषु लोकेषु भारत // 16 चतुर्विधानां भूतातां तडागमुपलक्षयेत् / तस्मात्प्रयच्छ विप्रेभ्यश्छत्रोपानहमुत्तमम् / तडागानि च सर्वाणि दिशन्ति श्रियमुत्तमाम् // 7 धर्मस्ते सुमहान्भावी न मेऽत्रास्ति विचारणा // 17 देवा मनुष्या गन्धर्वाः पितरोरगराक्षसाः। छत्रं हि भरतश्रेष्ठ यः प्रदद्याहि जातये / स्थावराणि च भूतानि संश्रयन्ति जलाशयम् // 8 शुभ्रं शतशलाकं वै स प्रेत्य सुखमेधते // 18 तस्मात्तास्ते प्रवक्ष्यामि तडागे ये गुणाः स्मृताः। स शक्रलोके वसति पूज्यमानो द्विजातिभिः / या च तत्र फलावाप्तिर्ऋषिभिः समुदाहृता // 9 अप्सरोभिश्च सततं देवैश्च भरतर्षभ // 19 वर्षमात्रे तडागे तु सलिलं यस्य तिष्ठति / दह्यमानाय विप्राय यः प्रयच्छत्युपानहौ। अग्निहोत्रफलं तस्य फलमाहुर्मनीषिणः // 10 स्नातकाय महाबाहो संशिताय द्विजातये // 20 / शरत्काले तु सलिलं तडागे यस्य तिष्ठति / सोऽपि लोकानवाप्नोति देवतैरभिपूजितान् / गोसहस्रस्य स प्रेत्य लभते फलमुत्तमम् // 11 गोलोके स मुदा युक्तो वसति प्रेत्य भारत / / 21 हेमन्तकाले सलिलं तडागे यस्य तिष्ठति / एतत्ते भरतश्रेष्ठ मया कात्स्न्ये न कीर्तितम् / स वै बहुसुवर्णस्य यज्ञस्य लभते फलम् // 12 -2656 - Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 99. 18] अनुशासनपर्व [ 13. 100. 5 यस्य वै शैशिरे काले तडागे सलिलं भवेत्। पुष्पैः सुरगणान्वृक्षाः फलैश्चापि तथा पितॄन् / अग्निष्टोमस्य यज्ञस्य फलमाहुर्मनीषिणः // 13 छायया चातिथींस्तात पूजयन्ति महीरुहाः // 28 तडागं सुकृतं यस्य वसन्ते तु महाश्रयम् / किंनरोरगरक्षांसि देवगन्धर्वमानवाः / अतिरात्रस्य यज्ञस्य फलं स समुपाश्नुते // 14 तथा ऋषिगणाश्चैव संश्रयन्ति महीरुहाः // 29 निदाघकाले पानीयं तडागे यस्य तिष्ठति / पुष्पिताः फलवन्तश्च तर्पयन्तीह मानवान् / वाजपेयसमं तस्य फलं वै मुनयो विदुः॥ 15 वृक्षदं पुत्रवद्वृक्षास्तारयन्ति परत्र च // 30 स कुलं तारयेत्सर्व यस्य खाते जलाशये / तस्मात्तडागे वृक्षा वै रोप्याः श्रेयोर्थिना सदा / गावः पिबन्ति पानीयं साधवश्च नराः सदा // 16 पुत्रवत्परिपाल्याश्च पुत्रास्ते धर्मतः स्मृतः // 31 तडागे यस्य गावस्तु पिबन्ति तृषिता जलम् / तडागकदृक्षरोपी इष्टयज्ञश्च यो द्विजः / मृगपक्षिमनुष्याश्च सोऽश्वमेधफलं लभेत् // 17 एते स्वर्गे महीयन्ते ये चान्ये सत्यवादिनः॥ 32 यत्पिबन्ति जलं तत्र स्नायन्ते विश्रमन्ति च। तस्मात्तडागं कुर्वीत आरामांश्चैव रोपयेत् / तडागदस्य तत्सर्व प्रेत्यानन्त्याय कल्पते // 18 यजेच्च विविधैर्यज्ञैः सत्यं च सततं वदेत् // 33 दुर्लभं सलिलं तात विशेषेण परत्र वै। इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि पानीयस्य प्रदानेन प्रीतिर्भवति शाश्वती / / 19 एकोनशततमोऽध्यायः // 99 // तिलान्ददत पानीयं दीपान्ददत जाग्रत / 100 शातिभिः सह मोदध्वमेतत्प्रेतेषु दुर्लभम् // 20 युधिष्ठिर उवाच। सर्वदानैर्गुरुतरं सर्वदानैर्विशिष्यते / गार्हस्थ्यं धर्ममखिलं प्रबेहि भरतर्षभ / पानीयं नरशार्दूल तस्माद्दातव्यमेव हि // 21 ऋद्धिमाप्नोति किं कृत्वा मनुष्य इह पार्थिव // 1 एवमेतत्तडागेषु कीर्तितं फलमुत्तमम् / अत ऊर्ध्व प्रवक्ष्यामि वृक्षाणामपि रोपणे // 22 अत्र ते वर्तयिष्यामि पुरावृत्तं जनाधिप / स्थावराणां च भूतानां जातयः षट् प्रकीर्तिताः / वासुदेवस्य संवादं पृथिव्याश्चैव भारत // 2 वृक्षगुल्मलतावल्लयस्त्वक्सारास्तृणजातयः / / 23 संस्तूय पृथिवीं देवीं वासुदेवः प्रतापवान् / एता जात्यस्तु वृक्षाणां तेषां रोपे गुणास्त्विमे / पप्रच्छ भरतश्रेष्ठ यदेतत्पृच्छसेऽद्य माम् // 3 कीर्तिश्च मानुषे लोके प्रेत्य चैव फलं शुभम् // 24 लभते नाम लोके च पितृभिश्च च महीयते। वासुदेव उवाच। देवलोकगतस्यापि नाम तस्य न नश्यति // 25 गार्हस्थ्यं धर्ममाश्रित्य मया वा मद्विधेन वा / अतीतानागते चोभे पितृवंशं च भारत / किमवश्यं धरे कार्य किं वा कृत्वा सुखी भवेत् // तारयेद्वृक्षरोपी च तस्माद्वृक्षान्प्ररोपयेत् // 26 पृथिव्युवाच। तस्य पुत्रा भवन्त्येते पादपा नात्र संशयः / - ऋषयः पितरो देवा मनुष्याश्चैव माधव / परलोकगतः स्वर्ग लोकांश्चाप्नोति सोऽव्ययान् // 27 / इज्याश्चैवार्चनीयाश्च यथा चैवं निबोध मे // 5 म. भा. 333 - 2657 - भीष्म उवाच / Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 100. 6] महाभारते [13. 101.1 सदा यज्ञेन देवांश्च आतिथ्येन च मानवान् / गृहस्थः पुरुष कृष्ण शिष्टाशी च सदा भवेत् // छन्दतश्च यथानित्यमन्युिञ्जीत नित्यशः / राजविजं स्नातकं च गुरुं श्वशुरमेव च / तेन दृषिगणाः प्रीता भवन्ति मधुसूदन // 6 अर्चयेन्मधुपर्केण परिसंवत्सरोषितान् // 21 नित्यमग्निं परिचरेदभुक्त्वा बलिकर्म च। श्वभ्यश्च श्वपचेभ्यश्च वयोभ्यश्चावपेद्भुवि / कुर्यात्तथैव देवा वै प्रीयन्ते मधुसूदन // 7 वैश्वदेवं हि नामैतत्सायंप्रातर्विधीयते // 22 कुर्यादहरहः श्राद्धमन्नाद्यनोदकेन वा। एतांस्तु धर्मान्गार्हस्थान्यः कुर्यादनसूयकः / पयोमूलफलैर्वापि पितॄणां प्रीतिमाहरन् // 8 स इहर्द्धि परां प्राप्य प्रेत्य नाके महीयते // 23 सिद्धान्नाद्वैश्वदेवं वै कुर्यादग्नौ यथाविधि / भीष्म उवाच / अग्नीषोमं वैश्वदेवं धान्वन्तर्यमनन्तरम् // 9 इति भूमेर्वचः श्रुत्वा वासुदेवः प्रतापवान् / प्रजानां पतये चैव पृथग्योमो विधीयते / तथा चकार सततं त्वमप्येवं समाचर // 24 तथैव चानुपूर्येण बलिकर्म प्रयोजयेत् // 10 एवं गृहस्थधर्म त्वं चेतयानो नराधिप / दक्षिणायां यमायेह प्रतीच्यां वरुणाय च।। इहलोके यशः प्राप्य प्रेत्य स्वर्गमवाप्स्यसि / / 25 सोमाय चाप्युदीच्यां वै वास्तुमध्ये द्विजातये // 11 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि धन्वन्तरेः प्रागुदीच्यां प्राच्यां शक्राय माधव / शततमोऽध्यायः॥ 10 // मनोः इति च प्राहुबलिं द्वारे गृहस्य वै / 101 मरुद्भयो देवताभ्यश्च बलिमन्तर्गृहे हरेत् // 12 युधिष्ठिर उवाच। तथैव विश्वेदेवेभ्यो बलिमाकाशतो हरेत् / आलोकदानं नामैतत्कीदृशं भरतर्षभ। निशाचरेभ्यो भूतेभ्यो बलिं नक्तं तथा हरेत् // कथमेतत्समुत्पन्नं फलं चात्र ब्रवीहि मे // 1 एवं कृत्वा बलिं सम्यग्दद्याद्भिक्षां द्विजातये / भीष्म उवाच / अलाभे ब्राह्मणस्याग्नावप्रमुरिक्षप्य निक्षिपेत् // 14 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / यदा श्राद्धं पितृभ्यश्च दातुमिच्छेत मानवः / मनोः प्रजापतेर्वाद सुवर्णस्य च भारत // 2 तदा पश्चात्प्रकुर्वीत निवृत्ते श्राद्धकर्मणि // 15 तपस्वी कश्चिदभवत्सुवर्णो नाम नामतः / पितृसंतर्पयित्वा तु बलिं कुर्याद्विधानतः / वर्णतो हेमवर्णः स सुवर्ण इति पप्रथे / / 3 वैश्वदेवं ततः कुर्यात्पश्चाद्ब्राह्मणवाचनम् // 16 कुलशीलगुणोपेतः स्वाध्याये च परं गतः / ततोऽनेनावशेषेण भोजयेदतिथीनपि / बहून्स्ववंशप्रभवान्समतीतः स्वकैर्गुणैः // 4 अर्चापूर्व महाराज ततः प्रीणाति मानुषान् // 17 स कदाचिन्मनुं विप्रो ददर्शोपससर्प च / अनित्यं हि स्थितो यस्मात्तस्मादतिथिरुच्यते // 18 कुशलप्रश्नमन्योन्यं तौ च तत्र प्रचक्रतुः // 5 आचार्यस्य पितुश्चैव सख्युराप्तस्य चातिथेः।। ततस्तौ सिद्धसंकल्पौ मेरौ काश्चनपर्वते / इदमस्ति गृहे मह्यमिति नित्यं निवेदयेत् // 19 / रमणीये शिलापृष्ठे सहितौ संन्यषीदताम् // 6 ते यद्वदेयुस्तत्कुर्यादिति धर्मो विधीयते / तत्र तौ कथयामास्तां कथा नानाविधाश्रयाः / - 2658 - Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 101.7] अनुशासनपर्व [13. 101. 35 ब्रह्मर्षिदेवदैत्यानां पुराणानां महात्मनाम् // 7 यं यमुद्दिश्य दीयेरन्देवं सुमनसः प्रभो / सुवर्णस्त्वब्रवीद्वाक्यं मनुं स्वायंभुवं प्रभुम् / मङ्गलाथं स तेनास्य प्रीतो भवति दैत्यप // 21 हितार्थं सर्वभूतानां प्रश्नं मे वक्तुमर्हसि / / 8 ज्ञेयास्तूप्राश्च सौम्याश्च तेजस्विन्यश्च ताः पृथक् / सुमनोभिर्यदिज्यन्ते दैवतानि प्रजेश्वर / ओषध्यो बहुवीर्याश्च बहुरूपास्तथैव च // 22 किमेतत्कथमुत्पन्नं फलयोगं च शंस मे // 9 यज्ञियानां च वृक्षाणामयज्ञियान्निबोध मे। मनुरुवाच। आसुराणि च माल्यानि दैवतेभ्यो हितानि च // अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / राक्षसानां सुराणां च यक्षाणां च तथा प्रियाः। शुक्रस्य च बलेश्चैव संवादं वै समागमे // 10 पितॄणां मानुषाणां च कान्तायास्त्वनुपूर्वशः / / 24 बलेवैरोचनस्येह त्रैलोक्यमनुशासतः / वन्या ग्राम्याश्चेह तथा कृष्टोप्ताः पर्वताश्रयाः / समीपमाजगामाशु शुक्रो भृगुकुलोद्वहः // 11 अकण्टकाः कण्टकिन्यो गन्धरूपरसान्विताः॥२५ तमादिभिरभ्यर्च्य भार्गवं सोऽसुराधिपः। द्विविधो हि स्मृतो गन्ध इष्टोऽनिष्टश्च पुष्पजः / निषसादासने पश्चाद्विधिवद्भरिदक्षिणः // 12 इष्टगन्धानि देवानां पुष्पाणीति विभावयेत् // 26 कथेयमभवत्तत्र या त्वया परिकीर्तिता / अकण्टकानां वृक्षाणां श्वेतप्रायाश्च वर्णतः / सुमनोधूपदीपानां संप्रदाने फलं प्रति // 13 तेषां पुष्पाणि देवानामिष्टानि सततं प्रभो // 27 ततः पप्रच्छ दैत्येन्द्रः कवीन्द्रं प्रश्नमुत्तमम् / जलजानि च माल्यानि पद्मादीनि च यानि च / सुमनोधूपदीपानां किं फलं ब्रह्मवित्तम / गन्धर्वनागयक्षेभ्यस्तानि दद्याद्विचक्षणः // 28 प्रदानस्य द्विजश्रेष्ठ तद्भवान्वक्तुमर्हति // 14 ओषध्यो रक्तपुष्पाश्च कटुकाः कण्टकान्विताः / शुक्र उवाच। शत्रूणामभिचारार्थमथर्वसु निदर्शिताः // 29 तपः पूर्व समुत्पन्नं धर्मस्तस्मादनन्तरम् / तीक्ष्णवीर्यास्तु भूतानां दुरालम्भाः सकण्टकाः / एतस्मिन्नन्तरे चैव वीरुदोषध्य एव च // 15 रक्तभूयिष्ठवर्णाश्च कृष्णाश्चैवोपहारयेत् // 30 सोमस्यात्मा च बहुधा संभूतः पृथिवीतले / मनोहृदयनन्दिन्यो विमर्दे मधुराश्च याः / अमृतं च विषं चैव याश्चान्यास्तुल्यजातयः॥१६ चारुरूपाः सुमनसो मानुषाणां स्मृता विभो // 31 अमृतं मनसः प्रीतिं सद्यः पुष्टिं ददाति च। न तु श्मशानसंभूता न देवायतनोद्भवाः। मनो ग्लपयते तीव्र विषं गन्धेन सर्वशः / / 17 संनयेत्पुष्टियुक्तेषु विवाहेषु रहःसु च // 32 अमृतं मङ्गलं विद्धि महद्विषममङ्गलम् / गिरिसानुरुहाः सौम्या देवानामुपपादयेत् / ओषध्यो ह्यमृतं सर्वं विषं तेजोऽग्निसंभवम् / / 18 प्रोक्षिताभ्युक्षिताः सौम्या यथायोगं यथास्मृति / / मनो हादयते यस्माच्छ्रियं चापि दधाति ह। गन्धेन देवास्तुष्यन्ति दर्शनाद्यक्षराक्षसाः / तस्मात्सुमनसः प्रोक्ता नरैः सुकृतकर्मभिः // 19 / नागाः समुपभोगेन त्रिभिरेतैस्तु मानुषाः // 34 देवताभ्यः सुमनसो यो ददाति नरः शुचिः। सद्यः प्रीणाति देवान्वै ते प्रीता भावयन्त्युत / तस्मात्सुमनसः प्रोक्ता यस्मात्तुष्यन्ति देवताः // 20 / संकल्पसिद्धा मानामीप्सितैश्च मनोरथैः // 35 - 2659 - Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 101. 36] महाभारते [13. 101. 65 देवाः प्रीणन्ति सततं मानिता मानयन्ति च। हविषा प्रथमः कल्पो द्वितीयस्त्वौषधीरसैः। अवज्ञातावधूताश्च निर्दहन्त्यधमान्नरान् // 36 वसामेदोस्थिनिर्यासैन कार्यः पुष्टिमिच्छता / / 51 अतऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि धूपदानविधौ फलम् / / गिरिप्रपाते गहने चैत्यस्थाने चतुष्पथे। धूपांश्च विविधान्साधूनसाधूंश्च निबोध मे // 37 दीपदाता भवेन्नित्यं य इच्छेद्भूतिमात्मनः // 52 निर्यासः सरलश्चैव कृत्रिमश्चैव ते त्रयः / कुलोहयोतो विशुद्धात्मा प्रकाशत्वं च गच्छति / इष्टानिष्टो भवेद्गन्धस्तन्मे विस्तरतः शृणु // 38 ज्योतिषां चैव सालोक्यं दीपदाता नरः सदा // 53 निर्यासाः सल्लकीवा देवानां दयितास्तु ते / बलिकर्मसु वक्ष्यामि गुणान्कर्मफलोदयान् / गुग्गुलुः प्रवरस्तेषां सर्वेषामिति निश्चयः // 39 देवयक्षोरगनृणां भूतानामथ रक्षसाम् / / 54 . अगुरुः सारिणां श्रेष्ठो यक्षराक्षसभोगिनाम् / येषां नाप्रभुजो विप्रा देवतातिथिबालकाः / दैत्यानां सल्लकीजश्व काशितो यश्च तद्विधः // 40 राक्षसानेव तान्विद्धि निर्वषट्कारमङ्गलान् // 55 अथ सर्जरसादीनां गन्धैः पार्थिवदारवैः / फाणितासवसंयुक्तैर्मनुष्याणां विधीयते // 41 तस्मादग्रं प्रयच्छेत देवेभ्यः प्रतिपूजितम् / देवदानवभूतानां सद्यस्तुष्टिकरः स्मृतः / शिरसा प्रणतश्चापि हरेद्वलिमतन्द्रितः // 56 येऽन्ये वैहारिकारते तु मानुषाणामिति स्मृताः // गृह्या हि देवता नित्यमाशंसन्ति गृहात्सदा। य एवोक्ताः सुमनसां प्रदाने गुणहेतवः / / बाह्याश्चागन्तवो येऽन्ये यक्षराक्षसपन्नगाः // 57 धूपेष्वपि परिज्ञेयास्त एव प्रीतिवर्धनाः / / 43 इतो दत्तेन जीवन्ति देवताः पितरस्तथा। दीपदाने प्रवक्ष्यामि फलयोगमनुत्तमम् / ते प्रीताः प्रीणयन्त्येतानायुषा यशसा धनैः // 58 यथा येन यदा चैव प्रदेया यादृशाश्च ते // 44 बलयः सह पुष्पैस्तु देवानामुपहारयेत् / ज्योतिस्तेजः प्रकाशश्चाप्यूर्ध्वगं चापि वर्ण्यते। दधिद्रप्सयुताः पुण्याः सुगन्धाः प्रियदर्शनाः // 59 प्रदानं तेजसां तस्मात्तेजो वर्धयते नृणाम् / / 45 कार्या रुधिरमांसाढ्या बलयो यक्षरक्षसाम् / अन्धं तमस्तमिस्रं च दक्षिणायनमेव च / सुरासवपुरस्कारा लाजोल्लेपनभूषिताः // 60 उत्तरायणमेतस्माज्योतिर्दानं प्रशस्यते // 46 नागानां दयिता नित्यं पद्मोत्पलविमिश्रिताः / यस्मादूर्ध्वगमेतत्तु तमसश्चैव भेषजम् / तिलान्गुडसुसंपन्नान्भूतानामुपहारयेत् // 61 तस्मादूर्ध्वगतेर्दाता भवेदिति विनिश्चयः // 47 अग्रदाताग्रभोगी स्वादलवर्णसमन्वितः / देवास्तेजस्विनो यस्मात्प्रभावन्तः प्रकाशकाः / तस्मादग्रं प्रयच्छेत देवेभ्यः प्रतिपूजितम् // 62 तामसा राक्षसाश्चेति तस्माद्दीपः प्रदीयते // 48 ज्वलत्यहरतो वेश्म याश्चास्य गृहदेवताः / आलोकदानाच्चक्षुष्मान्प्रभायुक्तो भवेन्नरः। ताः पूज्या भूतिकामेन प्रसृताग्रप्रदायिना // 63 तान्दत्त्वा नोपहिंसेत न हरेनोपनाशयेत् // 49 इत्येतदसुरेन्द्राय काव्यः प्रोवाच भार्गवः / दीपहर्ता भवेदन्ध स्तमोगतिरसुप्रभः / सुवर्णाय मनुः प्राह सुवर्णो नारदाय च // 64 दीपप्रदः स्वर्गलोके दीपमाली विराजते / / 50 / नारदोऽपि मयि प्राह गुणानेतान्महाद्युते / -2660 - Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 101. 65] अनुशासनपर्व [13. 102. 26 त्वमप्येतद्विदित्वेह सर्वमाचर पुत्रक // 65 अथ पर्यायश ऋषीन्वाहनायोपचक्रमे / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि पर्यायश्चाप्यगस्त्यस्य समपद्यत भारत // 13 एकोत्तरशततमोऽध्यायः॥ 101 // अथागम्य महातेजा भृगुब्रह्मविदां वरः / 102 अगस्त्यमाश्रमस्थं वै समुपेत्येदमब्रवीत् // 14 युधिष्ठिर उवाच / एवं वयमसत्कारं देवेन्द्रस्यास्य दुर्मतेः / श्रुतं मे भरतश्रेष्ठ पुष्पधूपप्रदायिनाम् / नहुषस्य किमर्थं वै मर्षयाम महामुने // 15 फलं बलिविधाने च तद्भूयो वक्तुमर्हसि / 1 अगस्त्य उवाच / धूपप्रदानस्य फलं प्रदीपस्य तथैव च / कथमेष मया शक्यः शप्तुं यस्य महामुने / बलयश्च किमर्थं वै क्षिप्यन्ते गृहमेधिभिः // 2 वरदेन वरो दत्तो भवतो विदितश्च सः // 16 भीष्म उवाच / यो मे दृष्टिपथं गच्छेत्स मे वश्यो भवेदिति / भत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / इत्यनेन वरो देवाद्याचितो गच्छता दिवम् // 17 नहुषं प्रति संवादमगस्त्यस्य भृगोस्तथा // 3 एवं न दग्धः स मया भवता च न संशयः / नहुषो हि महाराज राजर्षिः सुमहातपाः / अन्येनाप्यषिमुख्येन न शप्तो न च पातितः // 18 देवराज्यमनुप्राप्तः सुकृतेनेह कर्मणा // 4 अमृतं चैव पानाय दत्तमस्मै पुरा विभो / तत्रापि प्रयतो राजन्नहुषत्रिदिवे वसन् / महात्मने तदर्थं च नास्माभिर्विनिपात्यते // 19 मानुषीश्चैव दिव्याश्च कुर्वाणो विविधाः क्रियाः // 5 प्रायच्छत वरं देवः प्रजानां दुःखकारकम् / मानुष्यस्तत्र सर्वाः स्म क्रियास्तस्य महात्मनः / द्विजेष्वधर्मयुक्तानि स करोति नराधमः / / 20 प्रवृत्तास्रिदिवे राजन्दिव्याश्चैव सनातनाः॥६ अत्र यत्प्राप्तकालं नस्तद्भहि वदतां वर / अग्निकार्याणि समिधः कुशाः सुमनसस्तथा / भवांश्चापि यथा ब्रूयात्कुर्वीमहि तथा वयम् // 21 बलयश्चान्नलाजाभिधूपनं दीपकर्म च // 7 भृगुरुवाच। सर्व तस्य गृहे राज्ञः प्रावर्तत महात्मनः / पितामहनियोगेन भवन्तमहमागतः / जपयज्ञान्मनोयज्ञांस्त्रिदिवेऽपि चकार सः॥ 8 प्रतिकर्तुं वलवति नहुषे दर्पमास्थिते // 22 दैवतान्यर्चयंश्चापि विधिवत्स सुरेश्वरः / अद्य हि त्वा सुदुर्बुद्धी रथे योक्ष्यति देवराट् / सर्वाण्येव यथान्यायं यथापूर्वमरिंदम // 9 / अद्यैनमहमुद्वृत्तं करिष्येऽनिन्द्रमोजसा // 23 अथेन्द्रस्य भविष्यत्वादहंकारस्तमाविशत् / अद्येन्द्र स्थापयिष्यामि पश्यतस्ते शतक्रतुम् / सर्वाश्चैव क्रियास्तस्य पर्यहीयन्त भूपते // 10 संचाल्य पापकर्माणमिन्द्रस्थानात्सुदुर्मतिम् // 24 स ऋषीन्वायामास वरदानमदान्वितः / अद्य चासौ कुदेवेन्द्रस्त्वां पदा धर्षयिष्यति / परिहीन क्रियश्चापि दुर्बलत्वमुपेयिवान् // 11 दैवोपहतचित्तत्वादात्मनाशाय मन्दधीः // 25 तस्य वाहयतः कालो मुनिमुख्यास्तपोधनान् / व्युत्क्रान्तधर्म तमहं धर्षणामर्षितो भृशम् / , अहंकाराभिभूतस्य सुमहानत्यवर्तत // 12 अहिर्भवस्वेति रुषा शप्स्ये पापं द्विजद्रुहम् // 26 -2661 - Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 102. 27 ] महाभारते [ 13. 103.22 तत एनं सुदुर्बुद्धिं धिक्शब्दाभिहतत्विषम् / इत्येतां बुद्धिमास्थाय नहुषः स नरेश्वरः / धरण्यां पातयिष्यामि प्रेक्षतस्ते महामुने // 27 सुरेन्द्रत्वं महत्प्राप्य कृतवानेतदद्भुतम् // 9 नहुषं पापकर्माणमैश्वर्यबलमोहितम् / कस्यचित्त्वथ कालस्य भाग्यक्षय उपस्थिते / यथा च रोचते तुभ्यं तथा कर्तास्म्यहं मुने // 28 सर्वमेतदवज्ञाय न चकारतदीदृशम् // 10 एवमुक्तस्तु भृगुणा मैत्रावरुणिरव्ययः / ततः स परिहीणोऽभूत्सुरेन्द्रो बलिकर्मतः / अगस्त्यः परमप्रीतो बभूव विगतज्वरः॥ 29 धूपदीपोदकविधिं न यथावच्चकार ह / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि ततोऽस्य यज्ञविषयो रक्षोभिः पर्यबाध्यत // 11 द्वयधिकशततमोऽध्यायः // 102 // अथागस्त्यमृषिश्रेष्ठं वाहनायाजुहाव ह। द्रुतं सरस्वतीकूलात्स्मयन्निव महाबलः // 12 युधिष्ठिर उवाच / ततो भृगुर्महातेजा मैत्रावरुणिमब्रवीत् / / ' कथं स वै विपन्नश्च कथं वै पातितो भुवि / निमीलयस्व नयने जटा यावद्विशामि ते // 13 कथं चानिन्द्रतां प्राप्तस्तद्भवान्वक्तुमर्हति // 1 स्थाणुभूतस्य तस्याथ जटाः प्राविशदच्युतः / भीष्म उवाच / भृगुः स सुमहातेजाः पातनाय नृपस्य ह // 14 एवं तयोः संवदतोः क्रियास्तस्य महात्मनः / ततः स देवराट प्राप्तस्तमृर्षि वाहनाय वै। सर्वा एवाभ्यवर्तन्त या दिव्या याश्च मानुषाः // 2 ततोऽगस्त्यः सुरपतिं वाक्यमाह विशां पते // 15 तथैव दीपदानानि सर्वोपकरणानि च / योजयस्वेन्द्र मां क्षिप्रं कं च देशं वहामि ते। बलिकर्म च यच्चान्यदुत्सेकाश्च पृथग्विधाः / यत्र वक्ष्यसि तत्र त्वां नयिष्यामि सुराधिप // 16 सर्वास्तस्य समुत्पन्ना देवराज्ञो महात्मनः // 3 इत्युक्तो नहुषस्तेन योजयामास तं मुनिम् / देवलोके नृलोके च सदाचारा बुधैः स्मृताः। भृगुस्तस्य जटासंस्थो बभूव हृषितो भृशम् // 15 ते चेद्भवन्ति राजेन्द्र ऋध्यन्ते गृहमेधिनः / न चापि दर्शनं तस्य चकार स भृगुस्तदा / धूपप्रदानैर्दीपैश्च नमस्कारैस्तथैव च // 4 वरदानप्रभावज्ञो नहुषस्य महात्मनः // 18 यथा सिद्धस्य चान्नस्य द्विजाया प्रदीयते / न चुकोप स चागस्त्यो युक्तोऽपि नहुषेण वै / बलयश्च गृहोद्देशे अतः प्रीयन्ति देवताः // 5 तं तु राजा प्रतोदेन चोदयामास भारत // 19 यथा च गृहिणस्तोषो भवेद्वै बलिकर्मणा / न चुकोप स धर्मात्मा ततः पादेन देवराट् / तथा शतगुणा प्रीतिर्देवतानां स्म जायते / / 6 अगस्त्यस्य तदा क्रुद्धो वामेनाभ्यहनच्छिरः // 20 एवं धूपप्रदानं च दीपदानं च साधवः। तस्मिशिरस्यभिहते स जटान्तर्गतो भृगुः / प्रशंसन्ति नमस्कारैर्युक्तमात्मगुणावहम् // 7 शशाप बलवत्क्रुद्धो नहुषं पापचेतसम् / / 21 स्नानेनाद्भिश्च यत्कर्म क्रियते वै विपश्चिता। भृगुरुवाच / नमस्कार प्रयुक्तेन तेन प्रीयन्ति देवताः / यस्मात्पदाहनः क्रोधाच्छिरसीमं महामुनिम् / गृह्याश्च देवताः सर्वाः प्रीयन्ते विधिनार्चिताः।। 8 / तस्मादाशु महीं गच्छ सर्पो भूत्वा सुदुर्मते // 22 -2662 - Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 103. 23 ] अनुशासनपर्व [13. 104. 10 इत्युक्तः स तदा तेन सर्पो भूत्वा पपात ह। दिव्यं चक्षुरवाप्नोति प्रेत्य दीपप्रदायकः / अदृष्टेनाथ भृगुणा भूतले भरतर्षभ // 23 पूर्णचन्द्रप्रतीकाशा दीपदाश्च भवन्त्युत // 36 भृगुं हि यदि सोऽद्राक्षीन्नहुषः पृथिवीपते / यावदक्षिनिमेषाणि ज्वलते तावतीः समाः / न स शक्तोऽभविष्यद्वै पातने तस्य तेजसा // 24 रूपवान्धनवांश्चापि नरो भवति दीपदः // 37 स तु तैस्तैः प्रदानैश्च तपोभिर्नियमैस्तथा। इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि पतितोऽपि महाराज भूतले स्मृतिमानभूत् / / ध्यधिकशततमोऽध्यायः // 103 // प्रसादयामास भृगुं शापान्तो मे भवेदिति // 25 104 ततोऽगस्त्यः कृपाविष्टः प्रासादयत तं भृगुम् / युधिष्ठिर उवाच / शापान्तार्थ महाराज स च प्रादात्कृपान्वितः // 26 ब्राह्मणस्वानि ये मन्दा हरन्ति भरतर्षभ / भृगुरुवाच / नृशंसकारिणो मूढाः क ते गच्छन्ति मानवाः // 1 राजा युधिष्ठिरो नाम भविष्यति कुरूद्वहः / भीष्म उवाच / स त्वां मोक्षयिता शापादित्युक्त्वान्तरधीयत // 27 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / अगस्त्योऽपि महातेजाः कृत्वा कार्य शतक्रतोः।। चण्डालस्य च संवादं क्षत्रबन्धोश्च भारत // 2 खमाश्रमपदं प्रायात्पूज्यमानो द्विजातिभिः / / 28 राजन्य उवाच / नहुषोऽपि त्वया राजस्तस्माच्छापात्समुद्धृतः / वृद्धरूपोऽसि चण्डाल बालवच्च विचेष्टसे / जगाम ब्रह्मसदनं पश्यतस्ते जनाधिप // 29 श्वखराणां रजःसेवी कस्मादुद्विजसे गवाम् // 3 तदा तु पातयित्वा तं नहुषं भूतले भृगुः / साधुभिर्गर्हितं कर्म चण्डालस्य विधीयते / जगाम ब्रह्मसदनं ब्रह्मणे च न्यवेदयत् / / 30 कस्माद्गोरजसा ध्वस्तमपां कुण्डे निषिश्चसि // 4 तत शक्रं समानाय्य देवानाह पितामहः / चण्डाल उवाच / वरदानान्मम सुरा नहुषो राज्यमाप्तवान् / ब्राह्मणस्य गवां राजन्हियतीनां रजः पुरा / स चागस्त्येन क्रुद्धेन भ्रंशितो भूतलं गतः / / 31 / सोममुद्धसयामास तं सोमं येऽपिबन्द्विजाः // 5 न च शक्यं विना राज्ञा सुरा वर्तयितुं कचित् / दीक्षितश्च स राजापि क्षिप्रं नरकमाविशत् / तस्मादयं पुनः शक्रो देवराज्येऽभिषिच्यताम् // 32 सह तैर्याजकैः सर्वैर्ब्रह्मस्वमुपजीव्य तत् // 6 एवं संभाषमाणं तु देवाः पार्थ पितामहम् / येऽपि तत्रापिबन्क्षीरं घृतं दधि च मानवाः / एवमस्त्विति संहृष्टाः प्रत्यूचुस्ते पितामहम् // 33 ब्राह्मणाः सहराजन्याः सर्वे नरकमाविशन् // 7 सोऽभिषिक्तो भगवता देवराज्येन वासवः / जघ्नुस्ताः पयसा पुत्रांस्तथा पौत्रान्विधुन्वतीः / ब्रह्मणा राजशार्दूल यथापूर्व व्यरोचत // 34 पशूनवेक्षमाणाश्च साधुवृत्तेन दंपती // 8 एवमेतत्पुरावृत्तं नहुषस्य व्यतिक्रमात् / अहं तत्रावसं राजन्ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः / स च तैरेव संसिद्धो नहुषः कर्मभिः पुनः // 35 / तासां मे रजसा ध्वस्तं भैक्षमासीन्नराधिप // 9 तस्माद्दीपाः प्रदातव्याः सायं वै गृहमेधिभिः। चण्डालोऽहं ततो राजन्भुक्त्वा तदभवं मृतः / -2663 - Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. 104. 10 ] महाभारते [ 13. 105.1 ब्रह्मस्वहारी च नृपः सोऽप्रतिष्ठां गतिं ययौ // 10 / त्वमिमं मे प्रपन्नाय संशयं हि पृच्छते। तस्माद्धरेन्न विप्रस्वं कदाचिदपि किंचन / चण्डालत्वात्कथमहं मुच्येयमिति सत्तम // 25 ब्रह्मस्वरजसा ध्वस्तं भुक्त्वा मां पश्य यादृशम्॥११ राजन्य उवाच / तस्मात्सोमोऽप्यविक्रेयः पुरुषेण विपश्चिता / चण्डाल प्रतिजानीहि येन मोक्षमवाप्स्यसि / विक्रयं हीह सोमस्य गर्हयन्ति मनीषिणः // 12 ब्राह्मणार्थे त्यजन्प्राणान्गतिमिष्टामवाप्स्यसि // 26 ये चैनं क्रीणते राजन्ये च विक्रीणते जनाः / दत्त्वा शरीरं क्रव्याद्भयो रणानौ द्विजहेतुकम् / ते तु वैवस्वतं प्राप्य रौरवं यान्ति सर्वशः // 13 हुत्वा प्राणान्प्रमोक्षस्ते नान्यथा मोक्षमर्हसि // 27 सोमं तु रजसा ध्वस्तं विक्रीयाद्बुद्धिपूर्वकम् / भीष्म उवाच / श्रोत्रियो वाधुषी भूत्वा चिररात्राय नश्यति / इत्युक्तः स तदा राजन्ब्रह्मस्वार्थ परंतप / नरकं त्रिंशतं प्राप्य श्वविष्ठामुपजीवति // 14 हुत्वा रणमुखे प्राणान्गतिमिष्टामवाप ह // 28 श्वचर्यामतिमानं च सखिदारेषु विप्लवम् / तस्माद्रक्ष्यं त्वया पुत्र ब्रह्मस्वं भरतर्षभ / तुलयाधारयद्धर्मो ह्यतिमानोऽतिरिच्यते // 15 यदीच्छसि महाबाहो शाश्वतीं गतिमुत्तमाम् / / 29 श्वानं वै पापिनं पश्य विवणं हरिणं कृशम् / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि अतिमानेन भूतानामिमां गतिमुपागतम् // 16 चतुरधिकशततमोऽध्यायः // 104 // अहं वै विपुले जातः कुले धनसमन्विते / अन्यस्मिञ्जन्मनि विभो ज्ञानविज्ञानपारगः // 17 युधिष्ठिर उवाच / अभवं तत्र जानानो ह्येतान्दोषान्मदात्तदा / एको लोकः सुकृतिनां सर्वे त्वाहो पितामह / संरब्ध एव भूतानां पृष्ठमांसान्यभक्षयम् // 18 उत तत्रापि नानात्वं तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 . सोऽहं तेन च वृत्तेन भोजनेन च तेन वै / भीष्म उवाच / इमामवस्थां संप्राप्तः पश्य कालस्य पर्ययम् / / 19 कर्मभिः पार्थ नानात्वं लोकानां यान्ति मानवाः / आदीप्तमिव चैलान्तं भ्रमरैरिव चार्दितम् / पुण्यान्पुण्यकृतो यान्ति पापान्पापकृतो जनाः // 2 धावमानं सुसंरब्धं पश्य मां रजसान्वितम् // 20 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / स्वाध्यायैस्तु महत्पापं तरन्ति गृहमेधिनः / गौतमस्य मुनेस्तात संवादं वासवस्य च // 3 दानैः पृथग्विधैश्चापि यथा प्राहुर्मनीषिणः / / 21 ब्राह्मणो गौतमः कश्चिन्मृदुर्दान्तो जितेन्द्रियः / तथा पापकृतं विप्रमाश्रमस्थं महीपते। महावने हस्तिशिशु परिघुनममातृकम् // 4 सर्वसङ्गविनिर्मुक्तं छन्दांस्युत्तारयन्त्युत / / 22 / तं दृष्ट्वा जीवयामास सानुक्रोशो धृतव्रतः / अहं तु पापयोन्यां वै प्रसूतः क्षत्रियर्षभ / स तु दीर्पण कालेन बभूवातिबलो महान् // 5 निश्चयं नाधिगच्छामि कथं मुच्येयमित्युत // 23 / तं प्रभिन्नं महानागं प्रस्रुतं सर्वतो मदम् / जातिस्मरत्वं तु मम केनचित्पूर्वकर्मणा। धृतराष्ट्रस्य रूपेण शक्रो जग्राह हस्तिनम् // 6 शुभेन येन मोक्षं वै प्राप्तुमिच्छाम्यहं नृप // 24 / ह्रियमाणं तु तं दृष्ट्वा गौतमः संशितव्रतः / -2664 - Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 105.7 ] अनुशासनपर्व [13. 105. 20 अभ्यभाषत राजानं धृतराष्ट्रं महातपाः // 7 धृतराष्ट्र उवाच / मा मे हार्षीहस्तिनं पुत्रमेनं ये निष्क्रिया नास्तिका श्रद्दधानाः दुःखात्पुष्टं धृतराष्ट्राकृतज्ञ / ___ पापात्मान इन्द्रियार्थे निविष्टाः / मित्रं सतां सप्तपदं वदन्ति यमस्य ते यातनां प्राप्नुवन्ति मित्रद्रोहो नैव राजन्स्पृशेत्त्वाम् // 8 परं गन्ता धृतराष्ट्रो न तत्र // 15 इध्मोदकप्रदातारं शून्यपालकमाश्रमे / गौतम उवाच। विनीतमाचार्यकुले सुयुक्तं गुरुकर्मणि // 9 . वैवस्वती संयमनी जनानां शिष्टं दान्तं कृतज्ञं च प्रियं च सततं मम / यत्रानृतं नोच्यते यत्र सत्यम् / / न मे विक्रोशतो राजन्हर्तुमर्हसि कुञ्जरम् / / 10 यत्राबला बलिनं यातयन्ति धृतराष्ट्र उवाच / तत्र त्वाहं हस्तिनं यातयिष्ये // 16 गवां सहस्रं भवते ददामि धृतराष्ट्र उवाच / दासीशतं निष्कशतानि पञ्च / ज्येष्ठां स्वसारं पितरं मातरं च अन्यच्च वित्तं विविधं महर्षे गुरुं यथा मानयन्तश्चरन्ति / किं ब्राह्मणस्येह गजेन कृत्यम् // 11 तथाविधानामेष लोको महर्षे गौतम उवाच / परं गन्ता धृतराष्ट्रो न तत्र // 17 त्वामेव गावोऽभि भवन्तु राज - गौतम उवाच / न्दास्यः सनिष्का विविधं च रत्नम् / मन्दाकिनी वैश्रवणस्य राज्ञो अन्यच्च वित्तं विविधं नरेन्द्र __ महाभोगा भोगिजनप्रवेश्या। __किं ब्राह्मणस्येह धनेन कृत्यम् // 12 गन्धर्वयक्षैरप्सरोभिश्च जुष्टा धृतराष्ट्र उवाच। तत्र त्वाहं हस्तिनं यातयिष्ये // 18 ब्राह्मणानां हस्तिभिर्नास्ति कृत्यं धृतराष्ट्र उवाच / राजन्यानां नागकुलानि विप्र / अतिथिव्रताः सुव्रता ये जनावै खं वाहनं नयतो नास्त्यधर्मो प्रतिश्रयं ददति ब्राह्मणेभ्यः। नागश्रेष्ठागौतमास्मान्निवर्त / / 13 शिष्टाशिनः संविभज्याश्रितांश्च गौतम उवाच। मन्दाकिनी तेऽपि विभूषयन्ति // 19 यत्र प्रेतो नन्दति पुण्यकर्मा गौतम उवाच। यत्र प्रेतः शोचति पापकर्मा। मेरोरग्रे यद्वनं भाति रम्यं वैवस्वतस्य सदने महात्मन सुपुष्पितं किंनरगीतजुष्टम् / स्तत्र त्वाहं हस्तिनं यातयिष्ये // 14 / सुदर्शना यत्र जम्बूविशाला .भा. 4 -2665 - Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 105. 20 ] महाभारते [ 13. 105. 38 ___ तत्र त्वाहं हस्तिनं यातयिष्ये // 20 धृतराष्ट्र उवाच / धृतराष्ट्र उवाच / ये सर्वभूतेषु निवृत्तकामा ये ब्राह्मणा मृदवः सत्यशीला ___ अमांसादा न्यस्तदण्डाश्चरन्ति / बहुश्रुताः सर्वभूताभिरामाः। न हिंसन्ति स्थावरं जगमं घ येऽधीयन्ते सेतिहासं पुराणं ___ भूतानां ये सर्वभूतात्मभूताः // 27 मध्वाहुत्या जुह्वति च द्विजेभ्यः // 21 निराशिषो निर्ममा वीतरागा तथाविधानामेष लोको महर्षे ___ लाभालाभे तुल्यनिन्दाप्रशंसाः।। ___ परं गन्ता धृतराष्ट्रो न तत्र / तथाविधानामेष लोको महर्षे यद्विद्यते विदितं स्थानमस्ति परं गन्ता धृतराष्ट्रो न तत्र // 28 तहि त्वं त्वरितो ह्येष यामि // 22 गौतम उवाच। गौतम उवाच। ततः परं भान्ति लोकाः सनातनाः सुपुष्पितं किंनरराजजुष्टं _ प्रियं वनं नन्दनं नारदस्य / ___ सुपुण्यगन्धा निर्मला वीतशोकाः / गन्धर्वाणामप्सरसां च सन सोमस्य राज्ञः सदने महात्मन स्तत्र त्वाहं हस्तिनं यातयिष्ये // 29 तत्र त्वाहं हस्तिनं यातयिष्ये // 23 धृतराष्ट्र उवाच / धृतराष्ट्र उवाच / ये नृत्तगीतकुशला जनाः सदा ये दानशीला न प्रतिगृहते सदा ह्ययाचमानाः सहिताश्वरन्ति / __न चाप्यर्थानाददते परेभ्यः / तथाविधानामेष लोको महर्षे येषामदेयमईते नास्ति किंचिपरं गन्ता धृतराष्ट्रो न तत्र // 24 त्सर्वातिथ्याः सुप्रसादा जनाश्च // 30 गौतम उवाच / ये क्षन्तारो नाभिजल्पन्ति चान्यायत्रोत्तराः कुरवो भान्ति रम्या . व्शक्ता भूत्वा सततं पुण्यशीलाः / ___ देवैः साधं मोदमाना नरेन्द्र। तथाविधानामेष लोको महर्षे यत्राग्मियौनाश्च वसन्ति विप्रा परं गन्ता धृतराष्ट्रो न तत्र // 31 ह्ययोनयः पर्वतयोनयश्च // 25 गौतम उवाच / यत्र शक्रो वर्षति सर्वकामा ततः परं भान्ति लोकाः सनातना न्यत्र स्त्रियः कामचाराश्चरन्ति / विरजसो वितमस्का विशोकाः / यत्र चेा नास्ति नारीनराणां आदित्यस्य सुमहान्तः सुवृत्तातत्र त्वाहं हस्तिनं यातयिष्ये // 26 स्तत्र त्वाहं हस्तिनं यातयिष्ये // 32 - 2666 - Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 105. 33 ] अनुशासनपर्व [ 13. 105. 45 'धृतराष्ट्र उवाच। वेदाध्यायी यश्च यज्वाप्रमत्तः / स्वाध्यायशीला गुरुशुश्रूषणे रता एते सर्वे शक्रलोकं व्रजन्ति स्तपस्विनः सुव्रताः सत्यसंधाः / परं गन्ता धृतराष्ट्रो न तत्र // 39 आचार्याणामप्रतिकूलभाषिणो गौतम उवाच। नित्योत्थिता गुरुकर्मस्वचोद्याः // 3 // प्राजापत्याः सन्ति लोका महान्तो तथाविधानामेष लोको महर्षे नाकस्य पृष्ठे पुष्कला वीतशोकाः / विशुद्धानां भावितवाङ्मतीनाम् / मनीषिताः सर्वलोकोद्भवानां सत्ये स्थितानां वेदविदां महात्मनां तत्र त्वाहं हस्तिनं यातयिष्ये // 40 परं गन्ता धृतराष्ट्रो न तत्र // 34 धृतराष्ट्र उवाच / गौतम उवाच / ये राजानो राजसूयाभिषिका ततः परे भान्ति लोकाः सनातनाः धर्मात्मानो रक्षितारः प्रजानाम् / __सुपुण्यगन्धा विरजा विशोकाः / ये चाश्वमेधावभृथाप्लुतानावरुणस्य राज्ञः सदने महात्मन- . स्तेषां लोका धृतराष्ट्रो न तत्र / / 41 : स्तत्र त्वाहं हस्तिनं यातयिष्ये // 35 गौतम उवाच। धृतराष्ट्र उवाच / ततः परं भान्ति लोकाः सनातनाः चातुर्मास्यैर्ये यजन्ते जनाः सदा सुपुण्यगन्धा विरजा वीतशोकाः / तथेष्टीनां दशशतं प्राप्नुवन्ति / तस्मिन्नहं दुर्लभे त्वाप्रधृष्ये ये चाग्निहोत्रं जुह्वति श्रद्दधाना गवां लोके हस्तिनं यातयिष्ये // 42 . यथान्यायं त्रीणि वर्षाणि विप्राः // 36 धृतराष्ट्र उवाच / स्वदारिणां धर्मधुरे महात्मनां यो गोसहस्री शतदः समां समां यथोचिते वर्त्मनि सुस्थितानाम् / / यो गोशती दश दद्याच्च शक्त्या। धर्मात्मनामुद्वहतां गतिं तां तथा दशभ्यो यश्च दद्यादिहेकां __ परं गन्ता धृतराष्ट्रो न तत्र // 37 ___पञ्चभ्यो वा दानशीलस्तथैकाम् // 43 गौतम उवाच / ये जीर्यन्ते ब्रह्मचर्येण विप्रा इन्द्रस्य लोका विरजा विशोका ब्राह्मी वाचं परिरक्षन्ति चैव / / दुरन्वयाः काविता मानवानाम् / मनस्विनस्तीर्थयात्रापरायणातस्याहं ते भवने भूरितेजसो स्ते तत्र मोदन्ति गवां विमाने // 44 राजन्निमं हस्तिनं यातयिष्ये // 38 प्रभासं मानसं पुण्यं पुष्कराणि महत्सरः / शतवर्षजीवी यश्च शूरो मनुष्यो पुण्यं च नैमिषं तीर्थ बाहुदां करतोयिनीम् // 45 -2667 - Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 105. 46] महाभारते [13. 105.62 गयां गयशिरश्चैव विपाशां स्थूलवालुकाम् / मन्वागमं पदवादे गजस्य तूष्णींगङ्गां दशगङ्गां महाद्वदमथापि च // 46 तस्माद्भवान्प्रणतं मानुशास्तु गौतमी कौशिकी पाका महात्मानो धृतव्रताः / ब्रवीषि यत्तत्करवाणि सर्वम् // 56 सरस्वतीदृषद्वत्यौ यमुनां ये प्रयान्ति च / / 47 गौतम उवाच / तत्र ते दिव्यसंस्थाना दिव्यमाल्यधराः शिवाः / श्वेतं करेणुं मम पुत्रनागं प्रयान्ति. पुण्यगन्धाढ्या धृतराष्ट्रो न तत्र वै // 48 ___ यं मेऽहार्दिशवर्षाणि बालम् / . गौतम उवाच / यो मे वने वसतोऽभूहितीययत्र शीतभयं नास्ति न चोष्णभयमण्वपि / स्तमेव मे देहि सुरेन्द्र नागम् / / 57 न क्षुत्पिपासे न ग्लानिन दुःखं न सुखं तथा / शक्र उवाच / न द्वेष्यो न प्रियः कश्चिन्न बन्धुन रिपुस्तथा। अयं सुतस्ते द्विजमुख्य नाग- .. न जरामरणे वापि न पुण्यं न च पातकम् // 50 श्वाघ्रायते त्वामभिवीक्षमाणः / तस्मिन्विरजसि रफीते प्रज्ञासत्त्वव्यवस्थिते / / पादौ च ते नासिकयोपजिघ्रते स्वयंभुभवने पुण्ये हस्तिनं मे यतिष्यति // 51 ___ श्रेयो मम ध्याहि नमश्च तेऽस्तु / / 58 गौतम उवाच। धृतराष्ट्र उवाच / शिवं सदैवेह सुरेन्द्र तुभ्यं निर्मुक्ताः सर्वसङ्गेभ्यो कृतात्मानो यतव्रताः। ध्यायामि पूजां च सदा प्रयुञ्ज / अध्यात्मयोगसंस्थाने युक्ताः स्वर्गगतिं गताः // 52 ममापि त्वं शक्र शिवं ददस्व ते ब्रह्मभवनं पुण्यं प्राप्नुवन्तीह सात्त्विकाः / त्वया दत्तं प्रतिगृह्णामि नागम् // 59 न तत्र धृतराष्ट्रस्ते शक्यो द्रष्टुं महामुने // 53 शक्र उवाच / गौतम उवाच। येषां वेदा निहिता वै गुहायां रथन्तरं यत्र बृहच्च गीयते * मनीषिणां सत्त्ववतां महात्मनाम् / यत्र वेदी पुण्डरीकैः स्तृणोति / तेषां त्वयैकेन महात्मनास्मि यत्रोपयाति हरिभिः सोमपीथी बुद्धस्तस्मात्प्रीतिमांस्तेऽहमद्य // 60 तत्र त्वाहं हस्तिनं यातयिष्ये // 54 हन्तैहि ब्राह्मण क्षिप्रं सह पुत्रेण हस्तिना / बुध्यामि त्वां वृत्रहणं शतक्रतुं प्राप्नुहि त्वं शुभाल्लोकानहाय च चिराय च // 61 व्यतिक्रमन्तं भुवनानि विश्वा / भीष्म उवाच / कच्चिन्न वाचा वृजिनं कदाचि स गौतमं पुरस्कृत्य सह पुत्रेण हस्तिना / दकार्ष ते मनसोऽभिषङ्गात् // 55 दिवमाचक्रमे वज्री सद्भिः सह दुरासदम् // 62 शक्र उवाच / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि यस्मादिमं लोकपथं प्रजाना पञ्चाधिकशततमोऽध्यायः // 105 // - 2668 - Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 106. 1] अनुशासनपर्व [13. 106. 23 106 युधिष्ठिर उवाच / दानं बहुविधाकारं शान्ति सत्यमहिंसता / खदारतुष्टिश्चोक्ता ते फलं दानस्य चैव यत् // 1 पितामहस्य विदितं किमन्यत्र तपोबलात् / / तपसो यत्परं तेऽद्य तन्मे व्याख्यातुमर्हसि // 2 भीष्म उवाच। तपः प्रचक्षते यावत्तावल्लोका युधिष्ठिर / मतं मम तु कौन्तेय तपो नानशनात्परम् / / 3 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / भगीरथस्य संवादं ब्रह्मणश्च महात्मनः / / 4 अतीत्य सुरलोकं च गवां लोकं च भारत / ऋषिलोकं च सोऽगच्छद्भगीरथ इति श्रुतिः // 5 तं दृष्ट्वा स वचः प्राह ब्रह्मा राजन्भगीरथम् / कथं भगीरथागास्त्वमिमं देशं दुरासदम् // 6 न हि देवा न गन्धर्वा न मनुष्या भगीरथ / आयान्त्यतप्ततपसः कथं वै त्वमिहागतः // 7 __ भगीरथ उवाच / निःशङ्कमन्नमददं ब्राह्मणेभ्यः शतं सहस्राणि सदैव दानम् / ब्राह्मं व्रतं नित्यमास्थाय विद्धि न त्वेवाहं तस्य फलादिहागाम् // 8 दशैकरात्रान्दश पञ्चरात्रा नेकादशैकादशकान्क्रतूंश्च / ज्योतिष्टोमानां च शतं यदिष्टं फलेन तेनापि च नागतोऽहम् // 9 यच्चावसं जाह्नवीतीरनित्यः शतं समास्तप्यमानस्तपोऽहम् / अदां च तत्राश्वतरीसहस्रं नारीपुरं न च तेनाहमागाम् // 10 / दशायुतानि चाश्वानामयुतानि च विंशतिम् / पुष्करेषु द्विजातिभ्यः प्रादां गाश्च सहस्रशः // 11 सुवर्णचन्द्रोडुपधारिणीनां __ कन्योत्तमानामददं स्रग्विणीनाम् / षष्टिं सहस्राणि विभूषितानां जाम्बूनदैराभरणैर्न तेन // 12 दशार्बुदान्यददं गोसवेज्या स्वेकैकशो दश गा लोकनाथ / समानवत्साः पयसा समन्विताः सुवर्णकांस्योपदुहा न तेन // 13 अप्तोर्यामेषु नियतमेकैकस्मिन्दशाददम् / गृष्टीनां क्षीरदात्रीणां रोहिणीनां न तेन च // 14 दोग्ध्रीणां वै गवां चैव प्रयुतानि दशैव ह / प्रादा दशगुणं ब्रह्मन्न च तेनाहमागतः // 15 वाजिनां बाह्रिजातानामयुतान्यददं दश / कर्काणां हेममालानां न च तेनाहमागतः // 16 कोटीश्च काश्चनस्याष्टौ प्रादां ब्रह्मन्दश त्वहम् / एकैकस्मिन्क्रतो तेन फलेनाहं न चागतः // 17 वाजिनां श्यामकर्णानां हरितानां पितामह / प्रादां हेमस्रजां ब्रह्मन्कोटीर्दश च सप्त च / / 18 ईषादन्तान्महाकायान्काश्चनस्रग्विभूषितान् / पत्नीमतः सहस्राणि प्रायच्छं दश सप्त च // 19 अलंकृतानां देवेश दिव्यैः कनकभूषणैः / रथानां काञ्चनाङ्गानां सहस्राण्यददं दश / सप्त चान्यानि युक्तानि वाजिभिः समलंकृतैः // 20 दक्षिणावयवाः केचिद्वदैर्ये संप्रकीर्तिताः / वाजपेयेषु दशसु प्रादां तेनापि नाप्यहम् // 21 शक्रतुल्यप्रभावानामिज्यया विक्रमेण च / सहस्रं निष्ककण्ठानामददं दक्षिणामहम् // 22 विजित्य नृपतीन्सर्वान्मखैरिष्ट्वा पितामह / -2669 - Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 106. 23 ] महाभारते [ 13. 106. 42 अष्टभ्यो राजसूयेभ्यो न च तेनाहमागतः // 23 मक्रोधनोऽकरवं त्रिंशतोऽब्दान् / स्रोतश्च यावद्गङ्गायाश्छन्नमासीजगत्पते / शतं गवामष्ट शतानि चैव दक्षिणाभिः प्रवृत्ताभिर्मम नागां च तत्कृते // 24 दिने दिने ह्यददं ब्राह्मणेभ्यः // 35 वाजिनां च सहस्रे द्वे सुवर्णशतभूषिते / पयस्विनीनामथ रोहिणीनां वरं प्रामशतं चाहमेकैकस्य त्रिधाददम् / तथैव चाप्यनडुहां लोकनाथ / / तपस्वी नियताहारः शममास्थाय वाग्यतः // 25 प्रादां नित्यं ब्राह्मणेभ्यः सुरेश दीर्घकालं हिमवति गङ्गायाश्च दुरुत्सहाम् / नेहागतस्तेन फलेन चाहम् // 34 मूर्धा धारां महादेवः शिरसा यामधारयत् / त्रिंशदग्निमहं ब्रह्मन्नयजं यच्च नित्यदा / न तेनाप्यहमागच्छं फलेनेह पितामह // 26 अष्टाभिः सर्वमेधैश्च नरमेधैश्च सप्तभिः // 35 शम्याक्षेपैरयजं यच्च देवा दशभिर्विश्वजिद्भिश्च शतैरष्टादशोत्तरैः / __ सद्यस्कानामयुतैश्चापि यत्तत् / त्रयोदशद्वादशाहांश्च देव न चैव तेषां देवेश फलेनाहमिहागतः // 36 सपौण्डरीकान्न च तेषां फलेन // 27 सरय्वां बाहुदायां च गङ्गायामथ नैमिषे / भष्टौ सहस्राणि ककुद्मिनामहं / गवां शतानामयुतमददं न च तेन वै // 3. शुक्लर्षभाणामददं ब्राह्मणेभ्यः / इन्द्रेण गुह्यं निहितं वै गुहायां एकैकं वै काञ्चनं शृङ्गमेभ्यः यद्भार्गवस्तपसेहाभ्यविन्दत् / पत्नीश्चैषामददं निष्ककण्ठीः // 28 जाज्वल्यमानमुशनस्तेजसेह हिरण्यरत्ननिचितानददं रत्नपर्वतान् / तत्साधयामासमहं वरेण्यम् // 38 धनधान्यसमृद्धांश्च प्रामाशतसहस्रशः // 29 ततो मे ब्राह्मणास्तुष्टास्तस्मिन्कर्मणि साधिते / शतं शतानां गृष्टीनामददं चाप्यतन्द्रितः / सहस्रमृषयश्चासन्ये वै तत्र समागताः / इष्ट्वानेकैर्महायज्ञैर्ब्राह्मणेभ्यो न तेन च // 30 उक्तस्तैरस्मि गच्छ त्वं ब्रह्मलोकमिति प्रभो // 3 // एकादशाहैरयजं सदक्षिण प्रीतेनोक्तः सहस्रेण ब्राह्मणानामहं प्रभो। ििदशाहैरश्वमेधैश्च देव / इम लोकमनुप्राप्तो मा भूत्तेऽत्र विचारणा // 40 आर्कायणैः षोडशभिश्च ब्रह्म कामं यथावद्विहितं विधात्रा स्तेषां फलेनेह न चागतोऽस्मि // 31 पृष्टेन वाच्यं तु मया यथावत् / निष्कैककण्ठमददं योजनायतं तपो हि नान्यच्चानशनान्मतं मे तद्विस्तीर्ण काञ्चनपादपानाम् / नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद // 41 वनं चूतानां रत्नविभूषितानां न चैव तेषामागतोऽहं फलेन // 32 भीष्म उवाच / तुरायणं हि व्रतमप्रधृष्य इत्युक्तवन्तं तं ब्रह्मा राजानं स्म भगीरथम् / -2670 - Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 106. 42] अनुशासनपर्व [ 18. 107. 27 पूजयामास पूजाहँ विधिदृष्टेन कर्मणा // 42 सर्वलक्षणहीनोऽपि समुदाचारवान्नरः / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि श्रद्धधानोऽनसूयश्च शतं वर्षाणि जीवति // 13 षडधिकशततमोऽध्यायः // 106 // अक्रोधनः सत्यवादी भूतानामविहिंसकः / 107 अनसयुरजिमश्च शतं वर्षाणि जीवति // 14 युधिष्ठिर उवाच। लोष्टमर्दी तृणच्छेदी नखखादी च यो नरः / शतायुरुक्तः पुरुषः शतवीर्यश्च वैदिके। नित्योच्छिष्टः संकुसुको नेहायुर्विन्दते महत् / / 15 कस्मान्नियन्ते पुरुषा बाला अपि पितामह // 1 ब्राह्मे मुहूर्ते बुध्येत धर्मार्थो चानुचिन्तयेत् / आयुष्मान्केन भवति स्वल्पायुर्वापि मानवः। उत्थायाचम्य तिष्ठेत पूर्वां संध्यां कृताञ्जलिः॥१६ केन वा लभते कीर्तिं केन वा लभते श्रियम् // 2 एवमेवापरां संध्यां समुपासीत वाग्यतः / तपसा ब्रह्मचर्येण जपैहोमैस्तथौषधैः / नेक्षेत्यादित्यमुद्यन्तं नास्तं यान्तं कदाचन // 17 जन्भना यदि वाचारात्तन्मे ब्रूहि पितामह // 3 ऋषयो दीर्घसंध्यत्वादीर्घमायुरवाप्नुवन् / - भीष्म उवाच / तस्मात्तिष्ठेत्सदा पूर्व पश्चिमां चैव वाग्यतः॥१८ अत्र ते वर्तयिष्यामि यन्मां त्वमनुपृच्छसि / ये न पूर्वामुपासन्ते द्विजाः संध्यां न पश्चिमाम् / अल्पायुर्येन भवति दीर्घायुर्वापि मानवः / / 4 सांस्तान्धार्मिको राजा शुद्रकर्माणि कारयेत् // 19 येन वा लभते कीर्तिं येन वा लभते श्रियम् / परदारा न गन्तव्याः सर्ववर्णेषु कर्हिचित् / यथा च वर्तन्पुरुषः श्रेयसा संप्रयुज्यते / / 5 न हीदृशमनायुष्यं लोके किंचन विद्यते / भाचाराल्लभते ह्यायुराचाराल्लभते श्रियम् / यारशं पुरुषस्येह परदारोपसेवनम् // 20 भाचारात्कीर्तिमाप्नोति पुरुषः प्रेत्य चेह च // 6 प्रसाधनं च केशानामञ्जनं दन्तधावनम् / दुराचारो हि पुरुषो नेहायुर्विन्दते महत् / पूर्वाह एव कुर्वीत देवतानां च पूजनम् / / 21 त्रसन्ति यस्माद्भूतानि तथा परिभवन्ति च // 7 पुरीषमूत्रे नोदीक्षेन्नाधितिष्ठेत्कदाचन / तस्मात्कुर्यादिहाचारं य इच्छेद्भूतिमात्मनः / उदक्यया च संभाषां न कुर्वीत कदाचन // 22 अपि पापशरीरस्य आचारो हन्त्यलक्षणम् / / 8 नोत्सजेत पुरीषं च क्षेत्रे ग्रामस्य चान्तिके / भाचारलक्षणो धर्मः सन्तश्चाचारलक्षणाः / उभे मूत्रपुरीषे तु नाप्सु कुर्यात्कदाचन // 23 साधूनां च यथा वृत्तमेतदाचारलक्षणम् // 9 प्रामुखो नित्यमनीयाद्वाग्यतोऽन्नमकुत्सयन् / अप्यदृष्टं श्रुतं वापि पुरुषं धर्मचारिणम् / प्रस्कन्दयेच्च मनसा भुक्त्वा चाग्निमुपस्पृशेत् // 24 भूतिकर्माणि कुर्वाणं तं जनाः कुर्वते प्रियम् // 10 आयुष्यं प्राङ्मुखो भुङ्क्ते यशस्यं दक्षिणामुखः / ये नास्तिका निष्क्रियाश्च गुरुशास्त्रातिलचिनः / धन्यं पश्चान्मुखो भुते ऋतं भुङ्क्ते उदङ्मुखः // 25 अधर्मज्ञा दुराचारास्ते भवन्ति गतायुषः // 11 / नाधितिष्ठेत्तुषाञ्जातु केशभस्मकपालिकाः / विशीला भिन्नमर्यादा नित्यं संकीर्णमैथुनाः / अन्यस्य चाप्युपस्थानं दूरतः परिवर्जयेत् / / 26 अल्पायुषो भवन्तीह नरा निरयगामिनः / / 12 शान्तिहोमांश्च कुर्वीत सावित्राणि च कारयेत् / -2671 - Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 107. 27 ] महाभारते [13. 107. 56 निषण्णश्वापि खादेत न तु गच्छन्कथंचन // 27 / उभे मूत्रपुरीषे तु दिवा कुर्यादुदङ्मुखः / मूत्रं न तिष्ठता कार्यं न भस्मनि न गोनजे // 28 दक्षिणाभिमुखो रात्रौ तथास्यायुन रिष्यते // 42 आर्द्रपादस्तु भुञ्जीत नापादस्तु संविशेत् / त्रीन्कृशान्नावजानीयादीर्घमायुर्जिजीविषुः / / आर्द्रपादस्तु भुञ्जानो वर्षाणां जीवते शतम् // 29 ब्राह्मणं क्षत्रियं सर्प सर्वे ह्याशीविपाश्रयः // 43 त्रीणि तेजांसि नोच्छिष्ट आलभेत कदाचन। दहत्याशीविषः क्रुद्धो यावत्पश्यति चक्षुषा। अमिं गां ब्राह्मणं चैव तथास्यायुन रिष्यते // 30 क्षत्रियोऽपि दहेत्क्रुद्धो यावत्स्पृशति तेजसा // 4 // त्रीणि तेजांसि नोच्छिष्ट उदीक्षेत कदाचन / ब्राह्मणस्तु कुलं हन्याद्ध्यानेनावेक्षितेन च। . सूर्याचन्द्रमसौ चैव नक्षत्राणि च सर्वशः // 31 तस्मादेतत्रयं यत्नादुपसेवेत पण्डितः // 45 ऊवं प्राणा ह्युत्क्रामन्ति यूनः स्थविर आयति / गुरुणा वैरनिर्बन्धो न कर्तव्यः कदाचन / प्रत्युत्थानाभिवादाभ्यां पुनस्तान्प्रतिपद्यते // 32 अनुमान्यः प्रसाद्यश्च गुरुः क्रुद्धो युधिष्ठिर // 46 अभिवादयेत वृद्धांश्च आसनं चैव दापयेत् / सम्यमिथ्याप्रवृत्तेऽपि वर्तितव्यं गुराविह / कृताञ्जलिरुपासीत गच्छन्तं पृष्ठतोऽन्वियात् / / 33 गुरुनिन्दा दहत्यायुर्मनुष्याणां न संशयः // 47 न चासीतासने भिन्न भिन्नं कांस्यं च वर्जयेत् / दूरादावसथान्मूत्रं दूरात्पादावसेचनम् / नैकवस्त्रेण भोक्तव्यं न नग्नः स्नातुमर्हति / उच्छिष्टोत्सर्जनं चैव दूरे कार्य हितैषिणा // 48 स्वप्तव्यं नैव नग्नेन न चोच्छिष्टोऽपि संविशेत् // नातिकल्पं नातिसायं न च मध्यंदिने स्थिते / उच्छिष्टो न स्पृशेच्छीर्ष सर्वे प्राणास्तदाश्रयाः / नाज्ञातैः सह गच्छेत नैको न वृषलैः सह // 49 केशाहान्प्रहारांश्च शिरस्येतान्विवर्जयेत् // 35 / / पन्था देयो ब्राह्मणाय गोभ्यो राजभ्य एव च / न पाणिभ्यामुभाभ्यां च कण्डूयेज्जातु वै शिरः। वृद्धाय भारतप्ताय गर्भिण्यै दुर्बलाय च // 50 न चाभीक्ष्णं शिरः स्नायात्तथास्यायुर्न रिष्यते।।३६ प्रदक्षिणं च कुर्वीत परिज्ञातान्वनस्पतीन् / शिरःस्नातश्च तैलेन नाङ्गं किंचिदुपस्पृशेत् / चतुष्पथान्प्रकुर्वीत सर्वानेव प्रदक्षिणान् // 51 तिलपिष्टं न चानीयात्तथायुर्विन्दते महत् / / 37 मध्यंदिने निशाकाले मध्यरात्रे च सर्वदा / नाध्यापयेत्तथोच्छिष्टो नाधीयीत कदाचन / चतुष्पथान्न सेवेत उभे संध्ये तथैव च // 52 वाते च पूतिगन्धे च मनसापि न चिन्तयेत् // 38 उपानहौ च वस्त्रं च धृतमन्यैर्न धारयेत् / अत्र गाथा यमोद्गीताः कीर्तयन्ति पुराविदः।। ब्रह्मचारी च नित्यं स्यात्पादं पादेन नाक्रमेत् // 53 आयुरस्य निकृन्तामि प्रजामस्याददे तथा // 39 अमावास्यां पौर्णमास्यां चतुर्दश्यां च सर्वशः / य उच्छिष्टः प्रवदति स्वाध्यायं चाधिगच्छति / अष्टम्यां सर्वपक्षाणां ब्रह्मचारी सदा भवेत् // 54 यश्चानध्यायकालेऽपि मोहादभ्यस्यति द्विजः / वृथा मांसं न खादेत पृष्ठमांसं तथैव च। तस्माद्युक्तोऽप्यनध्याचे नाधीयीत कदाचन // 40 | आक्रोशं परिवादं च पैशुन्यं च विवर्जयेत् // 55 प्रत्यादित्यं प्रत्यनिलं प्रति गां च प्रति द्विजान् / / नारंतुदः स्यान्न नृशंसवादी ये मेहन्ति च पन्थानं ते भवन्ति गतायुषः / / 41 / न हीनतः परमभ्याददीत / -2672 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 107. 56] अनुशासनपर्व [ 13. 107. 83 ययास्य वाचा पर उद्विजेत अकृत्वा देवतापूजां नान्यं गच्छेत्कदाचन / न तां वदेद्रुशती पापलोक्याम् // 56 अन्यत्र तु गुरुं वृद्धं धार्मिकं वा विचक्षणम् // 70 वाक्सायका वदनान्निष्पतन्ति अवलोक्यो न चादर्शो मलिनो बुद्धिमत्तरैः। यैराहतः शोचति राज्यहानि / न चाज्ञातां स्त्रियं गच्छेद्गर्भिणी वा कदाचन // 71 परस्य नामर्मसु ते पतन्ति उदक्शिरा न स्वपेत तथा प्रत्यक्शिरा न च। तान्पण्डितो नावसृजेत्परेषु // 57 प्राक्शिरास्तु स्वपेद्विद्वानथ वा दक्षिणाशिराः // 72 रोहते सायकैर्विद्धं वनं परशुना हतम् / . न भन्ने नावदीर्णे वा शयने प्रस्वपेत च / वाचा दुरुक्तं बीभत्सं न संरोहति वाक्क्षतम् // नान्तर्धाने न संयुक्ते न च तिर्यक्कदाचन // 73 हीनाङ्गानतिरिक्ताङ्गान्विद्याहीनान्वयोधिकान् / न नग्नः कर्हि चित्स्नायान्न निशायां कदाचन / रूपद्रविणहीनांश्च सत्त्वहीनांश्च नाक्षिपेत् / / 59 स्नात्वा च नावमृज्येत गात्राणि सुविचक्षणः // 74 नास्तिक्यं वेदनिन्दां च देवतानां च कुत्सनम् / / न चानुलिम्पेदस्नात्वा स्नात्वा वासो न निधुनेत् / द्वेषस्तम्भाभिमानांश्च तैक्ष्ण्यं च परिवर्जयेत् // 60 आर्द्र एव तु वासांसि नित्यं सेवेत मानवः / परस्य दण्डं नोद्यच्छेत्क्रुद्धो नैनं निपातयेत्। स्रजश्च नावकर्पत न बहिर्धारयेत च / / 75 अन्यत्र पुत्राच्छिष्याद्वा शिक्षार्थं ताडनं स्मृतम् // रक्तमाल्यं न धार्य स्याच्छुक्लं धायं तु पण्डितैः / न ब्राह्मणान्परिवदेन्नक्षत्राणि न निर्दिशेत् / वर्जयित्वा तु कमलं तथा कुवलयं विभो // 76 तिथि पक्षस्य न ब्रूयात्तथास्यायुन रिष्यते // 62 रक्तं शिरसि धार्य तु तथा वानेयमित्यपि / कृत्वा मूत्रपुरीषे तु रथ्यामाक्रम्य वा पुनः। काश्चनी चैव या माला न सा दुष्यति कर्हिचित् / पादप्रक्षालनं कुर्यात्स्वाध्याये भोजने तथा // 63 स्नातस्य वर्णकं नित्यमा दद्याद्विशां पते // 77 त्रीणि देवाः पवित्राणि ब्राह्मणानामकल्पयन् / विपर्ययं न कुर्वीत वाससो बुद्धिमान्नरः / अदृष्टमंद्भिनिर्णित्तं यच्च वाचा प्रशस्यते // 64 तथा नान्यधृतं धार्य न चापदशमेव च // 78 संयावं कृसरं मांसं शष्कुली पायसं तथा / अन्यदेव भवेद्वासः शयनीये नरोत्तम / आत्मार्थ न प्रकर्तव्यं देवार्थं तु प्रकल्पयेत् // 65 अन्यद्रथ्यासु देवानामर्चायामन्यदेव हि // 79 नित्यमग्निं परिचरेद्भिक्षां दद्याच्च नित्यदा / प्रियङ्गुचन्दनाभ्यां च बिल्वेन तगरेण च / वाग्यतो दन्तकाष्ठं च नित्यमेव समाचरेत् / पृथगेवानुलिम्पेत केसरेण च बुद्धिमान् // 80 न चाभ्युदितशायी स्यात्प्रायश्चित्ती तथा भवेत् // उपवासं च कुर्वीत स्नातः शुचिरलंकृतः / मातापितरमुत्थाय पूर्वमेवाभिवादयेत् / / पर्वकालेषु सर्वेषु ब्रह्मचारी सदा भवेत् // 81 आचार्यमथ वाप्येनं तथायुर्विन्दते महत् // 67 नालीढया परिहतं भक्षयीत कदाचन / वर्जयेद्दन्तकाष्टानि वर्जनीयानि नित्यशः / तथा नोद्धृतसाराणि प्रेक्षतां नाप्रदाय च // 82 भक्षयेच्छास्त्रदृष्टानि पर्वस्वपि च वजयेत् // 68 न संनिकृष्टो मेधावी नाशुचिर्न च सत्सु च / उदङ्मखश्च सततं शौचं कुर्यात्समाहितः / / 69 प्रतिषिद्धान्न धर्मेषु भक्षान्भुञ्जीत पृष्ठतः // 83 म. भा. 335 -2673 - Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 107. 84] महाभारते [ 13. 107. 113 पिप्पलं च वटं चैव शणशाकं तथैव च / पतितैस्तु कथां नेच्छेद्दर्शनं चापि वर्जयेत् / उदुम्बरं न खादेच्च भवार्थी पुरुषोत्तमः / / 84 संसर्ग च न गच्छेत तथायुर्विन्दते महत् // 99 आज गव्यं च यन्मांसं मायूरं चैव वर्जयेत् / / न दिवा मैथुनं गच्छन्न कन्यां न च बन्धकीम् / वर्जयेच्छुष्कमांसं च तथा पर्युषितं च यत् // 85 न चास्नातां स्त्रियं गच्छेत्तथायुर्विन्दते महत् // न पाणौ लवणं विद्वान्प्राश्नीयान्न च रात्रिषु। स्वे स्वे तीर्थे समाचम्य कार्ये समुपकल्पिते / दधिसक्तन्न भुञ्जीत वृथामांसं च वर्जयेत् // 86 त्रिः पीत्वापो द्विः प्रमृज्य कृतशोचो भवेन्नरः / / वालेन तु न भुञ्जीत परश्राद्धं तथैव च / इन्द्रियाणि सकृत्स्पृश्य त्रिरभ्युक्ष्य च मानवः / सायं प्रातश्च भुञ्जीत नान्तराले समाहितः / / 87 कुर्वीत पित्र्यं दैवं च वेददृष्टेन कर्मणा // 182 वाग्यतो नैकवस्त्रश्च नासंविष्टः कदाचन / ब्राह्मगार्थे च यच्छौचं तच्च मे शृणु कौरव / भूमौ सदैव नाश्नीयान्नानासीनो न शब्दवत् // 88 प्रवृत्तं च हितं चोक्त्वा भोजनाद्यन्तयोस्तथा // तोयपूर्व प्रदायान्नमतिथिभ्यो विशां पते / सर्वशौचेषु ब्राह्मण तीर्थेन समुपस्पृशेत् / पश्चाद्भुञ्जीत मेधावी न चाप्यन्यमना नरः / / 89 निष्ठीव्य तु तथा क्षुत्वा स्पृश्यापो हि शुचिर्भवेत् // समानमेकपतयां तु भोज्यमन्नं नरेश्वर / वृद्धो ज्ञातिस्तथा मित्रं दरिद्रो यो भवेदपि / विषं हालाहलं भुङ्क्ते योऽप्रदाय सुहृज्जने // 90 गृहे वासयितव्यास्ते धन्यमायुष्यमेव च // 105 पानीयं पायसं सर्पिर्दधिसक्तुमधून्यपि / गृहे पारावता धन्याः शुकाश्च सहसारिकाः / निरस्य शेषमेतेषां न प्रदेयं तु कस्यचित् / / 91 गृहेष्वेते न पापाय तथा वै तैलपायिकाः / / 106 भुञ्जानो मनुजव्याघ्र नैव शङ्कां समाचरेत् / उद्दीपकाश्च गृध्राश्च कपोता भ्रमरास्तथा। दधि चाप्यनुपानं वै न कर्तव्यं भवार्थिना // 92 निविशेयुर्यदा तत्र शान्तिमेव तदाचरेत् // 107 आचम्य चैव हस्तेन परिस्राव्य तथोदकम् / अमङ्गल्यानि चैतानि तथाक्रोशो महात्मनाम् / अङ्गुष्ठं चरणस्याथ दक्षिणस्यावसेचयेत् // 93 महात्मनां च गुह्यानि न वक्तव्यानि कर्हि चित् / / पाणिं मूर्ध्नि समाधाय स्पृष्ट्वा चाग्निं समाहितः / अगम्याश्च न गच्छेत राजपत्नीः सखीस्तथा / ज्ञातिश्रेष्ठयमवाप्नोति प्रयोगकुशलो नरः // 94 वैद्यानां बालवृद्धानां भृत्यानां च युधिष्ठिर // 109 अद्भिः प्राणान्समालभ्य नाभिं पाणितलेन च / बन्धूनां ब्राह्मणानां च तथा शारणिकस्य च / स्पृशंश्चैव प्रतिष्ठेत न चाप्याट्टैण पाणिना // 95 संबन्धिनां च राजेन्द्र तथायुर्विन्दते महत् // 110 अङ्गुष्ठस्यान्तराले च ब्राह्मं तीर्थमुदाहृतम् / ब्राह्मणस्थपतिभ्यां च निर्मितं यन्निवेशनम् / कनिष्ठिकायाः पश्चात्तु देवतीर्थमिहोच्यते // 96 तदावसेत्सदा प्राज्ञो भवार्थी मनुजेश्वर // 111 अङ्गुष्ठस्य च यन्मध्यं प्रदेशिन्याश्च भारत / संध्यायां न स्वपेद्राजन्विद्यां न च समाचरेत् / तेन पित्र्याणि कुर्वीत स्पृष्ट्वापो न्यायतस्तथा // 97 / न भुञ्जीत च मेधावी तथायुर्विन्दते महत् // 112 परापवादं न ब्रूयान्नाप्रियं च कदाचन / नक्तं न कुर्यात्पित्र्याणि भुक्त्वा चैव प्रसाधनम् / न मन्युः कश्चिदुत्पाद्यः पुरुषेण भवार्थिना // 98 / पानीयस्य क्रिया नक्तं न कार्या भूतिमिच्छता // -- 2674 - Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 107. 114] अनुशासनपर्व [13. 107. 142 वर्जनीयाश्च वै नित्यं सक्तवो निशि भारत / अवरा पतिता चैव न ग्राह्या भूतिमिच्छता // 128 शेषाणि चावदातानि पानीयं चैव भोजने / / 114 अग्नीनुत्पाद्य यत्नेन क्रियाः सुविहिताश्च याः / सौहित्यं च न कर्तव्यं रात्रौ नैव समाचरेत् / / | वेदेषु ब्राह्मणैः प्रोक्तास्ताश्च सर्वाः समाचरेत् // द्विजच्छेदं न कुर्वीत भुक्त्वा न च समाचरेत् // न चेा स्त्रीषु कर्तव्या दारा रक्ष्याश्च सर्वशः / महाकूलप्रसूनां च प्रशस्ता लक्षणैस्तथा / अनायुष्या भवेदीर्ध्या तस्मादीर्ध्या विवर्जयेत् // वयःस्थां च महाप्राज्ञ कन्यामावोढुमर्हति // 116 अनायुष्यो दिवास्वप्नस्तथाभ्युदितशायिता। अपत्यमुत्पाद्य ततः प्रतिष्ठाप्य कुलं तथा / प्रातर्निशायां च तथा ये चोच्छिष्टाः स्वपन्ति वै // पुत्राः प्रदेया ज्ञानेषु कुलधर्मेषु भारत // 117 / पारदार्यमनायुष्यं नापितोच्छिष्टता तथा / कन्या चोत्पाद्य दातव्या कुलपुत्राय धीमते / यत्नतो वै न कर्तव्यमभ्यासश्चैव भारत // 132 पुत्रा निवेश्याश्च कुलाद्धृत्या लभ्याश्च भारत / संध्यां न भुञ्जेन्न स्नायान्न पुरीषं समुत्सृजेत् / शिरःस्नातोऽथ कुर्वीत दैवं पित्र्यमथापि च / प्रयतश्च भवेत्तस्यां न च किंचित्समाचरेत् // 133 नक्षत्रे न च कुर्वीत यस्मिञ्जातो भवेन्नरः / / ब्राह्मणान्पूजयेच्चापि तथा स्नात्वा नराधिप / न प्रोष्ठपदयोः कार्य तथाग्नेये च भारत // 119 / देवांश्च प्रणमेत्स्नातो गुरूंश्चाप्यभिवादयेत् // 134 दारुणेषु च सर्वेषु प्रत्यहं च विवर्जयेत् / अनिमनितो न गच्छेत यज्ञं गच्छेत्तु दर्शकः / ज्योतिषे यानि चोक्तानि तानि सर्वाणि वर्जयेत् // / अनिभत्रिते ह्यनायुष्यं गमनं तत्र भारत // 135 प्राङ्मुखः श्मश्रुकर्माणि कारयेत समाहितः। न चैकेन परिव्राज्यं न गन्तव्यं तथा निशि / उदङ्मुखो वा राजेन्द्र तथायुर्विन्दते महन / / 121 अनागतायां संध्यायां पश्चिमायां गृहे वसेत्॥१३६ परिवादं न च यात्परेषामात्मनस्तथा / मातुः पितुर्गुरूणां च कार्यमेवानुशासनम् / परिवादो न धर्माय प्रोच्यते भरतर्षभ // 122 / हितं वाप्यहितं वापि न विचार्य नरर्षभ // 137 वर्जयेद्व्यङ्गिनी नारी तथा कन्यां नरोत्तम / धनुर्वेदे च वेदे च यत्नः कार्यो नराधिप / समाषां व्यङ्गितां चैव मातुः स्वकुलजां तथा // हस्तिपृष्ठेऽश्वपृष्ठे च रथचर्यासु चैव ह / वृद्धां प्रव्रजितां चैव तथैव च पतिव्रताम् / यत्नवान्भव राजेन्द्र यज्ञवान्सुखमेधते // 138 तथातिकृष्णवर्णां च वर्णोत्कृष्टां च वर्जयेत् / / 124 अप्रधृष्यश्च शत्रूणां भृत्यानां स्वजनस्य च / अयोनि च वियोनि च न गच्छेत विचक्षणः / प्रजापालनयुक्तश्च न क्षतिं लभते क्वचित् // 139 पिङ्गलां कुष्ठिनी नारी न त्वमावोढुमर्हसि / / 125 युक्तिशास्त्रं च ते ज्ञेयं शब्दशास्त्रं च भारत / अपस्मारिकुले जातां निहीनां चैव वर्जयेत् / गन्धर्वशास्त्रं च कलाः परिज्ञेया नराधिप / / 140 श्वित्रिणां च कुले जातां त्रयाणां मनुजेश्वर // 126 / पुराणमितिहासाश्च तथाख्यानानि यानि च / लक्षणैरन्विता या च प्रशस्ता या च लक्षणैः / महात्मनां च चरितं श्रोतव्यं नित्यमेव ते // 141 मनोज्ञा दर्शनीया च तां भवान्वोढुमर्हति // 127 / पत्नी रजस्वलां चैव नाभिगच्छेन्न चाह्वयेत् / महाकुले निवेष्टव्यं सदृशे वा युधिष्ठिर / स्नातां चतुर्थे दिवसे रात्रौ गच्छेद्विचक्षणः // 142 - 2675 - Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 107. 143] महाभारते [ 13. 108. 19 पञ्चमे दिवसे नारी षष्ठेऽहनि पुमान्भवेत् / अथ यो विनिकुर्वीत ज्येष्ठो भ्राता यवीयसः / एतेन विधिना पत्नीमुपगच्छेत पण्डितः // 143 अज्येष्ठः स्यादभागश्च नियम्यो राजभिश्च सः // 7 ज्ञातिसंबन्धिमित्राणि पूजनीयानि नित्यशः / निकृती हि नरो लोकान्पापान्गच्छत्यसंशयम् / यष्टव्यं च यथाशक्ति यज्ञैर्विविधदक्षिणैः / विदुलस्येव तत्पुष्पं मोघं जनयितुः स्मृतम् // 8 भतऊर्ध्वमरण्यं च सेवितव्यं नराधिप // 144 सर्वानर्थः कुले यत्र जायते पापपूरुषः / एष ते लक्षणोदेश आयुष्याणां प्रकीर्तितः / अकीर्तिं जनयत्येव कीर्तिमन्तर्दधाति च // 9 शेषविद्यवृद्धेभ्यः प्रत्याहार्यो युधिष्ठिर // 145 सर्वे चापि विकर्मस्था भागं नाईन्ति सोदराः / भाचारो भूतिजनन आचारः कीर्तिवर्धनः / नाप्रदाय कनिष्ठेभ्यो ज्येष्ठः कुर्वीत यौतकम् // 10 भाचाराद्वर्धते ह्यायुराचारो हन्त्यलक्षणम् // 146 अनुजं हि पितुर्दायो जङ्घाश्रमफलोऽध्वगः / भागमानां हि सर्वेषामाचारः श्रेष्ठ उच्यते / स्वयमीहितलब्धं तु नाकामो दातुमर्हति // 11 आचारप्रभवो धर्मो धर्मादायुर्विवर्धते // 147 भ्रातृणामविभक्तानामुत्थानमपि चेत्सह / एतद्यशस्यमायुष्यं स्वयं स्वस्त्ययनं महत् / न पुत्रभागं विषमं पिता दद्यात्कथंचन // 12 अनुकम्पता सर्ववर्णान्ब्रह्मणा समुदाहृतम् // 148 न ज्येष्ठानवमन्येत दुष्कृतः सुकृतोऽपि वा। इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि यदि स्त्री यद्यवरजः श्रेयः पश्येत्तथाचरेत् / सप्ताधिकशततमोऽध्यायः॥ 107 // धर्म हि श्रेय इत्याहुरिति धर्मविदो विदुः / / 13 दशाचार्यानुपाध्याय उपाध्यायान्पिता दश / युधिष्ठिर उवाच / दश चैव पितॄन्माता सर्वां वा पृथिवीमपि // 14 यथा ज्येष्ठः कनिष्ठेषु वर्तते भरतर्षभ / गौरवेणाभिभवति नास्ति मातृसमो गुरुः / / कनिष्ठाश्च यथा ज्येष्ठे वर्तेरस्तद्रवीहि मे // 1 माता गरीयसी यच्च तेनैतां मन्यते जनः // 15 भीष्म उवाच / ज्येष्ठो भ्राता पितृसमो मृते पितरि भारत / ज्येष्ठवत्तात वर्तस्व ज्येष्ठो हि सततं भवान् / स ह्येषां वृत्तिदाता स्यात्स चैतान्परिपालयेत् // 16 गुरोर्गरीयसी वृत्तिर्या चेच्छिष्यस्य भारत // 2 कनिष्ठास्तं नमस्येरन्सर्वे छन्दानुवर्तिनः / न गुरावकृतप्रज्ञे शक्यं शिष्येण वर्जितुम् / तमेव चोपजीवेरन्यथैव पितरं तथा // 17 गुरोहिं दीर्घदर्शित्वं यत्तच्छिष्यस्य भारत // 3 शरीरमेतौ सृजतः पिता माता च भारत / अन्धः स्यादन्धवेलायां जडः स्यादपि वा बुधः / आचार्यशास्ता या जातिः सा सत्या साजरामरा॥ परिहारेण तद्भूयाद्यस्तेषां स्याद्व्यतिक्रमः // 4 ज्येष्ठा मातृसमा चापि भगिनी भरतर्षभ। प्रत्यक्षं भिन्नहृदया भेदयेयुः कृतं नराः। भ्रातुर्भार्या च तद्वत्स्याद्यस्या बाल्ये स्तनं पिबेत् / / श्रियाभितप्ताः कौन्तेय भेदकामास्तथारयः // 5 ___ इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि ज्येष्ठः कुलं वर्धयति विनाशयति वा पुनः / अष्टोत्तरशततमोऽध्यायः // 108 // हन्ति सर्वमपि ज्येष्ठः कुलं यत्रावजायते // 6 / -2676 - Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 109. 1 ] अनुशासनपर्व [13. 109. 28 पञ्चम्यां चैव षष्ठयां च पौर्णमास्यां च भारत। युधिष्ठिर उवाच / क्षमावान्रूपसंपन्नः श्रुतवांश्चैव जायते / / 14 सर्वेषामेव वर्णानां म्लेच्छानां च पितामह / नानपत्यो भवेत्प्राज्ञो दरिद्रो वा कदाचन / उपवासे मतिरियं कारणं च न विद्महे // 1 यजिष्णुः पञ्चमी षष्ठी क्षपेद्यो भोजयेहिजान् // 15 ब्रह्मक्षत्रेण नियमाश्चर्तव्या इति नः श्रुतम् / अष्टमीमथ कौन्तेय शुक्लपक्षे चतुर्दशीम् / उपवासे कथं तेषां कृत्यमस्ति पितामह // 2 उपोष्य व्याधिरहितो वीर्यवानभिजायते / / 16 नियमं चोपवासानां सर्वेषां ब्रूहि पार्थिव / मार्गशीर्षं तु यो मासमेकभक्तेन संक्षिपेत् / भवाप्नोति गतिं कां च उपवासपरायणः // 3 भोजयेच्च द्विजान्भक्त्या स मुच्येद्व्याधिकिल्बिषैः॥ उपवासः परं पुण्यमुपवासः परायणम् / सर्वकल्याणसंपूर्णः सर्वोषधिसमन्वितः / पोप्येह नरश्रेष्ठ किं फलं प्रतिपद्यते // 4 कृषिभागी बहुधनो बहुपुत्रश्च जायते / / 18 अधर्मान्मुच्यते केन धर्ममाप्नोति वै कथम् / पौषमासं तु कौन्तेय भक्तेनैकेन यः क्षपेत् / स्वर्ग पुण्यं च लभते कथं भरतसत्तम / / 5 सुभगो दर्शनीयश्च यशोभागी च जायते // 19 पोष्य चापि किं तेन प्रदेयं स्यान्नराधिप / पितृभक्तो माघमासमेकभक्तेन यः क्षपेत् / धर्मेण च सुखानाल्लभेद्येन ब्रवीहि तम् // 6 श्रीमत्कुले ज्ञातिमध्ये स महत्त्वं प्रपद्यते // 20 - वैशंपायन उवाच / भगदैवं तु यो मासमेकभक्तेन यः क्षपेत् / एवं ब्रुवाणं कौन्तेयं धर्मज्ञं धर्मतत्त्ववित्।। स्त्रीषु वल्लभतां याति वश्याश्चास्य भवन्ति ताः // धर्मपुत्रमिदं वाक्यं भीष्मः शांतनवोऽब्रवीत् // 7 चैत्रं तु नियतो मासमेकभक्तेन यः क्षपेत् / इदं खलु महाराज श्रुतमासीत्पुरातनम् / सुवर्णमणिमुक्ताढ्ये कुले महति जायते / / 22 उपवासविधौ श्रेष्ठा ये गुणा भरतर्षभ / 8 निस्तरेदेकभक्तेन वैशाखं यो जितेन्द्रियः / प्राजापत्ये ह्यगिरसं पृष्टवानस्मि भारत / नरो वा यदि वा नारी ज्ञातीनां श्रेष्ठतां व्रजेत् // यथा मां त्वं तथैवाहं पृष्टवांस्तं तपोधनम् / / 9 ज्येष्ठामूलं तु यो मासमेकभक्तेन संक्षपेत् / प्रश्नमेतं मया पृष्टो भगवानग्निसंभवः / ऐश्वर्यमतुलं श्रेष्ठं पुमान्त्री वाभिजायते // 24 उपवासविधि पुण्यमाचष्ट भरतर्षभ // 10 आषाढमेकभक्तेन स्थित्वा मासमतन्द्रितः। . अङ्गिरा उवाच / बहुधान्यो बहुधनो बहुपुत्रश्च जायते // 25 ब्रह्मक्षत्रे त्रिरात्रं तु विहितं कुरुनन्दन / श्रावणं नियतो मासमेकभक्तेन यः क्षपेत् / द्विस्त्रिरात्रमथैवात्र निर्दिष्टं पुरुषर्षभ / / 11 यत्र तत्राभिषेकेण युज्यते ज्ञातिवर्धनः // 26 पैश्यशद्रौ तु यौ मोहादुपवासं प्रकुर्वते / प्रौष्ठपदं तु यो मासमेकाहारो भवेन्नरः / त्रिरात्रं द्विस्त्रिरात्रं वा तयोः पुष्टिर्न विद्यते // 12 / धनाढ्यं स्फीतमचलमैश्वर्य प्रतिपद्यते // 27 चतुर्थभक्तक्षपणं वैश्यशूद्रे विधीयते / तथैवाश्वयुजं मासमेकभक्तेन यः क्षपेत् / विरानं न तु धर्मज्ञैर्विहितं ब्रह्मवादिभिः / / 13 / प्रजावान्वाहनाढ्यश्च बहुपुत्रश्च जायते // 28 - 2677 - Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 109. 29] महाभारते [ 13. 109.57 कार्तिकं तु नरो मासं यः कुर्यादेकभोजनम् / / अष्टमेन तु भक्तेन जीवन्संवत्सरं नृप / शूरश्च बहुभार्यश्च कीर्तिमांश्चैव जायते // 29 गवामयस्य यज्ञस्य फलं प्राप्नोति मानवः // 44. इति मासा नरव्याघ्र क्षपतां परिकीर्तिताः / हंससारसयुक्तेन विमानेन स गच्छति / तिथीनां नियमा ये तु शृणु तानपि पार्थिव / / 30 पञ्चाशतं सहस्राणि वर्षाणां दिवि मोदते // 45 पक्षे पक्षे गते यस्तु भक्तमश्नाति भारत / पक्षे पक्षे गते राजन्योऽश्नीयाद्वर्षमेव तु / गवाट्यो बहुपुत्रश्च दीर्घायुश्च स जायते // 31 षण्मासानशनं तस्य भगवानङ्गिराब्रवीत् / ' मासि मासि त्रिरात्राणि कृत्वा वर्षाणि द्वादश / षष्टिं वर्षसहस्राणि दिवमावसते च सः // 46 गणाधिपत्यं प्राप्नोति निःसपत्नमनाविलम् / / 32 वीणानां वल्लकीनां च वेणूनां च विशां पते। एते तु नियमाः सर्वे कर्तव्याः शरदो दश / सुघोषैर्मधुरैः शब्दैः सुप्तः स प्रतिबोध्यते // 47 द्वे चान्ये भरतश्रेष्ठ प्रवृत्तिमनुवर्तता / / 33 संवत्सरमिहैकं तु मासि मासि पिबेत्पयः / यस्तु प्रातस्तथा सायं भुञ्जानो नान्तरा पिबेत् / फलं विश्वजितस्तात प्राप्नोति स नरो नृप // 48 अहिंसानिरतो नित्यं जुह्वानो जातवेदसम् // 34 सिंहव्याघ्रप्रयुक्तेन विमानेन स गच्छति / षभिः स वषैर्नृपते सिध्यते नात्र संशयः / सप्ततिं च सहस्राणि वर्षाणां दिवि मोदते // 49 अग्निष्टोमस्य यज्ञस्य फलं प्राप्नोति मानवः // 35 मासादूर्ध्वं नरव्याघ्र नोपवासो विधीयते / अधिवासे सोऽप्सरसां नृत्यगीतविनादिते / विधिं त्वनशनस्याहुः पार्थ धर्मविदो जनाः // 50 तप्तकाञ्चनवर्णाभं विमानमधिरोहति // 36 अनार्को व्याधिरहितो गच्छेदनशनं तु यः। पूर्ण वर्षसहस्रं तु ब्रह्मलोके महीयते / पदे पदे यज्ञफलं स प्राप्नोति न संशयः // 51 तत्क्षयादिह चागम्य माहात्म्यं प्रतिपद्यते // 37 दिवं हंसप्रयुक्तेन विमानेन स गच्छति / यस्तु संवत्सरं पूर्णमेकाहारो भवेन्नरः / शतं चाप्सरसः कन्या रमयन्त्यपि तं नरम् // 53 अतिरात्रस्य यज्ञस्य स फलं समुपानते / / 38 आर्तो वा व्याधितो वापि गच्छेदनशनं तु यः / दशवर्षसहस्राणि स्वर्गे च स महीयते / शतं वर्षसहस्राणां मोदते दिवि स प्रभो। तत्क्षयादिह चागम्य माहात्म्यं प्रतिपद्यते // 39 काञ्चीनूपुरशब्देन सुप्तश्चैव प्रबोध्यते // 53 यस्तु संवत्सरं पूर्ण चतुर्थं भक्तमभुते / सहस्रहंससंयुक्त विमाने सोमवर्चसि / अहिंसानिरतो नित्यं सत्यवाङियतेन्द्रियः // 40 स गत्वा स्त्रीशताकीर्णे रमते भरतर्षभ // 54 वाजपेयस्य यज्ञस्य फलं वै समुपाश्नुते / क्षीणस्याप्यायनं दृष्टं क्षतस्य क्षतरोहणम / त्रिंशद्वर्षसहस्राणि स्वर्गे च स महीयते // 41 व्याधितस्यौषधग्रामः क्रुद्धस्य च प्रसादनम् // 55 षष्ठ काले तु कौन्तेय नरः संवत्सरं क्षपेत् / दुःखितस्यार्थमानाभ्यां द्रव्याणां प्रतिपादनम् / अश्वमेधस्य यज्ञस्य फलं प्राप्नोति मानवः // 42 न चैते स्वर्गकामस्य रोचन्ते सुखमेधसः // 56 चक्रवाकप्रयुक्तेन विमानेन स गच्छति / अतः स कामसंयुक्तो विमाने हेमसंनिभे / चत्वारिंशत्सहस्राणि वर्षाणां दिवि मोदते / / 43 / रमते स्त्रीशताकीर्णे पुरुषोऽलंकृतः शुभे // 57 -2678 - Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 109. 58] अनुशासनपर्व [13. 110. 13 स्वस्थः सफलसंकल्पः सुखी विगतकल्मषः / अनश्नन्देहमुत्सृज्य फलं प्राप्नोति मानवः // 58 युधिष्ठिर उवाच। बालसूर्यप्रतीकाशे विमाने हेमवर्चसि / पितामहेन विधिवद्यज्ञाः प्रोक्ता महात्मना। वैडूर्यमुक्ताखचिते वीणामुरजनादिते / / 59 गुणाश्चैषां यथातत्त्वं प्रेत्य चेह च सर्वशः // 1 ताकादीपिकाकीर्णे दिव्यघण्टानिनादिते। न ते शक्या दरिद्रेण यज्ञाः प्राप्तुं पितामह / श्रीसहस्रानुचरिते स नरः सुखमेधते / / 60 बहूपकरणा यज्ञा नानासंभारविस्तराः // 2 पावन्ति रोमकूपाणि तस्य गात्रेषु पाण्डव / पार्थिवै राजपुत्रैर्वा शक्याः प्राप्तुं पितामह / वन्त्येव सहस्राणि वर्षाणां दिवि मोदते // 61 / नार्थन्यूनैरवगुणैरेकात्मभिरसंहतैः // 3 रास्ति वेदात्परं शास्त्रं नास्ति मातृसमो गुरुः / / यो दरिद्रैरपि विधिः शक्यः प्राप्तुं सदा भवेत् / न धर्मात्परमो लाभस्तपो नानशनात्परम् / / 62 तुल्यो यज्ञफलैरेतैस्तन्मे ब्रूहि पितामह // 4 बाह्मणेभ्यः परं नास्ति पावनं दिवि चेह च / भीष्म उवाच / पवासैस्तथा तुल्यं तपःकर्म न विद्यते / / 63 इदमङ्गिरसा प्रोक्तमुपवासफलात्मकम् / पोष्य विधिवद्देवास्त्रिदिवं प्रतिपेदिरे। विधिं यज्ञफलैस्तुल्यं तन्निबोध युधिष्ठिर / / 5 हषयश्च परां सिद्धिमुपवासरेवाप्नुवन् // 64 यस्तु कल्यं तथा सायं भुञ्जानो नान्तरा पिबेत् / देव्यं वर्षसहस्रं हि विश्वामित्रेण धीमता। अहिंसानिरतो नित्यं जुह्वानो जातवेदसम् // 6 मान्तमेकेन भक्तेन तेन विप्रत्वमागतः // 65 षभिरेव तु वर्षेः स सिध्यते नात्र संशयः / व्यवनो जमदग्निश्च वसिष्ठो गौतमो भृगुः / तप्तकाञ्चनवणं च विमानं लभते नरः // 7 सर्व एव दिवं प्राप्ताः क्षमावन्तो महर्षयः // 66 देवस्त्रीणामधीवासे नृत्यगीतनिनादिते / दमङ्गिरसा पूर्व महर्षिभ्यः प्रदर्शितम् / प्राजापत्ये वसेत्पमं वर्षाणामग्निसंनिभे // 8 पः प्रदर्शयते नित्यं न स दुःखमवाप्नुते // 67 त्रीणि वर्षाणि यः प्राशेत्सततं त्वेकभोजनम् / इमं तु कौन्तेय यथाक्रमं विधिं धर्मपत्नीरतो नित्यमग्निष्टोमफलं लभेत् / / 9 प्रवर्तितं ह्यङ्गिरसा महर्षिणा। द्वितीये दिवसे यस्तु प्राश्नीयादेकभोजनम् / पठेत यो वै शृणुयाच्च नित्यदा सदा द्वादशमासांस्तु जुह्वानो जातवेदसम् / . न विद्यते तस्य नरस्य किल्बिषम् // 68 यज्ञं बहुसुवर्ण वा वासवप्रियमाहरेत् // 10 विमुच्यते चापि स सर्वसंकरै सत्यवाग्दानशीलश्च ब्रह्मण्यश्चानसूयकः / न चास्य दोषैरभिभूयते मनः / क्षान्तो दान्तो जितक्रोधः स गच्छति परां गतिम् / / वियोनिजानां च विजानते रुतं पाण्डुराभ्रप्रतीकाशे विमाने हंसलक्षणे / ध्रुवां च कीर्तिं लभते नरोत्तमः // 69 / द्वे समाप्ते ततः पने सोऽप्सरोभिर्वसेत्सह // 12 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि तृतीये दिवसे यस्तु प्राश्नीयादेकभोजनम् / नवाधिकशततमोऽध्यायः॥ 109 // / सदा द्वादशमासांस्तु जुह्वानो जातवेदसम् / / 13 - 2679 - Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 110. 14 ] महाभारते [13. 110. 48 अतिरात्रस्य यज्ञस्य फलं प्राप्नोत्यनुत्तमम् / दिवसे सप्तमे यस्तु प्राश्नीयादेकभोजनम् / मयूरहंससंयुक्तं विमानं लभते नरः // 14 सदा द्वादशमासान्वै जुह्वानो जातवेदसम् // 29 सप्तर्षीणां सदा लोके सोऽप्सरोभिर्वसेत्सह / सरस्वती गोपयानो ब्रह्मचर्य समाचरन् / निवर्तनं च तत्रास्य त्रीणि पद्मानि वै विदुः // 15 सुमनोवर्णकं चैव मधुमांसं च वर्जयेत् / / 30 दिवसे यश्चतुर्थे तु प्राश्नीयादेकभोजनम् / पुरुषो मरुतां लोकमिन्द्रलोकं च गच्छति / / सदा द्वादशमासान्वै जुह्वानो जातवेदसम् // 16 तत्र तत्र च सिद्धार्थो देवकन्याभिरुह्यते // 31 वाजपेयस्य यज्ञस्य फलं प्राप्नोत्यनुत्तमम् / फलं बहुसुवर्णस्य यज्ञस्य लभते नरः। इन्द्रकन्यामिरूढं च विमानं लभते नरः // 17 संख्यामतिगुणां चापि तेषु लोकेषु मोदते // 32 सागरस्य च पर्यन्ते वासवं लोकमावसेत् / यस्तु संवत्सरं क्षान्तो भुङ्क्तेऽहन्यष्टमे नरः / देवराजस्य च क्रीडां नित्यकालमवेक्षते // 18 देवकार्यपरो नित्यं जुह्वानो जातवेदसम् // 33 दिवसे पञ्चमे यस्तु प्राश्नीयादेकभोजनम् / पौण्डरीकस्य यज्ञस्य फलं प्राप्नोत्यनुत्तमम् / सदा द्वादशमासांस्तु जुह्वानो जातवेदसम् // 19 पद्मवर्णनिभं चैव विमानमधिरोहति // 34 अलुब्धः सत्यवादी च ब्रह्मण्यश्चाविहिंसकः / कृष्णाः कनकगौर्यश्च नार्यः श्यामास्तथापराः / अनसूयुरपापस्थो द्वादशाहफलं लभेत् / / 20 वयोरूपविलासिन्यो लभते नात्र संशयः // 35 जाम्बूनदमयं दिव्यं विमानं हंसलक्षणम् / / यस्तु संवत्सरं भुङ्क्ते नवमे नवमेऽहनि / सूर्यमालासमाभासमारोहेत्पाण्डुरं गृहम् / / 21 सदा द्वादशमासान्वै जुह्वानो जातवेदसम् // 3 आवर्तनानि चत्वारि तथा पद्मानि द्वादश / अश्वमेधस्य यज्ञस्य फलं प्राप्नोति मानवः / शराग्निपरिमाणं च तत्रासौ वसते सुखम् / / 22 पुण्डरीकप्रकाशं च विमानं लभते नरः // 37 दिवसे यस्तु षष्ठे वै मुनिः प्राशेत भोजनम् / दीप्तसूर्याग्नितेजोभिर्दिव्यमालाभिरेव च / सदा द्वादशमासान्वै जुह्वानो जातवेदसम् / / 23 नीयते रुद्रकन्याभिः सोऽन्तरिक्षं सनातनम् / / 3 सदा त्रिषवणस्नायी ब्रह्मचार्यनसूयकः / अष्टादशसहस्राणि वर्षाणां कल्पमेव च / गवामयस्य यज्ञस्य फलं प्राप्नोत्यनुत्तमम् / / 24 कोटीशतसहस्रं च तेषु लोकेषु मोदते / / 39 अग्निज्वालासमाभासं हंसबहिणसेवितम् / यस्तु संवत्सरं भुङ्क्ते दशाहे वै गते गते / शातकुम्भमयं युक्तं साधयेद्यानमुत्तमम् / / 25 सदा द्वादशमासान्वै जुह्वानो जातवेदसम् // 40 तथैवाप्सरसामने प्रसुप्तः प्रतिबुध्यते / ब्रह्मकन्यानिवेशे च सर्वभूतमनोहरे / नपुराणां निनादेन मेखलानां च निस्वनैः / / 26 अश्वमेधसहस्रस्य फलं प्राप्नोत्यनुत्तमम् // 41 कोटीसहस्रं वर्षाणां त्रीणि कोटिशतानि च। रूपवत्यश्च तं कन्या रमयन्ति सदा नरम् / पद्मान्यष्टादश तथा पताके द्वे तथैव च // 27 नीलोत्पलनिभैर्वणे रक्तोत्पलनिभैस्तथा / / 42 अयुतानि च पश्चाशदृक्षचर्मशतस्य च। विमानं मण्डलावर्तमावर्तगहनावृतम् / लोम्नां प्रमाणेन समं ब्रह्मलोके महीयते // 28 सागरोर्मिप्रतीकाशं साधयेद्यानमुत्तमम् // 43 -2680 - Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 110. 44 ] अनुशासनपर्व [ 13. 110. 71 विचित्रमणिमालाभिर्नादितं शङ्खपुष्करैः / तत्र शङ्कपताकं च युगान्तं कल्पमेव च / स्फाटिकैर्वज्रसारैश्च स्तम्भैः सुकृतवेदिकम् / / 44 अयुतायुतं तथा पद्मं समुद्रं च तथा वसेत् // 58 आरोहति महद्यानं हंससारसवाहनम् / गीतगन्धर्वघोषैश्च भेरीपणवनिस्वनैः / एकादशे तु दिवसे यः प्राप्ते प्राशते हविः / सदा प्रमुदितस्ताभिर्देवकन्याभिरीड्यते // 59 सदा द्वादशमासान्वै जुह्वानो जातवेदसम् // 45 चतुर्दशे तु दिवसे यः पूर्ण प्राशते हविः / परस्त्रियो नाभिलषेद्वाचाथ मनसापि वा। सदा द्वादश मासान्वै महामेधफलं लभेत् // 60 अनृतं च न भाषेत मातापित्रोः कृतेऽपि वा // 46 अनिर्देश्यवयोरूपा देवकन्याः स्वलंकृताः / अभिगच्छेन्महादेवं विमानस्थं महाबलम् / मृष्टतप्ताङ्गदधरा विमानैरनुयान्ति तम् // 61 स्वयंभुवं च पश्येत विमानं समुपस्थितम् // 47. कलहंसविनिर्घोषपुराणां च निस्वनैः / कुमार्यः काञ्चनाभासा रूपवत्यो नयन्ति तम् / / काश्चीनां च समुत्कर्षैस्तत्र तत्र विबोध्यते // 62 रुद्राणां तमधीवासं दिवि दिव्यं मनोहरम् // 48 देवकन्यानिवासे च तस्मिन्वसति मानवः / वर्षाण्यपरिमेयानि युगान्तमपि चावसेत् / जाह्नवीवालुकाकीर्णे पूर्ण संवत्सरं नरः // 63 कोटीशतसहस्रं च दश कोटिशतानि च // 49 यस्तु पक्षे गते भुङ्क्ते एकभक्तं जितेन्द्रियः / रुद्रं नित्यं प्रणमते देवदानवसंमतम् / / सदा द्वादश मासांस्तु जुह्वानो जातवेदसम् / स तस्मै दर्शनं प्राप्तो दिवसे दिवसे भवेत् // 50 | राजसूयसहस्रस्य फलं प्राप्नोत्यनुत्तमम् // 64 दिवसे द्वादशे यस्तु प्राप्ते वै प्राशते हविः / यानमारोहते नित्यं हंसबर्हिणसेवितम् / सदा द्वादशमासान्दै सर्वमेधफलं लभेत् // 51 मणिमण्डलकैश्चित्रं जातरूपसमावृतम् // 65 आदित्यैदशैस्तस्य विमानं संविधीयते / दिव्याभरणशोभाभिर्वरस्त्रीभिरलंकृतम् / मणिमुक्ताप्रवालैश्च महाहरुपशोभितम् // 52 एकस्तम्भं चतुरि सप्तभौमं सुमङ्गलम् / हंसमालापरिक्षिप्तं नागवीथीसमाकुलम् / वैजयन्तीसहस्रैश्च शोभितं गीतनिस्वनैः // 66 मयूरैश्चक्रवाकैश्च कूजद्भिरुपशोभितम् // 53 दिव्यं दिव्यगुणोपेतं विमानमधिरोहति / अट्टैर्महद्भिः संयुक्तं ब्रह्मलोके प्रतिष्ठितम् / मणिमुक्ताप्रवालैश्च भूषितं वैद्युतप्रभम् / नित्यमावसते राजन्नरनारीसमावृतम् / वसेद्युगसहस्रं च खड्गकुञ्जरवाहनः // 67 ऋषिरेवं महाभागस्त्वङ्गिराः प्राह धर्मवित् // 54 षोडशे दिवसे यस्तु संप्राप्ते प्राशते हविः / त्रयोदशे तु दिवसे यः प्राप्ते प्राशते हविः / सदा द्वादश मासान्वै सोमयज्ञफलं लभेत् // 68 उदा द्वादश मासान्वै देवसत्रफलं लभेत् // 55 सोमकन्यानिवासेषु सोऽध्यावसति नित्यदा। एक्लपद्मोदयं नाम विमानं साधयेन्नरः / सौम्यगन्धानुलिप्तश्च कामचारगतिर्भवेत् // 69 जातरूपप्रयुक्तं च रत्नसंचयभूषितम् // 56 - सुदर्शनाभिर्नारीभिर्मधुराभिस्तथैव च / देवकन्याभिराकीर्णं दिव्याभरणभूषितम् / अर्च्यते वै विमानस्थः कामभोगैश्च सेव्यते // 70 पुण्यगन्धोदयं दिव्यं वायव्यैरुपशोभितम् // 57 / फलं पद्मशतप्रख्यं महाकल्पं दशाधिकम् / - 2681 - Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 110. 71] महाभारते [ 13. 110. 101 आवर्तनानि चत्वारि सागरे यात्यसौ नरः // 71 / विमानैः काञ्चनैर्दिव्यैः पृष्ठतश्चानुगम्यते // 86 दिवसे सप्तदशमे यः प्राप्त प्राशते हविः / एकविंशे तु दिवसे यो भुङ्क्ते ह्येकभोजनम् / . सदा द्वादश मासान्वै जुह्वानो जातवेदसम् // 72 सदा द्वादश मासान्दै जुह्वानो जातवेदसम् // 87 स्थानं वारुणमैन्द्रं च रौद्रं चैवाधिगच्छति / लोकमौशनसं दिव्यं शक्रलोकं च गच्छति / मारुतौशनसे चैव ब्रह्मलोकं च गच्छति / / 73 अश्विनोर्मरुतां चैव सुखेष्वभिरतः सदा // 88 तत्र देवतकन्याभिरासनेनोपचर्यते / अनभिज्ञश्च दुःखानां विमानवरमास्थितः। भूर्भुवं चापि देवर्षि विश्वरूपमवेक्षते // 74 सेव्यमानो वरस्त्रीभिः क्रीडत्यमरवत्प्रभुः // 89 तत्र देवाधिदेवस्य कुमार्यो रमयन्ति तम् / द्वाविंशे दिवसे प्राप्ते यो भुङ्क्ते ह्येकभोजनम् / द्वात्रिंशद्रूपधारिण्यो मधुराः समलंकृताः // 75 सदा द्वादश मासान्वै जुह्वानो जातवेदसम् // 90 चन्द्रादित्यावुभौ यावद्गगने चरतः प्रभो। धृतिमानहिंसानिरतः सत्यवागनसूयकः / . . तावञ्चरत्यसौ वीरः सुधामृतरसाशनः / / 76 लोकान्वसूनामाप्नोति दिवाकरसमप्रभः // 91 अष्टादशे तु दिवसे प्राश्नीयादेकभोजनम् / कामचारी सुधाहारो विमानवरमास्थितः / सदा द्वादश मासान्वै सप्त लोकान्स पश्यति // 77 रमते देवकन्याभिर्दिव्याभरणभूषितः // 92 रथैः सनन्दिघोषैश्च पृष्ठतः सोऽनुगम्यते / त्रयोविंशे तु दिवसे प्राशेद्यस्त्वेकभोजनम् / देवकन्याधिरूढैस्तु भ्राजमानैः स्वलंकृतैः // 78 सदा द्वादश मासांन्तु मिताहारो जितेन्द्रियः // 93 व्याघ्रसिंहप्रयुक्तं च मेघस्वननिनादितम् / वायोरुशनसश्चैव रुद्रलोकं च गच्छति / विमानमुत्तमं दिव्यं सुसुखी ह्यधिरोहति / / 79 कामचारी कामगमः पूज्यमानोऽप्सरोगणैः // 94 तत्र कल्पसहस्रं स कान्ताभिः सह मोदते / अनेकगुणपर्यन्तं विमानवरमास्थितः / सुधारसं च भुञ्जीत अमृतोपममुत्तमम् // 80 रमते देवकन्याभिर्दिव्याभरणभूषितः // 55 एकोनविंशे दिवसे यो भुङ्क्ते एकभोजनम् / चतुर्विशे तु दिवसे यः प्राशेदेकभोजनम् / सदा द्वादश मासान्वै सप्त लोकान्स पश्यति // 81 सदा द्वादश मासान्वै जुह्वानो जातवेदसम् / / 96 उत्तमं लभते स्थानमप्सरोगणसेवितम् / आदित्यानामधीवासे मोदमानो वसेञ्चिरम् / गन्धर्वैरुपगीतं च विमानं सूर्यवर्चसम् // 82 दिव्यमाल्याम्बरधरो दिव्यगन्धानुलेपनः // 97 तत्रामरवरस्त्रीभिर्मोदते विगतज्वरः / / विमाने काश्चने दिव्ये हंसयुक्ते मनोरमे। दिव्याम्बरधरः श्रीमानयुतानां शतं समाः // 83 रमते देवकन्यानां सहरयुतैस्तथा // 98 पूर्णेऽथ दिवसे विशे यो भुङ्क्ते हकभोजनम् / पञ्चविंशे तु दिवसे यः प्राशेदेकभोजनम् / सदा द्वादश मासांस्तु सत्यवादी धृतव्रतः // 84 सदा द्वादश मासांस्तु पुष्कलं यानमारुहेत् // 99 अमांसाशी ब्रह्मचारी सर्वभूतहिते रतः। सिंहव्याघ्रप्रयुक्तैश्च मेघस्वननिनादितैः / स लोकान्विपुलान्दिव्यानादित्यानामुपाभुते // 85 रथैः सनन्दिघोषैश्च पृष्ठतः सोऽनुगम्यते // 100 गन्धर्वैरप्सरोभिश्च दिव्यमाल्यानुलेपनैः / / देवकन्यासमारूढैः राजतैर्विमलैः-शुभैः / - 2682 - Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 110. 101 ] अनुशासनपर्व [ 13. 110. 131 विमानमुत्तमं दिव्यमास्थाय सुमनोहरम् // 101 विमानं चन्द्रशुभ्राभं दिव्यं समधिगच्छति // 116 तत्र कल्पसहस्रं वै वसते स्त्रीशतावृते / जातरूपमयं युक्तं सर्वरत्नविभूषितम् / सुधारसं चोपजीवनमृतोपममुत्तमम् // 102 अप्सरोगणसंपूर्ण गन्धर्वैर भिनादितम् / / 117 षड्विंशे दिवसे यस्तु प्राश्नीयादेकभोजनम् / तत्र चैनं शुभा नार्यो दिव्याभरणभूषिताः / सदा द्वादश मासांस्तु नियतो नियताशनः // 103 मनोभिरामा मधुरा रमयन्ति मदोत्कटाः // 118 जितेन्द्रियो वीतरागो जुह्वानो जातवेदसम् / भोगवांस्तेजसा युक्तो वैश्वानरसमप्रभः / स प्राप्नोति महाभागः पूज्यमानोऽप्सरोगणैः // दिव्यो दिव्येन वपुषा भ्राजमान इवामरः // 119 सप्तानां मरुतां लोकान्वसूनां चापि सोऽश्ते / वसूनां मरुतां चैव साध्यानामश्विनोस्तथा / विमाने स्फाटिके दिव्ये सर्वरत्नैरलंकृते // 105 रुद्राणां च तथा लोकान्ब्रह्मलोकं च गच्छति // गन्धर्वैरप्सरोभिश्च पूज्यमानः प्रमोदते / यस्त मासे गते भुङ्क्ते एकभक्तं शमात्मकः / द्वे युगानां सहस्रे तु दिव्ये दिव्येन तेजसा // 106 सदा द्वादश मासान्वै ब्रह्मलोकमवाप्नुयात् / / 121 सप्तविंशे तु दिवसे यः प्राशेदेकभोजनम् / सुधारसकृताहारः श्रीमान्सर्वमनोहरः / सदा द्वादश मासांस्तु जुह्वानो जातवेदसम् // 107 तेजसा वपुषा लक्ष्म्या भ्राजते रश्मिवानिव // 122 फलं प्राप्नोति विपुलं देवलोके च पूज्यते / दिव्यमाल्याम्बरधरो दिव्यगन्धानुलेपनः / अमृताशी वसंस्तत्र स वितृप्तः प्रमोदते // 108 सुखेष्वभिरतो योगी दुःखानामविजानकः // 123 देवर्षिचरितं राजनराजर्षिभिरधिष्ठितम् / स्वयंप्रभाभिर्नारीभिर्विमानस्थो महीयते / अध्यावसति दिव्यात्मा विमानवरमास्थितः // 109 रुद्रदेवर्षिकन्याभिः सततं चाभिपूज्यते // 124 स्त्रीभिर्मनोभिरामाभी रममाणो मदोत्कटः / नानाविधसुरूपाभिर्नानारागाभिरेव च / युगकल्पसहस्राणि त्रीण्यावसति वै सुखम् // 110 नानामधुरभाषाभिर्नानारतिभिरेव च // 125 योऽष्टाविंशे तु दिवसे प्राश्नीयादेकभोजनम् / विमाने नगराकारे सूर्यवत्सूर्यसंनिभे। सदा द्वादश मासांस्तु जितात्मा विजितेन्द्रियः / / पृष्ठतः सोमसंकाशे उदक्चैवाभ्रसंनिभे // 126 फलं देवर्षिचरितं विपुलं समुपाश्रुते / दक्षिणायां तु रक्ताभे अधस्तान्नीलमण्डले। भोगवांस्तेजसा भाति सहस्रांशुरिवामलः // 112 ऊर्ध्वं चित्राभिसंकाशे नैको वसति पूजितः // 127 सुकुमार्यश्च नार्यस्तं रममाणाः सुवर्चसः / यावद्वर्षसहस्रं तु जम्बूद्वीपे प्रवर्षति / पीनस्तनोरुजघना दिव्याभरणभूषिताः // 113 तावत्संवत्सराः प्रोक्ता ब्रह्मलोकस्य धीमतः॥१२८ रमयन्ति मनः कान्ता विमाने सूर्यसंनिमे / विघुषश्चैव यावन्त्यो निपतन्ति नभस्तलात् / सर्वकामगमे दिव्ये कल्पायुतशतं समाः // 114 / वर्षासु वर्षतस्तावन्निवसत्यमरप्रभः // 129 एकोनत्रिंशे दिवसे यः प्राशेदेकभोजनम् / मासोपवासी वषैस्तु दशभिः स्वर्गमुत्तमम् / सदा द्वादश मासान्वै सत्यव्रतपरायणः // 115 महर्षित्वमथासाद्य सशरीरगतिर्भवेत् // 130 तस्य लोकाः शुभा दिव्या देवराजर्षिपूजिताः। / मुनिर्दान्तो जितक्रोधो जितशिश्नोदरः सदा / -2683 - Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 110. 131 ] महाभारते [ 13. 111.21 जुह्वन्ननींश्च नियतः संध्योपासनसेविता // 131 शौचलक्षणमेतत्ते सर्वत्रैवान्ववेक्षणम् // 6 बहुभिर्नियमैरेवं मासाननाति यो नरः / रजस्तमः सत्त्वमथो येषां निधौतमात्मनः। अभ्रावकाशशीलश्च तस्य वासो निरुच्यते // 132 शौचाशौचे न ते सक्ताः स्वकार्यपरिमार्गिणः / / दिवं गत्वा शरीरेण स्वेन राजन्यथामरः / सर्वत्यागेष्वभिरताः सर्वज्ञाः सर्वदर्शिनः। स्वर्ग पुण्यं यथाकाममुपभुङ्क्ते यथाविधि // 133 शौचेन वृत्तशौचार्थास्ते तीर्थाः शुचयश्च ते // 8 एष ते भरतश्रेष्ठ यज्ञानां विधिरुत्तमः / नोदकक्लिन्नगावस्तु स्नात इत्यभिधीयते / व्याख्यातो ह्यानुपूर्येण उपवासफलात्मकः // 134 स स्नातो यो दमस्नातः सबाह्याभ्यन्तरः शुचिः॥९ दरिद्रैर्मनुजैः पार्थ प्राप्यं यज्ञफलं यथा। अतीतेष्वनपेक्षा ये प्राप्तेष्वर्थेषु निर्ममाः / उपवासमिमं कृत्वा गच्छेच्च परमां गतिम् / शौचमेव परं तेषां येषां नोत्पद्यते स्पृहा // 10 देवद्विजातिपूजायां रतो भरतसत्तम // 135 / / प्रज्ञानं शौचमेवेह शरीरस्य विशेषतः / उपवासविधिस्त्वेष विस्तरेण प्रकीर्तितः / तथा निष्किंचनत्वं च मनसश्च प्रसन्नता // 11 नियतेष्वप्रमत्तेषु शौचवत्सु महात्मसु / / 136 वृत्तशौचं मनःशौचं तीर्थशौचं परं हितम् / दम्भद्रोहनिवृत्तेषु कृतबुद्धिषु भारत / ज्ञानोत्पन्नं च यच्छौचं तच्छौचं परमं मतम् // 12 अचलेष्वप्रकम्पेषु मा ते भूदत्र संशयः // 137 मनसाथ प्रदीपेन ब्रह्मज्ञानबलेन च / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि स्नाता ये मानसे तीर्थे तज्ज्ञाः क्षेत्रज्ञदर्शिनः // 13 दशाधिकशततमोऽध्यायः // 110 // समारोपितशौचस्तु नित्यं भावसमन्वितः / केवलं गुणसंपन्नः शुचिरेव नरः सदा // 14 युधिष्ठिर उवाच / शरीरस्थानि तीर्थानि प्रोक्तान्येतानि भारत / यद्वरं सर्वतीर्थानां तद्भवीहि पितामह / पृथिव्यां यानि तीर्थानि पुण्यानि शृणु तान्यपि // यत्र वै परमं शौचं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि // 1 यथा शरीरस्योदेशाः शुचयः परिनिर्मिताः / भीष्म उवाच / तथा पृथिव्या भागाश्च पुण्यानि सलिलानि च॥१६ सर्वाणि खलु तीर्थानि गुणवन्ति मनीषिणाम् / प्रार्थनाचैव तीर्थस्य स्नानाच्च पितृतर्पणात् / यत्तु तीर्थं च शौचं च तन्मे शृणु समाहितः // 2 धुनन्ति पापं तीर्थेषु पूता यान्ति दिवं सुखम् / / 17 अगाधे विमले शुद्धे सत्यतोये धृतिहदे / परिग्रहाच्च साधूनां पृथिव्याश्चैव तेजसा / स्नातव्यं मानसे तीर्थे सत्त्वमालम्ब्य शाश्वतम् // 3 अतीव पुण्यास्ते भागाः सलिलस्य च तेजसा॥१८ तीर्थशौचमनर्थित्वमार्दवं सत्यमार्जवम् / मनसश्च पृथिव्याश्च पुण्यतीर्थास्तथापरे / अहिंसा सर्वभूतानामानृशंस्यं दमः शमः // 4 उभयोरेव यः स्नातः स सिद्धिं शीघ्रमाप्नुयात् // निर्ममा निरहंकारा निर्दृद्वा निष्परिग्रहाः / यथा बलं क्रियाहीनं क्रिया वा बलवर्जिता। शुचयस्तीर्थभूतास्ते ये भैक्षमुपभुञ्जते // 5 नेह साधयते कार्य समायुक्तस्तु सिध्यति // 20 तत्त्ववित्त्वनहंबुद्धिस्तीथं परममुच्यते / एवं शरीरशौचेन तीर्थशौचेन चान्वितः। --- 2684 - Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 111. 21 ] अनुशासनपर्व [13. 112. 23 ततः सिद्धिमवाप्नोति द्विविधं शौचमुत्तमम् // 21 / एकस्तरति दुर्गाणि गच्छत्येकश्च दुर्गतिम् // 11 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि असहायः पिता माता तथा भ्राता सुतो गुरुः / एकादशाधिकशततमोऽध्यायः // 111 // ज्ञातिसंबन्धिवर्गश्च मित्रवर्गस्तथैव च // 12 112 मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्टसमं जनाः / युधिष्ठिर उवाच / मुहूर्तमुपतिष्ठन्ति ततो यान्ति पराङ्मुखाः / पितामह महाबाहो सर्वशास्त्रविशारद / तैस्तच्छरीरमुत्सृष्टं धर्म एकोऽनुगच्छति // 13 श्रोतुमिच्छामि मानां संसारविधिमुत्तमम् // 1 तस्माद्धर्मः सहायार्थे सेवितव्यः सदा नृभिः / केन वृत्तेन राजेन्द्र वर्तमाना नरा युधि / प्राणी धर्मसमायुक्तो गच्छते स्वर्गतिं पराम् / प्राप्नुवन्त्युत्तमं स्वर्ग कथं च नरकं नृप // 2 तथैवाधर्मसंयुक्तो नरकायोपपद्यते // 14 मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्टसमं जनाः / तस्मान्न्यायागतैरथैर्धर्म सेवेत पण्डितः / प्रयान्त्यमुं लोकमितः को वै ताननुगच्छति // 3 धर्म एको मनुष्याणां सहायः पारलौकिकः // 15 भीष्म उवाच / लोभान्मोहादनुक्रोशाद्भयाद्वाप्यबहुश्रुतः / असावायाति भगवान्बृहस्पतिरुदारधीः / नरः करोत्यकार्याणि परार्थे लोभमोहितः // 16 पृच्छैनं सुमहाभागमेतद्गुह्यं सनातनम् // 4 धर्मश्चार्थश्च कामश्च त्रितयं जीविते फलम् / नैतदन्येन शक्यं हि वक्तुं केनचिदद्य वै। एतत्रयमवाप्तव्यमधर्मपरिवर्जितम् // 17 वक्ता बृहस्पतिसमो न ह्यन्यो विद्यते क्वचित् // 5 युधिष्ठिर उवाच / ... वैशंपायन उवाच। श्रुतं भगवतो वाक्यं धर्मयुक्तं परं हितम् / तयोः संवदतोरेवं पार्थगाङ्गेययोस्तदा / आजगाम विशुद्धात्मा भगवान्स बृहस्पतिः // 6 शरीरविचयं ज्ञातुं बुद्धिस्तु मम जायते // 18 मृतं शरीररहितं सूक्ष्ममव्यक्ततां गतम् / ततो राजा समुत्थाय धृतराष्ट्रपुरोगमः / पूजामनुपमा चक्रे सर्वे ते च सभासदः // 7 अचक्षुर्विषयं प्राप्तं कथं धर्मोऽनुगच्छति // 19 ततो धर्मसुतो राजा भगवन्तं बृहस्पतिम् / बृहस्पतिरुवाच / उपगम्य यथान्यायं प्रश्नं पप्रच्छ सुव्रतः / / 8 पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च पञ्चमम् / युधिष्ठिर उवाच / बुद्धिरात्मा च सहिता धर्म पश्यन्ति नित्यदा // 20 भगवन्सर्वधर्मज्ञ सर्वशास्त्रविशारद / प्राणिनामिह सर्वेषां साक्षिभूतानि चानिशम् / मर्त्यस्य कः सहायो वै पिता माता सुतो गुरुः // एतैश्च स ह धर्मोऽपि तं जीवमनुगच्छति // 21 मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्टलोष्टसमं जनाः / त्वगस्थिमांसं शुक्रं च शोणितं च महामते / गच्छन्त्यमुत्रलोकं वै क एनमनुगच्छति // 10 शरीरं वर्जयन्त्येते जीवितेन विवर्जितम् / / 22 बृहस्पतिरुवाच / ततो धर्मसमायुक्तः स जीवः सुखमेधते / एकः प्रसूतो राजेन्द्र जन्तुरेको विनश्यति / इह लोके परे चैव किं भूयः कथयामि ते // 23 -2685 - Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 112, 24 ] महाभारते [13. 112. 49 युधिष्ठिर उवाच। यदि धर्म यथाशक्ति जन्मप्रभृति सेवते / अनुदर्शितं भगवता यथा धर्मोऽनुगच्छति / / ततः स पुरुषो भूत्वा सेवते नित्यदा सुखम् // 35 एतत्तु ज्ञातुमिच्छामि कथं रेतः प्रवर्तते // 24 अथान्तरा तु धर्मस्य अधर्ममुपसेवते / बृहस्पतिरुवाच / सुखस्यानन्तरं दुःखं स जीवोऽप्यधिगच्छति // 36 अन्नमश्नन्ति ये देवाः शरीरस्था नरेश्वर / अधर्मेण समायुक्तो यमस्य विषयं गतः।। पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिर्मनस्तथा // 25 महदुःखं समासाद्य तिर्यग्योनौ प्रजायते / / 37 कर्मणा येन येनेह यस्यां योनौ प्रजायते। ततस्तृप्तेषु राजेन्द्र तेषु भूतेषु पञ्चसु / जीवो मोहसमायुक्तस्तन्मे निगदतः शृणु // 38 मनःषष्ठेषु शुद्धात्मन्रेतः संपद्यते महत् // 26 / ततो गर्भः संभवति स्त्रीपुंसोः पार्थ संगमे / यदेतदुच्यते शास्त्रे सेतिहासे सच्छन्दसि / एतत्ते सर्वमाख्यातं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि // 27 यमस्य विषयं घोरं मो लोकः प्रपद्यते // 39 अधीत्य चतुरो वेदान्द्विजो मोहसमन्वितः। युधिष्ठिर उवाच / पतितात्प्रतिगृह्याथ खरयोनौ प्रजायते // 4.. आख्यातमेतद्भवता गर्भः संजायते यथा / खरो जीवति वर्षाणि दश पञ्च च भारत / यथा जातस्तु पुरुषः प्रपद्यति तदुच्यताम् // 28 खरो मृतो बलीवर्दः सप्त वर्षाणि जीवति // 41 बृहस्पतिरुवाच / बलीवो मृतश्चापि जायते ब्रह्मराक्षसः / आसन्नमात्रः सततं तैभूतैरभिभूयते / ब्रह्मरक्षस्तु त्रीन्मासांस्ततो जायति ब्राह्मणः // 42 विप्रमुक्तश्च तैभूतैः पुनर्यात्यपरां गतिम् / पतितं याजयित्वा तु कृमियोनौ प्रजायते / स तु भूतसमायुक्तः प्राप्नुते जीव एव ह / / 29 तत्र जीवति वर्षाणि दश पञ्च च भारत // 43 ततोऽम्य कर्म पश्यन्ति शुभं वा यदि वाशुभम् / कृमिभावात्प्रमुक्तस्तु ततो जायति गर्दभः / देवताः पञ्चभूतस्थाः किं भूयः श्रोतुमिच्छसि // 30 गर्दभः पञ्च वर्षाणि पश्च वर्षाणि सूकरः / युधिष्ठिर उवाच / श्वा वर्षमेकं भवति ततो जायति मानवः // 44 त्वगस्थिमांसमुत्सृज्य तैश्च भूतैर्विवर्जितः। उपाध्यायस्य यः पापं शिष्यः कुर्यादबुद्धिमान् / जीवः स भगवन्कस्थः सुखदुःखे समश्नुते // 31 स जीव इह संसारांस्वीनाप्नोति न संशयः॥ 45 बृहस्पतिरुवाच / प्राक्श्वा भवति राजेन्द्र ततः क्रव्यात्ततः खरः। जीवो धर्मसमायुक्तः शीघ्रं रेतस्त्वमागतः / ततः प्रेतः परिक्लिष्टः पश्चाजायति ब्राह्मणः // 46 स्त्रीणां पुष्पं समासाद्य सूते कालेन भारत // 32 मनसापि गुरोर्भायां यः शिष्यो याति पापकृत् / यमस्य पुरुषैः क्लेशं यमस्य पुरुपैर्वधम् / सोऽधमान्याति संसारानधर्मेणेह चेतसा // 47 दुःखं संसारचक्रं च नरः लेशं च विन्दति / / 33 / श्वयोनौ तु स संभूतस्त्रीणि वर्षाणि जीवति / इहलोके च स प्राणी जन्मप्रभृति पार्थिव / तत्रापि निधनं प्राप्तः कृमियोनौ प्रजायते // 48 स्वकृतं कर्म वै भुङ्क्ते धर्मस्य फलमाश्रितः // 34 / कृमिभावमनुप्राप्तो वर्षमेकं स जीवति / -2686 - Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 112. 49 ] अनुशासनपर्व [ 13. 112. 78 ततस्तु निधनं प्राप्य ब्रह्मयोनौ प्रजायते // 49 सूकरो जातमात्रस्तु रोगेण म्रियते नृप // 64 यदि पुत्रसमं शिष्यं गुरुर्हन्यादकारणे / श्वा ततो जायते मूढः कर्मणा तेन पार्थिव / मात्मनः कामकारेण सोऽपि हंसः प्रजायते / / 50 श्वा भूत्वा पञ्च वर्षाणि ततो जायति मानुषः // पितरं मातरं वापि यस्तु पुत्रोऽवमन्यते / परदाराभिमर्श तु कृत्वा जायति वै वृकः / घोऽपि राजन्मृतो जन्तुः पूर्व जायति गर्दभः // 51 श्वा सृगालस्ततो गृध्रो व्यालः कङ्को बकस्तथा // खरो जीवति मासांस्तु दश श्वा च चतुर्दश। भ्रातुर्भायां तु दुर्बुद्धिर्यो धर्षयति मोहितः / बिडालः सप्त मासांस्तु ततो जायति मानवः // 52 पुंस्कोकिलत्वमाप्नोति सोऽपि संवत्सरं नृप // 67 मातापितरमाक्रुश्य सारिकः संप्रजायते। सखिभायां गुरोर्भायां राजभार्यां तथैव च / ताडयित्वा तु तावेव जायते कच्छपो नृप // 53 प्रधर्षयित्वा कामाद्यो मृतो जायति सूकरः // 68 कच्छपो दश वर्षाणि त्रीणि वर्षाणि शल्यकः / सूकरः पश्च वर्षाणि पञ्च वर्षाणि श्वाविधः / ज्यालो भूत्वा तु षण्मासांस्ततो जायति मानुषः // पिपीलकस्तु षण्मासान्कीटः स्यान्मासमेव च। भर्तृपिण्डमुपाश्नन्यो राजद्विष्टानि सेवते / एतानासाद्य संसारान्कृमियोनौ प्रजायते // 69 सोऽपि मोहसमापन्नो मृतो जायति वानरः // 55 तत्र जीवति मासांस्तु कृमियोनौ त्रयोदश / वानरो दश वर्षाणि त्रीणि वर्षाणि मूषकः / ततोऽधर्मक्षयं कृत्वा पुनर्जायति मानुषः // 70 श्वा भूत्वा चाथ षण्मासांस्ततो जायति मानुषः // उपस्थिते विवाहे तु दाने यज्ञेऽपि वाभिभो / न्यासापहर्ता तु नरो यमस्य विषयं गतः / मोहात्करोति यो विघ्नं स मृतो जायते कृमिः // संसाराणां शतं गत्वा कृमियोनौ प्रजायते // 57 / कृमिर्जीवति वर्षाणि दश पञ्च च भारत / तत्र जीवति वर्षाणि दश पञ्च च भारत / अधर्मस्य क्षयं कृत्वा ततो जायति मानुषः / / 72 दुष्कृतस्य क्षयं गत्वा ततो जायति मानुषः // 58 पूर्व दत्त्वा तु यः कन्यां द्वितीये संप्रयच्छति / असूयको नरश्चापि मृतो जायति शाङ्गकः / सोऽपि राजन्मृतो जन्तुः कृमियोनौ प्रजायते // 73 विश्वासहर्ता तु नरो मीनो जायति दुर्मतिः // 59 तत्र जीवति वर्षाणि त्रयोदश युधिष्ठिर / भूत्वा मीनोऽष्ट वर्षाणि मृगो जायति भारत। अधर्मसंक्षये युक्तस्ततो जायति मानुषः / / 74 मृगस्तु चतुरो मासांस्ततश्छागः प्रजायते // 60 देवकार्यमुपाकृत्य पितृकार्यमथापि च / छागस्तु निधनं प्राप्य पूर्ण संवत्सरे ततः।। अनिर्वाप्य समश्नन्वै ततो जायति वायसः // 75 कीटः संजायते जन्तुस्ततो जायति मानुषः // 61 वायसो दश वर्षाणि ततो जायति कुक्कुटः / धान्यान्यवांस्तिलान्माषान्कुलत्थान्सर्षपश्चिणान् / जायते लवकश्चापि मासं तस्मात्तु मानुषः // 76 कलायानथ मुद्रांश्च गोधूमानतसीस्तथा / 62 ज्येष्ठं पितृसमं चापि भ्रातरं योऽवमन्यते / सस्यस्यान्यस्य हर्ता च मोहाजन्तुरचेतनः / सोऽपि मृत्युमुपागम्य क्रौञ्चयोनौ प्रजायते // 77 स जायते महाराज मूषको निरपत्रपः / / 63 क्रोम्चो जीवति मासांस्तु दश द्वौ सप्त पञ्च च / ततः प्रेत्य महाराज पुनर्जायति सूकरः / / ततो निधनमापन्नो मानुषत्वमुपाश्नुते / / 78 -2687 - Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 112. 79 ] महाभारते [ 13. 112. 106 वृषलो ब्राह्मणीं गत्वा कृमियोनौ प्रजायते / मक्षिकासंघवशगो बहून्मासान्भवत्युत / तत्रापत्यं समुत्पाद्य ततो जायति मूषकः // 79 ततः पापक्षयं कृत्वा मानुषत्वमवाप्नुते // 93 कृतघ्नस्तु मृतो राजन्यमस्य विषयं गतः / वाद्यं हृत्वा तु पुरुषो मशकः संप्रजायते / यमस्य विषये क्रुद्वैर्वधं प्राप्नोति दारुणम् / / 80 तथा पिण्यालसंमिश्रमशनं चोरयेन्नरः / / पट्टिसं मुद्गरं शूलमग्निकुम्भं च दारुणम् / स जायते बधुसमो दारुणो मूषको नरः॥ 94 असिपत्रवनं घोरं वालुकां कूटशाल्मलीम् // 81 लवणं चोरयित्वा तु चीरीवाकः प्रजायते / एताश्चान्याश्च बह्वीः स यमस्य विषयं गतः / / दधि हृत्वा बकश्चापि प्लवो मत्स्यानसंस्कृतान् // 95 यातनाः प्राप्य तत्रोग्रास्ततो वध्यति भारत // 82 चोरयित्वा पयश्चापि बलाका संप्रजायते / संसारचक्रमासाद्य कृमियोनौ प्रजायते / यस्त चोरयते तैलं तैलपायी प्रजायते / कृमिर्भवति वर्षाणि दश पञ्च च भारत / चोरयित्वा तु दुर्बुद्धिर्मधु दंशः प्रजायते // 96 ततो गर्भ समासाद्य तत्रैव म्रियते शिशुः / / 83 अयो हृत्वा तु दुर्बुद्धिर्वायसो जायते नरः / ततो गर्भशतैर्जन्तुर्बहुभिः संप्रजायते / पायसं चोरयित्वा तु तित्तिरित्वमवाप्नुते // 97 संसारांश्च बहून्गत्वा ततस्तिर्यक्प्रजायते // 84 हृत्वा पैष्टमपूपं च कुम्भोलूकः प्रजायते। मृतो दुःखमनुप्राप्य बहुवर्षगणानिह / फलं वा मूलकं हृत्वा अपूपं वा पिपीलिकः // 98 अपुनर्भावसंयुक्तस्तत: कूर्मः प्रजायते // 85 कांस्यं हृत्वा तु दुर्बुद्धिर्हारीतो जायते नरः / अशस्त्रं पुरुषं हत्वा सशस्त्रः पुरुषाधमः / राजतं भाजनं हृत्वा कपोतः संप्रजायते // 99 अर्थार्थी यदि वा वैरी स मृतो जायते खरः // 86 हृत्वा तु काञ्चनं भाण्डं कृमियोनौ प्रजायते / खरो जीवति वर्षे द्वे ततः शस्त्रेण वध्यते। क्रौश्चः कार्पासिकं हृत्वा मृतो जायति मानवः॥ स मृतो मृगयोनौ तु नित्योद्विग्नोऽभिजायते // 87 चोरयित्वा नरः पढें त्वाविकं वापि भारत / मृगो वध्यति शस्त्रेण गते संवत्सरे तु सः। क्षौमं च वस्त्रमादाय शशो जन्तुः प्रजायते // 101 हतो मृगस्ततो मीनः सोऽपि जालेन बध्यते // 88 वर्णान्हृत्वा तु पुरुषो मृतो जायति बहिणः / मासे चतुर्थे संप्राप्ते श्वापदः संप्रजायते / हृत्वा रक्तानि वस्त्राणि जायते जीवजीवकः // 102 श्वापदो दश वर्षाणि द्वीपी वर्षाणि पश्च च // 89 वर्णकादींस्तथा गन्धांश्चोरयित्वा तु मानवः / ततस्तु निधनं प्राप्तः कालपर्यायचोदितः / छुच्छन्दरित्वमाप्नोति राजल्लोभपरायणः // 103 अधर्मस्य क्षयं कृत्वा ततो जायति मानुषः // 90 / विश्वासेन तु निक्षिप्तं यो निह्नवति मानवः / स्त्रियं हत्वा तु दुर्बुद्धिर्यमस्य विषयं गतः / स गतासुनरस्तादृङ्मत्स्ययोनौ प्रजायते // 104 बहून्क्लेशान्समासाद्य संसारांश्चैव विंशतिम् // 91 मत्स्ययोनिमनुप्राप्य मृतो जायति मानुषः / ततः पश्चान्महाराज कृमियोनौ प्रजायते / मानुषत्वमनुप्राप्य क्षीणायुरुपपद्यते // 105 कृमिर्विंशतिवर्षाणि भूत्वा जायति मानुषः / / 92 पापानि तु नरः कृत्वा तिर्यग्जायति भारत / भोजनं चोरयित्वा तु मक्षिका जायते नरः / / न चात्मनः प्रमाणं ते धर्म जानन्ति किंचन // -2688 - Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 112. 107] अनुशासनपर्व [ 13. 118. 19 ये पापानि नराः कृत्वा निरस्यन्ति व्रतैः सदा।। भुजंग इव निर्मोकात्पूर्वभुक्ताज्जरान्वितात् // 4 सुखदुःखसमायुक्ता व्याधितास्ते भवन्त्युत // 107 - अदत्त्वापि प्रदानानि विविधानि समाहितः / असंवासाः प्रजायन्ते म्लेच्छाश्चापि न संशयः / मनःसमाधिसंयुक्तः सुगतिं प्रतिपद्यते // 5 नराः पापसमाचारा लोभमोहसमन्विताः // 108 प्रदानानि तु वक्ष्यामि यानि दत्त्वा युधिष्ठिर / वर्जयन्ति च पापानि जन्मप्रभृति ये नराः / नरः कृत्वाप्यकार्याणि तदा धर्मेण युज्यते // 6 अरोगा रूपवन्तस्ते धनिनश्च भवन्त्युत // 109 / सर्वेषामेव दानानामन्नं श्रेष्ठमुदाहृतम् / स्त्रियोऽप्येतेन कल्पेन कृत्वा पापमवाप्नुयुः / पूर्वमन्नं प्रदातव्यमृजुना धर्ममिच्छता // 7 एतेषामेव जन्तूनां पत्नीत्वमुपयान्ति ताः / / 110 प्राणा ह्यन्नं मनुष्याणां तस्माज्जन्तुश्च जायते / परस्वहरणे दोषाः सर्व एव प्रकीर्तिताः। . अन्ने प्रतिष्ठिता लोकास्तस्मादन्नं प्रकाशते // 8 एतद्वै लेशमात्रेण कथितं ते मयानघ / अन्नमेव प्रशंसन्ति देवर्षिपितृमानवाः / अपरस्मिन्कथायोगे भूयः श्रोष्यसि भारत // 111 अन्नस्य हि प्रदानेन स्वर्गमाप्नोति कौशिकः // 9 एतन्मया महाराज ब्रह्मणो वदतः पुरा / न्यायलब्धं प्रदातव्यं द्विजेभ्यो ह्यन्नमुत्तमम् / सुरर्षीणां श्रुतं मध्ये पृष्टश्चापि यथातथम् // 112 स्वाध्यायसमुपेतेभ्यः प्रहृष्टेनान्तरात्मना // 10 मयापि तव कान्येन यथावदनुवर्णितम् / यस्य ह्यन्नमुपाश्नन्ति ब्राह्मणानां शता दश / एतच्छ्रुत्वा महाराज धर्मे कुरु मनः सदा // 113 हृष्टेन मनसा दत्तं न स तिर्यग्गतिर्भवेत् // 11 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि ब्राह्मणानां सहस्राणि दश भोज्य नरर्षभ / द्वादशाधिकशततमोऽध्यायः // 112 // नरोऽधर्मात्प्रमुच्येत पापेष्वभिरतः सदा // 12 113 भैक्षेणान्नं समाहृत्य विप्रो वेदपुरस्कृतः / स्वाध्यायनिरते विप्रे दत्त्वेह सुखमेधते // 13 युधिष्ठिर उवाच / अहिंसन्ब्राह्मणं नित्यं न्यायेन परिपाल्य च / अधर्मस्य गतिर्ब्रह्मन्कथिता मे त्वयानघ / क्षत्रियस्तरसा प्राप्तमन्नं यो वै प्रयच्छति // 14 धर्मस्य तु गतिं श्रोतुमिच्छामि वदतां वर / द्विजेभ्यो वेदवृद्धेभ्यः प्रयतः सुसमाहितः / कृत्वा कर्माणि पापानि कथं यान्ति शुभां गतिम् / / तेनापोहति धर्मात्मा दुष्कृतं कर्म पाण्डव // 15 बृहस्पतिरुवाच / षड्भागपरिशुद्धं च कृषेर्भागमुपार्जितम् / कृत्वा पापानि कर्माणि अधर्मवशमागतः / वैश्यो ददहिजातिभ्यः पापेभ्यः परिमुच्यते // 16 मनसा विपरीतेन निरयं प्रतिपद्यते // 2 अवाप्य प्राणसंदेहं कार्कश्येन समार्जितम् / मोहादधर्म यः कृत्वा पुनः समनुतप्यते / अन्नं दत्त्वा द्विजातिभ्यः शूद्रः पापात्प्रमुच्यते // 17 मनःसमाधिसंयुक्तो न स सेवेत दुष्कृतम् / / 3 औरसेन बलेनान्नमर्जयित्वाविहिंसकः / यथा यथा नरः सम्यगधर्ममनुभाषते / यः प्रयच्छति विप्रेभ्यो न स दुर्गाणि सेवते // 18 समाहितेन मनसा विमुच्यति तथा तथा। न्यायेनावाप्तमन्नं तु नरो लोभविवर्जितः / -2689 - म.भा. 337 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 113. 19] महाभारते [ 13. 115.3 द्विजेभ्यो वेदवृद्धेभ्यो दत्त्वा पापात्प्रमुच्यते // 19 / त्रीन्दोषान्सर्वभूतेषु निधाय पुरुषः सदा। अन्नमूर्जस्करं लोके दत्त्वोर्जस्वी भवेन्नरः। कामक्रोधौ च संयम्य ततः सिद्धिमवाप्नुते // 4 सतां पन्थानमाश्रित्य सर्वपापात्प्रमुच्यते // 20 अहिंसकानि भूतानि दण्डेन विनिहन्ति यः / दानकृद्भिः कृतः पन्था येन यान्ति मनीषिणः / आत्मनः सुखमन्विच्छन्न स प्रेत्य सुखी भवेत् // 5 ते स्म प्राणस्य दातारस्तेभ्यो धर्मः सनातनः // 21 आत्मोपमश्च भूतेषु यो वै भवति पूरुषः। . सर्वावस्थं मनुष्येण न्यायेनान्नमुपार्जितम् / न्यस्तदण्डो जितक्रोधः स प्रेत्य सुखमेधते // 6 कार्य पात्रगतं नित्यमन्नं हि परमा गतिः // 22 सर्वभूतात्मभूतस्य सर्वभूतानि पश्यतः। अन्नस्य हि प्रदानेन नरो दुर्गं न सेवते / देवापि मार्गे मुह्यन्ति अपदस्य पदैषिणः / / 7 तस्मादन्नं प्रदातव्यमन्यायपरिवर्जितम् / / 23 न तत्परस्य संदद्यात्प्रतिकूलं यदात्मनः / यतेब्राह्मणपूर्वं हि भोक्तुमन्नं गृही सदा / एष संक्षेपतो धर्मः कामादन्यः प्रवर्तते // 8 अवन्ध्यं दिवसं कुर्यादन्नदानेन मानवः // 24 प्रत्याख्याने च दाने च सुखदुःखे प्रियाप्रिये / भोजयित्वा दशशतं नरो वेदविदां नृप। आत्म्यौपम्येन पुरुषः समाधिमधिगच्छति // 9 न्यायविद्धर्मविदुषामितिहासविदां तथा // 25 यथा परः प्रक्रमतेऽपरेषु न याति नरकं घोरं संसारांश्च न सेवते / तथापरः प्रक्रमते परस्मिन् / सर्वकामसमायुक्तः प्रेत्य चाप्यनुते फलम् // 26 एषैव तेऽस्तूपमा जीवलोके एवं सुखसमायुक्तो रमते विगतज्वरः / यथा धर्मो नैपुणेनोपदिष्टः // 10 रूपवान्कीर्तिमांश्चैव धनवांश्चोपपद्यते // 27 वैशंपायन उवाच / एतत्ते सर्वमाख्यातमन्नदानफलं महत् / इत्युक्त्वा तं सुरगुरुर्धर्मराज युधिष्ठिरम् / मूलमेतद्धि धर्माणां प्रदानस्य च भारत / / 28 दिवमाचक्रमे धीमान्पश्यतामेव नस्तदा // 11 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि प्रयोदशाधिकशततमोऽध्यायः // 113 // चतुर्दशाधिकशततमोऽध्यायः // 11 // युधिष्ठिर उवाच / 115 अहिंसा वैदिकं कर्म ध्यानमिन्द्रियसंयमः। वैशंपायन उवाच / तपोऽथ गुरुशुश्रूषा किं श्रेयः पुरुषं प्रति // 1 ततो युधिष्ठिरो राजा शरतल्पे पितामहम् / बृहस्पतिरुवाच / पुनरेव महातेजाः पप्रच्छ वदतां वरम् // 1 सर्वाण्येतानि धर्मस्य पृथग्द्वाराणि सर्वशः / ऋषयो ब्राह्मणा देवाः प्रशंसन्ति महामते / शृणु संकीर्त्यमानानि षडेव भरतर्षभ / / 2 अहिंसालक्षणं धर्म वेदप्रामाण्यदर्शनात् / / 2 हन्त निःश्रेयसं जन्तोरहं वक्ष्याम्यनुत्तमम् / कर्मणा मनुजः कुर्वन्हिसां पार्थिवसत्तम / अहिंसापाश्रयं धर्म यः साधयति वै नरः // 3 / वाचा च मनसा चैव कथं दुःखात्प्रमुच्यते // 3 - 2690 - Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 115. 4] अनुशासनपर्व [ 13. 116. 12 भीष्म उवाच / अहिंसा तव निर्दिष्टा सर्वधर्मार्थसंहिता // 16 चतुर्विधेयं निर्दिष्टा अहिंसा ब्रह्मवादिभिः / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि पञ्चाधिकशततमोऽध्यायः // 115 // एषैकतोऽपि विभ्रष्टा न भवत्यरिसूदन // 4 यथा सर्वश्चतुष्पादस्त्रिभिः पादैन तिष्ठति / युधिष्ठिर उवाच / तथैवेयं महीपाल प्रोच्यते कारणैत्रिभिः / / 5 अहिंसा परमो धर्म इत्युक्तं बहुशस्त्वया / यथा नागपदेऽन्यानि पदानि पदगामिनाम् / श्राद्धेषु च भवानाह पितॄनामिषकाविणः // 1 सर्वाण्येवापिधीयन्ते पदजातानि कौञ्जरे / मांसैर्बहुविधैः प्रोक्तस्त्वया श्राद्धविधिः पुरा / एवं लोकेष्वहिंसा तु निर्दिष्टा धर्मतः परा / / 6 अहत्वा च कृतो मांसमेवमेतद्विरुध्यते // 2 कर्मणा लिप्यते जन्तुर्वाचा च मनसैव च // 7 जातो नः संशयो धर्मे मांसस्य परिवर्जने / पूर्व तु मनसा त्यक्त्वा तथा वाचाथ कर्मणा / दोषो भक्षयतः कः स्यात्कश्चाभक्षयतो गुणः // 3 विकारणं तु निर्दिष्टं श्रूयते ब्रह्मवादिभिः / / 8 हत्वा भक्षयतो वापि परेणोपहृतस्य वा / मनोवाचि तथास्वादे दोषा ह्येषु प्रतिष्ठिताः / हन्याद्वा यः परस्वार्थे क्रीत्वा वा भक्षयेन्नरः // 4 न भक्षयन्त्यतो मांसं तपोयुक्ता मनीषिणः // 9 एतदिच्छामि तत्त्वेन कथ्यमानं त्वयानघ / दोषांस्तु भक्षणे राजन्मांसस्येह निबोध मे।। निश्चयेन चिकीर्षामि धर्ममेतं सनातनम् // 5 पुत्रमांसोपमं जानन्खादते यो विचेतनः // 10 कथमायुरवाग्नोति कथं भवति सत्त्ववान् / मातापितृसमायोगे पुत्रत्वं जायते यथा / कथमव्यङ्गतामेति लक्षण्यो जायते कथम् // 6 रसं च प्रति जिह्वायां प्रज्ञानं जायते तथा / भीष्म उवाच / तथा शास्त्रेषु नियतं रागो ह्यास्वादिताद्भवेत् // 11 मांसस्य भक्षणे राजन्योऽधर्मः कुरुपुंगव / असंस्कृताः संस्कृताश्च लवणालवणास्तथा / तं मे शृणु यथातत्त्वं यश्चास्य विधिरुत्तमः // 7 रूपमव्यङ्गतामायुर्बुद्धिं सत्त्वं बलं स्मृतिम् / प्रजायन्ते यथा भावास्तथा चित्तं निरुध्यते / / 12 प्राप्तुकामैनरैर्हिसा वर्जिता वै कृतात्मभिः // 8 भेरीशङ्खमृदङ्गाद्यांस्तत्रीशब्दांश्च पुष्कलान् / ऋषीणामत्र संवादो बहुशः कुरुपुंगव / निषेविष्यन्ति वै मन्दा मांसभक्षाः कथं नराः // 13 बभूव तेषां तु मतं यत्तच्छृणु युधिष्ठिर // 9 अचिन्तितमनुदिष्टमसंकल्पितमेव च / यो यजेताश्वमेधेन मासि मासि यतव्रतः। रसं गृद्ध्याभिभूता वै प्रशंसन्ति फलार्थिनः / वर्जयेन्मधु मांसं च सममेतद्युधिष्ठिर // 10 प्रशंसा ह्येव मांसस्य दोषकर्मफलान्विता / / 14 सप्तर्षयो वालखिल्यास्तथैव च मरीचिपाः / जीवितं हि परित्यज्य बहवः साधवो जनाः। अमांसभक्षणं राजन्प्रशंसन्ति मनीषिणः // 11 खमांसः परमांसानि परिपाल्य दिवं गताः // 15 न भक्षयति गे मांसं न हन्यान्न च घातयेत् / एवमेषा महाराज चतुर्भिः कारणैता। तं मित्रं सर्वभूतानां मनुः स्वायंभुवोऽब्रवीत् // 12 -2691 - Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 116. 13 ] महाभारते [13. 116. 42 अधृष्यः सर्वभूतानां विश्वास्यः सर्वजन्तुषु / कान्तारेष्वथ घोरेषु दुर्गेषु गहनेषु च।। साधूनां संमतो नित्यं भवेन्मांसस्य वर्जनात् // 13 रात्रावहनि संध्यासु चत्वरेषु सभासु च। ' स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति / अमांसभक्षणे राजन्भयमन्ते न गच्छति // 28 नारदः प्राह धर्मात्मा नियतं सोऽवसीदति // 14 यदि चेत्खादको न स्यान्न तदा घातको भवेत् / ददाति यजते चापि तपस्वी च भवत्यपि / घातकः खादकार्थाय तं घातयति वै नरः / / 29 मधुमांसनिवृत्त्येति प्राहैवं स बृहस्पतिः // 15 अभक्ष्यमेतदिति वा इति हिंसा निवर्तते / मासि मास्यश्वमेधेन यो यजेत शतं समाः।। खादकार्थमतो हिंसा मृगादीनां प्रवर्तते // 30 न खादति च यो मांसं सममेतन्मतं मम // 16 यस्माद्सति चैवायुर्हिसकानां महाद्युते। . सदा यजति सत्रेण सदा दानं प्रयच्छति / तस्माद्विवर्जयेन्मांसं य इच्छेद्भूतिमात्मनः // 31 सदा तपस्वी भवति मधुमांसस्य वर्जनात् // 17 त्रातारं नाधिगच्छन्ति रौद्राः प्राणिविहिंसकाः / सर्वे वेदा न तत्कुर्युः सर्वयज्ञाश्च भारत। उद्वेजनीया भूतानां यथा व्यालमृगास्तथा / / 32 यो भक्षयित्वा मांसानि पश्चादपि निवर्तते // 18 लोभाद्वा बुद्धिमोहाद्वा बलवीर्यार्थमेव च / दुष्करं हि रसझेन मांसस्य परिवर्जनम् / संसर्गाद्वाथ पापानामधर्मरुचिता नृणाम् // 33 चतुं व्रतमिदं श्रेष्ठं सर्वप्राण्यभयप्रदम् / / 19 स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति / सर्वभूतेषु यो विद्वान्ददात्यभयदक्षिणाम् / उद्विग्नवासे वसति यत्रतत्राभिजायते // 34 दाता भवति लोके स प्राणानां नात्र संशयः // 20 धन्यं यशस्यमायुष्यं स्वयं स्वस्त्ययनं महत् / एवं वै परमं धर्म प्रशंसन्ति मनीषिणः / मांसस्याभक्षणं प्राहुनियेताः परमर्षयः // 35 प्राणा यथात्मनोऽभीष्टा भूतानामपि ते तथा // 21 इदं तु खलु कौन्तेय श्रुतमासीत्पुरा मया / आत्मौपम्येन गन्तव्यं बुद्धिमद्भिर्महात्मभिः / / मार्कण्डेयस्य वदतो ये दोषा मांसभक्षणे // 36 मृत्युतो भयमस्तीति विदुषां भूतिमिच्छताम् // 22 यो हि खादति मांसानि प्राणिनां जीवितार्थिनाम्। किं पुनर्जन्यमानानां तरसा जीवितार्थिनाम् / हतानां वा मृतानां वा यथा हन्ता तथैव सः॥३॥ अरोगाणामपापानां पापैमांसोपजीविभिः // 23 / धनेन क्रायको हन्ति खादकश्चोपभोगतः / तस्माद्विद्धि महाराज मांसस्य परिवर्जनम् / घातको वधबन्धाभ्यामित्येष त्रिविधो वधः // 38 धर्मस्यायतनं श्रेष्ठं स्वर्गस्य च सुखस्य च // 24 / / अखादन्ननुमोदंश्च भावदोषेण मानवः / अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परं तपः। योऽनुमन्येत हन्तव्यं सोऽपि दोषेण लिप्यते // 39 अहिंसा परमं सत्यं ततो धर्मः प्रवर्तते // 25 अधृष्यः सर्वभूतानामायुष्मान्नीरुजः सुखी / न हि मांसं तृणात्काष्टादुपलाद्वापि जायते / भवत्यभक्षयन्मांसं दयावान्प्राणिनामिह // 40 हत्वा जन्तुं ततो मांसं तस्माद्दोषोऽस्य भक्षणे॥२६ हिरण्यदानैर्गोदानभूमिदानैश्च सर्वशः / स्वाहास्वधामृतभुजो देवाः सत्यार्जवप्रियाः। / मांसस्याभक्षणे धर्मो विशिष्टः स्यादिति श्रुतिः॥४१ क्रव्यादाराक्षसान्विद्धि जिह्मानृतपरायणान् // 27 / अप्रोक्षितं वृथामांसं विधिहीनं न भक्षयेत् / - 2692 - Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 116. 42] अनुशासनपर्व [ 13. 116. 71 भक्षयन्निरयं याति नरो नास्त्यत्र संशयः // 42 क्रिया ह्येवं न हीयन्ते पितृदैवतसंश्रिताः / प्रोक्षिताभ्युक्षितं मांसं तथा ब्राह्मणकाम्यया / प्रीयन्ते पितरश्चैव न्यायतो मांसतर्पिताः // 57 अल्पदोषमिह ज्ञेयं विपरीते तु लिप्यते // 43 इदं तु शृणु राजेन्द्र कीर्त्यमानं मयानघ / खादकस्य कृते जन्तुं यो हन्यात्पुरुषाधमः / अभक्षणे सर्वसुखं मांसस्य मनुजाधिप / 58 महादोषकरस्तत्र खादको न तु घातकः / / 44 यस्तु वर्षशतं पूर्ण तपस्तप्येत्सुदारुणम् / इज्यायज्ञश्रुतिकृतैर्यो मागैरबुधो जनः / यश्चैकं वर्जयेन्मांसं सममेतन्मतं मम // 59 हन्याजन्तुं मांसगृद्धी स वै नरकभाकरः / / 45 कौमुदे तु विशेषेण शुकुपक्षे नराधिप / भक्षयित्वा तु यो मांसं पश्चादपि निवर्तते / / वर्जयेत्सर्वमांसानि धर्मो ह्यत्र विधीयते // 60 तस्यापि सुमहान्धर्मो यः पापाद्विनिवर्तते // 46 चतुरो वार्षिकान्मासान्यो मांसं परिवर्जयेत् / आहर्ता चानुमन्ता च विशस्ता क्रयविक्रयी / चत्वारि भद्राण्याप्नोति कीर्तिमायुयशो बलम् // 61 संस्कर्ता चोपभोक्ता च घातकाः सर्व एव ते // 47 / अथ वा मासमप्येकं सर्वमांसान्यभक्षयन् / इदमन्यत्तु वक्ष्यामि प्रमाणं विधिनिर्मितम् / / अतीत्य सर्वदुःखानि सुखी जीवेन्निरामयः // 62 पुराणमृषिभिर्जुष्टं वेदेषु परिनिश्चितम् // 48 ये वर्जयन्ति मांसानि मासशः पक्षशोऽपि वा। प्रवृत्तिलक्षणे धर्मे फलार्थिभिरभिद्रुते / तेषां हिंसानिवृत्तानां ब्रह्मलोको विधीयते // 63 यथोक्तं राजशार्दूल न तु तन्मोक्षकाङ्क्षिणाम् / / 49 मांसं तु कौमुदं पक्षं वर्जितं पार्थ राजभिः / हविर्यत्संस्कृतं मत्रैः प्रोक्षिताभ्युक्षितं शुचि। सर्वभूतात्मभूतैस्तैर्विज्ञातार्थपरावरैः // 64 वेदोक्तेन प्रमाणेन पितॄणां प्रक्रियासु च / नाभागेनाम्बरीषेण गयेन च महात्मना / अतोऽन्यथा वृथामांसमभक्ष्यं मनुरब्रवीत् // 50 आयुषा चानरण्येन दिलीपरघुपूरुभिः // 65 अस्वयमयशस्यं च रक्षोवद्भरतर्षभ / कार्तवीर्यानिरुद्धाभ्यां नहुषेण ययातिना / विधिना हि नराः पूर्वं मांसं राजन्नभक्षयन् // 51 / नृगेण विष्वगश्वन तथैव शशबिन्दुना / यः इच्छेत्पुरुषोऽत्यन्तमात्मानं निरुपद्रवम् / युवनाश्वेन च तथा शिविनौशीनरेण च / / 66 स वर्जयेत मांसानि प्राणिनामिह सर्वशः / / 52 श्येनचित्रेण राजेन्द्र सोमकेन वृकेण च / श्रूयते हि पुराकल्पे नृणां व्रीहिमयः पशुः / रैवतेन रन्तिदेवेन वसुना सृञ्जयेन च / / 67 येनायजन्त यज्वानः पुण्यलोकपरायणाः / / 53 दुःषन्तेन करूपेण रामालकनलैस्तथा / / ऋषिभिः संशयं पृष्टो वसुश्चेदिपतिः पुरा / विरूपाश्वेन निमिना जनकेन च धीमता // 68 अभक्ष्यमिति मांसं स प्राह भक्ष्यमिति प्रभो॥५४ | सिलेन पृथुना चैव वीरसेनेन चैव ह / भाकाशान्मे दिनीं प्राप्तस्ततः स पृथिवीपतिः / - इक्ष्वाकुणा शंभुना च श्वेतेन सगरेण च // 69 एतदेव पुनश्चोक्त्वा विवेश धरणीतलम् // 55 एतैश्चान्यैश्च राजेन्द्र पुरा मांसं न भक्षितम् / प्रजानां हितकामेन त्वगस्त्येन महात्मना। शारदं कौमुदं मासं ततस्ते स्वर्गमाप्नुवन् // 70 आरण्याः सर्वदैवत्याः प्रोक्षितास्तपसा मृगाः // 56 / ब्रह्मलोके च तिष्ठन्ति ज्वलमानाः श्रियान्विताः / -2693 - Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 116. 71 महाभारते [13. 117.22 उपास्यमाना गन्धर्वैः स्त्रीसहस्रसमन्विताः / / 75 अध्वना कर्शितानां च न मांसाद्विद्यते परम् // तदेतदुत्तमं धर्ममहिंसालक्षणं शुभम् / / सद्यो वर्धयति प्राणान्पुष्टिमयां ददाति च। ये चरन्ति महात्मानो नाकपृष्ठे वसन्ति ते / / 72 न भक्षोऽभ्यधिकः कश्चिन्मांसादस्ति परंतप // 8 मधु मांसं च ये नित्यं वर्जयन्तीह धार्मिकाः / / विवर्जने तु बहवो गुणा: कौरवनन्दन। . जन्मप्रभृति मद्यं च सर्वे ते मुनयः स्मृताः। ये भवन्ति मनुष्याणां तान्मे निगदतः शृणु // 9 विशिष्टतां ज्ञातिषु च लभन्ते नात्र संशयः // 73 स्वमांसं परमांसैर्यो विवर्धयितुमिच्छति / आपन्नश्चापदो मुच्येद्बद्धो मुच्येत बन्धनात् / / नास्ति क्षुद्रतरस्तस्मान्न नृशंसतरो नरः // 10 मुच्येत्तथातुरो रोगाहुःखान्मुच्येत दुःखितः // 74 न हि प्राणात्प्रियतरं लोके किंचन विद्यते। तिर्यग्योनि न गच्छेत रूपांश्च भवेन्नरः / तस्माद्दयां नरः कुर्याद्यथात्मनि तथा परे // 11 बुद्धिमान्वै कुरुश्रेष्ठ प्राप्नुयाच्च महद्यशः / / 75 शुक्राच्च तात संभूतिमांसस्येह न संशयः / एतत्ते कथितं राजन्मांसस्य परिवर्जने / भक्षणे तु महादोषो वधेन सह कल्पते / / 12 प्रवृत्तौ च निवृत्तौ च विधानमृषिनिर्मितम् / / 76 अहिंसालक्षणो धर्म इति वेदविदो विदुः / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि यदहिस्रं भवेत्कर्म तत्कुर्यादात्मवान्नरः / / 13 षोडशाधिकशततमोऽध्यायः // 116 // पितृदेवतयज्ञेषु प्रोक्षितं हविरुच्यते / विधिना वेददृष्टेन तद्भुक्त्वेह न दुष्यति // 14 युधिष्ठिर उवाच / यज्ञार्थे पशवः सृष्टा इत्यपि श्रूयते श्रुतिः / इमे वै मानवा लोके भृशं मांसस्य गृद्धिनः / अतोऽन्यथा प्रवृत्तानां राक्षसो विधिरुच्यते // 15 विसृज्य भक्षान्विविधान्यथा रक्षोगणास्तथा // 1 क्षत्रियाणां तु यो दृष्टो विधिस्तमपि मे शृणु। नापूपान्विविधाकाराशाकानि विविधानि च। वीर्यणोपार्जितं मांसं यथा खादन्न दुष्यति // 16 षाडवारसयोगांश्च तथेच्छन्ति यथामिषम् // 2 आरण्याः सर्वदैवत्याः प्रोक्षिताः सर्वशो मृगाः / तत्र मे बुद्धिरत्रैव विसर्गे परिमुह्यते / अगस्त्येन पुरा राजन्मृगया येन पूज्यते // 17 न मन्ये रसतः किंचिन्मांसतोऽस्तीह किंचन // 3 नात्मानमपरित्यज्य मृगया नाम विद्यते / तदिच्छामि गुणाश्रोतुं मांसस्याभक्षणेऽपि वा। समतामुपसंगम्य रूपं हन्यान्न वा नृप // 18 भक्षणे चैव ये दोषास्तांश्चैव पुरुषर्षभ // 4 अतो राजर्षयः सर्वे मृगयां यान्ति भारत / सर्वं तत्त्वेन धर्मज्ञ यथावदिह धर्मतः / लिप्यन्ते न हि दोषेण न चैतत्पातकं विदुः // 19 किं वा भक्ष्यमभक्ष्यं वा सर्वमेतद्वदस्व मे // 5 न हि तत्परमं किंचिदिह लोके परत्र च / भीष्म उवाच / यत्सर्वेष्विह लोकेषु दया कौरवनन्दन / 20 एवमेतन्महाबाहो यथा वदसि भारत / न भयं विद्यते जातु नरस्येह दयावतः / न मांसात्परमत्रान्यद्रसतो विद्यते भुवि / / 6 / दयावतामिमे लोकाः परे चापि तपस्विनाम् // 21 क्षतक्षीणाभितप्तानां ग्राम्यधर्मरताश्च ये / | अभयं सर्वभूतेभ्यो यो ददाति दयापरः / - 2694 - Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 117. 22 ] अनुशासनपर्व [ 13. 118.8 अभयं तस्य भूतानि ददतीत्यनुशुश्रुमः / / 22 / अहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तपः // 37 क्षतं च स्खलितं चैव पतितं लिष्टमाहतम् / अहिंसा परमो यज्ञस्तथाहिंसा परं बलम् / सर्वभूतानि रक्षन्ति समेषु विषमेषु च // 23 अहिंसा परमं मित्रमहिंसा परमं सुखम् / नैनं व्यालमृगा घ्नन्ति न पिशाचा न राक्षसाः / अहिंसा परमं सत्यमहिंसा परमं श्रुतम् // 38 मुच्यन्ते भयकालेषु मोक्षयन्ति च ये परान् / / 24 / सर्वयज्ञेषु वा दानं सर्वतीर्थेषु चाप्लुतम् / प्राणदानात्परं दानं न भूतं न भविष्यति / सर्वदानफलं वापि नैतत्तुल्यमहिंसया // 39 न ह्यात्मनः प्रियतरः कश्चिदस्तीति निश्चितम् / / 25 अहिंस्रस्य तपोऽक्षय्यमहिंस्रो यजते सदा / अनिष्टं सर्वभूतानां मरणं नाम भारत / अहिंस्रः सर्वभूतानां यथा माता यथा पिता // 40 मृत्युकाले हि भूतानां सद्यो जायति वेपथुः // 26 एतत्फलमहिंसाया भूयश्च कुरुपुंगव / जातिजन्मजरादुःखे नित्यं संसारसागरे / न हि शक्या गुणा वक्तुमिह वर्षशतैरपि // 41 जन्तवः परिवर्तन्ते मरणादुद्विजन्ति च // 27 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि गर्भवासेषु पच्यन्ते क्षाराम्लकटुकै रसैः / सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः // 117 // मूत्रश्लेष्मपुरीषाणां स्पर्शश्च भृशदारुणैः // 28 118 जाताश्चाप्यवशास्तत्र भिद्यमानाः पुनः पुनः / युधिष्ठिर उवाच / पाट्यमानाश्च दृश्यन्ते विवशा मांसगृद्धिनः // 29 | अकामाश्च सकामाश्य हता येऽस्मिन्महाहवे / कुम्भीपाके च पच्यन्ते तां तां योनिमुपागताः / कां योनि प्रतिपन्नास्ते तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 आक्रम्य मार्यमाणाश्च भ्राम्यन्ते वै पुनः पुनः // दुःखं प्राणपरित्यागः पुरुषाणां महामृधे / नात्मनोऽस्ति प्रियतरः पृथिव्यामनुसृत्य ह। जानामि तत्त्वं धर्मज्ञ प्राणत्यागं सुदुष्करम् // 2 तस्मात्प्राणिषु सर्वेषु दयावानात्मवान्भवेत् // 31 समृद्धे वासमृद्धे वा शुभे वा यदि वाशुभे। सर्वमांसानि यो राजन्यावज्जीवं न भक्षयेत् / कारणं तत्र मे बेहि सर्वज्ञो ह्यसि मे मतः // 3 स्वर्गे स विपुलं स्थानं प्राप्नुयान्नात्र संशयः // 32 भीष्म उवाच / ये भक्षयन्ति मांसानि भूतानां जीवितैषिणाम्। समृद्धे वासमृद्धे वा शुभे वा यदि वाशुभे / भक्ष्यन्ते तेऽपि तैर्भूतैरिति मे नास्ति संशयः // 33 संसारेऽस्मिन्समाजाताः प्राणिनः पृथिवीपते / / 4 मां स भक्षयते यस्माद्भक्षयिष्ये तमप्यहम्। निरता येन भावेन तत्र मे शृणु कारणम् / एतन्मांसस्य मांसत्वमतो बुध्यस्व भारत // 34 सम्यक्चायमनुप्रश्नस्त्वयोक्तश्च युधिष्ठिर / / 5 घातको वध्यते नित्यं तथा वध्येत बन्धकः / अत्र ते वर्तयिष्यामि पुरावृत्तमिदं नृप / आक्रोष्टाक्रुश्यते राजन्द्वेष्टा द्वेष्यत्वमाप्नुते / / 35 / द्वैपायनस्य संवाई कीटस्य च युधिष्ठिर / / 6 येन येन शरीरेण यद्यत्कर्म करोति यः। ब्रह्मभूतश्चरन्विनः कृष्णद्वैपायनः पुरा / तेन तेन शरीरेण तत्तत्फलमुपाश्नुते / / 36 ददर्श कीटं धावन्तं शीघ्रं शकटवर्त्मनि // 7 अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परो दमः। गतिज्ञः सर्वभूतानां रुतज्ञश्च शरीरिणाम् / - 2695 - Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 118. 8] महाभारते [ 13. 119.5 सर्वज्ञः सर्वतो दृष्ट्वा कीटं वचनमब्रवीत् // 8 / | मात्सर्यात्स्वादुकामेन नृशंसेन बुभूषता // 20 कीट संत्रस्तरूपोऽसि त्वरितश्चैव लक्ष्यसे / देवार्थ पितृयज्ञार्थमन्नं श्रद्धाकृतं मया / क धावसि तदाचक्ष्व कुतस्ते भयमागतम् // 9 न दत्तमर्थकामेन देयमन्नं पुनाति ह // 21 कीट उवाच / गुप्तं शरणमाश्रित्य भयेषु शरणागताः। शकटस्यास्य महतो घोषं श्रुत्वा भयं मम / अकस्मान्नो भयात्त्यक्ता न च त्राताभयैषिणः // 22 भागतं वै महाबुद्धे स्वन एष हि दारुणः / धनं धान्यं प्रियान्दारान्यानं वासस्तथाद्भुतम् / श्रूयते न स मां हन्यादिति तस्मादपाक्रमे / / 10 श्रियं दृष्ट्वा मनुष्याणामसूयामि निरर्थकम् // 23 श्वसतां च शृणोम्येवं गोपुत्राणां प्रचोद्यताम् / / ईयुः परसुखं दृष्ट्वा आतताय्यबुभूषकः / वहतां सुमहाभारं संनिकर्षे स्वनं प्रभो / त्रिवर्गहन्ता चान्येषामात्मकामानुवर्तकः // 24 नृणां च संवाहयतां श्रूयते विविधः स्वनः // 11 नृशंसगुणभूयिष्टं पुरा कर्म कृतं मया। .. सोढुमस्मद्विधेनैष न शक्यः कीटयोनिना। स्मृत्वा तदनुतप्येऽहं त्यक्त्वा प्रियमिवात्मजम् // तस्मादपक्रमाम्येष भयादस्मात्सुदारुणात् // 12 शुभानामपि जानामि कृतानां कर्मणां फलम् / दुःखं हि मृत्युभूतानां जीवितं च सुदुर्लभम् / माता च पूजिता वृद्धा ब्राह्मणश्चार्चितो मया॥२६ अतो भीतः पलायामि गच्छेयं नासुखं सुखात् / / सकृज्जातिगुणोपेतः संगत्या गृहमागतः / - भीष्म उवाच / अतिथिः पूजितो ब्रह्मस्तेन मां नाजहात्स्मृतिः // 2 // कर्मणा तेन चैवाहं सुखाशामिह लक्षये / इत्युक्तः स तु तं प्राह कुतः कीट सुखं तव / तच्छ्रोतुमहमिच्छामि त्वत्तः श्रेयस्तपोधन // 28 मरणं ते सुखं मन्ये तिर्यग्योनौ हि वर्नसे // 14 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि शब्दं स्पर्श रसं गन्धं भोगांश्वोच्चावचान्बहून् / अष्टादशाधिकशततमोऽध्यायः // 118 // नाभिजानासि कीट त्वं श्रेयो मरणमेव ते / / 15 कीट उवाच। व्यास उवाच / सर्वत्र निरतो जीव इतीहापि सुखं मम / शुभेन कर्मणा यद्वै तिर्यग्योनौ न मुह्यसे / चेतयामि महाप्राज्ञ तस्मादिच्छामि जीवितुम् // 16 ममैव कीट तत्कर्म येन त्वं न प्रमुह्यसे // 1 इहापि विषयः सर्वो यथादेहं प्रवर्तितः / अहं हि दर्शनादेव तारयाभि तपोबलात् / मानुषास्तिर्यगाश्चैव पृथग्भोगा विशेषतः // 17 तपोबलाद्धि बलवद्वलमन्यन्न विद्यते // 2 अहमासं मनुष्यो वै शुद्रो बहुधनः पुरा / जानामि पापैः स्वकृतैर्गतं त्वां कीट कीटताम् / भब्रह्मण्यो नृशंसश्च कदर्यो वृद्धिजीवनः // 18 अवाप्स्यसि परं धर्मं धर्मस्थो यदि मन्यसे // 3 वाक्तीक्ष्णो निकृतिप्रज्ञो मोष्टा विश्वस्य सर्वशः / / कर्म भूनिकृतं देवा भुञ्जते तिर्यगाश्च ये / मिथःकृतोऽपनिधनः परस्वहरणे रतः // 15 धर्मादपि मनुष्येषु कामोऽर्थश्च यथा गुणैः // 4 भृत्यातिथिजनश्चापि गृहे पर्युषितो मया। वाग्बुद्धिपाणिपादैश्चाप्युपेतस्य विपश्चितः / ----- 2696 - Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 119. 5 ] अनुशासनपर्व [13. 120. 6 किं हीयते मनुष्यस्य मन्दस्यापि हि जीवतः // 5 / शद्रेणार्थप्रधानेन नृशंसेनाततायिना / / 19 जीवन्हि कुरुते पूजां विप्रायः शशिसूर्ययोः / मम ते दर्शनं प्राप्तं तच्चैव सुकृतं पुरा / ब्रुवन्नपि कथां पुण्यां तत्र कीट त्वमेष्यसि // 6 तिर्यग्योनौ स्म जातेन मम चाप्यर्चनात्तथा // 20 गुणभूतानि भूतानि तत्र त्वमुपभोक्ष्यसे / इतस्त्वं राजपुत्रत्वाद्ब्राह्मण्यं समवाप्स्यसि / तत्र तेऽहं विनेष्यामि ब्रह्मत्वं यत्र चेच्छसि // 7 गोब्राह्मणकृते प्राणान्हुत्वात्मीयारणाजिरे // 21 स तथेति प्रतिश्रुत्य कीटो वर्त्मन्यतिष्ठत / राजपुत्रसुखं प्राप्य ऋतूंश्चैवाप्तदक्षिणान् / तमृषि द्रष्टुमगमत्सर्वास्वन्यासु योनिषु / / 8. अथ मोदिष्यसे स्वर्गे ब्रह्मभूतोऽव्ययः सुखी // 22 श्वाविद्गोधावराहाणां तथैव मृगपक्षिणाम् / तिर्यग्योन्याः शूद्रतामभ्युपैति श्वपाकवैश्यशद्राणां क्षत्रियाणां च योनिषु // 9 शूद्रो वैश्यत्वं क्षत्रियत्वं च वैश्यः / स कीटेत्येवमाभाष्य ऋषिणा सत्यवादिना / वृत्तश्लाघी क्षत्रियो ब्राह्मणत्वं प्रतिस्मृत्याथ जग्राह पादौ मूर्ना कृताञ्जलिः // 10 स्वर्ग पुण्यं ब्राह्मणः साधुवृत्तः // 23 कीट उवाच। इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि इदं तदतुलं स्थानमीप्सितं दशभिर्गुणैः / एकोनविंशाधिकशततमोऽध्यायः // 119 // यदहं प्राप्य कीटत्वमागतो राजपुत्रताम् // 11 120 वहन्ति मामतिबलाः कुञ्जरा हेममालिनः। भीष्म उवाच / स्यन्दनेषु च काम्बोजा युक्ताः परमवाजिनः // 12 क्षत्रधर्ममनुप्राप्तः स्मरन्नेव स वीर्यवान् / उष्ट्राश्वतरयुक्तानि यानानि च वहन्ति माम् / त्यक्त्वा स कीटतां राजंश्चचार विपुलं तपः // 1 सबान्धवः सहामात्यश्वाश्नामि पिशितौदनम् // 13 तस्य धर्मार्थविदुषो दृष्ट्वा तद्विपुलं तपः / गृहेषु सुनिवासेषु सुखेषु शयनेषु च / आजगाम द्विजश्रेष्ठः कृष्णद्वैपायनस्तदा // 2 परायेषु महाभाग स्वपामीह सुपूजितः // 14 सर्वेष्वपररात्रेषु सूतमागधबन्दिनः / व्यास उवाच। स्तुवन्ति मां यथा देवं महेन्द्रं प्रियवादिनः // 15 क्षात्रं चैव व्रतं कीट भूतानां परिपालनम् / प्रसादात्सत्यसंधस्य भवतोऽमिततेजसः / क्षात्रं चैव व्रतं ध्यायंस्ततो विप्रत्वमेष्यसि // 3 यदहं कीटतां प्राप्य संप्राप्तो राजपुत्रताम् // 16 पाहि सर्वाः प्रजाः सम्यक्शुभाशुभविदात्मवान् / नमस्तेऽस्तु महाप्राज्ञ किं करोमि प्रशाधि माम् / शुभैः संविभजन्कामैरशुभानां च पावनैः // 4 त्वत्तपोबलनिर्दिष्ट्रमिदं ह्यधिगतं मया // 17 आत्मवान्भव सुप्रीतः स्वधर्मचरणे रतः।। व्यास उवाच / क्षात्री तनुं समुत्सृज्य ततो विप्रत्वमेष्यसि // 5 अर्चितोऽहं त्वया राजन्वाग्भिरद्य यदृच्छया। भीष्म उवाच / अद्य ते कीटतां प्राप्य स्मृतिर्जाताजुगुप्सिता॥१८- सोऽथारण्यमभिप्रेत्य पुनरेव युधिष्ठिर / न तु नाशोऽस्ति पापस्य यत्त्वयोपचितं पुरा। महर्षेर्वचनं श्रुत्वा प्रजा धर्मेण पाल्य च // 6 म.भा. 330 -2697 - Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 120. 7 ] महाभारते [ 13. 121. 15 अचिरेणैव कालेन कीटः पार्थिवसत्तम / मैत्रेयस्य च संवादं कृष्णद्वैपायनस्य च // 2 प्रजापालनधर्मेण प्रेत्य विप्रत्वमागतः // 7 कृष्णद्वैपायनो राजन्नज्ञातचरितं चरन् / ततस्तं ब्राह्मणं दृष्ट्वा पुनरेव महायशाः / वाराणस्यामुपातिष्ठन्मैत्रेयं स्वैरिणीकुले // 3 आजगाम महाप्राज्ञः कृष्णद्वैपायनस्तदा // 8 तमुपस्थितमासीनं ज्ञात्वा स मुनिसत्तमम् / ___ व्यास उवाच। . अर्चित्वा भोजयामास मैत्रेयोऽशनमुत्तमम् // 4 भो भो विप्रर्षभ श्रीमन्मा व्यथिष्ठाः कथंचन / तदन्नमुत्तमं भुक्त्वा गुणवत्सार्वकामिकम् / ' शुभकृच्छुभयोनीषु पापकृत्पापयोनिषु / प्रतिष्ठमानोऽस्मयत प्रीतः कृष्णो महामनाः / / 5 उपपद्यति धर्मज्ञ यथाधर्म यथागमम् // 9 तमुत्स्मयन्तं संप्रेक्ष्य मैत्रेयः कृष्णमब्रवीत् / तस्मान्मृत्युभयात्कीट मा व्यथिष्ठाः कथंचन / कारणं ब्रूहि धर्मात्मन्योऽस्मयिष्ठाः कुतश्च ते / धर्मलोपाद्भयं ते स्यात्तस्माद्धर्म चरोत्तमम् // 10 तपस्विनो धृतिमतः प्रमोदः समुपागतः // 6. एतत्पृच्छामि ते विद्वन्नभिवाद्य प्रणम्य च / कीट उवाच / आत्मनश्च तपोभाग्यं महाभाग्यं तथैव च // . सुखात्सुखतरं प्राप्तो भगवंस्त्वत्कृते ह्यहम् / पृथगाचरतस्तात पृथगात्मनि चात्मनोः / धर्ममूलां श्रियं प्राप्य पाप्मा नष्ट इहाद्य मे // 11 अल्पान्तरमहं मन्ये विशिष्टमपि वा त्वया // 8 भीष्म उवाच / व्यास उवाच / भगवद्वचनात्कीटो ब्राह्मण्यं प्राप्य दुर्लभम् / अतिच्छेदातिवादाभ्यां स्मयोऽयं समुपागतः / अकरोत्पृथिवीं राजन्यज्ञयूपशताङ्किताम् / असत्यं वेदवचनं कस्माद्वेदोऽनृतं वदेत् / / 9 ततः सालोक्यमगमद्ब्रह्मणो ब्रह्मवित्तमः // 12 त्रीण्येव तु पदान्याहुः पुरुषस्योत्तमं व्रतम् / अवाप च परं कीटः पार्थ ब्रह्म सनातनम् / न द्रुह्येश्चैव दद्याच सत्यं चैव परं वदेत् / स्वकर्मफलनिर्वृत्तं व्यासस्य वचनात्तदा // 13 इदानीं चैव नः कृत्यं पुरस्ताच्च परं स्मृतम् // 10 तेऽपि यस्मात्स्वभावेन हताः क्षत्रियपुंगवाः / अल्पोऽपि तादृशो दायो भवत्युत महाफलः / संप्राप्तास्ते गतिं पुण्यां तस्मान्मा शोच पुत्रक // 14 तृषिताय च यदत्तं हृदयेनानसूयता // 11 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि तृषितस्तृषिताय त्वं दत्त्वैतदशनं मम / विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः // 120 // अजैषीमहतो लोकान्महायज्ञैरिवाभिभो / 121 अतो दानपवित्रेण प्रीतोऽस्मि तपसैव च // 12 युधिष्ठिर उवाच। पुण्यस्यैव हि ते गन्धः पुण्यस्यैव च दर्शनम् / विद्या तपश्च दानं च किमेतेषां विशिष्यते / पुण्यश्च वाति गन्धस्ते मन्ये कर्मविधानतः // 13 पृच्छामि त्वा सतां श्रेष्ठ तन्मे ब्रूहि पितामह // 1 अधिक मार्जनात्तात तथैवाप्यनुलेपनात् / भीष्म उवाच / शुभं सर्वपवित्रेभ्यो दानमेव परं भवेत् / / 14 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / यानीमान्युत्तमानीह वेदोक्तानि प्रशंससि / - 2698 - Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 121. 15 ] अनुशासनपर्व [13. 122. 16 तेषां श्रेष्ठतमं दानमिति मे नास्ति संशयः // 15 मैत्रेय उवाच। दानकृद्भिः कृतः पन्था येन यान्ति मनीषिणः / निर्दोषं निर्मलं चैव वचनं दानसंहितम् / ते हि प्राणस्य दातारस्तेषु धर्मः प्रतिष्ठितः // 16 विद्यातपोभ्यां हि भवान्भावितात्मा न संशयः // 4 यथा वेदाः स्वधीताश्च यथा चेन्द्रियसंयमः। भवतो भावितात्मत्वादायोऽयं सुमहान्मम / सर्वत्यागो यथा चेह तथा दानमनुत्तमम् // 17 भूयो बुद्ध्यानुपश्यामि सुसमृद्धतपा इव // 5 त्वं हि तात सुखादेव सुखमेष्यसि शोभनम् / अपि मे दर्शनादेव भवतोऽभ्युदयो महान् / मन्ये भवत्प्रसादोऽयं तद्धि कर्म स्वभावतः // 6 सुखात्सुखतरप्राप्तिमाप्नुते मतिमान्नरः // 18 / / तपः श्रुतं च योनिश्चाप्येतद्ब्राह्मण्यकारणम् / तन्नः प्रत्यक्षमेवेदमुपलब्धमसंशयम् / त्रिभिर्गुणैः समुदितस्ततो भवति वै द्विजः // 7 श्रीमन्तमाप्नुवन्त्यर्था दानं यज्ञस्तथा सुखम् // 19 तस्मिंस्तृप्ते च तृप्यन्ते पितरो दैवतानि च / सुखादेव परं दुःखं दुःखादन्यत्परं सुखम् / न हि श्रुतवतां किंचिदधिकं ब्राह्मणाहते // 8 दृश्यते हि महाप्राज्ञ नियतं वै स्वभावतः / / 20 यथा हि सुकृते क्षेत्रे फलं विन्दति मानवः / त्रिविधानीह वृत्तानि नरस्याहुर्मनीषिणः / एवं दत्त्वा श्रुतवति फलं दाता समझते // 9 पुण्यमन्यत्पापमन्यन्न पुण्यं न च पापकम् // 21 ब्राह्मणश्चेन्न विद्येत श्रुतवृत्तोपसंहितः / न वृत्तं मन्यतेऽन्यस्य मन्यतेऽन्यस्य पापकम् / / प्रतिग्रहीता दानस्य मोघं स्याद्भनिनां धनम् // 10 तथा स्वकर्मनिवृत्तं न पुण्यं न च पापकम् / / 22 अदन्यविद्वान्हन्त्यन्नमद्यमानं च हन्ति तम् / रमस्वैधस्व मोदस्व देहि चैव यजस्व च / तं च हन्यति यस्यान्नं स हत्वा हन्यतेऽबुधः॥११ न त्वामभिभविष्यन्ति वैद्या न च तपस्विनः // 23 प्रभुद्यन्नमदन्विद्वान्पुनर्जनयतीश्वरः / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि स चान्नाजायते तस्मात्सूक्ष्म एव व्यतिक्रमः // 12 _.. एकविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः // 121 // यदेव ददतः पुण्यं तदेव प्रतिगृह्णतः / न ह्येकचक्रं वर्तेत इत्येवमृषयो विदुः॥ 13 122 यत्र वै ब्राह्मणाः सन्ति श्रुतवृत्तोपसंहिताः / भीष्म उवाच / तत्र दानफलं पुण्यमिह चामुत्र चाभुते // 14 एवमुक्तः प्रत्युवाच मैत्रेयः कर्मपूजकः / ये योनिशुद्धाः सततं तपस्यभिरता भृशम् / अत्यन्तं श्रीमति कुले जातः प्राज्ञो बहुश्रुतः // 1 दानाध्ययनसंपन्नास्ते वै पूज्यतमाः सदा // 15 असंशयं महाप्राज्ञ यथैवात्थ तथैव तत् / / तैर्हि सद्भिः कृतः पन्थाश्चेतयानो न मुह्यते / अनुज्ञातस्तु भवता किंचिद्भूयामहं विभो // 2 ते हि स्वर्गस्य नेतारो यज्ञवाहाः सनातनाः // 16 व्यास उवाच / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि यद्यदिच्छसि मैत्रेय यावद्यावद्यथा तथा / द्वाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः // 122 // श्रूहि तावन्महाप्राज्ञ शुश्रूषे वचनं तव // 3 -2699 - Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 123. 1] महाभारते [ 13. 124.1 123 प्राप्स्यसे त्वन्नपानानि यानि दास्यसि कानिचित् / भीष्म उवाच / मेधाव्यसि कुले जातः श्रुतवाननृशंसवान् // 14 एवमुक्तः स भगवान्मैत्रेयं प्रत्यभाषत / कौमारदारव्रतवान्मैत्रेय निरतो भव / दिष्ट्यैवं त्वं विजानासि दिष्ट्या ते बुद्धिरीदृशी। एतद्गृहाण प्रथमं प्रशस्तं गृहमेधिनाम् // 15 लोको ह्ययं गुणानेव भूयिष्ठं स्म प्रशंसति // 1 यो भर्ता वासितातुष्टो भर्तुस्तुष्टा च वासिता। रूपमानवयोमानश्रीमानाश्चाप्यसंशयम् / यस्मिन्नवं कुले सर्व कल्याणं तत्र वर्तते // 16 दिष्ट्या नाभिभवन्ति त्वां दैवस्तेऽयमनुग्रहः / अद्भिर्गात्रान्मलमिव तमोऽग्निप्रभया यथा। यत्ते भृशतरं दानाद्वर्तयिष्यामि तच्छृणु // 2 दानेन तपसा चैव सर्वपापमपोह्यते // 17 यानीहागमशास्त्राणि याश्च काश्चित्प्रवृत्तयः / स्वस्ति प्राप्नुहि मैत्रेय गृहान्साधु व्रजाम्यहम् / तानि वेदं पुरस्कृत्य प्रवृत्तानि यथाक्रमम् // 3 एतन्मनसि कर्तव्यं श्रेय एवं भविष्यति // 18 अहं दानं प्रशंसामि भवानपि तपःश्रुते / तं प्रणम्याथ मैत्रेयः कृत्वा चाभिप्रदक्षिणम् / तपः पवित्रं वेदस्य तपः स्वर्गस्य साधनम् // 4 स्वस्ति प्राप्नोतु भगवानित्युवाच कृताञ्जलिः // 16 तपसा महदाप्नोति विद्यया चेति नः श्रुतम् / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि तपसैव चापनुदेद्यच्चान्यदपि दुष्कृतम् // 5 त्रयोविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः // 123 // यद्यद्धि किंचित्संधाय पुरुषस्तप्यते तपः / 124 सर्वमेतदवाप्नोति ब्राह्मणो वेदपारगः // 6 युधिष्ठिर उवाच / दुरन्वयं दुष्प्रधृष्यं दुरापं दुरतिक्रमम् / सत्स्त्रीणां समुदाचारं सर्वधर्मभृतां वर / सर्व वै तपसाभ्येति तपो हि बलवत्तरम् // 7 श्रोतुमिच्छाम्यहं त्वत्तस्तं मे ब्रूहि पितामह // 1 सुरापोऽसंमतादायी भ्रूणहा गुरुतल्पगः / भीष्म उवाच। तपसा तरते सर्वमेनसश्च प्रमुच्यते / / 8 सर्वज्ञां सर्वधर्मज्ञां देवलोके मनस्विनीम् / सर्वविद्यस्तु चक्षुष्मानपि यादृशतादृशः / कैकेयी सुमना नाम शाण्डिली पर्यपृच्छत // 2 तपस्विनौ च तावाहुस्ताभ्यां कार्यं सदा नमः / / 9 केन वृत्तेन कल्याणि समाचारेण केन वा / सर्वे पूज्याः श्रुतधनास्तथैव च तपस्विनः / विधूय सर्वपापानि देवलोकं त्वमागता // 3 दानप्रदाः सुखं प्रेत्य प्राघुवन्तीह च श्रियम् // 10 हुताशनशिखेव त्वं ज्वलमाना स्वतेजसा / इमं च ब्रह्मलोकं च लोकं च बलवत्तरम् / सुता ताराधिपस्येव प्रभया दिनमागता // 4 अन्नदानैः सुकृतिनः प्रतिपद्यन्ति लौकिकाः // 11 अरजांसि च वस्त्राणि धारयन्ती गतलमा / पूजिताः पूजयन्त्येतान्मानिता मानयन्ति च / विमानस्था शुभे भासि सहस्रगुणमोजसा / / 5 अदाता यत्र यत्रैति सर्वतः संप्रणुद्यते // 12 न त्वमल्पेन तपसा दानेन नियमेन वा / अकर्ता चैव कर्ता च लभते यस्य यादृशम / इमं लोकमनुप्राप्ता तस्मात्तत्त्वं वदस्व मे / / 6 यद्येवोध्वं यद्यवाक्च त्वं लोकमभियास्यसि // 13 / इति पृष्टा सुमनया मधुरं चारुहासिनी / -2700 - Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 124.7] अनुशासनपर्व [ 12. 125. 12 शाण्डिली निभृतं वाक्यं सुमनामिदमब्रवीत् // 7 | यश्चेदं पाण्डवाख्यानं पठेत्पर्वणि पर्वणि / नाहं काषायवसना नापि वल्कलधारिणी। स देवलोकं संप्राप्य नन्दने सुसुखं वसेत् // 22 न च मुण्डा न जटिला भूत्वा देवत्वमागता / / 8 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि अहितानि च वाक्यानि सर्वाणि परुषाणि च / / चतुर्विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः // 124 // अप्रमत्ता च भर्तारं कदाचिन्नाहमब्रुवम् // 9 देवतानां पितॄणां च ब्राह्मणानां च पूजने / युधिष्ठिर उवाच / अप्रमत्ता सदायुक्ता श्वश्रूश्वशुरवर्तिनी / / 10 साना वापि प्रदाने वा ज्यायः किं भवतो मतम् / पैशुन्ये न प्रवामि न ममतन्मनोगतम् / प्रब्रूहि भरतश्रेष्ठ यदत्र व्यतिरिच्यते // 1 श्रद्वारे न च तिष्ठामि चिरं न कथयामि च // 11 भीष्म उवाच / असद्वा हसितं किंचिदहितं वापि कर्मणा / साम्ना प्रसाद्यते कश्चिदानेन च तथापरः / रहस्यमरहस्यं वा न प्रवामि सर्वथा / / 12 / पुरुषः प्रकृतिं ज्ञात्वा तयोरेकतरं भजेत् / / 2 कार्यार्थे निर्गतं चापि भर्तारं गृहमागतम् / गुणांस्तु शृणु मे राजन्सान्त्वस्य भरतर्षभ / आसनेनोपसंयोज्य पूजयामि समाहिता // 13 दारुणान्यपि भूतानि सान्त्वेनाराधयेद्यथा // 3 यद्यच्च नाभिजानाति यद्भोज्यं नाभिनन्दति। अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / भक्ष्यं वाप्यथ वा लेह्यं तत्सर्वं वर्जयाम्यहम् // 14 गृहीत्वा रक्षसा मुक्तो द्विजाति: कानने यथा // 4 कुटुम्बार्थे समानीतं यत्किचित्कार्यमेव तु / कश्चित्तु बुद्धिसंपन्नो ब्राह्मणो विजने वने / प्रातरुत्थाय तत्सर्वं कारयामि करोमि च // 15 गृहीतः कृच्छ्रमापन्नो रक्षसा भक्षयिष्यता // 5 प्रवासं यदि मे भर्ता याति कार्येण केनचित् / स बुद्धिश्रुतसंपन्नस्तं दृष्ट्वातीव भीषणम् / मङ्गलैबहुभिर्युक्ता भवामि नियता सदा // 16 सामैवास्मिन्प्रयुयुजे न मुमोह न विव्यथे // 6 अञ्जनं रोचनां चैव स्नानं माल्यानुलेपनम् / रक्षस्तु वाचा संपूज्य प्रश्नं पप्रच्छ तं द्विजम् / प्रसाधनं च निष्क्रान्ते नाभिनन्दामि भर्तरि // 17 मोक्ष्यसे ब्रूहि मे प्रश्नं केनास्मि हरिणः कृशः // 7 नोत्थापयामि भर्तारं सुखसुप्तमहं सदा। मुहूर्तमथ संचिन्त्य ब्राह्मणस्तस्य रक्षसः / आतुरेष्वपि कार्येषु तेन तुष्यति मे मनः // 18 आभिर्गाथाभिरव्यग्रः प्रश्नं प्रतिजगाद ह // 8 नायासयामि भर्तारं कुटुम्बार्थे च सर्वदा / विदेशस्थो विलोकस्थो विना नूनं सुहृज्जनः / गुप्तगुह्या सदा चास्मि सुसंमृष्टनिवेशना // 19 विषयानतुलान्मुझे तेनासि हरिणः कृशः // 9 इमं धर्मपथं नारी पालयन्ती समाहिता। नूनं मित्राणि ते रक्षः साधूपचरितान्यपि / अरुन्धतीव नारीणां स्वर्गलोके महीयते / / 20 स्वदोषादपरज्यन्ते तेनासि हरिणः कृशः // 10 भीष्म उवाच / धनैश्वर्याधिकाः स्तब्धास्त्वद्गुणैः परमावराः / एतदाख्याय सा देवी सुमनायै तपस्विनी / अवजानन्ति नूनं त्वां तेनासि हरिणः कृशः // 11 पतिधर्म महाभागा जगामादर्शनं तदा / / 21 / गुणवान्विगुणानन्यानूनं पश्यसि सत्कृतान् / -2701 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 125. 12 ] महाभारते [ 13. 126.1 प्राज्ञोऽप्राज्ञान्विनीतात्मा तेनासि हरिणः कृशः।।१२ ग्रहीतुं स्वगुणैः सर्वांस्तेनासि हरिणः कृशः // 20 अवृत्त्या क्लिश्यमानोऽपि वृत्त्युपायान्विगर्हयन् / / अविद्वान्भीरुरल्पार्थो विद्याविक्रमदानजम् / / माहात्म्याद्वथथसे नूनं तेनासि हरिणः कृशः / / 13 यशः प्रार्थयसे नूनं तेनासि हरिणः कृशः // 28 संपीड्यात्मानमार्यत्वात्त्वया कश्चिदुपस्कृतः / चिराभिलषितं किंचित्फलमप्राप्तमेव ते / जितं त्वां मन्यते साधो तेनासि हरिणः कृशः // 14 कृतमन्यैरपहृतं तेनासि हरिणः कृशः // 29 विश्यमानान्विमार्गेषु कामक्रोधावृतात्मनः / नूनमात्मकृतं दोषमपश्यन्किचिदात्मनि / . मन्ये नु ध्यायसि जनांस्तेनासि हरिणः कृशः / / अकारणेऽभिशस्तोऽसि तेनासि हरिणः कृशः // 30 प्राप्तैः संभावितो नूनं नप्राप्तरुपसंहितः / सुहृदामप्रमत्तानामप्रमोक्ष्यार्थहानिजम् / द्वीमानमर्षी दुर्वृत्तैस्तेनासि हरिणः कृशः / / 16 दुःखमर्थगुणैर्हीनं तेनासि हरिणः कृशः // 31 नूनं मित्रमुखः शत्रुः कश्चिदार्यवदाचरन् / साधून्गृहस्थान्दृष्ट्वा च तथासाधून्वनेचरान् / वञ्चयित्वा गतस्त्वां वै तेनासि हरिणः कृशः // 17 मुक्तांश्चावसथे सक्तांस्तेनासि हरिणः कृशः // 3 // प्रकाशार्थगतिनूनं रहस्यकुशलः कृती / धर्म्यमर्थं च काले च देशे चाभिहितं वचः / तज्ज्ञैर्न पूज्यसे नूनं तेनासि हरिणः कृशः // 18 न प्रतिष्ठति ते नूनं तेनासि हरिणः कृशः // 33 असत्स्वभिनिविष्टेषु ब्रुवतो मुक्तसंशयम् / दत्तानकुशलैरर्थान्मनीषी संजिजीविषुः / / गुणास्ते न विराजन्ते तेनासि हरिणः कृशः॥ 19 प्राप्य वर्तयसे नूनं तेनासि हरिणः कृशः // 34 धनबुद्धिश्रुतैहीनः केवलं तेजसान्वितः / पापान्विवर्धतो दृष्ट्वा कल्याणांश्चावसीदतः। महत्प्रार्थयसे नूनं तेनासि हरिणः कृशः / / 20 / ध्रुवं मृगयसे योग्यं तेनासि हरिणः कृशः // 3 // तपःप्रणिहितात्मानं मन्ये त्वारण्यकाङ्गिणम् / परस्परविरुद्धानां प्रियं नूनं चिकीर्षसि / बन्धुवर्गो न गृह्णाति तेनासि हरिणः कृशः // 21 सुहृदामविरोधेन तेनासि हरिणः कृशः // 36 नूनमर्थवतां मध्ये तव वाक्यमनुत्तमम् / श्रोत्रियांश्च विकर्मस्थान्प्राज्ञांश्चाप्यजितेन्द्रियान् / न भाति कालेऽभिहितं तेनासि हरिणः कृशः / / 22 मन्येऽनुध्यायसि जनांस्तेनासि हरिणः कृशः // 3 दृढपूर्वश्रुतं मूर्ख कुपितं हृदयप्रियम् / एवं संपूजितं रक्षो विप्रं तं प्रत्यपूजयत् / अनुनेतुं न शक्नोषि तेनासि हरिणः कृशः / / 23 सखायमकरोचैनं संयोज्यार्थैर्मुमोच ह // 38 नूनमासंजयित्वा ते कृत्ये कस्मिंश्चिदीप्सिते। इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि कश्चिदर्थयतेऽत्यर्थं तेनासि हरिणः कृशः / / 24 पञ्चविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः // 125 // नूनं त्वा स्वगुणापेक्षं पूजयानं सुहृद्भवम् / 126 मयार्थ इति जानाति तेनासि हरिणः कृशः // 25 युधिष्ठिर उवाच। अन्तर्गतमभिप्रायं न नूनं लज्जयेच्छसि / पितामह महाप्राज्ञ सर्वशास्त्रविशारद / विवक्तुं प्राप्तिशैथिल्यात्तेनासि हरिणः कृशः // 26 आगमैर्बहुभिः स्फीतो भवान्नः प्रथितः कुले // 1 नानाबुद्धिरुचील्लोके मनुष्यानूनमिच्छसि / त्वत्तो धर्मार्थसंयुक्तमायत्यां च सुखोदयम् / -2702 - Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 126. 2] अनुशासनपर्व [13. 126.30 आश्चर्यभूतं लोकस्य श्रोतुमिच्छाम्यरिंदम // 2 सोऽग्निर्ददाह तं शैलं सद्रुमं सलताक्षुपम् / अयं च कालः संप्राप्तो दुर्लभज्ञातिबान्धवः / सपक्षिमृगसंघातं सश्वापदसरीसृपम् / / 17 शास्ता च न हि नः कश्चित्त्वामृते भरतर्षभ // 3 मृगैश्च विविधाकारैर्हाहाभूतमचेतनम् / यदि तेऽहमनुग्राह्यो भ्रातृभिः सहितोऽनघ। शिखरं तस्य शैलस्य मथितं दीप्तदर्शनम् // 18 वक्तुमर्हसि नः प्रश्नं यत्त्वां पृच्छामि पार्थिव // 4 स तु वह्निर्महाज्वालो दग्ध्वा सर्वमशेषतः। अयं नारायणः श्रीमान्सर्वपार्थिवसंमतः। विष्णोः समीपमागम्य पादौ शिष्यवदस्पृशत् // 19 भवन्तं बहुमानेन प्रश्रयेण च सेवते // 5 ततो विष्णुर्वनं दृष्ट्वा निर्दग्धमरिकर्शनः / अस्य चैव समक्षं त्वं पार्थिवानां च सर्वशः / सौम्यैदृष्टिनिपातैस्तत्पुनः प्रकृतिमानयत् // 20 भ्रातॄणां च प्रियाथ मे स्नेहाद्भाषितुमर्हसि // 6 तथैव स गिरिभूयः प्रपुष्पितलताद्रुमः / वैशंपायन उवाच। सपक्षिगणसंघुष्टः सश्वापदसरीसृपः / / 21 तस्य तद्वचनं श्रुत्वा स्नेहादागतसंभ्रमः / तदद्भुतमचिन्त्यं च दृष्ट्वा मुनिगणस्तदा / भीष्मो भागीरथीपुत्र इदं वचनमब्रवीत् / / 7 / विस्मितो हृष्टलोमा च बभूवास्राविलेक्षणः / / 22 हन्त ते कथयिष्यावि कथामतिमनोरमाम् / ततो नारायणो दृष्ट्वा तानृषीन्विस्मयान्वितान् / अस्य विष्णोः पुरा राजन्प्रभावोऽयं मया श्रुतः // 8 प्रश्रितं मधुरं स्निग्धं पप्रच्छ वदतां वरः // 23 यश्च गोवृषभाङ्कस्य प्रभावस्तं च मे शृणु। किमस्य ऋषिपूगस्य त्यक्तसङ्गस्य नित्यशः / रुद्राण्याः संशयो यश्च दंपत्योस्तं च मे शृणु // 9 निर्ममस्यागमवतो विस्मयः समुपागतः // 24 वतं चचार धर्मात्मा कृष्णो द्वादशवार्षिकम् / एतं मे संशयं सर्व याथातथ्यमनिन्दिताः / दीक्षितं चागतौ द्रष्टुमुभौ नारदपर्वतौ // 10 ऋषयो वक्तुमर्हन्ति निश्चितार्थं तपोधनाः // 25 कृष्णद्वैपायनश्चैव धौम्यश्च जपतां वरः / ऋषय ऊचुः / देवलः काश्यपश्चैव हस्तिकाश्यप एव च // 11 भवान्विसृजते लोकान्भवान्संहरते पुनः / अपरे ऋषयः सन्तो दीक्षादमसमन्विताः / भवाशीतं भवानुष्णं भवानेव प्रवर्षति // 26 शिष्यैरनुगताः सर्वे देवकल्पैस्तपोधनैः // 12 पृथिव्यां यानि भूतानि स्थावराणि चराणि च / तेषामतिथिसत्कारमर्चनीयं कुलोचितम् / तेषां पिता त्वं माता च प्रभुः प्रभव एव च // 27 देवकीतनयः प्रीतो देवकल्पमकल्पयत् // 13 एतन्नो विस्मयकरं प्रशंस मधुसूदन / हरितेषु सुवर्णेषु बर्हिष्केषु नवेषु च / त्वमेवार्हसि कल्याण वक्तुं वह्नर्विनिर्गमम् / / 28 उपोपविविशुः प्रीता विष्टरेषु महर्षयः // 14 / ततो विगतसंत्रासा वयमप्यरिकर्शन / कथाश्चक्रुस्ततस्ते तु मधुरा धर्मसंहिताः / यच्छ्रुतं यच्च दृष्टं नस्तत्प्रवक्ष्यामहे हरे // 29 राजर्षीणां सुराणां च ये वसन्ति तपोधनाः // 55 वासुदेव उवाच / ततो नारायणं तेजो व्रतचर्येन्धनोत्थितम् / एतत्तद्वैष्णवं तेजो मम वक्त्राद्विनिःसृतम् / वक्त्रान्निःसृत्य कृष्णस्य वह्निरद्भुतकर्मणः / / 16 / कृष्णवर्मा युगान्ताभो येनायं मथितो गिरिः॥३० - 2703 - Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 126. 31] महाभारते [ 13. 127.7 127 ऋषयश्चार्तिमापन्ना जितक्रोधा जितेन्द्रियाः / वर्धयन्तस्तथैवान्ये पूजयन्तस्तथापरे / भवन्तो व्यथिताश्चासन्देवकल्पास्तपोधनाः // 31 वाग्भिग्भूषितार्थाभिः स्तुवन्तो मधुसूदनम् // 46 व्रतचर्यापरीतस्य तपस्विव्रतसेवया / ततो मुनिगणाः सर्वे नारदं देवदर्शनम् / मम वह्निः समुद्भूतो न वै व्यथितुमर्हथ / / 32 तदा नियोजयामासुर्वचने वाक्यकोविदम् // 47 व्रतं चर्तुमिहायातस्त्वहं गिरिमिमं शुभम् / यदाश्चर्यमचिन्त्यं च गिरौ. हिमवति प्रभो। पुत्रं चात्मसमं वीर्ये तपसा स्रष्टुमागतः / / 33 अनुभूतं मुनिगणैस्तीर्थयात्रापरायणैः // 48 ततो ममात्मा यो देहे सोऽग्निर्भूत्वा विनिःसृतः / तद्भवानृषिसंघस्य हितार्थं सर्वचोदितः / गतश्च वरदं द्रष्टुं सर्वलोकपितामहम् / / 34 यथादृष्टं हृषीकेशे सर्वमाख्यातुमर्हति // 49 तेन चात्मानुशिष्टो मे पुत्रत्य मुनिसत्तमाः / एवमुक्तः स मुनिभिर्नारदो भगवानृषिः / तेजसोऽर्धेन पुत्रस्ते भवितेति वृषध्वजः / / 35 कथयामास देवर्षिः पूर्ववृत्तां कथा शुभाम् // 50 सोऽयं वह्निरुपागम्य पादमूले ममान्तिकम् / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि शिष्यवत्परिचर्याथ शान्तः प्रकृतिमागतः / / 36 पद्विशत्यधिकशततमोऽध्यायः॥ 126 // एतदस्य रहस्यं वः पद्मनाभस्य धीमतः / मया प्रेम्णा समाख्यातं न भीः कार्या तपोधनाः / / भीष्म उवाच / सर्वत्र गतिरव्यमा भवतां दीर्घदर्शनाः / ततो नारायणसुहन्नारदो भगवानृषिः। . तपस्विव्रतसंदीप्ता ज्ञानविज्ञानशोभिताः / / 38 / शंकरस्योमया साधू संवादं प्रत्यभाषत // 1 यच्छ्रुतं यच्च वो दृष्टं दिवि वा यदि वा भुवि / तपश्चचार धर्मात्मा वृषभाङ्कः सुरेश्वरः / आश्चयं परमं किंचित्तद्भवन्तो ब्रुवन्तु मे // 39 पुण्ये गिरौ हिमवति सिद्धचारणसेविते // 2 तस्यामृतनिकाशस्य वाङ्मधोरस्ति मे स्पृहा / नानौषधियुते रम्ये नानाघुष्पसमाकुले / भवद्भिः कथितस्येह तपोवननिवासिभिः // 40 अप्सरोगणसंकीर्णे भूतसंघनिषेविते / / 3 यद्यप्यहमदृष्टं वा दिव्यमद्भुतदर्शनम् / तत्र देवो मुदा युक्तो भूतसंघशतैर्वृतः / / दिवि वा भुवि वा किंचित्पश्याम्यमलदर्शनाः // 41 / नानारूपैर्विरूपैश्च दिव्यैरद्भुतदर्शनैः // 4 प्रकृतिः सा मम परा न क्वचित्प्रतिहन्यते / सिंहव्याघ्रगजप्रख्यैः सर्वजातिसमन्वितैः / न चात्मगतमैश्वर्यमाश्चर्य प्रतिभाति मे // 42 क्रोष्टुकद्वीपिवदनैर्ऋक्षर्षभमुखेस्तथा // 5 श्रद्धयः कथितो ह्यर्थः सज्जनश्रवणं गतः / उलूकवदनीमैः श्येनभासमुखैस्तथा / चिरं तिष्ठति मेदिन्यां शैले लेख्यमिवार्पितम् // 43 नानावर्णमृगप्रख्यैः सर्वजातिसमन्वयैः / तदहं सजनमुखान्निःसृतं तत्समागमे / किंनरैर्देवगन्धर्वैर्यक्षभूतगणैस्तथा // 6 कथयिष्याम्यहरहर्बुद्धिदीपकरं नृणाम् // 44 दिव्यपुष्पसमाकीग दिव्यमालाविभूषितम् / ततो मुनिगणाः सर्वे प्रश्रिताः कृष्णसंनिधौ / दिव्यचन्दनसंयुक्तं दिव्यधूपेन धूपितम् / नेत्रः पद्मदलप्रख्यैरपश्यन्त जनादनम् // 45 तत्सदो वृषभाङ्कस्य दिव्यवादिननादितम् // 7 -200 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 127.8] अनुशासनपर्व [13. 127. 38 मृदङ्गपणवोद्भुष्टं शङ्खभेरीनिनादितम् / हरतुल्याम्बरधरा समानव्रतचारिणी // 23 नृत्यद्भिर्भूतसंधैश्च बर्हिणैश्च समन्ततः / / 8 बिभ्रती कलशं रौक्मं सर्वतीर्थजलोद्भवम् / प्रनृत्ताप्सरसं दिव्यं दिव्यस्त्रीगणसेवितम् / गिरिस्रवाभिः पुण्याभिः सर्वतोऽनुगता शुभा // 24 दृष्टिकान्तमनिर्देश्यं दिव्यमद्भुतदर्शनम् // 9 पुष्पवृष्ट्याभिवर्षन्ती गन्धैर्बहुविधैस्तथा / स गिरिस्तपसा तस्य भूतेशस्य व्यरोचत // 10 सेवन्ती हिमवत्पावं हरपार्श्वमुपागमत् // 25 स्वाध्यायपरमैर्विप्रैब्रह्मघोषैर्विनादितः। ततः स्मयन्ती पाणिभ्यां नर्मार्थं चारुदर्शना / षटदैरुपगीतैश्च माधवाप्रतिमो गिरिः // 11 / हरनेत्रे शुभे देवी सहसा सा समावृणोत् // 26 तं महोत्सवसंकाशं भीमरूपधरं पुनः / संवृताभ्यां तु नेत्राभ्यां तमोभूतमचेतनम् / दृष्ट्वा मुनिगणस्यासीत्परा प्रीतिर्जनार्दन / / 12 निर्हाम निर्वषट्कारं तत्सदः सहसाभवत् // 27 मुनयश्च महाभागाः सिद्धाश्चैवोर्ध्वरेतसः / जनश्च विमनाः सर्वो भयत्राससमन्वितः। मरुतो वसवः साध्या विश्वेदेवाः सनातनाः // 13 निमीलिते भूतपतौ नष्टसूर्य इवाभवत् // 28 यक्षा नागाः पिशाचाश्च लोकपाला हुताशनाः / ततो वितिमिरो लोकः क्षणेन समपद्यत् / भावाश्च सर्वे न्यग्भूतास्तत्रैवासन्समागताः // 14 ज्वाला च महती दीप्ता ललाटात्तस्य निःसृता // 29 ऋतवः सर्वपुष्पैश्च व्यकिरन्त महाद्भुतैः। तृतीयं चास्य संभूतं नेत्रमादित्यसंनिभम् / ओषध्यो ज्वलमानाश्च द्योतयन्ति स्म तद्वनम् // 15 युगान्तसदृशं दीप्तं येनासौ मथितो गिरिः // 30 विहगाश्च मुदा युक्ताः प्रानृत्यन्व्यनदंश्च ह / ततो गिरिसुता दृष्ट्वा दीप्ताग्निसदृशेक्षणम् / गिरिपृष्ठेषु रम्येषु व्याहरन्तो जनप्रियाः // 16 हरं प्रणम्य शिरसा ददर्शायतलोचना // 31 तत्र देवो गिरितटे दिव्यधातुविभूषिते / / दह्यमाने वने तस्मिन्सशालसरलद्रुमे / पर्यङ्क इव विभ्राजन्नपविष्टो महामनाः // 17 सचन्दनवने रम्ये दिव्यौषधिविदीपिते // 32 व्याघ्रचर्माम्बरधरः सिंहचर्मोत्तरच्छदः / मृगयूद्रुतै तैर्हरपार्श्वमुपागतः / व्यालयज्ञोपवीती च लोहिताङ्गदभूषणः // 18 शरणं चाप्यविन्दद्भिस्तत्सदः संकुलं बभौ // 33 हरिश्मश्रुर्जटी भीमो भयकर्ता सुरद्विषाम् / ततो नभःस्पृशज्वालो विद्युल्लोलार्चिरुज्ज्वलः / अभयः सर्वभूतानां भक्तानां वृषभध्वजः // 19 द्वादशादित्यसदृशो युगान्ताग्निरिवापरः // 34 दृष्ट्वा तमृषयः सर्वे शिरोभिरवनीं गताः / क्षणेन तेन दग्धः स हिमवानभवन्नगः / विमुक्ताः सर्वपापेभ्यः क्षान्ता विगतकल्मषाः / / 20 सधातुशिखराभोगो दीनदग्धवनौषधिः // 35 तस्य भूतपतेः स्थानं भीमरूपधरं बभौ / तं दृष्ट्वा मथितं शैलं शैलराजसुता ततः / अप्रधृष्यतरं चैव महोरगसमाकुलम् / / 21 भगवन्तं प्रपन्ना सा साञ्जलिप्रग्रहा स्थिता // 36 क्षणेनैवाभवत्सर्वमद्भुतं मधुसूदन / उमां शर्वस्तदा दृष्ट्वा स्त्रीभावागतमार्दवाम् / तत्सदो वृषभाङ्कस्य भीमरूपधरं बभौ / / 22 / पितुर्दैन्यमनिच्छन्ती प्रीत्यापश्यत्ततो गिरिम् // 37 तमभ्ययाच्छैलसुता भूतम्रीगणसंवृता / ततोऽभवत्पुनः सर्वः प्रकृतिस्थः सुदर्शनः / म.भा. 339 -2705 - Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 127. 38 ] महाभारते [ 13. 128. 11 प्रहृष्टविहगश्चैव प्रपुष्पितवनद्रुमः // 38 हेतुभिर्ममैतानि रूपाणि रुचिरानने // 51 प्रकृतिस्थं गिरिं दृष्ट्वा प्रीता देवी महेश्वरम् / / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि उवाच सर्वभूतानां पतिं पतिमनिन्दिता / / 39 सप्तविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः // 127 // . भगवन्सर्वभूतेश शूलपाणे महाव्रत / 128 संशयो मे महाजातस्तं मे व्याख्यातुमर्हसि // 40 महेश्वर उवाच / किमर्थ ते ललाटे वै तृतीयं नेत्रमुत्थितम् / तिलोत्तमा नाम पुरा ब्रह्मणा योषिदुत्तमा। किमर्थं च गिरिर्दग्धः सपक्षिगणकाननः // 41 तिलं तिलं समुद्धृत्य रत्नानां निर्मिता शुभा // 1 किमर्थं च पुनर्देव प्रकृतिस्थः क्षणात्कृतः / साभ्यगच्छत मां देवि रूपेणाप्रतिमा भुवि / तथैव द्रुमसंछन्नः कृतोऽयं ते महेश्वर // 42 प्रदक्षिणं लोभयन्ती मां शुभे रुचिरानना // 2 महेश्वर उवाच / यतो यतः सा सुदती मामुपाधावदन्तिके / ततस्ततो मुखं चारु मम देवि विनिर्गतम् // 3 नेत्रे मे संवृते देवि त्वया बाल्यादनिन्दिते / तां दिदृक्षुरहं योगाच्चतुर्मूर्तित्वमागतः / नष्टालोकस्ततो लोकः क्षणेन समपद्यत // 43 चतुर्मुखश्च संवृत्तो दर्शयन्योगमात्मनः // 4 नष्टादित्ये तथा लोके तमोभूते नगात्मजे / पूर्वेण वदनेनाहमिन्द्रत्वमनुशास्मि ह / तृतीयं लोचनं दीप्तं सृष्टं ते रक्षता प्रजाः // 44 उत्तरेण त्वया साध रमाम्यहमनिन्दिते॥ 5 तस्य चाक्ष्णो महत्तेजो येनायं मथितो गिरिः / पश्चिमं मे मुखं सौम्यं सर्वप्राणिसुखावहम् / त्वत्प्रियाथं च मे देवि प्रकृतिस्थः क्षणात्कृतः॥४५ दक्षिणं भीमसंकाशं रौ संहरति प्रजाः // 6 उमोवाच / जटिलो ब्रह्मचारी च लोकानां हितकाम्यया। भगवन्केन ते वक्त्रं चन्द्रवत्प्रियदर्शनम् / देवकार्यार्थसिद्ध्यर्थ पिनाकं मे करे स्थितम् // पूर्व तथैव श्रीकान्तमुत्तरं पश्चिमं तथा // 46 इन्द्रेण च पुरा वनं क्षिप्तं श्रीकाटिणा मम। दक्षिणं च मुखं रौद्रं केनोवं कपिला जटाः / दग्ध्वा कण्ठं तु तद्यातं तेन श्रीकण्ठता मम // 8 केन कण्ठश्च ते नीलो बर्हिबर्हनिभः कृतः॥४७ . उमोवाच / हस्ते चैतत्पिनाकं ते सततं केन तिष्ठति / वाहनेषु प्रभूतेषु श्रीमत्स्वन्येषु सत्सु ते / जटिलो ब्रह्मचारी च किमर्थमसि नित्यदा॥ 48 कथं गोवृषभो देव वाहनत्वमुपागतः // 9 एतं मे संशयं सर्व वद भूतपतेऽनघ / महेश्वर उवाच / सधर्मचारिणी चाहं भक्ता चेति वृषध्वज // 49 सुरभी ससृजे ब्रह्मामृतधेनुं पयोमुचम् / एवमुक्तः स भगवाशैलपुत्र्या पिनाकधृक् / सा सृष्टा बहुधा जाता क्षरमाणा पयोऽमृतम् / / 10 तस्या वृत्त्या च बुद्ध्या च प्रीतिमानभवत्प्रभुः // तस्या वत्समुखोत्सृष्टः फेनो मद्गात्रमागतः / ततस्तामब्रवीद्देवः सुभगे श्रूयतामिति / | ततो दग्धा मया गावो नानावर्णत्वमागताः // 11 - 2706 - Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 128. 12] अनुशासनपर्व [13. 128. 36 ततोऽहं लोकगुरुणा शमं नीतोऽर्थवेदिना / वाग्भिर्ऋग्भूषितार्थाभिः स्तवैश्वार्थविदां वर // 24 वृषं चेमं ध्वजार्थं मे ददौ वाहनमेव च // 12 महेश्वर उवाच। उमोवाच / आहिंसा सत्यवचनं सर्वभूतानुकम्पनम् / निवासा बहुरूपास्ते विश्वरूपगुणान्विताः / शमो दानं यथाशक्ति गार्हस्थ्यो धर्म उत्तमः // 25 तांश्च संत्यज्य भगवश्मशाने रमसे कथम् // 13 परदारेष्वसंकल्पो न्यासस्त्रीपरिरक्षणम् / केशास्थिकलिले भीमे कपाटघटसंकुले / अदत्तादानविरमो मधुमांसस्य वर्जनम् // 26 गृध्रगोमायुकलिले चिताग्निशतसंकुले // 14 . एष पञ्चविधो धर्मो वहुशाखः सुखोदयः / अशुचौ मांसकलिले वसाशोणितकर्दमे / देहिभिर्धर्मपरमैः कर्तव्यो धर्मसंचयः // 27 विनिकीर्णामिषचये शिवानादविनादिते // 15 उमोवाच / महेश्वर उवाच / भगवन्संशयं पृष्टस्तं मे व्याख्यातुमर्हसि / मेध्यान्वेषी महीं कृत्स्नां विचरामि निशास्वहम् / चातुर्वर्ण्यस्य यो धर्मः स्वे स्वे वर्णे गुणावहः // 28 न च मेध्यतरं किंचिच्छशानादिह विद्यते // 16 ब्राह्मणे कीदृशो धर्मः क्षत्रिये कीदृशो भवेत् / तेन मे सर्ववासानां श्मशाने रमते मनः / वैश्ये किंलक्षणो धर्मः शद्रे किंलक्षणो भवेत् // 29 न्यग्रोधशाखासंछन्ने निर्भुक्तस्रग्विभूषिते // 17 ___ महेश्वर उवाच / तत्र चैव रमन्ते मे भूतसंघाः शुभानने / न्यायतस्ते महाभागे संशयः समुदीरितः / न च भूतगणैर्देवि विनाहं वस्तुमुत्सहे / / 18 भूमिदेवा महाभागाः सदा लोके द्विजातयः // 30 एष वासो हि मे मेध्यः स्वर्गीयश्च मतो हि मे। उपवासः सदा धर्मो ब्राह्मणस्य न संशयः / पुण्यः परमकश्चैव मेध्यकामैरुपास्यते // 19 स हि धर्मार्थमुत्पन्नो ब्रह्मभूयाय कल्पते // 31 . उमोवाच / तस्य धर्मक्रिया देवि व्रतचर्या च न्यायतः / भगवन्सर्वभूतेश सर्वधर्मभृतां वर / तथोपनयनं चैव द्विजायैवोपपद्यते // 32 पिनाकपाणे वरद संशयो मे महानयम् // 20 गुरुदैवतपूजार्थं स्वाध्यायाभ्यसनात्मकः / अयं मुनिगणः सर्वस्तपस्तप इति प्रभो। देहिभिर्धर्मपरमैश्चर्तव्यो धर्मसंभवः // 33 तपोन्वेषकरो लोके भ्रमते विविधाकृतिः // 21 उमोवाच / अस्य चैवर्षिसंघस्य मम च प्रियकाम्यया। भगवन्संशयो मेऽत्र तं मे व्याख्यातुमर्हसि / एतं ममेह संदेहं वक्तुमर्हस्परिंदम / / 22 चातुर्वर्ण्यस्य धर्म हि नैपुण्येन प्रकीर्तय // 34 धर्मः किंलक्षणः प्रोक्तः कथं वाचरितुं नरैः। महेश्वर उवाच / शक्यो धर्ममविन्दद्भिर्धर्मज्ञ वद मे प्रभो // 23 रहस्यश्रवणं धर्मो वेदव्रतनिषेवणम् / नारद उवाच / व्रतचर्यापरो धर्मो गुरुपादप्रसादनम् // 35 ततो मुनिगणः सर्वस्तां देवीं प्रत्यपूजयत् / भैक्षचर्यापरो धर्मो धर्मो नित्योपवासिता / -407 - Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 128. 36] महाभारत [13. 129.8 नित्यस्वाध्यायिता धर्मो ब्रह्मचर्याश्रमस्तथा / / 36 व्यवहारस्थितिधर्मः सत्यवाक्यरतिस्तथा // 51 गुरुणा त्वभ्यनुज्ञातः समावर्तेत वै द्विजः।। आहिस्तप्रदो राजा प्रत्य चेह महीयते / विन्देतानन्तरं भार्यामनुरूपां यथाविधि // 37 गोब्राह्मणार्थे विक्रान्तः संग्रामे निधनं गतः / शूद्रान्नवर्जनं धर्मस्तथा सत्पथसेवनम् / अश्वमेधजिताल्लोकान्प्राप्नोति त्रिदिवालये / / 52 धर्मो नित्योपवासित्वं ब्रह्मचर्य तथैव च // 38 वैश्यस्य सततं धर्मः पाशुपाल्यं कृषिस्तथा। ... आहिताग्निरधीयानो जुह्वानः संयतेन्द्रियः / अग्निहोत्रपरिस्पन्दो दानाध्ययनमेव च // 53. विघसाशी यताहारो गृहस्थः सत्यवाक्शुचिः॥३९ वाणिज्यं सत्पथस्थानमातिथ्यं प्रशमो दमः / अतिथिव्रतता धर्मो धर्मनेताग्निधारणम् / विप्राणां स्वागतं त्यागो वैश्यधर्मः सनातनः // 54 इष्टीश्च पशुबन्धांश्च विधिपूर्व समाचरेत् // 40 तिलान्गन्धारसांश्चैव न विक्रीणीत वै क्वचित् / यज्ञश्च परमो धर्मस्तथाहिंसा च देहिषु / वणिक्पथमुपासीनो वैश्यः सत्पथमाश्रितः / / 55 अपूर्वभोजनं धर्मो विघसाशित्वमेव च // 41 सर्वातिथ्यं त्रिवर्गस्य यथाशक्ति यथार्हतः। भुक्ते परिजने पश्चाद्भोजनं धर्म उच्यते / शूद्रधर्मः परो नित्यं शुश्रूषा च द्विजातिषु / / 56 ब्राह्मणस्य गृहस्थस्य श्रोत्रियस्य विशेषतः // 42 स शूद्रः संशिततपाः सत्यसंधो जितेन्द्रियः / दंपत्योः समशीलत्वं धर्मश्च गृहमेधिनाम् / शुश्रूषन्नतिथिं प्राप्तं तपः संचिनुते महत् // 57 गृह्याणां चैव देवानां नित्यं पुष्पबलिक्रिया / / 43 त्यक्तहिंसः शुभाचारो देवताद्विजपूजकः / नित्योपलेपनं धर्मस्तथा नित्योपवासिता / शुद्रो धर्मफलैरिष्टैः संप्रयुज्येत बुद्धिमान् / / 58 सुसंमृष्टोपलिप्ते च साज्यधूमोद्गमे गृहे // 44 एतत्ते सर्वमाख्यातं चातुर्वर्ण्यस्य शोभने / एष द्विजजने धर्मो गार्हस्थ्यो लोकधारणः / एकैकस्येह सुभगे किमन्यच्छ्रोतुमिच्छसि // 59 द्विजातीनां सतां नित्यं सदैवैष प्रवर्तते // 45 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि यस्तु क्षत्रगतो देवि त्वया धर्म उदीरितः / अष्टाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः॥ 128 // तमहं ते प्रवक्ष्यामि तं मे शृणु समाहिता // 46 . 129 क्षत्रियस्य स्मृतो धर्मः प्रजापालनमादितः / उमोवाच / निर्दिष्टफलभोक्ता हि राजा धर्मेण युज्यते // 47 उक्तास्त्वया पृथग्धर्माश्चातुर्वर्ण्यहिताः शुभाः / प्रजाः पालयते यो हि धर्मेण मनुजाधिपः। सर्वव्यापी तु यो धर्मो भगवंस्तं ब्रवीहि मे // 1 तस्य धर्मार्जिता लोकाः प्रजापालनसंचिताः // 48 तत्र राज्ञः परो धर्मो दमः स्वाध्याय एव च / महेश्वर उवाच। अग्निहोत्रपरिस्पन्दो दानाध्ययनमेव च / / 49 ब्राह्मणा लोकसारेण सृष्टा धात्रा गुणार्थिना / यज्ञोपवीतधरणं यज्ञो धर्मक्रियास्तथा। लोकांस्तारयितुं कृत्स्नान्मर्येषु क्षितिदेवताः // 2 भृत्यानां भरणं धर्मः कृते कर्मण्यमोघता // 50 / तेषामिमं प्रवक्ष्यामि धर्मकर्मफलोदयम् / सम्यग्दण्डे स्थितिधर्मो धर्मो वेदक्रतुक्रियाः। ब्राह्मणेषु हि यो धर्मः स धर्मः परमो मतः // 3 -2708 - Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 129. 41 अनुशासनपर्व [ 13. 129. 33 इमे तु लोकधर्मार्थ त्रयः सृष्टाः स्वयंभुवा। एकनांशेन धर्मार्थश्चर्तव्यो भूतिमिच्छता। पृथिव्याः सर्जने नित्यं सृष्टास्तानपि मे शृणु // 4 एकेनांशेन कामार्थ एकमंशं विवर्धयेत् / / 19 वेदोक्तः परमो धर्मः स्मृतिशास्त्रगतोऽपरः / निवृत्तिलक्षणस्त्वन्यो धर्मो मोक्ष इति स्मृतः / शिष्टाचीर्णः परः प्रोक्तस्त्रयो धर्माः सनातनाः॥ 5 तस्य वृत्तिं प्रवक्ष्यामि शृणु मे देवि तत्त्वतः // 20 विद्यो ब्राह्मणो विद्वान्न चाध्ययनजीवनः। सर्वभूतदया धर्मो न चैकग्रामवासिता / त्रिकर्मा त्रिपरिक्रान्तो मैत्र एष स्मृतो द्विजः // 6 आशापाशविमोक्षश्च शस्यते मोक्षकाविणाम् / / 21 पडिमानि तु कर्माणि प्रोवाच भुवनेश्वरः / न कुण्ड्यां नोदके सङ्गो न वाससि न चासने / वृत्त्यर्थं ब्राह्मणानां वै शृणु तानि समाहिता / / 7 न त्रिदण्डे न शयने नाग्नौ न शरणालये // 22 यजनं याजनं चैव तथा दानप्रतिग्रहौ। अध्यात्मगतचित्तो यस्तन्मनास्तत्परायणः / अध्यापनमधीतं च षट्कर्मा धर्मभारिद्वजः // 8 युक्तो योगं प्रति सदा प्रतिसंख्यानमेव च // 23 नित्यस्वाध्यायता धर्मो धर्मो यज्ञः सनातनः / वृक्षमूलशयो नित्यं शून्यागारनिवेशनः / दानं प्रशस्यते चास्य यथाशक्ति यथाविधि // 9 नदीपुलिनशायी च नदीतीररतिश्च यः // 24 अयं तु परमो धर्मः प्रवृत्तः सत्सु नित्यशः / विमुक्तः सर्वसङ्गेषु स्नेहबन्धेषु च द्विजः / गृहस्थता विशुद्धानां धर्मस्य निचयो महान् / / 10 आत्मन्येवात्मनो भावं समासज्याटति द्विजः // 25 पञ्चयज्ञविशुद्धात्मा सत्यवागनसूयकः / स्थाणुभूतो निराहारो मोक्षदृष्टेन कर्मणा / दाता ब्राह्मणसत्कर्ता सुसं मृष्टनिवेशनः // 11 परिव्रजति यो युक्तस्तस्य धर्मः सनातनः // 26 अमानी च सदाजिह्मः स्निग्धवाणीप्रदस्तथा / न चैकत्र चिरासक्तो न चैकग्रामगोचरः / अतिथ्यभ्यागतरतिः शेषान्नकतभोजनः // 12 युक्तो ह्यटति निर्मुक्तो न चैकपुलिनेशयः // 27 पाद्यमयं यथान्यायमासनं शयनं तथा / एष मोक्षविदां धर्मो वेदोक्तः सत्पथः सताम् / दीपं प्रतिश्रयं चापि यो ददाति स धार्मिकः // 13 यो मार्गमनुयातीमं पदं तस्य न विद्यते // 28 प्रातस्त्थाय चाचम्य भोजनेनोपमत्रय च / चतुर्विधा भिक्षवस्ते कुटीचरकृतोदकः / सत्कृत्यानुव्रजेद्यश्च तस्य धर्मः सनातनः // 14 हंसः परमहंसश्च यो यः पश्चात्स उत्तमः / / 29 सर्वातिथ्यं त्रिवर्गस्य यथाशक्ति दिवानिशम् / अतः परतरं नास्ति नाधरं न तिरोऽग्रतः / शुद्रधर्मः समाख्यातस्त्रिवर्णपरिचारणम् / / 15 अदुःखमसुखं सौम्यमजरामरमव्ययम् // 30 प्रवृत्तिलक्षणो धर्मो गृहस्थेषु विधीयते / उमोवाच। तमहं कीर्तयिष्यामि सर्वभूतहितं शुभम् // 16 गार्हस्थ्यो मोक्षधर्मश्च सजनाचरितरत्वया / दातव्यमसकृच्छक्त्या यष्टव्यमसकृत्तथा / भाषितो मर्त्यलोकस्य मार्ग: श्रेयस्करो महान् // 31 पुष्टिकर्मविधानं च कर्तव्यं भूतिमिच्छता // 17 ऋषिधर्म तु धर्मज्ञ श्रोतुमिच्छाम्यनुत्तमम् / धर्मेणार्थः समाहार्यो धर्मलब्धं त्रिधा धनम् / स्पृहा भवति मे नित्यं तपोवननिवासिषु // 32 कर्तव्यं धर्मपरमं मानवेन प्रयत्नतः / / 58 आज्यधूमोद्भवो गन्धो रुणद्धीव तपोवनम् / -2709 - Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 129. 33 ] महाभारते [13. 130. तं दृष्ट्वा मे मनः प्रीतं महेश्वर सदा भवेत् // 33 | ऋषिधर्मः सदा चीर्णो योऽन्यस्तमपि मे शृणु॥४७ एतं मे संशयं देव मुनिधर्मकृतं विभो / सर्वेष्वेवर्षिधर्मेषु जेय आत्मा जितेन्द्रियः।। सर्वधर्मार्थतत्त्वज्ञ देवदेव वदस्व मे / कामक्रोधौ ततः पश्चाज्जेतव्याविति मे मतिः // 48 निखिलेन मया पृष्टं महादेव यथातथम / / 34 अग्निहोत्रपरिस्पन्दो धर्मरात्रिसमासनम् / महेश्वर उवाच / सोमयज्ञाभ्यनुज्ञानं पञ्चमी यज्ञदक्षिणा // 49 . हन्त तेऽहं प्रवक्ष्यामि मुनिधर्ममनुत्तमम् / नित्यं यज्ञक्रिया धर्मः पितृदेवार्चने रतिः। . यं कृत्वा मुनयो यान्ति सिद्धिं स्वतपसा शुभे॥ सर्वातिथ्यं च कर्तव्यमन्नेनोञ्छार्जितेन वै // 50 फेनपानामृषीणां यो धर्मो धर्मविदां सदा / निवृत्तिरुपभोगस्य गोरसानां च वै रतिः / / तं मे शृणु महाभागे धर्मज्ञे धर्ममादितः // 36 स्थण्डिले शयनं योगः शाकपर्णनिषेवणम् // 51 उञ्छन्ति सततं तस्मिन्ब्राझं फेनोत्करं शुभम् / फलमूलाशनं वायुरापः शैवलभक्षणम् / अमृतं ब्रह्मणा पीतं मधुरं प्रसृतं दिवि // 37 ऋषीणां नियमा ह्येते यैर्जयन्त्यजितां गतिम् // 52 एष तेषां विशुद्धानां फेनपानां तपोधने / विधूमे न्यस्तमुसले व्यङ्गारे भुक्तवज्जने / धर्मचर्याकृतो मार्गो वालखिल्यगणे शृणु // 38 अतीतपात्रसंचारे काले विगतभैक्षके // 53 वालखिल्यास्तपःसिद्धा मुनयः सूर्यमण्डले / अतिथिं काडमाणो वै शेषान्नकृतभोजनः। उम्छमुञ्छन्ति धर्मज्ञाः शाकुनी वृत्तिमास्थिताः / / सत्यधर्मरतिः क्षान्तो मुनिधर्मेण युज्यते // 54 मृगनिमोकवसनाश्वीरवल्कलवाससः / न स्तम्भी न च मानी यो न प्रमत्तो न विस्मितः निद्वंद्वाः सत्पथं प्राप्ता वालखिल्यास्तपोधनाः // 40 / मित्रामित्रसमो मैत्रो यः स धर्मविदुत्तमः // 55 अङ्गुष्ठपर्वमात्रास्ते स्वेष्वङ्गेषु व्यवस्थिताः / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि तपश्चरणमीहन्ते तेषां धर्मफलं महत् / / 41 एकोनत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः॥ 129 // ते सुरैः समता यान्ति सुरकार्यार्थसिद्धये / द्योतयन्तो दिशः सर्वास्तपसा दग्धकिल्बिषाः // 42 उमोवाच / ये त्वन्ये शुद्धमनसो दयाधर्मपरायणाः। देशेषु रमणीयेषु गिरीणां निर्झरेषु च / सन्तश्चक्रचराः पुण्याः सोमलोकचराश्च ये // 43 स्रवन्तीनां च कुलेषु पर्वतोपबनेषु च // 1 पितृलोकसमीपस्थास्त उञ्छन्ति यथाविधि / देशेषु च विचित्रेषु फलवत्सु समाहिताः / संप्रक्षालाश्मकुट्टाश्च दन्तोलूखलिनस्तथा // 44 मूलवत्सु च देशेषु वसन्ति नियतव्रताः // 2 सोमपानां च देवानामूष्मपाणां तथैव च। तेषामपि विधिं पुण्यं श्रोतुमिच्छामि शंकर / उञ्छन्ति ये समीपस्थाः स्वभावनियतेन्द्रियाः / / 45 वानप्रस्थेषु देवेश स्वशरीरोपजीविषु // 3 तेषामग्निपरिष्यन्दः पितृदेवार्चनं तथा। महेश्वर उवाच / यज्ञानां चापि पश्चानां यजनं धर्म उच्यते // 46 वानप्रस्थेषु यो धर्मस्तं मे शृणु समाहिता / एष चक्रचरैर्देत्रि देवलोकचरैर्द्विजैः / श्रुत्वा चैकमना देवि धर्मबुद्धिपरा भव // 4 - 10 - Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 130. 5 ] अनुशासनपर्व [ 13. 130. 33 संसिद्धैर्नियतैः सद्भिर्वनवासमुपागतः / उमोवाच / वानप्रस्थैरिदं कर्म कर्तव्यं शृणु यादृशम् / / 5 भगवन्देवदेवेश सर्वभूतनमस्कृत / त्रिकालमभिषेकार्थः पितृदेवार्चनं क्रिया / यो धर्मो मुनिसंघस्य सिद्धिवादेषु तं वद // 20 अग्निहोत्रपरिस्पन्द इष्टिहोमविधिस्तथा // 6 सिद्धिवादेषु संसिद्धास्तथा वननिवासिनः / नीवारग्रहणं चैव फलमूलनिषेवणम् / स्वैरिणो दारसंयुक्तास्तेषां धर्मः कथं स्मृतः // 21 इनुदैरण्डतैलानां स्नेहाथं च निषेवणम् / / 7 महेश्वर उवाच / योगचर्याकृतैः सिद्धैः कामक्रोधविवर्जनम् / स्वैरिणस्तापसा देवि सर्वे दारविहारिणः / वीरशय्यामुपासद्भिर्वीरस्थानोपसेविभिः // 8 तेषां मौण्ड्यं कषायश्च वासरात्रिश्च कारणम् // 22 युक्तैर्योगवहै: सद्भिीष्मे पश्चातपैस्तथा। त्रिकालमभिषेकश्च होत्रं त्वृषिकृतं महत् / मण्डूकयोगनियतैर्यथान्यायनिषेविभिः // 9 समाधिः सत्पथस्थानं यथोदितनिषेवणम् / / 23 वीरासनगतैर्नित्यं स्थण्डिले शयनैस्तथा / ये च ते पूर्वकथिता धर्मा वननिवासिनाम् / शीतयोगोऽग्नियोगश्च चर्तव्यो धर्मबुद्धिभिः // 10 / यदि सेवन्ति धर्मास्तानाप्नुवन्ति तपःफलम् // 24 अब्भक्षैर्वायुभक्षैश्च शैवालोत्तरभोजनैः।। ये च दंपतिधर्माणः स्वदारनियतेन्द्रियाः / अश्मकुट्टैस्तथा दान्तः संप्रक्षालैस्तथापरैः // 11 चरन्ति विधिदृष्टं तहतुकालाभिगामिनः / / 25 चीरवल्कलसंवीतैर्मृगचर्मनिवासिभिः / तेषामृषिकृतो धर्मो धर्मिणामुपपद्यते / कार्या यात्रा यथाकालं यथाधर्म यथाविधि / / 12 न कामकारात्कामोऽन्यः संसेव्यो धर्मदर्शिभिः // वननित्यैर्वनचरैर्वनपैर्वनगोचरैः। सर्वभूतेषु यः सम्यग्ददात्यभयदक्षिणाम् / वनं गुरुमिवासाद्य वस्तव्यं वनजीविमिः / / 13 हिंसारोषविमुक्तात्मा स वै धर्मेण युज्यते / / 27 तेषां होमक्रिया धर्मः पञ्चयज्ञनिषेवणम् / सर्वभूतानुकम्पी यः सर्वभूतार्जवव्रतः / नागपञ्चमयज्ञस्य वेदोक्तस्यानुपालनम् / / 14 सर्वभूतात्मभूतश्च स वै धर्मेण युज्यते // 28 अष्टमीयज्ञपरता चातुर्मास्यनिषेवणम् / सर्ववेदेषु वा स्नानं सर्वभूतेषु चार्जवम् / पौर्णमास्यां तु यो यज्ञो नित्ययज्ञस्तथैव च / / 15 उभे एते समे स्यातामाजवं वा विशिष्यते // 29 विमुक्ता दारसंयोगैर्विमुक्ताः सर्वसंकरैः / आर्जवं धर्म इत्याहुरधर्मो जिह्म उच्यते / विमुक्ताः सर्वपापैश्च चरन्ति मुनयो वने // 16 आर्जवेनेह संयुक्तो नरो धर्मेण युज्यते // 30 घुग्भाण्डपरमा नित्यं त्रेताग्निशरणाः सदा / आर्जतगे भुवने नित्यं वसत्यमरसंनिधौ। सन्तः सत्पथनित्या ये ते यान्ति परमां गतिम् // तस्मादार्जवनित्यः स्याद्य इच्छेद्धर्ममात्मनः / / 31 ब्रह्मलोकं महापुण्यं सोमलोकं च शाश्वतम् / क्षान्तो दान्तो जितक्रोधो धर्मभूतोऽविहिंसकः / गच्छन्ति मुनयः सिद्धा ऋषिधर्मव्यपाश्रयात् / / 18 / धर्म रतमना नित्यं नरो धर्मेण युज्यते // 32 एष धर्मो मया देवि वानप्रस्थाश्रितः शुभः / व्यपेततन्द्रो धर्मात्मा शक्त्या सत्पथमाश्रितः / विस्तरेणार्थसंपन्नो यथास्थूलमुदाहृतः / / 19 चारित्रपरमो बुद्धो ब्रह्मभूयाय कल्पते / / 33 - 2711 - Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. 130. 34 ] महाभारते [13. 131.1 उमोवाच / आत्मानमुपजीवन्यो दीक्षां द्वादशवार्षिकीम् / आश्रमाभिरता देव तापसा ये तपोधनाः।। त्यक्त्वा महार्णवे देहं वारुणं लोकमश्नुते // 48 दीप्तिमन्तः कया चैव चर्ययाथ भवन्ति ते // 34 आत्मानमुपजीवन्यो दीक्षां द्वादशवार्षिकीम्। . राजानो राजपुत्राश्च निर्धना वा महाधनाः / अश्मना चरणौ भित्त्वा गुह्यकेषु स मोदते // 49 कर्मणा केन भगवन्प्राप्नुवन्ति महाफलम् / / 35 साधयित्वात्मनात्मानं निद्वंद्वो निष्परिग्रहः। . नित्यं स्थानमुपागम्य दिव्यचन्दनरूषिताः / चीवा॑ द्वादश वर्षाणि दीक्षामेका मनोगताम् / केन वा कर्मणा देव भवन्ति वनगोचराः // 36 स्वर्गलोकमवाप्नोति देवैश्च सह मोदते // 50 . एतं मे संशयं देव तपश्चर्यागतं शुभम् / आत्मानमुपजीवन्यो दीक्षा द्वादशवार्षिकीम् / शंस सर्वमशेषेण व्यक्ष त्रिपुरनाशन // 37 / हुत्वाग्नौ देहमुत्सृज्य वह्निलोके महीयते // 51 महेश्वर उवाच / यस्तु देवि यथान्यायं दीक्षितो नियतो द्विजः / उपवासव्रतैर्दान्ता अहिंस्राः सत्यवादिनः / आत्मन्यात्मानमाधाय निर्द्वद्वो निष्परिग्रहः // 5H संसिद्धाः प्रेत्य गन्धर्वैः सह मोदन्त्यनामयाः / / 38 चीवा॑ द्वादश वर्षाणि दीक्षामेकां मनोगताम् / मण्डूकयोगशयनो यथास्थानं यथाविधि / अरणीसहितं स्कन्धे बद्धा गच्छत्यनावृतः / / 53 दीक्षां चरति धर्मात्मा स नागैः सह मोदते // 39 वीराध्वानमना नित्यं वीरासनरतस्तथा / शष्पं मृगमुखोत्सृष्टं यो मृगैः सह सेवते। वीरस्थायी च सततं स वीरगतिमाप्नुयात् // 54 दीक्षितो वै मुदा युक्तः स गच्छत्यमरावतीम् // 40 स शक्रलोकगो नित्यं सर्वकामपुरस्कृतः / शैवालं शीर्णपणं वा तद्वतो यो निपेवते / दिब्यपुष्पसमाकीर्णो दिव्यचन्दनभूषितः / शीतयोगवहो नित्यं स गच्छेत्परमां गतिम् / / 41 सुखं वसति धर्मात्मा दिवि देवगणैः सह // 55 वायुभक्षोऽम्बुभक्षो वा फलमूलाशनोऽपि वा। वीरलोकगतो वीरो वीरयोगवहः सदा। यक्षेष्वैश्वर्यमाधाय मोदतेऽप्सरसां गणैः // 42 सत्त्वस्थः सर्वमुत्सृज्य दीक्षितो नियतः शुचिः / अग्नियोगवहो ग्रीष्मे विधिदृष्टेन कर्मणा / वीराध्वानं प्रपद्येद्यस्तस्य लोकाः सनातनाः // 56 चीवा द्वादश वर्षाणि राजा भवति पार्थिवः / / 43 कामगेन विमानेन स वै चरति च्छन्दतः / आहारनियमं कृत्वा मुनिदशवार्षिकम् / शकलोकगतः श्रीमान्मोदते च निरामयः // 57 मरु संसाध्य यत्नेन राजा भवति पार्थिवः // 44 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि स्थण्डिले शुद्धमाकाशं परिगृह्य समन्ततः / त्रिंशत्यधिकशततमोऽध्यायः // 130 // प्रविश्य च मुदा युक्तो दीक्षां द्वादशवार्षिकीम् // 131 स्थण्डिलस्य फलान्याहुर्यानानि शयनानि च / उमोवाच / गृहाणि च महार्हाणि चन्द्रशुभ्राणि भामिनि // 46 भगवन्भगनेत्रन्न पूष्णो दशनपातन / आत्मानमुपजीवन्यो नियतो नियताशनः / दक्षक्रतुहर व्यक्ष संशयो मे महानयम् // 1 देहं वानशने त्यक्त्वा स स्वर्ग समुपाश्नुते / / 47 / चातुर्वण्यं भगवता पूर्व सृष्टं स्वयंभुवा / -2712 - Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. 131. 2] अनुशासनपर्व [13. 131. 31 केन कर्मविपाकेन वैश्यो गच्छति शूद्रताम् // 2 उप्रान्नं गर्हितं देवि गणान्नं श्राद्धसूतकम् / वैश्यो वा क्षत्रियः केन द्विजो वा क्षत्रियो भवेत् / घुष्टान्नं नैव भोक्तव्यं शूद्रान्नं नैव कर्हि चित् // 17 प्रतिलोमः कथं देव शक्यो धर्मो निषेवितुम् // 3 शूद्रान्नं गर्हितं देवि देवदेवैर्महात्मभिः / केन वा कर्मणा विप्रः शूद्रयोनौ प्रजायते।। पितामहमुखोत्सृष्टं प्रमाणमिति मे मतिः // 18 क्षत्रियः शूद्रतामेति केन वा कर्मणा विभो // 4 शूद्रान्नेनावशेषेण जठरे यो म्रियेत वै / एतं मे संशयं देव वद भूतपतेऽनघ / आहिताग्निस्तथा यज्वा स शूद्रगतिभाग्भवेत् // 19 त्रयो वर्णाः प्रकृत्येह कथं ब्राह्मण्यमाप्नुयुः / / 5 तेन शूद्रान्नशेषेण ब्रह्मस्थानादपाकृतः / महेश्वर उवाच। ब्राह्मणः शूद्रतामेति नास्ति तत्र विचारणा // 20 ब्राह्मण्यं देवि दुष्प्रापं निसर्गाद्ब्राह्मणः शुभे / यस्यान्नेनावशेषेण जठरे यो म्रियेत वै। क्षत्रियो वैश्यशूद्रौ वा निसर्गादिति मे मतिः // 6 तां तां योनि व्रजेद्विप्रो यस्यान्नमुपजीवति // 21 कर्मणा दुष्कृतेनेह स्थानाश्यति वै द्विजः / ब्राह्मणत्वं शुभं प्राप्य दुर्लभं योऽवमन्यते / ज्येष्ठं वर्णमनुप्राप्य तस्माद्रक्षेत वै द्विजः // 7 अभोज्यान्नानि चाभाति स द्विजत्वात्पतेत वै // 22 स्थितो ब्राह्मणधर्मेण ब्राह्मण्यमुपजीवति / सुरापो ब्रह्महा क्षुद्रश्चौरो भग्नव्रतोऽशुचिः।। क्षत्रियो वाथ वैश्यो वा ब्रह्मभूयाय गच्छति // 8 स्वाध्यायवर्जितः पापो लुब्धो नैकृतिकः शठः // 23 यस्तु विप्रत्वमुत्सृज्य क्षात्रं धर्म निषेवते / अव्रती वृषलीभर्ता कुण्डाशी सोमविक्रयी / ब्राह्मण्यात्स परिभ्रष्टः क्षत्रयोनौ प्रजायते // 9 निहीनसेवी विप्रो हि पतति ब्रह्मयोनितः // 24 वैश्यकर्म च यो विप्रो लोभमोहव्यपाश्रयः। गुरुतल्पी गुरुद्वेषी गुरुकुत्सारतिश्च यः / ब्राह्मण्यं दुर्लभं प्राप्य करोत्यल्पमतिः सदा // 10 ब्रह्मद्विवापि पतति ब्राह्मणो ब्रह्मयोनितः // 25 स द्विजो वैश्यतामेति वैश्यो वा शूद्रतामियात् / / एभिस्तु कर्मभिर्देवि शुभैराचरितैस्तथा / स्वधर्मात्प्रच्युतो विप्रस्ततः शूद्रत्वमाप्नुते // 11 शूद्रो ब्राह्मणतां गच्छेद्वैश्यः क्षत्रियतां व्रजेत् // 26 तत्रासौ निरयं प्राप्तो वर्णभ्रष्टो बहिष्कृतः। शद्रकर्माणि सर्वाणि यथान्यायं यथाविधि। ब्रह्मलोकपरिभ्रष्टः शूद्रः समुपजायते // 12 शुश्रूषां परिचयां च ज्येष्ठे वर्णे प्रयत्नतः / क्षत्रियो वा महाभागे वैश्यो वा धर्मचारिणि / कुर्यादविमनाः शूद्रः सततं सत्पथे स्थितः // 27 स्वानि कर्माण्यपाहाय शूद्रकर्माणि सेवते // 13 दैवतद्विजसत्कर्ता सर्वातिथ्यकृतव्रतः। स्वस्थानात्स परिभ्रष्टो वर्णसंकरतां गतः / ऋतुकालाभिगामी च नियतो नियताशनः // 28 ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्रत्वं याति तादृशः // 14 चौक्षश्चौक्षजनान्वेषी शेषान्नकृतभोजनः / यस्तु शुद्धः स्वधर्मेण ज्ञानविज्ञानवाशुचिः / वृथामांसान्यभुञ्जानः शूद्रो वैश्यत्वमृच्छति // 29 धर्मज्ञो धर्मनिरतः स धर्मफलमभुते // 15 ऋतवागनहंवादी निद्वंद्वः शमकोविदः / इदं चैवापरं देवि ब्रह्मणा समुदीरितम्। यजते नित्ययज्ञैश्च स्वाध्यायपरमः शुचिः // 30 अध्यात्म नैष्ठिकं सद्भिर्धर्मकामैनिषेव्यते // 16 / दान्तो ब्राह्मणसत्कर्ता सर्ववर्णबुभूषकः / म.भा. 340 - 2713 - Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 131. 31] महाभारते [ 13. 131. 58 गृहस्थव्रतमातिष्ठन्द्विकालकृतभोजनः // 31 ब्राह्मणो वाप्यसद्वृत्तः सर्वसंकरभोजनः / शेषाशी विजिताहारो निष्कामो निरहंवदः / ब्राह्मण्यं पुण्यमुत्सृज्य शूद्रो भवति तादृशः // 46 अग्निहोत्रमुपासंश्च जुह्वानश्च यथाविधि // 32 कर्मभिः शुचिभिर्देवि शुद्धात्मा विजितेन्द्रियः। सर्वातिथ्यमुपातिष्ठशेषान्नकृतभोजनः / शद्रोऽपि द्विजवत्सेव्य इति ब्रह्माब्रवीत्स्वयम् // 47 त्रेताग्निमन्त्रविहितो वैश्यो भवति वै यदि / स्वभावकर्म च शुभं यत्र शूद्रेऽपि तिष्ठति / स वैश्यः क्षत्रियकुले शुचौ महति जायते // 33 विशुद्धः स द्विजातिवै विज्ञेय इति मे मतिः॥४८ स वैश्यः क्षत्रियो जातो जन्मप्रभृति संस्कृतः। न योनि पि संस्कारो न श्रुतं न च संनतिः। उपनीतो व्रतपरो द्विजो भवति सत्कृतः // 34 कारणानि द्विजत्वस्य वृत्तमेव तु कारणम् / / 49 ददाति यजते यज्ञैः संस्कृतैराप्तदक्षिणैः / सर्वोऽयं ब्राह्मणो लोके वृत्तेन तु विधीयते / अधीते स्वर्गमन्विच्छंत्रेताग्निशरणः सदा // 35 वृत्ते स्थितश्च सुश्रोणि ब्राह्मणत्वं निगच्छति // 50 आर्तहस्तप्रदो नित्यं प्रजा धर्मेण पालयन् / ब्राह्मः स्वभावः कल्याणि समः सर्वत्र मे मतिः / सत्यः सत्यानि कुरुते नित्यं यः सुखदर्शनः / / 36 निर्गुणं निर्मलं ब्रह्म यत्र तिष्ठति स द्विजः // 51 धर्मदण्डो न निर्दण्डो धर्मकार्यानुशासकः / एते योनिफला देवि स्थानभागनिदर्शकाः / यत्रितः कार्यकरणे षड्भागकृतलक्षणः // 37 स्वयं च वरदेनोक्ता ब्रह्मणा सृजता प्रजाः // 52 ग्राम्यधर्मान्न सेवेत स्वच्छन्देनार्थकोविदः / ब्राह्मणो हि महत्क्षेत्रं लोके चरति पादवत् / ऋतुकाले तु धर्मात्मा पत्नी सेवेत नित्यदा // 38 यत्तत्र बीजं वपति सा कृषिः पारलौकिकी // 53 सर्वोपवासी नियतः स्वाध्यायपरमः शुचिः। मिताशिना सदा भाव्यं सत्पथालम्बिना सदा / बर्हिष्कान्तरिते नित्यं शयानोऽग्निगृहे सदा // 39 ब्राह्ममार्गमतिक्रम्य वर्तितव्यं बुभूषता / / 54 सर्वातिथ्यं त्रिवर्गस्य कुर्वाणः सुमनाः सदा / संहिताध्यायिना भाव्यं गृहे वै गृहमेधिना / शद्राणां चान्नकामानां नित्यं सिद्धमिति ब्रुवन् / / 40 नित्यं स्वाध्याययुक्तेन दानाध्ययनजीविना // 55 स्वार्थाद्वा यदि वा कामान्न किंचिदुपलक्षयेत् / एवंभूतो हि यो विप्रः सततं सत्पथे स्थितः / पितृदेवातिथिकृते साधनं कुरुते च यः // 41 आहिताग्निरधीयानो ब्रह्मभूयाय कल्पते // 56 स्ववेश्मनि यथान्यायमुपास्ते भैक्षमेव च।। ब्राह्मण्यमेव संप्राप्य रक्षितव्यं यतात्मभिः / त्रिकालमग्निहोत्रं च जुह्वानो वै यथाविधि // 42 योनिप्रतिग्रहादानैः कर्मभिश्च शुचिस्मिते // 57 गोब्राह्मणहितार्थाय रणे चाभिमुखो हतः / एतत्ते सर्वमाख्यातं यथा शूद्रो भवेहिजः / त्रेताग्निमन्त्रपूतं वा समाविश्य द्विजो भवेत् // 43 ब्राह्मणो वा च्युतो धर्माद्यथा शूद्रत्वमाप्नुते // 58 ज्ञानविज्ञानसंपन्नः संस्कृतो वेदपारगः / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि वित्रो भवति धर्मात्मा क्षत्रियः स्वेन कर्मणा // 44 एकत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 131 // एतैः कर्मफलैर्देवि न्यूनजातिकुलोद्भवः / शूद्रोऽप्यागमसंपन्नो द्विजो भवति संस्कृतः / / 45 -2714 - Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 132. 1] अनुशासनपर्व [ 13 132. 27 132 यतेन्द्रियाः शीलपरास्ते नराः स्वर्गगामिनः // 14 उमोवाच / एष देवकृतो मार्गः सेवितव्यः सदा नरैः।। भगवन्सर्वभूतेश सुरासुरनमस्कृत / अकषायकृतश्चैव मार्गः सेव्यः सदा बुधैः // 15 धर्माधर्मे नृणां देव ब्रूहि मे संशयं विभो // 1 दानधर्मतपोयुक्तः शीलशौचदयात्मकः / कर्मणा मनसा वाचा त्रिविधं हि नरः सदा / वृत्त्यर्थं धर्महेतोर्वा सेवितव्यः सदा नरैः।। बध्यते बन्धनः पाशैर्मुच्यतेऽप्यथ वा पुनः // 2 स्वर्गवासमभीप्सद्भिर्न सेव्यस्त्वत उत्तरः // 16 केन शीलेन वा देव कर्मणा कीदृशेन वा। उमोवाच / समाचारैर्गुणैर्वाक्यैः स्वर्ग यान्तीह मानवाः // 3 वाचाथ बध्यते येन मुच्यतेऽप्यथ वा पुनः / ___ महेश्वर उवाच। तानि कर्माणि मे देव वद भूतपतेऽनघ // 17 देवि धर्मार्थतत्त्वज्ञे सत्यनित्ये दमे रते। महेश्वर उवाच / सर्वप्राणिहितः प्रश्नः श्रूयतां बुद्धिवर्धनः // 4 आत्महेतोः परार्थे वा नर्महास्याश्रयात्तथा। सत्यधर्मरताः सन्तः सर्वलिप्साविवर्जिताः। . ये मृषा न वदन्तीह ते नराः स्वर्गगामिनः // 18 नाधर्मेण न धर्मेण बध्यन्ते छिन्नसंशयाः / / 5 / / वृत्त्यर्थं धर्महेतोर्वा कामकारात्तथैव च। प्रलयोत्पत्तितत्त्वज्ञाः सर्वज्ञाः समदर्शिनः / अनृतं ये न भाषन्ते ते नराः स्वर्गगामिनः // 19 वीतरागा विमुच्यन्ते पुरुषाः सर्वबन्धनैः / / 6 श्लक्ष्णां वाणी निराबाधां मधुरां पापवर्जिताम् / कर्मणा मनसा वाचा ये न हिंसन्ति किंचन / स्वागतेनाभिभाषन्ते ते नराः स्वर्गगामिनः // 20 ये न सज्जन्ति कस्मिंश्चिद्वध्यन्ते ते न कर्मभिः // 7 कटुकां ये न भाषन्ते परुषां निष्ठुरां गिरम् / प्राणातिपाताद्विरताः शीलवन्तो दयान्विताः / / अपैशुन्यरताः सन्तस्ते नराः स्वर्गगामिनः // 21 तुल्यद्वेष्यप्रिया दान्ता मुच्यन्ते कर्मबन्धनैः // 8 पिशुनां ये न भाषन्ते मित्रभेदकरी गिरम् / सर्वभूतदयावन्तो विश्वास्याः सर्वजन्तुषु / ऋतां मैत्री प्रभाषन्ते ते नराः स्वर्गगामिनः / / 22 त्यक्तहिंसासमाचारास्ते नराः स्वर्गगामिनः // 9 वर्जयन्ति सदा सूच्यं परद्रोहं च मानवाः / परस्वे निर्ममा नित्यं परदारविवर्जकाः / सर्वभूतसमा दान्तास्ते नराः स्वर्गगामिनः // 23 धर्मलब्धार्थभोक्तारस्ते नराः स्वर्गगामिनः // 10 शठप्रलापाद्विरता विरुद्धपरिवर्जकाः / मातृवत्स्वसवञ्चैव नित्यं दुहितृवच्च ये / सौम्यप्रलापिनो नित्यं ते नराः स्वर्गगामिनः // 24 परदारेषु वर्तन्ते ते नराः स्वर्गगामिनः // 11 न कोपाढ्याहरन्ते ये वाचं हृदयदारणीम् / स्तैन्यान्निवृत्ताः सततं संतुष्टाः स्वधनेन च / सान्त्वं वदन्ति क्रुद्धापि ते नराः स्वर्गगामिनः // 25 खभाग्यान्युपजीवन्ति ते नराः स्वर्गगामिनः // 12 एप वाणीकृतो देवि धर्मः सेव्यः सदा नरैः। खदारनिरता ये च ऋतुकालाभिगामिनः / शुभः सत्यगुणो नित्यं वर्जनीया मृषा बुधैः // 26 अग्राम्यसुखभोगाश्च ते नराः स्वर्गगामिनः // 13 उमोवाच / परदारेषु ये नित्यं चारित्रावृतलोचनाः। | मनसा बध्यते येन कर्मणा पुरुषः सदा / - 2715 - Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 132. 27 ] महाभारते [ 13. 132.55 तन्मे हि महाभाग देवदेव पिनाकधृक् // 27 तपसा वापि देवेश केनायुर्लभते महत् // 41 महेश्वर उवाच / क्षीणायुः केन भवति कर्मणा भुवि मानवः / मानसेनेह धर्मेण संयुक्ताः पुरुषाः सदा / विपाकं कर्मणां देव वक्तुमर्हस्यनिन्दित // 42 स्वर्ग गच्छन्ति कल्याणि तन्मे कीर्तयतः शृणु // 28 अपरे च महाभोगा मन्दभोगास्तथापरे। दुष्प्रणीतेन मनसा दुष्प्रणीततराकृतिः / अकुलीनास्तथा चान्ये कुलीनाश्च तथापरे // 45 बध्यते मानवो येन शृणु चान्यच्छुभानने // 29 दुर्दर्शाः केचिदाभान्ति नराः काष्ठमया इव / अरण्ये विजने न्यस्तं परस्वं वीक्ष्य ये नराः।। प्रियदर्शास्तथा चान्ये दर्शनादेव मानवाः // 44 मनसापि न हिंसन्ति ते स्वर्गगामिनः // 30 दुष्प्रज्ञाः केचिदाभान्ति केचिदाभान्ति पण्डिताः। प्रामे गृहे वा यद्रव्यं पारक्यं विजने स्थितम् / महाप्रज्ञास्तथैवान्ये ज्ञानविज्ञानदर्शिनः // 45 नाभिनन्दन्ति वै नित्यं ते नराः स्वर्गगामिनः // 31 अल्पाबाधास्तथा केचिन्महाबाधास्तथापरे / तथैव परदारान्ये कामवृत्तारहोगताम् / दृश्यन्ते पुरुषा देव तन्मे शंसितुमर्हसि // 46 मनसापि न हिंसन्ति ते नराः स्वर्गगामिनः / / 32 महेश्वर उवाच। शत्रु मित्रं च ये नित्यं तुल्येन मनसा नराः। इन्त तेऽहं प्रवक्ष्यामि देवि कर्मफलोदयम् / भजन्ति मैत्राः संगम्य ते नराः स्वर्गगामिनः // 33 मर्त्यलोके नराः सर्वे येन स्वं भुञ्जते फलम् // 47 भुतवन्तो दयावन्तः शुचयः सत्यसंगराः / प्राणातिपाती यो रौद्रो दण्डहस्तोद्यतस्तथा / स्वैरथैः परिसंतुष्टास्ते नराः स्वर्गगामिनः // 34 नित्यमुद्यतदण्डश्च हन्ति भूतगणान्नरः / / 48 अवैरा ये त्वनायासा मैत्रचित्तपराः सदा। निर्दयः सर्वभूतानां नित्यमुद्वेगकारकः / सर्वभूतदयावन्तस्ते नराः स्वर्गगामिनः // 35 अपि कीटपिपीलानामशरण्यः सुनिघृणः // 49 श्रद्धावन्तो दयावन्तश्चोक्षाश्चोक्षजनप्रियाः। एवंभूतो नरो देवि निरयं प्रतिपद्यते / धर्माधर्मविदो नित्यं ते नराः स्वर्गगामिनः // 36 विपरीतस्तु धर्मात्मा रूपवानभिजायते // 50 शुभानामशुभानां च कर्मणां फलसंचये। निरयं याति हिंसात्मा याति स्वर्गमहिंसकः / विपाकज्ञाश्च ये देवि ते नराः स्वर्गगामिनः // 37 यातनां निरये रौद्रां स कृच्छ्रां लभते नरः // 51 न्यायोपेता गुणोपेता देवद्विजपराः सदा। अथ चेन्निरयात्तस्मात्समुत्तरति कर्हिचित् / समतां समनुप्राप्तास्ते नराः स्वगंगामिनः // 38 मानुष्यं लभते चापि हीनायुस्तत्र जायते // 52 शुभैः कर्मफलैर्देवि मयैते परिकीर्तिताः / पापेन कर्मणा देवि बद्धो हिंसारतिर्नरः / स्वर्गमार्गोपगा भूयः किमन्यच्छ्रोतुमिच्छसि // 39 अप्रियः सर्वभूतानां हीनायुरुपजायते // 53 उमोवाच / यस्तु शुक्लाभिजातीयः प्राणिघातविवर्जकः / महान्मे संशयः कश्चिन्मान्प्रति महेश्वर। निक्षिप्तदण्डो निर्दण्डो न हिनस्ति कदाचन // 54 तस्मात्तं नैपुणेनाद्य ममाख्यातुं त्वमर्हसि // 40 न घातयति नो हन्ति नन्तं नैवानुमोदते / केनायुलभते दीर्घ कर्मणा पुरुषः प्रभो / सर्वभूतेषु सस्नेहो यथात्मनि तथापरे // 55 -2716 - Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 132. 56 ] अनुशासनपर्व [13. 138. 25 ईदृशः पुरुषोत्कर्षो देवि देवत्वमश्नुते / याचिता न प्रयच्छन्ति विद्यमानेऽप्यबुद्धयः॥१० उपपन्नान्सुखान्भोगानुपानाति मुदा युतः // 56 दीनान्धकृपणान्दृष्ट्वा भिक्षुकानतिथीनपि / अथ चेन्मानुषे लोके कदाचिदुपपद्यते। याच्यमाना निवर्तन्ते जिह्वालोभसमन्विताः // 11 सत्र दीर्घायुरुत्पन्नः स नरः सुखमेधते / / 57 न धनानि न वासांसि न भोगान्न च काञ्चनम् / एवं दीर्घायुषां मार्गः सुवृत्तानां सुकर्मणाम् / न गावो नाम्नविकृति प्रयच्छन्ति कदाचन // 12 प्राणिहिंसाविमोक्षेण ब्रह्मणा समुदीरितः // 58 अप्रवृत्तास्तु ये लुब्धा नास्तिका दानवर्जिताः / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि एवंभूता नरा देवि निरयं यान्त्यबुद्धयः / / 13 द्वात्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 132 // ते चेन्मनुष्यतां यान्ति यदा कालस्य पर्ययात् / 133 धनरिक्त कुले जन्म लभन्ते स्वल्पबुद्धयः / / 14 उमोवाच / क्षुत्पिपासापरीताश्च सर्वभोगबहिष्कृताः / किंशीलाः किंसमाचाराः पुरुषाः कैश्च कर्मभिः / निराशाः सर्वभोगेभ्यो जीवन्त्यधमजीविकाम्॥१५ स्वर्ग समभिपद्यन्ते संप्रदानेन केन वा // 1 / अल्पभोगकुले जाता अल्पभोगरता नराः / महेश्वर उवाच / अनेन कर्मणा देवि भवन्त्यधनिनो नराः // 16 दाता ब्राह्मणसत्कर्ता दीनान्धकृपणादिषु / अपरे स्तम्भिनो नित्यं मानिनः पापतो रताः / भक्ष्यभोज्यान्नपानानां वाससां च प्रदायकः // 2 आसनाईस्य ये पीठं न प्रयच्छन्त्यचेतसः // 10 प्रतिश्रयान्सभाः कूपान्प्रपाः पुष्करिणीस्तथा / मार्गार्हस्य च ये मार्ग न यच्छन्त्यल्पबुद्धयः / नैत्यकानि च सर्वाणि किमिच्छकमतीव च // 3 पाद्याहस्य च ये पाद्यं न ददत्यल्पबुद्धयः / / 18 आसनं शयनं यानं धनं रत्नं गृहांस्तथा। अर्घाग्नि च सत्कारैरर्चयन्ति यथाविधि / सस्यजातानि सर्वाणि गाः क्षेत्राण्यथ योषितः॥४ अर्घामाचमनीयं वा न यच्छन्त्यल्पबुद्धयः॥ 19 सुप्रतीतमना नित्यं यः प्रयच्छति मानवः / गुरुं चाभिगतं प्रेम्णा गुरुवन्न बुभूषते / एवंभूतो मृतो देवि देवलोकेऽभिजायते // 5 अभिमानप्रवृत्तेन लोभेन समवस्थिताः / / 20 तत्रोष्य सुचिरं कालं भुक्त्वा भोगाननुत्तमान् / संमान्यांश्चावमन्यन्ते वृद्धान्परिभवन्ति च / सहाप्सरोभिर्मुदितो रमित्वा नन्दनादिषु / / 6 एवंविधा नरा देवि सर्वे निरयगामिनः / / 21 तस्मात्स्वर्गाच्युतो लोकान्मानुषेषूपजायते / / ते वै यदि नरास्तस्मान्निरयादुत्तरन्ति वै / महाभोगे कुले देवि धनधान्यसमाचिते // 7 वर्षपूर्गस्ततो जन्म लभन्ते कुत्सिते कुले // 22 तत्र कामगुणैः सर्वैः समुपेतो मुदा युतः / श्वपाकपुल्कसादीनां कुत्सितानामचेतसाम् / महाभोगो महाकोशो धनी भवति मानवः // 8 कुलेषु तेषु जायन्ते गुरुवृद्धापचायिनः // 23 एते देवि महाभोगाः प्राणिनो दानशीलिनः। | न स्तम्भी न च मानी यो देवताद्विजपूजकः / ब्रह्मणा वै परा प्रोक्ताः सर्वस्य प्रियदर्शनाः॥ 9 | लोकपूज्यो नमस्कर्ता प्रश्रितो मधुरं वदन // 24 अपरे मानवा देवि प्रदानकृपणा द्विजैः। / सर्ववर्णप्रियकरः सर्वभूतहितः सदा / -2717 - Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 133. 25] महाभारते [13. 133.52 अद्वेषी सुमुखः श्लक्ष्णः स्निग्धवाणीप्रदः सदा // 25 तत्रासौ भवने दिव्ये मुदा वसति देववत् // 40 स्वागतेनैव सर्वेषां भूतानामविहिंसकः / स चेत्कर्मक्षयान्मो मनुष्येषूपजायते / यथार्हसत्क्रियापूर्वमर्चयन्नुपतिष्ठति // 26 अल्पाबाधो निरीतीकः स जातः सुखमेधते // 41 मार्गार्हाय ददन्मार्ग गुरुं गुरुवदर्चयन् / सुखभागी निरायासो निरुद्वेगः सदा नरः / अतिथिप्रग्रहरतस्तथाभ्यागतपूजकः // 27 एष देवि सतां मार्गो बाधा यत्र न विद्यते // 42 एवंभूतो नरो देवि स्वर्गतिं प्रतिपद्यते / उमोवाच / ततो मानुषतां प्राप्य विशिष्टकुलजो भवेत् // 28 इमे मनुष्या दृश्यन्ते उहापोहविशारदाः / / तत्रासौ विपुलै गैः सर्वरत्नसमायुतः / ज्ञानविज्ञानसंपन्नाः प्रज्ञावन्तोऽर्थकोविदाः / यथार्हदाता चाहेषु धर्मचर्यापरो भवेत् // 29 दुष्प्रज्ञाश्चापरे देव ज्ञानविज्ञानवर्जिताः // 43 संमतः सर्वभूतानां सर्वलोकनमस्कृतः / केन कर्मविपाकेन प्रज्ञावान्पुरुषो भवेत् / .. स्वकर्मफलमाप्नोति स्वयमेव नरः सदा // 30 अल्पप्रज्ञो विरूपाक्ष कथं भवति मानवः / उदात्तकुलजातीय उदात्ताभिजनः सदा / एतं मे संशयं छिन्द्धि सर्वधर्मविदां वर // 44 एष धर्मो मया प्रोक्तो विधात्रा स्वयमीरितः // 31 जात्यन्धाश्चापरे देव रोगार्ताश्चापरे तथा / यस्तु रौद्रसमाचारः सर्वसत्त्वभयंकरः / नराः क्लीबाश्च दृश्यन्ते कारणं ब्रूहि तत्र वै // 45 हस्ताभ्यां यदि वा पद्भया रज्वा दण्डेन वा पुनः।।३२ लोष्टैः स्तम्भैरुपायैर्वा जन्तून्बाधति शोभने / महेश्वर उवाच / हिंसाथ निकृतिप्रज्ञः प्रोद्वेजयति चैव ह // 33 ब्राह्मणान्वेदविदुषः सिद्धान्धर्मविदस्तथा / उपनामति जन्तूंश्च उद्वेगजननः सदा / परिपृच्छन्त्यहरहः कुशलाकुशलं तथा // 46 एवंशीलसमाचारो निरयं प्रतिपद्यते // 34 वर्जयन्त्यशुभं कर्म सेवमानाः शुभं तथा। स चेन्मानुषतां गच्छेद्यदि कालस्य पर्ययात् / लभन्ते स्वर्गतिं नित्यमिह लोके सुखं तथा // 47 बह्वाबाधपरिक्लिष्टे सोऽधमे जायते कुले // 35 स चेन्मानुषतां याति मेधावी तत्र जायते / लोकद्वेष्योऽधमः पुंसां स्वयं कर्मकृतैः फलैः / श्रुतं प्रज्ञानुगं चास्य कल्याणमुपजायते // 48 एष देवि मनुष्येषु बोद्धव्यो ज्ञातिबन्धुषु // 36 परदारेषु ये मूढाश्चक्षुर्दुष्टं प्रयुञ्जते / अपरः सर्वभूतानि दयावाननुपश्यति / तेन दुष्टस्वभावेन जात्यन्धास्ते भवन्ति ह // 49 मैत्रदृष्टिः पितृसमो निर्वैरो नियतेन्द्रियः // 37 मनसा तु प्रदुष्टेन ननां पश्यन्ति ये स्त्रियम् / नोद्वेजयति भूतानि न विहिंसयते तथा / रोगार्तास्ते भवन्तीह नरा दुष्कृतकर्मिणः // 50 हस्तपादैः सुनियतैर्विश्वास्यः सर्वजन्तुषु / / 38 ये तु मूढा दुराचारा वियोनौ मैथुने रताः / न रज्वा न च दण्डेन न लोष्टै युधेन च / पुरुषेषु सुदुष्प्रज्ञाः क्लीबत्वमुपयान्ति ते // 51 उद्वेजयति भूतानि लक्ष्णकर्मा दयापरः // 39 पशूश्च ये बन्धयन्ति ये चैव गुरुतल्पगाः / एवंशीलसमाचारः स्वर्गे समुपजायते / प्रकीर्णमैथुना ये च क्लीबा जायन्ति ते नराः॥५२ -2718 - Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 133. 53] अनुशासनपर्व [13. 134. 13 उमोवाच / 134 सावयं किं नु वै कर्म निरवद्यं तथैव च / ___महेश्वर उवाच। श्रेयः कुर्वन्नवाप्नोति मानवो देवसत्तम / / 53 परावरज्ञे धर्मज्ञे तपोवननिवासिनि / महेश्वर उवाच। साध्वि सुभ्र सुकेशान्ते हिमवत्पर्वतात्मजे // 1 दक्षे शमदमोपेते निर्ममे धर्मचारिणि / श्रेयांसं मार्गमातिष्ठन्सदा यः पृच्छते द्विजान् / पृच्छामि त्वां वरारोहे पृष्टा वद ममेप्सितम् // 2 धर्मान्वेषी गुणाकाङ्क्षी स स्वर्ग समुपाश्नुते // 54 सावित्री ब्रह्मणः साध्वी कौशिकस्य शची सती। यदि मानुषतां देवि कदाचित्स निगच्छति।। मार्तण्डजस्य धूमोर्णा ऋद्धिवैश्रवणस्य च // 3 मेधावी धारणायुक्तः प्राज्ञस्तत्राभिजायते // 55 वरुणस्य तथा गौरी सूर्यस्य च सुवर्चला / एष देवि सतां धर्मो मन्तव्यो भूतिकारकः / / रोहिणी शशिनः साध्वी स्वाहा चैव विभावसोः // नृणां हितार्थाय तव मया वै समुदाहृतः / / 56 अदितिः कश्यपस्याथ सर्वास्ताः पतिदेवताः / उमोवाच / पृष्टाश्चोपासिताश्चैव तास्त्वया देवि नित्यशः // 5 अपरे स्वल्पविज्ञाना धर्मविद्वेषिणो नराः / तेन त्वां परिपृच्छामि धर्मज्ञे धर्मवादिनि / ब्राह्मणान्वेदविदुषो नेच्छन्ति परिसर्पितुम / / 57 स्त्रीधर्म श्रोतुमिच्छामि त्वयोदाहृतमादितः // 6 व्रतवन्तो नराः केचिच्छ्रद्धादमपरायणाः / सहधर्मचरी मे त्वं समशीला समव्रता / अव्रता भ्रष्टनियमास्तथान्ये राक्षसोपमाः // 58 समानसारवीर्या च तपस्तीनं कृतं च ते। यज्वानश्च तथैवान्ये नि)माश्च तथापरे / त्वया ह्युक्तो विशेषेण प्रमाणत्वमुपैष्यति / / 7 केन कर्मविपाकेन भवन्तीह वदस्व मे // 59 स्त्रियश्चैव विशेषेण स्त्रीजनस्य गतिः सदा / . महेश्वर उवाच / गोगा गच्छति सुश्रोणि लोकेष्वेषा स्थितिः सदा // आगमाल्लोकधर्माणां मर्यादाः पूर्वनिर्मिताः / / मम चाधं शरीरस्य मम चार्धाद्विनिःसृता / प्रामाण्येनानुवर्तन्ते दृश्यन्ते हि दृढव्रताः // 60 सुरकार्यकरी च त्वं लोकसंतानकारिणी // 9 अधर्म धर्ममित्याहुर्ये च मोहवशं गताः / . तव सर्वः सुविदितः स्त्रीधर्मः शाश्वतः शुभे / अव्रता नष्टमर्यादास्ते प्रोक्ता ब्रह्मराक्षसाः // 61 तस्मादशेषतो ब्रूहि स्त्रीधर्म विस्तरेण मे // 10 ते चेत्कालकृतोद्योगात्संभवन्तीह मानुषाः / / उमावाच / निर्दोमा निर्वषट्कारास्ते भवन्ति नराधमाः / / 62 भगवन्सर्वभूतेश भूतभव्यभवोद्भब / एष देवि मया सर्वः संशयच्छेदनाय ते / त्वत्प्रभावादियं देव वाक्चैव प्रतिभाति मे // 11 हुशलाकुशलो नृणां व्याख्यातो धर्मसागरः // 63 इमास्तु नद्यो देवेश सर्वतीर्थोदकैर्युताः / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि उपस्पर्शनहेतोस्त्वा समीपस्था उपासते // 12 त्रयस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 133 // एताभिः सह संमन्य प्रवक्ष्याम्यनुपूर्वशः / प्रभवन्योऽनहंवादी स वै पुरुष उच्यते // 13 - 2719 - Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 134. 14] महाभारते [13. 134.42 स्त्री च भूतेश सततं स्त्रियमेवानुधावति। अन्यथैव ह्यहमानी दुर्बलं वदते वचः / / 28 मया संमानिताश्चैव भविष्यन्ति सरिद्वराः // 14 / दिव्यज्ञाने दिवि श्रेष्ठे दिव्यपुण्ये सदोत्थिते। एषा सरस्वती पुण्या नदीनामुत्तमा नदी। त्वमेवाईसि नो देवि स्त्रीधर्ममनुशासितुम् // 29 प्रथमा सर्वसरितां नदी सागरगामिनी // 15 भीष्म उवाच / विपाशा च वितस्ता च चन्द्रभागा इरावती / ततः साराधिता देवी गङ्गया बहुभिर्गुणैः / शतदुर्देविका सिन्धुः कौशिकी गोमती तथा // 16 प्राह सर्वमशेषेण स्त्रीधर्म सुरसुन्दरी // 30 तथा देवनदी चेयं सर्वतीर्थाभिसंवृता। स्त्रीधर्मो मां प्रति यथा प्रतिभाति यथाविधि / गगनाद्गां गता देवी गङ्गा सर्वसरिद्वरा // 17 तमहं कीर्तयिष्यामि तथैव प्रथितो भवेत् // 31 . इत्युक्त्वा देवदेवस्य पत्नी धर्मभृतां वरा। स्त्रीधर्मः पूर्व एवायं विवाहे बन्धुभिः कृतः। स्मितपूर्वमिवाभाष्य सर्वास्ताः सरितस्तदा // 18 सहधर्मचरी भर्तुर्भवत्यग्निसमीपतः / / 32 अपृच्छदेवमहिषी स्त्रीधर्म धर्मवत्सला / सुस्वभावा सुवचना सुवृत्ता सुखदर्शना / मीधर्मकुशलास्ता वै गङ्गाद्याः सरितां वराः / / 19 अनन्यचित्ता सुमुखी भर्तुः सा धर्मचारिणी // 33 अयं भगवता दत्तः प्रश्नः स्त्रीधर्मसंश्रितः। सा भवेद्धर्मपरमा सा भवेद्धर्मभागिनी / तं तु संमत्र्य युष्माभिर्वक्तुमिच्छामि शंकरे // 20 देववत्सततं साध्वी या भर्तारं प्रपश्यति // 34 न चैकसाध्यं पश्यामि विज्ञानं भुवि कस्यचित् / शुश्रूषां परिचारं च देववद्या करोति च / दिवि वा सागरगमास्तेन वो मानयाम्यहम् // 21 नान्यभावा ह्यविमनाः सुव्रता सुखदर्शना / / 35 भीष्म उवाच / पुत्रवक्त्रमिवाभीक्ष्णं भर्तुर्वदनमीक्षते।। एवं सर्वाः सरिच्छ्रेष्ठाः पृष्टाः पुण्यतमाः शिवाः / या साध्वी नियताचारा सा भवेद्धर्मचारिणी // 36 ततो देवनदी गङ्गा नियुक्ता प्रतिपूज्य ताम् // 22 श्रुत्वा दंपतिधर्म वै सहधर्मकृतं शुभम् / बहीभिबुद्धिभिः स्फीता स्त्रीधर्मज्ञा शुचिस्मिता। अनन्यचित्ता सुमुखी भर्तुः सा धर्मचारिणी // 37 शैलराजसुतां देवीं पुण्या पापापहां शिवाम् / / 23 परुषाण्यपि चोक्ता या दृष्टा वा परचक्षुषा / बुद्ध्या विनयसंपन्ना सर्वज्ञानविशारदा। सुप्रसन्नमुखी भर्तुर्या नारी सा पतिव्रता // 38 सस्मितं बहुबुद्ध्याच्या गङ्गा वचनमब्रवीत् / / 24 न चन्द्रसूर्यौ न तरुं पुनानो या निरीक्षते / धन्याः स्मोऽनुगृहीताः स्मो देवि धर्मपरायणा। भर्तृवर्ज वरारोहा सा भवेद्धर्मचारिणी // 39 या त्वं सर्वजगन्मान्या नदीर्मानयसेऽनघे / / 25 दरिद्रं व्याधितं दीनमध्वना परिकर्शितम् / प्रभवन्पृच्छते यो हि संमानयति वा पुनः / पतिं पुत्रमिवोपास्ते सा नारी धर्मभागिनी // 40 नूनं जनमदुष्टात्मा पण्डिताख्यां स गच्छति // 26 या नारी प्रयता दक्षा या नारी पुत्रिणी भवेत् / ज्ञानविज्ञानसंपन्नानूहापोह विशारदान / पतिप्रिया पतिप्राणा सा नारी धर्मभागिनी // 41 प्रवक्तृन्पृच्छते योऽन्यान्स वै ना पदमर्च्छति / / शुश्रूषां परिचयां च करोत्यविमनाः सदा / अन्यथा बहुबुद्ध्यात्यो वाक्यं वदति संसदि। सुप्रतीता विनीता च सा नारी धर्मभागिनी // 42 -2720 - Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. 134. 43 ] अनुशासनपर्व [13. 135. 12 न कामेषु न भोगेषु नैश्वर्ये न सुखे तथा / गन्धर्वाप्सरसश्चैव प्रणम्य शिरसा भवम् // 57 स्पृहा यस्या यथा पत्यौ सा नारी धर्मभागिनी // __इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि कल्योत्थानरता नित्यं गुरुशुश्रूषणे रता। चतुस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः॥ 134 // सुसंमृष्टक्षया चैव गोशकृत्कृतलेपना // 44 135 अग्निकार्यपरा नित्यं सदा पुष्पबलिप्रदा / वैशंपायन उवाच / देवतातिथिभृत्यानां निरुप्य पतिना सह // 45 श्रुत्वा धर्मानशेषेण पावनानि च सर्वशः / शेषान्नमुपभुञ्जाना यथान्यायं यथाविधि / युधिष्ठिरः शांतनवं पुनरेवाभ्यभाषत // 1 तुष्टपुष्टजना नित्यं नारी धर्मेण युज्यते // 46 / किमेकं दैवतं लोके किं वाप्येकं परायणम् / श्वश्रश्वशुरयोः पादौ तोषयन्ती गुणान्विता / स्तुवन्तः कं कमर्चन्तः प्राप्नुयुर्मानवाः शुभम् / / 2 मातापितृपरा नित्यं या नारी सा तपोधना // 47 को धर्मः सर्वधर्माणां भवतः परमो मतः / ब्राह्मणान्दुर्बलानाथान्दीनान्धकृपणांस्तथा / किं जपन्मुच्यते जन्तुर्जन्मसंसारबन्धनात् // 3 बिभर्त्यन्नेन या नारी सा पतिव्रतभागिनी // 48 भीष्म उवाच। व्रतं चरति या नित्यं दुश्चरं लघुसत्त्वया। जगत्प्रभुं देवदेवमनन्तं पुरुषोत्तमम् / पतिचित्ता पतिहिता सा पतिव्रतभागिनी // 49 स्तुवन्नामसहस्रेण पुरुषः सततोत्थितः // 4 पुण्यमेतत्तपश्चैव स्वर्गश्चैष सनातनः / तमेव चार्चयन्नित्यं भक्त्या पुरुषमव्ययम् / या नारी भर्तृपरमा भवेद्भर्तृव्रता शिवा // 50 ध्यायन्स्तुवन्नमस्यंश्च यजमानस्तमेव च / / 5 पतिर्हि देवो नारीणां पतिबन्धुः पतिर्गतिः।। अनादिनिधनं विष्णुं सर्वलोकमहेश्वरम् / पत्या समा गतिर्नास्ति दैवतं वा यथा पतिः // 51 लोकाध्यक्षं स्तुवन्नित्यं सर्वदुःखातिगो भवेत् // 6 पतिप्रसादः स्वर्गो वा तुल्यो नार्या न वा भवेत् / ब्रह्मण्यं सर्वधर्मज्ञं लोकानां कीर्तिवर्धनम् / अहं स्वर्ग न हीच्छेयं त्वय्यप्रीते महेश्वर // 52 लोकनाथं महद्भूतं सर्वभूतभवोद्भवम् // 7 यद्यकार्यमधर्म वा यदि वा प्राणनाशनम। एष मे सर्वधर्माणां धर्मोऽधिकतमो मतः / पतियाद्दरिद्रो वा व्याधितो वा कथंचन // 53 यद्भक्त्या पुण्डरीकाक्षं स्तवैरर्चेन्नरः सदा // 8 आपन्नो रिपुसंस्थो वा ब्रह्मशापार्दितोऽपि वा।। परमं यो महत्तेजः परमं यो महत्तपः / आपद्धर्माननुप्रेक्ष्य तत्कार्यमविशङ्कया // 54 परमं यो महद्ब्रह्म परमं यः परायणम् // 9 एष देव मया प्रोक्तः स्त्रीधर्मो वचनात्तव / पवित्राणां पवित्रं यो मङ्गलानां च मङ्गलम् / या त्वेवंभाविनी नारी सा भवेद्धर्मभागिनी // 55 दैवतं देवतानां च भूतानां योऽव्ययः पिता // 10 भीष्म उवाच / यतः सर्वाणि भूतानि भवन्त्यादियुगागमे / इत्युक्तः स तु देवेशः प्रतिपूज्य गिरेः सुताम् / / यस्मिंश्च प्रलयं यान्ति पुनरेव युगक्षये // 11 'लोकान्विसर्जयामास सर्वैरनुचरैः सह / / 56 तस्य लोकप्रधानस्य जगन्नाथस्य भूपते / ततो ययुर्भूतगणाः सरितश्च यथागतम् / | विष्णोर्नामसहस्रं मे शृणु पापभयापहम् // 12 अ. भा. 341 -- 2721 - Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 135. 13 ] महाभारते [ 13. 135. 42 यानि नामानि गौणानि विख्यातानि महात्मनः / वेदो वेदविदव्यङ्गो वेदाङ्गो वेदवित्कविः // 27 ऋषिभिः परिगीतानि तानि वक्ष्या लोकाध्यक्षः सुराध्यक्षो धर्माध्यक्षः कृताकृतः / चतुरात्मा चतुर्ग्रहश्चतुर्दष्टश्चतुर्भुजः / / 28 विश्वं विष्णुर्वषट्कारो भूतभव्यभवत्प्रभुः / / भ्राजिष्णुर्भोजनं भोक्ता सहिष्णुर्जगदादिजः / भूतकृद्भूतभृद्भावो भूतात्मा भूतभावनः // 14 अनघो विजयो जेता विश्वयोनिः पुनर्वसुः // 29 पूतात्मा परमात्मा च मुक्तानां परमा गतिः। उपेन्द्रो वामनः प्रांशुरमोघः शुचिरूर्जितः / अव्ययः पुरुषः साक्षी क्षेत्रज्ञोऽक्षर एव च // 15 अतीन्द्रः संग्रहः सर्गो धृतात्मा नियमो यमः // 30 योगो योगविदां नेता प्रधानपुरुषेश्वरः / वेद्यो वैद्यः सदायोगी वीरहा माधवो मधुः / नारसिंहवपुः श्रीमान्केशवः पुरुषोत्तमः // 16 अतीन्द्रियो महामायो महोत्साहो महाबलः // 3 // सर्वः शर्वः शिवः स्थाणुर्भूतादिनिधिरव्ययः / महाबुद्धिर्महावीर्यो महाशक्तिर्महाद्युतिः। . संभवो भावनो भर्ता प्रभवः प्रभुरीश्वरः // 17 अनिर्देश्यवपुः श्रीमानमेयात्मा महाद्रिधृक् / / 3. स्वयंभूः शंभुरादित्यः पुष्कराक्षो महास्वनः। महेष्वासो महीभर्ता श्रीनिवासः सतां गतिः। अनादिनिधनो धाता विधाता धातुरुत्तमः // 18 अनिरुद्धः सुरानन्दो गोविन्दो गोविदां पतिः // 3: अप्रमेयो हृषीकेशः पद्मनाभोऽमरप्रभुः / मरीचिर्दमनो हंसः सुपर्णो भुजगोत्तमः / विश्वकर्मा मनुस्त्वष्टा स्थविष्ठः स्थविरो ध्रुवः // 19 हिरण्यनाभः सुतपाः पद्मनाभः प्रजापतिः // 34 अग्राह्यः शाश्वतः कृष्णो लोहिताक्षः प्रतर्दनः / अमृत्युः सर्वदृक्सिहः संधाता संधिमान्स्थिरः / प्रभूतस्त्रिककुब्धाम पवित्रं मङ्गलं परम् // 20 / अजो दुर्मर्षणः शास्ता विश्रुतात्मा सुरारिहा // 3 // ईशानः प्राणदः प्राणो ज्येष्ठः श्रेष्ठः प्रजापतिः / गुरुर्गुरुतमो धाम सत्यः सत्यपराक्रमः / हिरण्यगर्भो भूगर्भो माधवो मधुसूदनः // 21 निमिषोऽनिमिषः स्रग्वी वाचस्पतिरुदारधीः // 3 // ईश्वरो विक्रमी धन्वी मेधावी विक्रमः क्रमः। अप्रणीामणीः श्रीमान्न्यायो नेता समीरणः / अनुत्तमो दुराधर्षः कृतज्ञः कृतिरात्मवान् // 22 सहस्रमूर्धा विश्वात्मा सहस्राक्षः सहस्रपात् // 3 // सुरेशः शरणं शर्म विश्वरेताः प्रजाभवः / आवर्तनो निवृत्तात्मा संवृतः संप्रमर्दनः / अहः संवत्सरो व्यालः प्रत्ययः सर्वदर्शनः // 23 / अहः संवर्तको वह्निरनिलो धरणीधरः // 38 अजः सर्वेश्वरः सिद्धः सिद्धिः सर्वादिरच्युतः। सुप्रसादः प्रसन्नात्मा विश्वधृग्विश्वभुग्विभुः / वृषाकपिरमेयात्मा सर्वयोगविनिःसृतः / / 24 सत्कर्ता सत्कृतः साधुर्जहुर्नारायणो नरः // 39 वसुर्वसुमनाः सत्यः समात्मा संमितः समः। असंख्येयोऽप्रमेयात्मा विशिष्टः शिष्टकृच्छुचिः / अमोघः पुण्डरीकाक्षो वृषकर्मा वृषाकृतिः // 25 सिद्धार्थः सिद्धसंकल्पः सिद्धिदः सिद्धिसाधनः // रुद्रो बहुशिरा बभ्रुर्विश्वयोनिः शुचिश्रवाः / / वृषाही वृषभो विष्णुर्वृषपर्वा वृषोदरः / अमृतः शाश्वतः स्थाणुर्वरारोहो महातपाः // 26 वर्धनो वर्धमानश्च विविक्तः श्रुतिसागरः // 41 सर्वगः सर्वविद्भानुर्विष्वक्सेनो जनार्दनः / सुभुजो दुर्धरो वाग्मी महेन्द्रो वसुदो वसुः / --- 2722 - Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. 135. 42 ] अनुशासनपर्व [ 13. 135. 72 नेकरूपो बृहद्रूपः शिपिविष्टः प्रकाशनः // 42 हिरण्यगर्भः शत्रुघ्नो व्याप्तो वायुरधोक्षजः / / 57 ओजस्तेजो द्युतिधरः प्रकाशात्मा प्रतापनः / ऋतुः सुदर्शनः कालः परमेष्ठी परिग्रहः / ऋद्धः स्पष्टाक्षरो मत्रश्चन्द्रांशुर्भास्करद्युतिः // 43 उग्रः संवत्सरो दक्षो विश्रामो विश्वदक्षिणः // 58 अमृतांशूद्भवो भानुः शशबिन्दुः सुरेश्वरः।। विस्तारः स्थावरः स्थाणुः प्रमाणं बीजमव्ययम् / औषधं जगतः सेतुः सत्यधर्मपराक्रमः // 44 अर्थोऽनर्थो महाकोशो महाभोगो महाधनः // 59 भूतभव्यभवन्नाथः पवनः पावनोऽनिलः / अनिर्विण्णः स्थविष्ठो भूधर्मयूपो महामखः / कामहा कामकृत्कान्तः कामः कामप्रदः प्रभुः॥४५ नक्षत्रनेमिनक्षत्री क्षमः क्षामः समीहनः // 60 युगादिकृयुगावर्तो नैकमायो महाशनः / यज्ञ इज्यो महेज्यश्च ऋतुः सत्रं सतां गतिः / अदृश्यो व्यक्तरूपश्च सहस्रजिदनन्तजित् // 46 सर्वदर्शी विमुक्तात्मा सर्वज्ञो ज्ञानमुत्तमम् // 61 इष्टो विशिष्टः शिष्टेष्टः शिखण्डी नहुषो वृषः / सुव्रतः सुमुखः सूक्ष्मः सुघोषः सुखदः सुहृत् / क्रोधहा क्रोधकृत्कर्ता विश्वबाहुमहीधरः // 47 मनोहरो जितक्रोधो वीरबाहुर्विदारणः // 62 अच्युतः प्रथितः प्राणः प्राणदो वासवानुजः / स्वापनः स्ववशो व्यापी नैकात्मा नैककर्मकृत / अपां निधिरधिष्ठानमप्रमत्तः प्रतिष्ठितः // 48 वत्सरो वत्सलो वत्सी रत्नगर्भो धनेश्वरः // 63 स्कन्दः स्कन्दधरो धुर्यो वरदो वायुवाहनः / धर्मगुब्धर्मकृद्धर्मी सदसरक्षरमक्षरम् / वासुदेवो बृहद्भानुरादिदेवः पुरंदरः // 49 अविज्ञाता सहस्रांशुर्विधाता कृतलक्षणः // 64 अशोकस्तारणस्तारः शूरः शौरिर्जनेश्वरः / गभस्तिनेमिः सत्त्वस्थः सिंहो भूतमहेश्वरः / अनुकूलः शतावर्तः पद्मी पद्मनिभेक्षणः // 50 आदिदेवो महादेवो देवेशो देवभृद्गुरुः // 65 पद्मनाभोऽरविन्दाक्षः पद्मगर्भः शरीरभृत् / उत्तरो गोपतिर्गोप्ता ज्ञानगम्यः पुरातनः / महर्द्धिद्धो वृद्धात्मा महाक्षो गरुडध्वजः // 51 शरीरभूतभृद्भोक्ता कपीन्द्रो भूरिदक्षिणः // 66 अतुलः शरभो भीमः समयज्ञो हविर्हरिः / सोमपोऽमृतपः सोमः पुरुजित्पुरुसत्तमः / सर्वलक्षणलक्षण्यो लक्ष्मीवान्समितिंजयः // 52 विनयो जयः सत्यसंधो दाशार्हः सात्वतां पतिः // विक्षरो रोहितो मार्गों हेतुर्दामोदरः सहः / जीवो विनयिता साक्षी मुकुन्दोऽमितविक्रमः / महीधरो महाभागो वेगवानमिताशनः // 53 अम्भोनिधिरनन्तात्मा महोदधिशयोऽन्तकः // 68 उद्भवः क्षोभणो देवः श्रीगर्भः परमेश्वरः / अजो महार्हः स्वाभाव्यो जितामित्रः प्रमोदनः / करणं कारणं कर्ता विकर्ता गहनो गहः // 54 / आनन्दो नन्दनो नन्दः सत्यधर्मा त्रिविक्रमः // व्यवसायो व्यवस्थानः संस्थानः स्थानदो ध्रुवः / महर्षिः कपिलाचार्यः कृतज्ञो मेदिनीपतिः / परर्द्धिः परमः स्पष्टस्तुष्टः पुष्टः शुभेक्षणः // 55 त्रिपदस्त्रिदशाध्यक्षो महाशृङ्गः कृतान्तकृत् // 70 रामो विरामो विरतो मार्गो नेयो नयोऽनयः / / महावराहो गोविन्दः सुषेणः कनकाङ्गदी / वीरः शक्तिमतां श्रेष्ठो धर्मो धर्मविदुत्तमः // 56 / गुह्यो गभीरो गहनो गुप्तश्चक्रगदाधरः // 71 वैकुण्ठः पुरुषः प्राणः प्राणदः प्रणवः पृथुः। / वेधाः स्वाङ्गोऽजितः कृष्णो दृढः संकर्षणोऽच्युतः। -2723 - Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 135. 72 ] महाभारते [ 13. 135. 102 वरुणो वारुणो वृक्षः पुष्कराक्षो महामनाः // 72 वसुप्रदो वासुदेवो वसुर्वसुमना हविः // 87 भगवान्भगहा नन्दी वनमाली हलायुधः / सद्गतिः सत्कृतिः सत्ता सद्भूतिः सत्परायणः / / आदित्यो ज्योतिरादित्यः सहिष्णुर्गतिसत्तमः // 73 शूरसेनो यदुश्रेष्ठः सन्निवासः सुयामुनः // 88 सुधन्वा खण्डपरशुर्दारुणो द्रविणप्रदः। भूतावासो वासुदेवो सर्वासुनिलयोऽनलः / दिवःस्पृक्सर्वदृग्व्यासो वाचस्पतिरयोनिजः // 74 दर्पहा दर्पदो दृप्तो दुर्धरोऽथापराजितः / / 89 त्रिसामा सामगः साम निर्वाणं भेषजं भिषक् / विश्वमूर्तिमहामूर्तिीप्तमूर्तिरमूर्तिमान् / संन्यासकृच्छमः शान्तो निष्ठा शान्तिः परायणम् // अनेकमूर्तिरव्यक्तः शतमूर्तिः शताननः // 90 शुभाङ्गः शान्तिदः स्रष्टा कुमुदः कुवलेशयः। एको नैकः सवः कः किं यत्तत्पदमनुत्तमम् / गोहितो गोपतिर्गोप्ता वृषभाक्षो वृषप्रियः / / 76 लोकबन्धुलोकनाथो माधवो भक्तवत्सलः // 91 अनिवर्ती निवृत्तात्मा संक्षेप्ता क्षेमकृच्छिवः / सुवर्णवर्णो हेमाङ्गो वराङ्गश्चन्दनाङ्गदी। . . श्रीवत्सवक्षाः श्रीवासः श्रीपतिः श्रीमतां वरः / / 77 वीरहा विषमः शून्यो घृताशीरचलश्चलः // 92 श्रीदः श्रीशः श्रीनिवासः श्रीनिधिः श्रीविभावनः / अमानी मानदो मान्यो लोकस्वामी त्रिलोकधृक् / श्रीधरः श्रीकरः श्रेयः श्रीमालोकत्रयाश्रयः // 78 सुमेधा मेधजो धन्यः सत्यमेधा धराधरः // 93 स्वक्षः स्वङ्गः शतानन्दो नन्दियोतिर्गणेश्वरः। तेजो वृषो द्युतिधरः सर्वशस्त्रभृतां वरः। विजितात्मा विधेयात्मा सत्कीर्तिश्छिन्नसंशयः॥७९ प्रग्रहो निग्रहोऽव्यग्रो नैकशृङ्गो गदाग्रजः // 94 उदीर्णः सर्वतश्चक्षुरनीशः शाश्वतः स्थिरः। चतुर्मूर्तिश्चतुर्बाहुश्चतुव्यूहश्चतुर्गतिः / भूशयो भूषणो भूनिर्विशोकः शोकनाशनः / / 80 चतुरात्मा चतुर्भावश्चतुर्वेद विदेकपात् // 95 अर्चिष्मानर्चितः कुम्भो विशुद्धात्मा विशोधनः / समावर्तो निवृत्तात्मा दुर्जयो दुरतिक्रमः / अनिरुद्धोऽप्रतिरथः प्रद्युम्नोऽमितविक्रमः // 81 दुर्लभो दुर्गमो दुर्गो दुरावासो दुरारिहा // 96 कालनेमिनिहा वीरः शूरः शौरिर्जनेश्वरः / शुभाङ्गो लोकसारङ्गः सुतन्तुस्तन्तुवर्धनः / त्रिलोकात्मा त्रिलोकेशः केशवः केशिहा हरिः॥८२ इन्द्रकर्मा महाकर्मा कृतकर्मा कृतागमः // 97 कामदेवः कामपालः कामी कान्तः कृतागमः / उद्भवः सुन्दरः सुन्दो रत्ननाभः सुलोचनः / अनिर्देश्यवषुर्विष्णुर्वीरोऽनन्तो धनंजयः / / 83 अर्को वाजसनः शृङ्गी जयन्तः सर्वविजयी // 5.8 ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृद्ब्रह्मा ब्रह्म ब्रह्मविवर्धनः / / सुवर्णबिन्दुरक्षोभ्यः सर्ववागीश्वरेश्वरः / ब्रह्मविद्वाह्मणो ब्रह्मी ब्रह्मज्ञो ब्राह्मणप्रियः // 84 महाह्रदो महाग? महाभूतो महानिधिः / / 99 महाक्रमो महाकर्मा महातेजा महोरगः / कुमुदः कुंदरः कुन्दः पर्जन्यः पवनोऽनिलः / महाक्रतुर्महायज्वा महायज्ञो महाहविः // 85 अमृतांशोऽमृतवपुः सर्वज्ञः सर्वतोमुखः // 100 स्तव्यः स्तवप्रियः स्तोत्र स्तुतिः स्तोता रणप्रियः / सुलभः सुव्रतः सिद्धः शत्रुजिच्छत्रुतापनः / पूर्णः पूरयिता पुण्यः पुण्यकीर्तिरनामयः // 86 न्यग्रोधोदुम्बरोऽश्वत्थश्चाणूरान्ध्रनिषूदनः // 101 मनोजवस्तीर्थकरो वसुरेता वसुप्रदः। सहस्रार्चिः सप्तजिह्वः सप्तधाः सप्तवाहनः / - 2724 - Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 135. 102] अनुशासनपर्व [13. 135. 131 अमूर्तिरनघोऽचिन्त्यो भयकृद्भयनाशनः // 102 यज्ञो यज्ञपतिर्यज्वा यज्ञाङ्गो यज्ञवाहनः // 117 अणुवृहत्कृशः स्थूलो गुणभृन्निर्गुणो महान् / यद्यभृद्यज्ञकृद्यज्ञी यज्ञभुग्यज्ञसाधनः / अधृतः स्वधृतः स्वास्यः प्राग्वंशो वंशवर्धनः॥१०३ यज्ञान्तकृद्यज्ञगुह्यमन्नमन्नाद एव च // 118 भारभृत्कथितो योगी योगीशः सर्वकामदः / आत्मयोनिः स्ययंजातो वैखानः सामगायनः / आश्रमः श्रमणः क्षामः सुपर्णो वायुवाहनः // 104 देवकीनन्दनः स्रष्टा क्षितीशः पापनाशनः // 119 धनुर्धरो धनुर्वेदो दण्डो दमयिता दमः / शङ्खभृन्नन्दकी चक्री शाङ्गधन्वा गदाधरः। अपराजितः सर्वसहो नियन्ता नियमो यमः // 105 रथाङ्गपाणिरक्षोभ्यः सर्वप्रहरणायुधः // 120 सत्त्ववान्सात्त्विकः सत्यः सत्यधर्मपरायणः / / अभिप्रायः प्रिया)ऽर्हः प्रियकृत्प्रीतिवर्धनः॥१०६ इतीदं कीर्तनीयस्य केशवस्य महात्मनः / विहायसगतियोतिः सुरुचिर्तुतभुग्विभुः / नाम्नां सहस्रं दिब्यानामशेषेण प्रकीर्तितम् // 121 रविर्विरोचनः सूर्यः सविता रविलोचनः / / 107 य इदं शृणुयान्नित्यं यश्चापि परिकीर्तयेत् / अनन्तो हुतभुग्भोक्ता सुखदो नैकदोऽग्रजः। नाशुभं प्राप्नुयात्किचित्सोऽमुत्रेह च मानवः // 122 अनिर्विण्णः सदामर्षी लोकाधिष्ठानमद्भुतम् / / 108 वेदान्तगो ब्राह्मणः स्यात्क्षत्रियो विजयी भवेत् / सनात्सनातनतमः कपिलः कपिरव्ययः। वैश्यो धनसमृद्धः स्याच्छूद्रः सुखमवाप्नुयात्॥१२३ स्वस्तिदः स्वस्तिकृत्स्वस्ति स्वस्तिभुक्स्वस्तिदक्षिणः // धर्मार्थी प्राप्नुयाद्धर्ममर्थार्थी चार्थमाप्नुयात् / अरौद्रः कुण्डली चक्री विक्रम्यूर्जितशासनः / कामानवाप्नुयात्कामी प्रजार्थी चाप्नुयात्प्रजाः // 124 शब्दातिगः शब्दसहः शिशिरः शर्वरीकरः // 110 भक्तिमान्यः सदोत्थाय शुचिस्तद्गतमानसः / अक्रूरः पेशलो दक्षो दक्षिणः क्षमिणां वरः / सहस्रं वासुदेवस्य नाम्नामेतत्प्रकीर्तयेत् // 125 विद्वत्तमो वीतभयः पुण्यश्रवणकीर्तनः // 111 यशः प्राप्नोति विपुलं ज्ञातिप्राधान्यमेव च / उत्तारणो दुष्कृतिहा पुण्यो दुःस्वप्ननाशनः / अचलां श्रियमाप्नोति श्रेयश्चाप्नोत्यनुत्तमम् // 126 वीरहा रक्षणः सन्तो जीवनः पर्यवस्थितः // 112 / न भयं क्वचिदाप्नोति वीर्यं तेजश्च विन्दति / अनन्तरूपोऽनन्तश्रीर्जितमन्युभयापहः / भवत्यरोगो द्युतिमान्बलरूपगुणान्वितः // 127 चतुरस्रो गभीरात्मा विदिशो व्यादिशो दिशः // रोगार्तो मुच्यते रोगाद्वद्धो मुच्येत बन्धनात् / धनादिर्भर्भवो लक्ष्मीः सुवीरो रुचिराङ्गदः।। भयान्मुच्येत भीतश्च मुच्येतापन्न आपदः // 128 जननो जनजन्मादिर्भीमो भीमपराक्रमः // 114 दुर्गाण्यतितरत्याशु पुरुषः पुरुषोत्तमम् / आधारनिलयो धाता पुष्पहासः प्रजागरः / स्तुवन्नामसहस्रेण नित्यं भक्तिसमन्वितः // 129 ऊर्ध्वगः सत्पथाचारः प्राणदः प्रणवः पणः // 115 / वासुदेवाश्रयो मर्यो वासुदेवपरायणः / प्रमाणं प्राणनिलयः प्राणकृत्प्राणजीवनः / सर्वपापविशुद्धात्मा याति ब्रह्म सनातनम् // 130 तत्त्वं तत्त्वविदेकात्मा जन्ममृत्युर्जरातिगः / / 116 / न वासुदेवभक्तानामशुभं विद्यते क्वचित् / भूर्भुवःस्वस्तरुस्तारः सविता प्रपितामहः / जन्ममृत्युजराव्याधिभयं वाप्युपजायते // 131 - 2725 - Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 135. 132 ] महाभारते [13. 136. 17 इमं स्तवमधीयानः श्रद्धाभक्तिसमन्वितः। ब्राह्मणानां नमस्कर्ता युधिष्ठिर न रिष्यते // 2 युज्येतात्मसुखक्षान्तिश्रीधृतिस्मृतिकीर्तिभिः // 132 ते पूज्यास्ते नमस्कार्या वर्तेथास्तेषु पुत्रवत् / / न क्रोधो न च मात्सर्यं न लोभो नाशुभा मतिः। / ते हि लोकानिमान्सर्वान्धारयन्ति मनीषिणः / / भवन्ति कृतपुण्यानां भक्तानां पुरुषोत्तमे // 133 ब्राह्मणाः सर्वलोकानां महान्तो धर्मसेतवः / द्यौः सचन्द्रार्कनक्षत्रा खं दिशो भूर्महोदधिः / / धनत्यागाभिरामाश्च वाक्संयमरताश्च ये॥४ वासुदेवस्य वीर्येण विधृतानि महात्मनः // 134 रमणीयाश्च भूतानां निधानं च धृतव्रताः / ससुरासुरगन्धर्व सयक्षोरगराक्षसम् / प्रणेतारश्च लोकानां शास्त्राणां च यशस्विनः // 5 जगद्वशे वर्ततेदं कृष्णस्य सचराचरम् // 135 तपो येषां धनं नित्यं वाक्चैव विपुलं बलम् / इन्द्रियाणि मनो बुद्धिः सत्त्वं तेजो बलं धृतिः / प्रभवश्वापि धर्माणां धर्मज्ञाः सूक्ष्मदर्शिनः // 6 : वासुदेवात्मकान्याहुः क्षेत्रं क्षेत्रज्ञ एव च // 136 धर्मकामाः स्थिता धर्मे सुकृतैर्धर्मसेतवः / . . सर्वागमानामाचारः प्रथमं परिकल्प्यते / यानुपाश्रित्य जीवन्ति प्रजाः सर्वाश्चतुर्विधाः॥" आचारप्रभवो धर्मो धर्मस्य प्रभुरच्युतः // 137 पन्थानः सर्वनेतारो यज्ञवाहाः सनातनाः / ऋषयः पितरो देवा महाभूतानि धातवः / पितृपैतामहीं गुर्वीमुद्वहन्ति धुरं सदा // 8 जङ्गमाजङ्गमं चेदं जगन्नारायणोद्भवम् // 138 धुरि ये नावसीदन्ति विषमे सद्गवा इव / योगो ज्ञानं तथा सांख्यं विद्याः शिल्पानि कर्म च / पितृदेवातिथिमुखा हव्यकव्याप्रभोजिनः // 9 वेदाः शास्त्राणि विज्ञानमेतत्सर्व जनार्दनात् // 139 भोजनादेव ये लोकांखायन्ते महतो भयात् / एको विष्णुर्महद्भूतं पृथक्भूतान्यनेकशः। दीपाः सर्वस्य लोकस्य चक्षुश्चक्षुष्मतामपि // 10 त्रील्लोकान्व्याप्य भूतात्मा भुङ्क्ते विश्वभुगव्ययः / / सर्वशिल्पादिनिधयो निपुणाः सूक्ष्मदर्शिनः / . इमं स्तवं भगवतो विष्णोळसेन कीर्तितम् / गतिज्ञाः सर्वभूतानामध्यात्मगतिचिन्तकाः // 11 पठेद्य इच्छेत्पुरुषः श्रेयः प्राप्तुं सुखानि च // 141 आदिमध्यावसानानां ज्ञातारश्छिन्नसंशयाः। विश्वेश्वरमजं देवं जगतः प्रभवाप्ययम् / परावरविशेषज्ञा गन्तारः परमां गतिम् / / 12 भजन्ति ये पुष्कराक्षं न ते यान्ति पराभवम् / / विमुक्ता धुतपाप्मानो निद्वंद्वा निष्परिग्रहाः। इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि मानार्हा मानिता नित्यं ज्ञानविद्भिर्महात्मभिः // 13 पञ्चत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 135 // चन्दने मलपङ्के च भोजनेऽभोजने समाः / 136 समं येषां दुकूलं च शाणक्षौमाजिनानि च // 14 युधिष्ठिर उवाच / तिष्ठेयुरप्यभुञ्जाना बहूनि दिवसान्यपि / के पूज्याः के नमस्कार्याः कथं वर्तेत केषु च / शोषयेयुश्च गात्राणि स्वाध्यायैः संयतेन्द्रियाः॥१५ किमाचारः कीदृशेषु पितामह न रिष्यते // 1 अदैवं दैवतं कुर्युर्दैवतं चाप्यदैवतम् / भीष्म उवाच / लोकानन्यान्सृजेयुश्च लोकपालांश्च कोपिताः // 16 ब्राह्मणानां परिभवः सादयेदपि देवताः। | अपेयः सागरो येषामभिशापान्महात्मनाम् / - 2726 - Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 136. 17 ] अनुशासनपर्व [13. 137. 19 येषां कोपाग्निरद्यापि दण्डके नोपशाम्यति // 17 स वरैइछन्दितस्तेन नृपो वचनमब्रवीत् / देवानामपि ये देवाः कारणं कारणस्य च। सहस्रबाहु यां वै चमूमध्ये गृहेऽन्यथा // 7 प्रमाणस्य प्रमाणं च कस्तानभिभवेद्बुधः // 18 मम बाहुसहस्रं तु पश्यन्तां सैनिका रणे / येषां वृद्धश्च बालश्च सर्वः संमानमर्हति / विक्रमेण महीं कृत्स्ना जयेयं विपुलव्रत / तपोविद्याविशेषात्तु मानयन्ति परस्परम् // 19 तां च धर्मेण संप्राप्य पालयेयमतन्द्रितः / / 8 अविद्वान्ब्राह्मणो देवः पात्रं वै पावनं महत् / / चतुर्थ तु वरं याचे त्वामहं द्विजसत्तम / विद्वान्भूयस्तरो देवः पूर्णसागरसंनिभः / / 20 तं ममानुग्रहकृते दातुमर्हस्यनिन्दित / अविद्वांश्चैव विद्वांश्च ब्राह्मणो दैवतं महत् / अनुशासन्तु मां सन्तो मिथ्यावृत्तं तदाश्रयम् // 9 प्रणीतश्चाप्रणीतश्च यथाग्निर्दैवतं महत् / / 2.1 इत्युक्तः स द्विजः प्राह तथास्त्विति नराधिपम् / श्मशाने ह्यपि तेजस्वी पांवको नैव दुष्यति / एवं समभवंस्तस्य वरास्ते दीप्ततेजसः // 10 हविर्यज्ञेषु च वहन्भूय एवाभिशोभते / / 22 ततः स रथमास्थाय ज्वलनार्कसमद्युतिः / एवं यद्यप्यनिष्टेषु वर्तते सर्वकर्मसु / अब्रवीद्वीर्यसंमोहात्को न्वस्ति सदृशो मया / सर्वथा ब्राह्मणो मान्यो दैवतं विद्धि तत्परम् / / 23 वीर्यधैर्ययशःशौचैविक्रमेणौजसापि वा // 11 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि तद्वाक्यान्ते चान्तरिक्षे वागुवाचाशरीरिणी। षत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 136 // न त्वं मूढ विजानीषे ब्राह्मणं क्षत्रियाद्वरम् / 137 सहितो ब्राह्मणेनेह क्षत्रियो रक्षति प्रजाः // 12 - युधिष्ठिर उवाच। अर्जुन उवाच।। फां तु ब्राह्मणपूजायां व्युष्टिं दृष्ट्वा जनाधिप / कुर्या भूतानि तुष्टोऽहं क्रुद्धो नाशं तथा नये / कं वा कर्मोदयं मत्वा तानचसि महामते // 1 कर्मणा मनसा वाचा न मत्तोऽस्ति वरो द्विजः // भीष्म उवाच / पूर्वो ब्रह्मोत्तरो वादो द्वितीयः क्षत्रियोत्तरः / अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / त्वयोक्ती यौ तु ती हेतू विशेषस्त्वत्र दृश्यते // 14 पवनस्य च संवादमर्जुनस्य च भारत / / 2 / ब्राह्मणाः संश्रिताः क्षत्रं न क्षत्रं ब्राह्मणाश्रितम् / सहस्रभुजभृच्छ्रीमान्कार्तवीर्योऽभवत्प्रभुः / श्रितान्ब्रह्मोपधा विप्राः खादन्ति क्षत्रियान्भुवि / अस्य लोकस्य सर्वस्य माहिष्मत्यां महाबलः / / 3 क्षत्रियेष्वाश्रितो धर्मः प्रजानां परिपालनम् / स तु रत्नाकरवतीं सद्वीपां सागराम्बराम् / क्षत्राद्वृत्तिाह्मणानां तैः कथं ब्राह्मणो वरः // 16 शशास सर्वां पृथिवीं हैहयः सत्यविक्रमः // 4 सर्वभूतप्रधानांस्तान्भैक्षवृत्तीनहं सदा / स्ववित्तं तेन दत्तं तु दत्तात्रेयाय कारणे / आत्मसंभावितान्विप्रान्स्थापयाम्यात्मनो वशे॥ 17 क्षत्रधर्म पुरस्कृत्य विनयं श्रुतमेव च / / 5 कथितं ह्यनया सत्यं गायत्र्या कन्यया दिवि / आराधयामास च तं कृतवीर्यात्मजो मुनिम् / विजेष्याम्यवशान्सर्वान्ब्राह्मणांश्चर्मवाससः // 18 न्यमत्रयत संहृष्टः स द्विजश्च वनिभिः / / 6 / / न च मां च्यावयेद्राष्ट्रात्रिषु लोकेषु कश्चन / -2727 - Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 137. 19 ] महाभारते [ 13. 138. 191 देवो वा मानुषो वापि तस्माज्येष्ठो द्विजादहम् // / अभिशप्तश्च भगवान्गौतमेन पुरंदरः / अद्य ब्रह्मोत्तरं लोकं करिष्ये क्षत्रियोत्तरम् / अहल्यां कामयानो वै धर्मार्थं च न हिंसितः / / न हि मे संयुगे कश्चित्सोढुमुत्सहते बलम् / / 20 तथा समुद्रो नृपते पूर्णो मृष्टेन वारिणा / अर्जुनस्य वचः श्रुत्वा वित्रस्ताभून्निशाचरी। ब्राह्मणैरभिशप्तः सल्लवणोदः कृतो विभो // 7 अथैनमन्तरिक्षस्थस्ततो वायुरमाषत // 21 सुवर्णवर्णो निधूमः संहतोर्ध्वशिखः कविः / त्यजैन कलुषं भावं ब्राह्मणेभ्यो नमस्कुरु / क्रुद्धेनाङ्गिरसा शप्तो गुणैरेतैर्विवर्जितः // 8 एतेषां कुर्वतः पापं राष्ट्रक्षोभो हि ते भवेत् // 22 मरुतश्चर्णितान्पश्य येऽहसन्त महोदधिम् / अथ वा त्वां महीपाल शमयिष्यन्ति वै द्विजाः। सुवर्णधारिणा नित्यमवशप्ता द्विजातिना // 9 निरसिष्यन्ति वा राष्ट्राद्धतोत्साहं महाबलाः // 23 समो न त्वं द्विजातिभ्यः श्रेष्ठं विद्धि नराधिप। तं राजा कस्त्वमित्याह ततस्तं प्राह मारुतः / गर्भस्थान्ब्राह्मणान्सम्यङमस्यति किल प्रभुः // 10 वायुबै देवदूतोऽस्मि हितं त्वां प्रब्रवीम्यहम् // 24 दण्डकानां महद्राज्यं ब्राह्मणेन विनाशितम् / अर्जुन उवाच / तालजङ्घ महत्क्षत्रमौर्वेणैकेन नाशितम् // 11 अहो त्वयाद्य विप्रेषु भक्तिरागः प्रदर्शितः। त्वया च विपुलं राज्यं बलं धर्मः श्रुतं तथा / यादृशं पृथिवी भूतं तादृशं ब्रूहि वै द्विजम् // 25 दत्तात्रेयप्रसादेन प्राप्तं परमदुर्लभम् // 12 वायोर्वा सदृशं किंचिदहि त्वं ब्राह्मणोत्तमम् / अग्निं त्वं यजसे नित्यं कस्मादर्जुन ब्राह्मणम् / अपां वै सदृशं ब्रूहि सूर्यस्य नभसोऽपि वा / / 26 स हि सर्वस्य लोकस्य हव्यवादि न वेत्सि तम् // इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि अथ वा ब्राह्मणश्रेष्ठमनु भूतानुपालकम् / सप्तत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 137 // कर्तारं जीवलोकस्य कस्माजानन्विमुह्यसे // 14 138 तथा प्रजापतिर्ब्रह्मा अव्यक्तः प्रभवाप्ययः / वायुरुवाच / येनेदं निखिलं विश्वं जनितं स्थावरं चरम् // 15 शृणु मूढ गुणान्कांश्चिद्ब्राह्मणानां महात्मनाम् / अण्डजातं तु ब्रह्माणं केचिदिच्छन्त्यपण्डिताः / ये त्वया कीर्तिता राजेस्तेभ्योऽथ ब्राह्मणो वरः / / 1 अण्डाद्भिन्नाद्वभुः शैला दिशोऽम्भः पृथिवी दिवम् // त्यक्त्वा महीत्वं भूमिस्तु स्पर्धयाङ्गनृपस्य ह / / द्रष्टव्यं नैतदेवं हि कथं ज्यायस्तमो हि सः। नाशं जगाम तां विप्रो व्यष्टम्भयत कश्यपः // 2 स्मृतमाकाशमण्डं तु तस्माजातः पितामहः // 17 अक्षया ब्राह्मणा राजन्दिवि चेह च नित्यदा / तिष्ठत्कथमिति बेहि न किंचिद्धि तदा भवेत् / अपिबत्तेजसा ह्यापः स्वयमेवाङ्गिराः पुरा // 3 अहंकार इति प्रोक्तः सर्वतेजोगतः प्रभुः // 18 स ताः पिबन्क्षीरमिव नातृप्यत महातपाः / नास्त्यण्डमस्ति तु ब्रह्मा स राजललोकभावनः / अपूरयन्महौघेन महीं सर्वां च पार्थिव / / 4 इत्युक्तः स तदा तूष्णीमभूद्वायुस्तमब्रवीत् // 19 तस्मिन्नहं च क्रुद्धे वै जगत्त्यक्त्वा ततो गतः / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि व्यतिष्ठमग्निहोत्रे च चिरमङ्गिरसो भयात् / / 5 अष्टत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 138 // - 2728 - Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 139. 1] अनुशासनपर्व [ 13. 139. 28 न हि रम्यतरं किंचित्तस्मादन्यत्पुरोत्तमम् / वायुरुवाच / प्रासादैरप्सरोभिश्च दिव्यैः कामैश्च शोभितम् / इमां भूमिं ब्राह्मणेभ्यो दित्सुवै दक्षिणां पुरा।। तत्र देवस्तया साधं रेमे राजञ्जलेश्वरः // 15 अङ्गो नाम नृपो राजंस्ततश्चिन्तां मही ययौ // 1 / अथाख्यातमुतथ्याय ततः पन्यवमर्दनम् // 16 धारणी सर्वभूतानामयं प्राप्य वरो नृपः। तच्छ्रुत्वा नारदात्सर्वमुतथ्यो नारदं तथा / कथमिच्छति मां दातुं द्विजेभ्यो ब्रह्मणः सुताम् // 2 प्रोवाच गच्छ ब्रूहि त्वं वरुणं परुषं वचः / साहं त्यक्त्वा गमिष्यामि भूमित्वं ब्रह्मणः पदम् / मद्वाक्यान्मुश्च मे भायां कस्माद्वा हृतवानसि // 17 अयं सराष्ट्रो नृपतिर्मा भूदिति ततोऽगमत् / / 3 लोकपालोऽसि लोकानां न लोकस्य विलोपकः / ततस्तां कश्यपो दृष्ट्वा व्रजन्तीं पृथिवीं तदा। सोमेन दत्ता भार्या मे त्वया चापहृताद्य वै // 18 प्रविवेश महीं सद्यो मुक्त्वात्मानं समाहितः // 4 इत्युक्तो वचनात्तस्य नारदेन जलेश्वरः / रुद्धा सा सर्वतो जज्ञे तृणौषधिसमन्विता / मुश्च भार्यामुतथ्यस्येत्यथ तं वरुणोऽब्रवीत् / धर्मोत्तरा नष्टभया भूमिरासीत्ततो नृप // 5 ममैषा सुप्रिया भार्या नैनामुत्स्रष्टुमुत्सहे // 19 एवं वर्षसहस्राणि दिव्यानि विपुलवतः / इत्युक्तो वरुणेनाथ नारदः प्राप्य तं मुनिम् / त्रिंशतं कश्यपो राजन्भूमिरासीदतन्द्रितः // 6 उतथ्यमब्रवीद्वाक्यं नातिहृष्टमना इव // 20 अथागम्य महाराज नमस्कृत्य च कश्यपम् / / गले गृहीत्वा क्षिप्तोऽस्मि वरुणेन महामुने / पृथिवी काश्यपी जज्ञे सुता तस्य महात्मनः / / 7 न प्रयच्छति ते भायां यत्ते कायं कुरुष्व तत् // 21 एष राजन्नीदृशो वै ब्राह्मणः कश्यपोऽभवत् / नारदस्य वचः श्रुत्वा क्रुद्धः प्राज्वलदङ्गिराः / अन्यं प्रबृहि वापि त्वं कश्यपात्क्षत्रियं वरम् / / 8 अपिबत्तेजसा वारि विष्टभ्य सुमहातपाः // 22 तूष्णीं बभूव नृपतिः पवनस्त्वब्रवीत्पुनः। पीयमाने च सर्वस्मिंस्तोये वै सलिलेश्वरः / शृणु राजन्नुतथ्यस्य जातस्याङ्गिरसे कुले // 9 सुहृद्भिः क्षिप्यमाणोऽपि नैवामुश्चत तां तदा // 23 भद्रा सोमस्य दुहिता रूपेण परमा मता। ततः क्रुद्धोऽब्रवीभूमिमुतथ्यो ब्राह्मणोत्तमः / तस्यास्तुल्यं पति सोम उतथ्यं समपश्यत / / 10 दर्शयस्व स्थलं भद्रे षट्सहस्रशतहदम् // 24 सा च तीनं तपस्तेपे महाभागा यशस्विनी / ततस्तदिरिणं जातं समुद्रश्वापसर्पितः। उतध्यं तु महाभागं तत्कृतेऽवरयत्तदा // 11 तस्माद्देशान्नदीं चैव प्रोवाचासौ द्विजोत्तमः // 25 तत आहूय सोतथ्यं ददावत्र यशस्विनीम् / अदृश्या गच्छ भीरु त्वं सरस्वति मरुं प्रति / भार्यार्थ स च जग्राह विधिवद्भरिदक्षिणः / / 12 अपुण्य एष भवतु देशस्त्यक्तस्त्वया शुभे // 26 तां त्वकामयत श्रीमान्वरुणः पूर्वमेव ह। तस्मिन्संचूर्णिते देशे भद्रामादाय वारिपः / स चागम्य वनप्रस्थं यमुनायां जहार ताम् / / 13 अददाच्छरणं गत्वा भार्यामाङ्गिरसाय वै // 27 जलेश्वरस्तु हृत्वा तामनयत्स्वपुरं प्रति / प्रतिगृह्म तु तां भार्यामुतथ्यः सुमनाभवत् / परमाद्भुतसंकाशं षट्सहस्रशतहदम् // 14 / मुमोच च जगढुःखावरुणं चैव हैहय // 28 म.भा. 42 - 2729 - Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. 139. 29 ] महाभारते [13. 140. 25 ततः स लब्ध्वा तां भायां वरुणं प्राह धर्मवित् / | ततो लोकाः पुनः प्राप्ताः सुरैः शान्तं च तद्रजः / उतथ्यः सुमहातेजा यत्तच्छृणु नराधिप // 29 अथैनमब्रुवन्देवा भूमिष्ठानसुराञ्जहि // 11 मयैषा तपसा प्राप्ता क्रोशतस्ते जलाधिप / इत्युक्त आह देवान्स न शक्नोमि महीगतान् / इत्युक्त्वा तामुपादाय स्वमेव भवनं ययौ // 30 दग्धं तपो हि क्षीयेन्मे धक्ष्यामीति च पार्थिव // एष राजन्नीदृशो वै उतथ्यो ब्राह्मणर्षभः / एवं दग्धा भगवता दानवाः स्वेन तेजसा। ब्रवीम्यहं ब्रहि वा त्वमुतथ्यात्क्षत्रियं वरम् // 31 अगस्त्येन तदा राजस्तपसा भावितात्मना // 13 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि ईदृशश्चाप्यगस्त्यो हि कथितस्ते मयानघ / एकोनचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 139 // ब्रवीम्यहं ब्रूहि वा त्वमगमस्त्यात्क्षत्रियं वरम् // 11 140 इत्युक्तः स तदा तूष्णीमभूद्वायुस्ततोऽब्रवीत् / भीष्म उवाच / शृणु राजन्वसिष्ठस्य मुख्यं कर्म यशस्विनः॥१५ इत्युक्तः स तदा तूष्णीमभूद्वायुस्ततोऽब्रवीत् / आदित्याः सत्रमासन्त सरो वै मानसं प्रति / शृणु राजन्नगस्त्यस्य माहात्म्यं ब्राह्मणस्य ह // 1 वसिष्ठं मनसा गत्वा श्रुत्वा तत्रास्य गोचरम् // 16 असुर्निर्जिता देवा निरुत्साहाश्च ते कृताः।। यजमानांस्तु तान्दृष्ट्वा व्यप्रान्दीक्षानुकर्शितान् / यज्ञाश्चैषां हृता सर्वे पितृभ्यश्च स्वधा तथा // 2 हन्तुमिच्छन्ति शैलाभाः खलिनो नाम दानवाः॥ कर्मेज्या मानवानां च दानवैहयर्षभ। , अदूरात्तु ततस्तेषां ब्रह्मदत्तवरं सरः। भ्रष्टैश्वर्यास्ततो देवाश्चेरुः पृथ्वीमिति श्रुतिः // 3 हता हता वै ते तत्र जीवन्त्याप्लुत्य दानवाः // 18 ततः कदाचित्ते राजन्दीप्तमादित्यवर्चसम / ते प्रगृह्य महाघोरान्पर्वतान्परिघान्दुमान् / ददृशुस्तेजसा युक्तमगस्त्यं विपुलवतम् // 4 विक्षोभयन्तः सलिलमुत्थिताः शतयोजनम् // 19 अभिवाद्य च तं देवा दृष्ट्वा च यशसा वृतम् / अभ्यद्रवन्त देवांस्ते सहस्राणि दशैव ह / इदमूचुर्महात्मानं वाक्यं काले जनाधिप / 5 ततस्तैरर्दिता देवाः शरणं वासवं ययुः // 20 दानवैयुधि भग्नाः स्म तथैश्वर्याञ्च भ्रंशिताः / स च तैय॑थितः शक्रो वसिष्ठं शरणं ययौ / तदस्मान्नो भयात्तीव्रात्राहि त्वं मुनिपुंगव // 6 ततोऽभयं ददौ तेभ्यो वसिष्ठो भगवानृषिः // 21 इत्युक्तः स तदा देवैरगस्त्यः कुपितोऽभवत् / तथा तान्दुःखिताञ्जानन्नानृशंस्यपरो मुनिः / प्रजज्वाल च तेजस्वी कालाग्निरिव संक्षये / / 7 अयत्नेनादहत्सर्वान्खलिनः स्वेन तेजसा // 22 तेन दीप्तांशुजालेन निर्दग्धा दानवास्तदा / कैलासं प्रस्थितां चापि नदीं गङ्गां महातपाः। अन्तरिक्षान्महाराज न्यपतन्त सहस्रशः // 8 आनयत्तत्सरो दिव्यं तया भिन्नं च तत्सरः // 23 दह्यमानास्तु ते दैत्यास्तस्यागस्त्यस्य तेजसा / सरो भिन्नं तया नद्या सरयूः सा ततोऽभवत् / उभौ लोकौ परित्यज्य ययुः काष्ठां स्म दक्षिणाम् // हताश्च खलिनो यत्र स देशः खलिनोऽभवत् // 24 बलिस्तु यजते यज्ञमश्वमेधं महीं गतः। एवं सेन्द्रा वसिष्ठेन रक्षितास्त्रिदिवौकसः / येऽन्ये खस्था महीस्थाश्च ते न दग्धा महासुराः / ब्रह्मदत्तवराश्चैव हता दैत्या महात्मना // 25 - 2730 - Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 140. 26 ] अनुशासनपर्व [ 13. 141. 25 एतत्कर्म वसिष्ठस्य कथितं ते मयानघ / अद्वितीयेन मुनिना जपता चर्मवाससा / जवीम्यहं ब्रूहि वा त्वं वसिष्ठात्क्षत्रियं वरम् // 26 फलभक्षेण राजर्षे पश्य कर्मात्रिणा कृतम् // 13 इति श्रीमहाभारते भनुशासनपर्वणि तस्यापि विस्तरेणोक्तं कर्मात्रैः सुमहात्मनः / चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 14 // ब्रवीम्यहं हि वा त्वमत्रितः क्षत्रियं वरम् // 14 इत्युक्तस्त्वर्जुनस्तूष्णीमभूद्वायुस्तमब्रवीत् / भीष्म उवाच / शृणु राजन्महत्कर्म च्यवनस्य महात्मनः // 15 इत्युक्तस्त्वर्जुनस्तूष्णीमभूद्वायुस्तमब्रवीत्। .. अश्विनोः प्रतिसंश्रुत्य च्यवनः पाकशासनम् / शृणु मे हैहयश्रेष्ठ कर्मात्रेः सुमहात्मनः // 1 प्रोवाच सहितं देवैः सोमपावश्विनौ कुरु // 16 घोरे तमस्ययुध्यन्त सहिता देवदानवाः। . इन्द्र उवाच / अविष्यत शरैस्तत्र स्वर्भानुः सोमभास्करौ // 2 अस्माभिर्वर्जितावेतौ भवेतां सोमपौ कथम् / अथ ते तमसा प्रस्ता निहन्यन्ते स्म दानवैः / देवैर्न संमितावेतौ तस्मान्मैवं वदस्व नः // 17 देवा नृपतिशार्दूल सहैव बलिभिस्तदा // 3 अश्विभ्यां सह नेच्छामः पातुं सोमं महाव्रत / असुरैर्वध्यमानास्ते क्षीणप्राणा दिवौकसः / पिबन्त्वन्ये यथाकामं नाहं पातुमिहोत्सहे // 18 अपश्यन्त तपस्यन्तमत्रिं विप्रं महावने // 4 च्यवन उवाच / अथैनमब्रुवन्देवाः शान्तक्रोधं जितेन्द्रियम् / न चेत्करिष्यसि वचो मयोक्तं वलसूदन / असुरैरिषुभिर्विद्धौ चन्द्रादित्याविमावुभौ // 5 मया प्रमथितः सद्यः सोमं पास्यसि वै मखे // 19 वयं वध्यामहे चापि शत्रुभिस्तमसावृते / ततः कर्म समारब्धं हिताय सहसाश्विनोः / नाधिगच्छाम शान्तिं च भयात्रायस्व नः प्रभो // 6 च्यवनेन ततो मत्रैरभिभूताः सुराभवन् / 20 कथं रक्षामि भवतस्तेऽब्रुवंश्चन्द्रमा भव / तत्तु कर्म समारब्धं दृष्ट्वेन्द्रः क्रोधमूर्छितः / तिमिरनंश्च सविता दस्युहा चैव नो भव // 7 उद्यम्य विपुलं शैलं च्यवनं समुपाद्रवत् / एवमुक्तस्तदात्रिस्तु तमोनुदभवच्छशी / तथा वज्रेण भगवानमर्षाकुललोचनः // 21 अपश्यत्सौम्यभावं च सूर्यस्य प्रतिदर्शनम् // 8 तमापतन्तं दृष्ट्वैव च्यवनस्तपसान्वितः / दृष्ट्वा नातिप्रभं सोमं तथा सूर्यं च पार्थिव / अद्भिः सिक्त्वास्तम्भयत्तं सवनं सहपर्वतम् // 22 प्रकाशमकरोदत्रिस्तपसा स्वेन संयुगे // 9 अथेन्द्रस्य महाघोरं सोऽसृजच्छत्रुमेव ह / जगद्वितिमिरं चापि प्रदीप्तमकरोत्तदा। मदं मन्त्राहुतिमयं व्यादितास्यं महामुनिः // 23 व्यजयच्छत्रुसंघांश्च देवानां स्वेन तेजसा // 10 तस्य दन्तसहस्रं तु बभूव शतयोजनम् / अत्रिणा दह्यमानांस्तान्दृष्ट्वा देवा महासुरान् / द्वियोजनशतास्तस्य दंष्ट्राः परमदारुणाः / पराक्रमैस्तेऽपि तदा व्यत्यनन्नत्रिरक्षिताः // 11 / / हनुस्तस्याभवद्भूमावेकश्चास्यास्पृशदिवम् // 24 उद्भासितश्च सविता देवास्त्राता हतासुराः / जिह्वामूले स्थितास्तस्य सर्वे देवाः सवासवाः / अत्रिणा त्वथ सोमत्वं कृतमुत्तमतेजसा / / 12 / तिमेरास्यमनुप्राप्ता यथा मत्स्या महार्णवे // 25 - 2731 - Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 141. 26 ] महाभारते [ 13. 142. 20 ते संमन्य ततो देवा मदस्यास्यगतास्तदा / ततः कर्म समारब्धं ब्राह्मणैः कपनाशनम् / अब्रुवन्सहिताः शक्रं प्रणमास्मै द्विजातये। तच्छ्रुत्वा प्रेषितो दूतो ब्राह्मणेभ्यो धनी कपैः // अश्विभ्यां सह सोमं च पिबामो विगतज्वराः // 26 स च तान्ब्राह्मणानाह धनी कपवचो यथा / ततः स प्रणतः शक्रश्चकार च्यवनस्य तत् / भवद्भिः सदृशाः सर्वे कपाः किमिह वर्तते // 8 च्यवनः कृतवांस्तौ चाप्यश्विनी सोमपीथिनौ // 27 सर्वे वेदविदः प्राज्ञाः सर्वे च ऋतुयाजिनः / ततः प्रत्याहरत्कर्म मदं च व्यभजन्मुनिः / सर्वे सत्यव्रताश्चैव सर्वे तुल्या महर्षिभिः // 9 अक्षेषु मृगयायां च पाने स्त्रीषु च वीर्यवान् // 28 श्रीश्चैव रमते तेषु धारयन्ति श्रियं च ते। एतैर्दोषैनरो राजन्क्षयं याति न संशयः / / वृथा दारान्न गच्छन्ति वृथामांसं न भुञ्जते // 10 तस्मादेतान्नरो नित्यं दूरतः परिवर्जयेत् // 29 दीप्तमग्निं जुह्वति च गुरूणां वचने स्थिताः / एतत्ते च्यवनस्यापि कर्म राजन्प्रकीर्तितम् / सर्वे च नियतात्मानो बालानां संविभागिनः // 11 ब्रवीम्यहं ब्रूहि वा त्वं च्यवनात्क्षत्रियं वरम् // 30 उपेत्य शकटैर्यान्ति न सेवन्ति रजस्वलाम् / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि अभुक्तवत्सु नाश्नन्ति दिवा चैव न शेरते // 12 एकचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 141 // एतैश्चान्यैश्च बहुभिर्गुणैर्युक्तान्कथं कपान् / विजेष्यथ निवर्तध्वं निवृत्तानां शुभं हि वः // 13 भीष्म उवाच / ब्राह्मणा ऊचुः। तूष्णीमासीदर्जुनस्तु पवनस्त्वब्रवीत्पुनः / कपान्वयं विजेष्यामो ये देवारते वयं स्मृताः / शृणु मे ब्राह्मणेष्वेव मुख्यं कर्म जनाधिप / / 1 तस्माद्वध्याः कपास्माकं धनिन्याहि यथागतम् // 14 मदस्यास्यमनुप्राप्ता यदा सेन्द्रा दिवौकसः / धनी गत्वा कपानाह न वो विप्राः प्रियंकराः / तदेयं च्यवनेनेह हृता तेषां वसुंधरा // 2 गृहीत्वास्त्राण्यथो विप्रान्कपाः सर्व समाद्रवन् // 15 उभौ लोकौ हृतौ मत्वा ते देवा दुःखिताभवन् / समुदग्रध्वजान्दृष्ट्वा कपान्सर्वे द्विजातयः / शोकार्ताश्च महात्मानं ब्रह्माणं शरणं ययुः // 3 व्यसृजञ्जवलितानग्नीन्कपानां प्राणनाशनान् // 16 देवा ऊचुः। ब्रह्मसृष्टा हव्यभुजः कपान्भुक्त्वा सनातनाः / मदास्यव्यतिषिक्तानामस्माकं लोकपूजित / नभसीव यथाभ्राणि व्यराजन्त नराधिप / च्यवनेन हृता भूमिः कपैश्चापि दिवं प्रभो // 4 प्रशशंसुर्द्विजांश्चैव ब्रह्माणं च यशस्विनम् / / 17 ब्रह्मोवाच / तेषां तेजस्तथा वीर्यं देवानां ववृधे ततः / गच्छध्वं शरणं विप्रानाशु सेन्द्रा दिवौकसः / अवाप्नुवंश्चामरत्वं त्रिषु लोकेषु पूजितम् // 18 प्रसाद्य तानुभौ लोकाववाप्स्यथ यथा पुरा / / 5 इत्युक्तवचनं वायुमर्जुनः प्रत्यभाषत / ते ययुः शरणं विप्रास्त ऊचुः काञ्जयामहे / प्रतिपूज्य महाबाहो यत्तच्छृणु नराधिप / / 19 इत्युक्तास्ते द्विजान्प्राहुर्जयतेह कपानिति / जीवाम्यहं ब्राह्मणार्थे सर्वथा सततं प्रभो / भूगतान्हि विजेतारो वयमित्येव पार्थिव // 6 ब्रह्मणे ब्राह्मणेभ्यश्च प्रणमामि च. नित्यशः // 20 - 2732 - Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 142. 21 ] अनुशासनपर्व [13. 143. 13 दत्तात्रेयप्रसादाच्च मया प्राप्तमिदं यशः / सोऽयं धर्मं वक्ष्यति संशयेषु // 6 लोके च परमा कीर्तिधर्मश्च चरितो महान् // 21 कृष्णः पृथ्वीमसृजत्खं दिवं च अहो ब्राह्मणकर्माणि यथा मारुत तत्त्वतः / वराहोऽयं भीमबलः पुराणः / त्वया प्रोक्तानि कात्स्येन श्रुतानि प्रयतेन ह // 22 अस्य चाधोऽथान्तरिक्षं दिवं च वायुरुवाच / दिशश्चतस्रः प्रदिशश्चतस्रः / ब्राह्मणान्क्षत्रधर्मेण पालयस्वेन्द्रियाणि च / सृष्टिस्तथैवेयमनुप्रसूता भूगुभ्यस्ते भयं घोरं तत्तु कालाद्भविष्यति // 23 स निर्ममे विश्वमिदं पुराणम् // 7 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि अस्य नाभ्यां पुष्करं संप्रसूतं द्विचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 142 // ___ यत्रोत्पन्नः स्वयमेवामितौजाः / 143 . येनाच्छिन्नं तत्तमः पार्थ घोरं यत्तत्तिष्ठत्यर्णवं तर्जयानम् // 8 युधिष्ठिर उवाच / कृते युगे धर्म आसीत्समग्रब्राह्मणानर्चसे राजन्सततं संशितव्रतान् / नेताकाले ज्ञानमनुप्रपन्नः / कं तु कर्मोदयं दृष्ट्वा तानर्चसि नराधिप // 1 बलं त्वासीहापरे पार्थ कृष्णः कां वा ब्राह्मणपूजायां व्युष्टिं दृष्ट्वा महाव्रत / कलावधर्मः क्षितिमाजगाम // 9 तानचसि महाबाहो सर्वमेतद्वदस्व मे // 2 स पूर्वदेवो निजघान दैत्याभीष्म उवाच / न्स पूर्वदेवश्व बभूव सम्राट् / एष ते केशवः सर्वमाख्यास्यति महामतिः / स भूतानां भावनो भूतभव्यः व्युष्टिं ब्राह्मणपूजायां दृष्टव्युष्टिर्महाव्रतः // 3 स विश्वस्यास्य जगतश्चापि गोप्ता // 10 बलं श्रोत्रे वाङ्मनश्चक्षुषी च यदा धर्मो ग्लायति वै सुराणां ज्ञानं तथा न विशुद्धं ममाद्य / ___ तदा कृष्णो जायते मानुषेषु। देहन्यासो नातिचिरान्मतो मे धर्मे स्थित्वा स तु वै भावितात्मा न चातितूर्णं सविताद्य याति // 4 ___ परांश्च लोकानपरांश्च याति // 11 उक्ता धर्मा ये पुराणे महान्तो त्याज्यांस्यक्त्वाथासुराणां वधाय ब्राह्मणानां क्षत्रियाणां विशां च / कार्याकार्ये कारणं चैव पार्थ / पौराणं ये दण्डमुपासते च कृतं करिष्यत्क्रियते च देवो शेषं कृष्णादुपशिक्षस्व पार्थ // 5 मुहुः सोमं विद्धि च शक्रमेतम् // 12 अहं ह्येनं वेद्मि तत्त्वेन कृष्णं स विश्वकर्मा स च विश्वरूपः योऽयं हि यच्चास्य बलं पुराणम् / स विश्वभृद्विश्वसृग्विश्वजिच्च / अमेयात्मा केशवः कौरवेन्द्र स शूलभृच्छोणितभृत्कराल-2733 - Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 143. 13 ] . महाभारते [ 13. 143. 28 स्तं कर्मभिर्विदितं वै स्तुवन्ति // 13 तस्यादित्यो भामुपयुज्य भाति / तं गन्धर्वा अप्सरसश्च नित्य स मासि मास्यध्वरकृद्विधत्ते मुपतिष्ठन्ते विबुधानां शतानि / तमध्वरे वेदविदः पठन्ति // 21 तं राक्षसाश्च परिसंवहन्ते म एकयुक्चक्रमिदं त्रिनाभि रायस्पोषः स विजिगीषुरेकः // 14 सप्ताश्वयुक्तं वहते वै विधामा। तमध्वरे शंसितारः स्तुवन्ति महातेजाः सर्वगः सर्वसिंहः रथंतरे सामगाश्च स्तुवन्ति / कृष्णो लोकान्धारयते तथैकः / तं ब्राह्मणा ब्रह्ममन्त्रैः स्तुवन्ति अनन्ननभंश्च तथैव धीरः तस्मै हविरध्वर्ययः कल्पयन्ति // 15. ___ कृष्णं सदा पार्थ कर्तारमेहि // 22 स पौराणी ब्रह्मगुहां प्रविष्टो स एकदा कक्षगतो महात्मा महीसत्रं भारताने ददर्श / ___ तृप्तो विभुः खाण्डवे धूमकेतुः / स चैव गामुधाराय्यकर्मा स राक्षसानुरगांधावजित्य विक्षोभ्य दैत्यानुरगान्दानवांश्च // 16 सर्वत्रगः सर्वमग्नौ जुहोति // 23 तस्य भक्षान्विविधान्वेदयन्ति / स एवाश्वः श्वेतमश्वं प्रयच्छ__ तमेवाजी वाहनं वेदयन्ति / त्स एवाश्वानथ सांधकार / तस्यान्तरिक्षं पृथिवी दिवं च त्रिवन्धुरस्तस्य रथस्त्रिचत्रसर्व वशे तिष्ठति शाश्वतस्य / / 17 त्रिवृच्छिराश्चतुरस्रश्च तस्य // 24 स कुम्भरेताः ससृजे पुराणं स विहायो व्यदधात्पश्चनाभिः ___ यत्रोत्पन्नमृषिमाहुर्वसिष्ठम् / ___ स निर्ममे गां दिवमन्तरिक्षम् / स मातरिश्वा विभुरश्ववाजी एवं रम्यानसृजत्पर्वतांश्च ___ स रश्मिमान्सविता चादिदेवः // 18 - हृषीकेशोऽमितदीप्ताग्नितेजाः // 25 तेनासुरा विजिताः सर्व एव स लङ्घयन्वै सरितो जिघांस___ तस्य विक्रान्तैर्विजितानीह त्रीणि / न्स तं वज्रं प्रहरन्तं निरास / स देवानां मानुषाणां पितॄणां स महेन्द्रः स्तूयते वै महाध्वरे ____तमेवाहुर्यज्ञविदां वितानम् // 19 विगैरेको ऋक्सहस्रैः पुराणैः // 26 स एव कालं विभजन्नुदेति दुर्वासा वै तेन नान्येन शक्यो __तस्योत्तरं दक्षिणं चायने द्वे / गृहे राजन्वासयितुं महौजाः। तस्यैवोवं तिर्यगधश्चरन्ति तमेवाहुर्ऋषिमेकं पुराणं गभस्तयो मेदिनीं तापयन्तः // 20 __स विश्वकृद्विदधात्यात्मभावान् // 27 तं ब्राह्मणा वेदविदो जुषन्ति वेदांश्च यो वेदयतेऽधिदेवो / -2734 - Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 143. 28 ] अनुशासनपर्व [ 13. 143. 42 विधींश्च यश्चाश्रयते पुराणान् / पुराकरोत्सर्वमेवाथ विश्वम् // 35 कामे वेदे लौकिके यत्फलं च ऋतूनुत्पातान्विविधान्यद्भुतानि विष्वक्सेने सर्वमेतत्प्रतीहि // 28 मेघान्विद्युत्सर्वमैरावतं च / ब्योतींषि शुक्लानि च सर्वलोके सर्वं कृष्णात्स्थावरं जङ्गमंच प्रयो लोका लोकपालावयश्च / विश्वाख्याताद्विष्णुमेनं प्रतीहि // 36 त्रयोऽनयो व्याहतयश्च तिस्रः विश्वावासं निर्गुणं वासुदेवं सर्वे देवा देवकीपुत्र एव / / 29. संकर्षणं जीवभूतं वदन्ति / संवत्सरः स ऋतुः सोऽर्धमासः ततः प्रद्युम्नमनिरुद्धं चतुर्थसोऽहोरात्रः स कला वै स काष्ठाः / माज्ञापयत्यात्मयोनिमहात्मा // 3 // मात्रा मुहूर्ताश्च लवाः क्षणाश्च स पञ्चधा पञ्चजनोपपन्नं विष्वक्सेने सर्वमेतत्प्रतीहि // 30 ___ संचोदयन्विश्वमिदं सिसक्षुः / चन्द्रादित्यौ ग्रहनक्षत्रताराः ततश्चकारावनिमारुतौ च सर्वाणि दर्शान्यथ पौर्णमास्यः / खं ज्योतिरापश्च तथैव पार्थ // 38 नक्षत्रयोगा ऋतवश्च पार्थ स स्थावरं जगमं चैवमेतविष्वक्सेनात्सर्वमेतत्प्रसूतम् // 31 चतुर्विधं लोकमिमं च कृत्वा। रुद्रादित्या वसवोऽथाश्विनौ च ततो भूमि व्यदधात्पञ्चबीजां . साध्या विश्वे मरुतां षगणाश्च / ___ द्यौः पृथिव्यां धास्यति भूरि वारि / प्रजापतिर्देवमातादितिश्च तेन विश्वं कृतमेतद्धि राजसर्वे कृष्णारपयश्चैव सप्त / / 32 न्य जीवयत्यात्मनैवात्मयोनिः // 39 वायुभत्वा विक्षिपते च विश्व ततो देवानसुरान्मानुषांश्च मग्निर्भूत्वा दहते विश्वरूपः। लोकानृषींश्चाथ पितॄन्प्रजाश्च / आपो भूत्वा मजयते च सर्व समासेन विविधान्प्राणिलोका। ब्रह्मा भूत्वा सजते विश्वसंघान् // 33 सर्वान्सदा भूतपतिः सिसक्षुः // 40 वेद्यं च यद्वेदयते च वेदा शुभाशुभं स्थावरं जङ्गमं च विधिश्च यश्चाश्रयते विधेयान् / विष्वक्सेनात्सर्वमेतत्प्रतीहि। धर्मे च वेदे च बले च सर्वं यद्वर्तते यच्च भविष्यतीह चराचरं केशवं त्वं प्रतीहि // 34 सर्वमेतत्केशवं त्वं प्रतीहि // 41 ज्योतिर्भूतः परमोऽसौ पुरस्ता मृत्युश्चैव प्राणिनामन्तकाले त्प्रकाशयन्प्रभया विश्वरूपः / ___ साक्षात्कृष्णः शाश्वतो धर्मवाहः। अपः सृष्ट्वा ह्यात्मभूरात्मयोनिः भूतं च यच्चेह न विद्म किंचि- 2735 - Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. 143. 42 ] महाभारते [ 13. 144. 22 द्विष्वक्सेनात्सर्वमेतत्प्रतीहि // 42 मा ते मन्युर्महाबाहो भवत्वत्र द्विजान्प्रति // 9 यत्प्रशस्तं च लोकेषु पुण्यं यच्च शुभाशुभम् / ब्राह्मणो हि महद्भूतस्मिल्लोके परत्र च / तत्सर्वं केशवोऽचिन्त्यो विपरीतमतो भवेत् / / 43 भस्म कुर्युर्जगदिदं क्रुद्धाः प्रत्यक्षदर्शिनः // 10 एतादृशः केशवोऽयं स्वयंभ अन्यानपि सृजेयुश्च लोकालोकेश्वरांस्तथा / रायणः परमश्चाव्ययश्च / कथं तेषु न वर्तेय सम्यग्ज्ञानात्सुतेजसः // 11 मध्यं चास्य जगतस्तस्थुषश्च अवसन्मद्गृहे तात ब्राह्मणो हरिपिङ्गलः। सर्वेषां भूतानां प्रभवश्चाप्ययश्च // 44 चीरवासा बिल्वदण्डी दीर्घश्मश्रुनखादिमान् / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि दीर्धेभ्यश्च मनुष्येभ्यः प्रमाणादधिको भुवि // 12 त्रिचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 143 // स स्म संचरते लोकान्ये दिव्या ये च मानुषाः / 144 इमा गाथा गायमानश्चत्वरेषु सभासु च // 13 युधिष्ठिर उवाच / दुर्वाससं वासयेत्को ब्राह्मणं सत्कृतं गृहे / ब्रूहि ब्राह्मणपूजायां व्युष्टिं त्वं मधुसूदन। परिभाषां च मे श्रुत्वा को नु दद्यात्प्रतिश्रयम् / वेत्ता त्वमस्य चार्थस्य वेद त्वां हि पितामहः॥ 1 यो मां कश्चिद्वासयेत न स मां कोपयेदिह // 14 वासुदेव उवाच / तं स्म नाद्रियते कश्चित्ततोऽहं तमवासयम् // 15 शृणुष्वावहितो राजन्द्विजानां भरतर्षभ / स स्म भुङ्क्ते सहस्राणां बहूनामन्नमेकदा / यथातत्त्वेन वदतो गुणान्मे कुरुसत्तम / / 2 एकदा स्माल्पकं भुङ्क्ते न वैति च पुनगृहान् // 16 प्रद्युम्नः परिपप्रच्छ ब्राह्मणैः परिकोपितः / अकस्माच्च प्रहसति तथाकस्मात्प्ररोदिति / किं फलं ब्राह्मणेष्वस्ति पूजायां मधुसूदन / न चास्य वयसा तुल्यः पृथिव्यामभवत्तदा // 17 ईश्वरस्य सतस्तस्य इह चैव परत्र च / / 3 सोऽस्मदावसथं गत्वा शय्याश्चास्तरणानि च / सदा द्विजातीन्संपूज्य किं फलं तत्र मानद / कन्याश्चालंकृता दग्ध्वा ततो व्यपगतः स्वयम् / / एतद्भहि पितः सर्व सुमहान्संशयोऽत्र मे // 4 अथ मामब्रवीद्भूयः स मुनिः संशितव्रतः / इत्युक्तवचनस्तेन प्रद्युम्नेन तदा त्वहम् / / कृष्ण पायसमिच्छामि भोक्तुमित्येव सत्वरः // 19 प्रत्यब्रुवं महाराज यत्तच्छृणु समाहितः / / 5 सदैव तु मया तस्य चित्तज्ञेन गृहे जनः / व्युष्टिं ब्राह्मणपूजायां रौक्मिणेय निबोध मे। सर्वाण्येवान्नपानानि भक्ष्याश्चोच्चावचास्तथा। एते हि सोमराजान ईश्वराः सुखदुःखयोः // 6 भवन्तु सत्कृतानीति पूर्वमेव प्रचोदितः // 20 अस्मिल्लोके रौक्मिणेय तथामुष्मिश्च पुत्रक / ततोऽहं ज्वलमानं वै पायसं प्रत्यवेदयम् / ब्राह्मणप्रमुखं सौख्यं न मेऽत्रास्ति विचारणा / / 7 तद्भुक्त्वैव तु स क्षिप्रं ततो वचनमब्रवीत् / ब्राह्मणप्रमुखं वीर्यमायुः कीर्तिर्यशो बलम् / क्षिप्रमङ्गानि लिम्बस्व पायसेनेति स स्म ह // 21 लोका लोकेश्वराश्चैव सर्वे ब्राह्मणपूर्वकाः / / 8 अविमृश्यैव च ततः कृतवानस्मि तत्तथा / तत्कथं नाद्रियेयं वै ईश्वरोऽस्मीति पुत्रक। तेनोच्छिष्टन गात्राणि शिरश्चैवाभ्यमृक्षयम् // 22 -2736 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 144. 23 ] अनुशासनपर्व [ 13. 144. 51 स ददर्श तदाभ्याशे मातरं ते शुभाननाम्। यत्ते भिन्नं च दग्धं च यच्च किंचिद्विनाशितम् / तामपि स्मयमानः स पायसेनाभ्यलेपयत् // 23 सर्व तथैव द्रष्टासि विशिष्टं वा जनार्दन // 37 मुनिः पायसदिग्धाङ्गी रथे तूर्णमयोजयत्। तावदेतत्प्रलिप्तं ते गात्रेषु मधुसूदन / तमारुह्य रथं चैव निर्ययौ स गृहान्मम / / 24 अतो मृत्युभयं नास्ति यावदिच्छा तवाच्युत // 38 अग्निवर्णो ज्वलन्धीमान्स द्विजो रथधुर्यवत् / / न तु पादतले लिप्ते कस्मात्ते पुत्रकाद्य वै / प्रतोदेनातुदद्वालां रुक्मिणी मम पश्यतः // 25 नैतन्मे प्रियमित्येव स मां प्रीतोऽब्रवीत्तदा / न च मे स्तोकमप्यासीदुःखमीर्ष्याकृतं तदा / इत्युक्तोऽहं शरीरं स्वमपश्यं श्रीसमायुतम् // 39 ततः स राजमार्गेण महता निर्ययौ बहिः / / 26 रुक्मिणी चाब्रवीत्प्रीतः सर्वस्त्रीणां वरं यशः / तदृष्ट्वा महदाश्चयं दाशार्हा जातमन्यवः / कीर्तिं चानुत्तमां लोके समवाप्स्यसि शोभने // 40 तत्राजल्पन्मिथः केचित्समाभाष्य परस्परम् // 27 न त्वां जरा वा रोगो वा वैवयं चापि भामिनि / ब्राह्मणा एव जायेरन्नान्यो वर्णः कथंचन। स्प्रक्ष्यन्ति पुण्यगन्धा च कृष्णमाराधयिष्यसि॥४१ को ह्येनं रथमास्थाय जीवेदन्यः पुमानिह / / 28 / / षोडशानां सहस्राणां वधूनां केशवस्य ह / आशीविषविषं तीक्ष्णं ततस्तीक्ष्णतरं विषम् / वरिष्ठा सहलोक्या च केशवस्य भविष्यसि // 42 ब्रह्माशीविषदग्धस्य नास्ति कश्चिच्चिकित्सकः // 29 तव मातरमित्युक्त्वा ततो मां पुनरब्रवीत् / तस्मिन्व्रजति दुर्धर्षे प्रास्खलद्रुक्मिणी पथि / प्रस्थितः सुमहातेजा दुर्वासा वह्निवज्ज्वलन् // 43 तां नामर्षयत श्रीमांस्ततस्तूर्णमचोदयत् / / 30 एषैव ते बुद्धिरस्तु ब्राह्मणान्प्रति केशव / ततः परमसंक्रुद्धो रथात्प्रस्कन्द्य स द्विजः / इत्युक्त्वा स तदा पुत्र तत्रैवान्तरधीयत // 44 पदातिरुत्पथेनैव प्राधावदक्षिणामुखः // 31 तस्मिन्नन्तर्हिते चाहमुपांशुव्रतमादिशम् / तमुत्पथेन धावन्तमन्वधावं द्विजोत्तमम् / यत्किचिद्भाह्मणो ब्रूयात्सवं कुर्यामिति प्रभो // 45 तथैव पायसादिग्धः प्रसीद भगवन्निति // 32 एतद्रुतमहं कृत्वा मात्रा ते सह पुत्रक / ततो विलोक्य तेजस्वी ब्राह्मणो मामुवाच ह / ततः परमहृष्टात्मा प्राविशं गृहमेव च // 46 जितः क्रोधस्त्वया कृष्ण प्रकृत्यैव महाभुज // 33 प्रविष्टमात्रश्च गृहे सर्व पश्यामि तन्नवम् / न तेऽपराधमिह वै दृष्टवानस्मि सुव्रत / यद्भिन्नं यच्च वै दग्धं तेन विप्रेण पुत्रक // 47 प्रीतोऽस्मि तव गोविन्द वृणु कामान्यथेप्सितान् / ततोऽहं विस्मयं प्राप्तः सर्व दृष्ट्वा नवं दृढम् / प्रसन्नस्य च मे तात पश्य व्युष्टिर्यथाविधा // 34 अपूजयं च मनसा रौक्मिणेय द्विजं तदा // 48 यावदेव मनुष्याणामन्ने भावो भविष्यति / इत्यहं रौक्मिणेयस्य पृच्छतो भरतर्षभ / यथैवान्ने तथा तेषां त्वयि भावो भविष्यति // 35 माहात्म्यं द्विजमुख्यस्य सर्वमाख्यातवांस्तदा // 49 यावच्च पुण्या लोकेषु त्वयि कीर्तिभविष्यति / तथा त्वमपि कौन्तेय ब्राह्मणान्सततं प्रभो। त्रिषु लोकेषु तावच्च वैशिष्ट्यं प्रतिपत्स्यसे / पूजयस्व महाभागान्वाग्भिर्दानैश्च नित्यदा // 50 सुप्रियः सर्वलोकस्य भविष्यसि जनार्दन // 36 / एवं व्युष्टिमहं प्राप्तो ब्राह्मणानां प्रसादजाम् / म. भा. 33 -2737 - Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 144. 51] महाभारते [ 18. 145. 38 यच्च मामाह भीष्मोऽयं तत्सत्यं भरतर्षभ / / 51 ते न शर्म कुतः शान्ति विषादं लेभिरे सुराः / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि विद्रुते सहसा यज्ञे कुपिते च महेश्वरे // 12 चतुश्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 144 // तेन ज्यातलघोषेण सर्वे लोकाः समाकुलाः / बभूवुरवशाः पार्थ विषेदुश्च सुरासुराः // 1 // युधिष्ठिर उवाच / आपश्चक्षुभिरे चैव चकम्पे च वसुंधरा।.. दुर्वाससः प्रसादात्ते यत्तदा मधुसूदन / व्यद्रवन्गिरयश्चापि द्यौः पफाल च सर्वशः // 14 अवाप्तमिह विज्ञानं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि // 1 अन्धेन तमसा लोकाः प्रावृता न चकाशिरे। महाभाग्यं च यत्तस्य नामानि च महात्मनः / प्रनष्टा ज्योतिषां भाश्च सह सूर्येण भारत // 15 तत्त्वतो ज्ञातुमिच्छामि सर्वं मतिमतां वर // 2 भृशं भीतास्ततः शान्ति चक्रुः स्वस्त्ययनानि च / वासुदेव उवाच / ऋषयः सर्वभूतानामात्मनश्च हितैषिणः // 16 हन्त ते कथयिष्यामि नमस्कृत्वा कपर्दिने / ततः सोऽभ्यद्रवद्देवान्क्रुद्धो रौद्रपराक्रमः / यदवाप्तं महाराज श्रेयो यच्चार्जितं यशः // 3 भगस्य नयने क्रद्धः प्रहारेण व्यशातयत् // 17 प्रयतः प्रातरुत्थाय यदधीये विशां पते। पूषाणं चाभिदुद्राव परेण वपुषान्वितः / प्राञ्जलिः शतरुद्रीयं तन्मे निगदतः शृण // 4 पुरोडाशं भक्षयतो दशनान्वै व्यशातयत् // 18 प्रजापतिस्तत्ससृजे तपसोऽन्ते महातपाः / ततः प्रणेमुर्देवास्ते वेपमानाः स्म शंकरम् / शंकरस्त्वसृजत्तात प्रजाः स्थावरजङ्गमाः / / 5 पुनश्च संदधे रुद्रो दीप्तं सुनिशितं शरम् // 19 नास्ति किंचित्परं भूतं महादेवाद्विशां पते। रुद्रस्य विक्रमं दृष्ट्वा भीता देवाः सहर्षिभिः / इह त्रिष्वपि लोकेषु भूतानां प्रभवो हि सः // 6 ततः प्रसादयामासुः शर्वं ते विबुधोत्तमाः // 20 न चैवोत्सहते स्थातुं कश्चिदने महात्मनः।। जेपुश्च शतरुद्रीयं देवाः कृत्वाञ्जलिं ततः / न हि भूतं समं तेन त्रिषु लोकेषु विद्यते // 7 संस्तूयमानस्त्रिदशैः प्रससाद महेश्वरः / / 21 गन्धेनापि हि संग्रामे तस्य क्रुद्धस्य शत्रवः / रुद्रस्य भागं यज्ञे च विशिष्टं ते त्वकल्पयन् / विसंज्ञा हतभूयिष्ठा वेपन्ति च पतन्ति च // 8 भयेन त्रिदशा राजशरणं च प्रपेदिरे // 22 घोरं च निनदं तस्य पर्जन्यनिनदोपमम् / तेन चैवातिकोपेन स यज्ञः संधितोऽभवत् / श्रुत्वा विदीर्येद्धृदयं देवानामपि संयुगे // 9 यद्यच्चापि हतं तत्र तत्तथैव प्रदीयते // 23 यांश्च घोरेण रूपेण पश्येत्क्रुद्धः पिनाकधृक् / असुराणां पुराण्यासंस्त्रीणि वीर्यवतां दिवि / न सुरा नासुरा लोके न गन्धर्वा न पन्नगाः / आयसं राजतं चैव सौवर्णमपरं तथा // 24 कुपिते सुखमेधन्ते तस्मिन्नपि गुहागताः // 10 नाशकत्तानि मघवा भेत्तुं सर्वायुधैरपि / प्रजापतेश्च दक्षस्य यजतो वितते ऋतौ / अथ सर्वेऽमरा रुद्रं जग्मुः शरणमर्दिताः // 25 विव्याध कुपितो यज्ञं निर्भयस्तु भवस्तदा / तत ऊचुर्महात्मानो देवाः सर्वे समागताः / धनुषा बाणमुत्सृज्य सघोषं विननाद च // 11 / रुद्र रौद्रा भविष्यन्ति पशवः सर्वकर्मसु / -2738 - Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. 145.26) अनुशासनपर्व [13. 146. 12 जहि दैत्यान्सह पुरैर्लोकांस्त्रायस्व मानद // 26 | शतधा सहस्रधा चैव तथा शतसहस्रधा // 40 स तथोक्तस्तथेत्युक्त्वा विष्णुं कृत्वा शरोत्तमम् / ईदृशः स महादेवो भूयश्च भगवानतः / शल्यमग्निं तथा कृत्वा पुचं वैवस्वतं यमम् / न हि शक्या गुणा वक्तुमपि वर्षशतैरपि // 41 वेदान्कृत्वा धनुः सर्वायां च सावित्रिमुत्तमाम् // इति श्रीमहाभारते भनुशासनपर्वणि देवान्रथवरं कृत्वा विनियुज्य च सर्वशः / पञ्चचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 15 // त्रिपर्वणा त्रिशल्येन तेन तानि बिभेद सः // 28 शरेणादित्यवर्णेन कालाग्निसमतेजसा। वासुदेव उवाच / तेऽसुराः सपुरास्तत्र दग्धा रुद्रेण भारत // 29 युधिष्ठिर महाबाहो महाभाग्यं महात्मनः / तं चैवाङ्कगतं दृष्ट्वा बालं पञ्चशिखं पुनः / ' रुद्राय बहुरूपाय बहुनाम्ने निबोध मे // 1 उमा जिज्ञासमाना वै कोऽयमित्यब्रवीत्तदा // 30 वदन्त्यग्निं महादेवं तथा स्थाणुं महेश्वरम् / असूयतश्च शक्रस्य वज्रेण प्रहरिष्यतः। एकाक्षं त्र्यम्बकं चैव विश्वरूपं शिवं तथा // 2 सवनं स्तम्भयामास तं बाहुं परिघोपमम् // 31 द्वे तनू तस्य देवस्य वेदज्ञा ब्राह्मणा विदुः / न संबुबुधिरे चैनं देवास्तं भुवनेश्वरम् / घोरामन्यां शिवामन्यां ते तनू बहुधा पुनः // 3 सप्रजापतयः सर्वे तस्मिन्मुमुहुरीश्वरे // 32 / उग्रा घोरा तनूर्यास्य सोऽग्निर्विद्युत्स भास्करः / ततो ध्यात्वाथ भगवान्ब्रह्मा तममितौजसम् / शिवा सौम्या च या तस्य धर्मस्त्वापोऽथ चन्द्रमाः॥ अयं श्रेष्ठ इति ज्ञात्वा ववन्दे तमुमापतिम् // 33 आत्मनोऽधं तु तस्याग्निरुच्यते भरतर्षभ / ततः प्रसादयामासुरुमां रुद्रं च ते सुराः। ब्रह्मचर्य चरत्येष शिवा यास्य तनुस्तथा // 5 बभूव स तदा बाहुर्बलहन्तुर्यथा पुरा // 34 / / यास्य घोरतमा मूर्तिर्जगत्संहरते तया। स चापि ब्राह्मणो भूत्वा दुर्वासा नाम वीर्यवान् / ईश्वरत्वान्महत्त्वाच्च महेश्वर इति स्मृतः॥ 6 द्वारवत्यां मम गृहे चिरं कालमुपावसत् // 35 यन्निर्दहति यत्तीक्ष्णो यदुनो यत्प्रतापवान् / विप्रकारान्प्रयुङ्क्ते स्म सुबहून्मम वेश्मनि / मांसशोणितमज्जादो यत्ततो रुद्र उच्यते // 7 तानुदारतया चाहमक्षमं तस्य दुःसहम् // 36 देवानां सुमहान्यच्च यच्चास्य विषयो महान् / स देवेन्द्रश्च वायुश्च सोऽश्विनौ स च विद्युतः / यच्च विश्वं महत्पाति महादेवस्ततः स्मृतः // 8 स चन्द्रमाः स चेशानः स सर्यो वरुणश्च सः // समेधयति यन्नित्यं सर्वार्थान्सर्वकर्मभिः। स कालः सोऽन्तको मृत्युः स तमो राज्यहानि च / शिवमिच्छन्मनुष्याणां तस्मादेष शिवः स्मृतः // 9 मासार्धमासा ऋतवः संध्ये संवत्सरश्च सः // 38 दहत्यूचं स्थितो यच्च प्राणोत्पत्तिः स्थितिश्च यत् / स धाता स विधाता च विश्वकर्मा च सर्ववित् / स्थिरलिङ्गश्च यन्नित्यं तस्मात्स्थाणुरिति स्मृतः॥१० नक्षत्राणि दिशश्चैव प्रदिशोऽथ ग्रहास्तथा। यदस्य बहुधा रूपं भूतं भव्यं भवत्तथा / विश्वमूर्तिरमेयात्मा भगवानमितद्युतिः // 39 स्थावरं जङ्गमं चैव बहुरूपस्ततः स्मृतः // 11 एकधा च द्विधा चैव बहुधा च स एव च / धूम्र रूपं च यत्तस्य धूर्जटीत्यत उच्यते / -2739 - Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 146. 12] महाभारते [ 13. 147.8 विश्व देवाश्च यत्तस्मिन्विश्वरूपस्ततः स्मृतः // 12 शक्रादिषु च देवेषु तस्य चैश्वर्यमुच्यते // 27 सहस्राक्षोऽयुताक्षो वा सर्वतोक्षिमयोऽपि वा। स एवाभ्यधिको नित्यं त्रैलोक्यस्य शुभाशुभे। चक्षुषः प्रभवस्तेजो नास्त्यन्तोऽथास्य चक्षुषाम् // ऐश्वर्याञ्चैव कामानामीश्वरः पुनरुच्यते // 28 सर्वथा यत्पशून्पाति तैश्च यद्रमते पुनः / महेश्वरश्च लोकानां महतामीश्वरश्च सः / तेषामधिपतिर्यच्च तस्मात्पशुपतिः स्मृतः // 14 बहुभिर्विविधै रूपैर्विश्वं व्याप्तमिदं जगत् / नित्येन ब्रह्मचर्येण लिङ्गमस्य यदा स्थितम् / तस्य देवस्य यद्वक्त्रं समुद्रे वडवामुखम् // 29 महयन्त्यस्य लोकाश्च महेश्वर इति स्मृतः // 15 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि विप्रहं पूजयेद्यो वै लिङ्गं वापि महात्मनः / षट्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 146 // लिङ्गं पूजयिता नित्यं महतीं श्रियमभुते // 16 ऋषयश्चापि देवाश्च गन्धर्वाप्सरसस्तथा / वैशंपायन उवाच / लिङ्गमेवार्चयन्ति स्म यत्तदूर्व समास्थितम् // 17 इत्युक्तवति वाक्यं तु कृष्णे देवकिनन्दने / पूज्यमाने ततस्तस्मिन्मोदते स महेश्वरः / भीष्मं शांतनवं भूयः पर्यपृच्छद्युधिष्ठिरः / / 1 सुखं ददाति प्रीतात्मा भक्तानां भक्तवत्सलः // 18 निर्णये वा महाबुद्धे सर्वधर्मभृतां वर / एष एव श्मशानेषु देवो वसति नित्यशः / प्रत्यक्षमागमो वेति किं तयोः कारणं भवेत् // 2 यजन्ते तं जनास्तत्र वीरस्थाननिषेविणम् // 19 भीष्म उवाच / विषमस्थः शरीरेषु स मृत्युः प्राणिनामिह / नास्त्यत्र संशयः कश्चिदिति मे वर्तते मतिः / स च वायुः शरीरेषु प्राणोऽपानः शरीरिणाम् / / शृणु वक्ष्यामि ते प्राज्ञ. सम्यक्त्वमनुपृच्छसि / तस्य घोराणि रूपाणि दीप्तानि च बहूनि च / संशयः सुगमो राजनिर्णयस्त्वत्र दुर्गमः / लोके यान्यस्य पूज्यन्ते विप्रास्तानि विदुर्बुधाः॥२१ दृष्टं श्रुतमनन्तं हि यत्र संशयदर्शनम् // 4 नामधेयानि वेदेषु बहून्यस्य यथार्थतः / प्रत्यक्षं कारणं दृष्टं हेतुकाः प्राज्ञमानिनः / निरुच्यन्ते महत्त्वाच्च विभुत्वात्कर्मभिस्तथा // 22 नास्तीत्येवं व्यवस्यन्ति सत्यं संशयमेव च / वेदे चास्य विदुर्विप्राः शतरुद्रीयमुत्तमम् / तदयुक्तं व्यवस्यन्ति बालाः पण्डितमानिनः / / 5 व्यासादनन्तरं यच्चाप्युपस्थानं महात्मनः // 23 अथ चेन्मन्यसे चैकं कारणं किं भवेदिति / प्रदाता सर्वलोकानां विश्वं चाप्युच्यते महत् / शक्यं दीपेण कालेन युक्तेनातन्द्रितेन च / ज्येष्ठभूतं वदन्त्येनं ब्राह्मणा ऋषयोऽपरे // 24 प्राणयात्रामनेकां च कल्पयानेन भारत / / 6 प्रथमो ह्येष देवानां मुखादग्निरजायत। तत्परेणैव नान्येन शक्यं ह्येतत्तु कारणम् / प्रहैर्बहुविधैः प्राणान्संरुद्धानुत्सृजत्यपि // 25 हेतूनामन्तमासाद्य विपुलं ज्ञानमुत्तमम् / स मोचयति पुण्यात्मा शरण्यः शरणागतान् / ज्योतिः सर्वस्य लोकस्य विपुलं प्रतिपद्यते // 7 आयुरारोग्यमैश्वयं वित्तं कामांश्च पुष्कलान् // 26 तत्त्वेनागमनं राजन्हेत्वन्तगमनं तथा / स ददाति मनुष्येभ्यः स एवाक्षिपते पुनः। / अग्राह्यमनिबद्धं च वाचः संपरिवर्जनम् // 8 -740 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 147. 9] अनुशासनपर्व [ 13. 148.7 युधिष्ठिर उवाच। अन्धो जड इवाशङ्को यद्भवीमि तदाचर // 21 प्रत्यक्षं लोकतः सिद्धं लोकाश्चागमपूर्वकाः / अहिंसा सत्यमक्रोधो दानमेतञ्चतुष्टयम् / शिष्टाचारो बहुविधो ब्रूहि तन्मे पितामह // 9 अजातशत्रो सेवस्व धर्म एष सनातनः // 22 भीष्म उवाच / ब्राह्मणेषु च वृत्तिर्या पितृपैतामहोचिता / तामन्वेहि महाबाहो स्वर्गस्यैते हि देशिकाः // 23 धर्मस्य ह्रियमाणस्य बलवद्भिर्दुरात्मभिः / प्रमाणमप्रमाणं वै यः कुर्यादबुधो नरः / संस्था यत्नैरपि कृता कालेन परिभिद्यते // 10 न स प्रमाणतामों विवादजननो हि सः // 24 अधर्मा धर्मरूपेण तृणैः कूपा इवावृताः / / ब्राह्मणानेव सेवस्व सत्कृत्य बहुमन्य च / ततस्तैर्भिद्यते वृत्तं शृणु चैव युधिष्ठिर // 11 एतेष्वेव त्विमे लोकाः कृत्स्ना इति निबोध तान् // अवृत्त्या ये च भिन्दन्ति श्रुतत्यागपरायणाः / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि धर्मविद्वेषिणो मन्दा इत्युक्तस्तेषु संशयः // 12 सप्तचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः // 147 // अतृप्यन्तस्तु साधूनां य एवागमबुद्धयः / 148 परमित्येव संतुष्टास्तानुपास्स्व च पृच्छ च // 13 युधिष्ठिर उवाच। कामार्थी पृष्ठतः कृत्वा लोभमोहानुसारिणौ / ये च धर्ममसूयन्ति ये चैनं पर्युपासते / धर्म इत्येव संबुद्धास्तानुपास्स्व च पृच्छ च // 14 ब्रवीतु भगवानेतत्व ते गच्छन्ति तादृशाः // 1 न तेषां भिद्यते वृत्तं यज्ञस्वाध्यायकर्मभिः / आचारः कारणं चैव धर्मश्चैव त्रयं पुनः // 15 . भीष्म उवाच / युधिष्ठिर उवाच / रजसा तमसा चैव समवस्तीर्णचेतसः / पुनरेवेह मे बुद्धिः संशये परिमुह्यते / नरकं प्रतिपद्यन्ते धर्मविद्वेषिणो नराः // 2 अपारे मार्गमाणस्य परं तीरमपश्यतः // 16 ये तु धर्म महाराज सततं पर्युपासते। वेदाः प्रत्यक्षमाचारः प्रमाणं तत्रयं यदि। सत्यार्जवपराः सन्तस्ते वै स्वर्गभुजो नराः // 3 पृथक्त्वं लभ्यते चैषां धर्मश्चैकस्त्रयं कथम् // 17 धर्म एव रतिस्तेषामाचार्योपासनाद्भवेत् / भीष्म उवाच / देवलोकं प्रपद्यन्ते ये धर्म पर्युपासते // 4 धर्मस्य ह्रियमाणस्य बलवद्भिर्दुरात्मभिः / मनुष्या यदि वा देवाः शरीरमुपताप्य वै / यद्येवं मन्यसे राजंस्त्रिधा धर्मविचारणा / / 18 धर्मिणः सुखमेधन्ते लोभद्वेषविवर्जिताः // 5 प्रथमं ब्रह्मणः पुत्रं धर्ममाहुर्मनीषिणः / / एक एवेति जानीहि त्रिधा तस्य प्रदर्शनम।। धर्मिणः पर्युपासन्ते फलं पक्कमिवाशयः // 6 पृथक्त्वे चैव मे बुद्धिस्त्रयाणामपि वै तथा // 19 उक्तो मार्गस्त्रयाणां च तत्तथैव समाचर / युधिष्ठिर उवाच। जिज्ञासा तु न कर्तव्या धर्मस्य परितर्कणात् // 20 असतां कीदृशं रूपं साधवः किं च कुर्वते / सदैव भरतश्रेष्ठ मा ते भूदत्र संशयः / / ब्रवीतु मे भवानेतत्सन्तोऽसन्तश्च कीदृशाः / / -2741 - Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 148. 8] महाभारते [ 13. 148. 38 भीष्म उवाच / तीर्थानां गुरवस्तीर्थं शुचीनां हृदयं शुचि। / दुराचाराश्च दुर्धर्षा दुर्मुखाश्चाप्यसाधवः / दर्शनानां परं ज्ञानं संतोषः परमं सुखम् // 22. साधवः शीलसंपन्नाः शिष्टाचारस्य लक्षणम् // 8 सायं प्रातश्च वृद्धानां शृणुयात्पुष्कला गिरः / राजमार्गे गवां मध्ये गोष्ठमध्ये च धर्मिणः / श्रुतमाप्नोति हि नरः सततं वृद्धसेवया // 23 नोपसेवन्ति राजेन्द्र सर्ग मूत्रपुरीषयोः // 9 / स्वाध्याये भोजने चैव दक्षिणं पाणिमुद्धरेत् / पश्चानामशनं दत्त्वा शेषमश्नन्ति साधवः / यच्छेद्वाङ्मनसी नित्यमिन्द्रियाणां च विभ्रमम् // न जल्पन्ति च भुञ्जाना न निद्रान्त्यापाणयः॥१० संस्कृतं पायसं नित्यं यवागू कृसरं हविः / चित्रभानुमनड्वाहं देवं गोष्ठं चतुष्पथम् / अष्टकाः पितृदेवत्या वृद्धानामभिपूजनम् // 25 ब्राह्मणं धार्मिकं चैत्यं ते कुर्वन्ति प्रदक्षिणम् // 11 श्मश्रुकर्मणि मङ्गल्यं क्षुतानामभिनन्दनम् / वृद्धानां भारतप्तानां स्त्रीणां बालातुरस्य च / व्याधितानां च सर्वेषामायुषः प्रतिनन्दनम् // 26 ब्राह्मणानां गवां राज्ञां पन्थानं ददते च ते / / 12 न जातु त्वमिति ब्रूयादापन्नोऽपि महत्तरम् / अतिथीनां च सर्वेषां प्रेष्याणां स्वजनस्य च / त्वंकारो वा वधो वेति विद्वत्सु न विशिष्यते / तथा शरणकामानां गोप्ता स्यात्स्वागतप्रदः // 13 अवराणां समानानां शिष्याणां च समाचरेत् / / 27 सायं प्रातर्मनुष्याणामशनं देवनिर्मितम् / पापमाचक्षते नित्यं हृदयं पापकर्मिणाम् / / नान्तरा भोजनं दृष्टमुपवासविधिर्हि सः // 14 ज्ञानपूर्व विनश्यन्ति गृहमाना महाजने // 28 होमकाले यथा वह्निः कालमेव प्रतीक्षते। ज्ञानपूर्व कृतं कर्म च्छादयन्ते ह्यसाधवः / ऋतुकाले तथा नारी ऋतुमेव प्रतीक्षते / न मां मनुष्याः पश्यन्ति न मां पश्यन्ति देवताः। न चान्यां गच्छते यस्तु ब्रह्मचर्य हि तत्स्मृतम् // 15 पापेनाभिहतः पापः पापमेवाभिजायते // 29 अमृतं ब्राह्मणा गाव इत्येतत्रयमेकतः / यथा वाधुषिको वृद्धिं देहभेदे प्रतीक्षते / तस्माद्गोब्राह्मणं नित्यमर्चयेत यथाविधि // 16 धर्मेणापिहितं पापं धर्ममेवाभिवर्धयेत् // 30 यजुषा संस्कृतं मांसमुपभुञ्जन्न दुष्यति / यथा लवणमम्भोभिराप्लुतं प्रविलीयते / पृष्ठमांसं वृथामांसं पुत्रमांसं च तत्समम् // 17 प्रायश्चित्तहतं पापं तथा सद्यः प्रणश्यति // 31 स्वदेशे परदेशे वाप्यतिथिं नोपवासयेत् / तस्मात्पापं न गूहेत गृहमानं विवर्धते / कर्म वै सफलं कृत्वा गुरूणां प्रतिपादयेत् // 18 / कृत्वा तु साधुष्वाख्येयं ते तत्प्रशमयन्त्युत // 32 गुरुभ्य आसनं देयमभिवाद्याभिपूज्य च। आशया संचितं द्रव्यं यत्काले नोपभुज्यते / गुरूनभ्यर्च्य वर्धन्ते आयुषा यशसा श्रिया // 19 अन्ये चैतत्प्रपद्यन्ते वियोगे तस्य देहिनः // 33 वृद्धान्नातिवदेज्जातु न च संप्रेषयेदपि / मानसं सर्वभूतानां धर्ममाहुर्मनीषिणः / नासीनः स्यात्स्थितेष्वेवमायुरस्य न रिष्यते // 20 तस्मात्सर्वाणि भूतानि धर्ममेव समासते // 34 न नग्नामीक्षते नारी न विद्वान्पुरुषानपि / एक एव चरेद्धम न धर्मध्वजिको भवेत् / मैथुनं सततं गुप्तमाहारं च समाचरेत् // 21 - धर्मवाणिजका ह्येते ये धर्ममुपभुञ्जते // 35 -2742 - Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 148. 36] अनुशासनपर्व [13. 150.9 अर्चदेवानदम्भेन सेवेतामायया गुरून् / अहिंसया च दीर्घायुरिति प्राहुर्मनीषिणः // 11 निधिं निदध्यात्पारत्र्यं यात्रार्थ दानशब्दितम् // 36 तस्माद्दद्यान्न याचेत पूजयेद्धार्मिकानपि / इति श्रीमहाभारते भनुशासनपर्वणि स्वाभाषी प्रियकृच्छुद्धः सर्वसत्त्वाविहिंसकः // 12 अष्टचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः॥ 148 // यदा प्रमाणप्रभवः स्वभावश्च सुखासुखे। मशकीटपिपीलानां स्थिरो भव युधिष्ठिर // 13 युधिष्ठिर उवाच / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि नाभागधेयः प्राप्नोति धनं सुबलवानपि / एकोनपञ्चाशधिकशततमोऽध्यायः // 149 // 150 भागधेयान्वितस्त्वर्थान्कृशो बालश्च विन्दति // 1 भीष्म उवाच। नालाभकाले लभते प्रयत्नेऽपि कृते सति / लाभकालेऽप्रयत्नेन लभते विपुलं धनम्। कार्यते यच्च क्रियते सच्चासच्च कृतं ततः / तत्राश्वसीत सत्कृत्वा असत्कृत्वा न विश्वसेत् // 1 कृतयत्नाफलाश्चैव दृश्यन्ते शतशो नराः // 2 यदि यत्नो भवेन्मर्त्यः स सर्व फलमाप्नुयात् / काल एवात्र कालेन निग्रहानुग्रही ददत् / नालभ्यं चोपलभ्येत नृणां भरतसत्तम / 3 बुद्धिमाविश्य भूतानां धर्मार्थेषु प्रवर्तते // 2 यदा प्रयत्नं कृतवान्दृश्यते ह्यफलो नरः / यदा त्वस्य भवेद्बुद्धिर्धा चार्थप्रदर्शिनी / मार्गन्नयशतैरर्थानमार्गश्चापरः सुखी // 4 तदाश्वसीत धर्मात्मादृढबुद्धिर्न विश्वसेत् // 3 अकार्यमसकृत्कृत्वा दृश्यन्ते ह्यधना नराः / एतावन्मात्रमेतद्धि भूतानां प्राज्ञलक्षणम् / धनयुक्तास्त्वधर्मस्था दृश्यन्ते चापरे जनाः // 5 कालयुक्तोऽप्युभयविच्छेषमर्थ समाचरेत // 4 अधीत्य नीतिं यस्माञ्च नीतियुक्तो न दृश्यते / यथा ह्यपस्थितैश्वर्याः पूजयन्ते नरा नरान् / अनभिज्ञश्च साचिव्यं गमितः केन हेतुना / एवमेवात्मनात्मानं पूजयन्तीह धार्मिकाः // 5 न ह्यधर्मतया धर्म दद्यात्कालः कथंचन / विद्यायुक्तो ह्यविद्यश्च धनवान्दुर्गतस्तथा // 6 यदि विद्यामुपाश्रित्य नरः सुखमवाप्नुयात् / तस्माद्विशुद्धमात्मानं जानीयाद्धर्मचारिणम् // 6 न विद्वान्विद्यया हीनं वृत्त्यर्थमुपसंश्रयेत् // 7 स्प्रष्टुमप्यसमर्थो हि ज्वलन्तमिव पावकम् / यथा पिपासां जयति पुरुषः प्राप्य वै जलम् / अधर्मः सततो धर्म कालेन परिरक्षितम् / / 7 दृष्टार्थो विद्ययाप्येवमविद्यां प्रजहेन्नरः // 8 कार्यावेतौ हि कालेन धर्मो हि विजयावहः / त्रयाणामपि लोकानामालोककरणो भवेत् // 8 नाप्राप्तकालो म्रियते विद्धः शरशतैरपि / तृणाग्रेणापि संस्पृष्टः प्राप्तकालो न जीवति // 9 तत्र कश्चिन्नयेत्प्राज्ञो गृहीत्वैव करे नरम् / भीष्म उवाच / उह्यमानः स धर्मेण धर्मे बहुभयच्छले // 9 ईहमानः समारम्भान्यदि नासादयेद्धनम् / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः // 150 // उग्रं तपः समारोहेन ह्यनुप्तं प्ररोहति // 10 दानेन भोगी भवति मेधावी वृद्धसेवया / -2743 - Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 151. 1 ] महाभारते [ 13. 151. 22 151 सिन्धुश्च देविका चैव पुष्करं तीर्थमेव च // 1 // युधिष्ठिर उवाच / गङ्गा महानदी चैव कपिला नर्मदा तथा। किं श्रेयः पुरुषस्येह किं कुर्वन्सुखमेधते / कम्पुना च विशल्या च करतोयाम्बुवाहिनी // 11 विपाप्मा च भवेत्केन किं वा कल्मषनाशनम् // 1 सरयूगण्डकी चैव लोहित्यश्च महानदः। भीष्म उवाच / ताम्रारुणा वेत्रवती पर्णाशा गौतमी तथा // 16 अयं दैवतवंशो वै ऋषिवंशसमन्वितः / गोदावरी च वेण्णा च कृष्णवेणा तथाद्रिजा / द्विसंध्यं पठितः पुत्र कल्मषापहरः परः // 2 दृषद्वती च कावेरी वंक्षुर्मन्दाकिनी तथा // 17 देवासुरगुरुर्देवः सर्वभूतनमस्कृतः / / प्रयागं च प्रभासं च पुण्यं नैमिषमेव च / अचिन्त्योऽथाप्यनिर्देश्यः सर्वप्राणो ह्ययोनिजः // 3 तच्च विश्वेश्वरस्थानं यत्र तद्विमलं सरः // 18 पितामहो जगन्नाथः सावित्री ब्रह्मणः सती। पुण्यतीथैश्च कलिलं कुरुक्षेत्रं प्रकीर्तितम् / वेदभूरथ कर्ता च विष्णुर्नारायणः प्रभुः // 4 सिन्धूत्तमं तपोदानं जम्बूमार्गमथापि च // 19 उमापतिर्विरूपाक्षः स्कन्दः सेनापतिस्तथा। हिरण्वती वितस्ता च तथैवेक्षुमती नदी। विशाखो हुतभुग्वायुश्चन्द्रादित्यौ प्रभाकरौ // 5 वेदस्मृतिर्वैदसिनी मलवासाश्च नद्यपि // 20 शक्रः शचीपतिर्देवो यमो धूमोर्णया सह / भूमिभागास्तथा पुण्या गङ्गाद्वारमथापि च / वरुणः सह गौर्या च सह ऋद्ध्या धनेश्वरः // 6 ऋषिकुल्यास्तथा मेध्या नदी चित्रपथा तथा // 2 // सौम्या गौः सुरभिर्देवी विश्रवाश्च महानृषिः / कौशिकी यमुना सीता तथा चर्मण्वती नदी / षट्कालः सांगरो गङ्गा स्रवन्त्योऽथ मरुद्गणाः / / 7 नदी भीमरथी चैव बाहुदा च महानदी / वालखिल्यास्तपःसिद्धाः कृष्णद्वैपायनस्तथा / महेन्द्रवाणी त्रिदिवा नीलिका च सरस्वती // 2H नारदः पर्वतश्चैव विश्वावसुर्हहाहुहूः / / 8 नन्दा चापरनन्दा च तथा तीर्थ महाह्रदम् / तुम्बरश्चित्रसेनश्च देवदूतश्च विश्रुतः / गयाथ फल्गुतीथं च धर्मारण्यं सुरैर्वृतम् / / 23 देवकन्या महाभागा दिव्याश्चाप्सरसां गणाः // 9 तथा देवनदी पुण्या सरश्च ब्रह्मनिर्मितम् / उर्वशी मेनका रम्भा मिश्रकेशी अलम्बुषा। पुण्यं त्रिलोकविख्यातं सर्वपापहरं शिवम् / / 24 विश्वाची च घृताची च पश्चचूडा तिलोत्तमा / / 10 हिमवान्पर्वतश्चैव दिव्यौषधिसमन्वितः / आदित्या वसवो रुद्राः साश्विनः पितरोऽपि च। विन्ध्यो धातुविचित्राङ्गस्तीर्थवानौपधान्वितः // 2 धर्मः सत्यं तपो दीक्षा व्यवसायः पितामहः॥११ मेरुर्महेन्द्रो मलयः श्वेतश्च रजताचितः / शर्यो दिवसाश्चैव मारीचः कश्यपस्तथा / शृङ्गवान्मन्दरो नीलो निषधो दर्दुरस्तथा // 26 शुक्रो बृहस्पति मो बुधो राहुः शनैश्चरः // 12 / चित्रकूटोऽञ्जनाभश्च पर्वतो गन्धमादनः / नक्षत्राण्यतवश्चैव मासाः संध्याः सवत्सराः / पुण्यः सोमगिरिश्चैव तथैवान्ये महीधराः / वैनतेयाः समुद्राश्च कद्रुजाः पन्नगास्तथा / / 13 दिशश्च विदिशश्चैव क्षितिः सर्वे महीरुहाः // 2 // शतश्च विपाशा च चन्द्रभागा सरस्वती। विश्वेदेवा नभश्चैव नक्षत्राणि ग्रहास्तथा / -2744 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 151. 28 ] अनुशासनपर्व [ 13. 152. 3 पान्तु वः सततं देवा कीर्तिताकीर्तिता मया // 28 | कृशाश्वो यौवनाश्वश्व चित्राश्वः सत्यवांस्तथा / कीर्तयानो नरो ह्येतान्मुच्यते सर्वकिल्बिशैः / दुःषन्तो भरतश्चैव चक्रवर्ती महायशाः // 42 स्तुवंश्च प्रतिनन्दंश्च मुच्यते सर्वतो भयात् / यवनो जनकश्चैव तथा दृढरथो नृपः / सर्वसंकरपापेभ्यो देवतास्तवनन्दकः // 29 रघुनरवरश्चैव तथा दशरथो नृपः // 43 देवतानन्तरं विप्रांस्तपःसिद्धास्तपोधिकान् / रामो राक्षसहा वीरः शशबिन्दुर्भगीरथः / कीर्तितान्कीर्तयिष्यामि सर्वपापप्रमोचनान् // 30 हरिश्चन्द्रो मरुत्तश्च जगुर्जाह्रविसेविता / / 44 यवक्रीतोऽथ रैभ्यश्च कक्षीवानौशिजस्तथा। महोदयो डलर्कश्च ऐलश्चैव नराधिपः / भृग्वङ्गिरास्तथा कण्वो मेधातिथिरथ प्रभुः / करंधमो नरश्रेष्ठः कध्मोरश्च नराधिपः // 45 बीं च गुणसंपन्नः प्राची दिशमुपाश्रिताः // 31 दक्षोऽम्बरीषः कुकुरो रवतश्च महायशाः / भद्रां दिशं महाभागा उल्मुचुः प्रमुचुस्तथा / मुचुकुन्दश्च राजर्षिमित्रभानुः प्रियंकरः॥ 46 मुमुचुश्च महाभागः स्वस्त्यात्रेयश्च वीर्यवान् // 32 त्रसदस्युस्तथा राजा श्वेतो राजर्षिसत्तमः / मित्रावरुणयोः पुत्रस्तथागस्त्यः प्रतापवान् / महाभिषश्च विख्यातो निमिराजस्तथाष्टकः // 47 दृढायुश्चोर्ध्वबाहुश्च विश्रुतावृषिसत्तमौ // 33 आयुः क्षुपश्च राजर्षिः कक्षेयुश्च नराधिपः / पश्चिमां दिशमाश्रित्य य एधन्ते निबोध तान / शिबिरौशीनरश्चैव गयश्चैव नराधिपः // 48 उषद्गुः सह सोदर्यैः परिव्याधश्च वीर्यवान् // 34 प्रतर्दनो दिवोदासः सौदासः कोसलेश्वरः / ऋषिर्दीर्घतमाश्चैव गौतमः कश्यपस्तथा / ऐलो नलश्च राजर्षिर्मनुश्चैव प्रजापतिः // 49 एकतश्च द्वितश्चैव त्रितश्चैव महर्षयः / हविध्रश्च पृषध्रश्च प्रतीपः शंतनुस्तथा। अत्रेः पुत्रश्च धर्मात्मा तथा सारस्वतः प्रभुः // 35 कक्षसेनश्च राजर्षिर्ये चान्ये नानुकीर्तिताः // 50 उत्तरां दिशमाश्रित्य य एधन्ते निबोध तान् / मा विघ्नं मा च मे पापं मा च मे परिपन्थिनः / अत्रिर्वसिष्ठः शक्तिश्च पाराशर्यश्च वीर्यवान् // 36 ध्रुवो जयो मे नित्यं स्यात्परत्र च परा गतिः // 51 विश्वामित्रो भरद्वाजो जमदग्निस्तथैव च / इति श्रीमहाभारते अनुशासनतपर्वणि ऋचीकपौत्रो रामश्च ऋषिरौद्दालकिस्तथा // 37 एकपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः // 151 // श्वेतकेतुः कोहलश्च विपुलो देवलस्तथा / 152 देवशर्मा च धौम्यश्च हस्तिकाश्यप एव च // 38 वैशंपायन उवाच / लोमशो नाचिकेतश्च लोमहर्षण एव च / तूष्णीभूते तदा भीष्मे पटे चित्रमिवार्पितम् / ऋषिरुग्रश्रवाश्चैव भार्गवश्यवनस्तथा // 39 मुहूर्तमिव च ध्यात्वा व्यासः सत्यवतीसुतः / एष वै समवायस्ते ऋषिदेवसमन्वितः / नृपं शयानं गाङ्गेयमिदमाह वचस्तदा // 1 आद्यः प्रकीर्तितो राजन्सर्वपापप्रमोचनः // 40 / राजन्प्रकृतिमापन्नः कुरुराजो युधिष्ठिरः / नृगो ययातिनहुषो यदुः पूरुश्च वीर्यवान् / सहितो भ्रातृभिः सर्वैः पार्थिवैश्वानुयायिभिः // 2 धुन्धुमारो दिलीपश्च सगरश्च प्रतापवान् // 41 उपास्ते त्वां नरव्याघ्र सह कृष्णेन धीमता / म.भा.३४४ - 2745 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 152. 3] महाभारते [ 13. 153. 17 तमिमं पुरयानाय त्वमनुज्ञातुमहसि // 3 सोऽभिषिक्तो महाप्राज्ञः प्राप्य राज्यं युधिष्ठिरः / एवमुक्तो भगवता व्यासेन पृथिवीपतिः / अवस्थाप्य नरश्रेष्ठः सर्वाः स्वप्रकृतीस्तदा // 3 युधिष्ठिरं सहामात्यमनुजज्ञे नदीसुतः // 4 द्विजेभ्यो बलमुख्येभ्यो नैगमेभ्यश्च सर्वशः / उवाच चैनं मधुरं ततः शांतनवो नृपः / प्रतिगृह्याशिषो मुख्यास्तदा धर्मभृतां वरः // 4 प्रविशस्व पुरं राजन्व्येतु ते मानसो ज्वरः // 5 उषित्वा शर्वरी: श्रीमान्पञ्चाशन्नगरोत्तमे / यजस्व विविधैर्य बन्नैः स्वाप्तदक्षिणैः / समयं कौरवात्र्यस्य सस्मार पुरुषर्षभः / / 5 ययातिरिव राजेन्द्र श्रद्धादमपुरःसरः / / 6 स निर्ययौ गजपुराद्याजकैः परिवारितः / क्षत्रधर्मरतः पार्थ पितॄन्देवांश्च तर्पय / दृष्ट्वा निवृत्तमादित्यं प्रवृत्तं चोत्तरायणम् / / 6 श्रेयसा योक्ष्यसे चैव व्येतु ते मानसो ज्वरः // 7 घृतं माल्यं च गन्धांश्च क्षौमाणि च युधिष्ठिरः / रञ्जयस्व प्रजाः सर्वाः प्रकृती: परिसान्त्वय / चन्दनागरुमुख्यानि तथा कालागरूणि च / / 7 सुहृदः फलसत्कारैरभ्यर्चय यथार्हतः // 8 प्रस्थाप्य पूर्व कौन्तेयो भीष्मसंसाधनाय वै / अनु त्वां तात जीवन्तु मित्राणि सुहृदस्तथा। माल्यानि च महार्हाणि रत्नानि विविधानि च // 8 चैत्यस्थाने स्थितं वृक्षं फलवन्तमिव द्विजाः // 9 धृतराष्ट्र पुरस्कृत्य गान्धारी च यशस्विनीम् / आगन्तव्यं च भवता समये मम पार्थिव / मातरं च पृथां धीमान्भ्रातृ॑श्च पुरुषर्षभः // 9 विनिवृत्ते दिनकरे प्रवृत्ते चोत्तरायणे // 10 जनार्दनेनानुगतो विदुरेण च धीमता। तथेत्युक्त्वा तु कौन्तेयः सोऽभिवाद्य पितामहम् / युयुत्सुना च कौरव्यो युयुधानेन चाभिभो // 10 प्रययौ सपरीवारो नगरं नागसाह्वयम् // 11 महता राजभोग्येन परिबर्हण संवृतः / धृतराष्ट्रं पुरस्कृत्य गान्धारी च पतिव्रताम् / स्तूयमानो महाराज भीष्मस्याग्नीननुव्रजन // 11 सह तैर्ऋषिभिः सर्वैतृभिः केशवेन च // 12 निश्चक्राम पुरात्तस्माद्यथा देवपतिस्तथा / पौरजानपदैश्चैव मन्त्रिवृद्धैश्च पार्थिवः / आससाद कुरुक्षेत्रे ततः शांतनवं नृपम // 52 प्रविवेश कुरुश्रेष्ठ पुरं वारणसाह्वयम् // 13 उपास्यमानं व्यासेन पाराशर्येण धीमता / इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि नारदेन च राजर्षे देवलेनासितेन च // 13 द्विपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः॥ 152 // हतशिष्टेनृपैश्चान्यैर्नानादेशसमागतः / // समाप्तं दानधर्मपर्व // रक्षिभिश्च महात्मानं रक्ष्यमाणं समन्ततः / / 14 शयानं वीरशयने ददर्श नृपतिस्ततः / वैशंपायन उवाच / ततो रथादवारोहद्धातृभिः सह धर्मराट् // 15 ततः कुन्तीसुतो राजा पौरजानपदं जनम् / अभिवाद्याथ कौन्तेयः पितामहमरिंदमम् / पूजयित्वा यथान्यायमनुजज्ञे गृहान्प्रति // 1 द्वैपायनादी विप्रांश्च तैश्च प्रत्यभिनन्दितः / / 16 सान्त्वयामास नारीश्च हतवीरा हतेश्वराः / ऋत्विग्भिर्ब्रह्मकल्पैश्च भ्रातृभिश्च सहाच्युतः / विपुलैरर्थदानैश्च तदा पाण्डुसुतो नृपः // 2 आसाद्य शरतल्पस्थमृपिभिः परिवारितम् // 17 -- 2746 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 153, 18] अनुशासनपर्व [13. 153. 46 अब्रवीद्भरतश्रेष्ठं धर्मराजो युधिष्ठिरः। यथा पाण्डोः सुता राजंस्तथैव तव धर्मतः / भ्रातृभिः सह कौरव्य शयानं निम्नगासुतम् // 18 तान्पालय स्थितो धर्मे गुरुशुश्रूषणे रतान् // 33 युधिष्ठिरोऽहं नृपते नमस्ते जाह्नवीसुत / धर्मराजो हि शुद्धात्मा निदेशे स्थास्यते तव / शृणोषि चेन्महाबाहो ब्रूहि किं करवाणि ते // 19 आनृशंस्यपरं ह्येनं जानामि गुरुवत्सलम् // 34 प्राप्तोऽस्मि समये राजन्नग्नीनादाय ते विभो।। तव पुत्रा दुरात्मानः क्रोधलोभपरायणाः / आचार्या ब्राह्मणाश्चैव ऋत्विजो भ्रातरश्च मे // 20 ईर्ष्याभिभूता दुर्वृत्तास्तान्न शोचितुमर्हसि // 35 पुत्रश्च ते महातेजा धृतराष्ट्रो जनेश्वरः। . वैशंपायन उवाच / / उपस्थितः सहामात्यो वासुदेवश्च वीर्यवान् // 21 एतावदुक्त्वा वचनं धृतराष्ट्र मनीषिणम् / हतशिष्टाश्च राजानः सर्वे च कुरुजाङ्गलाः / वासुदेवं महाबाहुमभ्यभाषत कौरवः // 36 तान्पश्य कुरुशार्दूल समुन्मीलय लोचने // 22 भगवन्देवदेवेश सुरासुरनमस्कृत / यह किंचित्कर्तव्यं तत्सर्वं प्रापितं मया। त्रिविक्रम नमस्तेऽस्तु शङ्खचक्रगदाधर // 37 यथोक्तं भवता काले सर्वमेव च तत्कृतम् // 23 अनुजानीहि मां कृष्ण वैकुण्ठ पुरुषोत्तम / एवमुक्तस्तु गाङ्गेयः कुन्तीपुत्रेण धीमता। रक्ष्याश्च ते पाण्डवेया भवान्येषां परायणम् // 38 ददर्श भारतान्सर्वान्स्थितान्सपरिवार्य तम् / / 24 उक्तवानस्मि दुर्बुद्धिं मन्दं दुर्योधनं पुरा / ततश्चलवलिर्भीष्मः प्रगृह्य विपुलं भुजम् / यतः कृष्णस्ततो धर्मो यतो धर्मस्ततो जयः // 39 ओघमेघस्वनो वाग्मी काले वचनमब्रवीत् / / 25 वासुदेवेन तीर्थेन पुत्र संशाम्य पाण्डवैः / दिष्ट्या प्राप्तोऽसि कौन्तेय सहामात्यो युधिष्ठिर / संधानस्य परः कालस्तवेति च पुनः पुनः // 40 परिवृत्तो हि भगवान्सहस्रांशुर्दिवाकरः // 26 न च मे तद्वचो मढः कृतवान्स समन्दधीः / अष्टपञ्चाशतं राज्यः शयानस्याद्य मे मताः / घातयित्वेह पृथिवीं ततः स निधनं गतः // 41 शरेषु निशिताग्रेषु यथा वर्षशतं तथा // 27 त्वां तु जानाम्यहं वीर पुराणमृषिसत्तमम् / माघोऽयं समनुप्राप्तो मासः पुण्यो युधिष्ठिर / नरेण सहितं देवं बदया सुचिरोषितम् / / 42 विभागशेषः पक्षोऽयं शुक्लो भवितुमर्हति // 28 तथा मे नारदः प्राह व्यासश्च सुमहातपाः / एवमुक्त्वा तु गाङ्गेयो धर्मपुत्रं युधिष्ठिरम् / नरनारायणावेतौ संभूतौ मनुजेष्विति // 43 धृतराष्ट्रमथामत्र्य काले वचनमब्रवीत् // 29 वासुदेव उवाच। राजन्विदितधर्मोऽसि सुनिर्णीतार्थसंशयः / अनुजानामि भीष्म त्वां वसूनाप्नुहि पार्थिव / बहुश्रुता हि ते विप्रा बहवः पर्युपासिताः // 30 न तेऽस्ति वृजिनं किंचिन्मया दृष्टं महाद्युते // 44 वेदशास्त्राणि सर्वाणि धर्माश्च मनुजेश्वर / पितृभक्तोऽसि राजर्षे मार्कण्डेय इवापरः / वेदांश्च चतुरः साङ्गान्निखिलेनावबुध्यसे // 31 तेन मृत्युस्तव वशे स्थितो भृत्य इवानतः // 45 न शोचितव्यं कौरव्य भवितव्यं हि तत्तथा।। वैशंपायन उवाच। श्रुतं देवरहस्यं ते कृष्णद्वैपायनादपि // 32 एवमुक्तस्तु गाङ्गेयः पाण्डवानिदमब्रवीत् / - 2747 - Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 153. 46 ] महाभारते 13. 154.20 धृतराष्ट्रमुखांश्चापि सर्वान्ससुहृदस्तथा // 46 चितां चक्रुर्महात्मानः पाण्डवा विदुरस्तथा / प्राणानुत्स्रष्टुमिच्छामि तन्मानुज्ञातुमर्हथ / युयुत्सुश्चापि कौरव्यः प्रेक्षकास्त्वितरेऽभवन् // 8 सत्ये प्रयतितव्यं वः सत्यं हि परमं बलम् // 47 युधिष्ठिरस्तु गाङ्गेयं विदुरश्च महामतिः / आनृशंस्यपरैर्भाव्यं सदैव नियतात्मभिः / छादयामासतुरुभौ क्षौमैर्माल्यैश्च कौरवम् // 9 ब्रह्मण्यैर्धर्मशीलैश्च तपोनित्यैश्च भारत // 48 धारयामास तस्याथ युयुत्सुश्छत्रमुत्तमम् / / इत्युक्त्वा सुहृदः सर्वान्संपरिष्वज्य चैव ह / चामरव्यजने शुभ्रे मीमसेनार्जुनावुभौ।। पुनरेवाब्रवीद्धीमान्युधिष्ठिरमिदं वचः॥ 49 उष्णीषे पर्यगृह्णीतां माद्रीपुत्रावुभौ तदा // 10 . ब्राह्मणाश्चैव ते नित्यं प्राज्ञाश्चैव विशेषतः / स्त्रियः कौरवनाथस्य भीष्मं कुरुकुलोद्भवम् / आचार्या ऋत्विजश्चैव पूजनीया नराधिप / / 50 तालवृन्तान्युपादाय पर्यवीजन्समन्ततः // 11 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि ततोऽस्य विधिवच्चक्रुः पितृमेधं महात्मनः / . . त्रिपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः // 153 // याजका जुहुवुश्वाग्निं जगुः सामानि सामगाः // 12 ततश्चन्दनकाष्ठैश्च तथा कालेयकैरपि / वैशंपायन उवाच / कालागरुप्रभृतिभिर्गन्धैश्चोच्चावचैस्तथा // 13 एवमुक्त्वा कुरून्सर्वान्भीष्मः शांतनवस्तदा / समवच्छाद्य गाङ्गेयं प्रज्वाल्य च हुताशनम् / तूष्णीं बभूव कौरव्यः स मुहूर्तमरिंदम // 1 अपसव्यमकुर्वन्त धृतराष्ट्रमुखा नृपाः // 14 धारयामास चात्मानं धारणासु यथाक्रमम् / संस्कृत्य च कुरुश्रेष्ठं गाङ्गेयं कुरुसत्तमाः / तस्योर्ध्वमगमन्प्राणाः संनिरुद्धा महात्मनः / / 2 जग्मुर्भागीरथीतीरमृषिजुष्टं कुरूद्वहाः // 15 इदमाश्चर्यमासीच्च मध्ये तेषां महात्मनाम् / अनुगम्यमाना व्यासेन नारदेनासितेन च / यद्यन्मुश्चति गात्राणां स शंतनुसुतस्तदा / कृष्णेन च भरतस्त्रीभिर्य च पौराः समागताः॥१६ तत्तद्विशल्यं भवति योगयुक्तस्य तस्य वै // 3 उदकं चक्रिरे चैव गाङ्गेयस्य महात्मनः / क्षणेन प्रेक्षतां तेषां विशल्यः सोऽभवत्तदा। विधिवत्क्षत्रियश्रेष्ठाः स च सर्वो जनस्तदा // 17 तं दृष्ट्वा विस्मिताः सर्वे वासुदेवपुरोगमाः / ततो भागीरथी देवी तनयस्योदके कृते / सह तैर्मुनिभिः सर्वैस्तदा व्यासादिभिर्नृप // 4 उत्थाय सलिलात्तस्माद्रुदती शोकलालसा // 18 संनिरुद्धस्तु तेनात्मा सर्वेष्वायतनेषु वै / परिदेवयती तत्र कौरवानभ्यभाषत / जगाम मित्त्वा मूर्धानं दिवमभ्युत्पपात च // 5 निबोधत यथावृत्तमुच्यमानं मयानघाः // 19 महोल्केव च भीष्मस्य मूर्धदेशाजनाधिप। राजवृत्तेन संपन्नः प्रज्ञयाभिजनेन च। निःसृत्याकाशमाविश्य क्षणेनान्तरधीयत / / 6 सत्कर्ता कुरुवृद्धानां पितृभक्तो दृढव्रतः // 20 एवं स नृपशार्दूल नृपः शांतनवस्तदा / जामदग्न्येन रामेण पुरा यो न पराजितः / समयुज्यत लोकैः स्वैर्भरतानां कुलोद्वहः / / 7 दिव्यैरस्त्रैर्महावीर्यः स हतोऽद्य शिखण्डिना // 21 ततस्त्वादाय दारूणि गन्धांश्च विविधान्बहून् / अश्मसारमयं नूनं हृदयं मम पार्थिवाः / -2748 - Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. 154. 22] अनुशासनपर्व [13. 154.34 अपश्यन्त्याः प्रियं पुत्रं यत्र दीर्यति मेऽद्य वै // 22 समेतं पार्थिवं क्षत्रं काशिपुर्यां स्वयंवरे / विजित्यकरथेनाजौ कन्यास्ता यो जहार ह // 23 यस्य नास्ति बले तुल्यः पृथिव्यामपि कश्चन / हतं शिखण्डिना श्रुत्वा यन्न दीर्यति मे मनः // 24 जामदग्न्यः कुरुक्षेत्रे युधि येन महात्मना / पीडितो नातियत्नेन निहतः स शिखण्डिना // 25 एवंविधं बहु तदा विलपन्तीं महानदीम् / आश्वासयामास तदा साम्ना दामोदरो विभुः // 26 समाश्वसिहि भद्रे त्वं मा शुचः शुभदर्शने / गतः स परमां सिद्धिं तव पुत्रो न संशयः // 27 वसुरेष महातेजाः शापदोषेण शोभने। मनुष्यतामनुप्राप्तो नैनं शोचितुमर्हसि // 28 स एष क्षत्रधर्मेण युध्यमानो रणाजिरे / धनंजयेन निहतो नैष नुन्नः शिखण्डिना // 29 भीष्मं हि कुरुशार्दूलमुद्यतेषु महारणे / न शक्तः संयुगे हन्तुं साक्षादपि शतक्रतुः // 30 स्वच्छन्देन सुतस्तुभ्यं गतः स्वर्ग शुभानने / न शक्ताः स्युनिहन्तुं हि रणे तं सर्वदेवताः // 31 तस्मान्मा त्वं सरिच्छेष्ठे शोचस्व कुरुनन्दनम् / वसूनेष गतो देवि पुत्रस्ते विज्वरा भव // 32 इत्युक्ता सा तु कृष्णेन व्यासेन च सरिद्वरा / त्यक्त्वा शोकं महाराज स्वं वार्यवततार ह // 33 सत्कृत्य ते तां सरितं ततः कृष्णमुखा नृपाः / अनुज्ञातास्तया सर्वे न्यवर्तन्त जनाधिपाः // 34 इति श्रीमहाभारते अनुशासनपर्वणि चतुष्पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः॥ 154 // समाप्तं भीष्मस्वर्गारोहणपर्व // // समाप्तमनुशासनपर्व // -2749 - Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्वमेधिकपर्व दुर्योधनापराधेन कुलं ते विनशिष्यति // 11. वैशंपायन उवाच / स्वस्ति चेदिच्छसे राजन्कुलस्यात्मन एव च। कृतोदकं तु राजानं धृतराष्ट्र युधिष्ठिरः / वध्यतामेष दुष्टात्मा मन्दो राजा सुयोधनः // 12 पुरस्कृत्य महाबाहुरुत्तताराकुलेन्द्रियः // 1 कर्णश्च शकुनिश्चैव मैनं पश्यतु कर्हिचित् / उत्तीर्य च महीपालो बाष्पव्याकुललोचनः / द्यूतसंपातमप्येषामप्रमत्तो निवारय / / 13 पपात तीरे गङ्गाया व्याधविद्ध इव द्विपः / / 2 अभिषेचय राजानं धर्मात्मानं युधिष्ठिरम् / तं सीदमानं जग्राह मीमः कृष्णेन चोदितः / / स पालयिष्यति वशी धर्मेण पृथिवीमिमाम् // 14 मैवमित्यब्रवीच्चैनं कृष्णः परबलार्दनः // 3 अथ नेच्छसि राजानं कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम् / तमार्तं पतितं भूमौ निश्वसन्तं पुनः पुनः / मेढीभूतः स्वयं राज्यं प्रतिगृह्णीष्व पार्थिव // 15 ददृशुः पाण्डवा राजन्धर्मात्मानं युधिष्ठिरम् // 4 समं सर्वेषु भूतेषु वर्तमानं नराधिप।। तं दृष्ट्वा दीनमनसं गतसत्त्वं जनेश्वरम् / अनुजीवन्तु सर्वे त्वां ज्ञातयो ज्ञातिवर्धन // 16 भूयः शोकसमाविष्टाः पाण्डवाः समुपाविशन् // 5 एवं ब्रुवति कौन्तेय विदुरे दीर्घदर्शिनि / राजा च धृतराष्ट्रस्तमुपासीनो महाभुजः / दुर्योधनमहं पापमन्ववर्त वृथामतिः // 17 वाक्यमाह महाप्राज्ञो महाशोकप्रपीडितम् // 6 अश्रुत्वा ह्यस्य वीरस्य वाक्यानि मधुराण्यहम् / उत्तिष्ठ कुरुशार्दूल कुरु कार्यमनन्तरम् / फलं प्राप्य महद्दुःखं निमग्नः शोकसागरे // 18 क्षत्रधर्मेण कौरव्य जितेयमवनिस्त्वया // 7 वृद्धौ हि ते स्वः पितरौ पश्यावां दुःखितौ नृप / तां भुल भ्रातृभिः साधं सुहृद्भिश्च जनेश्वर / न शोचितव्यं भवता पश्यामीह जनाधिप // 19 न शोचितव्यं पश्यामि त्वया धर्मभृतां वर // 8 इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि प्रथमोऽध्यायः॥१॥ शोचितव्यं मया चैव गान्धार्या च विशां पते / पुत्रैविहीनो राज्येन स्वप्नलब्धधनो यथा // 9 अश्रुत्वा हितकामस्य विदुरस्य महात्मनः / वैशंपायन उवाच / वाक्यानि सुमहानि परितप्यामि दुर्मतिः // 10 / एवमुक्तस्तु राज्ञा स धृतराष्ट्रेण धीमता / उक्तवानेष मां पूर्वं धर्मात्मा दिव्यदर्शनः। | तूष्णीं बभूव मेधावी तमुवाचाथ केशवः // 1 - भ50 - Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 2. 2] आश्वमेधिकपर्व [ 14. 3.9 अतीव मनसा शोकः क्रियमाणो जनाधिप / यथा प्रवृत्तो नृपतिर्नाधिबन्धेन युज्यते // 16 संतापयति वैतस्य पूर्वप्रेतान्पितामहान् // 2 मोक्षधर्माश्च निखिला याथातथ्येन ते श्रुताः / यजस्व विविधैर्यज्ञैर्बहुभिः स्वाप्तदक्षिणैः / असकृच्चैव संदेहाश्छिन्नास्ते कामजा मया // 17 देवांस्तर्पय सोमेन स्वधया च पितॄनपि // 3 अश्रद्दधानो दुर्मेधा लुप्तस्मृतिरसि ध्रुवम् / त्वद्विधस्य महाबुद्ध नैतदद्योपपद्यते / मैवं भव न ते युक्तमिदमज्ञानमीदृशम् // 18 विदितं वेदितव्यं ते कर्तव्यमपि ते कृतम् // 4 प्रायश्चित्तानि सर्वाणि विदितानि च तेऽनघ / श्रुताश्च राजधर्मास्ते भीष्माद्भागीरथीसुतात् / * युद्धधर्माश्च ते सर्वे दानधर्माश्च ते श्रुताः // 19 कृष्णद्वैपायनाचैव नारदाद्विदुरात्तथा // 5 . स कथं सर्वधर्मज्ञः सर्वागमविशारदः / नेमामर्हसि मूढानां वृत्तिं त्वमनुवर्तितुम् / . परिमुह्यसि भूयस्त्वमज्ञानादिव भारत / / 20 पितृपैतामही वृत्तिमास्थाय धुरमुबह // 6 इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि युक्तं हि यशसा क्षत्रं स्वर्ग प्राप्तुमसंशयम् / द्वितीयोऽध्यायः // 2 // न हि कश्चन शूराणां निहतोऽत्र पराङ्मुखः // 7 त्यज शोकं महाराज भवितव्यं हि तत्तथा / व्यास उवाच / न शक्यास्ते पुनद्रष्टुं त्वया ह्यस्मिन्रणे हताः // 8 / युधिष्ठिर तव प्रज्ञा न सम्यगिति मे मतिः / एतावदुक्त्वा गोविन्दो धर्मराज युधिष्ठिरम् / न हि कश्चित्स्वयं मर्त्यः स्ववशः कुरुते क्रियाः॥१ विरराम महातेजास्तमुवाच युधिष्ठिरः // 9 ईश्वरेण नियुक्तोऽयं साध्वसाधु च मानवः / गोविन्द मयि या प्रीतिस्तव सा विदिता मम / करोति पुरुषः कर्म तत्र का परिदेवना // 2 सौहृदेन तथा प्रेम्णा सदा मामनुकम्पसे // 18 आत्मानं मन्यसे चाथ पापकर्माणमन्ततः / प्रियं तु मे स्यात्सुमहत्कृतं चक्रगदाधर / शृणु तत्र यथा पापमपकृष्येत भारत // 3 श्रीमन्प्रीतेन मनसा सर्व यादवनन्दन // 11 तपोभिः क्रतुभिश्चैव दानेन च युधिष्ठिर / यदि मामनुजानीयाद्भवान्गन्तुं तपोवनम् / तरन्ति नित्यं पुरुषा ये स्म पापानि कुर्वते // 4 न हि शान्ति प्रपश्यामि घातयित्वा पितामहम् / यज्ञेन तपसा चैव दानेन च नराधिप / कणं च पुरुषव्याघ्र संग्रामेष्वपलायिनम् // 12 पूयन्ते राजशार्दूल नरा दुष्कृतकर्मिणः // 5 कर्मणा येन मुच्येयमस्मात्क्रूरादरिंदम / असुराश्च सुराश्चैव पुण्यहेतोर्मखक्रियाम् / कर्मणस्तद्विधत्स्वेह येन शुध्यति मे मनः // 13 प्रयतन्ते महात्मानस्तस्माद्यज्ञाः परायणम् // 6 तमेवंवादिनं व्यासस्ततः प्रोवाच धर्मवित् / यज्ञैरेव महात्मानो बभूवुरधिकाः सुराः / सान्त्वयन्सुमहातेजाः शुभं वचनमर्थवत् / / 14 ततो देवाः क्रियावन्तो दानवानभ्यधर्षयन् // 7 अकृता ते मतिस्तात पुनर्बाल्येन मुह्यसे / राजसूयाश्वमेधौ च सर्वमेधं च भारत / किमाकाशे वयं सर्वे प्रलपाम मुहुर्मुहुः // 15 नरमेधं च नृपते त्वमाहर युधिष्ठिर // 8 विदिताः क्षत्रधर्मास्ते येषां युद्धेन जीविका। यजस्व वाजिमेधेन विधिवद्दक्षिणावता / -2751 - Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 3. 9] महाभारते [ 14. 4. 11 बहुकामान्नवित्तेन रामो दाशरथिर्यथा // 9 व्यास उवाच / यथा च भरतो राजा दौःषन्तिः पृथिवीपतिः / यदि शुश्रूषसे पार्थ शृणु कारंधमं नृपम् / शाकुन्तलो महावीर्यस्तव पूर्वपितामहः // 10 यस्मिन्काले महावीर्यः स राजासीन्महाधनः // 2' युधिष्ठिर उवाच / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि असंशयं वाजिमेधः पावयेत्पृथिवीमपि / तृतीयोऽध्यायः // 3 // अभिप्रायस्तु मे कश्चित्तं त्वं श्रोतुमिहार्हसि // 11 इमं ज्ञातिवधं कृत्वा सुमहान्तं द्विजोत्तम / युधिष्ठिर उवाच / दानमल्पं न शक्यामि दातुं वित्तं च नास्ति मे // शुश्रूषे तस्य धर्मज्ञ राजर्षेः परिकीर्तनम् / न च बालानिमान्दीनानुत्सहे वसु याचितुम् / द्वैपायन मरुत्तस्य कथां प्रब्रूहि मेऽनघ // 1 तथैवाव्रणान्कृच्छ्रे वर्तमानान्नृपात्मजान् // 13 व्यास उवाच / स्वयं विनाश्य पृथिवीं यज्ञार्थे द्विजसत्तम / करमाहारयिष्यामि कथं शोकपरायणान् // 14 आसीत्कृतयुगे पूर्व मनुर्दण्डधरः प्रभुः / दुर्योधनापराधेन वसुधा वसुधाधिपाः / तस्य पुत्रो महेष्वासः प्रजातिरिति विश्रुतः // 2 प्रनष्टा योजयित्वास्मानकी, मुनिसत्तम / / 15 प्रजातेरभवत्पुत्रः क्षुप इत्यभिविश्रुतः / दुर्योधनेन पृथिवी क्षयिता वित्तकारणात् / क्षुपस्य पुत्रस्त्विक्ष्वाकुर्महीपालोऽभवत्प्रभुः // 3 कोशश्चापि विशीर्णोऽसौ धार्तराष्ट्रस्य दुर्मतेः // 16 तस्य पुत्रशतं राजन्नासीत्परमधार्मिकम् / पृथिवी दक्षिणा चात्र विधिः प्रथमकल्पिकः / तांस्तु सर्वान्महीपालानिक्ष्वाकुरकरोत्प्रभुः // 4 विद्वद्भिः परिदृष्टोऽयं शिष्टो विधिविपर्ययः / / 17 तेषां ज्येष्ठस्तु विंशोऽभूत्प्रतिमानं धनुष्मताम् / न च प्रतिनिधिं कर्तुं चिकीर्षामि तपोधन / विंशस्य पुत्रः कल्याणो विविंशो नाम भारत // अत्र मे भगवन्सम्यक्साचिव्यं कर्तुमर्हसि // 18 विविंशस्य सुता राजन्बभूवुर्दश पञ्च च / सर्वे धनुषि विक्रान्ता ब्रह्मण्याः सत्यवादिनः / वैशंपायन उवाच / दानधर्मरताः सन्तः सततं प्रियवादिनः / एवमुक्तस्तु पार्थेन कृष्णद्वैपायनस्तदा। तेषां ज्येष्ठः खनीनेत्रः स तान्सर्वानपीडयत् / / मुहूर्तमनुसंचिन्त्य धर्मराजानमब्रवीत् // 19 खनीनेत्रस्तु विक्रान्तो जित्वा राज्यमकण्टकम् / विद्यते द्रविणं पार्थ गिरौ हिमवति स्थितम् / नाशक्नोद्रक्षितुं राज्यं नान्वरज्यन्त तं प्रजाः // 8 उत्सृष्टं ब्राह्मणैर्यज्ञे मरुत्तस्य महीपतेः / तमपास्य च तद्राष्ट्रं तस्य पुत्रं सुवर्चसम् / / तदानयस्व कौन्तेय पर्याप्तं तद्भविष्यति / / 20 अभ्यषिश्चत राजेन्द्र मुदितं चाभवत्तदा // 9 युधिष्ठिर उवाच / स पितुर्विक्रियां दृष्ट्वा राज्यान्निरसनं तथा / कथं यज्ञे मरुत्तस्य द्रविणं तत्समाचितम् / नियतो वर्तयामास प्रजाहितचिकीर्षया // 10 कस्मिंश्च काले स नृपो बभूव वदतां वर // 21 / ब्रह्मण्यः सत्यवादी च शुचिः शमदमान्वितः / -2752 - Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 4. 11] आश्वमेधिकपर्व [ 14. 5.9 प्रजास्तं चान्वरज्यन्त धर्मनित्यं मनस्विनम् // 11 ततः कुण्डानि पात्रीश्च पिठराण्यासनानि च / तस्य धर्मप्रवृत्तस्य व्यशीर्यकोशवाहनम् / चक्रुः सुवर्णकर्तारो येषां संख्या न विद्यते // 26 तं क्षीणकोशं सामन्ताः समन्तात्पर्यपीडयन् // 12 तस्यैव च समीपे स यज्ञवाटो बभूव ह / स पीड्यमानो बहुभिः क्षीणकोशस्त्ववाहनः / / ईजे तत्र स धर्मात्मा विधिवत्पृथिवीपतिः / आर्तिमार्छत्परां राजा सह भृत्यैः पुरेण च // 13 मरुत्तः सहितैः सर्वैः प्रजापालैनराधिपः // 27 न चैनं परिहर्तुं तेऽशक्नुवन्परिसंक्षये / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि सम्यग्वृत्तो हि राजा स धर्मनित्यो युधिष्ठिर // 14 चतुर्थोऽध्यायः॥४॥ यदा तु परमामार्तिं गतोऽसौ सपुरो नृपः / ततः प्रदध्मौ स करं प्रादुरासीत्ततो बलम् // 15 युधिष्ठिर उवाच / ततस्तानजयत्सर्वान्प्रातिसीमानराधिपान् / कथंवीर्यः समभवत्स राजा वदतां वरः। एतस्मात्कारणाद्राजन्विश्रुतः स करंधमः // 16 / कथं च जातरूपेण समयुज्यत स द्विज // 1 तस्य कारंधमः पुत्रनेतायुगमुखेऽभवत् / / क च तत्सांप्रतं द्रव्यं भगवनवतिष्ठते / इन्द्रादनवरः श्रीमान्देवैरपि सुदुर्जयः // 17 कथं च शक्यमस्माभिस्तदवाप्तुं तपोधन // 2 तस्य सर्वे महीपाला वर्तन्ते स्म वशे तदा / व्यास उवाच। स हि सम्राडभूत्तेषां वृत्तेन च बलेन च // 18 / असुराश्चैव देवाश्च दक्षस्यासन्प्रजापतेः / अविक्षिन्नाम धर्मात्मा शौर्येणेन्द्रसमोऽभवत् / अपत्यं बहुलं तात तेऽस्पर्धन्त परस्परम् // 3 यज्ञशीलः कर्मरतिधृतिमान्संयतेन्द्रियः // 19 तथैवाङ्गिरसः पुत्रौ व्रततुल्यौ बभूवतुः / तेजसादित्यसदृशः क्षमया पृथिवीसमः। बृहस्पतिवृहत्तेजाः संवर्तश्च तपोधनः // 4 बृहस्पतिसमो बुद्ध्या हिमवानिव सुस्थिरः // 20 तावपि स्पर्धिनौ राजन्पृथगास्तां परस्परम् / कर्मणा मनसा वाचा दमेन प्रशमेन च / बृहस्पतिश्च संवतं बाधते स्म पुनः पुनः // 5 मनांस्याराधयामास प्रजानां स महीपतिः // 21 स बाध्यमानः सततं भ्रात्रा ज्येष्ठेन भारत / य ईजे हयमेधानां शतेन विधिवत्प्रभुः / अर्थानुत्सृज्य दिग्वासा वनवासमरोचयत् // 6 याजयामास यं विद्वान्स्वयमेवाङ्गिराः प्रभुः // 22 वासवोऽप्यसुरान्सन्निर्जित्य च निहत्य च / तस्य पुत्रोऽतिचक्राम पितरं गुणवत्तया / इन्द्रत्वं प्राप्य लोकेषु ततो वव्रे पुरोहितम् / मरुत्तो नाम धर्मज्ञश्चक्रवर्ती महायशाः // 23 / पुत्रमगिरसो ज्येष्ठं विप्रश्रेष्ठं बृहस्पतिम् // 7 नागायुतसमप्राणः साक्षाद्विष्णुरिवापरः / याज्यस्त्वङ्गिरसः पूर्वमासीद्राजा करंधमः। स यक्ष्यमाणो धर्मात्मा शातकुम्भमयान्युत / वीर्येणाप्रतिमो लोके वृत्तेन च बलेन च। कारयामास शुभ्राणि भाजनानि सहस्रशः // 24 शतक्रतुरिवौजस्वी धर्मात्मा संशितव्रतः // 8 मेरुं पर्वतमासाद्य हिमवत्पार्श्व उत्तरे। वाहनं यस्य योधाश्च द्रव्याणि विविधानि च / काश्चनः सुमहान्पादस्तत्र कर्म चकार सः // 25 / ध्यानादेवाभवद्राजन्मुखवातेन सर्वशः // 9 म. भा. 15 -2753 - Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 5. 10 ] महाभारते [ 14. 6.0 स गुणैः पार्थिवान्सर्वान्वशे चक्रे नराधिपः / ग्रहीष्यामि वं यज्ञे शृणु चेदं वचो मम // 24 संजीव्य कालमिष्टं च सशरीरो दिवं गतः / / 10 हिरण्यरेतसोऽम्भः स्यात्परिवर्तेत मेदिनी। बभूव तस्य पुत्रस्तु ययातिरिव धर्मवित् / भासं च न रविः कुर्यान्मत्सत्यं विचलेद्यदि // 25 अविक्षिन्नाम शत्रुक्षित्स वशे कृतवान्महीम् / बृहस्पतिवचः श्रुत्वा शक्रो विगतमत्सरः / विक्रमेण गुणैश्चैव पितेवासीत्स पार्थिवः // 11 प्रशस्यैनं विवेशाथ स्वमेव भवनं तदा // 26 . तस्य वासवतुल्योऽभून्मरुत्तो नाम वीर्यवान् / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि . पुत्रस्तमनुरक्ताभूपृथिवी सागराम्बरा / / 12 पञ्चमोऽध्यायः // 5 // स्पर्धते सततं स म्म देवराजेन पार्थिवः / वासवोऽपि मरुत्तेन स्पर्धते पाण्डुनन्दन // 13 व्यास उवाच / शुचिः स गुणवानासीन्मरुत्तः पृथिवीपतिः / अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / . . यतमानोऽपि यं शक्रो न विशेषयति स्म ह // 14 वृहस्पतेश्च संवादं मरुत्तस्य च भारत // 1 सोऽशक्नुवन्विशेषाय समाहूय बृहस्पतिम् / देवराजस्य समयं कृतमाङ्गिरसेन ह / उवाचेदं वचो देवैः सहितो हरिवाहनः / / 15 / श्रुत्वा मरुत्तो नृपतिर्मन्युमाहारयत्तदा !! 2 बृहस्पते मरुत्तस्य मा स्म कार्षीः कथंचन / / संकल्प्य मनसा यज्ञं करंधमसुतात्मजः / दैवं कर्माथ वा पित्र्यं कर्तासि मम चेत्प्रियम् // बृहस्पतिमुपागम्य वाग्मी वचनमब्रवीत् // 3 अहं हि त्रिषु लोकेषु सुराणां च बृहस्पते / भगवन्यन्मया पूर्वमभिगम्य तपोधन / इन्द्रत्वं प्राप्तवानेको मरुत्तस्तु महीपतिः // 17 कृतोऽभिसंधिर्यज्ञाय भवनों वचनाद्गुरो // 4 कथं ह्यमयं ब्रह्मस्त्वं याजयित्वा सुराधिपम् / / तमहं यष्टुमिच्छामि संभाराः संभृताश्च मे / याजयेमृत्युसंयुक्तं मरुत्तमविशङ्कया / / 18 याज्योऽस्मि भवतः साधो तत्प्राप्नुहि विधत्स्व च // मां वा वृणीष्व भद्रं ते मरुत्तं वा महीपतिम् / बृहस्पतिरुवाच / परित्यज्य मरुत्तं वा यथाजोषं भजस्व माम् // 19 न कामये याजयितुं त्वामहं पृथिवीपते। एवमुक्तः स कौरव्य देवराज्ञा बृहस्पतिः / वृतोऽस्मि देवराजेन प्रतिज्ञातं च तस्य मे // 6 मुहूर्तमिव संचिन्त्य देवराजानमब्रवीत् // 20 त्वं भूतानामधिपतिस्त्वयि लोकाः प्रतिष्ठिताः / मरुत्त उवाच। नमुचेर्विश्वरूपस्य निहन्ता त्वं बलस्य च / / 21 पित्र्यमस्मि तव क्षेत्रं बहु मन्ये च ते. भृशम् / त्वमाजहर्थ देवानामेको वीर श्रियं पराम् / / न चास्म्ययाज्यतां प्राप्तो भजमानं भजस्व माम् // त्वं विभर्षि भुवं द्यां च सदैव बलसूदन / / 22 वृहस्पतिरुवाच / पौरोहित्यं कथं कृत्वा तव देवगणेश्वर / अमत्यं याजयित्वाहं याजयिष्ये न मानुषम् / याजयेयमहं मर्त्य मरुत्तं पाकशासन // 23 मरुत्त गच्छ वा मा वा निवृत्तोऽस्म्यद्य याजनात् // समाश्वसिहि देवेश नाहं माय कर्हि चित् / न त्वां याजयितास्म्यद्य वृणु त्वं यमिहेच्छसि / -2754 - Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 6. 9] आश्वमेधिकपर्व [ 14. 7.2 उपाध्यायं महाबाहो यस्ते यज्ञं करिष्यति // 9 तस्या द्वारं समासाद्य न्यसेथाः कुणपं क्वचित् / व्यास उवाच / तं दृष्ट्वा यो निवर्तेत स संवर्तो महीपते // 23 एवमुक्तस्तु नृपतिर्मरुत्तो व्रीडितोऽभवत् / तं पृष्ठतोऽनुगच्छेथा यत्र गच्छेत्स वीर्यवान् / प्रत्यागच्छच्च संविग्नो ददर्श पथि नारदम् // 10 तमेकान्ते समासाद्य प्राञ्जलिः शरणं व्रजेः // 24 देवर्षिणा समागम्य नारदेन स पार्थिवः / पृच्छेत्त्वां यदि केनाहं तवाख्यात इति स्म ह / विधिवत्प्राञ्जलिस्तस्थावथैनं नारदोऽब्रवीत् // 11 व्यास्त्वं नारदेनेति संतप्त इव शत्रुहन् // 25 राजर्षे नातिहृष्टोऽसि कञ्चित्क्षेमं तवानघ / . स चेत्त्वामनुयुञ्जीत ममाभिगमनेप्सया / क गतोऽसि कुतो वेदमप्रीतिस्थानमागतम् // 12 शंसेथा वह्निमारूढं मामपि त्वमशङ्कया / / 26 श्रोतव्यं चेन्मया राजन्वहि मे पार्थिवर्षभ / व्यास उवाच / व्यपनेष्यामि ते मन्युं सर्वयत्नैर्नराधिप // 13 स तथेति प्रतिश्रुत्य पूजयित्वा च नारदम् / एवमुक्तो मरुत्तस्तु नारदेन महर्षिणा / अभ्यनुज्ञाय राजर्षिर्ययौ वाराणसी पुरीम् // 27 विप्रलम्भमुपाध्यायात्सर्वमेव न्यवेदयत् // 14 तत्र गत्वा यथोक्तं स पुर्या द्वारे महायशाः / गतोऽस्म्यङ्गिरसः पुत्रं देवाचार्य बृहस्पतिम् / / कुणपं स्थापयामास नारदस्य वचः स्मरन् // 28 यज्ञार्थमृत्विजं द्रष्टुं स च मां नाभ्यनन्दत // 15 योगपद्येन विप्रश्च स पुरीद्वारमाविशत् / प्रत्याख्यातश्च तेनाहं जीवितुं नाद्य कामये। ततः स कुणपं दृष्ट्वा सहसा स न्यवर्तत // 29 परित्यक्तश्च गुरुणा दूषितश्चास्मि नारद // 16 स तं निवृत्तमालक्ष्य प्राञ्जलिः पृष्ठतोऽन्वगात् / एवमुक्तस्तु राज्ञा स नारदः प्रत्युवाच ह। आविक्षितो महीपालः संवर्तमुपशिक्षितुम् // 30 आविक्षितं महाराज वाचा संजीवयन्निव // 17 स एनं विजने दृष्ट्वा पांसुभिः कर्दमेन च / राजन्नङ्गिरसः पुत्रः संवर्तो नाम धार्मिकः / / श्लेष्मणां चापि राजानं ष्ठीवनैश्च समाकिरत् // 31 चङ्गमीति दिशः सर्वा दिग्वासा मोहयन्प्रजाः // 18 स तथा बाध्यमानोऽपि संवर्तेन महीपतिः / तं गच्छ यदि याज्यं त्वां न वाञ्छति बृहस्पतिः / अन्वगादेव तमृषि प्राञ्जलिः संप्रसादयन् // 32 प्रसन्नस्त्वां महाराज संवर्ता याजयिष्यति // 19 ततो निवृत्य संवर्तः परिश्रान्त उदाविशत् / मरुत्त उवाच / शीतलच्छायमासाद्य न्यग्रोधं बहुशाखिनम् // 33 संजीवितोऽहं भवता वाक्येनानेन नारद / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि पश्येयं क नु संवर्त शंस मे वदतां वर // 20 षष्ठोऽध्यायः // 6 // कथं च तस्मै वर्तेयं कथं मां न परित्यजेत् / / प्रत्याख्यातश्च तेनापि नाहं जीवितुमुत्सहे // 21 संवर्त उवाच / नारद उवाच / | कथमस्मि त्वया ज्ञातः केन वा कथितोऽस्मि ते / उन्मत्तवेषं बिभ्रत्स चङ्गमीति यथासुखम् / एतदाचक्ष्व मे तत्त्वमिच्छसे चेत्प्रियं मम // 1 वाराणसीं तु नगरीमभीक्ष्णमुपसेवते // 22 | सत्यं ते ब्रुवतः सर्वे संपत्म्यन्ते मनोरथाः। -2755 - Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 7. 2] महाभारते [ 14. 7.21 मिथ्या तु ब्रुवतो मूर्धा सप्तधा ते फलिष्यति // 2 याजयेथा मरुत्तं त्वं मर्त्यधर्माणमातुरम् // 14 . मरुत्त उवाच / स्पर्धते च मया विप्र सदा वै स हि पार्थिवः / नारदेन भवान्मह्यमाख्यातो पटता पथि / / एवमस्त्विति चाप्युक्तो भ्रात्रा ते बलवृत्रहा // 15 गुरुपुत्रो ममेति त्वं ततो मे प्रीतिरुत्तमा // 3 स मामभिगतं प्रेम्णा याज्यवन्न बुभूषति / ___ संवर्त उवाच। देवराजमुपाश्रित्य तद्विद्धि मनिपुंगव / / 16 सत्यमेतद्भवानाह स मां जानाति सत्रिणम् / सोऽहमिच्छामि भवता सर्वस्वेनापि याजितुम् / कथयस्वैतदेकं मे क नु संप्रति नारदः / / 4 कामये समतिक्रान्तुं वासवं त्वत्कृतैर्गुणैः // 17 मरुत्त उवाच / न हि मे वर्तते बुद्धिर्गन्तुं ब्रह्मबृहस्पतिम् / भवन्तं कथयित्वा तु मम देवर्षिसत्तमः / प्रत्याख्यातो हि तेनास्मि तथानपकृते सति // 18 ततो मामभ्यनुज्ञाय प्रविष्टो हव्यवाहनम् // 5 संवर्त उवाच / व्यास उवाच / चिकीर्षसि यथाकामं सर्वमेतत्त्वयि ध्रुवम् / श्रुत्वा तु पार्थिवस्यैतत्संवर्तः परया मुदा / यदि सर्वानभिप्रायान्कर्तासि मम पार्थिव // 19 एतावदहमप्येनं कुर्यामिति तदाब्रवीत् // 6 याज्यमानं मया हि त्वां बृहस्पतिपुरंदरौ। ततो मरुत्तमुन्मत्तो वाचा निर्भर्त्सयन्निव / द्विषतां समभिक्रुद्धावेतदेकं समर्थय / / 20 रूक्षया ब्राह्मणो राजन्पुनः पुनरथाब्रवीत् // 7 स्थैर्यमत्र कथं ते स्यात्म त्वं निःसंशयं कुरु / वातप्रधानेन मया स्वचित्तवशवर्तिना / कुपितस्त्वां न हीदानी भस्म कुर्यां सबान्धवम् // एवं विकृतरूपेण कथं याजितुमिच्छसि // 8 मरुत्त उवाच / भ्राता मम समर्थश्च वासवेन च सत्कृतः / यावत्तपेत्सहस्रांशुस्तिष्ठरंश्चापि पर्वताः / वर्तते याजने चैव तेन कर्माणि कारय // 9 तावल्लोकान्न लभेयं त्यजेयं संगतं यदि // 22 गृहं स्वं चैव याज्याश्च सर्वा गृह्याश्च देवताः / मा चापि शुभबुद्धित्वं लभेयमिह कर्हि चित् / पूर्वजेन ममाक्षिप्तं शरीरं वर्जितं त्विदम् / / 10 सम्यग्ज्ञाने वैषये वा त्यजेयं संगतं यदि // 23 नाहं तेनाननुज्ञातस्त्वामाविक्षित कर्हिचित् / संवते उवाच / याजयेयं कथंचिद्वै स हि पूज्यतमो मम // 11 आविक्षित शुभा बुद्धिर्धीयतां तव कर्मसु / स त्वं बृहस्पतिं गच्छ तमनुज्ञाप्य चाव्रज / याजनं हि ममाप्येवं वर्तते त्वयि पार्थिव // 24 ततोऽहं याजयिष्ये त्वां यदि यष्टुमिहेच्छसि // 12 संविधास्ये च ते राजनक्षयं द्रव्यमुत्तमम् / मरुत्त उवाच। येन देवान्सगन्धर्वाञ्शक्रं चाभिभविष्यसि // 25 बृहस्पतिं गतः पूर्वमहं संवर्त तच्छृणु। न तु मे वर्तते बुद्धिर्धने याज्येषु वा पुनः / न मां कामयते याज्यमसौ वासववारितः // 13 विप्रियं तु चिकीर्षा मि भ्रातुश्चेन्द्रस्य चोभयोः // अमरं याज्यमासाद्य मामृषे मा स्म मानुषम् / / गमयिष्यामि चेन्द्रेण समतामपि.ते ध्रुवम् / -2756 - Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 7. 27] आश्वमेधिकपर्व [14. 8. 27 प्रियं च ते करिष्यामि सत्यमेतद्रवीमि ते // 27 कपर्दिने करालाय हर्यक्ष्णे वरदाय च / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि ध्यक्ष्णे पूष्णो दन्तभिदे वामनाय शिवाय च // 13 सप्तमोऽध्यायः // 7 // याम्यायाव्यक्तकेशाय सद्वृत्ते शंकराय च / क्षेम्याय हरिनेत्राय स्थाणवे पुरुषाय च // 14 . संवर्त उवाच / हरिकेशाय मुण्डाय कुशायोत्तारणाय च / गिरेर्हिमवतः पृष्ठे मुखवान्नाम पर्वतः / भास्कराय सुतीर्थाय देवदेवाय रंहसे // 15 तप्यते यत्र भगवांस्तपो नित्यमुमापतिः // 1 उष्णीषिणे सुवक्त्राय सहस्राक्षाय मीढुषे / वनस्पतीनां मूलेषु टङ्केषु शिखरेषु च / गिरिशाय प्रशान्ताय यतये चीरवाससे // 16 गुहासु शैलराजस्य यथाकामं यथासुखम् / / 2 बिल्वदण्डाय सिद्धाय सर्वदण्डधराय च / उमासहायो भगवान्यत्र नित्यं महेश्वरः / मृगव्याधाय महते धन्विनेऽथ भवाय च // 17 आस्ते शूली महातेजा नानाभूतगणावृतः // 3 वराय सौम्यवक्त्राय पशुहस्ताय वर्षिणे / तत्र रुद्राश्च साध्याश्च विश्वेऽथ वसवस्तथा / हिरण्यबाहवे राजन्नुग्राय पतये दिशाम् // 18 यमश्च वरुणश्चैव कुबेरश्च सहानुगः // 4 पशूनां पतये चैव भूतानां पतये तथा / भूतानि च पिशाचाश्च नासत्यावश्विनावपि / वृषाय मातृभक्ताय सेनान्ये मध्यमाय च // 19 गन्धर्वाप्सरसश्चैव यक्षा देवर्षयस्तथा // 5 स्रुवहस्ताय पतये धन्विने भार्गवाय च / आदित्या मरुतश्चैव यातुधानाश्च सर्वशः / अजाय कृष्णनेत्राय विरूपाक्षाय चैव ह // 20 उपासन्ते महात्मानं बहुरूपमुमापतिम् // 6 तीक्ष्णदंष्ट्राय तीक्ष्णाय वैश्वानरमुखाय च / रमते भगवांस्तत्र कुबेरानुचरैः सह / महाद्युतयेऽनङ्गाय सर्वाङ्गाय प्रजावते // 21 विकृतैर्विकृताकारैः क्रीडद्भिः पृथिवीपते / तथा शुक्राधिपतये पृथवे कृत्तिवाससे / श्रिया ज्वलन्दृश्यते वै बालादित्यसमद्युतिः // 7 कपालमालिने नित्यं सुवर्णमुकुटाय च // 22 न रूपं दृश्यते तस्य संस्थानं वा कथंचन / महादेवाय कृष्णाय त्र्यम्बकायानघाय च / निर्देष्टुं प्राणिभिः कैश्चित्प्राकृतैमासलोचनैः / / 8 क्रोधनाय नृशंसाय मृदवे बाहुशालिने // 23 नोष्णं न शिशिरं तत्र न वायुनं च भास्करः / दण्डिने तप्ततपसे तथैव क्रूरकर्मणे / न जरा क्षुत्पिपासे वा न मृत्युन भयं नृप // 9 सहस्रशिरसे चैव सहस्रचरणाय च / तस्य शैलस्य पार्श्वेषु सर्वेषु जयतां वर / नमः स्वधास्वरूपाय बहुरूपाय दंष्ट्रिणे // 24 धातवो जातरूपस्य रश्मयः सवितुर्यथा // 10 पिनाकिनं महादेवं महायोगिनमव्ययम् / रक्ष्यन्ते ते कुबेरस्य सहायैरुद्यतायुधैः / त्रिशूलपाणिं वरदं त्र्यम्बकं भुवनेश्वरम् // 25 चिकीर्षद्भिः प्रियं राजन्कुबेरस्य महात्मनः // 11 त्रिपुरघ्नं त्रिनयनं त्रिलोकेशं महौजसम् / तस्मै भगवते कृत्वा नमः शर्वाय वेधसे। प्रभवं सर्वभूतानां धारणं धरणीधरम् // 26 रुद्राय शितिकण्ठाय सुरूपाय सुवर्चसे // 12 / ईशानं शंकरं सर्व शिवं विश्वेश्वरं भवम् / - 2757 - प्रभव Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 8. 27 ] महाभारते [ 14. 9.8 उमापतिं पशुपतिं विश्वरूपं महेश्वरम् // 27 तथा मनोज्ञाः परिचारका मे। विरूपाक्षं दशभुजं तिष्यगोवृषभध्वजम / तथा देवानां सुखकामोऽस्मि शक्र उग्रं स्थाणुं शिवं घोरं शवं गौरीशमीश्वरम् // 28 देवाश्च मां सुभृशं पालयन्ति // 2 शितिकण्ठमजं शुक्र पृथु पृथुहरं हरम् / इन्द्र उवाच / विश्वरूपं विरूपाक्षं बहुरूपमुमापतिम् // 29 कुतो दुःखं मानसं देहज़ वा प्रणम्य शिरसा देवमननङ्गाङ्गहरं हरम् / पाण्डुर्विवर्णश्च कुतस्त्वमद्य / शरण्यं शरणं याहि महादेवं चतुर्मुखम् // 30 आचक्ष्व मे तहिज यावदेताएवं कृत्वा नमस्तस्मै महादेवाय रंहसे / निहन्मि सास्तव दुःखकर्तृन् // 3 महात्मने क्षितिपते तत्सुवर्णमवाप्स्यसि / बृहस्पतिरुवाच / सुवर्णमाहरिष्यन्तस्तत्र गच्छन्तु ते नराः // 31 मरुत्तमाहुर्मघवन्यक्ष्यमाणं . .. व्यास उवाच। महायज्ञेनोत्तमदक्षिणेन / इत्युक्तः स वचस्तस्य चक्र कारंधमात्मजः / तं संवर्ती याजयितेति मे श्रुतं ततोऽतिमानुषं सर्व चक्रे यज्ञस्य संविधिम् / तदिच्छामि न स तं याजयेत // 4 सौवर्णानि च भाण्डानि संचक्रुस्तत्र शिल्पिनः / / बृहस्पतिस्तु तां श्रुत्वा मरुत्तस्य महीपतेः / इन्द्र उवाच / सर्वान्कामाननुजातोऽसि विप्र समृद्धिमति देवेभ्यः संतापमकरोद्धृशम् / / 33 / स तप्यमानो वैवण्यं कृशत्वं चागमत्परम् / यस्त्वं देवानां मत्रयसे पुरोधाः / उभौ च ते जन्ममृत्यू व्यतीतौ भविष्यति हि मे शत्रुः संवर्तो वसुमानिति / / 34 तं श्रुत्वा भृशसंतप्तं देवराजो बृहस्पतिम् / किं संवर्तस्तव कर्ताद्य विप्र // 5 अभिगम्यामरवृतः प्रोवाचेदं वचस्तदा // 35 बृहस्पतिरुवाच / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि देवैः सह त्वमसुरान्संप्रणुद्य ___अष्टमोऽध्यायः॥८॥ जिघांससेऽद्याप्युत सानुबन्धान् / यं यं समृद्धं पश्यसि तत्र तत्र इन्द्र उवाच / दुःखं सपत्नेषु समृद्धभावः // 6 कञ्चित्सुखं स्वपिषि त्वं बृहस्पते अतोऽस्मि देवेन्द्र विवर्णरूपः __ कच्चिन्मनोज्ञाः परिचारकास्ते / सपत्नो मे वर्धते तन्निशम्य / कच्चिद्देवानां सुखकामोऽसि विप्र सर्वोपायैर्मघवन्संनियच्छ कञ्चिदेवास्त्वां परिपालयन्ति // 1 संवतं वा पार्थिवं वा मरुत्तम् // 7 बृहस्पतिरुवाच / इन्द्र उवाच / सुखं शयेऽहं शयने महेन्द्र एहि गच्छ प्रहितो जातवेदो. - 2758 - Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 9.8] आश्वमेधिकपर्व [14. 9. 21 बृहस्पतिं परिदातुं मरुत्ते अयं वै त्वा याजयिता बृहस्पतिस्तथामरं चैव करिष्यतीति / / 8 अग्निरुवाच / अयं गच्छामि तव शक्राद्य दूतो बृहस्पतिं परिदातुं मरुत्ते। वाचं सत्यां पुरुहूतस्य कर्तुं बृहस्पतेश्चापचितिं चिकीर्षुः // 9 व्यास उवाच / ततः प्रायाभूमकेतुर्महात्मा वनस्पतीन्वीरुधश्चावमृद्गन् / कामाद्धिमान्ते परिवर्तमानः काष्ठातिगो मातरिश्वेव नर्दन् // 10 मरुत्त उवाच / आश्चर्यमद्य पश्यामि रूपिणं वह्निमागतम् / श्रासनं सलिलं पाद्यं गां चोपानय वै मुने / 11 अग्निरुवाच / आसनं सलिलं पाद्यं प्रतिनन्दामि तेऽनघ / इन्द्रेण तु समादिष्टं विद्धि मा दूतमागतम् // 12 मरुत्त उवाच / कञ्चिच्छ्रीमान्देवराजः सुखी च ___ कञ्चिच्चास्मान्प्रीयते धूमकेतो। कञ्चिदेवाश्चास्य वशे यथावत्तद्रूहि त्वं मम कार्येन देव // 13 अग्निरुवाच / शक्रो भृशं सुसुखी पार्थिवेन्द्र प्रीतिं चेच्छत्यजरां वै त्वया सः। देवाश्च सर्वे वशगास्तस्य राजसंदेशं त्वं शृणु मे देवराज्ञः // 14 / -2759 यदर्थं मां प्राहिणोत्त्वत्सकाशं ___ बृहस्पतिं परिदातुं मरुत्ते / अयं गुरुाजयिता नृप त्वां मत्य सन्तममरं त्वा करोतु // 15 मरुत्त उवाच। संवर्तोऽयं याजयित्वा द्विजो मे बृहस्पतेरञ्जलिरेष तस्य / नासौ देवं याजयित्वा महेन्द्र मत्यं सन्तं याजयन्नद्य शोभेत् // 16 अग्निरुवाच / ये वै लोका देवलोके महान्तः संप्राप्स्यसे तान्देवराजप्रसादात् / त्वां चेदसौ याजयेद्वै बृहस्पति नूनं स्वर्ग त्वं जयेः कीर्तियुक्तः // 17 तथा लोका मानुषा ये च दिव्याः प्रजापतेश्चापि ये वै महान्तः / ते ते जिता देवराज्यं च कृत्स्नं बृहस्पतिश्चेद्याजयेत्त्वां नरेन्द्र // 18 ___ संवर्त उवाच / मास्मानेवं त्वं पुनरागाः कथंचि द्वहस्पतिं परिदातुं मरुत्ते / मा त्वां धक्ष्ये चक्षुषा दारुणेन संक्रुद्धोऽहं पावक तन्निबोध // 19 ___ व्यास उवाच / ततो देवानगमद्भूमकेतु___ हादीतो व्यथितोऽश्वत्थपर्णवत् / तं वै दृष्ट्वा प्राह शक्रो महात्मा बृहस्पतेः संनिधौ हव्यवाहम् // 20 यत्त्वं गतः प्रहितो जातवेदो - Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 9. 21] महाभारते [14. 9.30 बृहस्पतिं परिदातुं मरुत्ते त्वत्संस्पर्शात्सर्वलोको बिभेतत्किं प्राह स नृपो यक्ष्यमाणः त्यश्रद्धेयं वदसे हव्यवाह // 27 कच्चिद्वचः प्रतिगृह्णाति तच्च // 21 अग्निरुवाच। आनिरुवाच / दिवं देवेन्द्र पृथिवीं चैव सर्वां न ते वाचं रोचयते मरुत्तो संवेष्टयेस्त्वं स्वबलेनैव शक। बृहस्पतेरञ्जलिं प्राहिणोत्सः। एवंविधस्येह सतस्तवासौ संवर्तो मां याजयितेत्यभीक्ष्णं कथं वृत्रस्त्रिदिवं प्राग्जहार // 28 पुनः पुनः स मया प्रोच्यमानः // 22 इन्द्र उवाच / उवाचेदं मानुषा ये च दिव्याः न चण्डिका जङ्गमा नो करेणुप्रजापतेर्ये च लोका महान्तः / न वारिसोमं प्रपिचामि वहे। '' तांश्चेल्लभेयं संविदं तेन कृत्वा न दुर्बले वै त्रिसृजामि वज्र तथापि नेच्छेयमिति प्रतीतः // 23 ____ को मेऽसुखाय प्रहरेन्मनुष्यः // 29 ___ इन्द्र उवाच / प्रव्राजयेयं कालकेयान्पृथिव्यापुनर्भवान्पार्थिवं तं समेत्य मपाकर्षं दानवानन्तरिक्षात् / वाक्यं मदीयं प्रापय स्वार्थयुक्तम् / दिवः प्रसादमवसानमानयं पुनर्ययुक्तो न करिष्यते वच को मेऽसुखाय प्रहरेत मर्त्यः // 30 स्ततो वज्रं संप्रहर्तास्मि तस्मै // 24 __ अग्निरुवाच / ___ अग्निरुवाच / यत्र शर्यातिं च्यवनो याजयिष्यगन्धर्वराड्यात्वयं तत्र दूतो न्सहाश्विभ्यां सोममगृहदेकः / _ विभेम्यहं वासव तत्र गन्तुम् / तं त्वं क्रुद्धः प्रत्यषेधीः पुरस्तासंरन्धो मामब्रवीत्तीक्ष्णरोषः च्छर्यातियङ्गं स्मर तं महेन्द्र // 31 संवतॊ वाक्यं चरितब्रह्मचर्यः // 25 वज्रं गृहीत्वा च पुरंदर त्वं यद्यागच्छेः पुनरेवं कथंचि संप्राहार्षीयवनस्यातिघोरम् / __ दृहस्पति परिदातुं मरुत्ते। स ते विप्रः सह वश्रेण बाहुदहेयं त्वां चक्षुषा दारुणेन मपाग्रहात्तपसा जातमन्युः // 32 संक्रुद्ध इत्येतदवैहि शक्र // 26 ततो रोषात्सर्वतो घोररूपं इन्द्र उवाच। सपत्नं ते जनयामास भूयः / त्वमेवान्यान्दहसे जातवेदो मदं नामासुरं विश्वरूपं न हि त्वदन्यो विद्यते भस्मकर्ता / __यं त्वं दृष्ट्वा चक्षुषी संन्यमीलः // 33 -2760 - Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 9. 34 ] आश्वमेधिकपर्व [14. 10.9 हनुरेका जगतीस्था तथैका प्रोवाचेदं वचनं वासवस्य / दिवं गता महतो दानवस्य / गन्धर्वं मां धृतराष्ट्र निबोध सहस्रं दन्तानां शतयोजनानां त्वामागतं वक्तुकामं नरेन्द्र // 3 सुतीक्ष्णानां धोररूपं बभूव // 34 ऐन्द्रं वाक्यं शृणु मे राजसिंह वृत्ताः स्थूला रजतस्तम्भवर्णा यत्प्राह लोकाधिपतिर्महात्मा / दंष्ट्राश्चतस्रो द्वे शते योजनानाम् / बृहस्पतिं याजकं त्वं वृणीष्व स त्वां दन्तान्विदशन्नभ्यधाव वज्रं वा ते प्रहरिष्यामि घोरम् / जिघांसया शूलमुद्यम्य घोरम् // 35 वचश्चेदेतन्न करिष्यसे मे अपश्यस्त्वं तं तदा घोररूपं / प्राहैतदेतावदचिन्त्यकर्मा // 4 सर्वे त्वन्ये ददृशुर्दर्शनीयम् / मरुत्त उवाच / यस्माद्भीतः प्राञ्जलिस्त्वं महर्षि त्वं चैवैतद्वेत्थ पुरंदरश्च मागच्छेथाः शरणं दानवघ्न // 36 विश्वेदेवा वसवश्वाश्विनौ च / क्षत्रादेवं ब्रह्मबलं गरीयो मित्रद्रोहे निष्कृतिई यथैव न ब्रह्मतः किंचिदन्यद्रीयः / नास्तीति लोकेषु सदैव वादः // 5 सोऽहं जानन्ब्रह्मतेजो यथाव बृहस्पतिर्यातयिता महेन्द्र न संवर्त गन्तुमिच्छामि शक्र // 37 देवश्रेष्ठं वज्रभृतां वरिष्ठम् / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि संवों मां याजयिताद्य राजनवमोऽध्यायः // 9 // न ते वाक्यं तस्य वा रोचयामि // 6 गन्धर्व उवाच। इन्द्र उवाच / घोरो नादः श्रूयते वासवस्य एवमेतद्ब्रह्मबलं गरीयो नभस्तले गर्जतो राजसिंह। न ब्रह्मतः किंचिदन्यद्गरीयः। व्यक्तं वज्रं मोक्ष्यते ते महेन्द्रः आविक्षितस्य तु बलं न मृष्ये क्षेमं राजंश्चिन्त्यतामेष कालः // 7 वज्रमस्मै प्रहरिष्यामि घोरम् // 1 व्यास उवाच। धृतराष्ट्र प्रहितो गच्छ मरुत्तं इत्येवमुक्तो धृतराष्ट्रेण राजा संवर्तेन सहितं तं वदस्व / ___ श्रुत्वा नादं नदतो वासवस्य / बृहस्पतिं त्वमुपशिक्षस्व राज तपोनित्यं धर्मविदां वरिष्ठं न्वनं वा ते प्रहरिष्यामि घोरम् // 2 / संवतं तं ज्ञापयामास कार्यम् // 8 व्यास उवाच / मरुत्त उवाच / ततो गत्वा धृतराष्ट्रो नरेन्द्र इममश्मानं प्लवमानमाराअ. भा. 346 -2761 - Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 10.9] महाभारते [14. 10. 29 दध्वा दूरं तेन न दृश्यतेऽद्य / कं ते कामं तपसा साधयामि // 16 प्रपद्येऽहं शर्म विप्रेन्द्र त्वत्तः मरुत्त उवाच / प्रयच्छ तस्मादभयं विप्रमुख्य // 9 इन्द्रः साक्षात्सहसाभ्येतु विप्र अयमायाति वै वत्री दिशो विद्योतयन्दश / ___ हविर्यज्ञे प्रतिगृह्णातु चैव। अमानुषेण घोरेण सदस्यास्त्रासिता हि नः // 10 स्वं स्वं धिष्ण्यं चैव जुषन्तु देवाः संवर्त उवाच / सुतं सोमं प्रतिगृह्णन्तु चैव // 17 भयं शक्राद्व्येतु ते राजसिंह संवर्त उवाच। ___ प्रणोत्स्येऽहं भयमेतत्सुघोरम् / अयमिन्द्रो हरिभिरायाति राजसंस्तम्भिन्या विद्यया क्षिप्रमेव न्देवैः सर्वैः सहितः सोमपीथी। मा भैस्त्वमस्माद्भव चापि प्रतीतः // 11 माहूतो यज्ञमिमं मयाद्य अहं संस्तम्भयिष्यामि मा भैस्त्वं शक्रतो नृप।। पश्यस्वैनं मन्त्रविसस्तकायम् // 18 सर्वेषामेव देवानां क्षपितान्यायुधानि मे // 12 व्यास उवाच / दिशो वज्रं व्रजतां वायुरेतु ततो देवैः सहितो देवराजो ___ वर्ष भूत्वा निपततु काननेषु / रथे युक्त्वा तान्हरीन्वाजिमुख्यान / आपः प्लवन्त्वन्तरिक्षे वृथा च आयाद्यज्ञमधि राज्ञः पिपासुसौदामिनी दृश्यतां मा विभस्त्वम् // 13 राविक्षितस्याप्रमेयस्य सोमम् // 19 अथो वह्नित्रातु वा सर्वतस्ते तमायान्तं सहितं देवसंधैः कामं वर्ष वर्षतु वासवो वा। प्रत्युद्ययौ सपुरोधा मरुत्तः / वनं तथा स्थापयतां च वायु चक्रे पूजां देवराजाय चाग्र्यां महाघोरं प्लवमानं जलौघैः // 14 __ यथाशास्त्रं विधिवत्प्रीयमाणः // 20 मरुत्त उवाच। संवर्त उवाच / घोरः शब्दः श्रूयते वै महास्वनो स्वागतं ते पुरुहूतेह विद्व___ वज्रस्यैष सहितो मारुतेन न्यज्ञोऽद्यायं संनिहिते त्वयीन्द्र। आत्मा हि मे प्रव्यथते मुहुर्मुहु शोशुभ्यते बलवृत्रघ्न भूयः र्न मे स्वास्थ्य जायते चाद्य विप्र // 15 पिबस्व सोमं सुतमुद्यतं मया // 21 संवर्त उवाच / मरुत्त उवाच / वज्रादुग्राद्व्येतु भयं तवाद्य शिवेन मां पश्य नमश्च तेऽस्तु __ वातो भूत्वा हन्मि नरेन्द्र वज्रम् / प्राप्तो यज्ञः सफलं जीवितं मे / भयं त्यक्त्वा वरमन्यं वृणीष्व अयं यज्ञं कुरुते मे सुरेन्द्र. -2762 -- Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 10. 22 ] आश्वमेधिकपर्व [ 14. 10. 36 बृहस्पतेरवरो जन्मना यः / / 22 नीलं चोक्षाणं मेध्यमभ्यालभन्तां इन्द्र उवाच / चलच्छिन्नं मत्प्रदिष्टं द्विजेन्द्राः // 29 जानामि ते गुरुमेनं तपोधनं ततो यज्ञो ववृधे तस्य राज्ञो बृहस्पतेरनुजं तिग्मतेजसम् / यत्र देवाः स्वयमन्नानि जहुः / यस्याह्वानादागतोऽहं नरेन्द्र यस्मिशक्रो ब्राह्मणैः पूज्यमानः प्रीतिर्मेऽद्य त्वयि मन्युः प्रनष्टः / / 23 सदस्योऽभूद्धरिमान्देवराजः // 30 संवर्त उवाच / ततः संवर्तश्चित्यगतो महात्मा यदि प्रीतस्त्वमसि वै देवराज - यथा वह्निः प्रज्वलितो द्वितीयः / तस्मात्स्वयं शाधि यज्ञे विधानम् / हवींष्युच्चैराह्वयन्देवसंघास्वयं सर्वान्कुरु मार्गान्सुरेन्द्र जुहावाग्नौ मत्रवत्सुप्रतीतः // 31 जानात्वयं सर्वलोकश्च देव // 24 ततः पीत्वा बलभित्सोममत्र्यं व्यास उवाच / ये चाप्यन्ये सोमपा वै दिवौकसः / एवमुक्तस्त्वाङ्गिरसेन शक्रः सर्वेऽनुज्ञाताः प्रययुः पार्थिवेन समादिदेश स्वयमेव देवान् / यथाजोषं तर्पिताः प्रीतिमन्तः // 32 सभाः क्रियन्तामावसथाश्च मुख्याः ततो राजा जातरूपस्य राशीसहस्रशश्चित्रभौमाः समृद्धाः / / 25 न्पदे पदे कारयामास हृष्टः / क्लप्तस्थूणाः कुरुतारोहणानि द्विजातिभ्यो विसृजन्भूरि वित्तं गन्धर्वाणामप्सरसां च शीघ्रम् / रराज वित्तेश इवारिहन्ता // 33 येषु नृत्येरन्नप्सरसः सहस्रशः ततो वित्तं विविधं संनिधाय * स्वर्णोद्देशः क्रियतां यज्ञबाटः // 26 यथोत्साहं कारयित्वा च कोशम् / इत्युक्तास्ते चक्रुराशु प्रतीता अनुज्ञातो गुरुणा संनिवृत्य दिवौकसः शक्रवाक्यान्नरेन्द्र। ततो वाक्यं प्राह राजानमिन्द्रः ___ शशास गामखिलां सागरान्ताम् // 34 .. प्रीतो राजन्पूजयानो मरुत्तम् // 27 एवंगुणः संबभूवेह राजा एष त्वयाहमिह राजन्समेत्य यस्य क्रतो तत्सुवर्णं प्रभूतम्। ___ ये चाप्यन्ये तव पूर्व नरेन्द्राः / तत्त्वं समादाय नरेन्द्र वित्तं सर्वाश्चान्या देवताः प्रीयमाणा यजस्व देवांस्तर्पयानो विधानैः // 35 ____ हविस्तुभ्यं प्रतिगृहन्तु राजन् // 28 वैशंपायन उवाच / आग्नेयं वै लोहितमालभन्तां ततो राजा पाण्डवो हृष्टरूपः - वैश्वदेवं बहुरूपं विराजन् / श्रुत्वा वाक्यं सत्यवत्याः सुतस्य / -2763 - Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 10. 36] महाभारते [14. 12.4 मनश्चके तेन वित्तेन यष्टुं व्याप्ते ज्योतिषि वृत्रेण रूपेऽथ विषये हृते। .. ततोऽमात्यैर्मत्रयामास भूयः // 36 शतक्रतुरभिक्रुद्धस्तत्र वनमवासृजत् // 12 इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि स वध्यमानो वज्रेण सुभृशं भूरितेजसा / दशमोऽध्यायः // 10 // विवेश सहसा वायु जग्राह विषयं ततः // 13 व्याप्ते वायौ तु वृत्रेण स्पर्शेऽथ विषये हृते / वैशंपायन उवाच / शतक्रतुरभिक्रुद्धस्तत्र वनमवासृजत् // 14 इत्युक्ते नृपतौ तस्मिन्व्यासेनाद्भुतकर्मणा / स वध्यमानो वज्रेण तस्मिन्नमिततेजसा। वासुदेवो महातेजास्ततो वचनमाददे // 1 आकाशमभिदुद्राव जग्राह विषयं ततः // 15 तं नृपं दीनमनसं निहतज्ञातिबान्धवम् / आकाशे वृत्रभूते च शब्दे च विषये हृते / उपप्लुतमिवादित्यं सधममिव पाबकम् // 2 शतक्रतुरभिक्रुद्धस्तत्र वनमवासृजत् / / 16 . . ' निर्विण्णमनसं पार्थ ज्ञात्वा वृष्णिकुलोद्भवः / स वध्यमानो वशेण तस्मिन्नमिततेजसा / आश्वासयन्धर्मसुतं प्रवक्तुमुपचक्रमे // 3 विवेश सहसा शक्रं जग्राह विषयं ततः / / 17 वासुदेव उवाच / तस्य वृत्रगृहीतस्य मोहः समभवन्महान् / सर्व जि_ मृत्युपदमार्जवं ब्रह्मणः पदम् / रथंतरेण तं तात वसिष्ठः प्रत्यबोधयत् // 18 एतावाञानविषयः किं प्रलापः करिष्यति // 4 ततो वृत्रं शरीरस्थं जघान भरतर्षभ / नैव ते निष्ठितं कर्म नैव ते शत्रवो जिताः / शतक्रतुरदृश्येन वज्रणेतीह नः श्रुतम् // 19 कथं शत्रु शरीरस्थमात्मानं नावबुध्यसे / / 5 इदं धर्मरहस्यं च शक्रेणोक्तं महर्षिषु / अत्र ते वर्तयिष्यामि यथाधर्म यथाश्रुतम् / ऋषिभिश्च मम प्रोक्तं तन्निबोध नराधिप / 20 इन्द्रस्य सह वृत्रेण यथा युद्धमवर्तत / / 6 इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि वृत्रेण पृथिवी व्याप्ता पुरा किल नराधिप / एकादशोऽध्यायः॥११॥ दृष्ट्वा स पृथिवीं व्याप्तां गन्धस्य विषये हृते / धराहरणदुर्गन्धो विषयः समपद्यत / / 7 वासुदेव उवाच / शतक्रतुश्चुकोपाथ गन्धस्य विषये हृते / द्विविधो जायते व्याधिः शारीरो मानसस्तथा / वृत्रस्य स ततः क्रुद्धो वज्रं घोरमवासृजत् / / 8 परस्परं तयोर्जन्म निर्द्वद्वं नोपलभ्यते // 1 स वध्यमानो वत्रेण पृथिव्यां भूरितेजसा / शरीरे जायते ब्याधिः शारीरो नात्र संशयः / विवेश सहसैवापो जग्राह विषयं ततः // 9 मानसो जायते व्याधिर्मनस्येवेति निश्चयः // 2 व्याप्तास्वथासु वृत्रेण रसे च विषये हृते। शीतोष्णे चैव वायुश्च गुणा राजशरीरजाः / शतक्रतुरभिक्रुद्धस्तासु वन्नमवासृजत् / / 10 तेषां गुणानां साम्यं चेत्तदाहुः स्वस्थलक्षणम् / स वध्यमानो वज्रेण सलिले भूरितेजसा। उष्णेन बाध्यते शीतं शीतेनोष्णं च बाध्यते // 3 विवेश सहसा ज्योतिर्जग्राह विषयं ततः / / 11 / सत्त्वं रजस्तमश्चेति त्रयस्त्वात्मगुणाः स्मृताः / -2764 - 12 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 12. 4] आश्वमेधिकपर्व [14. 13. 12 तेषां गुणानां साम्यं चेत्तदाहुः स्वस्थलक्षणम् / तेषामन्यतमोत्सेके विधानमुपदिश्यते / // 4 वासुदेव उवाच / हर्षेण बाध्यते शोको हर्षः शोकेन बाध्यते / न बाह्यं द्रव्यमुत्सृज्य सिद्धिर्भवति भारत / कश्चिदुःखे वर्तमानः सुखस्य स्मर्तुमिच्छति / शारीरं द्रव्यमुत्सृज्य सिद्धिर्भवति वा न वा // 1 कश्चित्सुखे वर्तमानो दुःखस्य स्मर्तुमिच्छति // 5 बाह्यद्रव्यविमुक्तस्य शारीरेषु च गृध्यतः।। स त्वं न दुःखी दुःखस्य न सुखी सुसुखस्य वा / यो धर्मो यत्सुखं चैव द्विषतामस्तु तत्तथा // 2 स्मर्तुमिच्छसि कौन्तेय दिष्टं हि बलवत्तरम् // 6 व्यक्षरस्तु भवेन्मृत्युरुयक्षरं ब्रह्म शाश्वतम् / अथ वा ते स्वभावोऽयं येन पार्थावकृष्यसे। ममेति व्यक्षरो मृत्युन ममेति च शाश्वतम् // 3 दृष्ट्वा सभागतां कृष्णामेकवस्त्रां रजस्वलाम् / ' ब्रह्म मृत्युश्च तो राजन्नात्मन्येव व्यवस्थितौ / मिषतां पाण्डवेयानां न तत्संस्मर्तुमिच्छसि // 7 अदृश्यमानौ भूतानि योधयेतामसंशयम् // 4 प्रव्राजनं च नगरादजिनैश्च विवासनम् / अविनाशोऽस्य सत्त्वस्य नियतो यदि भारत / महारण्यनिवासश्च न तस्य स्मर्तुमिच्छसि // 8 भित्त्वा शरीरं भूतानामहिंसां प्रतिपद्यते // 5 जटासुरात्परिक्लेशश्चित्रसेनेन चाहवः / लब्ध्वापि पृथिवीं सर्वां सहस्थावरजङ्गमाम् / सैन्धवाञ्च परिक्लेशो न तस्य स्मर्तुमिच्छसि // 9 ममत्वं यस्य नैव स्यात्कि तया स करिष्यति // 6 पुनरज्ञातचर्यायां कीचकेन पदा वधः / अथ वा वसतः पार्थ वने वन्येन जीवतः / याज्ञसेन्यास्तदा पार्थ न तस्य स्मर्तुमिच्छसि // 10 ममता यस्य द्रव्येषु मृत्योरास्ये स वर्तते // 7 यच्च ते द्रोणभीष्माभ्यां युद्धमासीदरिंदम / बाह्यान्तराणां शत्रूणां स्वभावं पश्य भारत / मनसैकेन योद्धव्यं तत्ते युद्धमुपस्थितम् / यन्न पश्यति तद्भूतं मुच्यते स महाभयात् // 8 तस्मादभ्युपगन्तव्यं युद्धाय भरतर्षभ / / 11 कामात्मानं न प्रशंसन्ति लोके परमव्यक्तरूपस्य परं मुक्त्वा स्वकर्मभिः / न चाकामात्काचिदस्ति प्रवृत्तिः / यत्र नैव शरैः कार्य न भृत्यैर्न च बन्धुभिः / दानं हि वेदाध्ययनं तपश्च आत्मनैकेन योद्धव्यं तत्ते युद्धमुपस्थितम् // 12 कामेन कर्माणि च वैदिकानि // 9 तस्मिन्ननिर्जिते युद्धे कामवस्थां गमिष्यसि / व्रतं यज्ञान्नियमान्ध्यानयोगाएतज्ज्ञात्वा तु कौन्तेय कृतकृत्यो भविष्यसि // 13 कामेन यो नारभते विदित्वा / एतां बुद्धिं विनिश्चित्य भूतानामागतिं गतिम् / यद्यद्ध्ययं कामयते स धर्मो पितृपैतामहे वृत्ते शाधि राज्यं यथोचितम् // 14 न यो धर्मो नियमस्तस्य मूलम् // 10 अत्र गाथाः कामगीताः कीर्तयन्ति पुराविदः / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि शृणु संकीर्त्यमानास्ता निखिलेन युधिष्ठिर // 11 द्वादशोऽध्यायः॥ 12 // नाहं शक्योऽनुपायेन हन्तुं भूतेन केनचित् / यो मां प्रयतते हन्तुं ज्ञात्वा प्रहरणे बलम् / - 2765 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 13. 12 ] महाभारते [ 14. 14. 17 तस्य तस्मिन्प्रहरणे पुनः प्रादुर्भवाम्यहम् // 12 अन्यैश्च पुरुषव्याघेाह्मणैः शास्त्रदृष्टिभिः / यो मां प्रयतते हन्तुं यज्ञैर्विविधदक्षिणैः / व्यजहाच्छोकजं दुःखं संतापं शैव मानसम् // 4 जङ्गमेष्विव कर्मात्मा पुनः प्रादुर्भवाम्यहम् // 13 अर्चयामास देवांश्च ब्राह्मणांश्च युधिष्ठिरः / यो मां प्रयतते हन्तुं वेदैर्वेदान्तसाधनैः / कृत्वाथ प्रेतकार्याणि बन्धूनां स पुनर्नृपः / स्थावरेष्विव शान्तात्मा तस्य प्रादुर्भवाम्यहम् // 14 अन्वशासत धर्मात्मा पृथिवीं सागराम्बराम् // 5 यो मां प्रयतते हन्तुं धृत्या सत्यपराक्रमः। प्रशान्तचेताः कौरव्यः स्वराज्यं प्राप्य केवलम् / भावो भवामि तस्याहं स च मां नावबुध्यते // 15 व्यासं च नारदं चैव तांश्चान्यानब्रवीन्नृपः // 6 यो मां प्रयतते हन्तुं तपसा संशितव्रतः / आश्वासितोऽहं प्राग्वृद्धैभवद्भिर्मुनिपुंगवैः / ततस्तपसि तस्याथ पुनः प्रादुर्भवाम्यहम् // 16 न सूक्ष्ममपि मे किंचिद्र्यलीकमिह विद्यते // 7 यो मां प्रयतते हन्तुं मोक्षमास्थाय पण्डितः / अर्थश्च सुमहान्प्राप्तो येन यक्ष्यामि देवताः। तस्य मोक्षरतिस्थस्य नृत्यामि च हसामि च / पुरस्कृत्येह भवतः समानेष्यामहे मखम् // 8 अवध्यः सर्वभूतानामहमेकः सनातनः / / 17 हिमवन्तं त्वया गुप्ता गमिष्यामः पितामह / तस्मात्त्वमपि तं कामं यज्ञैर्विविधदक्षिणैः / बह्वाश्चर्यो हि देशः स श्रूयते द्विजसत्तम // 9 धर्म कुरु महाराज तत्र मे स भविष्यति // 18 तथा भगवता चित्रं कल्याणं बहु भाषितम् / यजस्व वाजिमेधेन विधिवदक्षिणावता / देवर्षिणा नारदेन देवस्थानेन चैव ह // 10 . अन्यैश्च विविधैर्यज्ञैः समृद्धैराप्तदक्षिणैः // 19 मा ते व्यथास्तु निहतान्बन्धून्वीक्ष्य पुनः पुनः / नाभागधेयः पुरुषः कश्चिदेवंविधान्गुरून् / न शक्यास्ते पुनद्रष्टुं ये हतास्मिन्रणाजिरे // 20 लभते व्यसनं प्राप्य सुहृदः साधुसंमतान् // 11 स त्वमिष्ट्वा महायज्ञैः समृद्धैराप्तदक्षिणैः / एवमुक्तास्तु ते राज्ञा सर्व एव महर्षयः / लोके कीर्ति परां प्राप्य गतिमय्यां गमिष्यसि / अभ्यनुज्ञाप्य राजानं तथोभौ कृष्णफल्गुनौ / पश्यतामेव सर्वेषां तत्रैवादर्शनं ययुः // 12 इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि त्रयोदशोऽध्यायः // 13 // ततो धर्मसुतो राजा तत्रैवोपाविशत्प्रभुः / एवं नातिमहान्कालः स तेषामभ्यवर्तत // 13 वैशंपायन उवाच। कुर्वतां शौचकर्माणि भीष्मस्य निधने तदा / एवं बहुविधैर्वाक्यमुनिभिस्तैस्तपोधनैः / महादानानि विप्रभ्यो ददतामौर्ध्वदैहिकम् // 14 समाश्वस्यत राजर्षिर्हतबन्धुयुधिष्ठिरः // 1 भीष्मकर्णपुरोगाणां कुरूणां कुरुनन्दन / सोऽनुनीतो भगवता विष्टरश्रवसा स्वयम् / सहितो धृतराष्ट्रेण प्रददावौवंदै हिकम् // 15 द्वैपायनेन कृष्णेन देवस्थानेन चाभिभूः॥ 2 ततो दत्त्वा बहु धनं विप्रेभ्यः पाण्डवर्षभः / नारदेनाथ भीमेन नकुलेन च पार्थिवः / धृतराष्ट्र पुरस्कृत्य विवेश गजसाह्वयम् / / 16 कृष्णया सहदेवेन विजयेन च धीमता / / 3 / स समाश्वास्य पितरं प्रज्ञाचक्षुषमीश्वरम् / -2766 - Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 14. 17] आश्वमेधिकपर्व [14 15 27 अन्वशाद्वै स धर्मात्मा पृथिवीं भ्रातृभिः सह / / 17 असपत्नां महीं भुङ्क्ते धर्मराजो युधिष्ठिरः / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि भीमसेनप्रभावेन यमयोश्च नरोत्तम // 13 चतुर्दशोऽध्यायः // 14 // धर्मेण राज्ञा धर्मज्ञ प्राप्तं राज्यमकण्टकम् / धर्मेण निहतः संख्ये स च राजा सुयोधनः // 14 जनमेजय उवाच / अधर्मरुचयो लुब्धाः सदा चाप्रियवादिनः / विजिते पाण्डवेयैस्तु प्रशान्ते च द्विजोत्तम / धार्तराष्ट्रा दुरात्मानः सानुबन्धा निपातिताः // 15 राष्ट्रे किं चक्रतुर्वीरौ वासुदेवधनंजयौ / / 1. प्रशान्तामखिलां पार्थ पृथिवीं पृथिवीपतिः / वैशंपायन उवाच / भुङ्क्ते धर्मसुतो राजा त्वया गुप्तः कुरूद्वह // 16 विजिते पाण्डवेयैस्तु प्रशान्ते च विशां पते / रमे चाहं त्वया सार्धमरण्येष्वपि पाण्डव / राष्ट्र वभूवतुर्दृष्टौ वासुदेवधनंजयौ // 2 किमु यत्र जनोऽयं वै पृथा चामित्रकर्शन // 17 विजह्वाते मुदा युक्तौ दिवि देवेश्वराविव / यत्र धर्मसुतो राजा यत्र भीमो महाबलः / तौ वनेषु विचित्रेषु पर्वतानां च सानुषु // 3 यत्र माद्रवतीपुत्रौ रतिस्तत्र परा मम // 18 शैलेषु रमणीयेषु पल्वलेषु नदीषु च / तथैव स्वर्गकल्पेषु सभोद्देशेषु भारत / चङ्गम्यमाणौ संहृष्टावश्विनाविव नन्दने // 4 रमणीयेषु पुण्येषु सहितस्य त्वयानघ // 19 इन्द्रप्रस्थे महात्मानौ रेमाते कृष्णपाण्डवौ / कालो महांस्त्वतीतो मे शूरपुत्रमपश्यतः / प्रविश्य तां सभा रम्यां विजह्राते च भारत // 5 बलदेवं च कौरव्य तथान्यान्वृष्णिपुंगवान् // 20 तत्र युद्धकथाचित्राः परिक्लेशांश्च पार्थिव / सोऽहं गन्तुमभीप्सामि पुरीं द्वारवतीं प्रति / कथायोगे कथायोगे कथयामासतुस्तदा // 6 रोचतां गमनं मह्यं तवापि पुरुषर्षभ // 21 ऋषीणां देवतानां च वंशांस्तावाहतुस्तदा / उक्तो बहुविधं राजा तत्र तत्र युधिष्ठिरः / प्रीयमाणौ महात्मानौ पुराणावृषिसत्तमौ // 7 स ह भीष्मेण यद्युक्तमस्माभिः शोककारिते // 22 मधुरास्तु कथाश्चित्राश्चित्रार्थपदनिश्चयाः / शिष्टो युधिष्ठिरोऽस्माभिः शास्ता सन्नपि पाण्डवः / निश्चयज्ञः स पार्थाय कथयामास केशवः // 8 तेन तच्च वचः सम्यग्गृहीतं सुमहात्मना // 23 पुत्रशोकाभिसंतप्तं ज्ञातीनां च सहस्रशः / धर्मपुत्रे हि धर्मज्ञे कृतज्ञे सत्यवादिनि / कथाभिः शमयामास पार्थं शौरिर्जनार्दनः // 9 सत्यं धर्मो मतिश्चाग्र्या स्थितिश्च सततं स्थिरा // स तमाश्वास्य विधिवद्विधानज्ञो महातपाः / तद्गत्वा तं महात्मानं यदि ते रोचतेऽर्जुन / अपहृत्यात्मनो भारं विशश्रामेव सात्वतः // 10 अस्मद्गमनसंयुक्तं वचो हि जनाधिपम् // 25 ततः कथान्ते गोविन्दो गुडाकेशमुवाच ह। न हि तस्याप्रियं कुर्यां प्राणत्यागेऽप्युपस्थिते / सान्त्वयलक्ष्णया वाचा हेतुयुक्तमिदं वचः // 11 / कुतो गन्तुं महाबाहो पुरीं द्वारवतीं प्रति // 26 विजितेयं धरा कृत्स्ना सव्यसाचिन्परंतप। सर्व विदमहं पार्थ त्वयीतिहितकाम्यया / तबाहुबलमाश्रित्य राज्ञा धर्मसुतेन ह / / 12 / ब्रवीमि सत्यं कौरव्य न मिथ्यैतत्कथंचन // 27 -2767 - Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 15. 28 ] महाभारते [14. 16. 18 प्रयोजनं च निवृत्तमिह वासे ममार्जुन / तस्यां सभायां रम्यायां विजहार मुदा युतः // 2 धार्तराष्ट्रो हतो राजा सबलः सपदानुगः // 28 ततः कंचित्सभोद्देशं स्वर्गादेशसमं नृप / पृथिवी च वशे तात धर्मपुत्रस्य धीमतः / यदृच्छया तो मुदितौ जग्मतुः स्वजनावृतौ // 3 स्थिता समुद्रवसना सशैलवनकानना / ततः प्रतीतः कृष्णेन सहितः पाण्डवोऽर्जुनः। चिता रत्नैर्बहुविधैः कुरुराजस्य पाण्डव // 29 निरीक्ष्य तां सभां रम्यामिदं वचनमब्रवीत् // 4 धर्मेण राजा धर्मज्ञः पातु सर्वां वसुंधराम् / विदितं ते महाबाहो संग्रामे समुपस्थिते / / उपास्यमानो बहुभिः सिद्धेश्चापि महात्मभिः / माहात्म्यं देवकीमातस्तच ते रूपमैश्वरम् // 5 स्तूयमानश्च सततं बन्दिभिर्भरतर्षभ // 30 यत्तु तद्भवता प्रोक्तं तदा केशव सौहृदात् / तन्मया सह गत्वाद्य राजानं कुरुवर्धनम् / / तत्सर्वं पुरुषव्याघ्र नष्टं मे नष्टचेतसः // 6 आपृच्छ कुरुशार्दूल गमनं द्वारकां प्रति // 31 मम कौतूहलं त्वस्ति तेष्वर्थेषु पुनः प्रभो।. इदं शरीरं वसु यच्च मे गृहे भवांश्च द्वारकां गन्ता नचिरादिव माधव // 7 निवेदितं पार्थ सदा युधिष्ठिरे / एवमुक्तस्ततः कृष्णः फल्गुनं प्रत्यभाषत / प्रियश्च मान्यश्च हि मे युधिष्ठिरः परिष्वज्य महातेजा वचनं वदतां वरः // 8 सदा कुरूणामधिपो महामतिः // 32 श्रावितस्त्वं मया गुह्यं ज्ञापितश्च सनातनम् / प्रयोजनं चापि निवासकारणे धर्म स्वरूपिणं पार्थ सर्वलोकांश्च शाश्वतान् // 9 न विद्यते मे त्वदृते महाभुज / अबुद्धा यन्न गृहीथास्तन्मे सुमहदप्रियम् / स्थिता हि पृथ्वी तव पार्थ शासने नूनमश्ररधानोऽसि दुर्मेधाश्चासि पाण्डव // 10 गुरोः सुवृत्तस्य युधिष्ठिरस्य ह // 33 स हि धर्मः सुपर्याप्तो ब्रह्मणः पदवेदने / इतीदमुक्तं स तदा महात्मना न शक्यं तन्मया भूयस्तथा वक्तुमशेषतः // 11 जनार्दनेनामितविक्रमोऽर्जुनः। परं हि ब्रह्म कथितं योगयुक्तेन तन्मया। तथेति कृच्छ्रादिव वाचमीरय इतिहासं तु वक्ष्यामि तस्मिन्नर्थे पुरातनम् // 12 जनार्दनं संप्रतिपूज्य पार्थिव // 34 यथा तां बुद्धिमास्थाय गतिमय्यां गमिष्यसि / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि शृणु धर्मभृतां श्रेष्ठ गदतः सर्वमेव मे // 13 पञ्चदशोऽध्यायः // 15 // आगच्छद्राह्मणः कश्चित्स्वर्गलोकादरिंदम / ब्रह्मलोकाच्च दुर्धर्षः सोऽस्माभिः पूजितोऽभवत् // जनमेजय उवाच / अस्माभिः परिपृष्टश्च यदाह भरतर्षभ / सभायां वसतोस्तस्यां निहत्यारीन्महात्मनोः / दिव्येन विधिना पार्थ तच्छृणुष्वाविचारयन् // 15 केशवार्जुनयोः का नु कथा समभवहिज // 1 ब्राह्मण उवाच / वैशंपायन उवाच / मोक्षधर्म समाश्रित्य कृष्ण यन्मानुपृच्छसि / कृष्णेन सहितः पार्थः स्वराज्यं प्राप्य केवलम् / भूतानामनुकम्पार्थ यन्मोहच्छेदनं प्रभो // 16 - 2768 - Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 16. 17] आश्वमेधिकपर्व [14. 16.43 तत्तेऽहं संप्रवक्ष्यामि यथावन्मधुसूदन / आहारा विविधा भुक्ताः पीता नानाविधाः स्तनाः॥ शृणुष्वावहितो भूत्वा गदतो मम माधव // 17 मातरो विविधा दृष्टाः पितरश्च पृथग्विधाः / कश्चिद्विप्रस्तपोयुक्तः काश्यपो धर्मवित्तमः / सुखानि च विचित्राणि दुःखानि च मयानघ / आससाद द्विजं कंचिद्धर्माणामागतागमम् / / 18 प्रियैर्विवासो बहुशः संवारश्चाप्रियैः सह / गतागते सुबहुशो ज्ञानविज्ञानपारगम् / धननाशश्व संप्राप्तो लब्ध्वा दुःखेन तद्धनम् // 33 लोकतत्त्वार्थकुशलं ज्ञातारं सुखदुःखयोः // 19 अवमानाः सुकष्टाश्च परतः स्वजनात्तथा / जातीमरणतत्त्वज्ञं कोविदं पुण्यपापयोः . शारीरा मानसाश्चापि वेदना भृशदारुणाः // 34 द्रष्टारमुच्चनीचानां कर्मभिर्देहिनां गतिम् // 20 प्राप्ता विमाननाश्चोग्रा वधबन्धाश्च दारुणाः / चरन्तं मुक्तवत्सिद्धं प्रशान्तं संयतेन्द्रियम् / / पतनं निरये चैव यातनाश्च यमक्षये // 35 दीप्यमानं श्रिया ब्राहृया क्रममाणं च सर्वशः / / जरा रोगाश्च सततं वासनानि च भूरिशः / अन्तर्धानगतिज्ञं च श्रुत्वा तत्त्वेन काश्यपः / लोकेऽस्मिन्ननुभूतानि द्वंद्वजानि भृशं मया // 36 तथैवान्तर्हितैः सिद्धैर्यान्तं चक्रधरैः सह // 22 ततः कदाचिन्निर्वेदानिकारान्निकृतेन च / संभाषमाणमेकान्ते समासीनं च तैः सह / लोकतनं परित्यक्तं दुःखातेन भृशं मया / यदृच्छया च गच्छन्तमसक्तं पवनं यथा // 23 ततः सिद्धिरियं प्राप्ता प्रसादादात्मनो मया // 37 तं समासाद्य मेधावी स तदा द्विजसत्तमः / नाहं पुनरिहागन्ता लोकानालोकयाम्यहम् / चरणौ धर्मकामो वै तपस्वी सुसमाहितः / आ सिद्धेरा प्रजासर्गादात्मनो मे गतिः शुभा // प्रतिपेदे यथान्यायं भक्त्या परमया युतः // 24 उपलब्धा द्विजश्रेष्ठ तथेयं सिद्धिरुत्तमा / विस्मितश्चाद्भुतं दृष्ट्वा काश्यपस्तं द्विजोत्तमम् / इतः परं गमिष्यामि ततः परतरं पुनः / परिचारेण महता गुरुं वैद्यमतोषयत् // 25 ब्रह्मणः पदमव्यग्रं मा ते भूदत्र संशयः // 39 प्रीतात्मा चोपपन्नश्च श्रुतचारित्रसंयतः / नाहं पुनरिहागन्ता मर्त्यलोकं परंतप / भावेन तोषयश्चैनं गुरुवृत्त्या परंतपः // 26 प्रीतोऽस्मि ते महाप्राज्ञ ब्रूहि किं करवाणि ते // 40 तस्मै तुष्टः स शिष्याय प्रसन्नोऽथाप्रवीद्गुरुः / यदीप्सुरुपपन्नस्त्वं तस्य कालोऽयमागतः / सिद्धि परामभिप्रेक्ष्य शृणु तन्मे जनार्दन // 27 अभिजाने च तदहं यदर्थ मा त्वमागतः / विविधैः कर्मभिस्तात पुण्ययोगैश्च केवलैः / अचिरात्तु गमिष्यामि येनाहं त्वामचूचुदम् // 41 गच्छन्तीह गतिं मां देवलोकेऽपि च स्थितिम् // भृशं प्रीतोऽस्मि भवतश्चारित्रेण विचक्षण / न कचित्सुखमत्यन्तं न कचिच्छाश्वती स्थितिः / परिपृच्छ यावद्भवते भाषेयं यत्तवेप्सितम् // 42 स्थानाच्च महतो भ्रंशो दुःखलब्धात्पुनः पुनः // 29 | बहु मन्ये च ते बुद्धिं भृशं संपूजयामि च / अशुभा गतयः प्राप्ताः कष्टा मे पापसेवनात् / येनाहं भवता बुद्धो मेधावी द्यसि काश्यप // 43 काममन्युपरीतेन तृष्णया मोहितेन च / / 30 इति श्रीमहाभारते भाश्वमेधिकपर्वणि पुनः पुनश्च मरणं जन्म चैव पुनः पुनः / षोडशोऽध्यायः॥१६॥ म. भा, 35 -2769 - Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 17. 1] महाभारते [14. 17. 25 स्वदोषकोपनाद्रोगं लभते मरणान्तिकम् / / वासुदेव उवाच / अथ चोद्वन्धनादीनि परीतानि व्यवस्यति // 13 ततस्तस्योपसंगृह्य पादौ प्रश्नान्सुदुर्वचान् / तस्य तैः कारणैर्जन्तोः शरीराच्यवते यथा / पप्रच्छ तांश्च सर्वान्स प्राह धर्मभृतां वरः / / 1 जीवितं प्रोच्यमानं तद्यथावदुपधारय // 14 काश्यप उवाच / ऊष्मा प्रकुपितः काये तीव्रवायुसमीरितः। शरीरमनुपर्येति सर्वान्प्राणान्रुणद्धि वै // 15 कथं शरीरं च्यवते कथं चैवोपपद्यते / अत्यर्थं बलवानूष्मा शरीरे परिकोपितः। . कथं कष्टाच संसारात्संसरन्परिमुच्यते // 2 आत्मानं वा कथं युक्त्या तच्छरीरं विमुञ्चति / भिनत्ति जीवस्थानानि तानि मर्माणि विद्धि च // शरीरतश्च निर्मुक्तः कथमन्यत्प्रपद्यते // 3 ततः सवेदनः सद्यो जीवः प्रच्यवते क्षरन् / कथं शुभाशुभे चायं कर्मणी स्वकृते नरः / शरीरं त्यजते जन्तुश्छिद्यमानेषु मर्मसु / . . उपभुङ्क्ते क वा कर्म विदेहस्योपतिष्ठति // 4 वेदनाभिः परीतात्मा तद्विद्धि द्विजसत्तम / 17 जातीमरणसंविग्नाः सततं सर्वजन्तवः / ब्राह्मण उवाच। दृश्यन्ते संत्यजन्तश्च शरीराणि द्विजर्षभ // 18 एवं संचोदितः सिद्धः प्रश्नांस्तान्प्रत्यभाषत / गर्भसंक्रमणे चापि मर्मणामतिसर्पणे / आनुपूर्येण वार्ष्णेय यथा तन्मे वचः शृणु // 5 तादृशीमेव लभते वेदनां मानवः पुनः / / 59 ___ सिद्ध उवाच। भिन्नसंधिरथ क्लेदमद्भिः स लभते नरः / आयुःकीर्तिकराणीह यानि कर्माणि सेवते / यथा पञ्चसु भूतेषु संश्रितत्वं निगच्छति। . शरीरग्रहणेऽन्यस्मिस्तेषु क्षीणेषु सर्वशः // 6 शैत्यात्प्रकुपितः काये तीव्रवायुसमीरितः / / 20 आयुःक्षयपरीतात्मा विपरीतानि सेवते / यः स पञ्चसु भूतेषु प्राणापाने व्यवस्थितः / बुद्धिावर्तते चास्य विनाशे प्रत्युपस्थिते // 7 स गच्छत्यूर्ध्वगो वायुः कृच्छ्रान्मुक्त्वा शरीरिणम्॥ सत्त्वं बलं च कालं चाप्यविदित्वात्मनस्तथा / शरीरं च जहात्येव निरुच्छासश्च दृश्यते / अतिवेलमुपानाति तैर्विरुद्धान्यनात्मवान् // 8 निरूष्मा स निरुच्छासो निःश्रीको गतचेतनः॥२२ यदायमतिकष्टानि सर्वाण्युपनिषेवते / ब्रह्मणा संपरित्यक्तो मृत इत्युच्यते नरः / अत्यर्थमपि वा भुङ्क्ते न वा भुङ्क्ते कदाचन // 9 स्रोतोभिर्विजानाति इन्द्रियार्थाशरीरभृत् / दुष्टान्नं विषमान्नं च सोऽन्योन्येन विरोधि च / तैरेव न विजानाति प्राणमाहारसंभवम् / / 23 गुरु वापि समं भुङ्क्ते नातिजीर्णेऽपि वा पुनः // 10 तत्रैव कुरुते काये यः स जीवः सनातनः / व्यायाममतिमात्रं वा व्यवायं चोपसेवते / तेषां यद्यद्भवेद्युक्तं संनिपाते कचिक्वचित् / सततं कर्मलोभाद्वा प्राप्तं वेगविधारणम् // 11 तत्तन्भर्म विजानीहि शास्त्रदृष्टं हि तत्तथा // 24 रसादियुक्तमन्नं वा दिवास्वप्नं निषेवते / तेषु मर्मसु भिन्नेषु ततः स समुदीरयन् / अपकानागो काले स्वयं दोषान्प्रकोपयन् // 12 / आविश्य हृदयं जन्तोः सत्त्वं चाशु रुणद्धि वै / -2770 - Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 17. 25 ] आश्वमेधिकपर्व [ 14. 18. 11 ततः स चेतनो जन्तु भिजानाति किंचन // 25 - उपपत्ति तु गर्भस्य वक्ष्याम्यहमतः परम् / तमसा संवृतज्ञानः संवृतेष्वथ मर्मसु / यथावत्तां निगदतः शृणुष्वावहितो द्विज // 39 स जीवो निरधिष्ठानश्चाव्यते मातरिश्वना // 26 / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि ततः स तं महोच्छासं भृशमुच्छ्रस्य दारुणम् / सप्तदशोऽध्यायः // 17 // निष्क्रामन्कम्पयत्याशु तच्छरीरमचेतनम् // 27 स जीवः प्रच्युतः कायात्कर्मभिः स्वैः समावृतः / ब्राह्मण उवाच / अङ्कितः स्वैः शुभैः पुण्यैः पापैर्वाप्युपपद्यते // 28 शुभानामशुभानां च नेह नाशोऽस्ति कर्मणाम् / ब्राह्मणा ज्ञानसंपन्ना यथावच्छृतनिश्चयाः। प्राप्य प्राप्य तु पच्यन्ते क्षेत्रं क्षेत्रं तथा तथा // 1 इतरं कृतपुण्यं वा तं विजानन्ति लक्षणैः // 29 / यथा प्रसूयमानस्तु फली दद्यात्फलं बहु / यथान्धकारे खद्योतं लीयमानं ततस्ततः / तथा स्याद्विपुलं पुण्यं शुद्धेन मनसा कृतम् // 2 चक्षुष्मन्तः प्रपश्यन्ति तथा तं ज्ञानचक्षुषः // 30 पापं चापि तथैव स्यात्पापेन मनसा कृतम् / पश्यन्त्येवंविधाः सिद्धा जीवं दिव्येन चक्षुषा / / पुरोधाय मनो हीह कर्मण्यात्मा प्रवर्तते // 3 च्यवन्तं जायमानं च.योनि चानुप्रवेशितम् / / 31 यथा कर्मसमादिष्टं काममन्युसमावृतः / तस्य स्थानानि दृष्टानि त्रिविधानीह शास्त्रतः। नरो गर्भ प्रविशति तच्चापि शृणु चोत्तरम् // 4 कर्मभूमिरियं भूमिर्यत्र तिष्ठन्ति जन्तवः // 32 शुक्र शोणितसंसृष्टं स्त्रिया गर्भाशयं गतम् / ततः शुभाशुभं कृत्वा लभन्ते सर्वदेहिनः / क्षेत्रं कर्मजमाप्नोति शुभं वा यदि वाशुभम् // 5 इहैवोच्चावचान्भोगान्प्राप्नुवन्ति स्वकर्मभिः // 33 सौम्यादव्यक्तभावाच न स वचन सज्जते / इहैवाशुभकर्मा तु कर्मभिर्निरयं गतः / संप्राप्य ब्रह्मणः कायं तस्मात्तद्ब्रह्म शाश्वतम् / अवाक्स निरये पापो मानवः पच्यते भृशम्। तद्बीजं सर्वभूतानां तेन जीवन्ति जन्तवः // 6 तस्मात्सुदुर्लभो मोक्ष आत्मा रक्ष्यो भृशं ततः॥३४ स जीवः सर्वगात्राणि गर्भस्याविश्य भागशः। ऊध्वं तु जन्तवो गत्वा येषु स्थानेष्ववस्थिताः / / दधाति चेतसा सद्यः प्राणस्थानेष्ववस्थितः / कीर्त्यमानानि तानीह तत्त्वतः संनिबोध मे। ततः स्पन्दयतेऽङ्गानि स गर्भश्चेतनान्वितः // 7 तच्छ्रुत्वा नैष्ठिकी बुद्धिं बुद्ध्येथाः कर्मनिश्चयात् // यथा हि लोहनिष्यन्दो निषिक्तो बिम्बविग्रहम् / तारारूपाणि सर्वाणि यच्चैतच्चन्द्रमण्डलम् / उपैति तद्वजानीहि गर्भे जीवप्रवेशनम् // 8 यच्च विभ्राजते लोके स्वभासा सूर्यमण्डलम् / लोहपिण्डं यथा वह्निः प्रविशत्यभितापयन् / स्थानान्येतानि जानीहि नराणां पुण्यकर्मणाम् // 36 / तथा त्वमपि जानीहि गर्भे जीवोपपादनम् // 9 कर्मक्षयाच्च ते सर्वे च्यवन्ते वै पुनः पुनः। __यथा च दीपः शरणं दीप्यमानः प्रकाशयेत् / तत्रापि च विशेषोऽस्ति दिवि नीचोच्चमध्यमः // एवमेव शरीराणि प्रकाशयति चेतना // 10 न तत्राप्यस्ति संतोषो दृष्ट्वा दीप्ततरां श्रियम् / यद्यच्च कुरुते कर्म शुभं वा यदि वाशुभम् / इत्येता गतयः सर्वाः पृथक्त्वे समुदीरिताः॥३८ / पूर्वदेहकृतं सर्वमवश्यमुपभुज्यते // 11 -2771 - Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 18. 12] महाभारते [ 14. 19.5 ततस्तत्क्षीयते चैव पुनश्चान्यत्प्रचीयते / असृजत्सर्वभूतानि पूर्वसृष्टः प्रजापतिः / यावत्तन्मोक्षयोगस्थं धर्म नैवावबुध्यते // 12 स्थावराणि च भूतानि इत्येषा पौर्विकी श्रुतिः // 20 तत्र धर्म प्रवक्ष्यामि सुखी भवति येन वै / तस्य कालपरीमाणमकरोत्स पितामहः। आवर्तमानो जातीषु तथान्योन्यासु सत्तम // 13 भूतेषु परिवृत्तिं च पुनरावृत्तिमेव च // 28 दानं व्रतं ब्रह्मचर्य यथोक्तव्रतधारणम् / यथात्र कश्चिन्मेधावी दृष्टात्मा पूर्वजन्मनि / दमः प्रशान्तता चैव भूतानां चानुकम्पनम् // 14 यत्प्रवक्ष्यामि तत्सर्वं यथावदुपपद्यते // 29 संयमश्चानृशंस्यं च परस्वादानवर्जनम् / सुखदुःखे सदा सम्यगनित्ये यः प्रपश्यति / व्यलीकानामकरणं भूतानां यत्र सा भुवि // 15 कायं चामध्यसंघातं विनाशं कर्मसंहितम् // 30 मातापित्रोश्च शुश्रूषा देवतातिथिपूजनम् / यच्च किंचित्सुखं तच्च सर्व दुःखमिति स्मरन् / गुरुपूजा घृणा शौचं नित्यमिन्द्रियसंयमः // 16 संसारसागरं घोरं तरिष्यति सुदुस्तरम् // 31 प्रवर्तनं शुभानां च तत्सतां वृत्तमुच्यते / जातीमरणरोगैश्च समाविष्टः प्रधानवित् / ततो धर्मः प्रभवति यः प्रजाः पाति शाश्वतीः // चेतनावत्सु चैतन्यं समं भूतेषु पश्यति // 32 एवं सत्सु सदा पश्येत्तत्र ह्येषा ध्रुवा स्थितिः / निर्विद्यते ततः कृत्म मार्गमाणः परं पदम् / आचारो धर्ममाचष्टे यस्मिन्सन्तो व्यवस्थिताः॥ तस्योपदेशं वक्ष्यामि याथातथ्येन सत्तम / / 33 तेषु तद्धर्मनिक्षिप्तं यः स धर्मः सनातनः / शाश्वतस्याव्ययस्याथ पदस्य ज्ञानमुत्तमम् / . यस्तं समभिपद्यत न स दुर्गतिमाप्नुयात् // 19 प्रोच्यमानं मया विप्र निबोधेदमशेषतः // 34 अतो नियम्यते लोकः प्रमुह्य धर्मवर्त्मसु / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि यस्तु योगी च मुक्तश्च म एतेभ्यो विशिष्यते // ___ अष्टादशोऽध्यायः॥ 18 // वर्तमानस्य धर्मेण पुरुषस्य यथा तथा / संसारतारणं ह्यस्य कालेन महता भवेत् // 21 ब्राह्मण उवाच / एवं पूर्वकृतं कर्म सर्वो जन्तुनिषेवते / यः स्यादेकायने लीनस्तूष्णीं किंचिदचिन्तयन् / सर्व तत्कारणं येन निकृतोऽयमिहागतः // 22 पूर्वं पूर्व परित्यज्य स निरारम्भको भवेत् // 1 शरीरग्रहणं चास्य केन पूर्व प्रकल्पितम् / सर्वमित्रः सर्वसहः समरक्तो जितेन्द्रियः / इत्येवं संशयो लोके तच्च वक्ष्याम्यतः परम् // 23 व्यपेतभयमन्युश्च कामहा मुच्यते नरः // 2 शरीरमात्मनः कृत्वा सर्वभूतपितामहः / आत्मवत्सर्वभूतेषु यश्चरेन्नियतः शुचिः / त्रैलोक्यमसृजद्ब्रह्मा कृत्स्नं स्थावरजङ्गमम् // 24 अमानी निरभीमानः सर्वतो मुक्त एव सः // 3 ततः प्रधानमसृजच्चेतना सा शरीरिणाम् / जीवितं मरणं चोभे सुखदुःखे तथैव च / यया सर्वमिदं व्याप्तं यां लोके परमां विदुः // 25 लाभालाभे प्रियद्वेष्ये यः समः स च मुच्यते // 4 इह तत्क्षरमित्युक्तं परं त्वमृतमक्षरम् / न कस्यचित्स्पृहयते नावजानाति किंचन / त्रयाणां मिथुनं सर्वमेकैकस्य पृथक्पृथक् // 26 / निद्वंद्वो वीतरागात्मा सर्वतो मुक्त एव सः // 5 -772 - Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 19.6] आश्वमेधिकपर्व [14. 19. 35 अनमित्रोऽथ निर्बन्धुरनपत्यश्च यः कचित् / / इषीकां वा यथा मुखात्कश्चिन्निर्हत्य दर्शयेत् / त्यक्तधर्मार्थकामश्च निराकासी स मुच्यते // 6 योगी निष्कृष्टमात्मानं तथा संपश्यते तनौ // 21 नैव धर्मी न चाधर्मी पूर्वोपचितहा च यः / मुलं शरीरं तस्याहुरिषीकामात्मनि श्रिताम् / धातुक्षयप्रशान्तात्मा निद्वंद्वः स विमुच्यते // . एतन्निदर्शनं प्रोक्तं योगविद्भिरनुत्तमम् // 22 अकर्मा चाविकारश्च पश्यनगदशाश्वतम् / यदा हि युक्तमात्मानं सम्यक्पश्यति देहभृत् / अस्वस्थमवशं नित्यं जन्मसंसारमोहितम् // 8 तदास्म नेशते कश्चित्रैलोक्यस्मापि यः प्रभुः // 25 वैराग्यबुद्धिः सततं तापदोषव्यपेक्षकः। . अन्योन्याश्चैव तनवो यथेष्टं प्रतिपद्यते / आत्मबन्धविनिर्मोक्षं स करोत्यचिरादिव // 9 विनिवृत्य जरामृत्यू न हृष्यति न शोचति // 24 अगन्धरसमस्पर्शमशब्दमपरिग्रहम् / देवानामपि देवत्वं युक्तः कारयते वशी।। अरूपमनभिज्ञेयं दृष्ट्वात्मानं विमुच्यते // 10 ब्रह्म चाव्ययमाप्नोति हित्वा देहमशाश्वतम् // 25 पञ्चभूतगुणैनिममूर्तिमदलेपकम् / विनश्यत्स्वपि लोकेषु न भयं तस्य जायते / अगुणं गुणभोक्तारं यः पश्यति स मुच्यते / / 11 / क्लिश्यमानेषु भूतेषु न स क्लिश्यति केनचित् // 26 विहाय सर्वसंकल्पान्बुद्ध्या शारीरमानसान् / दुःखशोकमये|रैः सङ्गस्नेहसमुद्भवैः / शनैर्निर्वाणमाप्नोति निरिन्धन इवानलः // 12 न विचाल्येत युक्तात्मा निःस्पृहः शान्तमानसः॥ विमुक्तः सर्वसंस्कारैस्ततो ब्रह्म सनातनम् / नैनं शस्त्राणि विध्यन्ते न मृत्युश्चास्य विद्यते / परमाप्नोति संशान्तमचलं दिव्यमक्षरम् / / 13 नातः सुखतरं किंचिल्लोके वचन विद्यते // 28 अतः परं प्रवक्ष्यामि योगशास्त्रमनुत्तमम् / सम्यग्युक्त्वा यदात्मानमात्मन्येव प्रपश्यति / यज्ज्ञात्वा सिद्धमात्मानं लोके पश्यन्ति योगिनः॥ तदैव न स्पृहयते साक्षादपि शतक्रतोः // 29 तस्योपदेशं पश्यामि यथावत्तन्निबोध मे / निर्वेदस्तु न गन्तव्यो युञ्जानेन कथंचन / यारैश्चारयन्नित्यं पश्यत्यात्मानमात्मनि // 15 योगमेकान्तशीलस्तु यथा युञ्जीत तच्छृणु // 30 इन्द्रियाणि तु संहृत्य मन आत्मनि धारयेत् / / दृष्टपूर्वी दिशं चिन्त्य यस्मिन्संनिवसेत्पुरे / तीव्र तप्त्वा तपः पूर्वं ततो योक्तुमुपक्रमेत् // 16 पुरस्याभ्यन्तरे तस्य मनश्चार्य न बाह्यतः // 31 तपस्वी त्यक्तसंकल्पो दम्भाहंकारवर्जितः / पुरस्याभ्यन्तरे तिष्ठन्यस्मिन्नावसथे वसेत् / मनीषी मनसा विप्रः पश्यत्यात्मानमात्मनि // 17 तस्मिन्नावसथे धार्य सबाह्याभ्यन्तरं मनः // 32 स चेच्छनोत्ययं साधुर्योक्तुमात्मानमात्मनि / प्रचिन्त्यावसथं कृत्स्नं यस्मिन्कायेऽवतिष्ठते / तत एकान्तशीलः स पश्यत्यात्मानमात्मनि // 18 / तस्मिन्काये मनश्चार्य न कथंचन बाह्यतः // 33 संयतः सततं युक्त आत्मवान्विजितेन्द्रियः / संनियम्येन्द्रियग्रामं निघोषे निर्जने वने / तथायमात्मनात्मानं साधु युक्तः प्रपश्यति // 19 कायमभ्यन्तरं कृत्स्नमेकाग्रः परिचिन्तयेत् // 34 यथा हि पुरुषः स्वप्ने दृष्ट्वा पश्यत्यसाविति / दन्तांस्तालु च जिह्वां च गलं ग्रीवां तथैव च / तथारूपमिवात्मानं साधु युक्तः प्रपश्यति // 20 / हृदयं चिन्तयेच्चापि तथा हृदयबन्धनम् // 35 -2773 - Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 19. 36 ] महाभारते [ 14. 19. 600 इत्युक्तः स मया शिष्यो मेधावी मधुसूदन / वासुदेव उवाच / पप्रच्छ पुनरेवेमं मोक्षधर्म सुदुर्वचम् // 36 इत्युक्त्वा स तदा वाक्यं मां पार्थ द्विजपुंगवः / भुक्तं भुक्तं कथमिदमन्नं कोष्ठे विपच्यते / मोक्षधर्माश्रितः सम्यक्तत्रैवान्तरधीयत // 49 कथं रसत्वं व्रजति शोणितं जायते कथम् / कञ्चिदेतत्त्वया पार्थ श्रुतमेकाग्रचेतसा।। तथा मांसं च मेदश्च स्नाय्वस्थीनि च पोषति // 37 तदापि हि रथस्थस्त्वं श्रुतवानेतदेव हि // 50 कथमेतानि सर्वाणि शरीराणि शरीरिणाम् / नैतत्पार्थ सुविज्ञेयं व्यामिश्रेणेति मे मतिः / वर्धन्ते वर्धमानस्य वर्धते च कथं बलम् / नरेणाकृतसंज्ञेन विदग्धेनाकृतात्मना / 51 . निरोजसां निष्क्रमणं मलानां च पृथक् पृथक् // 38 सुरहस्यमिदं प्रोक्तं देवानां भरतर्षभ / कुतो वायं प्रश्वसिति उच्छसित्यपि वा पुनः।। कञ्चिन्नेदं श्रुतं पार्थ मयनान्येन केनचित् // 52 कं च देशमधिष्ठाय तिष्ठत्यात्मायमात्मनि // 39 न ह्येतच्छ्रोतुमर्होऽन्यो मनुष्यस्त्वामृतेऽनघ / जीवः कायं वहति चेचेष्टयानः कलेवरम् / नैतदद्य सुविज्ञेयं व्यामिश्रेणान्तरात्मना // 53 किंवणं कीदृशं चैव निवेशयति वै मनः / क्रियावद्भिर्हि कौन्तेय देवलोकः समावृतः / याथातथ्येन भगवन्वक्तुमर्हसि मेऽनघ / 40 न चैतदिष्टं देवानां मत्र्यै रूपनिवर्तनम् // 54 इति संपरिपृष्टोऽहं तेन विप्रेण माधव / परा हि सा गतिः पार्थ यत्तद्ब्रह्म सनातनम् / प्रत्यब्रुवं महाबाहो यथाश्रुतमरिंदम // 41 यत्रामृतत्वं प्राप्नोति त्यक्त्वा दुःखं सदा सुखी॥ यथा स्वकोष्ठे प्रक्षिप्य कोष्ठं भाण्डमना भवेत् / एवं हि धर्ममास्थाय येऽपि स्युः पापयोनयः / तथा स्वकाये प्रक्षिप्य मनो द्वारैरनिश्चलैः / स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् // आत्मानं तत्र मार्गेत प्रमादं परिवर्जयेत् // 42 किं पुनर्ब्राह्मणाः पार्थ क्षत्रिया वा बहुश्रुताः। एवं सततमुद्युक्तः प्रीतात्मा नचिरादिव / स्वधर्मरतयो नित्यं ब्रह्मलोकपरायणाः // 57 आसादयति तद्ब्रह्म यदृष्ट्वा स्यात्प्रधानवित् / / 43 हेतुमच्चैतदुद्दिष्टमुपायाश्चास्य साधने / न त्वसौ चक्षुषा ग्राह्यो न च सर्वैरपीन्द्रियैः। सिद्धेः फलं च मोक्षश्च दुःखस्य च विनिर्णयः / मनसैव प्रदीपेन महानात्मनि दृश्यते / / 44 अतः परं सुखं त्वन्यत्किं नु स्याङ्गरतर्पभ / / 58 सर्वतःपाणिपादं तं सर्वतोक्षिशिरोमुखम् / श्रुतवाश्रद्दधानश्च पराक्रान्तश्च पाण्डव / जीवो निष्क्रान्तमात्मानं शरीरात्संप्रपश्यति // 45 यः परित्यजते मर्यो लोकतन्त्रमसारवत् / स तदुत्सृज्य देहं स्वं धारयन्ब्रह्म केवलम् / एतैरुपायैः स क्षिप्रं परां गतिमवाप्नुयात् // 59 आत्मानमालोकयति मनसा प्रहसन्निव // 46 एतावदेव वक्तव्यं नातो भूयोऽस्ति किंचन। इदं सर्वरहस्यं ते मयोक्तं द्विजसत्तम / षण्मासान्नित्ययुक्तस्य योगः पार्थ प्रवर्तते // 60 आपृच्छे साधयिष्यामि गच्छ शिष्य यथासुखम्। इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि इत्युक्तः स तदा कृष्ण मया शिष्यो महातपाः / एकोनविंशोऽध्यायः // 19 // अगच्छत यथाकामं ब्राह्मणश्छिन्नसंशयः / / 48 - 2774 - Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 20. 1) आश्वमेधिकपर्व [14. 20. 27 तत एव प्रवर्तन्ते तमेव प्रविशन्ति च / वासुदेव उवाच / समानव्यानयोर्मध्ये प्राणापानौ विचेरतुः // 15 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / तस्मिन्सुप्ते प्रलीयेते समानो व्यान एव च / दंपत्योः पार्थ संवादमभयं नाम नामतः // 1 अपानप्राणयोर्मध्ये उदानो व्याप्य तिष्ठति / ब्राह्मणी ब्राह्मणं कंचिज्ज्ञानविज्ञानपारगम् / तस्माच्छयानं पुरुषं प्राणापानौ न मुञ्चतः // 16 दृष्ट्वा विविक्त आसीनं भार्या भर्तारमब्रवीत् // 2 प्राणानायम्यते येन तमुदानं प्रचक्षते / कं नु लोकं गमिष्यामि त्वामहं पतिमाश्रिता। तस्मात्तपो व्यवस्यन्ति तद्भवं ब्रह्मवादिनः // 17 न्यस्तकर्माणमासीनं कीनाशमविचक्षणम् // 3 तेषामन्योन्यभक्षाणां सर्वेषां देहचारिणाम् / भार्याः पतिकृताल्लोकानाप्नुवन्तीति नः श्रुतम् / अग्निर्वैश्वानरो मध्ये सप्तधा विहितोऽन्तरा // 18 त्वामहं पतिमासाद्य कां गमिष्यामि वै गतिम् // 4 घ्राणं जिह्वा च चक्षुश्च त्वक्च श्रोत्रं च पञ्चमम् / एवमुक्तः स शान्तात्मा तामुवाच हसन्निव / / मनो बुद्धिश्च सप्तैता जिह्वा वैश्वानरार्चिषः // 19 सुभगे नाभ्यसूयामि वाक्यस्यास्य तवानघे // 5 घेयं पेयं च दृश्यं च स्पृश्यं श्रव्यं तथैव च / प्राह्यं दृश्यं च श्राव्यं च यदिदं कर्म विद्यते / एतदेव व्यवस्यन्ति कर्म कर्मेति कर्मिणः // 6 मन्तव्यमथ बोद्धव्यं ताः सप्त समिधो मम // 20 मोहमेव नियच्छन्ति कर्मणा ज्ञानवर्जिताः / घ्राता भक्षयिता द्रष्टा स्प्रष्टा श्रोता च पञ्चमः / भैष्कम्यं न च लोकेऽस्मिन्मौर्तमित्युपलभ्यते // 7 मन्ता बोद्धा च सप्तैते भवन्ति परमर्विजः // 21 कर्मणा मनसा वाचा शुभं वा यदि वाशुभम् / घेये पेये च दृश्ये च स्पृश्ये श्रव्ये तथैव च / जन्मादिमूर्तिभेदानां कर्म भूतेषु वर्तते // 8 हवींष्यग्निषु होतारः सप्तधा सप्त सप्तसु / रक्षोभिर्वध्यमानेषु दृश्यद्रव्येषु कर्मसु।। सम्यक्प्रक्षिप्य विद्वांसो जनयन्ति स्वयोनिषु // 22 आत्मस्थमात्मना तेन दृष्टमायतनं मया // 9 पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च पश्चमम् / यत्र तद्ब्रह्म निर्द्वद्वं यत्र सोमः सहाग्निना / मनो बुद्धिश्च सप्तैते योनिरित्येव शब्दिताः // 23 व्यवायं कुरुते नित्यं धीरो भूतानि धारयन् // 10 हविर्भूता गुणाः सर्वे प्रविशन्त्यग्निजं मुखम् / यत्र ब्रह्मादयो युक्तास्तदक्षरमुपासते / अन्तर्वासमुषित्वा च जायन्ते स्वासु योनिषु / विद्वांसः सुव्रता यत्र शान्तात्मानो जितेन्द्रियाः / / तत्रैव च निरुध्यन्ते प्रलये भूतभावने // 24 घ्राणेन न तदायं न तदाधं च जिह्वया / ततः संजायते गन्धस्ततः संजायते रसः / स्पर्शेन च न तत्स्पृश्यं मनसा त्वेव गम्यते // 12 चक्षुषा न विषह्यं च यत्किचिच्छ्रवणात्परम् / ततः संजायते रूपं ततः स्पर्शोऽभिजायते / / 25 अगन्धमरसस्पर्शमरूपाशब्दमव्ययम् // 13 ततः संजायते शब्दः संशयस्तत्र जायते / यतः प्रवर्तते तत्रं यत्र च प्रतितिष्ठति / ततः संजायते निष्ठा जन्मैतत्सप्तधा विदुः // 26 प्राणोऽपानः समानश्च व्यानश्चोदान एव च // 14 / अनेनैव प्रकारेण प्रगृहीतं पुरातनैः / -2775 - Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 20. 27 ] महाभारते [14. 22.1 पूर्णाहुतिभिरापूर्णास्तेऽभिपूर्यन्ति तेजसा // 27 / तन्मनो जङ्गमं नाम तस्मादसि गरीयसी // 12 इति श्रीमहाभारते भाश्वमेधिकपणि यस्मादसि च मा वोचः स्वयमभ्येत्य शोभने / विंशोऽध्यायः // 20 // तस्मादुच्छ्वासमासाद्य न वक्ष्यसि सरस्वति // 13 प्राणापानान्तरे देवी वाग्वै नित्यं स्म तिष्ठति / ब्राह्मण उवाच। प्रेर्यमाणा महाभागे विना प्राणमपानती। अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / प्रजापतिमुपाधावत्प्रसीद भगवन्निति // 14 निबोध दशहोतृणां विधानमिह यादृशम् // 1 ततः प्राणः प्रादुरभूद्वाचमाप्याययन्पुनः / सर्वमेवात्र विज्ञेयं चित्तं ज्ञानमवेक्षते / तस्मादुच्छासमासाद्य न वाग्वदति कर्हि चित् // रेतः शरीरभृत्काये विज्ञाता तु शरीरभृत् // 2 घोषिणी जातनिर्घोषा नित्यमेव प्रवर्तते / शरीरभृगार्हपत्यस्तस्मादन्यः प्रणीयते / तयोरपि च घोषिण्योर्निघोषैव गरीयसी // .16 ततश्चाहवनीयस्तु तस्मिन्संक्षिप्यते हविः / / 3 गौरिव प्रस्रवत्येषा रसमुत्तमशालिनी / ततो वाचस्पतिर्जज्ञे समानः पर्यवेक्षते / सततं स्यन्दते ह्येषा शाश्वतं ब्रह्मवादिनी // 17 रूपं भवति वै व्यक्तं तदनुद्रवते मनः // 4 दिव्यादिव्यप्रभावेन भारती गौः शुचिस्मिते / ब्राह्मण्युवाच / एतयोरन्तरं पश्य सूक्ष्मयोः स्यन्दमानयोः // 18 कस्माद्वागभवत्पूर्वं कस्मात्पश्चान्मनोऽभवत् / अनुत्पन्नेषु वाक्येषु चोद्यमाना सिसृक्षया। . मनसा चिन्तितं वाक्यं यदा समभिपद्यते // 5 किं नु पूर्व ततो देवी व्याजहार सरस्वती // 19 केन विज्ञानयोगेन मतिश्चित्तं समास्थिता। प्राणेन या संभवते शरीरे समुन्नीता नाध्यगच्छत्को बैनां प्रतिषेधति // 6 प्राणादपानं प्रतिपद्यते च / ब्राह्मण उवाच / उदानभूता च विसृज्य देहं तामपानः पतिर्भूत्वा तस्मात्प्रेष्यत्यपानताम् / व्यानेन सर्व दिवमावृणोति // 20 तां मतिं मनसः प्राहुर्मनस्तस्मादवेक्षते / / 7 ततः समाने प्रतितिष्ठतीह प्रश्नं तु वाङ्मनसोमा यस्मात्त्वमनुपृच्छसि / ___ इत्येव पूर्व प्रजजल्प चापि / तस्मात्ते वर्तयिष्यामि तयोरेव समाह्वयम् / / 8 तस्मान्मनः स्थावरत्वाद्विशिष्टं उभे वाड्मनसी गत्वा भूतात्मानमपृच्छताम् / तथा देवी जङ्गमत्वाद्विशिष्टा // 21 भावयोः श्रेष्ठमाचक्ष्व छिन्धि नौ संशयं विभो॥ इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि मन इत्येव भगवांस्तदा प्राह सरस्वतीम् / एकविंशोऽध्यायः // 21 // अहं वै कामधुक्तुभ्यमिति तं प्राह वागथ // 10 स्थावरं जङ्गमं चैव विद्धयुभे मनसी मम / ब्राह्मण उवाच। स्थावरं मत्सकाशे वै जङ्गमं विषये तव / / 11 / अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / यस्तु ते विषयं गच्छेन्मत्रो वर्णः स्वरोऽपि वा। | सुभगे सप्तहोतॄणां विधानमिह यादृशम् // 1 -2776 - 22 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 22. 2] आश्वमेधिकपर्व [ 14. 22. 28 घ्राणं चक्षुश्च जिह्वा च त्वक्श्रोत्रं चैव पञ्चमम् / न श्रोत्रं बुध्यते शब्दं मया हीनं कथंचन / मनो बुद्धिश्च सप्तैते होतारः पृथगाश्रिताः // 2 प्रवरं सर्वभूतानामहमस्मि सनातनम् // 15 सूक्ष्मेऽवकाशे सन्तस्ते न पश्यन्तीतरेतरम् / अगाराणीव शून्यानि शान्तार्चिष इवाग्नयः / एतान्वै सप्तहोनुंस्त्वं स्वभावाद्विद्धि शोभने // 3 इन्द्रियाणि न भासन्ते मया हीनानि नित्यशः / / ब्राह्मण्युवाच। काष्ठानीवाशुष्काणि यतमानैरपीन्द्रियैः / सूक्ष्मेऽवकाशे सन्तस्ते कथं नान्योन्यदर्शिनः / गुणार्थानाधिगच्छन्ति मामृते सर्वजन्तवः // 17 कथंस्वभावा भगवन्नेतदाचक्ष्व मे विभो // 4 __ इन्द्रियाण्यूचुः। एवमेतद्भवेत्सत्यं यथैतन्मन्यते भवान् / ब्राह्मण उवाच / ऋतेऽस्मानस्मदर्थास्तु भोगान्भुङ्क्ते भवान्यदि // 18 गुणाज्ञानमविज्ञानं गुणिज्ञानमभिन्नता / यद्यस्मासु प्रलीनेषु तर्पणं प्राणधारणम् / परस्परगुणानेते न विजानन्ति कर्हिचित् // 5 भोगान्भुते रसान्भुझे यथैतन्मन्यते तथा // 19 जिह्वा चक्षुस्तथा श्रोत्रं त्वङ्मनो बुद्धिरेव च / अथ वास्मासु लीनेषु तिष्ठत्सु विषयेषु च / न गन्धानधिगच्छन्ति घ्राणस्तानधिगच्छति // 6 यदि संकल्पमात्रेण भुङ्क्ते भोगान्यथार्थवत् // 20 घ्राणं चक्षुस्तथा श्रोत्रं त्वङ्मनो बुद्धिरेव च / / अथ चेन्मन्यसे सिद्धिमस्मदर्थेषु नित्यदा / न रसानधिगच्छन्ति जिह्वा तानधिगच्छति // 7 घ्राणेन रूपमादत्स्व रसमादत्स्व चक्षुषा // 21 घ्राणं जिह्वा तथा श्रोत्रं त्वङ्मनो बुद्धिरेव च / श्रोत्रेण गन्धमादत्स्व निष्ठामादत्स्व जिह्वया। न रूपाण्यधिगच्छन्ति चक्षुस्तान्यधिगच्छति // 8 त्वचा च शब्दमादत्स्व बुद्ध्या स्पर्शमथापि च // घ्राणं जिह्वा च चक्षुश्च श्रोत्रं बुद्धिर्मनस्तथा / बलवन्तो ह्यनियमा नियमा दुर्बलीयसाम् / न स्पर्शानधिगच्छन्ति त्वक्च तानधिगच्छति // 9 भोगानपूर्वानादत्स्व नोच्छिष्टं भोक्तुमर्हसि // 23 घाणं. जिह्वा च चक्षुश्न त्वङ्मनो बुद्धिरेव च।। यथा हि शिष्यः शास्तारं श्रुत्यर्थममिधावति / न शब्दानधिगच्छन्ति श्रोत्रं तानधिगच्छति // 10 ततः भुतमुपादाय श्रुतार्थमुपतिष्ठति // 24 घाणं जिह्वा च चक्षुश्च त्वक्श्रोत्रं बुद्धिरेव च / विषयानेवमस्माभिर्दर्शितानभिमन्यसे / संशयानाधिगच्छन्ति मनस्तानधिगच्छति // 11 अनागतानतीतांश्च स्वप्ने जागरणे तथा // 25 घ्राणं जिह्वा च चक्षुश्च त्वक्श्रोत्रं मन एव च / वैमनस्यं गतानां च जन्तूनामल्पचेतसाम् / न निष्ठामधिगच्छन्ति बुद्धिस्तामधिगच्छति // 12 अस्मदर्थे कृते कार्ये दृश्यते प्राणधारणम् // 26 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / बहूनपि हि संकल्पान्मत्वा स्वप्नानुपास्य च / इन्द्रियाणां च संवादं मनसश्चैव भामिनि // 13 / बुभुक्षया पीड्यमानो विषयानेव धावसि // 27 मन उवाच / अगारमद्वारमिव प्रविश्य न घ्राति मामृते घ्राणं रसं जिह्वा न बुध्यते / संकल्पभोगो विषयानविन्दन् / रूपं चक्षुर्न गृह्णाति त्वक्स्पर्श नावबुध्यते / / 14 / प्राणक्षये शान्तिमुपैति नित्यं म.भा. 36 -2777 - Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 22. 28 ] महाभारते [ 14. 28. 17 दारुक्षयेऽग्निर्वलितो यथैव / / 28 कामं तु नः स्वेषु गुणेषु सङ्गः कामं च नान्योन्यगुणोपलब्धिः / अस्मानृते नास्ति तवोपलब्धि स्त्वामप्यतेऽस्मान्न भजेत हर्षः // 29 इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि द्वाविंशोऽध्यायः॥ 22 // 23 ब्राह्मण उवाच / अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / सुभगे पञ्चहोतॄणां विधानमिह यादृशम् // 1 प्राणापानावुदानश्च समानो व्यान एव च / पञ्चहोतॄनथैतान्वै परं भावं विदुर्बुधाः // 2 ब्राह्मण्युवाच / स्वभावात्सप्त होतार इति ते पूर्विका मतिः। यथा वै पञ्च होतारः परो भावस्तथोच्यताम् // 3 ब्राह्मण उवाच / प्राणेन संभृतो वायुरपानो जायते ततः। अपाने संभृतो वायुस्ततो व्यानः प्रवर्तते // 4 व्यानेन संभृतो वायुस्ततोदानः प्रवर्तते / उदाने संभृतो वायुः समानः संप्रवर्तते // 5 वेऽपृच्छन्त पुरा गत्वा पूर्वजातं प्रजापतिम् / यो नो ज्येष्ठस्तमाचक्ष्व स नः श्रेष्ठो भविष्यति // ब्रह्मोवाच / यस्मिन्प्रलीने प्रलयं व्रजन्ति | सर्वे प्राणाः प्राणभृतां शरीरे। यस्मिन्प्रचीर्णे च पुनश्चरन्ति स वै श्रेष्ठो गच्छत यत्र कामः // 7 प्राण उवाच। मयि प्रलीने प्रलयं व्रजन्ति सर्वे प्राणाः प्राणभृतां शरीरे। मयि प्रचीर्णे च पुनश्चरन्ति श्रेष्ठो ह्यहं पश्यत मां प्रलीनम् // 8 ब्राह्मण उवाच / प्राणः प्रलीयत ततः पुनश्च प्रचचार ह। समानश्चाप्युदानश्च वचोऽवतां ततः शुभे // 9 न त्वं सर्वमिदं व्याप्य तिष्ठसीह यथा वयम् / न त्वं श्रेष्ठोऽसि नः प्राण अपानो हि वशे तव / प्रचचार पुनः प्राणस्तमपानोऽभ्यभाषत // 10 मयि प्रलीने प्रलयं व्रजन्ति सर्वे प्राणाः प्राणभृतां शरीरे। मयि प्रचीर्णे च पुनश्चरन्ति श्रेष्ठो ह्यहं पश्यत मां प्रलीनम् // 11 व्यानश्च तमुदानश्च भाषमाणमथोचतुः। अपान न त्वं श्रेष्ठोऽसि प्राणो हि वशगस्तव // 12 अपानः प्रचचाराथ व्यानस्तं पुनरब्रवीत् / श्रेष्ठोऽहमस्मि सर्वेषां श्रूयत्न येन हेतुना // 13 मयि प्रलीने प्रलयं व्रजन्ति ___ सर्वे प्राणाः प्राणभृतां शरीरे। मयि प्रचीर्णे च पुनश्चरन्ति श्रेष्ठो ह्यहं पश्यत मां प्रलीनम् // 14 प्रालीयत ततो व्यानः पुनश्च प्रचचार ह / प्राणापानावुदानश्च समानश्च तमब्रुवन् / न त्वं श्रेष्ठोऽसि नो व्यान समानो हि वशे तव // 15 प्रचचार पुनानः समानः पुनरब्रवीत् / श्रेष्ठोऽहमस्मि सर्वेषां श्रूयतां येन हेतुना // 16 मयि प्रलीने प्रलयं व्रजन्ति सर्वे प्राणाः प्राणभृतां शरीरे / मयि प्रचीर्णे च पुनश्चरन्ति श्रेष्ठो ह्यहं पश्यत मां प्रलीनम् // 17 -2778 - Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 23. 18] आश्वमेधिकपर्व [ 14. 24. 17 ततः समानः प्रालिल्ये पुनश्च प्रचचार ह। प्राणद्वंद्वं च विज्ञेयं तिर्यगं चोर्ध्वगं च यत् // 3 प्राणापानावुदानश्च व्यानश्चैव तमब्रुवन् / देवमत उवाच / समान न त्वं श्रेष्टोऽसि व्यान एव वशे तव / 18 केनायं सृज्यते जन्तुः कश्चान्यः पूर्वमेति तम् / समानः प्रचचाराथ उदानस्तमुवाच ह / प्राणद्वंद्वं च मे ब्रूहि तिर्यगूज़ च निश्चयात् // 4 श्रेष्ठोऽहमस्मि सर्वेषां श्रूयतां येन हेतुना // 19 नारद उवाच / मयि प्रलीने प्रलयं व्रजन्ति | संकल्पान्जायते हर्षः शब्दादपि च जायते / सर्वे प्राणाः प्राणभृतां शरीरे। .. रसात्संजायते चापि रूपादपि च जायते // 5 मयि प्रचीर्णे च पुनश्चरन्ति स्पर्शात्संजायते चापि गन्धादपि च जायते / श्रेष्ठो ह्यहं पश्यत मां प्रलीनम् // 20 एतद्रूपमुदानस्य हर्षो मिथुनसंभवः // 6 ततः प्रालीयतोदानः पुनश्च प्रचचार ह। कामात्संजायते शुक्र कामात्संजायते रसः। प्राणापानौ समानश्च व्यानश्चैव तमब्रुवन् / समानव्यानजनिते सामान्ये शुक्रशोणिते // 7 उदान न त्वं श्रेष्ठोऽसि व्यान एव वशे तव // 21 शुक्राच्छोणितसंसृष्टात्पूर्व प्राणः प्रवर्तते / ततस्तानब्रवीद्ब्रह्मा समवेतान्प्रजापतिः / प्राणेन विकृते शुक्रे ततोऽपानः प्रवर्तते // 8 सर्वे श्रेष्ठा न वा श्रेष्ठाः सर्वे चान्योन्यधर्मिणः। प्राणापानाविदं द्वंद्वमवाक्चोवं च गच्छतः / सर्वे स्वविषये श्रेष्ठाः सर्वे चान्योन्यरक्षिणः // 22 व्यानः समानश्चैवोभौ तिर्यग्द्वंद्वत्वमुच्यते // 9 एकः स्थिरश्चास्थिरश्च विशेषात्पश्च वायवः / अग्नि देवताः सर्वा इति वेदस्य शासनम् / एक एव ममैवात्मा बहुधाप्युपचीयते // 23 संजायते ब्राह्मणेषु ज्ञानं बुद्धिसमन्वितम् // 10 परस्परस्य सुहृदो भावयन्तः परस्परम् / तस्य धूमस्तमोरूपं रजो भस्म सुरेतसः / स्वस्ति व्रजत भद्रं बो धारयध्वं परस्परम् // 24 / सत्त्वं संजायते तस्य यत्र प्रक्षिप्यते हविः // 11 इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि आघारौ समानो व्यानश्च इति यज्ञविदो विदुः / त्रयोविंशोऽध्यायः // 23 // प्राणापानावाज्यभागौ तयोर्मध्ये हुताशनः / 24 एतद्रूपमुदानस्य परमं ब्राह्मणा विदुः // 12 ब्राह्मण उवाच / निद्वंद्वमिति यत्त्वेतत्तन्मे निगदतः शृणु // 13 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / अहोरात्रमिदं द्वंद्वं तयोर्मध्ये हुताशनः / नारदस्य च संवादमृषेर्देवमतस्य च // 1 एतद्रूपमुदानस्य परमं ब्राह्मणा विदुः // 14 देवमत उवाच / उभे चैवायने द्वंद्वं तयोर्मध्ये हुताशनः / जन्तोः संजायमानस्य किं नु पूर्व प्रवर्तते। एतद्रूपमुदानस्य परमं ब्राह्मणा विदुः // 15 प्राणोऽपानः समानो वा व्यानो वोदान एव च // | उभे सत्यानृते द्वंद्वं तयोर्मध्ये हुताशनः / नारद उवाच / एतद्रूपमुदानस्य परमं ब्राह्मणा विदुः // 16 येनायं सृज्यते जन्तुस्ततोऽन्यः पूर्वमेति तम्। / उभे शुभाशुभे द्वंद्वं तयोर्मध्ये हुताशनः। -2079 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 24. 17 ] महाभारते [ 14. 26.3 25 एतद्रूपमुदानस्य परमं ब्राह्मणा विदुः // 17 अभक्ष्यभक्षणं चैव मद्यपानं च हन्ति तम् / सञ्चासचैव तद्वं तयोर्मध्ये हुताशनः / स चान्नं हन्ति तच्चान्नं स हत्वा हन्यते बुधः // 10 एतद्रूपमुदानस्य परमं ब्रामणा विदुः // 18 अत्ता सन्नमिदं विद्वान्पुनर्जनयतीश्वरः / प्रथमं समानो व्यानो व्यस्यते कर्म तेन तत् / स चान्नाज्जायते तस्मिन्सूक्ष्मो नाम व्यतिक्रमः // तृतीयं तु समानेन पुनरेव व्यवस्यते // 19 मनसा गम्यते यच्च यत्र वाचा निरुद्यते / शान्त्यर्थ वामदेवं च शान्तिम सनातनम् / श्रोत्रेण श्रूयते यञ्च चक्षुषा यच्च दृश्यते / / 12 एतद्रूपमुदानस्य परमं ब्राह्मणा विदुः // 20 स्पर्शेन स्पृश्यते यच्च घ्राणेन घ्रायते च यत् / इति श्रीमहाभारते भाश्वमेधिकपर्वणि मनःषष्ठानि संयम्य हवींष्येतानि सर्वशः // 13 चतुर्विंशोऽध्यायः // 24 // गुणवत्पावको मह्यं दीप्यते हव्यवाहनः / योगयज्ञः प्रवृत्तो मे ज्ञानब्रह्ममनोद्भवः / . ब्राह्मण उवाच / प्राणस्तोत्रोऽपानशमः सर्वत्यागसुदक्षिणः // 14 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / कर्मानुमन्ता ब्रह्मा मे कर्ताध्वर्युः कृतस्तुतिः / चातुर्होत्रविधानस्य विधानमिह यादृशम् / / 1 कृतप्रशास्ता तच्छ्रास्त्रमपवर्गोऽस्य दक्षिणा // 15 तस्य सर्वस्य विधिवद्विधानमुपदेक्ष्यते / ऋचश्चाप्यत्र शंसन्ति नारायणविदो जनाः। शृणु मे गदतो भद्रे रहस्यमिदमुत्तमम् // 2 नारायणाय देवाय यदवनन्पशून्पुरा // 16 करणं कर्म कर्ता च मोक्ष इत्येव भामिनि / तत्र सामानि गायन्ति तानि चाहुर्निदर्शनम् / चत्वार एते होतारो यैरिदं जगदावृतम् // 3 देवं नारायणं भीरु सर्वात्मानं निबोध मे // 17 होतॄणां साधनं चैव शृणु सर्वमशेषतः। इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि घ्राणं जिह्वा च चक्षुश्च त्वक्च श्रोत्रं च पश्चमम् / पञ्चविंशोऽध्यायः // 25 // मनो बुद्धिश्च सप्तैते विज्ञेया गुणहेतवः // 4 गन्धो रसश्च रूपं च शब्दः स्पर्शश्च पञ्चमः / . ब्राह्मण उवाच / मन्तव्यमथ बोद्धव्यं सप्तैते कर्महेतवः // 5 एकः शास्ता न द्वितीयोऽस्ति शास्ता घ्राता भक्षयिता द्रष्टा स्प्रष्टा श्रोता च पञ्चमः / - यथा नियुक्तोऽस्मि तथा चरामि / मन्ता बोद्धा च सप्तैते विज्ञेयाः कर्तृहेतवः // 6 हृद्येष तिष्ठन्पुरुषः शास्ति शास्ता स्वगुणं भक्षयन्त्येते गुणवन्तः शुभाशुभम् / तेनैव युक्तः प्रवणादिवोदकम् / / 1 अहं च निर्गुणोऽत्रेति सप्तैते मोक्षहेतवः // 7 एको गुरुर्नास्ति ततो द्वितीयो विदुषां बुध्यमानानां स्वं स्वं स्थानं यथाविधि / यो हृच्छयस्तमहमनुब्रवीमि / गुणास्ते देवताभूताः सततं भुञ्जते हविः // 8 तेनानुशिष्टा गुरुणा सदैव अदन्ह्यविद्वानन्नानि ममत्वेनोपपद्यते / ___ पराभूता दानवाः सर्व एव / / 2 आत्मार्थ पाचयन्नित्यं ममत्वेनोपहन्यते / / 9 / एको बन्धुर्नास्ति ततो द्वितीयो -2780 - पाते। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 26. 3] आश्वमेधिकपर्व [14. 27.7 27 यो हृच्छयस्तमहमनुब्रवीमि / व्रतचारी सदैवैष य इन्द्रियजये रतः // 15 तेनानुशिष्टा बान्धवा बन्धुमन्तः अपेतव्रतकर्मा तु केवलं ब्रह्मणि श्रितः / सप्तर्षयः सप्त दिवि प्रभान्ति // 3 ब्रह्मभूतश्चरल्लोके ब्रह्मचारी भवत्ययम् // 16 एकः श्रोता नास्ति ततो द्वितीयो अझैव समिधस्तस्य ब्रह्मामिब्रह्मसंस्तरः / यो हच्छयस्तमहमनुब्रवीमि / पापो ब्रह्म गुरुना म अमणि समाहितः // 17 तस्मिन्गुरौ गुरुवासं निरुष्य एतदेताशं सूक्ष्मं ब्रह्मचर्य विदुर्बुधाः / __शक्रो गतः सर्वलोकामरत्वम् // 4 विदित्वा चान्वपद्यन्त क्षेत्रशेनानुदर्शिनः // 18 एको द्वेष्टा नास्ति ततो द्वितीयो इति श्रीमहाभारते भाश्वमेधिकपर्वणि यो हृच्छयस्तमहमनुब्रवीमि / पर्दिशोऽध्यायः॥२६॥ तेनानुशिष्टा गुरुणा सदैव लोकद्विष्टाः पन्नगाः सर्व एव // 5 ब्राह्मण उवाच। अत्राप्युदाहरतीममितिहासं पुरातनम् / संकल्पदंशमशकं शोकहर्षहिमातपम् / प्रजापतौ पन्नगानां देवर्षीणां च संविदम् // 6 / मोहान्धकारतिमिरं लोभव्यालसरीसृपम् / / 1 देवर्षयश्च नागाश्व असुराश्च प्रजापतिम् / विषयैकात्ययावानं कामक्रोधविरोधकम् / पर्यपृच्छन्नुपासीनाः श्रेयो नः प्रोच्यतामिति // 7 तेषां प्रोवाच भगवाश्रेयः समनुपृच्छताम् / तदतीत्य महादुर्ग प्रविष्टोऽस्मि महद्वनम् // 2 ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म ते श्रुत्वा प्राद्रवन्दिशः // 8 ब्रामण्युवाच / तेषां प्राद्रवमाणानामुपदेशार्थमात्मनः। क्क तद्वनं महाप्राज्ञ के वृक्षाः सरितश्च काः / सर्पाणां दशने भावः प्रवृत्तः पूर्वमेव तु // 9 गिरयः पर्वताश्चैव कियत्यध्वनि तद्वनम् // 3 असुराणां प्रवृत्तस्तु दुम्भभावः स्वभावजः / ब्राह्मण उवाच / दानं देवा व्यवसिता दममेव महर्षयः // 10 न तदस्ति पृथग्भावे किंचिदन्यत्ततः समम् / एकं शास्तारमासाद्य शब्देनैकेन संस्कृताः / न तदस्त्यपृथग्भावे किंचिद्रतरं ततः // 4 नाना व्यवसिताः सर्वे सर्पदेवर्षिदानवाः // 11 तस्माद्भस्वतरं नास्ति न ततोऽस्ति बृहत्तरम् / शृणोत्ययं प्रोच्यमानं गृह्णाति च तथातथम् / नास्ति तस्माहुःखतरं नास्त्यन्यत्तत्समं सुखम् // 5 पृच्छतस्तावतो भूयो गुरुरन्योऽनुमन्यते / / 12 न तत्प्रविश्य शोचन्ति न प्रहृष्यन्ति च द्विजाः। तस्य चानुमते कर्म ततः पश्चात्प्रवर्तते / न च बिभ्यति केषांचित्तेभ्यो बिभ्यति के च न // 6 गुरुोद्धा च शत्रुश्च द्वेष्टा च हृदि संश्रितः // 13 तस्मिन्वने सप्त महाद्रुमाश्च पापेन विचरल्लोके षापचारी भवत्ययम् / फलानि सप्तातिथयश्च सप्त / शुभेन विचरल्लोके शुभचारी भवत्युत // 14 सप्ताश्रमाः सप्त समाधयश्च कामचारी तु कामेन य इन्द्रियसुखे रतः / दीक्षाश्च सप्तैतदरण्यरूपम् // 7 - 2781 - Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 14. 27. 8 ] महाभारते [ 14. 28.4 पञ्चवर्णानि दिव्यानि पुष्पाणि च फलानि च।। गिरयः पर्वताश्चैव सन्ति तत्र समासतः। सृजन्तः पादपास्तत्र व्याप्य तिष्ठन्ति तद्वनम् // 8 नद्यश्च सरितो वारि वहन्त्यो ब्रह्मसंभवम् // 21 सुवर्णानि द्विवर्णानि पुष्पाणि च फलानि च। नदीनां संगमस्तत्र वैतानः समुपहरे। सृजन्तः पादपास्तत्र व्याप्य तिष्ठन्ति तद्वनम् // 9 स्वात्मतृप्ता यतो यान्ति साक्षाद्दान्ताः पितामहम् // चतुर्वर्णानि दिव्यानि पुष्पाणि च फलानि च / कृशाशाः सुव्रताशाश्च तपसा दग्धकिल्बिषाः / सृजन्तः पादपास्तत्र व्याप्य तिष्ठन्ति तद्वनम् // 10 आत्मन्यात्मानमावेश्य ब्रह्माणं समुपासते // 23 शंकराणि त्रिवर्णानि पुष्पाणि च फलानि च / ऋचमप्यत्र शंसन्ति विद्यारण्यविदो जनाः / सजन्तः पादपास्तत्र व्याप्य तिष्ठन्ति तद्वनम् // 11 तदरण्यमभिप्रेत्य यथाधीरमजायत // 24 सुरभीण्येकवर्णानि पुष्पाणि च फलानि च। एतदेतादृशं दिव्यमरण्यं ब्राह्मणा विदुः / सृजन्तः पादपास्तत्र व्याप्य तिष्ठन्ति तद्वनम् // 12 विदित्वा चान्वतिष्ठन्त क्षेत्रज्ञेनानुदर्शितम् // 25 बहून्यव्यक्तवर्णानि पुष्पाणि च फलानि च। इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि विसृजन्तौ महावृक्षौ तद्वनं व्याप्य तिष्ठतः / / 13 सप्तविंशोऽध्यायः // 27 // एको ह्यग्निः सुमना ब्राह्मणोऽत्र पश्चेन्द्रियाणि समिधश्चात्र सन्ति / ब्राह्मण उवाच / तेभ्यो मोक्षाः सप्त भवन्ति दीक्षा गन्धान्न जिघ्रामि रसान्न वेद्मि गुणाः फलान्यतिथयः फलाशाः // 14 रूपं न पश्यामि न च स्पृशा आतिथ्यं प्रतिगृह्णन्ति तत्र सप्त महर्षयः / न चापि शब्दान्विविधाशणोमि अर्चितेषु प्रलीनेषु तेष्वन्यद्रोचते वनम् // 15 न चापि संकल्पमुपैमि किंचित् // 1 प्रतिज्ञावृक्षमफलं शान्तिच्छायासमन्वितम् / अनिष्टान्कामयते स्वभावः ज्ञानाश्रयं तृप्तितोयमन्तःक्षेत्रज्ञभास्करम् // 16 सर्वान्द्वेष्यान्प्रद्विषते स्वभावः। येऽधिगच्छन्ति तत्सन्तस्तेषां नास्ति भयं पुनः / कामद्वेषावुद्भवतः स्वभावाऊर्ध्वं चावाक्च तिर्यक्च तस्य नान्तोऽधिगम्यते // प्राणापानौ जन्तुदेहान्निवेश्य // 2 सप्त स्त्रियस्तत्र वसन्ति सद्यो तेभ्यश्चान्यांस्तेष्वनित्यांश्च भावा___ अवाङ्मुखा भानुमत्यो जनित्र्यः / न्भूतात्मानं लक्षयेयं शरीरे। ऊवं रसानां ददते प्रजाभ्यः तस्मिस्तिष्ठन्नास्मि शक्यः कथंचिसर्वान्यथा सर्वमनित्यतां च // 18 कामक्रोधाभ्यां जरया मृत्युना च // 3 तत्रैव प्रतितिष्ठन्ति पुनस्तत्रोदयन्ति च / अकामयानस्य च सर्वकामासप्त सप्तर्षयः सिद्धा वसिष्ठप्रमुखाः सह // 19 नविद्विषाणस्य च सर्वदोषान् / यशो व! भगश्चैव विजयः सिद्धितेजसी / न मे स्वभावेषु भवन्ति लेपाएवमेवानुवर्तन्ते सप्त ज्योतींषि भास्करम् // 20 / स्तोयस्य बिन्दोरिव पुष्करेषु॥४ -2782 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 28.5] आश्वमेधिकपर्व [ 14. 28. 28 नित्यस्य चैतस्य भवन्ति नित्या प्रत्यक्षतः साधयामो न परोक्षमुपास्महे // 18 निरीक्षमाणस्य बहून्स्वभावान् / ... अध्वर्युरुवाच / न सज्जते कर्मसु भोगजालं भूमेर्गन्धगुणान्मुझे पिबस्यापोमयारसान / दिवीव सूर्यस्य मयूखजालम् // 5 ज्योतिषां पश्यसे रूपं स्पृशस्यनिलजान्गुणान् // 19 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / शृणोष्याकाशजं शब्दं मनसा मन्यसे मतिम् / अध्वर्युयतिसंवादं तं निवोध यशस्विनि // 6 सर्वाण्येतानि भूतानि प्राणा इति च मन्यसे // 20 प्रोक्ष्यमाणं पशुं दृष्ट्वा यज्ञकर्मण्यथाब्रवीत् / . प्राणादाने च नित्योऽसि हिंसायां वर्तते भवान् / यतिरध्वर्युमासीनो हिंसेयमिति कुत्सयन् // 7 नास्ति चेष्टा विना हिंसां किं वा त्वं मन्यसे द्विज // तमध्वर्युः प्रत्युवाच नायं छागो विनश्यति / श्रेयसा योक्ष्यते जन्तुर्यदि श्रुतिरियं तथा // 8 यतिरुवाच / यो ह्यस्य पार्थिवो भागः पृथिवीं स गमिष्यति / अक्षरं च क्षरं चैव द्वैधीभावोऽयमात्मनः / यदस्य वारिज किंचिदपस्तत्प्रतिपद्यते // 9 अक्षरं तत्र सद्भावः स्वभावः क्षर उच्यते // 22 सूर्य चक्षुर्दिशः श्रोत्रे प्रापोऽस्य दिवमेव च / प्राणो जिह्वा मनः सत्त्वं स्वभावो रजसा सह / आगमे वर्तमानस्य न मे दोषोऽस्ति कश्चन // 10 भावैरेतैर्विमुक्तस्य निद्वंद्वस्य निराशिषः // 23 यतिरुवाच / समस्य सर्वभूतेषु निर्ममस्य जितात्मनः / प्राणैर्वियोगे छागस्य यदि श्रेयः प्रपश्यसि / समन्तात्परिमुक्तस्य न भयं विद्यते क्वचित् // 24 छागार्थे वर्तते यज्ञो भवतः किं प्रयोजनम् // 11 अध्वर्युरुवाच। अनु त्वा मन्यतां माता पिता भ्राता सखापि च / सद्भिरेवेह संवासः कार्यो मतिमतां वर / मश्रयस्वैनमुन्नीय परवन्तं विशेषतः // 12 भवतो हि मतं श्रुत्वा प्रतिभाति मतिर्मम // 25 य एवमनुमन्येरंस्तान्भवान्प्रष्टुमर्हति / भगवन्भगवद्बुद्ध्या प्रतिबुद्धो ब्रवीम्यहम् / तेषामनुमतं श्रुत्वा शक्या कर्तुं विचारणा // 13 मतं मन्तुं क्रतुं कर्तुं नापराधोऽस्ति मे द्विज // 26 प्राणा अप्यस्य छागस्य प्रापितास्ते स्वयोनिषु / ब्राह्मण उवाच / शरीरं केवलं शिष्टं निश्चेष्टमिति मे मतिः // 14 इन्धनस्य तु तुल्येन शरीरेण विचेतसा / उपपत्त्या यतिस्तूष्णीं वर्तमानस्ततः परम् / हिंसा निर्देष्टुकामानामिन्धनं पशुसंज्ञितम् // 15 अध्वर्युरपि निर्मोहः प्रचचार महामखे // 27 अहिंसा सर्वधर्माणामिति वृद्धानुशासनम् / एवमेतादृशं मोक्षं सुसूक्ष्मं ब्राह्मणा विदुः / यदहिस्रं भवेत्कर्म तत्कार्यमिति विद्महे // 16 विदित्वा चानुतिष्ठन्ति क्षेत्रज्ञेनानुदर्शिना / / 28 अहिंसेति प्रतिज्ञेयं यदि वक्ष्याम्यतः परम् / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि शक्यं बहुविधं वक्तुं भवतः कार्यदूषणम् // 17 अष्टाविंशोऽध्यायः // 28 // अहिंसा सर्वभूतानां नित्यमस्मासु रोचते।। - 2783 - Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 29. 1] महाभारते [ 14. 30. विसृजशरवर्षाणि व्यधमत्पार्थिवं बलम् // 13 // ब्राह्मण उवाच / ततस्तु क्षत्रियाः केचिजमदग्नि निहत्य च। अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / विविशुर्गिरिदुर्गाणि मृगाः सिंहार्दिता इव // 14 कार्तवीर्यस्य संवादं समुद्रस्य च भामिनि // 1 तेषां खविहितं कर्म तद्यामानुतिष्ठताम् / / कार्तवीर्यार्जुनो नाम राजा बाहुसहसवान् / प्रजा वृषलतां प्राप्ता ब्राह्मणानामदर्शनात् // 15 येन सागरपर्यन्ता धनुषा निर्जिता मही / / 2 त एते द्रमिडाः काशाः पुण्ड्राश्च शबरैः सह / स कदाचित्समुद्रान्ते विचरन्बलदर्पितः / वृषलत्वं परिगता व्युत्थानाक्षत्रधर्मतः // 16 अवाकिरच्छरशतैः समुद्रमिति न श्रुतम् // 3 / / ततस्तु हतवीरासु क्षत्रियासु पुनः पुनः / तं समुद्रो नमस्कृत्य कृताञ्जलिरुवाच ह। द्विजैरुत्पादितं क्षत्रं जामदग्यो न्यकृन्तत // 17 मा मुश्च वीर नाराचान्वहि किं करवाणि ते // 4 एकविंशतिमेधान्ते रामं वागशरीरिणी / . मदाश्रयाणि भूतानि त्वद्विसृष्टैर्महेषुभिः।। दिव्या प्रोवाच मधुरा सर्वलोकपरिश्रुता // 18 वध्यन्ते राजशार्दूल तेभ्यो देह्यभयं विभो // 5 राम राम निवर्तस्व कं गुणं तात पश्यसि / क्षत्रबन्धूनिमान्प्राणैर्विप्रयोज्य पुनः पुनः // 19 अर्जुन उवाच। तथैव तं महात्मानमृचीकप्रमुखास्तदा / मत्समो यदि संग्रामे शरासनधरः क्वचित् / पितामहा महाभाग निवर्तस्वेत्यथाब्रुवन् / 20 विद्यते तं ममाचक्ष्व यः समासीत मां मृघे // 6 पितुर्वधममृष्यंस्तु रामः प्रोवाच तानृषीन् / समुद्र उवाच / नाहन्तीह भवन्तो मां निवारयितुमित्युत // 21 महर्षिर्जमदग्निस्ते यदि राजन्परिश्रुतः। पितर ऊचुः। तस्य पुत्रस्तवातिथ्यं यथावत्कर्तुमर्हति // 7 नाहसे क्षत्रबन्धूंस्त्वं निहन्तुं जयतां वर / ततः स राजा प्रययौ क्रोधेन महता वृतः / न हि युक्तं स्वया हन्तुं ब्राह्मणेन पता नृपान् // 22 म तमाश्रममागम्य राममेवान्वपद्यत / / 8 इति भीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि म रामप्रतिकूलानि चकार सह बन्धुभिः / एकोनत्रिंशोऽध्यायः॥ 29 // भायासं जनयामास रामस्य च महात्मनः // 9 ततस्तेजः प्रजज्वाल रामस्यामिततेजसः / / पितर ऊचुः। प्रदहद्रिपुसैन्यानि तदा कमललोचने // 10 अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / ततः परशुमादाय स तं बाहुसहस्रिणम् / श्रुत्वा च तत्तथा कार्य भवता द्विजसत्तम // 1 चिच्छेद सहसा रामो बाहुशाखमिव द्रुमम् // 11 अलर्को नाम राजर्षिरभवत्सुमहातपाः / तं हतं पतितं दृष्ट्वा समेताः सर्वबान्धवाः / धर्मज्ञः सत्यसंधश्च महात्मा सुमहाव्रतः // 2 असीनादाय शक्तीश्च भार्गवं पर्यवारयन् // 12 स सागरान्तां धनुषा विनिर्जित्य महीमिमाम् / रामोऽपि धनुरादाय रथमारुह्य सत्वरः / कृत्वा सुदुष्करं कर्म मनः सूक्ष्मे समादधे // 3 -2784 - Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 30. 4] आश्वमेधिकपर्व [14. 30 25 स्थितस्य वृक्षमूलेऽथ तस्य चिन्ता बभूव ह / अलर्क उवाच / उत्सृज्य सुमहद्राज्यं सूक्ष्म प्रति महामते // 4 स्पृष्ट्वा त्वग्विविधान्स्पर्शास्तानेव प्रतिगृध्यति / अलर्क उवाच। तस्मात्त्वचं पाटयिष्ये विविधैः कङ्कपत्रिभिः // 15 मनसो मे बलं जातं मनो जित्वा ध्रुवो जयः / त्वगुवाच। अन्यत्र बाणानस्यामि शत्रुभिः परिवारितः // 5 नेमे बाणास्तरिष्यन्ति मामलर्क कथंचन / यदिदं चापलान्मूर्तेः सर्वमेतच्चिकीर्षति / तवैव मर्म भेत्स्यन्ति भिन्नमर्मा मरिष्यसि // 16 मनः प्रति.सुतीक्ष्णामानहं मोक्ष्यामि सायकान् // अन्यान्बाणान्समीक्षस्व यैस्त्वं मां सूदयिष्यसि / मन उवाच / तच्छ्रुत्वा स विचिन्त्याथ ततो वचनमब्रवीत् // 17 नेमे बाणास्तरिष्यन्ति मामलर्क कथंचन / अलर्क उवाच / तवैव मर्म भेत्स्यन्ति भिन्नमर्मा मरिष्यसि // 7 श्रुत्या वे विविधाञ्शब्दास्तानेव प्रतिगृध्यति / अन्यान्बाणान्समीक्षस्व यैस्त्वं मां सूदयिष्यसि / तस्माच्छ्रोत्रं प्रति शरान्प्रतिमोक्ष्याम्यहं शितान्॥१८ तच्छ्रुत्वा स विचिन्त्याथ ततो वचनमब्रवीत् // 8 श्रोत्र उवाच / नेमे बाणास्तरिष्यन्ति मामलर्क कथंचन / अलके उवाच / तवैव मर्म भेत्स्यन्ति ततो हास्यसि जीवितम् // 19 आघाय सुबहूगन्धांस्तानेव प्रतिगृध्यति / अन्यान्बाणान्समीक्षस्व यैस्त्वं मां सूदयिष्यसि / तस्माद्माणं प्रति शरान्प्रतिमोक्ष्याम्यहं शितान् // 9 तच्छ्रुत्वा स विचिन्त्याथ ततो वचनमब्रवीत् // 20 घ्राण उवाच / अलर्क उवाच / नेमे बाणास्तरिष्यन्ति मामलर्क कथंचन। दृष्ट्वा वै विविधान्भावांस्तानेव प्रतिगृध्यति / तवैव मर्म भेत्स्यन्ति भिन्नमर्मा मरिष्यसि // 10 तस्माञ्चक्षुः प्रति शरान्प्रतिमोक्ष्याम्यहं शितान् // अन्यान्बाणान्समीक्षस्व यैस्त्वं मां सूदयिष्यसि / चक्षुरुवाच। वछ्रुत्वा स विचिन्त्याथ ततो वचनमब्रवीत् // 11 नेमे बाणास्तरिष्यन्ति मामलर्क कथंचन / अलर्क उवाच। तवैव मर्म भेत्स्यन्ति भिन्नमर्मा मरिष्यसि // 22 इयं स्वादूनरसान्भुक्त्वा तानेव प्रतिगृध्यति / अन्यान्बाणान्समीक्षस्य यैस्त्वं मां सूदयिष्यसि / तस्माजिह्वां प्रति शरान्प्रतिमोक्ष्याम्यहं शितान् // तच्छ्रुत्वा स विचिन्त्याथ ततो वचनमब्रवीत् // 23 जिह्वोवाच / अलर्क उवाच।। नेमे बाणास्तरिष्यन्ति मामलर्क कथंचन / इयं निष्ठा बहुविधा प्रज्ञया त्वध्यवस्यति / सबैव मर्म भेत्स्यन्ति भिन्नमर्मा मरिष्यसि // 13 | तस्माद्बुद्धि प्रति शरान्प्रतिमोक्ष्याम्यहं शितान् // 24 अन्यान्बाणान्समीक्षस्व यैस्त्वं मां सूदयिष्यसि / बुद्धिरुवाच / सच्छ्रुत्वा स विचिन्त्याथ ततो वचनमब्रवीत् // 14 / नेमे बाणास्तरिष्यन्ति मामलर्क कथंचन। म. भा. 349 - 2785 - Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 30. 25 ] महाभारते [14. 32.2 तवैव मर्म भेत्स्यन्ति भिन्नमर्मा मरिष्यसि / / 25 अम्बरीषेण या गीता राज्ञा राज्यं प्रशासता // 4 पितर ऊचुः / समुदीर्णेषु दोषेण वध्यमानेषु साधुषु। . ततोऽलर्कस्तपो घोरमास्थायाथ सुदुष्करम् / जग्राह तरसा राज्यमम्बरीष इति श्रुतिः // 5 नाध्यगच्छत्परं शक्त्या बाणमेतेषु सप्तसु / स निगृह्य महादोषान्साधून्समभिपूज्य च / सुसमाहितचेतास्तु ततोऽचिन्तयत प्रभुः / / 26 जगाम महतीं सिद्धिं गाथां चेमां जगाद ह॥६ स विचिन्त्य चिरं कालमलों द्विजसत्तम / भूयिष्ठं मे जिता दोषा निहताः सर्वशत्रवः / नाध्यगच्छत्परं श्रेयो योगान्मतिमतां वरः // 27 एको दोपोऽवशिष्टस्तु वध्यः स न हतो मया // स एकाग्रं मनः कृत्वा निश्चलो योगमास्थितः / येन युक्तो जन्तुरयं वैतृष्ण्यं नाधिगच्छति / इन्द्रियाणि जघानाशु बाणेनैकेन वीर्यवान् / तृष्णात इव निम्नानि धावमानो न बुध्यते // 8 योगेनात्मानमाविश्य संसिद्धि परमां ययौ // 28 अकार्यमपि येनेह प्रयुक्तः सेवते नरः। . विस्मितश्चापि राजर्षिरिमां गाथां जगाद ह / तं लोभमसिभिस्तीक्ष्णैनिकृन्तन्तं निकृन्तत // 9 अहो कष्टं यदस्माभिः पूर्व राज्यमनुष्ठितम् / लोभाद्धि जायते तृष्णा ततश्चिन्ता प्रसृज्यते / इति पश्चान्मया ज्ञातं योगान्नास्ति परं सुखम् // स लिप्समानो लभते भूयिष्ठं राजसान्गुणान् // 10 इति त्वमपि जानीहि राम मा क्षत्रियाञ्जहि / स तैर्गुणैः संहतदेहबन्धनः तपो घोरमुपातिष्ठ ततः श्रेयोऽभिपत्स्यसे // 30 ___पुनः पुनर्जायति कर्म चेहते। जन्मक्षये भिन्नविकीर्णदेहः ब्राह्मण उवाच / पुनर्मृत्युं गच्छति जन्मनि स्वे // 11 . इत्युक्तः स तपो घोरं जामदग्न्यः पितामहैः / तस्मादेनं सम्यगवेक्ष्य लोभं आस्थितः सुमहाभागो ययौ सिद्धिं च दुर्गमाम् // निगृह्य धृत्यात्मनि राज्यमिच्छेत् / इति श्रीमहाभारते भाश्वमेधिकपर्वणि एतद्राज्यं नान्यदस्तीति विद्यात्रिंशोऽध्यायः // 30 // ... द्यस्त्वत्र राजा विजितो ममैकः // 12 इति राज्ञाम्बरीषेण गाथा गीता यशस्विना / ब्राह्मण उवाच / आधिराज्यं पुरस्कृत्य लोभमेकं निकृन्तता // 13 त्रयो वै रिपवो लोके नव वै गुणतः स्मृताः / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिपर्वणि हर्षः स्तम्भोऽभिमानश्च त्रयस्ते सात्त्विका गुणाः // एकत्रिंशोऽध्यायः // 31 // शोकः क्रोधोऽतिसंरम्भो राजसास्ते गुणाः स्मृताः / स्वप्नस्तन्द्री च मोहश्च त्रयस्ते तामसा गुणाः / / 2 ब्राह्मण उवाच / एतानिकत्य धृतिमान्बाणसंधैरतन्द्रितः / अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / जेतुं परानुत्सहते प्रशान्तात्मा जितेन्द्रियः / / 3 ब्राह्मणस्य च संवादं जनकस्य च भामिनि // 1 अत्र गाथाः कीर्तयन्ति पुराकल्पविदो जनाः।। ब्राह्मणं जनको राजा सन्नं कस्मिंश्चिदागमे / - 2786 - Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 32. 2] आश्वमेधिकपर्व [ 14. 33. 3 विषये मे न वस्तव्यमिति शिष्ट्यर्थमब्रवीत् / / 2 / शृणु बुद्धिं तु यां ज्ञात्वा सर्वत्र विषयो मम // 16 इत्युक्तः प्रत्युवाचाथ ब्राह्मणो राजसत्तमम् / नाहमात्मार्थमिच्छामि गन्धान्घ्राणगतानपि / आचक्ष्व विषयं राजन्यावांस्तव वशे स्थितः / / 3 तस्मान्मे निर्जिता भूमिर्वशे तिष्ठति नित्यदा // 17 सोऽन्यस्य विषये राझो वस्तुमिच्छाम्यहं विभो। नाहमात्मार्थमिच्छामि रसानास्येऽपि वर्ततः / वचस्ते कर्तुमिच्छामि यथाशामं महीपते / / 4 आपो मे निर्जितास्तस्माद्वशे तिष्ठन्ति नित्यदा // इत्युक्तः स तदा राजा ब्राह्मणेन यशस्विना / / नाहमात्मार्थमिच्छामि रूपं ज्योतिश्च चक्षुषा / मुहुरुष्णं च निःश्वस्य न स तं प्रत्यभाषत // 5 तस्मान्मे निर्जितं ज्योतिर्वशे तिष्ठति नित्यदा // 19 तमासीनं ध्यायमानं राजानममितौजसम् / / नाहमात्मार्थमिच्छामि स्पशास्त्वचि गताश्च ये। कश्मलं सहसागच्छद्भानुमन्तमिव ग्रहः / / 6 तस्मान्मे निर्जितो वायुर्वशे तिष्ठति नित्यदा / / 20 समाश्वास्य ततो राजा व्यपेते कश्मले तदा / नाहमात्मार्थमिच्छामि शब्दाश्रोत्रगतानपि / ततो मुहूर्ता दिव तं ब्राह्मणं वाक्यमब्रवीत् // 7 तस्मान्मे निर्जिताः शन्दा वशे तिष्ठन्ति नित्यदा // पितृपैतामहे राज्ये वश्ये जनपदे सति / नाहमात्मार्थमिच्छामि मनो नित्यं मनोन्तरे / विषयं नाधिगच्छामि विचिन्वन्पृथिवीमिमाम् // 8 मनो मे निर्जितं तस्माद्वशे तिष्ठति नित्यदा // 22 नाध्यगच्छं यदा पृथ्व्यां मिथिला मागिता मया / देवेभ्यश्च पितृभ्यश्च भूतेभ्योऽतिथिभिः सह / नाध्यगच्छं यदा तस्यां स्वप्रजा मार्गिता मया // 9 इत्यर्थ सर्व एवेमे समारम्भा भवन्ति वै // 23 नाध्यगच्छं यदा तासु तदा मे कश्मलोऽभवत् / ततः प्रहस्य जनकं ब्राह्मणः पुनरब्रवीत् / ततो मे कश्मलस्यान्ते मतिः पुनरुपस्थिता / / 10 त्वजिज्ञासार्थमधेह विद्धि मां धर्ममागतम् // 24 तया न विषयं मन्ये सर्वो वा विषयो मम। त्वमस्य ब्रह्मनाभस्य बुद्ध्यारस्यानिवर्तिनः / आत्मापि चायं न मम सर्वा वा पृथिवी मम / सत्त्वनेमिनिरुद्धस्य चक्रस्यैकः प्रवर्तकः // 25 उष्यतां यावदुत्साहो भुज्यसां यावदिष्यते // 11 इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि पितृपैतामहे राज्ये वश्ये जनपदे सति / द्वात्रिंशोऽध्यायः // 32 / / हि कां बुद्धिमास्थाय ममत्वं वर्जितं त्वया // 12 कां वा बुद्धिं विनिश्चित्य सर्वो वै विषयस्तव / ब्राह्मण उवाच। नावैषि विषयं येन सर्वो वा विषयस्तव / / 13 नाहं तथा भीरु चरामि लोके जनक उवाच / तथा त्वं मां तर्कयसे स्वबुद्ध्या / अन्तवन्त इहारम्भा विदिताः सर्वकर्मसु / विप्रोऽस्मि मुक्तोऽस्मि वनेचरोऽस्मि नाध्यगच्छमहं यस्मान्ममेदमिति यद्भवेत् // 14 गृहस्थधर्मा ब्रह्मचारी तथास्मि // 1 कस्येदमिति कस्य स्वमिति वेदवचस्तथा / नाहमस्मि यथा मां त्वं पश्यसे चक्षुषा शुभे। नाध्यगच्छमहं बुद्ध्या ममेदमिति यद्भवेत् / / 15 / मया व्याप्तमिदं सर्व यत्किंचिजगतीगतम् // 2 एतां बुद्धिं विनिश्चित्य ममत्वं वर्जितं मया / ये केचिजन्तवो लोके जङ्गमाः स्थावराश्च ह / -2787 Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 33. 3] महाभारते [ 14. 35.1 34 तेषां मामन्तकं विद्धि दारूणामिव पावकम् // 3 सम्यगप्युपदिष्टश्च भ्रमरैरिव लक्ष्यते / राज्यं पृथिव्यां सर्वस्यामथ वापि त्रिविष्टपे। कर्मबुद्धिरबुद्धित्वाज्ज्ञानलिङ्गैरिवाश्रितम् // 6 तथा बुद्धिरियं वेत्ति बुद्धिरेव धनं मम // 4 इदं कार्यमिदं नेति न मोक्षेषूपदिश्यते / एकः पन्था ब्राह्मणानां येन गच्छन्ति तद्विदः / पश्यतः शृण्वतो बुद्धिरात्मनो येषु जायते // 7 गृहेषु वनवासेषु गुरुवासेषु भिक्षुषु / यावन्त इह शक्येरंस्तावतोऽशान्प्रकल्पयेत् / लिङ्गैर्बहुभिरव्यगैरेका बुद्धिरुपास्यते // 5 व्यक्तानव्यक्तरूपांश्च शतशोऽथ सहस्रशः // 8 नानालिङ्गाश्रमस्थानां येषां बुद्धिः शमात्मिका / सर्वान्नानात्वयुक्तांश्च सर्वान्प्रत्यक्षहेतुकान् / ते भावमेकमायान्ति सरितः सागरं यथा // 6 यतः परं न विद्यत ततोऽभ्यासे भविष्यति // 9 बुद्ध्यायं गम्यते मार्गः शरीरेण न गम्यते / वासुदेव उवाच आद्यन्तवन्ति कर्माणि शरीरं कर्मबन्धनम् / / 7 ततस्तु तस्या ब्राह्मण्या मतिः क्षेत्रज्ञसंक्षये। तस्मात्ते सुभगे नास्ति परलोककृतं भयम् / क्षेत्रज्ञादेव परतः क्षेत्रज्ञोऽन्यः प्रवर्तते // 10 मद्भावभावनिरता ममैवात्मानमेष्यसि // 8 अर्जुन उवाच / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि क नु सा ब्राह्मणी कृष्ण क चासौ ब्राह्मणर्षभः / त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः॥३३ याभ्यां सिद्धिरियं प्राप्ता तावुभौ वद मेऽच्युत // ब्राह्मण्युवाच / वासुदेव उवाच। नेदमल्पात्मना शक्यं वेदितुं नाकृतात्मना / मनो मे ब्राह्मणं विद्धि बुद्धि मे विद्धि ब्राह्मणीम् / बहु चाल्पं च संक्षिप्तं विप्लुतं च मतं मम // 1 क्षेत्रज्ञ इति यश्चोक्तः सोऽहमेव धनंजय // 12 उपायं तु मम ब्रूहि येनैषा लभ्यते मतिः / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि तन्मन्ये कारणतमं यत एषा प्रवर्तते // 2 चतुस्त्रिंशोऽध्यायः // 34 // . .. ब्राह्मण उवाच / अर्जुन उवाच। अरणी ब्राह्मणी विद्धि गुरुरस्योत्तरारणिः / ब्रह्म यत्परमं वेद्यं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि / तपःश्रुतेऽभिमनीतो ज्ञानाग्निर्जायते ततः // 3 भवतो हि प्रसादेन सूक्ष्मे मे रमते मतिः // 1 ब्राह्मण्युवाच / वासुदेव उवाच। यदिदं ब्रह्मणो लिङ्ग क्षेत्रज्ञमिति संज्ञितम् / अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / ग्रहीतुं येन तच्छक्यं लक्षणं तस्य तत्क नु // 4 संवादं मोक्षसंयुक्तं शिष्यस्य गुरुणा सह // 2 ब्राह्मण उवाच। कश्चिदाह्मणमासीनमाचार्य संशितव्रतम् / अलिङ्गो निर्गुणश्चैव कारणं नास्य विद्यते।। शिष्यः पप्रच्छ मेधावी किंस्विच्छ्रेयः परंतप // 3 उपायमेव वक्ष्यामि येन गृह्येत वा न वा // 5 भगवन्तं प्रपन्नोऽहं निःश्रेयसपरायणः / -2788 - Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 35. 4 ] आश्वमेधिकपर्व [ 14. 35. 31 याचे त्वां शिरसा विप्र यद्यां तद्विचक्ष्व मे // 4 / ददृशुर्ब्रह्मभवने ब्रह्माणं वीतकल्मषम् // 17 तमेवंवादिनं पार्थ शिष्यं गुरुरुवाच ह / तं प्रणम्य महात्मानं सुखासीनं महर्षयः / कथयस्व प्रवक्ष्यामि यत्र ते संशयो द्विज // 5 पप्रच्छर्विनयोपेता निःश्रेयसमिदं परम् // 18 इत्युक्तः स कुरुश्रेष्ठ गुरुणा गुरुवत्सलः / कथं कर्म क्रियात्साधु कथं मुच्येत किल्बिषात् / प्राञ्जलिः परिपप्रच्छ यत्तच्छृणु महामते // 6 के नो मार्गाः शिवाश्च स्युः किं सत्यं किं च दुष्कृतम्।। शिष्य उवाच। केनोभौ कर्मपन्थानौ महत्त्वं केन विन्दति / कुतश्चाहं कुतश्च त्वं सत्सत्यं ब्रूहि यत्परम् / . प्रलयं चापवर्ग च भूतानां प्रभवाप्ययौ // 20 कुतो जातानि भूतानि स्थावराणि चराणि च // 7 इत्युक्तः स मुनिश्रेष्ठैर्यदाह प्रपितामहः / केन जीवन्ति भूतानि तेषामायुः किमात्मकम् / तत्तेऽहं संप्रवक्ष्यामि शृणु शिष्य यथागमम् // 21 किं सत्यं किं तपो विप्र के गुणाः सद्भिरीरिताः। ब्रह्मोवाच। के पन्थानः शिवाः सन्ति किं सुखं किं च दुष्कृतम्॥ सत्याद्भूतानि जातानि स्थावराणि चराणि च / एतान्मे भगवन्प्रश्नान्याथातथ्येन सत्तम। तपसा तानि जीवन्ति इति तद्वित्त सुव्रताः // 22 वक्तुमईसि विप्रर्षे यथावदिह तत्त्वतः // 9 स्वां योनि पुनरागम्य वर्तन्ते स्वेन कर्मणा / वासुदेव उवाच / सत्यं हि गुणसंयुक्तं नियतं पश्चलक्षणम् // 23 तस्मै संप्रतिपन्नाय यथावत्परिपृच्छते / ब्रह्म सत्यं तपः सत्यं सत्यं चैव प्रजापतिः / शिष्याय गुणयुक्ताय शान्ताय गुरुवर्तिने / सत्याद्भूतानि जातानि भूतं सत्यमयं महत् // 24 छायाभूताय दान्ताय यतये ब्रह्मचारिणे // 10 तस्मात्सत्याश्रया विप्रा नित्यं योगपरायणाः / तान्प्रश्नानब्रवीत्पार्थ मेधावी स धृतव्रतः / अतीतक्रोधसंतापा नियता धर्मसेतयः // 25 . गुरुः कुरुकुलश्रेष्ठ सम्यक्सर्वानरिंदम // 11 अन्योन्यनियतान्वैद्यान्धर्मसेतुप्रवर्तकान् / ब्रह्मप्रोक्तमिदं धर्ममृषिप्रवरसेवितम् / / तानहं संप्रवक्ष्यामि शाश्वतान्लोकभावनान् // 26 वेदविद्यासमावाप्यं तत्त्वभूतार्थभावनम् // 12 चातुर्विद्यं तथा वर्णाश्चतुरश्वाश्रमान्पृथक् / भूतभव्यभविष्यादिधर्मकामार्थनिश्चयम् / धर्ममेकं चतुष्पादं नित्यमाहुर्मनीषिणः // 27 सिद्धसंघपरिज्ञातं पुराकल्पं सनातनम् // 13 पन्थानं वः प्रवक्ष्यामि शिवं क्षेमकरं द्विजाः / प्रवक्ष्येऽहं महाप्राज्ञ पदमुत्तममद्य ते / नियतं ब्रह्मभावाय यातं पूर्व मनीषिभिः // 28 बुद्धा यदिह संसिद्धा भवन्तीह मनीषिणः // 14 गदतस्तं ममायेह पन्थानं दुर्विदं परम् / उपगम्यर्षयः पूर्व जिज्ञासन्तः परस्परम् / निबोधत महाभागा निखिलेन परं पदम् // 29 बृहस्पतिभरद्वाजौ गौतमो भार्गवस्तथा // 15 ब्रह्मचारिकमेवाहुराश्रमं प्रथमं पदम् / वसिष्ठः काश्यपश्चैव विश्वामित्रोऽत्रिरेव च। / गार्हस्थ्यं तु द्वितीयं स्याद्वानप्रस्थमतः परम् / मार्गान्सर्वान्परिक्रम्य परिश्रान्ताः स्वकर्मभिः // 16 / ततः परं तु विज्ञेयमध्यात्म परमं पदम् // 30 ऋषिमाङ्गिरसं वृद्धं पुरस्कृत्य तु ते द्विजाः। ज्योतिराकाशमादित्यो वायुरिन्द्रः प्रजापतिः / -2789 - Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 35. 31] महाभारते [14. 36. 17 नोपैति यावदध्यात्मं तावदेतान्न पश्यति / / त्रीणि स्रोतांसि यान्यस्मिन्नाप्यायन्ते पुनः पुनः / तस्योपायं प्रवक्ष्यामि पुरस्तात्तं निबोधत // 31 प्रणाड्यस्तिस्र एवैताः प्रवर्तन्ते गुणात्मिकाः॥ फलमूलानिलभुजां मुनीनां वसतां वने / तमो रजस्तथा सत्त्वं गुणानेतान्प्रचक्षते / वानप्रस्थं द्विजातीनां त्रयाणामुपदिश्यते // 32 अन्योन्यमिथुनाः सर्वे तथान्योन्यानुजीविनः॥४ सर्वेषामेव वर्णानां गार्हस्थ्यं तद्विधीयते / अन्योन्यापाश्रयाश्चैव तथान्योन्यानुवर्तिनः। श्रद्धालक्षणमित्येवं धर्म धीराः प्रचक्षते // 33 अन्योन्यव्यतिषक्ताश्च त्रिगुणाः पञ्च धातवः॥ 5 इत्येते देवयाना यः पन्थानः परिकीर्तिताः / तमसो मिथुनं सत्त्वं सत्त्वस्य मिथुनं रजः / मद्भिरध्यासिता धीरैः कर्मभिधर्मसेतवः / / 34 रजसश्चापि सत्त्वं स्यात्सत्त्वस्य मिथुनं तमः // 6 एतेषां पृथगध्यास्ते यो धर्म संशितव्रतः। नियम्यते तमो यत्र रजस्तत्र प्रवर्तते / कालात्पश्यति भूतानां सदैव प्रभवाप्ययौ // 35 नियम्यते रजो यत्र सत्त्वं तत्र प्रवर्तते // . अतस्तत्त्वानि वक्ष्यामि याथातथ्येन हेतुना।। नैशात्मकं तमो विद्यात्रिगुणं मोहसंज्ञितम् / विषयस्थानि सर्वाणि वर्तमानानि भागशः / / 36 भधर्मलक्षणं चैव नियतं पापकर्मसु / / 8 महानात्मा तथाव्यक्तमहंकारस्तथैव च। प्रवृत्त्यात्मकमेवाहू रजः पर्यायकारकम् / इन्द्रियाणि दशैकं च महाभूतानि पञ्च च // 37 प्रवृत्तं सर्वभूतेषु दृश्यतोत्पत्तिलक्षणम् / / 9 विशेषाः पञ्चभूतानामित्येषा वैदिकी श्रुतिः / प्रकाशं सर्वभूतेषु लाघवं श्रधानता / चतुर्विशतिरेषा वस्तत्त्वानां संप्रकीर्तिता / / 38 सात्त्विक रूपमेवं तु लाघवं साधुसंमितम् // 10 तत्त्वानामथ यो वेद सर्वेषां प्रभवाप्ययौ। एतेषां गुणतत्त्वं हि श्यते हेत्वहेतुभिः / स धीरः सर्वभूतेषु न मोहमधिगच्छति // 39 समासव्यासयुक्तानि तत्त्वतस्तानि वित्त मे // 11 तत्त्वानि यो वेदयते यथातथं संमोहोऽज्ञानमत्यागः कर्मणामविनिर्णयः / ___ गुणांश्च सर्वानखिलाश्च देवताः / स्वप्नः सम्भो भयं लोभः शोकः सुकृतदूषणम् // विधूतपाप्मा प्रविमुच्य बन्धन अस्मृतिश्चाविपाकश्च नास्तिक्यं भिन्नवृत्तिता। स सर्वलोकानमलान्समश्नुते // 40 निर्विशेषत्वमन्धत्वं जघन्यगुणवृत्तिता // 13 इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अकृते कृतमानित्वमज्ञाने ज्ञानमानिता / पञ्चत्रिंशोऽध्यायः // 35 // अमैत्री विकृतो भावो अश्रद्धा मूढभावना // 14 अनार्जवमसंज्ञत्वं कर्म पापमचेतना / ब्रह्मोवाच / गुरुत्वं सन्नभावत्वमसितत्वमवाग्गतिः // 15 तदव्यक्तमनुद्रिक्तं सर्वव्यापि ध्रुवं स्थिरम् / सर्व एते गुणा विप्रास्तामसाः संप्रकीर्तिताः / नवद्वारं पुरं विद्यात्रिगुणं पञ्चधातुकम् / / 1 ये चान्ये नियता भावा लोकेऽस्मिन्मोहसंज्ञिताः // एकादशपरिक्षेपं मनो व्याकरणात्मकम् / तत्र तत्र नियम्यन्ते सर्वे ते तामसा गुणाः / बुद्धिस्वामिकमित्येतत्परमेकादशं भवेत् // 2 | परिवादकथा नित्यं देवब्राह्मणवैदिकाः // 17 - 2790 - Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 36. 18] आश्वमेधिकपर्व [14. 37.8 अत्यागश्चाभिमानश्च मोहो मन्युस्तथाक्षमा / तमो मोहो महामोहस्तामिस्रः क्रोधसंज्ञितः / मत्सरश्चैव भूतेषु तामसं वृत्तमिष्यते // 18 मरणं त्वन्धतामिस्रं तामिस्रं क्रोध उच्यते // 33 वृथारम्भाश्च ये केचिद्वथादानानि यानि च / भावतो गुणतश्चैव योनितश्चैव तत्त्वतः / वृथाभक्षणमित्येतत्तामसं वृत्तमिष्यते // 19 सर्वमेतत्तमो विप्राः कीर्तितं वो यथाविधि // 34 अतिवादोऽतितिक्षा च मात्सर्यमतिमानिता। को न्वेतदुध्यते साधु को न्वेतत्साधु पश्यति / भश्रधानता चैव तामसं वृत्तमिष्यते // 20 अतत्त्वे तत्त्वदर्शी यस्तमंसस्तत्त्वलक्षणम् // 35 एवंविधास्तु ये केचिल्लोकेऽस्मिन्पापकर्मिणः / तमोगुणा यो बहुधा प्रकीर्तिता मनुष्या भिन्नमर्यादाः सर्वे ते तामसा जनाः॥२१ ____ यथावदुक्तं च तमः परावरम् / तेषां योनि प्रवक्ष्यामि नियतां पापकर्मणाम् / नरो हि यो वेद गुणानिमान्सदा अवारियभावाय तिर्यडिरयगामिनः // 22 ___ स तामसैः सर्वगुणैः प्रमुच्यते // 36 स्थावराणि च भूतानि पशवो वाहनानि च / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि क्रव्यादा दन्दशूकाश्च कृमिकीटविहंगमाः // 23 षत्रिंशोऽध्यायः॥ 36 // अण्डजा जन्तवो ये च सर्वे चापि चतुष्पदाः / उन्मत्ता बधिरा मूका ये चान्ये पापरोगिणः // 24 ब्रह्मोवाच / मनास्तमसि दुर्वृत्ताः स्वकर्मकृतलक्षणाः / रजोऽहं वः प्रवक्ष्यामि याथातथ्येन सत्तमाः / अवाक्स्रोतस इत्येते मनास्तमसि तामसाः // 25 निबोधत महाभागा गुणवृत्तं च सर्वशः // 1 तेषामुत्कर्षमुद्रेकं वक्ष्याम्यहमतः परम् / संघातो रूपमायासः सुखदुःखे हिमातपौ। यथा ते सुकृताल्लोकालभन्ते पुण्यकर्मिणः // 26 ऐश्वर्य विग्रहः संधिर्हेतुवादोऽरतिः क्षमा // 2 अन्यथा प्रतिपन्नास्तु विवृद्धा ये च कर्मसु। बलं शौर्य मदो रोषो व्यायामकलहावपि / स्वकर्मनिरतानां च ब्राह्मणानां शुभैषिणाम् // 27 ईयेप्सा पैशुनं युद्धं ममत्वं परिपालनम् // 3 संस्कारेणोलमायान्ति यतमानाः सलोकताम् / वधबन्धपरिक्लेशाः क्रयो विक्रय एव च / स्वगं गच्छन्ति देवानामित्येषा वैदिकी श्रुतिः॥२८ निकृन्त छिन्धि भिन्धीति परमर्मावकर्तनम् // 4 अन्यथा प्रतिपन्नास्तु विवृद्धाः स्वेषु कर्मसु / उग्रं दारुणमाक्रोशः परवित्तानुशासनम् / पुनरावृत्तिधर्माणस्ते भवन्तीह मानुषाः // 29 लोकचिन्ता विचिन्ता च मत्सरः परिभाषणम् // 5 पापयोनि समापन्नाश्चण्डाला मूकचूचुकाः / / मृषावादो मृषादानं विकल्पः परिभाषणम् / वर्णान्पर्यायशश्चापि प्राप्नुवन्त्युत्तरोत्तरम् / / 30 निन्दा स्तुतिः प्रशंसा च प्रतापः परितर्पणम् // 6 शूद्रयोनिमतिक्रम्य ये चान्ये तामसा गुणाः / परिचर्या च शुश्रूषा सेवा तृष्णा व्यपाश्रयः / स्रोतोमध्ये समागम्य वर्तन्ते तामसे गुणे // 31 / व्यहोऽनयः प्रमादश्च परितापः परिग्रहः // 7 अभिषङ्गस्तु कामेषु महामोह इति स्मृतः।। संस्कारा ये च लोकेऽस्मिन्प्रवर्तन्ते पृथक्पृथक् / ऋषयो मुनयो देवा मुह्यन्त्यत्र सुखेप्सवः // 32 / नृषु नारीषु भूतेषु द्रव्येषु शरणेषु च // 8 - 2791 - Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 37. 9] महाभारते [14. 38. 15 संतापोऽप्रत्ययश्चैव व्रतानि नियमाश्च ये। अकार्पण्यमसंरम्भः संतोषः श्रद्दधानता // 2 प्रदानमाशीर्युक्तं च सततं मे भवत्विति // 9 क्षमा धृतिरहिंसा च समता सत्यमार्जवम् / स्वधाकारो नमस्कारः स्वाहाकारो वषक्रिया / अक्रोधश्चानसूया च शौचं दाक्ष्यं पराक्रमः // 3 याजनाध्यापने चोभे तथैवाहुः परिग्रहम् // 10 मुधा ज्ञानं मुधा वृत्तं मुधा सेवा मुधा श्रमः / इदं मे स्यादिदं मे स्यात्स्नहो गुणसमुद्भवः / एवं यो युक्तधर्मः स्यात्सोऽमुत्रानन्त्यमभुते // 4 अभिद्रोहस्तथा माया निकृतिर्मान एव च // 11 निर्ममो निरहंकारो निराशीः सर्वतः समः / स्तैन्यं हिंसा परीवादः परितापः प्रजागरः / अकामहत इत्येष सतां धर्मः सनातनः // 5 स्तम्भो दम्भोऽथ रागश्च भक्तिः प्रीतिः प्रमोदनम् // विश्रम्भो ह्रीस्तितिक्षा च त्यागः शौचमतन्द्रिता। द्यूतं च जनवादश्च संबन्धाः स्त्रीकृताश्च ये। आनृशंस्यमसंमोहो दया भूतेष्वपैशुनम् // 6 नृत्तवादित्रगीतानि प्रसङ्गा ये च केचन / हर्षस्तुष्टिविस्मयश्च विनयः साधुवृत्तता / . सर्व एते गुणा विप्रा राजसाः संप्रकीर्तिताः // 13 शान्तिकर्म विशुद्धिश्च शुभा बुद्धिर्विमोचनम् // 7 भूतभव्यभविष्याणां भावानां भुवि भावनाः / उपेक्षा ब्रह्मचर्य च परित्यागश्च सर्वशः / त्रिवर्गनिरता नित्यं धर्मोऽर्थः काम इत्यपि // 14 निर्ममत्वमनाशीस्त्वमपरिक्रीतधर्मता / / 8 कामवृत्ताः प्रमोदन्ते सर्वकामसमृद्धिभिः। मुधा दानं मुधा यज्ञो मुधाधीतं मुधा व्रतम् / अक्स्रिोतस इत्येते तैजसा रजसावृताः // 15 मुधा प्रतिग्रहश्चैव मुधा धर्मो मुधा तपः // 9 अस्मिल्लोके प्रमोदन्ते जायमानाः पुनः पुनः / एवंवृत्तास्तु ये केचिल्लोकेऽस्मिन्सत्त्वसंश्रयाः / प्रेत्यभाविकमीहन्त इह लौकिकमेव च / ब्राह्मणा ब्रह्मयोनिस्थास्ते धीराः साधुदर्शिनः // 10 ददति प्रतिगृहन्ति जपन्त्यथ च जुह्वति // 16 हित्वा सर्वाणि पापानि निःशोका हजरामराः / रजोगुणा वो बहुधानुकीर्तिता दिवं प्राप्य तु ते धीराः कुर्वते वै ततस्ततः / / 11 यथावदुक्तं गुणवृत्तमेव च / ईशित्वं च वशित्वं च लघुत्वं मनसश्च ते / नरो हि यो वेद गुणानिमान्सदा विकुर्वते महात्मानो देवास्त्रिदिवगा इव // 12 __ स राजसैः सर्वगुणैर्विमुच्यते // 17 ऊर्ध्वस्रोतस इत्येते देवा वैकारिकाः स्मृताः / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि विकुर्वते प्रकृत्या वै दिवं प्राप्तास्ततस्ततः / सप्तत्रिंशोऽध्यायः॥ 37 // यद्यदिच्छन्ति तत्सर्वं भजन्ते विभजन्ति च // इत्येतत्सात्त्विकं वृत्तं कथितं वो द्विजर्षभाः / ब्रह्मोवाच / एतद्विज्ञाय विधिवल्लभते यद्यदिच्छति // 14 अतः परं प्रवक्ष्यामि तृतीयं गुणमुत्तमम् / / प्रकीर्तिताः सत्त्वगुणा विशेषतो सर्वभूतहितं लोके सतां धर्ममनिन्दितम् // 1 ___ यथावदुक्तं गुणवृत्तमेव च / आनन्दः प्रीतिरुद्रेकः प्राकाश्यं सुखमेव च। / नरस्तु यो वेद गुणानिमान्सदा - 2792 - Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 38. 51] आश्वमेधिकपर्व [ 14. 39. 24 39 गुणान्स भुते न गुणैः स भुज्यते // 51 / अध्वगाः परितप्येरंस्तृष्णार्ता दुःखभागिनः // 13 इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि आदित्यः सत्त्वमुद्दिष्टं कुचोरास्तु यथा तमः / अष्टात्रिंशोऽध्यायः // 38 // परितापोऽध्वगानां च राजसो गुण उच्यते // 14 प्राकाश्यं सत्त्वमादित्ये संतापो राजसो गुणः / ब्रह्मोवाच / उपप्लवस्तु विज्ञेयस्तामसस्तस्य पर्वसु // 15 नैव शक्या गुणा वक्तुं पृथक्त्वेनेह सर्वशः। एवं ज्योतिःषु सर्वेषु विवर्तन्ते गुणास्त्रयः / अविच्छिन्नानि दृश्यन्ते रजः सत्त्वं तमस्तथा // 1 पर्यायेण च वर्तन्ते तत्र तत्र तथा तथा // 16 अन्योन्यमनुषजन्ते अन्योन्यं चानुजीविनः / स्थावरेषु च भूतेषु तिर्यग्भावगतं तमः / अन्योन्यापाश्रयाः सर्वे तथान्योन्यानुवर्तिनः // 2 राजसास्तु विवर्तन्ते स्नेहभावस्तु सात्त्विकः // 17 यावत्सत्त्वं तमस्तावद्वर्तते नात्र संशयः / अहस्त्रिधा तु विज्ञेयं त्रिधा रात्रिविधीयते / यावत्तमश्च सत्त्वं च रजस्तावदिहोच्यते // 3 मासार्धमासवर्षाणि ऋतवः संधयस्तथा // 18 संहत्य कुर्वते यात्रां सहिताः संघचारिणः / त्रिधा दानानि दीयन्ते त्रिधा यज्ञः प्रवर्तते / संघातवृत्तयो ह्येते वर्तन्ते हेत्वहेतुभिः // 4 त्रिधा लोकास्त्रिधा वेदानिधा विद्यात्रिधा गतिः / उद्रेकव्यतिरेकाणां तेषामन्योन्यवर्तिनाम् / / भूतं भव्यं भविष्यच्च धर्मोऽर्थः काम इत्यपि / वर्तते तद्यथान्यूनं व्यतिरिक्तं च सर्वशः / / 5 प्राणापानावुदानश्चाप्येत एव त्रयो गुणाः // 20 व्यतिरिक्तं तमो यत्र तिर्यग्भावगतं भवेत् / यत्किंचिदिह वै लोके सर्वमेष्वेव तत्रिषु / अल्पं तत्र रजो ज्ञेयं सत्त्वं चाल्पतरं ततः॥ 6 त्रयो गुणाः प्रवर्तन्ते अव्यक्ता नित्यमेव तु / उद्रिक्तं च रजो यत्र मध्यस्रोतोगतं भवेत् / सत्त्वं रजस्तमश्चैव गुणसर्गः सनातनः // 21 अल्पं तत्र तमो ज्ञेयं सत्त्वं चाल्पतरं ततः // 7 तमोऽव्यक्तं शिवं नित्यमजं योनिः सनातनः / उद्विक्तं च यदा सत्त्वमूर्ध्वस्रोतोगतं भवेत् / प्रकृतिर्विकारः प्रलयः प्रधान प्रभवाप्ययौ // 22 अल्पं तत्र रजो ज्ञेयं तमश्चाल्पतरं ततः // 8 अनुद्रिक्तमनूनं च ह्यकम्पमचलं ध्रुवम् / सत्वं वैकारिकं योनिरिन्द्रियाणां प्रकाशिका। सदसञ्चैव तत्सर्वमव्यक्तं त्रिगुणं स्मृतम् / न हि सत्त्वात्परो भावः कश्चिदन्यो विधीयते // 9 / ज्ञेयानि नामधेयानि नरैरध्यात्मचिन्तकैः / / 23 अवं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः / अव्यक्तनामानि गुणांश्च तत्त्वतो जघन्यगुणसंयुक्ता यान्त्यधस्तामसा जनाः // 10 यो वेद सर्वाणि गतीश्च केवलाः / तमः शूद्रे रजः क्षत्रे ब्राह्मणे सत्त्वमुत्तमम् / विमुक्तदेहः प्रविभागतत्त्वविइत्येव त्रिषु वर्णेषु विवर्तन्ते गुणास्त्रयः॥ 11 त्स मुच्यते सर्वगुणैर्निरामयः // 24 दूरादपि हि दृश्यन्ते सहिताः संघचारिणः / / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि तमः सत्त्वं रजश्चैव पृथक्त्वं नानुशुश्रुम // 12 एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः॥ 39 // रट्वा चादित्यमुद्यन्तं कुचोराणां भयं भवेत् / म. भा. 350 -2793 - Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 40. 1] महाभारते [ 14. 42.8 40 अहंकारश्च भूतादिवैकारिक इति स्मृतः / ब्रह्मोवाच / तेजसश्चतना धातुः प्रजासर्गः प्रजापतिः // 2 अव्यक्तात्पूर्वमुत्पन्नो महानात्मा महामतिः / देवानां प्रभवो देवो मनसश्च त्रिलोककृत् / आदिगुणानां सर्वेषां प्रथमः सर्ग पुच्यते // 1 अहमित्येव तत्सर्वमभिमन्ता स उच्यते // 3 महानात्मा मतिर्विष्णुर्विश्वः शंभुश्च वीर्यवान् / अध्यात्मज्ञाननित्यानां मुनीनां भावितात्मनाम् / बुद्धिः प्रज्ञोपलब्धिश्च तथा ख्यातिधृतिः स्मृतिः // स्वाध्यायक्रतुसिद्धानामेष लोकः सनातनः // 4 पर्यायवाचकैः शब्दमहानात्मा विभाव्यते। अहंकारेणाहरतो गुणानिमातं जानन्ब्राह्मणो विद्वान्न प्रमोहं निगच्छति // 3 न्भूतादिरेवं सृजते स भूतकृत् / सर्वतःपाणिपादश्च सर्वतोक्षिशिरोमुखः / वैकारिकः सर्वमिदं विचेष्टते सर्वतःश्रुतिमाल्लोके सर्वं व्याप्य स तिष्ठति // 4 स्वतेजसा रञ्जयते जगत्तथा // 5 महाप्रभार्चिः पुरुषः सर्वस्य हृदि निश्रितः। इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अणिमा लघिमा प्राप्तिरीशानो ज्योतिरव्ययः // 5 ___एकचत्वारिंशोऽध्यायः // 41 // तत्र बुद्धिमतां लोकाः संन्यासनिरताश्च ये। 42 ध्यानिनो नित्ययोगाश्च सत्यसंधा जितेन्द्रियाः // 6 ब्रह्मोवाच / ज्ञानवन्तश्च ये केचिदलुब्धा जितमन्यवः / / अहंकारात्प्रसूतानि महाभूतानि पञ्च वै / प्रसन्नमनसो धीरा निर्ममा निरहंकृताः / पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च पश्चमम् // 1 विमुक्ताः सर्व एवैते महत्त्वमुपयान्ति वै // 7 तेषु भूतानि मुह्यन्ते महाभूतेषु पञ्चसु / आत्मनो महतो वेद यः पुण्यां गतिमुत्तमाम् / शब्दस्पर्शनरूपेषु रसगन्धक्रियासु च // 2 स धीरः सर्वलोकेषु न मोहमधिगच्छति / महाभूतविनाशान्ते प्रलये प्रत्युपस्थिते / विष्णुरेवादिसर्गेषु स्वयंभूर्भवति प्रभुः // 8 सर्वप्राणभृतां धीरा महदुत्पद्यते भयम् // 3 एवं हि यो वेद गुहाशयं प्रभु यद्यस्माज्जायते भूतं तत्र तत्प्रविलीयते / नरः पुराणं पुरुषं विश्वरूपम् / लीयन्ते प्रतिलोमानि जायन्ते चोत्तरोत्तरम् // 4 हिरण्मयं बुद्धिमतां परां गतिं ततः प्रलीने सर्वस्मिन्भूते स्थावरजङ्गमे / ___स बुद्धिमान्चुद्धिमतीत्य तिष्ठति // 9 स्मृतिमन्तस्तदा धीरा न लीयन्ते कदाचन // 5 इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि शब्दः स्पर्शस्तथा रूपं रसो गन्धश्च पञ्चमः / चत्वारिंशोऽध्यायः // 40 // क्रियाकारणयुक्ताः स्युरनित्या मोहसंज्ञिताः // 6 लोभप्रजनसंयुक्ता निर्विशेषा ह्यकिंचनाः / ब्रह्मावाच। मांसशोणितसंघाता अन्योन्यस्योपजीविनः // 7 य उत्पन्नो महान्पूर्वमहंकारः स उच्यते / बहिरात्मान इत्येते दीनाः कृपणवृत्तयः / अहमित्येव संभूतो द्वितीयः सर्ग उच्यते // 1 प्राणापानावुदानश्च समानो व्यान एव च // 8 - 2794 - Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 42. 9] आश्वमेधिकपर्व [ 14. 42. 38 अन्तरात्मेति चाप्येते नियताः पञ्च वायवः। द्विविधापीह विज्ञेया ब्रह्मयोनिः सनातना। वाङ्मनोबुद्धिरित्येभिः सार्धमष्टात्मकं जगत् // 9 तपः कर्म च यत्पुण्यमित्येष विदुषां नयः // 24 त्वग्घ्राणश्रोत्रचक्षूषि रसनं वाक्च संयता / द्विविधं कर्म विज्ञेयमिज्या दानं च यन्मखे / विशुद्धं च मनो यस्य बुद्धिश्चाव्यभिचारिणी // 10 जातस्याध्ययनं पुण्यमिति वृद्धानुशासनम् // 25 अष्टौ यस्याग्नयो ह्येते न दहन्ते मनः सदा।। एतद्यो वेद विधिवत्स मुक्तः स्याहिजर्षभाः / स तद्ब्रह्म शुभं याति यस्माद्भूयो न विद्यते // 11 | विमुक्तः सर्वपापेभ्य इति चैव निबोधत // 26 एकादश च यान्याहुरिन्द्रियाणि विशेषतः / आकाशं प्रथमं भूतं श्रोत्रमध्यात्ममुच्यते / अहंकारप्रसूतानि तानि वक्ष्याम्यहं द्विजाः // 12 अधिभूतं तथा शब्दो दिशस्तत्राधिदैवतम् // 27 श्रोत्रं त्वक्चक्षुषी जिह्वा तासिका चैव पञ्चमी। द्वितीयं मारुतो भूतं त्वगध्यात्मं च विश्रुतम् / पादौ पायुरुपस्थं च हस्तौ वाग्दशमी भवेत् // 13 / स्पष्टव्यमधिभूतं च विद्युत्तत्राधिदैवतम् // 28 इन्द्रियग्राम इत्येष मन एकादशं भवेत् / तृतीयं ज्योतिरित्याहुश्चक्षुरध्यात्ममुच्यते / एतं प्रामं जयेत्पूर्वं ततो ब्रह्म प्रकाशते // 14 / अधिभूतं ततो रूपं सूर्यस्तत्राधिदैवतम् / / 29 बुद्धीन्द्रियाणि पश्चाहुः पश्च कर्मेन्द्रियाणि च / चतुर्थमापो विज्ञेयं जिह्वा चाध्यात्ममिष्यते / श्रोत्रादीन्यपि पञ्चाहुर्बुद्धियुक्तानि तत्त्वतः // 15 अधिभूतं रसश्चात्र सोमस्तत्राधिदैवतम् // 30 अविशेषाणि चान्यानि कर्मयुक्तानि तानि तु / पृथिवी पञ्चमं भूतं घ्राणश्चाध्यात्ममिष्यते। उभयत्र मनो ज्ञेयं बुद्धिादशमी भवेत् / / 16 अधिभूतं तथा गन्धो वायुस्तत्राधिदैवतम् // 31 इत्युक्तानीन्द्रियाणीमान्येकादश मया क्रमात् / एष पञ्चसु भूतेषु चतुष्टयविधिः स्मृतः / मन्यन्ते कृतमित्येव विदित्वैतानि पण्डिताः // 17 अतः परं प्रवक्ष्यामि सर्वं त्रिविधमिन्द्रियम् // 32 त्रीणि स्थानानि भूतानां चतुर्थं नोपपद्यते / पादावध्यात्ममित्याहुाह्मणास्तत्त्वदर्शिनः / स्थलमापस्तथाकाशं जन्म चापि चतुर्विधम् / / 18 अधिभूतं तु गन्तव्यं विष्णुस्तत्राधिदैवतम् // 33 अण्डजोद्भिजसंस्वेदजरायुजमथापि च / अवाग्गतिरपानश्च पायुरध्यात्ममिष्यते / चतुर्धा जन्म इत्येतद्भूतग्रामस्य लक्ष्यते // 19 अधिभूतं विसर्गश्च मित्रस्तत्राधिदैवतम् 34 अचराण्यपि भूतानि खेचराणि तथैव च / प्रजनः सर्वभूतानामुपस्थोऽध्यात्ममुच्यते / अण्डजानि विजानीयात्सर्वांश्चैव सरीसृपान् // 20 अधिभूतं तथा शुक्रं दैवतं च प्रजापतिः // 35 संस्वेदाः कृमयः प्रोक्ता जन्तवश्च तथाविधाः / हस्तावध्यात्ममित्याहुरध्यात्मविदुषो जनाः / जन्म द्वितीयमित्येतज्जघन्यतरमुच्यते / / 21 अधिभूतं तु कर्माणि शकस्तत्राधिदैवतम् // 36 भित्त्वा तु पृथिवीं यानि जायन्ते कालपर्ययात् / वैश्वदेवी मनःपूर्वा वागध्यात्म मिहोच्यते / उद्भिज्जानीति तान्याहुर्भूतानि द्विजसत्तमाः // 22 वक्तव्यमधिभूतं च वह्निस्तत्राधिदैवतम् // 37 द्विपादबहुपादानि तिर्यग्गतिमतीनि च।। अध्यात्म मन इत्याहुः पञ्चभूतानुचारकम् / जरायुजानि भूतानि वित्त तान्यपि सत्तमाः // 23 अधिभूतं च मन्तव्यं चन्द्रमाश्चाधिदेवतम् // 38 - 2795 - Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 42. 39 ] महाभारते [14. 43.3 अध्यात्म बुद्धिरित्याहुः षडिन्द्रियविचारिणी / एतन्महार्णवं घोरमगाधं मोहसंज्ञितम् / अधिभूतं तु विज्ञेयं ब्रह्मा तत्राधिदैवतम् // 39 / / विसृजेत्संक्षिपेञ्चैव बोधयेत्सामरं जगत् // 54. यथावदध्यात्मविधिरेष वः कीर्तितो मया / कामक्रोधौ भयं मोहमभिद्रोहमथानृतम् / ज्ञानमस्य हि धर्मज्ञाः प्राप्तं बुद्धिमतामिह / / 40 / इन्द्रियाणां निरोधेन स तांस्त्यजति दुस्त्यजान् // इन्द्रियाणीन्द्रियार्थाश्च महाभूतानि पञ्च च / यस्यैते निर्जिता लोके त्रिगुणाः पञ्च धातवः / सर्वाण्येतानि संधाय मनसा संप्रधारयेत् // 41 व्योम्नि तस्य परं स्थानमनन्तमथ लक्ष्यते // 56 क्षीणे मनसि सर्वस्मिन्न जन्मसुखमिष्यते / कामकूलामपारान्तां मनःस्रोतोभयावहाम् / ज्ञानसंपन्नसत्त्वानां तत्सुखं विदुषां मतम् // 42 नदी दुर्गहृदां तीर्णः कामक्रोधावुभौ जयेत् / / 50 अतः परं प्रवक्ष्यामि सूक्ष्मभावकरीं शिवाम् / स सर्वदोषनिर्मुक्तस्ततः पश्यति यत्परम् / निवृत्तिं सर्वभूतेषु मृदुना दारुणेन वा // 43 मनो मनसि संधाय पश्यत्यात्मानमात्मनि // 58 गुणागुणमनासङ्गमेकचर्यमनन्तरम् / सर्ववित्सर्वभूतेषु वीक्षत्यात्मानमात्मनि / एतद्ब्राह्मणतो वृत्तमाहुरेकपदं सुखम् / / 44 एकधा बहुधा चैव विकुर्वाणस्ततस्ततः // 59 विद्वान्कूर्म इवाङ्गानि कामान्संहृत्य सर्वशः / ध्रुवं पश्यति रूपाणि दीपादीपशतं यथा / विरजाः सर्वतो मुक्तो यो नरः स सुखी सदा / / स वै विष्णुश्च मित्रश्च वरुणोऽग्निः प्रजापतिः // कामानात्मनि संयम्य क्षीणतृष्णः समाहितः। स हि धाता विधाता च स प्रभुः सर्वतोमुखः / सर्वभूतसुहृन्मैत्रो ब्रह्मभूयं स गच्छति // 46 / हृदयं सर्वभूतानां महानात्मा प्रकाशते // 61 इन्द्रियाणां निरोधेन सर्वेषां विषयैषिणाम् / तं विप्रसंघाश्च सुरासुराश्च मुनेर्जनपदत्यागादध्यात्माग्निः समिध्यते // 47 यक्षाः पिशाचाः पितरो वयांसि। यथाग्निरिन्धनैरिद्धो महाज्योतिः प्रकाशते। रक्षोगणा भूतगणाश्च सर्वे तथेन्द्रियनिरोधेन महानात्मा प्रकाशते // 48 महर्षयश्चैव सदा स्तुवन्ति // 62 यदा पश्यति भूतानि प्रसन्नात्मात्मनो हृदि / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि स्वयंयोनिस्तदा सूक्ष्मात्सूक्ष्ममाप्नोत्यनुत्तमम् // 49 द्विचत्वारिंशोऽध्यायः // 42 // अग्नी रूपं पयः स्रोतो वायुः स्पर्शनमेव च / मही पङ्कधरं घोरमाकाशं श्रवणं तथा // 50 ब्रह्मोवाच / रागशोकसमाविष्टं पश्चस्रोतःसमावृतम् / मनुष्याणां तु राजन्यः क्षत्रियो मध्यमो गुणः / पञ्चभूतसमायुक्तं नवद्वारं द्विदैवतम् // 51 कुञ्जरो वाहनानां च सिंहश्चारण्यवासिनाम् // 1 रजस्वलमथादृश्यं त्रिगुणं च त्रिधातुकम् / अविः पशूनां सर्वेषामाखुश्च बिलवासिनाम् / संसर्गाभिरतं मूढं शरीरमिति धारणा // 52 गवां गोवृषभश्चैव स्त्रीणां पुरुष एव च // 2 दुश्वरं जीवलोकेऽस्मिन्सत्त्वं प्रति समाश्रितम् / न्यग्रोधो जम्बुवृक्षश्च पिप्पलः शाल्मलिस्तथा। एतदेव हि लोकेऽस्मिन्कालचक्र प्रवर्तते // 53 / शिंशपा मेषशृङ्गश्च तथा कीचकवेणवः / -2796 - Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 43. 3] आश्वमेधिकपर्व [14. 43. 31 एते द्रुमाणां राजानो लोकेऽस्मिन्नात्र संशयः // 3 | राज्ञां तु विषये येषां साधवः परिरक्षिताः / हिमवान्पारियात्रश्च सह्यो विन्ध्यत्रिकूटवान् / तेऽस्मिल्लोके प्रमोदन्ते प्रेत्य चानन्त्यमेव च / श्वेतो नीलश्च भासश्च काष्ठवांश्चैव पर्वतः // 4 प्राप्नुवन्ति महात्मान इति वित्त द्विजर्षभाः // 18 शुभस्कन्धो महेन्द्रश्च माल्यवान्पर्वतस्तथा / अत ऊर्ध्वं प्रवक्ष्यामि नियतं धर्मलक्षणम् / एते पर्वतराजानो गणानां मरुतस्तथा // 5 / अहिंसालक्षणो धर्मो हिंसा चाधर्मलक्षणा // 19 सूर्यो प्रहाणामधिपो नक्षत्राणां च चन्द्रमाः / प्रकाशलक्षणा देवा मनुष्याः कर्मलक्षणाः / यमः पितॄणामधिपः सरितामथ सागरः // 6 शब्दलक्षणमाकाशं वायुस्तु स्पर्शलक्षणः / / 20 अम्भसां वरुणो राजा सत्त्वानां मित्र उच्यते / ज्योतिषां लक्षणं रूपमापश्च रसलक्षणाः / अर्कोऽधिपतिरुष्णानां ज्योतिषामिन्दुरुच्यते // 7 धरणी सर्वभूतानां पृथिवी गन्धलक्षणा // 21 अग्निभूतपतिनित्यं ब्राह्मणानां बृहस्पतिः / स्वरव्यञ्जनसंस्कारा भारती सत्यलक्षणा / ओषधीनां पतिः सोमो विष्णुर्बलवतां वरः // 8 मनसो लक्षणं चिन्ता तथोक्ता बुद्धिरन्वयात् // 22 त्वष्टाधिराजो रूपाणां पशूनामीश्वरः शिवः / मनसा चिन्तयानोऽर्थान्बुद्ध्या चैव ब्यवस्यति / दक्षिणानां तथा यज्ञो वेदानामृषयस्तथा // 9 बुद्धिर्हि व्यवसायेन लक्ष्यते नात्र संशयः // 25 दिशामुदीची विप्राणां सोमो राजा प्रतापवान् / लक्षणं महतो ध्यानमव्यक्तं साधुलक्षणम् / कुबेरः सर्वयक्षाणां देवतानां पुरंदरः / प्रवृत्तिलक्षणो योगो ज्ञानं संन्यासलक्षणम् // 24 एष भूतादिकः सर्गः प्रजानां च प्रजापतिः // 10 तस्माज्ज्ञानं पुरस्कृत्य संन्यसेदिह बुद्धिमान् / सर्वेषामेव भूतानामहं ब्रह्ममयो महान् / संन्यासी ज्ञानसंयुक्तः प्राप्नोति परमां गतिम् / भूतं परतरं मत्तो विष्णोर्वापि न विद्यते // 11 अतीतोऽद्वंद्वमभ्येति तमोमृत्युजरातिगम् // 25 राजाधिराजः सर्वासां विष्णुब्रह्ममयो महान् / धर्मलक्षणसंयुक्तमुक्तं वो विधिवन्मया / ईश्वरं तं विजानीमः स विभुः स प्रजापतिः // 12 गुणानां प्रहणं सम्यग्वक्ष्याम्यहमतः परम् // 26 नरकिंनरयक्षाणां गन्धर्वोरगरक्षसाम् / पार्थिवो यस्तु गन्धो वै घ्राणेनेह स गृह्यते / देवदानवनागानां सर्वेषामीश्वरो हि सः // 13 घ्राणस्थश्च तथा वायुर्गन्धज्ञाने विधीयते // 27 भगदेवानुयातानां सर्वासां वामलोचना / अपां धातुरसो नित्यं जिह्वया स तु गृह्यते / माहेश्वरी महादेवी प्रोच्यते पार्वतीति या // 14 जिह्वास्थश्च तथा सोमो रसज्ञाने विधीयते // 28 उमा देवीं विजानीत नारीणामुत्तमां शुभाम् / ज्योतिषश्च गुणो रूपं चक्षुषा तच्च गृह्यते / रतीनां वसुमत्यस्तु स्त्रीणामप्सरसस्तथा // 15 चक्षुःस्थश्च तथादित्यो रूपज्ञाने विधीयते // 29 धर्मकामाश्च राजानो ब्राह्मणा धर्मलक्षणाः / वायव्यस्तु तथा स्पर्शस्त्वचा प्रज्ञायते च सः। तस्माद्राजा द्विजातीनां प्रयतेतेह रक्षणे // 16 / स्वस्थश्चैव तथा वायुः स्पर्शज्ञाने विधीयते // 30 राज्ञां हि विषये येषामवसीदन्ति साधवः / आकाशस्य गुणो घोषः श्रोत्रेण स तु गृह्यते / होनास्ते स्वगुणैः सर्वैः प्रेत्यावाङमार्गगामिनः // 17 श्रोत्रस्थाश्च दिशः सर्वाः शब्दज्ञाने प्रकीर्तिताः // 31 - 2797 - Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 43. 32 ] महाभारते [ 14. 44. 18 मनसस्तु गुणश्चिन्ता प्रज्ञया स तु गृह्यते / आदित्यो ज्योतिषामादिरनिर्भूतादिरिष्यते // 4 हृदिस्थचेतनाधातुर्मनोज्ञाने विधीयते // 32 सावित्री सर्वविद्यानां देवतानां प्रजापतिः। . बुद्धिरध्यवसायेन ध्यानेन च महांस्तथा / ओंकारः सर्ववेदानां वचसां प्राण एव च / निश्चित्य ग्रहणं नित्यमव्यक्तं नात्र संशयः // 33 यद्यस्मिन्नियतं लोके सर्व सावित्रमुच्यते // 5 अलिङ्गग्रहणो नित्यः क्षेत्रज्ञो निर्गुणात्मकः / गायत्री छन्दसामादिः पशूनामज उच्यते / तस्मादलिङ्गः क्षेत्रज्ञः केवलं ज्ञानलक्षणः // 34 गावश्चतुष्पदामादिर्मनुष्याणां द्विजातयः // 6 अव्यक्तं क्षेत्रमुद्दिष्टं गुणानां प्रभवाप्ययम् / श्येनः पतत्रिणामादिर्यज्ञानां हुतमुत्तमम् / सदा पश्याम्यहं लीनं विजानामि शृणोमि च / / परिसर्पिणां तु सर्वेषां ज्येष्ठः सर्पो द्विजोत्तमाः // पुरुषस्तद्विजानीते तस्मात्क्षेत्रज्ञ उच्यते / कृतमादियुगानां च सर्वेषां नात्र संशयः / गुणवृत्तं तथा कृत्स्नं क्षेत्रज्ञः परिपश्यति // 36 हिरण्यं सर्वरत्नानामोषधीनां यवास्तथा / / 8 आदिमध्यावसानान्तं सृज्यमानमचेतनम् / सर्वेषां भक्ष्यभोज्यानामन्नं परममुच्यते / न गुणा विदुरात्मानं सृज्यमानं पुनः पुनः // 37 द्रवाणां चैव सर्वेषां पेयानामाप उत्तमाः // 9 न सत्यं वेद वै कश्चित्क्षेत्रज्ञस्त्वेव विन्दति / स्थावराणां च भूतानां सर्वेषामविशेषतः / गुणानां गुणभूतानां यत्परं परतो महत् // 38 ब्रह्मक्षेत्रं सदा पुण्यं प्लक्षः प्रथमजः स्मृतः // 10 तस्माद्गुणांश्च तत्त्वं च परित्यज्येह तत्त्ववित् / अहं प्रजापतीनां च सर्वेषां नात्र संशयः / क्षीणदोषो गुणान्हित्वा क्षेत्रमं प्रविशत्यथ // 39 मम विष्णुरचिन्त्यात्मा स्वयंभूरिति स स्मृतः॥११ निद्वंद्वो निर्नमस्कारो निःस्वधाकार एव च / पर्वतानां महामेरुः सर्वेषामग्रजः स्मृतः / अचलश्चानिकेतश्च क्षेत्रज्ञः स परो विभुः॥ 40 दिशां च प्रदिशां चोर्ध्वा दिग्जाता प्रथमं तथा // इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि तथा त्रिपथगा गङ्गा नदीनामग्रजा स्मृता। त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः // 43 // तथा सरोदपानानां सर्वेषां सागरोऽग्रजः / / 13 देवदानवभूतानां पिशाचोरगरक्षसाम् / ब्रह्मोवाच / नरकिंनरयक्षाणां सर्वेषामीश्वरः प्रभुः // 14 यदादिमध्यपर्यन्तं ग्रहणोपायमेव च। आदिर्विश्वस्य जगतो विष्णुब्रह्ममयो महान् / नामलक्षणसंयुक्तं सर्वं वक्ष्यामि तत्त्वतः // 1 भूतं परतरं तस्मात्रैलोक्ये नेह विद्यते // 15 अहः पूर्वं ततो रात्रिर्मासाः शुक्लादयः स्मृताः / आश्रमाणां च गार्हस्थ्यं सर्वेषां नात्र संशयः / श्रविष्ठादीनि ऋक्षाणि ऋतवः शिशिरादयः // 2 लोकानामादिरव्यक्तं सर्वस्यान्तस्तदेव च // 16 भूमिरादिस्तु गन्धानां रसानामाप एव च / अहान्यस्तमयान्तानि उदयान्ता च शर्वरी / रूपाणां ज्योतिरादिस्तु स्पर्शादिर्वायुरुच्यते / सुखस्यान्तः सदा दुःखं दुःखस्यान्तः सदा सुखम्॥ शब्दस्यादिस्तथाकाशमेष भूतकृतो गुणः // 3 सर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ताः समुच्छ्रयाः / अतः परं प्रवक्ष्यामि भूतानामादिमुत्तमम् / / संयोगा विप्रयोगान्ता मरणान्तं हि जीवितम् // 18 -2798 - Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 44. 19 ] आश्वमेधिकपर्व [14. 45. 25 सर्वं कृतं विनाशान्तं जातस्य मरणं ध्रुवम् / कालचक्रप्रवृत्ति च निवृत्तिं चैव तत्त्वतः / अशाश्वतं हि लोकेऽस्मिन्सर्वं स्थावरजङ्गमम् // 19 / यस्तु वेद नरो नित्यं न स भूतेषु मुह्यति // 11 इष्टं दत्तं तपोऽधीतं व्रतानि नियमाश्च ये / विमुक्तः सर्वसंक्लेशैः सर्वद्वंद्वातिगो मुनिः। सर्वमेतद्विनाशान्तं ज्ञानस्यान्तो न विद्यते // 20 / विमुक्तः सर्वपापेभ्यः प्राप्नोति परमां गतिम् // 12 तस्माज्ज्ञानेन शुद्धन प्रसन्नात्मा समाहितः / गृहस्थो ब्रह्मचारी च वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः / निर्ममो निरहंकारो मुच्यते सर्वपाप्मभिः // 21 चत्वार आश्रमाः प्रोक्ताः सर्वे गार्हस्थ्यमूलकाः // इति श्रीमहाभारते भाश्वमेधिकपर्वणि यः कश्चिदिह लोके च ह्यागमः संप्रकीर्तितः / चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः // 44 // तस्यान्तगमनं श्रेयः कीर्तिरेषा सनातनी // 14 संस्कारैः संस्कृतः पूर्वं यथावञ्चरितव्रतः / ब्रह्मोवाच / जातौ गुणविशिष्टायां समावर्तेत वेदवित् // 15 बुद्धिसारं मनस्तम्भमिन्द्रियग्रामबन्धनम् / स्वदारनिरतो दान्तः शिष्टाचारो जितेन्द्रियः / महाभूतारविष्कम्भं निमेषपरिवेष्टनम् // 1 पञ्चभिश्च महायज्ञैः श्रद्दधानो यजेत ह // 16 जराशोकसमाविष्टं व्याधिव्यसनसंचरम् / देवतातिथिशिष्टाशी निरतो वेदकर्मसु / देशकालविचारीदं श्रमव्यायामनिस्वनम् // 2 इज्याप्रदानयुक्तश्च ययाशक्ति यथाविधि // 17 अहोरात्रपरिक्षेपं शीतोष्णपरिमण्डलम् / न पाणिपादचपलो न नेत्रचपलो मुनिः / सुखदुःखान्तसंक्लेशं क्षुत्पिपासावकीलनम् / / 3 न च वागङ्गचपल इति शिष्टस्य गोचरः // 18 छायातपविलेखं च निमेषोन्मेषविह्वलम् / घोरमोहजनाकीणं वर्तमानमचेतनम् // 4 नित्ययज्ञोपवीती स्वाच्छुक्लवासाः शुचिव्रतः / मासार्धमासगणितं विषमं लोकसंचरम् / नियतो दमदानाभ्यां सदा शिष्टैश्च संविशेत्॥१९ तमोनिचयपत च रजोवेगप्रवर्तकम् // 5 जितशिश्नोदरो मैत्रः शिष्टाचारसमाहितः / सत्त्वालंकारदीप्तं च गुणसंघातमण्डलम् / वैष्णवीं धारयेद्यष्टिं सोदकं च कमण्डलुम् // 20 स्वरविग्रहनाभीकं शोकसंघातवर्तनम् // 6 अधीत्याध्यापनं कुर्यात्तथा यजनयाजने / क्रियाकारणसंयुक्त रागविस्तारमायतम् / दानं प्रतिग्रहं चैव षड्गुणां वृत्तिमाचरेत् // 21 लोभेप्सापरिसंख्यातं विविक्तज्ञानसंभवम् // 7 त्रीणि कर्माणि यानीह ब्राह्मणानां तु जीविका / भयमोहपरीवारं भूतसंमोहकारकम् / याजनाध्यापने चोभे शुद्धाच्चापि प्रतिग्रहः // 22 आनन्दप्रीतिधारं च कामक्रोधपरिग्रहम् // 8 अवशेषाणि चान्यानि त्रीणि कर्माणि यानि तु / महदादिविशेषान्तमसक्तप्रभवाव्ययम् / दानमध्ययनं यज्ञो धर्मयुक्तानि तानि तु // 23 मनोजवनमश्रान्तं कालचक्र प्रवर्तते // 9 तेष्वप्रमादं कुर्वीत त्रिषु कर्मसु धर्मवित् / एतद्वंद्वसमायुक्तं कालचक्रमचेतनम् / दान्तो मैत्रः क्षमायुक्तः सर्वभूतसमो मुनिः // 24 विसृजेत्संक्षिपेच्चापि बोधयेत्सामरं जगत् // 10 / सर्वमेतद्यथाशक्ति विप्रो निर्वर्तयन्शुचिः / -2799 - Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 45. 25 ] महाभारते [ 14. 46. 27 एवं युक्तो जयेत्स्वर्ग गृहस्थः संशितव्रतः // 25 यद्भक्षः स्यात्ततो दद्याद्भिक्षां नित्यमतन्द्रितः // 13 इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि देवतातिथिपूर्व च सदा भुञ्जीत वाग्यतः / पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः // 45 // अस्कन्दितमनाश्चैव लघ्वाशी देवताश्रयः // 14 दान्तो मैत्रः क्षमायुक्तः केशश्मश्रु च धारयन् / ब्रह्मोवाच / जुह्वन्स्वाध्यायशीलश्च सत्यधर्मपरायणः // 15 एवमेतेन मार्गेण पूर्वोक्तेन यथाविधि / त्यक्तदेहः सदा दक्षो वननित्यः समाहितः। अधीतवान्यथाशक्ति तथैव ब्रह्मचर्यवान् // 1 एवं युक्तो जयेत्स्वर्ग वानप्रस्थो जितेन्द्रियः // 16 स्वधर्मनिरतो विद्वान्सर्वेन्द्रिययतो मुनिः / गृहस्थो ब्रह्मचारी च वानप्रस्थोऽथ वा पुनः / गुरोः प्रियहिते युक्तः सत्यधर्मपरः शुचिः // 2 य इच्छेन्मोक्षमास्थातुमुत्तमां वृत्तिमाश्रयेत् // 15 गुरुणा समनुज्ञातो भुञ्जीतान्नमकुत्सयन् / / अभयं सर्वभूतेभ्यो दत्त्वा नैष्कर्म्यमाचरेत् / हविष्यभैक्ष्यभुक्चापि स्थानासनविहारवान् // 3 सर्वभूतहितो मैत्रः सर्वेन्द्रिययतो मुनिः // 18 द्विकालमग्निं जुह्वानः शुचिर्भूत्वा समाहितः / अयाचितमसंक्लप्तमुपपन्नं यदृच्छया। धारयीत सदा दण्डं बैल्वं पालाशमेव वा // 4 जोषयेत सदा भोज्यं ग्रासमागतमस्पृहः॥ 19 क्षौमं कार्पासिकं वापि मृगाजिनमथापि वा। यात्रामात्रं च भुञ्जीत केवलं प्राणयात्रिकम् / सर्व काषायरक्तं स्याद्वासो वापि द्विजस्य ह // 5 धर्मलब्धं तथानीयान्न काममनुवर्तयेत् // 20 मेखला च भवेन्मौञ्जी जटी नित्योदकस्तथा / ग्रासादाच्छादनाच्चान्यन्न गृहीयात्कथंचन। यज्ञोपवीती स्वाध्यायी अलुप्तनियतव्रतः // 6 यावदाहारयेत्तावत्प्रतिगृह्णीत नान्यथा // 21 पूताभिश्च तथैवाद्भिः सदा दैवततर्पणम् / परेभ्यो न प्रतिग्राह्यं न च देयं कदाचन / भावेन नियतः कुर्वन्ब्रह्मचारी प्रशस्यते // 7 दैन्यभावाच्च भूतानां संविभज्य सदा बुधः // 22 एवं युक्तो जयेत्स्वर्गमूर्ध्वरेताः समाहितः / नाददीत परस्वानि न गृह्णीयादयाचितम् / न संसरति जातीषु परमं स्थानमाश्रितः // 8 / न किंचिद्विषयं भुक्त्वा स्पृहयेत्तस्य वै पुनः॥२३ संस्कृतः सर्वसंस्कारैस्तथैव ब्रह्मचर्यवान् / मृदमापस्तथाश्मानं पत्रपुष्पफलानि च / प्रामान्निष्क्रम्य चारण्यं मुनिः प्रव्रजितो वसेत्॥ 9 असंवृतानि गृहीयात्प्रवृत्तानीह कार्यवान् // 24 चर्मवल्कलसंवीतः स्वयं प्रातरुपस्पृशेत् / न शिल्पजीविकां जीवेहिरन्नं नोत कामयेत् / अरण्यगोचरो नित्यं न ग्रामं प्रविशेत्पुनः // 10 न द्वेष्टा नोपदेष्टा च भवेत निरुपस्कृतः / अर्चयन्नतिथीन्काले दद्याच्चापि प्रतिश्रयम् / श्रद्धापूतानि भुञ्जीत निमित्तानि विवर्जयेत् // 25 फलपत्रावरैर्मूलैः श्यामाकेन च वर्तयन् // 11 मुधावृत्तिरसक्तश्च सर्वभूतैरसंविदम् / प्रवृत्तमुदकं वायुं सर्व वानेयमा तृणात् / कृत्वा वह्नि चरेद्रेक्ष्यं विधूमे भुक्तवज्जने // 26 प्राश्नीयादानुपूर्येण यथादीक्षमतन्द्रितः // 12 / वृत्ते शरावसंपाते भैक्ष्यं लिप्सेत मोक्षवित् / आमूलफलभिक्षाभिरर्चेदतिथिमागतम् / लाभे न च प्रहृष्येत नालाभे विमना भवेत् // 27 -2800 - Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 46. 28 ] आश्वमेधिकपर्व [14. 46. 55 - मात्राशी कालमाकाडूंश्चरेद्रेक्ष्यं समाहितः। न प्रत्यक्षं परोक्षं वा किंचिदृष्टं समाचरेत् // 41 लाभं साधारणं नेच्छेन्न भुञ्जीताभिपूजितः / इन्द्रियाण्युपसंहृत्य कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः / अभिपूजितलाभाद्धि विजुगुप्सेत भिनुकः // 28 क्षीणेन्द्रियमनोबुद्धिनिरीक्षेत निरिन्द्रियः // 42 शुक्तान्यम्लानि तिक्तानि कषायकटुकानि च। निद्वंद्वो निनमस्कारो निःस्वाहाकार एव च / नास्वादयीत भुञ्जानो रसांश्च मधुरांस्तथा। निर्ममो निरहंकारो नियोगक्षेम एव च // 43 यात्रामानं च भुञ्जीत केवलं प्राणयात्रिकम् // 29 निराशीः सर्वभूतेषु निरासङ्गो निराश्रयः / असंरोधेन भूतानां वृत्ति लिप्सेत मोक्षवित् / सर्वज्ञः सर्वतो मुक्तो मुच्यते नात्र संशयः // 44 न चान्यमनुभिक्षेत भिक्षमाणः कथंचन / / 30 अपाणिपादपृष्ठं तमशिरस्कमनूदरम् / न संनिकाशयेदमं विविक्ते विरजाश्चरेत्। प्रहीणगुणकर्माणं केवलं विमलं स्थिरम् // 45 शून्यागारमरण्यं वा वृक्षमूलं नदी तथा / अगन्धरसमस्पर्शमरूपाशब्दमेव च / प्रतिश्रयार्थ सेवेत पार्वती वा पुनर्गुहाम् // 31 अत्वगस्थ्यथ वामज्जममांसमपि चैव ह // 46 प्रामैकरात्रिको ग्रीष्मे वर्षास्वेकत्र वा वसेत् / निश्चिन्तमव्ययं नित्यं हृदिस्थमपि नित्यदा / अध्वा सूर्येण निर्दिष्टः कीटवष चरेन्महीम् // 32 सर्वभूतस्थमात्मानं ये पश्यन्ति न ते मृताः // 47 दयार्थ चैव भूतानां समीक्ष्य पृथिवीं चरेत् / संचयांश्च न कुर्वीत स्नेहवासं च वर्जयेत् // 33 न तत्र क्रमते बुद्धिर्नेन्द्रियाणि न देवताः / वेदा यज्ञाश्च लोकाश्च न तपो न पराक्रमः / पूतेन चाम्भसा नित्यं कार्यं कुर्वीत मोक्षवित् / उपस्पृशेदुद्धृताभिरद्भिश्च पुरुषः सदा // 34 यत्र ज्ञानवतां प्राप्तिरलिङ्गग्रहणा स्मृता // 48 अहिंसा ब्रह्मचर्य च सत्यमार्जवमेव च। तस्मादलिङ्गो धर्मज्ञो धर्मव्रतमनुव्रतः / अक्रोधश्चानसूया च दमो नित्यमपैशुनम् // 35 गूढधर्माश्रितो विद्वानज्ञातचरितं चरेत् // 49 अष्टास्वेतेषु युक्तः स्याद्तेषु नियतेन्द्रियः / अमूढो मूढरूपेण चरेद्धर्ममदूषयन् / अपापमशठं वृत्तमजिह्म नित्यमाचरेत् // 36 यथैनमवमन्येरन्परे सततमेव हि // 50 आशीर्युक्तानि कर्माणि हिंसायुक्तानि यानि च / तथावृत्तश्चरेद्धर्म सतां वाविदूषयन् / लोकसंग्रहधर्म च नैव कुर्यान्न कारयेत् // 37 यो ह्येवं वृत्तसंपन्नः स मुनिः श्रेष्ठ उच्यते // 51 सर्वभावानतिक्रम्य लघुमात्रः परिव्रजेत् / इन्द्रियाणीन्द्रियार्थांश्च महाभूतानि पश्च च / समः सर्वेषु भूतेषु स्थावरेषु चरेषु च // 38 मनोबुद्धिरथात्मानमव्यक्तं पुरुषं तथा // 52 परं नोद्वेजयेत्कंचिन्न च कस्यचिदुद्विजेत्। सर्वमेतत्प्रसंख्याय सम्यक्संत्यज्य निर्मलः / विश्वास्यः सर्वभूतानामग्र्यो मोक्षविदुच्यते // 39 / ततः स्वर्गमवाप्नोति विमुक्तः सर्वबन्धनैः // 53 अनागतं च न ध्यायेनातीतमनुचिन्तयेत् / एतदेवान्तवेलायां परिसंख्याय तत्त्ववित् / वर्तमानमुपेक्षेत कालाकाङ्क्षी समाहितः // 40 ध्यायेदेकान्तमास्थाय मुच्यतेऽथ निराश्रयः // 54 न चक्षुषा न मनसा न वाचा दूषयेत्कचित् / निर्मुक्तः सर्वसङ्गेभ्यो वायुराकाशगो यथा / भ, भा. 351 - 2801 - Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 46. 55 ] महाभारते [ 14. 48.? क्षीणकोशो निरातङ्कः प्राप्नोति परमं पदम् // 55 सदापर्णः सदापुष्पः शुभाशुभफलोदयः / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि आजीवः सर्वभूतानां ब्रह्मवृक्षः सनातनः // 13 षट्चत्वारिंशोऽध्यायः // 46 // एतच्छित्त्वा च भित्त्वा च ज्ञानेन परमासिना / हित्वा चामरतां प्राप्य जह्याद्वै मृत्युजन्मनी / ब्रह्मोवाच / निर्ममो निरहंकारो मुच्यते नात्र संशयः // 14 संन्यासं तप इत्याहुवृद्धा निश्चितदर्शिनः / द्वावेतौ पक्षिणौ नित्यौ सखायौ चाप्यचेतनौ / ब्राह्मणा ब्रह्मयोनिस्था ज्ञानं ब्रह्म परं विदुः // 1 / एताभ्यां तु परो यस्य चेतनावानिति स्मृतः // 10 अविदूरात्परं ब्रह्म वेदविद्याव्यपाश्रयम् / अचेतनः सत्त्वसंघातयुक्तः निद्वंद्वं निर्गुणं नित्यमचिन्त्यं गुह्यमुत्तमम् // 2 सत्त्वात्परं चेतयतेऽन्तरात्मा। ज्ञानेन तपसा चैव धीराः पश्यन्ति तत्पदम् / स क्षेत्रज्ञः सत्त्वसंघातबुद्धिनिर्णिक्ततमसः पूता व्युत्क्रान्तरजसोऽमलाः // 3 गुणातिगो मुच्यते मृत्युपाशात् // 16 तपसा क्षेममध्वानं गच्छन्ति परमैषिणः / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि संन्यासनिरता नित्यं ये ब्रह्मविदुषो जनाः // 4 सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः॥४७॥ तपः प्रदीप इत्याहुराचारो धर्मसाधकः / ज्ञानं त्वेव परं विद्म संन्यासस्तप उत्तमम् // 5 ब्रह्मोवाच / यस्तु वेद निराबाधं ज्ञानं तत्त्वविनिश्चयात् / केचिद्ब्रह्ममयं वृक्षं केचिद्ब्रह्ममयं महत् / सर्वभूतस्थमात्मानं स सर्वगतिरिष्यते // 6 केचित्पुरुषमव्यक्त केचित्परमनामयम् / यो विद्वान्सहवासं च विवासं चैव पश्यति / मन्यन्ते सर्वमप्येतदव्यक्तप्रभवाव्ययम् // 1 तथैवैकत्वनानात्वे स दुःखात्परिमुच्यते // 7 उछ्रासमात्रमपि चेद्योऽन्तकाले समो भवेत् / यो न कामयते किंचिन्न किंचिदवमन्यते / आत्मानमुपसंगम्य सोऽमृतत्वाय कल्पते // 2 इहलोकस्थ एवैष ब्रह्मभूयाय कल्पते // 8 निमेषमात्रमपि चेत्संयम्यात्मानमात्मनि / प्रधानगुणतत्त्वज्ञः सर्वभूतविधानवित् / गच्छत्यात्मप्रसादेन विदुषां प्राप्तिमव्ययाम् // 3 निर्ममो निरहंकारो मुच्यते नात्र संशयः॥९ प्राणायामैरथ प्राणान्संयम्य स पुनः पुनः / निद्वंद्वो निर्नमस्कारो निःस्वधाकार एव च / दशद्वादशभिर्वापि चतुर्विंशात्परं ततः // 4 निर्गुणं नित्यमद्वंद्वं प्रशमेनैव गच्छति // 10 एवं पूर्व प्रसन्नात्मा लभते यद्यदिच्छति / हित्वा गुणमयं सर्वं कर्म जन्तुः शुभाशुभम् / अव्यक्तात्सत्त्वमुद्रिक्तममृतत्वाय कल्पते // 5 उभे सत्यानृते हित्वा मुच्यते नात्र संशयः // 11 सत्त्वात्परतरं नान्यत्प्रशंसन्तीह तद्विदः / अव्यक्तबीजप्रभवो बुद्धिस्कन्धमयो महान् / अनुभानाद्विजानीमः पुरुषं सत्त्वसंश्रयम् / महाहंकारविटप इन्द्रियान्तरकोटरः // 12 न शक्यमन्यथा गन्तुं पुरुषं तमथो द्विजाः // 6 महाभूतविशाखश्च विशेषप्रतिशाखवान् / क्षमा धृतिरहिंसा च समता सत्यमार्जवम् / - 2802 - Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 48.7] आश्वमेधिकपर्व [14. 49. 4 ज्ञानं त्यागोऽथ संन्यासः सात्त्विकं वृत्तमिष्यते // उपास्यसाधनं त्वेके नैतदस्तीति चापरे // 20 एतेनैवानुमानेन मन्यन्तेऽथ मनीषिणः। अहिंसानिरताश्चान्ये केचिद्धिसापरायणाः / सत्त्वं च पुरुषश्चैकस्तत्र नास्ति विचारणा // 8 पुण्येन यशसेत्येके नैतदस्तीति चापरे // 21 आहुरेके च विद्वांसो ये ज्ञाने सुप्रतिष्ठिताः। सद्भावनिरताश्चान्ये केचित्संशयिते स्थिताः / क्षेत्रज्ञसत्त्वयोरैक्यमित्येतन्नोपपद्यते // 9 दुःखादन्ये सुखादन्ये ध्यानमित्यपरे स्थिताः // 22 पृथग्भूतस्ततो नित्यमित्येतदविचारितम् / यज्ञमित्यपरे धीराः प्रदानमिति चापरे / पृथग्भावश्च विज्ञेयः सहजश्चापि तत्त्वतः // 10 सर्वमेके प्रशंसन्ति न सर्वमिति चापरे // 23 तथैवैकत्वनानात्वमिष्यते विदुषां नयः / तपस्त्वन्ये प्रशंसन्ति स्वाध्यायमपरे जनाः / मशकोदुम्बरे त्वैक्यं पृथक्त्वमपि दृश्यते // 11 ज्ञानं संन्यासमित्येके स्वभावं भूतचिन्तकाः // 24 मत्स्यो यथान्यः स्यादप्सु संप्रयोगस्तथानयोः। एवं व्युत्थापिते धर्मे बहुधा विप्रधावति / संबन्धस्तोयबिन्दूनां पणे कोकनदस्य च // 12 निश्चयं नाधिगच्छामः संमूढाः सुरसत्तम // 25 गुरुरुवाच / इदं श्रेय इदं श्रेय इत्येवं प्रस्थितो जनः / इत्युक्तवन्तं ते विप्रास्तदा लोकपितामहम् / यो हि यस्मिन्रतो धर्मे स तं पूजयते सदा // 26 पुनः संशयमापन्नाः पप्रच्छुर्द्विजसत्तमाः // 13 तत्र नो विहता प्रज्ञा मनश्च बहुलीकृतम् / ऋषयः ऊचुः। एतदाख्यातुमिच्छामः श्रेयः किमिति सत्तम // 27 किंस्विदेवेह धर्माणामनुष्ठेयतमं स्मृतम् / अतः परं च यद्गुह्यं तद्भवान्वक्तुमर्हति / व्याहतामिव पश्यामो धर्मस्य विविधां गतिम् // सत्त्वक्षेत्रज्ञयोश्चैव संबन्धः केन हेतुना // 28 ऊर्ध्व देहाद्वदन्त्येके नैतदस्तीति चापरे / एवमुक्तः स तैर्विप्रैर्भगवालोकभावनः / केचित्संशयितं सर्व निःसंशयमथापरे // 15 तेभ्यः शशंस धर्मात्मा याथातथ्येन बुद्धिमान् // अनित्यं नित्यमित्येके नास्त्यस्तीत्यपि चापरे / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि एकरूपं द्विधेत्येके व्यामिश्रमिति चापरे / अष्टचत्वारिंशोऽध्यायः॥ 18 // एकमेके पृथक्चान्ये बहुत्वमिति चापरे // 16 मन्यन्ते ब्राह्मणा एवं प्राज्ञास्तत्त्वार्थदर्शिनः / ब्रह्मोवाच / जटाजिनधराश्चान्ये मुण्डाः केचिदसंवृताः // 17 / हन्तः वः संप्रवक्ष्यामि यन्मां पृच्छथ सत्तमाः / अस्नानं केचिदिच्छन्ति स्नानमित्यपि चापरे। समस्तमिह तच्छ्रुत्वा सम्यगेवावधार्यताम् // 1 आहारं केचिदिच्छन्ति केचिच्चानशने रताः // 18 अहिंसा सर्वभूतानामेतत्कृत्यतमं मतम् / कर्म केचित्प्रशंसन्ति प्रशान्तिमपि चापरे / एतत्पदमनुद्विग्न वरिष्ठं धर्मलक्षणम् // 2 देशकालावुभौ केचिन्नैतदस्तीति चापरे / ज्ञानं निःश्रेय इत्याहुवृद्धा निश्चयदर्शिनः / केचिन्मोक्षं प्रशंसन्ति केचिद्भोगान्पृथग्विधान् / / तस्माज्ज्ञानेन शुद्धेन मुच्यते सर्वपातकैः // 3 धनानि केचिदिच्छन्ति निर्धनत्वं तथापरे / / हिंसापराश्च ये लोके ये च नास्तिकवृत्तयः / -2803 - Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 49. 4] महाभारते [ 14. 49. 381 लोभमोहसमायुक्तास्ते वै निरयगामिनः // 4 उपायज्ञो हि मेधावी सुखमत्यन्तमश्नुते // 18 आशीर्युक्तानि कर्माणि कुर्वते ये त्वतन्द्रिताः / यथाध्वानमपाथेयः प्रपन्नो मानवः कचित् / तेऽस्मिल्लोके प्रमोदन्ते जायमानाः पुनः पुनः॥५ क्लेशेन याति महता विनश्यत्यन्तरापि वा // 19 कुर्वते ये तु कर्माणि श्रधाना विपश्चितः / तथा कर्मसु विज्ञेयं फलं भवति वा न वा / अनाशीोगसंयक्तास्ते धीराः साधदर्शिनः // 6 पुरुषस्यात्मनिःश्रेयः शुभाशुभनिदर्शनम् // 20 अतः परं प्रवक्ष्यामि सत्त्वक्षेत्रज्ञयोर्यथा। यथा च दीर्घमध्वानं पद्भ्यामेव प्रपद्यते / संयोगो विप्रयोगश्च तन्निबोधत सत्तमाः // 7 अदृष्टपूर्व सहसा सत्त्वदर्शनवर्जितः // 21 विषयो विषयित्वं च संबन्धोऽयमिहोच्यते / तमेव च यथाध्वानं रथेनेहाशुगामिना / विषयी पुरुषो नित्यं सत्त्वं च विषयः स्मृतः // 8 | यायादश्वप्रयुक्तेन तथा बुद्धिमतां गतिः / / 22 व्याख्यातं पूर्वकल्पेन मशकोदुम्बरं यथा / उच्च पर्वतमारुह्य नान्ववेक्षेत भूगतम् / .. भुज्यमानं न जानीते नित्यं सत्त्वमचेतनम्। रथेन रथिनं पश्येक्लिश्यमानमचेतनम् // 23 यस्त्वेव तु विजानीते यो भुङ्क्ते यश्च भुज्यते // 9 // यावद्रथपथस्तावद्रथेन स तु गच्छति / अनित्यं द्वंद्वसंयुक्तं सत्त्वमाहुर्गुणात्मकम् / क्षीणे रथपथे प्राशो रथमुत्सृज्य गच्छति // 24 निद्वंद्वो निष्कलो नित्यः क्षेत्रज्ञो निर्गणात्मकः / / एवं गच्छति मेधावी तत्त्वयोगविधानवित् / समः संज्ञागतस्त्वेवं यदा सर्वत्र दृश्यते / समाज्ञाय महाबुद्धिरुत्तरादुत्तरोत्तरम् / / 25 उपभुङ्क्ते सदा सत्त्वमापः पुष्करपर्णवत् // 11 यथा महार्णवं घोरमप्लयः संप्रगाहते / सर्वैरपि गुणैर्विद्वान्व्यतिषक्तो न लिप्यते / बाहुभ्यामेव संमोहाद्वधं घर्च्छत्यसंशयम् // 26 जलबिन्दुर्यथा लोलः पमिनीपत्रसंस्थितः / नावा चापि यथा प्राज्ञो विभागजस्तरित्रया / एवमेवाप्यसंसक्तः पुरुषः स्यान्न संशयः // 12 अक्लान्तः सलिलं गाहेक्षिप्रं संतरति ध्रुवम् // 2 // द्रव्यमात्रमभूत्सत्त्वं पुरुषस्येति निश्चयः / तीर्णो गच्छेत्परं पारं नावमुत्सृज्य निर्ममः / यथा द्रव्यं च कर्ता च संयोगोऽप्यनयोस्तथा // व्याख्यातं पूर्वकल्पेन यथा रथिपदातिनौ // 28 यथा प्रदीपमादाय कश्चित्तमसि गच्छति / स्नेहात्संमोहमापन्नो नावि दाशो यथा तथा / तथा सत्त्वप्रदीपेन गच्छन्ति परमैषिणः // 14 ममत्वेनाभिभूतः स तत्रैव परिवर्तते // 29 यावद्रव्यगुणस्तावत्प्रदीपः संप्रकाशते / नावं न शक्यमारुह्य स्थले विपरिवर्तितुम् / क्षीणद्रव्यगुणं ज्योतिरन्तर्धानाय गच्छति // 15 तथैव रथमारुह्य नाप्सु चर्या विधीयते / / 30 व्यक्तः सत्त्वगुणस्त्वेवं पुरुषोऽव्यक्त इष्यते / एवं कर्म कृतं चित्रं विषयस्थं पृथक्पृथक् / एतद्विप्रा विजानीत हन्त भूयो ब्रवीमि वः // 16 यथा कर्म कृतं लोके तथा तदुपपद्यते / / 31 सहस्रेणापि दुर्मेधा न वृद्धिमधिगच्छति / यन्नैव गन्धि नो रस्यं न रूपस्पर्शशब्दवत् / चतुर्थेनाप्यथांशेन बुद्धिमान्सुखमेधते // 17 मन्यन्ते मुनयो बुद्ध्या तत्प्रधानं प्रचक्षते // 32 एवं धर्मस्य विज्ञेयं संसाधनमुपायतः / तत्र प्रधानमव्यक्तमव्यक्तस्य गुणो महान् / - 2804 - Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 49. 33] आश्वमेधिकपर्व [ 14. 50.5 महतः प्रधानभूतस्य गुणोऽहंकार एव च // 33 शब्दस्पर्शी च विज्ञेयौ द्विगुणो वायुरुच्यते / अहंकारप्रधानस्य महाभूतकृतो गुणः / वायोश्चापि गुणः स्पर्शः स्पर्शश्च बहुधा स्मृतः // 48 पृथक्त्वेन हि भूतानां विषया वै गुणाः स्मृताः // उष्णः शीतः सुखो दुःखः स्निग्धो विशद एव च / बीजधर्म यथाव्यक्तं तथैव प्रसवात्मकम् / कठिनश्चिकणः श्लक्ष्णः पिच्छिलो दारुणो मृदुः // बीजधर्मा महानात्मा प्रसवश्चेति नः श्रुतम् // 35 एवं द्वादशविस्तारो वायव्यो गुण उच्यते। वीजधर्मा त्वहंकारः प्रसवश्च पुनः पुनः / विधिवद्भाह्मणैः सिद्धैर्धर्मजैस्तत्त्वदर्शिभिः // 50 बीजप्रसवधर्माणि महाभूतानि पञ्च वै // 36. तत्रैकगुणमाकाशं शब्द इत्येव च स्मृतः / बीजधर्मिण इत्याहुः प्रसवं च न कुर्वते / तस्य शब्दस्य वक्ष्यामि विस्तरेण बहूनाणान् // 51 विशेषाः पञ्चभूतानां तेषां वित्तं विशेषणम् // 37 षड्जर्षभौ च गान्धारो मध्यमः पञ्चमस्तथा / तत्रैकगुणमाकाशं द्विगुणो वायुरुच्यते / अतः परं तु विज्ञेयो निषादो धैवतस्तथा // 52 त्रिगुणं ज्योतिरित्याहुरापश्चापि चतुर्गुणाः // 38 इष्टोऽनिष्टश्च शब्दस्तु संहतः प्रविभागवान् / पृथ्वी पञ्चगुणा ज्ञेया त्रसस्थावरसंकुला। एवं बहुविधो ज्ञेयः शब्दः आकाशसंभवः // 53 सर्वभूतकरी देवी शुभाशुभनिदर्शना // 39 आकाशमुत्तमं भूतमहंकारस्ततः परम् / शब्दः स्पर्शस्तथा रूपं रसो गन्धश्च पञ्चमः / अहंकारात्परा बुद्धिर्बुद्धरात्मा ततः परः // 54 एते पञ्च गुणा भूमेर्विज्ञेया द्विजसत्तमाः // 40 तस्मात्तु परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुषः परः / पार्थिवश्च सदा गन्धो गन्धश्च बहुधा स्मृतः / परावरज्ञो भूतानां यं प्राप्यानन्त्यमश्नुते // 55 तस्य गन्धस्य वक्ष्यामि विस्तरेण बहून्गुणान् // 41 इति श्रीमहाभारते भाश्वमेधिकपर्वणि इष्टश्चानिष्टगन्धश्च मधुरोऽम्लः कटुस्तथा / एकोनपञ्चाशोऽध्यायः // 19 // निर्हारी संहतः स्निग्धो रूक्षो विशद एव च / एवं दशविधी ज्ञेयः पार्थिवो गन्ध इत्युत // 42 शब्दः स्पर्शस्तथा रूपं रसश्चापां गुणाः स्मृताः। भूतानामथ पञ्चानां यथैषामीश्वरं मनः / रसज्ञानं तु वक्ष्यामि रसस्तु बहुधा स्मृतः // 43 नियमे च विसर्गे च भूतात्मा मन एव च // 1 मधुरोऽम्लः कटुस्तिक्तः कषायो लवणस्तथा / अधिष्ठाता मनो नित्यं भूतानां महतां तथा / एवं षड्विधविस्तारो रसो वारिमयः स्मृतः // 44 बुद्धिरैश्वर्यमाचष्टे क्षेत्रज्ञः सर्व उच्यते // 2 शब्दः स्पर्शस्तथा रूपं त्रिगुणं ज्योतिरुच्यते। इन्द्रियाणि मनो युङ्क्ते सदश्वानिव सारथिः / ज्योतिषश्च गुणो रूपं रूपं च बहुधा स्मृतम् // 45 / इन्द्रियाणि मनो बुद्धि क्षेत्रको युञ्जते सदा // 3 शुक्लं कृष्णं तथा रक्तं नीलं पीतारुणं तथा / महाभूतसमायुक्तं बुद्धिसंयमनं रथम् / हस्खं दीर्घ तथा स्थूलं चतुरस्राणु वृत्तकम् // 46 तमारुह्य स भूतात्मा समन्तात्परिधावति / / 4 एवं द्वादशविस्तारं तेजसो रूपमुच्यते। इन्द्रियग्रामसंयुक्तो मनःसारथिरेव च / विज्ञेयं ब्राह्मणैर्नित्यं धर्मज्ञैः सत्यवादिभिः // 47 | बुद्धिसंयमनो नित्यं महान्ब्रह्ममयो रथः // 5 -2805 - ब्रह्मोवाच / Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 50.6] महाभारते | 14.50. 34 एवं यो वेत्ति विद्वान्वै सदा ब्रह्ममयं रथम् / तपःपरायणा नित्यं सिध्यन्ते तपसा सदा। स धीरः सर्वलोकेषु न मोहमधिगच्छति // 6 तथैव तपसा देवा महाभागा दिवं गताः // 20 अव्यक्तादि विशेषान्तं त्रसस्थावरसंकुलम् / आशीर्युक्तानि कर्माणि कुर्वते ये त्वतन्द्रिताः / चन्द्रसूर्यप्रभालोकं ग्रहनक्षत्रमण्डितम् // 7 अहंकारसमायुक्तास्ते सकाशे प्रजापतेः // 21 नदीपर्वतजालैश्च सर्वतः परिभूषितम् / ध्यानयोगेन शुद्धेन निर्ममा निरहंकृताः / विविधाभिस्तथाद्भिश्च सततं समलंकृतम् // 8 प्राप्नुवन्ति महात्मानो महान्तं लोकमुत्तमम् // 22 आजीवः सर्वभूतानां सर्वप्राणभृतां गतिः / ध्यानयोगादुपागम्य प्रसन्नमतयः सदा। एतद्ब्रह्मवनं नित्यं यस्मिंश्चरति क्षेत्रवित् // 9 सुखोपचयमव्यक्तं प्रविशन्त्यात्मवत्तया // 23 लोकेऽस्मिन्यानि भूतानि स्थावराणि चराणि च / ध्यानयोगादुपागम्य निर्ममा निरहंकृताः / तान्येवाग्रे प्रलीयन्ते पश्चाद्भूतकृता गणाः। अव्यक्तं प्रविशन्तीह महान्तं लोकमुत्तमम् // 24 गुणेभ्यः पञ्चभूतानि एष भूतसमुच्छ्रयः // 10 अव्यक्तादेव संभूतः समयज्ञो गतः पुनः / देवा मनुष्या गन्धर्वाः पिशाचासुरराक्षसाः / तमोरजोभ्यां निर्मुक्तः सत्त्वमास्थाय केवलम् // 25 सर्वे स्वभावतः सृष्टा न क्रियाभ्यो न कारणात् // विमुक्तः सर्वपापेभ्यः सर्वं त्यजति निष्कलः / एते विश्वकृतो विप्रा जायन्ते ह पुनः पुनः / क्षेत्रज्ञ इति तं विद्याद्यस्तं वेद स वेदवित् // 26 तेभ्यः प्रसूतास्तेष्वेव महाभूतेषु पञ्चसु / चित्तं चित्तादुपागम्य मुनिरासीत संयतः / प्रलीयन्ते यथाकालमूर्मयः सागरे यथा // 12 यञ्चित्तस्तन्मना भूत्वा गुह्यमेतत्सनातनम् // 27 विश्वसृग्भ्यस्तु भूतेभ्यो महाभूतानि गच्छति / अव्यक्तादि विशेषान्तमविद्यालक्षणं स्मृतम् / भूतेभ्यश्चापि पश्चभ्यो मुक्तो गच्छेत्प्रजापतिम् // निबोधत यथा हीदं गुणैर्लक्षणमित्युत // 28 प्रजापतिरिदं सर्व तपसैवासृजत्प्रभुः। व्यक्षरस्तु भवेन्मृत्युस्खयक्षरं ब्रह्म शाश्वतम् / तथैव वेदानृषयस्तपसा प्रतिपेदिरे // 14 ममेति च भवेन्मृत्युन ममेति च शाश्वतम् // 29 तपसश्चानुपूर्येण फलमूलाशिनस्तथा / कर्म केचित्प्रशंसन्ति मन्दबुद्धितरा नराः / त्रैलोक्यं तपसा सिद्धाः पश्यन्तीह समाहिताः // ये तु बुद्धा महात्मानो न प्रशंसन्ति कर्म ते॥३० औषधान्यगदादीनि नानाविद्याश्च सर्वशः। कर्मणा जायते जन्तुर्मूर्तिमान्षोडशात्मकः / तपसैव प्रसिध्यन्ति तपोमूलं हि साधनम् // 16 पुरुषं सृजतेऽविद्या अग्राह्यममृताशिनम् // 31 यहुरापं दुराम्नायं दुराधर्ष दुरन्वयम् / तस्मात्कर्मसु निःस्नेहा ये केचित्पारदर्शिनः / तत्सर्वं तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम् // 17 विद्यामयोऽयं पुरुषो न तु कर्ममयः स्मृतः // 32 सुरापो ब्रह्महा स्तेयी भ्रूणहा गुरुतल्पगः / अपूर्वममृतं नित्यं य एनमविचारिणम् / तपसैव सुतप्तेन मुच्यन्ते किल्बिषात्ततः // 18 य एनं विन्दतेऽऽत्मानमग्राह्यममृताशिनम् / / 33 मनुष्याः पितरो देवाः पशवो मृगपक्षिणः / अग्राह्योऽमृतो भवति य एभिः कारणैर्भुवः / यानि चान्यानि भूतानि त्रसानि स्थावराणि च॥ | अपोह्य सर्वसंकल्पान्संयम्यात्मानमात्मनि / -2806 - Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 50. 34 ] आश्वमेधिकपर्व [14. 51.8 स तद्ब्रह्म शुभं वेत्ति यस्माद्भूयो न विद्यते // 34 ततस्त्वं सम्यगाचीर्णे धर्मेऽस्मिन्कुरुनन्दन / प्रसादेनैव सत्त्वस्य प्रसादं समवाप्नुयात् / सर्वपापविशुद्धात्मा मोक्षं प्राप्स्यसि केवलम् // 47 लक्षणं हि प्रसादस्य यथा स्यात्स्वप्नदर्शनम् // 35 | पूर्वमप्येतदेवोक्तं युद्धकाल उपस्थिते / गतिरेषा तु मुक्तानां ये ज्ञानपरिनिष्ठिताः / मया तव महाबाहो तस्मादत्र मनः कुरु // 48 प्रवृत्तयश्च याः सर्वाः पश्यन्ति परिणामजाः // 36 मया तु भरतश्रेष्ठ चिरदृष्टः पिता विभो / एषा गतिरसक्तानामेष धर्मः सनातनः / तमहं द्रष्टुमिच्छामि संमते तव फल्गुन // 49 एषा ज्ञानवतां प्राप्तिरेतद्वृत्तमनिन्दितम् // 37 वैशंपायन उवाच / समेन सर्वभूतेषु निःस्पृहेण निराशिषा / इत्युक्तवचनं कृष्णं प्रत्युवाच धनंजयः / शक्या गतिरियं गन्तुं सर्वत्र समदर्शिना // 38 / गच्छावो नगरं कृष्ण गजसोह्वयमद्य वै // 50 एतद्वः सर्वमाख्यातं मयां विप्रर्षिसत्तमाः / समेत्य तत्र राजानं धर्मात्मानं युधिष्ठिरम् / एवमाचरत क्षिप्रं ततः सिद्धिमवाप्स्यथ // 39 समनुज्ञाप्य दुर्धर्ष स्वां पुरी यातुमर्हसि // 51 गुरुरुवाच / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि इत्युक्तास्ते तु मुनयो ब्रह्मणा गुरुणा तथा / पञ्चाशोऽध्यायः॥ 50 // कृतवन्तो महात्मानस्ततो लोकानवाप्नुवन् // 40 त्वमप्येतन्महाभाग यथोक्तं ब्रह्मणो वचः। वैशंपायन उवाच / सम्यगाचर शुद्धात्मस्ततः सिद्धिमवाप्स्यसि // 41 ततोऽभ्यचोदयत्कृष्णो युज्यतामिति दारुकम् / वासुदेव उवाच। मुहूर्ता दिव चाचष्ट युक्तमित्येव दारुकः // 1 तथैव चानुयात्राणि चोदयामास पाण्डवः / इत्युक्तः स तदा शिष्यो गुरुणा धर्ममुत्तमम् / / सज्जयध्वं प्रयास्यामो नगरं गजसाह्वयम् // 2 चकार सर्व कौन्तेय ततो मोक्षमवाप्तवान् // 42 कृतकृत्यश्च स तदा शिष्यः कुरुकुलोद्वह / इत्युक्ताः सैनिकास्ते तु सज्जीभूता विशां पते / तत्पदं समनुप्राप्तो यत्र गत्वा न शोचति // 43 आचख्युः सज्जमित्येव पार्थायामिततेजसे // 3 ततस्तौ रथमास्थाय प्रयातौ कृष्णपाण्डवौ / अर्जुन उवाच / विकुर्वाणौ कथाश्चित्राः प्रीयमाणौ विशां पते // 4 को न्वसौ ब्राह्मणः कृष्ण कश्च शिष्यो जनार्दन / रथस्थं तु महातेजा वासुदेवं धनंजयः / श्रोतव्यं चेन्मयैतद्वै तत्त्वमाचक्ष्व मे विभो // 44 पुनरेवाब्रवीद्वाक्यमिदं भरतसत्तम / / 5 - वासुदेव उवाच / त्वत्प्रसादाजयः प्राप्तो राज्ञा वृष्णिकुलोद्वह / अहं गुरुर्महाबाहो मनः शिष्यं च विद्धि मे / निहताः शत्रवश्वापि प्राप्तं राज्यमकण्टकम् // 6 त्वत्प्रीत्या गुह्यमेतच्च कथितं मे धनंजय // 45 नाथवन्तश्च भवता पाण्डवा मधुसूदन / मयि चेदस्ति ते प्रीतिर्नित्यं कुरुकुलोद्वह / भवन्तं प्लवमासाद्य तीर्णाः स्म कुरुसागरम् // 7 अध्यात्ममेतच्छ्रुत्वा त्वं सम्यगाचर सुव्रत // 46 / विश्वकर्मन्नमस्तेऽस्तु विश्वात्मन्विश्वसंभव / -2807 - Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 51.8] महाभारते [ 14. 51. 36 यथाहं त्वा विजानामि यथा चाहं भवन्मनाः // 8 | अचिराचैव द्रष्टा त्वं मातुलं मधुसूदन / त्वत्तेजःसंभवो नित्यं हुताशो मधुसूदन / बलदेवं च दुर्धर्ष तथान्यान्वृष्णिपुंगवान् // 23 रतिः क्रीडामयी तुभ्यं माया ते रोदसी विभो॥९ एवं संभाषमाणौ तौ प्राप्तौ वारणसाहयम् / त्वयि सर्वमिदं विश्वं यदिदं स्थाणुजङ्गमम् / / तथा विविशतुश्चोभौ संप्रदृष्टनराकुलम् // 24 त्वं हि सर्व विकुरुषे भूतग्रामं सनातनम् / / 10 तौ गत्वा धृतराष्ट्रस्य गृहं शक्रगृहोपमम् / पृथिवीं चान्तरिक्षं च तथा स्थावरजङ्गमम्। ददृशाते महाराज धृतराष्ट्र जनेश्वरम् / / 25 हसितं तेऽमला ज्योत्स्ना ऋतवश्चेन्द्रियान्वयाः॥११ विदुरं च महाबुद्धिं राजानं च युधिष्ठिरम् / प्राणो वायुः सततगः क्रोधो मृत्युः सनातनः। भीमसेनं च दुर्धर्ष माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ / प्रसादे चापि पद्मा श्रीनित्यं त्वयि महामते // 12 धृतराष्ट्रमुपासीनं युयुत्सुं चापराजितम् // 26 रतिस्तुष्टिधृतिः क्षान्तिस्त्वयि चेदं चराचरम् / गान्धारी च महाप्राज्ञां पृथां कृष्णां च भामिनीम्। त्वमेवेह युगान्तेषु निधनं प्रोच्यसेऽनघ // 13 सुभद्रायाश्च ताः सर्वा भरतानां स्त्रियस्तथा / सुदीर्घेणापि कालेन न ते शक्या गुणा मया / ददृशाते स्थिताः सर्वा गान्धारी परिवार्य वै // 27 भात्मा च परमो वक्तुं नमस्ते नलिनेक्षण / / 14 ततः समेत्य राजानं धृतराष्ट्रमरिंदमौ। विदितो मेऽसि दुर्धर्ष नारदादेवलात्तथा। निवेद्य नामधेये स्वे तस्य पादावगृहताम् // 28 कृष्णद्वैपायनाच्चैव तथा कुरुपितामहात् // 15 / गान्धार्याश्च पृथायाश्च धर्मराज्ञस्तथैव च / त्वयि सर्व समासक्तं त्वमेवैको जनेश्वरः / भीमस्य च महात्मानौ तथा पादावगृह्यताम् / / 29 यच्चानुग्रहसंयुक्तमेतदुक्तं त्वयानघ // 16 क्षत्तारं चापि संपूज्य पृष्ट्वा कुशलमव्ययम् / एतत्सर्वमहं सम्यगाचरिष्ये जनार्दन / तैः साधं नृपतिं वृद्धं ततस्तं पर्युपासताम् // 30 इदं चाद्भुतमत्यर्थ कृतमस्मत्प्रियेप्सया // 17 ततो निशि महाराज धृतराष्ट्रः कुरूद्वहान् / यत्पापो निहतः संख्ये कौरव्यो धृतराष्ट्रजः / जनार्दनं च मेधावी व्यसर्जयत वै गृहान् // 31 त्वया दग्धं हि तत्सैन्यं मया विजितमाहवे // 18 तेऽनुज्ञाता नृपतिना ययुः स्वं स्वं निवेशनम् / भवता तत्कृतं कर्म येनावाप्तो जयो मया / धनंजयगृहानेव ययौ कृष्णस्तु वीर्यवान् // 32 दुर्योधनस्य संग्रामे तव बुद्धिपराक्रमैः // 19 तत्रार्चितो यथान्यायं सर्वकामैरुपस्थितः / कर्णस्य च वधोपायो यथावत्संप्रदर्शितः / कृष्णः सुष्वाप मेधावी धनंजयसहायवान् // 33 सैन्धवस्य च पापस्य भूरिश्रवस एव च // 20 प्रभातायां तु शर्वयां कृतपूर्वाहिकक्रियौ / अहं च प्रीयमाणेन त्वया देवकिनन्दन / धर्मराजस्य भवनं जग्मतुः परमार्चितौ / यदुक्तस्तत्करिष्यामि न हि मेऽत्र विचारणा // 21 यत्रास्ते स महामात्यो धर्मराजो महामनाः // 34 राजानं च समासाद्य धर्मात्मानं युधिष्ठिरम् / ततस्तौ तत्प्रविश्याथ ददृशाते महाबलौ / चोदयिष्यामि धर्मज्ञ गमनाथं त्वयानघ / / 22 / धर्मराजानमासीनं देवराजमिवाश्विनौ // 35 रुचितं हि ममैतत्ते द्वारकागमनं प्रभो / तौ समासाद्य राजानं वार्ष्णेयकुरुपुंगवौ / 22808 - Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 51. 36] आश्वमेधिकपर्व [14. 51. 56 निषीदतुरनुज्ञातौ प्रीयमाणेन तेन वै // 36 यद्यस्ति चान्यद्रविणं गृहेषु मे ततः स राजा मेधावी विवक्षु प्रेक्ष्य तावुभौ। ___ त्वमेव तस्येश्वर नित्यमीश्वरः // 50 प्रोवाच वदतां श्रेष्ठो वचनं राजसत्तमः // 37 तथेत्यथोक्तः प्रतिपूजितस्तदा विवक्षु हि युवां मन्ये वीरौ यदुकुरूद्वहौ / __ गदाग्रजो धर्मसुतेन वीर्यवान् / व्रत कर्तास्मि सर्वं वां न चिरान्मा विचार्यताम् / पितृष्वसामभ्यवदद्यथाविधि इत्युक्ते फल्गुनस्तत्र धर्मराजानमब्रवीत् / __ संपूजितश्चाप्यगमत्प्रदक्षिणम् // 51 विनीतवदुपागम्य वाक्यं वाक्यविशारदः // 39 तया स सम्यक्प्रतिनन्दितस्तदा अयं चिरोषितो राजन्वासुदेवः प्रतापवान् / तथैव सर्वैविदुरादिभिस्ततः / भवन्तं समनुज्ञाप्य पितरं द्रष्टुमिच्छति // 40 विनिर्ययौ नागपुराद्गदाग्रजो स गच्छेदभ्यनुज्ञातो भवता यदि मन्यसे / रथेन दिव्येन चतुर्युजा हरिः // 52 आनर्तनगरी वीरस्तदनुज्ञातुमर्हसि // 41 रथं सुभद्रामधिरोप्य भामिनी युधिष्ठिर उवाच। . युधिष्ठिरस्यानुमते जनार्दनः / पुण्डरीकाक्ष भद्रं ते गच्छ वं मधुसूदन / पितृष्वसायाश्च तथा महाभुजो पुरी द्वारवतीमद्य द्रष्टुं शूरसुतं प्रभुम् // 42 विनिर्ययौ पौरजनाभिसंवृतः // 53 रोचते मे महाबाहो गमनं तव केशव / तमन्वगाद्वानरवर्यकेतनः मातुलश्चिरदृष्टो मे त्वया देवी च देवकी // 43 ससात्यकिर्माद्रवतीसुतावपि / मातुलं वसुदेवं त्वं बलदेवं च माधव / अगाधबुद्धिर्विदुरश्च माधवं पूजयेथा महाप्राज्ञ मद्वाक्येन यथार्हतः // 44 स्वयं च भीमो गजराजविक्रमः // 54 स्मरेथाश्चापि मां नित्यं भीमं च बलिनां वरम् / निवर्तयित्वा कुरुराष्ट्रवर्धनांफल्गुनं नकुलं चैव सहदेवं च माधव // 45 स्ततः स सर्वान्विदुरं च वीर्यवान् / आनर्तानवलोक्य त्वं पितरं च महाभुज / जनार्दनो दारुकमाह सत्वरः वृष्णींश्च पुनरागच्छेहेयमेधे ममानघ // 46 प्रचोदयाश्वानिति सात्यकिस्तदा // 55 स गच्छ रत्नान्यादाय विविधानि वसूनि च / ततो ययौ शत्रुगणप्रमर्दनः पचाप्यन्यन्मनोज्ञं ते तदप्यादत्स्व सात्वत // 47 शिनिप्रवीरानुगतो जनार्दनः। इयं हि वसुधा सर्वा प्रसादात्तव माधव / यथा निहत्यारिगणाशतक्रतुअस्मानुपगता वीर निहताश्चापि शत्रवः // 48 दिवं तथानर्तपुरी प्रतापवान् // 56 एवं ब्रुवति कौरव्ये धर्मराजे युधिष्ठिरे। इति श्रीमहाभारते माश्वमेधिकपर्वणि वासुदेवो वरः पुंसामिदं वचनमब्रवीत् // 49 तवैव रत्नानि धनं च केवलम् एकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः // 51 // __धरा च कृत्स्ना तु महाभुजाद्य वै। -2809 - Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 52. 1] महाभारते [14. 52.3 वासुदेव उवाच / वैशंपायन उवाच / कृतो यत्नो मया ब्रह्मन्सौभ्रात्रे कौरवान्प्रति / तथा प्रयान्तं वार्ष्णेयं द्वारकां भरतर्षभाः। न चाशक्यन्त संधातुं तेऽधर्मरुचयो मया // 15 परिष्वज्य न्यवर्तन्त सानुयात्राः परंतपाः // 1 . ततस्ते निधनं प्राप्ताः सर्वे ससुतबान्धवाः। पुनः पुनश्च वार्ष्णेयं पर्यष्वजत फल्गुनः / न दिष्टमभ्यतिक्रान्तुं शक्यं बुद्ध्या बलेन वा। आ चक्षुर्विषयाञ्चैनं ददर्श च पुनः पुनः // 2 महर्षे विदितं नूनं सर्वमेतत्तवानघ / / 16 कृच्छ्रेणैव च तां पार्थो गोविन्दे विनिवेशिताम् / तेऽत्यकामन्मतिं मह्यं भीष्मस्य विदुरस्य च / संजहार तदा दृष्टिं कृष्णश्चाप्यपराजितः // 3 ततो यमक्षयं जग्मुः समासाद्येतरेतरम् // 17. तस्य प्रयाणे यान्यासन्निमित्तानि महात्मनः / पश्च वै पाण्डवाः शिष्टा हतमित्रा हतात्मजाः। बहून्यद्भुतरूपाणि तानि मे गदतः शृणु // 4 धार्तराष्ट्राश्च निहताः सर्वे ससुतबान्धवाः // 18 वायुर्वेगेन महता रथस्य पुरतो ववौ / इत्युक्तवचने कृष्णे भृशं क्रोधसमन्वितः। कुर्वन्निःशर्करं मागं विरजस्कमकण्टकम् // 5 उत्तङ्कः प्रत्युवाचैनं रोषादुत्फाल्य लोचने // 19 ववर्ष वासवश्चापि तोयं शुचि सुगन्धि च / यस्माच्छक्तेन ते कृष्ण न त्राताः कुरुपाण्डवाः / दिव्यानि चैव पुष्पाणि पुरतः शार्ङ्गधन्वनः // 6 संबन्धिनः प्रियास्तस्माच्छप्स्येऽहं त्वामसंशयम् // स प्रयातो महाबाहुः समेषु मरुधन्वसु / न च ते प्रसभं यस्मात्ते निगृह्य निवर्तिताः / ददर्शाथ मुनिश्रेष्ठमुत्तङ्कममितौजसम् // 7 तस्मान्मन्युपरीतस्त्वां शप्स्यामि मधुसूदन / / 21 स तं संपूज्य तेजस्वी मुनि पृथुललोचनः / त्वया हि शक्तेन सता मिथ्याचारेण माधव / पूजितस्तेन च तदा पर्यपृच्छदनामयम् // 8 उपचीर्णाः कुरुश्रेष्ठा यस्त्वेतान्समुपेक्षथाः // 22 स पृष्टः कुशलं तेन संपूज्य मधुसूदनम् / वासुदेव उवाच / उत्तको ब्राह्मणश्रेष्ठस्ततः पप्रच्छ माधवम् // 9 / शृणु मे विस्तरेणेदं यद्वक्ष्ये भृगुनन्दन / कचिच्छौरे त्वया गत्वा कुरुपाण्डवसद्म तत् / / गृहाणानुनयं चापि तपस्वी ह्यसि भार्गव // 23 कृतं सौभ्रात्रमचलं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि // 10 श्रुत्वा त्वमेतदध्यात्मं मुश्चेथाः शापमद्य वै। अभिसंधाय तान्वीरानुपावृत्तोऽसि केशव / न च मां तपसाल्पेन शक्तोऽभिभवितुं पुमान् // संबन्धिनः सुदयितान्सततं वृष्णिपुङ्गव // 11 / / न च ते तपसो नाशमिच्छामि जपतां वर / कश्चित्पाण्डुसुताः पञ्च धृतराष्ट्रस्य चात्मजाः / तपस्ते सुमहहीप्तं गुरवश्चापि तोषिताः // 25 लोकेषु विहरिष्यन्ति त्वया सह परंतप // 12 कौमारं ब्रह्मचर्य ते जानामि द्विजसत्तम / स्वराष्ट्रषु च राजानः कञ्चित्प्राप्स्यन्ति वै सुखम् / दुःखार्जितस्य तपसस्तस्मान्नेच्छामि ते व्ययम् // कौरवेषु प्रशान्तेषु त्वया नाथेन माधव // 13 इति श्रीमहाभारतेभाश्वमेधिकपर्वणि या में संभावना तात त्वयि नित्यमवर्तत / द्विपच्चाशोऽध्यायः // 52 // भपि सा सफला कृष्ण कृता ते भारतान्प्रति // 14 -2810 - Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 53. 1] आश्वमेधिकपर्व [ 14. 54.3 अहं विष्णुरहं ब्रह्मा शक्रोऽथ प्रभवाप्ययः / उत्तङ्क उवाच। भूतप्रामस्य सर्वस्य स्रष्टा संहार एव च // 14 अहि केशव तत्त्वेन त्वमध्यात्ममनिन्दितम् / / अधर्मे वर्तमानानां सर्वेषामहमप्युत / श्रुत्वा श्रेयोऽभिधास्यामि शापं वा ते जनार्दन // 1 धर्मस्य सेतुं बध्नामि चलिते चलिते युगे / वासुदेव उवाच / तास्ता योनी: प्रविश्याहं प्रजानां हितकाम्यया // तमो रजश्च सत्त्वं च विद्धि भावान्मदाश्रयान् / यदा त्वहं देवयोनौ वर्तामि भृगुनन्दन / तथा रुद्रान्वसूश्चापि विद्धि मत्प्रभवान्द्विज // 2 तदाहं देववत्सर्वमाचरामि न संशयः // 16 मयि सर्वाणि भूतानि सर्वभूतेषु चाप्यहम् / तदा गन्धर्वयोनौ तु वर्तामि भृगुनन्दन / स्थित इत्यभिजानीहि मा तेऽभूदत्र संशयः // 3 तदा गन्धर्ववच्चेष्टाः सर्वाश्चेष्टामि भार्गव // 17 तथा दैत्यगणान्सर्वान्यक्षराक्षसपन्नगान् / नागयोनौ यदा चैव तदा वर्तामि नागवत् / गन्धर्वाप्सरसश्चैव विद्धि मत्प्रभवान्द्विज // 4 यक्षराक्षसयोनीश्च यथावद्विचराम्यहम् // 18 सदसञ्चैव यत्प्राहुरव्यक्तं व्यक्तमेव च / मानुष्ये वर्तमाने तु कृपणं याचिता मया / अक्षरं च क्षरं चैव सर्वमेतन्मदात्मकम् // 5 न च ते जातसंमोहा वचो गृहन्ति मे हितम् // ये चाश्रमेषु वै धर्माश्चतुर्पु विहिता मुने / भयं च महदुद्दिश्य त्रासिताः कुरवो मया। दैवानि चैव कर्माणि विद्धि सर्व मदात्मकम् // 6 क्रुद्धेव भूत्वा च पुनर्यथावदनुदर्शिताः // 20 असञ्च सदसञ्चैव यद्विश्वं सदसतः परम् / तेऽधर्मेणेह संयुक्ताः परीताः कालधर्मणा / ततः परं नास्ति चैव देवदेवात्सनातनात् // 7 धर्मेण निहता युद्धे गताः स्वर्ग न संशयः // 21 ओंकारप्रभवान्वेदान्विद्धि मां त्वं भृगूदह / लोकेषु पाण्डवाश्चैव गताः ख्यातिं द्विजोत्तम / यूपं सोमं तथैवेह त्रिदशाप्यायनं मखे // 8 एतत्ते सर्वमाख्यातं यन्मां त्वं परिपृच्छसि // 22 होतास्मपि हव्यं च विद्धि मां भृगुनन्दन / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अध्वर्युः कल्पकश्चापि हविः परमसंस्कृतम् / / 9 त्रिपञ्चाशोऽध्यायः॥५३॥ उद्गाता चापि मां स्तौति गीतघोषैर्महाध्वरे। प्रायश्चित्तेषु मां ब्रह्मशान्तिमङ्गलवाचकाः। स्तुवन्ति विश्वकर्माणं सततं द्विजसत्तमाः // 10 उत्तङ्क उवाच। विद्धि मह्यं सुतं धर्ममग्रज द्विजसत्तम / अभिजानामि जगतः कर्तारं त्वां जनार्दन / मानसं दयितं विप्र सर्वभूतदयात्मकम् // 11 नूनं भवत्प्रसादोऽयमिति मे नास्ति संशयः॥ 1 तत्राहं वर्तमानैश्च निवृत्तैश्चैव मानवैः / चित्तं च सुप्रसन्नं मे त्वद्भावगतमच्युत / बह्वीः संसरमाणो वै योनीहि द्विजसत्तम // 12 विनिवृत्तश्च मे कोप इति विद्धि परंतप // 2 धर्मसंरक्षणार्थाय धर्मसंस्थापनाय च / यदि त्वनुग्रहं कंचित्त्वत्तोऽर्होऽहं जनार्दन / तैस्तैर्वेषैश्च रूपैश्च त्रिषु लोकेषु भार्गव // 13 / / द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं तन्निदर्शय // 3 - 2811 - Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 54. 4] महाभारते [ 14. 54. 30 वैशंपायन उवाच / भीषणं बद्धनिस्त्रिंशं बाणकार्मुकधारिणम् / ततः स तस्मै प्रीतात्मा दर्शयामास तद्वपुः / तस्याधः स्रोतसोऽपश्यद्वारि भूरि द्विजोत्तम // 16 शाश्वतं वैष्णवं धीमान्ददृशे यद्धनंजयः // 4 स्मरन्नेव च तं प्राह मातङ्गः प्रहसन्निव / स ददर्श महात्मानं विश्वरूपं महाभुजम् / एयुत्तङ्क प्रतीच्छस्व मत्तो वारि भृगूद्वह / विस्मयं च ययौ विप्रस्तदृष्ट्वा रूपमैश्वरम् // 5 कृपा हि मे सुमहती त्वां दृष्ट्वा तृट्समाहतम् // 15 उत्तङ्क उवाच / इत्युक्तस्तेन स मुनिस्तत्तोयं नाभ्यनन्दत। / विश्वकर्मन्नमस्तेऽस्तु यस्य ते रूपमीदृशम् / चिक्षेप च स तं धीमान्वाग्भिरुग्राभिरच्युतम् // 18 पद्भयां ते पृथिवी व्याप्ता शिरसा चावृतं नमः // पुनः पुनश्च मातङ्गः पिबस्वेति तमब्रवीत् / द्यावापृथिव्योर्यन्मध्यं जठरेण तदावृतम् / / न चापिबत्स सक्रोधः क्षुभितेनान्तरात्मना // 19 भुजाभ्यामावृताश्चाशास्त्वमिदं सर्वमच्युत // 7 स तथा निश्चयात्तेन प्रत्याख्यातो महात्मना। संहरस्व पुनर्देव रूपमक्षय्यमुत्तमम् / श्वभिः स महाराज तत्रैवान्तरधीयत // 20 पुनस्त्वां स्वेन रूपेण द्रष्टुमिच्छामि शाश्वतम् // 8 उत्तङ्कस्तं तथा दृष्ट्वा ततो वीडितमानसः / मेने प्रलब्धमात्मानं कृष्णेनामित्रघातिना // 21 वैशंपायन उवाच। अथ तेनैव मार्गेण शङ्खचक्रगदाधरः / तमुवाच प्रसन्नात्मा गोविन्दो जनमेजय / आजगाम महाबाहुरुत्तङ्कश्चैनमब्रवीत् / / 22 . वरं वृणीष्वेति तदा तमुत्तकोऽब्रवीदिदम् // 9 न युक्तं तादृशं दातुं त्वया पुरुषसत्तम / पर्याप्त एष एवाद्य वरस्त्वत्तो महाद्युते / सलिलं विप्रमुख्येभ्यो मातङ्गस्रोतसा विभो // 23 यत्ते रूपमिदं कृष्ण पश्यामि प्रभवाप्ययम् // 10 इत्युक्तवचनं धीमान्महाबुद्धिर्जनार्दनः / तमब्रवीत्पुनः कृष्णो मा त्वमत्र विचारय / उत्तवं श्क्ष्णया वाचा सान्त्वयन्निदमब्रवीत् // 24 अवश्यमेतत्कर्तव्यममोघं दर्शनं मम // 11 यादृशेनेह रूपेण योग्यं दातुं वृतेन वै / उत्तङ्क उवाच / तादृशं खलु मे दत्तं त्वं तु तन्नावबुध्यसे // 25 अवश्यकरणीयं वै यद्येतन्मन्यसे विभो / मया त्वदर्थमुक्तो हि वज्रपाणिः पुरंदरः / तोयमिच्छामि यत्रेष्टं मरुष्वेतद्धि दुर्लभम् // 12 उत्तङ्कायामृतं देहि तोयरूपमिति प्रभुः // 26 वैशंपायन उवाच / स मामुवाच देवेन्द्रो न मोऽमर्त्यतां व्रजेत् / ततः संहृत्य तत्तेजः प्रोवाचोत्तङ्कमीश्वरः / अन्यमस्मै वरं देहीत्यसकृद्धगुनन्दन / / 27 एष्टव्ये सति चिन्त्योऽहमित्युक्त्वा द्वारकां ययौ // | अमृतं देयमित्येव मयोक्तः स शचीपतिः। ततः कदाचिद्भगवानुत्तङ्कस्तोयकाया। स मां प्रसाद देवेन्द्रः पुनरेवेदमब्रवीत् / / 28 तृषितः परिचक्राम मरौ सस्मार चाच्युतम् // 14 / यदि देयमवश्यं वै मातङ्गोऽहं महाद्युते / ततो दिग्वाससं धीमान्मातङ्गं मलपङ्किनम् / भूत्वामृतं प्रदास्यामि भार्गवाय महात्मने // 29 अपश्यत मरौ तस्मिञ्श्वयूथपरिवारितम् / / 15 / यद्येवं प्रतिगृह्णाति भार्गवोऽमृतमद्य वै / - 2812 - Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 54. 30] आश्वमेधिकपर्व [14. 55. 19 प्रदातुमेष गच्छामि भार्गवायामृतं प्रभो। तं क्रमेण जरा तात प्रतिपेदे महामुनिम् / प्रत्याख्यातस्त्वहं तेन न दद्यामिति भार्गव // 30 न चान्वबुध्यत तदा स मुनिर्गुरुवत्सलः // 7 स तथा समयं कृत्वा तेन रूपेण वासवः / ततः कदाचिद्राजेन्द्र काष्ठान्यानयितुं ययौ / उपस्थितस्त्वया चापि प्रत्याख्यातोऽमृतं ददत् / उत्तङ्कः काष्ठभारं च महान्तं समुपानयत् // 8 चण्डालरूपी भगवान्सुमहांस्ते व्यतिक्रमः // 31 स तु भाराभिभूतात्मा काष्ठभारमरिंदम / पत्तु शक्यं मया कर्तुं भूय एव तवेप्सितम् / निष्पिपेष क्षितौ राजन्परिश्रान्तो बुभुक्षितः // 9 जोयेप्सां तव दुर्धर्ष करिष्ये सफलामहम् // 32 तस्य काष्ठे विलग्नाभूजटा रूप्यसमप्रभा / येष्वहःसु तव ब्रह्मन्सलिलेच्छा भविष्यति / ततः काष्टैः सह तदा पपात धरणीतले // 10 तदा मरौ भविष्यन्ति जलपूर्णाः पयोधराः // 33 ततः स भारनिष्पिष्टः क्षुधाविष्टश्च भार्गवः / रसवच्च प्रदास्यन्ति ते तोयं भृगुनन्दन / दृष्ट्वा तां वयसोऽवस्थां सरोदार्तस्वरं तदा // 11 उत्तङ्कमेघा इत्युक्ताः ख्यातिं यास्यन्ति चापि ते॥ ततो गुरुसुता तस्य पद्मपत्रनिभेक्षणा / इत्युक्तः प्रीतिमान्विप्रः कृष्णेन स वभूव ह / जग्राहाणि सुश्रोणी करेण पृथुलोचना / अद्याप्युत्तङ्कमेघाश्च मरौ वर्षन्ति भारत // 35 पितुर्नियोगाद्धर्मज्ञा शिरसावनता तदा // 12 इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि तस्या निपेततुर्दग्धौ करौ तैरश्रुबिन्दुभिः / चतुःपञ्चाशोऽध्यायः॥ 54 // न हि तानश्रुपातान्वै शक्ता धारयितुं मही॥ 13 गौतमस्त्वब्रवीद्विप्रमुत्तकं प्रीतमानसः। .. जनमेजय उवाच / कस्मात्तात तवायेह शोकोत्तरमिदं मनः / उत्तङ्कः केन तपसा संयुक्तः सुमहातपाः / स स्वैरं ब्रूहि विप्रर्षे श्रोतुमिच्छामि ते वचः // 14 यः शापं दातुकामोऽभूद्विष्णवे प्रभविष्णवे // 1 ___ उत्तङ्क उवाच। __ वैशंपायन उवाच / भवद्गतेन मनसा भवत्प्रियचिकीर्षया / उत्तको महता युक्तस्तपसा जनमेजय / भवद्भक्तिगतेनेह भवद्भावानुगेन च // 15 गुरुभक्तः स तेजस्वी नान्यं कंचिदपूजयत् // 2 जरेयं नावबुद्धा मे नाभिज्ञातं सुखं च मे। सर्वेषामृषिपुत्राणामेष चासीन्मनोरथः। शतवर्षोषितं हि त्वं न मामभ्यनुजानथाः // 16 औत्तकीं गुरुवृत्तिं वै प्राप्नुयामिति भारत // 3 भवता ह्यभ्यनुज्ञाताः शिष्याः प्रत्यवरा मया / गौतमस्य तु शिष्याणां बहूनां जनमेजय / उपपन्ना द्विजश्रेष्ठ शतशोऽथ सहस्रशः // 17 उत्तङ्केऽभ्यधिका प्रीतिः स्नेहश्चैवाभवत्तदा // 4 गौतम उवाच / स तस्य दमशौचाभ्यां विक्रान्तेन च कर्मणा / त्वत्प्रीतियुक्तेन मया गुरुशुश्रूषया तव / सम्यक्चैवोपचारेण गौतमः प्रीतिमानभूत् // 5 व्यतिक्रामन्महान्कालो नावबुद्धो द्विजर्षभ // 18 अथ शिष्यसहस्राणि समनुज्ञाय गौतमः / किं त्वद्य यदि ते श्रद्धा गमनं प्रति भार्गव / उत्तवं परया प्रीता नाभ्यनुज्ञातुमैच्छत // 6 / अनुज्ञां गृह्य मत्तस्त्वं गृहान्गच्छस्व मा चिरम् // -2813 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 55. 20] महाभारते ["14. 56.1 उत्तङ्क उवाच / गौतमस्त्वनवीत्पत्नीमुत्तको नाद्य दृश्यते। गुर्वर्थ कं प्रयच्छामि ब्रूहि त्वं द्विजसत्तम / इति पृष्टा तमाचष्ट कुण्डलार्थ गतं तु वै // 32: तमुपाकृत्य गच्छेयमनुज्ञातस्त्वया विभो // 20 ततः प्रोवाच पत्नी स न ते सम्यगिदं कृतम्। ___ गौतम उवाच / शप्तः स पार्थिवो नूनं ब्राह्मणं तं वधिष्यति // 35 दक्षिणा परितोषो वै गुरूणां सद्भिरुच्यते / अहल्योवाच / तव ह्याचरतो ब्रह्मस्तुष्टोऽहं वै न संशयः // 21 अजानन्त्या नियुक्तः स भगवन्ब्राह्मणोऽद्य मे। इत्थं च परितुष्टं मां विजानीहि भृगूदह / / भवत्प्रसादान्न भयं किंचित्तस्य भविष्यति // 34 युवा षोडशवर्षों हि यदद्य भविता भवान् // 22 इत्युक्तः प्राह तां पत्नीमेवमस्त्विति गौतमः / ददामि पत्नी कन्यां च स्वां ते दुहितरं द्विज / उत्तकोऽपि वने शून्ये राजानं तं ददर्श ह // 35 एतामृते हि नान्या वै त्वत्तेजोऽर्हति सेवितुम् // इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि ततस्तां प्रतिजग्राह युवा भूत्वा यशस्विनीम् / / पञ्चपञ्चाशोऽध्यायः // 55 // गुरुगा चाभ्यनुज्ञातो गुरुपत्नीमथाब्रवीत् / / 24 किं भवत्यै प्रयच्छामि गुर्वथं विनियुङ माम् / वैशंपायन उवाच / प्रियं हि तव काङ्खामि प्राणैरपि धनैरपि / / 25 | स तं दृष्ट्वा तथाभूतं राजानं घोरदर्शनम् / यहुर्लभं हि लोकेऽस्मिन्रत्नमत्यद्भुतं भवेत् / दीर्घश्मश्रुधरं नृणां शोणितेन समुक्षितम् // 1 तदानयेयं तपसा न हि मेऽत्रास्ति संशयः // 26 / चकार न व्यथां विप्रो राजा त्वेनमथाब्रवीत्। अहल्योवाच / प्रत्युत्थाय महातेजा भंयकर्ता यमोपमः // 2 परितुष्टास्मि ते पुत्र नित्यं भगवता सह / दिष्ट्या त्वमसि कल्याण षष्ठे काले ममान्तिकम् / पर्याप्तये तद्भद्रं ते गच्छ तात यथेच्छकम् // 27 भक्षं मृगयमाणस्य संप्राप्तो द्विजसत्तम // 3 वैशंपायन उवाच / उत्तङ्क उवाच / उत्तङ्कस्तु महाराज पुनरेवाप्रवीद्वचः / राजन्गुर्वर्थिनं विद्धि चरन्तं मामिहागतम् / आज्ञापयस्व मां मातः कर्तव्यं हि प्रियं तव // 28 न च गुर्वर्थमुद्युक्तं हिंस्यमाहुर्मनीषिणः // 4 अहल्योवाच / राजोवाच / सौदासपन्या विदिते दिव्ये वै मणिकुण्डले।। षष्ठे काले ममाहारो विहितो द्विजसत्तम / ते समानय भद्रं ते गुर्वर्थः सुकृतो भवेत् // 29 न च शक्यः समुत्स्रष्टुं क्षुधितेन मयाद्य वै // 5 स तथेति प्रतिश्रुत्य जगाम जनमेजय / उत्तङ्क उवाच / गुरुपत्नीप्रियार्थं वै ते समानयितुं तदा // 30 एवमस्तु महाराज समयः क्रियतां तु मे। स जगाम ततः शीघ्रमुत्तको ब्राह्मणर्षभः / / गुर्वर्थमभिनिवर्त्य पुनरेष्यामि ते वशम् // 6 सौदासं पुरुषादं वै भिक्षितुं मणिकुण्डले // 31 / संश्रुतश्च मया योऽर्थो गुरवे राजसत्तम / -2814 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 56.7] आश्वमेधिकपर्व [14. 56- 28 त्वदधीनः स राजेन्द्र तं त्वा भिक्षे नरेश्वर // 7 सौदास उवाच / ददासि विप्रमुख्येभ्यस्त्वं हि रत्नानि सर्वशः / द्रक्ष्यते तां भवानद्य कस्मिंश्चिद्वननिर्झरे। दाता त्वं च नरव्याघ्र पात्रभूतः क्षिताविह / षष्ठे काले न हि मया सा शक्या द्रष्टुमद्य वै // पात्रं प्रतिप्रहे चापि विद्धि मां नृपसत्तम // 8 उत्तङ्कस्तु तथोक्तः स जगाम भरतर्षभ। . उपाकृत्य गुरोरथं त्वदायत्तमरिंदम / मदयन्तीं च दृष्ट्वा सोऽज्ञापयत्स्वं प्रयोजनम् // 19 समयेनेह राजेन्द्र पुररेष्यामि ते घशम् // 9 सौदासवचनं श्रुत्वा ततः सा पृथुलोचना / सत्यं ते प्रतिजानामि नात्र मिथ्यास्ति किंचन / प्रत्युवाच महाबुद्धिमुत्तकं जनमेजय // 20 अनृतं नोक्तपूर्व मे स्वैरेष्वपि कुतोऽन्यथा // 10 एवमेतन्महाब्रह्मन्नानृतं वदसेऽनघ / सौदास उवाच / अभिज्ञानं तु किंचित्त्वं समानेतुमिहार्हसि // 21 यदि मत्तस्त्वदायत्तो गुर्वर्थः कृत एव सः / इमे हि दिव्ये मणिकुण्डले मे यदि चास्मि प्रतिग्राह्यः सांप्रतं तद्भवीहि मे // 11 देवाश्च यक्षाश्च महोरगाश्च / तैस्तैरुपायैः परिहतुकामाउत्तङ्क उवाच / ___श्छिद्रेषु नित्यं परितर्कयन्ति // 22 प्रतिप्रायो मतो मे त्वं सदैव पुरुषर्षभ / निक्षिप्तमेतद्भुवि पन्नगास्तु सोऽहं त्वामनुसंप्राप्तो भिक्षितुं मणिकुण्डले // 12 रत्नं समासाद्य परामृषेयुः। सौदास उवाच / यक्षास्तथोच्छिष्टधृतं सुराश्च पल्यास्ते मम विप्रर्षे रुचिरे मणिकुण्डले। निद्रावशं त्वा परिधर्षयेयुः // 23 वरयार्थ त्वमन्यं वै तं ते दास्यामि सुव्रत // 13 छिद्रेष्वेतेषु हि सदा ह्यधृष्येषु द्विजर्षभ / उत्तङ्क उवाच। देवराक्षसनागानामप्रमत्तेन धार्यते // 24 अलं ते व्यपदेशेन प्रमाणं यदि ते वयम् / स्यन्देते हि दिवा रुक्मं रात्रौ च द्विजसत्तम / प्रयच्छ कुण्डले मे त्वं सत्यवाग्भव पार्थिव // 14 नक्तं नक्षत्रताराणां प्रभामाक्षिप्य वर्तते // 25 एते ह्यामुच्य भगवन्क्षुत्पिपासाभयं कुतः / वैशंपायन उवाच। विषाग्निश्वापदेभ्यश्च भयं जातु न विद्यते // 26 इत्युक्तस्त्वब्रवीद्राजा तमुत्तकं पुनर्वचः / हस्वेन चैते आमुक्ते भवतो ह्रस्वके तदा। गच्छ मद्वचनादेवीं ब्रूहि देहीति सत्तम // 15 अनुरूपेण चामुक्ते तत्प्रमाणे हि जायतः // 27 सैवमुक्ता त्वया नूनं मद्वाक्येन शुचिस्मिता। एवंविधे ममैते वै कुण्डले परमार्चिते / प्रदास्यति द्विजश्रेष्ठ कुण्डले ते न संशयः // 16 त्रिषु लोकेषु विख्याते तदभिज्ञानमानय // 28 ___उत्तङ्क उवाच / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि क पत्नी भवतः शक्या मया द्रष्टुं नरेश्वर / षट्पञ्चाशोऽध्यायः॥५६॥ स्वयं वापि भवान्पत्नी किमर्थं नोपसर्पति // 17 / -2815 -- . Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 57. 1] महाभारते [ 14. 57. 23 57 उत्तङ्क उवाच / वैशंपायन उवाच / प्राहुक्संगतं मित्रं धर्मनैपुण्यदर्शिनः / स मित्रसहमासाद्य त्वभिज्ञानमयाचत / मित्रेषु यश्च विषमः स्तेन इत्येव तं विदुः // 11 तस्मै ददावभिज्ञानं स चेक्ष्वाकुवरस्तदा // 1 स भवान्मित्रतामद्य संप्राप्तो मम पार्थिव / सौदास उवाच / स मे बुद्धिं प्रयच्छस्व समां बुद्धिमतां वर // 12 न चैवैषा गतिः क्षेम्या न चान्या विद्यते गतिः / अवाप्तार्थोऽहमद्येह भवांश्च पुरुषादकः / . एतन्मे मतमाज्ञाय प्रयच्छ मणिकुण्डले // 2 भवत्सकाशमागन्तुं क्षमं मम न वेति वा // 13 वैशंपायन उवाच / सौदास उवाच। क्षमं चेदिह वक्तव्यं मया द्विजवरोत्तम। . इत्युक्तस्तामुत्तङ्कस्तु भर्तुर्वाक्यमथाब्रवीत् / / मत्समीपं द्विजश्रेष्ठ नागन्तव्यं कथंचन // 14 श्रुत्वा च सा ततः प्रादात्तस्मै ते मणिकुण्डले // 3 अवाप्य कुण्डले ते तु राजानं पुनरब्रवीत् / एवं तव प्रपश्यामि श्रेयो भृगुकुलोद्वह / आगच्छतो हि ते विप्र भवेन्मृत्युरसंशयम् // 15 किमेतद्गुह्यवचनं श्रोतुमिच्छामि पार्थिव // 4 सौदास उवाच। वैशंपायन उवाच / इत्युक्तः स तदा राज प्रजा निसर्गाद्विप्रान्वै क्षत्रियाः पूजयन्ति ह। विप्रेभ्यश्चापि बहवो दोषाः प्रादुर्भवन्ति नः // 5 समनुज्ञाप्य राजानमहल्यां प्रति जग्मिवान् // 16 सोऽहं द्विजेभ्यः प्रणतो विप्रादोषमवाप्तवान् / गृहीत्वा कुण्डले दिव्ये,गुरुपत्न्याः प्रियंकरः / जवेन महता प्रायाद्गौतमस्याश्रमं प्रति // 17 गतिमन्यां न पश्यामि मदयन्तीसहायवान् / स्वर्गद्वारस्य गमने स्थाने चेह द्विजोत्तम / / 6 यथा तयो रक्षणं च मदयन्त्याभिभाषितम् / न हि राज्ञा विशेषेण विरुद्धेन द्विजातिभिः / तथा ते कुण्डले बवा तथा कृष्णाजिनेऽनयत् // शक्यं नृलोके संस्थातुं प्रेत्य वा सुखमेधितुम् // 7 स कस्मिंश्चिक्षुधाविष्टः फलभारसमन्वितम् / तदिष्टे ते मयैवैते दत्ते स्वे मणिकुण्डले। बिल्वं ददर्श कस्मिंश्चिदारुरोह क्षुधान्वितः // 19 शाखास्वासज्य तस्यैव कृष्णाजिनमरिंदम। यः कृतस्तेऽद्य समयः सफलं तं कुरुष्व मे // 8 यस्मिंस्ते कुण्डले बद्धे तदा द्विजवरेण वै // 20 उत्तङ्क उवाच / विशीर्णबन्धने तस्मिन्गते कृष्णाजिने महीम् / राजंस्तथेह कर्तास्मि पुनरेष्यामि ते वशम् / अपश्यद्भुजगः कश्चित्ते तत्र मणिकुण्डले // 21 प्रश्नं तु कंचित्प्रष्टुं त्वां व्यवसिष्ये परंतप // 9 ऐरावतकुलोत्पन्नः शीघ्रो भूत्वा तदा स वै / सौदास उवाच / विदश्यास्येन वल्मीकं विवेशाथ स कुण्डले // 22 ब्रहि विप्र यथाकामं प्रतिवक्तास्मि ते वचः। ह्रियमाणे तु दृष्ट्वा स कुण्डले भुजगेन ह। छेत्तास्मि संशयं तेऽद्य न मेऽत्रास्ति विचारणा // | पपात वृक्षात्सोद्वेगो दुःखात्परमकोपनः // 23 ---- 2816 - Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 57. 24] आश्वमेधिकपर्व [14. 57 52 स दण्डकाष्ठमादाय वल्मीकमखनत्तदा / ताम्रास्यनेत्रः कौरव्य प्रज्वलन्निव तेजसा // 38 क्रोधामर्षाभितप्ताङ्गस्ततो वै द्विजपुंगवः // 24 धमस्वापानमेतन्मे ततस्त्वं विप्र लप्स्यसे / तस्य वेगमसह्यं तमसहन्ती वसुंधरा / ऐरावतसुतेनेह तवानीते हि कुण्डले // 39 दण्डकाष्ठाभिनुन्नाङ्गी चचाल भृशमातुरा // 25 मा जुगुप्सां कृथाः पुत्र त्वमत्रार्थे कथंचन / ततः खनत एवाथ विप्रर्पर्धरणीतलम् / त्वयैतद्धि समाचीणं गौतमस्याश्रमे तदा // 40 नागलोकस्य पन्थानं कर्तुकामस्य निश्चयात् // 26 ___ उत्तङ्क उवाच / रथेन हरियुक्तेन तं देशमुपजग्मिवान् / कथं भवन्तं जानीयामुपाध्यायाश्रमं प्रति / वज्रपाणिर्महातेजा ददर्श च द्विजोत्तमम् / / 27 यन्मया चीर्णपूर्व च श्रोतुमिच्छामि तद्ध्यहम् // 41 स तु तं ब्राह्मणो भूत्वा तस्य दुःखेन दुःखितः / अश्व उवाच / उत्तकमब्रवीत्तात नैतच्छक्यं त्वयेति वै / / 28 गुरोर्गरुं मां जानीहि ज्वलितं जातवेदसम् / इतो हि नागलोको वै योजनानि सहस्रशः / त्वया यहं सदा वत्स गुरोरर्थेऽभिपूजितः // 42 न दण्डकाष्ठसाध्यं च मन्ये कार्यमिदं तव // 29 सततं पूजितो विप्र शुचिना भृगुनन्दन / उत्तङ्क उवाच / तस्माच्छ्रेयो विधास्यामि तवैवं कुरु मा चिरम् / नागलोके यदि ब्रह्मन्न शक्ये कुण्डले मया / / इत्युक्तः स तथाकार्षीदुत्तकश्चित्रभानुना / प्राप्तुं प्राणान्विमोक्ष्यामि पश्यतस्ते द्विजोत्तम // 30 घृतार्चिः प्रीतिमांश्चापि प्रजज्वाल दिधक्षया // 44 यदा स नाशकत्तस्य निश्चयं कर्तुमन्यथा। ततोऽस्य रोमकूपेभ्यो ध्यायमानस्य भारत / वज्रपाणिस्तदा दण्डं वज्रास्त्रेण युयोज ह // 31 घनः प्रादुरभूद्धमो नागलोकभयावहः // 45 ततो वनप्रहारैस्तैर्यमाणा वसुंधरा / तेन धूमेन सहसा वर्धमानेन भारत / नागलोकस्य पन्थानमकरोजनमेजय // 32 नागलोके महाराज न प्रज्ञायत किंचन // 46 स तेन मार्गेण तदा नागलोकं विवेश ह / हाहाकृतमभूत्सर्वमैरावतनिवेशनम् / ददर्श नागलोकं च योजनानि सहस्रशः // 33 वासुकिप्रमुखानां च नागानां जनमेजय // 47 प्राकारनिचयैर्दिव्यैर्मणिमुक्ताभ्यलंकृतैः / न प्रकाशन्त वेश्मानि धूमरुद्धानि भारत / उपपन्नं महाभाग शातकुम्भमयैस्तथा // 34 नीहारसंवृतानीह वनानि गिरयस्तथा // 48 वापी: स्फटिकसोपाना नदीश्च विमलोदकाः / ते धूमरक्तनयना वह्नितेजोभितापिताः / ददर्श वृक्षांश्च बहून्नानाद्विजगणायुतान् // 35 आजग्मुनिश्चयं ज्ञातुं भार्गवस्यातितेजसः // 49 तस्य लोकस्य च द्वारं ददर्श स भृगूद्वहः / श्रुत्वा च निश्चयं तस्य महर्षेस्तिग्मतेजसः / पञ्चयोजनविस्तारमायतं शतयोजनम् // 36 संभ्रान्तमनसः सर्वे पूजां चक्रुर्यथाविधि // 50 नागलोकमुत्तङ्कस्तु प्रेक्ष्य दीनोऽभवत्तदा / सर्वे प्राञ्जलयो नागा वृद्धबालपुरोगमाः / निराशश्चाभवत्तात कुण्डलाहरणे पुनः // 37 शिरोभिः प्रणिपत्योचुः प्रसीद भगवन्निति // 51 तत्र प्रोवाच तुरगस्तं कृष्णश्वेतवालधिः / / प्रसाद्य ब्राह्मणं ते तु पाद्यमध्यं निवेद्य च। म. भा. 357 - 2817 - Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 57. 52] महाभारते [14. 58. 20 प्रायच्छन्कुण्डले दिव्ये पन्नगाः परमार्चिते // 52 अतीव प्रेक्षणीयोऽभून्मेरुर्मुनिगणैरिव // 8 ततः संपूजितो नागैस्तत्रोत्तङ्कः प्रतापवान् / मत्तानां हृष्टरूपाणां स्त्रीणां पुंसां च भारत / अग्निं प्रदक्षिणं कृत्वा जगाम गुरुसद्म तत् // 53 गायतां पर्वतेन्द्रस्य दिवस्पृगिव निस्वनः / / 9 स गत्वा त्वरितो राजन्गौतमस्य निवेशनम् / प्रमत्तमत्तसंमत्तक्ष्वेडितोत्कृष्टसंकुला। प्रायच्छत्कुण्डले दिव्ये गुरुपत्न्यै तदानघ // 54 तथा किलकिलाशब्दभूरभूत्सुमनोहरा // 10 एवं महात्मना तेन त्रीलँलोकाञ्जनमेजय / विपणापणवारम्यो भक्ष्यभोज्यविहारवान् / परिक्रम्याहृते दिव्ये ततस्ते मणिकुण्डले // 55 वनमाल्योत्करयुतो वीणावेणुमृदङ्गवान् // 11 एवंप्रभावः स मुनिरुत्तको भरतर्षभ / सुरामैरेयमिश्रेण भक्ष्यभोज्येन चैव ह / परेण तपसा युक्तो यन्मां त्वं परिपृच्छसि // 56 दीनान्धकृपणादिभ्यो दीयमानेन चानिशम् / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि बभौ परमकल्याणो महस्तस्य महागिरेः॥.१२ सप्तपञ्चाशोऽध्यायः // 57 // पुण्यावसथवान्वीर पुण्यकृद्भिर्निषेवितः / विहारो वृष्णिवीराणां महे रैवतकस्य ह / जनमेजय उवाच। स नगो वेश्मसंकीर्णो देवलोक इवाबभौ // 13 उत्तङ्काय वरं दत्त्वा गोविन्दो द्विजसत्तम / तदा च कृष्णसांनिध्यमासाद्य भरतर्षभ / अत ऊवं महाबाहुः किं चकार महायशाः // 1 शक्रसद्मप्रतीकाशो बभूव स हि शैलराट् // 14 वैशंपायन उवाच / ततः संपूज्यमानः स विवेश भवनं शुभम् / दत्त्वा वरमुत्तकाय प्रायात्सात्यकिना सह / गोविन्दः सात्यकिश्चैव जगाम भवनं स्वकम् // 15 द्वारकामेव गोविन्दः शीघ्नवेगैर्महाहयैः // 2 विवेश च स हृष्टात्मा चिरकालप्रवासकः / सरांसि च नदीश्चैव वनानि विविधानि च / कृत्वा नसुकरं कर्म दानवेष्विव वासवः // 16 अतिक्रम्य ससादाथ रम्यां द्वारवतीं पुरीम् // 3 उपयातं तु वार्ष्णेयं भोजवृष्ण्यन्धकास्तदा / वर्तमाने महाराज महे रैवतकस्य च।। अभ्यगच्छन्महात्मानं देवा इव शतक्रतुम् // 17 उपायात्पुण्डरीकाक्षो युयुधानानुगस्तदा // 4 स तानभ्यर्च्य मेधावी पृष्ट्वा च कुशलं तदा / अलंकृतस्तु स गिरि नारूपविचित्रितैः। अभ्यवादयत प्रीतः पितरं मातरं तथा // 18 बभौ रुक्ममयैः काशैः सर्वतः पुरुषर्षभ / 5 ताभ्यां च संपरिष्वक्तः सान्त्वितश्च महाभुजः / काश्चनस्रग्भिरग्र्याभिः सुमनोभिस्तथैव च / उपोपविष्टस्तैः सर्वैर्वृष्णिभिः परिवारितः // 19 वासोभिश्च महाशैलः कल्पवृक्षश्च सर्वशः // 6 स विश्रान्तो महातेजाः कृतपादावसेचनः / दीपवृक्षैश्च सौवर्णैरभीक्ष्णमुपशोभितः / कथयामास तं कृष्णः पृष्टः पित्रा महाहवम् // 20 गुहानिर्झरदेशेषु दिवाभूतो बभूव ह // 7 इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि पताकाभिर्विचित्राभिः सघण्टाभिः समन्ततः / अष्टपञ्चाशोऽध्यायः // 58 // पुंभिः स्त्रीभिश्च संघुष्टः प्रगीत इव चाभवत् / -2818 - Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 59. 1] आश्वमेधिकपर्व [14. 59.29 संवृतः समरश्लाघी गुप्तः कृपवृषादिभिः // 14 वसुदेव उवाच / धृष्टद्युम्नस्त्वभून्नेता पाण्डवानां महास्त्रवित् / श्रुतवानस्मि वार्ष्णेय संग्रामं परमाद्भुतम् / गुप्तो भीमेन तेजस्वी मित्रेण वरुणो यथा // 15 नराणां वदतां पुत्र कथोद्धातेषु नित्यशः // 1 पञ्चसेनापरिवृतो द्रोणप्रेप्सुर्महामनाः / त्वं तु प्रत्यक्षदर्शी च कार्यज्ञश्च महाभुज / पितुर्निकारान्संस्मृत्य रणे कर्माकरोन्महत् // 16 तस्मात्प्रवहि संग्राम याथातथ्येन मेऽनघ // 2 तस्मिंस्ते पृथिवीपाला द्रोणपार्षतसंगरे / यथा तदभवद्युद्धं पाण्डवानां महात्मनाम् / . नानादिगागता वीराः प्रायशो निधनं गताः // 17 भीष्मकर्णकृपद्रोणशल्यादिभिरनुत्तमम् // 3 दिनानि पञ्च तद्युद्धमभूत्परमदारुणम् / अन्येषां क्षत्रियाणां च कृतास्त्राणामनेकशः / ततो द्रोणः परिश्रान्तो धृष्टद्युम्नवशं गतः // 18 नानावेषाकृतिमतां नानादेशनिवासिनाम् // 4 ततः सेनापतिरभूत्कर्णो दौर्योधने बले / इत्युक्तः पुण्डरीकाक्षः पित्रा मातुस्तदन्तिके / अक्षौहिणीभिः शिष्टाभिर्वृतः पञ्चभिराहवे // 19 शशंस कुरुवीराणां संग्रामे निधनं यथा / / 5 तिस्रस्तु पाण्डुपुत्राणां चम्वो बीभत्सुपालिताः / वासुदेव उवाच / हतप्रवीरभूयिष्ठा बभूवुः समवस्थिताः // 20 अत्यद्भुतानि कर्माणि क्षत्रियाणां महात्मनाम् / ततः पार्थ समासाद्य पतंग इव पावकम् / बहुलत्वान्न संख्यातुं शक्यान्यब्दशतैरपि / / 6 पञ्चत्वमगमत्सौतिर्द्वितीयेऽहनि दारुणे // 21 प्राधान्यतस्तु गदतः समासेनैव मे शृणु / हते कर्णे तु कौरव्या निरुत्साहा हतौजसः / कर्माणि पृथिवीशानां यथावदमरद्युते // 7 अक्षौहिणीभिस्तिसृभिर्मद्रेशं पर्यवारयन् // 22 मीष्मः सेनापतिरभूदेकादशचमूपतिः / हतवाहनभूयिष्ठाः पाण्डवास्तु युधिष्ठिरम् / कौरव्यः कौरवेयाणां देवानामिव वासवः // 8 अक्षौहिण्या निरुत्साहाः शिष्टया पर्यवारयन् // 23 शिखण्डी पाण्डुपुत्राणां नेता सप्तचमूपतिः / अवधीन्मद्रराजानं कुरुराजो युधिष्ठिरः। बभूव रक्षितो धीमान्धीमता सव्यसाचिना // 9 तस्मिंस्तथार्धदिवसे कर्म कृत्वा सुदुष्करम् // 24 तेषां तदभवद्युद्धं दशाहानि महात्मनाम् / हते शल्ये तु शकुनि सहदेवो महामनाः। कुरूणां पाण्डवानां च सुमहद्रोमहर्षणम् // 10 आहर्तारं कलेस्तस्य जघानामितविक्रमः // 25 ततः शिखण्डी गाङ्गेयमयुध्यन्तं महाहवे। निहते शकुनौ राजा धार्तराष्ट्रः सुदुर्मनाः / जघान बहुभिर्बाणैः सह गाण्डीवधन्वना // 11 अपाक्रामद्गदापाणिर्हतभूयिष्ठसैनिकः // 26 अकरोत्स ततः कालं शरतल्पगतो मुनिः / / तमन्वधावत्संक्रुद्धो भीमसेनः प्रतापवान् / अयनं दक्षिणं हित्वा संप्राप्ते चोत्तरायणे // 12 / हृदे द्वैपायने चापि सलिलस्थं ददर्श तम् // 27 ततः सेनापतिरभूद्रोणोऽस्रविदुषां वरः। ततः शिष्टेन सेन्येन समन्तात्परिवार्य तम् / प्रवीरः कौरवेन्द्रस्य काव्यो दैत्यपतेरिव // 13 / उपोपविविशुद्देष्टा ह्रदस्थं पञ्च पाण्डवाः // 28 अक्षौहिणीभिः शिष्टाभिर्नवभिर्द्विजसत्तमः / / / विगाह्य सलिलं त्वाशु वाग्बाणैभृशविक्षतः / - 2819 - Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 59. 29 ] महाभारते [14. 60. 20 उत्थाय स गदापाणियुद्धाय समुपस्थितः // 29 / दृष्ट्वैव च पपातोव्यां सोऽपि दुःखेन मूर्छितः // 5 ततः स निहतो राजा धार्तराष्ट्रो महामृधे / ततः स दौहित्रवधाहुःखशोकसमन्वितः। मीमसेनेन विक्रम्य पश्यतां पृथिवीक्षिताम् // 30 वसुदेवो महाराज कृष्णं वाक्यमथाब्रवीत् // 6 ततस्तत्पाण्डवं सैन्यं संसुप्तं शिबिरे निशि / ननु त्वं पुण्डरीकाक्ष सत्यवाग्भुवि विश्रुतः। निहतं द्रोणपुत्रेण पितुर्वधममृष्यता // 31 यद्दौहित्रवधं मेऽद्य न ख्यापयसि शत्रुहन // . हतपुत्रा हतबला हतमित्रा मया सह / तद्भागिनेयनिधनं तत्त्वेनाचक्ष्व मे विभो। युयुधानद्वितीयेन पञ्च शिष्टाः स्म पाण्डवाः // 32 सदृशाक्षस्तव कथं शत्रुभिर्निहतो रणे // 8 सहैव कृपभोजाभ्यां द्रौणियुद्धादमुच्यत / दुर्मरं बत वार्ष्णेय कालेऽप्राप्ते नृमिः सदा / युयुत्सुश्चापि कौरव्यो मुक्तः पाण्डवसंश्रयात् / / 33 यत्र मे हृदयं दुःखाच्छतधा न विदीयते // 9 निहते कारवेन्द्रे च सानुबन्धे सुयोधने / किमब्रवीत्त्वा संग्रामे सुभद्रां मातरं प्रति / विदुरः संजयश्चैव धर्मराजमुपस्थितौ // 34 मां चापि पुण्डरीकाक्ष चपलाक्षः प्रियो मम // 10 एवं तदभवद्युद्धमहान्यष्टादश प्रभो / आहवं पृष्ठतः कृत्वा कच्चिन्न निहतः परैः / यत्र ते पृथिवीपाला निहता स्वर्गमावसन् // 35 कञ्चिन्मुखं न गोविन्द तेनाजौ विकृतं कृतम् // 11 वैशंपायन उवाच / स हि कृष्ण महातेजाः श्लाघन्निव ममाग्रतः। बालभावेन विजयमात्मनोऽकथयत्प्रभुः // 12 शृण्वतां तु महाराज कथां तां रोमहर्षणीम् / कञ्चिन्न विकृतो बालो द्रोणकर्णकृपादिभिः / दुःखहर्षपरिक्लेशा वृष्णीनामभवंस्तदा // 36 धरण्यां निहतः शेते तन्ममाचक्ष्व केशव // 13 इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि स हि द्रोणं च भीष्मं च कर्ण च रथिनां वरम् / एकोनषष्टितमोऽध्यायः // 59 // स्पर्धते स्म रणे नित्यं दुहितुः पुत्रको मम // 14 एवंविधं बहु तदा विलपन्तं सुदुःखितम् / वैशंपायन उवाच / पितरं दुःखिततरो गोविन्दो वाक्यमब्रवीत् // 15 कथयन्नेव तु तदा वासुदेवः प्रतापवान् / न तेन विकृतं वक्त्रं कृतं संग्राममूर्धनि / महाभारतयुद्धं तत्कथान्ते पितुरग्रतः // 1 न पृष्ठतः कृतश्चापि संग्रामस्तेन दुस्तरः // 16 अभिमन्योर्वधं वीरः सोऽत्यकामत भारत / निहत्य पृथिवीपालान्सहस्रशतसंघशः / अप्रियं वसुदेवस्य मा भूदिति महामनाः / / 2 खेदितो द्रोणकर्णाभ्यां दौःशासनिवशं गतः॥ 17 मा दौहित्रवधं श्रुत्वा वसुदेवो महात्ययम् / एको टेकेन सततं युध्यमानो यदि प्रभो / दुःखशोकाभिसंतप्तो भवेदिति महामतिः // 3 न स शक्येत संग्रामे निहन्तुमपि वत्रिणा // 18 सुभद्रा तु तमुत्क्रान्तमात्मजस्य वधं रणे / समाहूते तु संग्रामे पार्थे संशप्तकै स्तदा / आचक्ष्व कृष्ण सौभद्रवमित्यपतद्भुवि // 4 पर्यवार्यत संक्रुद्धः स द्रोणादिभिराहवे // 19 तामपश्यन्निपतितां वसुदेवः क्षितौ तदा। ततः शत्रुक्षयं कृत्वा सुमहान्तं रणे पितुः / - 2820 - Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 60. 20] आश्वमेधिकपर्व [14. 61. 6 दौहित्रस्तत्र वाष्र्णेय दौःशासनिवशं गतः // 20 पुत्रमेषा हि तस्याशु जनयिष्यति भामिनी // 35 नूनं च स गतः स्वर्ग जहि शोकं महामते / एवमाश्वासयित्वैनां कुन्ती यदुकुलोद्वह / न हि व्यसनमासाद्य सीदन्ते सन्नराः कचित् // विहाय शोकं दुर्धर्ष श्राद्धमस्य ह्यकल्पयत् // 36 द्रोणकर्णप्रभृतयो येन प्रतिसमासिताः / समनुज्ञाप्य धर्मज्ञा राजानं भीममेव च। रणे महेन्द्रप्रतिमाः स कथं नाप्नुयादिवम् // 22 यमौ यमोपमौ चैव ददौ दानान्यनेकशः // 37 स शोकं जहि दुर्धर्ष मा च मन्युवशं गमः / ततः प्रदाय बह्वीर्गा ब्राह्मणेभ्यो यदूद्वह / शत्रपूतां हि स गतिं गतः परपुरंजयः // 23 . समहृष्यत वार्ष्णेयी वैराटी चाब्रवीदिदम् // 38 तस्मिंस्तु निहते वीरे सुभद्रेयं स्वसा मम / वैराटि नेह संतापस्त्वया कार्यों यशस्विनि / दुःखार्ताथो पृथां प्राप्य कुररीव ननाद ह // 24 भर्तारं प्रति सुश्रोणि गर्भस्थं रक्ष मे शिशुम् // 39 द्रौपदी च समासाद्य पर्यपृच्छत दुःखिता। एवमुक्त्वा ततः कुन्ती विरराम महाद्युते / आर्ये क दारकाः सर्वे द्रष्टुमिच्छामि तानहम् // तामनुज्ञाप्य चैवेमां सुभद्रां समुपानयम् // 40 अस्यास्तु वचनं श्रुत्वा सर्वास्ताः कुरुयोषितः / एवं स निधनं प्राप्तो दौहित्रस्तव माधव / भुजाभ्यां परिगृह्येनां चुक्रुशुः परमार्तवत् // 26 संतापं जहि दुर्धर्ष मा च शोके मनः कृथाः // 41 उत्तरां चाब्रवीद्भद्रा भद्रे भर्ता क ते गतः / इति श्रीमहाभारते भाश्वमेधिकपर्वणि क्षिप्रमागमनं मह्यं तस्मै त्वं वेदयस्व ह // 27 षष्टितमोऽध्यायः // 6 // ननु नाम स वैराटि श्रुत्वा मम गिरं पुरा। भवनान्निष्पतत्याशु कस्मान्नाभ्येति ते पतिः // 28 अभिमन्यो कुशलिनो मातुलास्ते महारथाः / वैशंपायन उवाच / कुशलं चाब्रुवन्सर्वे त्वां युयुत्सुमिहागतम् // 29 एतच्छ्रुत्वा तु पुत्रस्य वचः शूरात्मजस्तदा / आचक्ष्व मेऽद्य संग्रामं यथापूर्वमरिंदम / विहाय शोकं धर्मात्मा ददौ श्राद्धमनुत्तमम् // 1 कस्मादेव विलपती नाद्येह प्रतिभाषसे / 30 तथैव वासुदेवोऽपि स्वस्रीयस्य महात्मनः / एवमादि तु वार्ष्णेय्यास्तदस्याः परिदेवितम् / दयितस्य पितुर्नित्यमकरोदौर्ध्वदेहिकम् // 2 श्रुत्वा पृथा सुदुःखार्ता शनैर्वाक्यमथाब्रवीत् // 31 षष्टिं शतसहस्राणि ब्राह्मणानां महाभुजः। सुभद्रे वासुदेवेन तथा सात्यकिना रणे। विधिवद्भोजयामास भोज्यं सर्वगुणान्वितम् // 3 पित्रा च पालितो बालः स हतः कालधर्मणा // 32 आच्छाद्य च महाबाहुर्धनतृष्णामपानुदत् / ईदृशो मर्त्यधर्मोऽयं मा शुचो यदुनन्दिनि / ब्राह्मणानां तदा कृष्णस्तदभूद्रोमहर्षणम् // 4 पुत्रो हि तव दुर्धर्षः संप्राप्तः परमां गतिम् // 33 / सुवर्णं चैव गाश्चैव शयनाच्छादनं तथा / कुले महति जातासि क्षत्रियाणां महात्मनाम् / दीयमानं तदा विप्राः प्रभूतमिति चाब्रुवन् // 5 मा शुचश्चपलाक्षं त्वं पुण्डरीकनिभेक्षणे // 34 / वासुदेवोऽथ दाशार्हो बलदेवः ससात्यकिः / उत्तरां त्वमवेक्षस्व गर्भिणी मा शुचः शुभे। अभिमन्योस्तदा श्राद्धमकुर्वन्सत्यकस्तदा / -2821 - Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 61.6] महाभारते [ 14. 62. 18 अतीव दुःखसंतप्ता न शमं चोपलेभिरे // 6 वित्तोपनयने तात चकार गमने मतिम् // 19 तथैव पाण्डवा वीरा नगरे नागसाह्वये / / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि नोपगच्छन्ति वै शान्तिमभिमन्युविनाकृताः // 7 एकषष्टितमोऽध्यायः॥ 11 // सुबहूनि च राजेन्द्र दिवसानि विराटजा / नाभुत पतिशोकार्ता तदभूत्करुणं महत् / जनमेजय उवाच / कुक्षिस्थ एव तस्यास्तु स गर्भः संप्रलीयत // 8 श्रुत्वैतद्वचनं ब्रह्मन्व्यासेनोक्तं महात्मना। . अश्वमेधं प्रति तदा किं नृप प्रचकार ह // 1 आजगाम ततो व्यासो ज्ञात्वा दिव्येन चक्षुषा / रत्नं च यन्मरुत्तेन निहितं पृथिवीतले। आगम्य चाब्रवीद्धीमान्पृथां पृथुललोचनाम् / उत्तरां च महातेजाः शोकः संत्यज्यतामयम् // 9 तदवाप कथं चेति तन्मे ब्रूहि द्विजोत्तम // 2 जनिष्यति महातेजाः पुत्रस्तव यशस्विनि / वैशंपायन उवाच / प्रभावाद्वासुदेवस्य मम व्याहरणादपि / श्रुत्वा द्वैपायनवचो धर्मराजो युधिष्ठिरः / पाण्डवानामयं चान्ते पालयिष्यति मेदिनीम् // 10 भ्रातॄन्सर्वान्समानाय्य काले वचनमब्रवीत् / धनंजयं च संप्रेक्ष्य धर्मराजस्य पश्यतः / अर्जुनं भीमसेनं च माद्रीपुत्रौ यमावपि // 3 श्रुतं वो वचनं वीराः सौहृदाद्यन्महात्मना। व्यासो वाक्यमुवाचेदं हर्षयन्निव भारत // 11 कुरूणां हितकामेन प्रोक्तं कृष्णेन धीमता // 4 पौत्रस्तव महाबाहो जनिष्यति महामनाः / तपोवृद्धेन महता सुहृदां भूतिमिच्छता। पृथ्वीं सागरपर्यन्तां पालयिष्यति चैव ह // 12 गुरुणा धर्मशीलेन व्यासेनाद्भुतकर्मणा // 5 तस्माच्छोकं कुरुश्रेष्ठ जहि त्वमरिकर्शन। भीष्मेण च महाप्राज्ञ गोविन्देन च धीमता। विचार्यमत्र न हि ते सत्यमेतद्भविष्यति // 13 संस्मृत्य तदहं सम्यकर्तुमिच्छामि पाण्डवाः // 6 यचापि वृष्णिवीरेण कृष्णेन कुरुनन्दन / आयत्यां च तदात्वे च सर्वेषां तद्धि नो हितम् / पुरोक्तं तत्तथा भावि मा तेऽत्रास्तु विचारणा // 14 अनुबन्धे च कल्याणं यद्वचो ब्रह्मवादिनः // 7 विबुधानां गतो लोकानक्षयानात्मनिर्जितान् / इयं हि वसुधा सर्वा क्षीणरत्ना कुरूद्वहाः / न स शोच्यस्त्वया तात न चान्यैः कुरुभिस्तथा / तच्चाचष्ट बहु व्यासो मरुत्तस्य धनं नृपाः // 8 एवं पितामहेनोक्तो धर्मात्मा स धनंजयः। यद्येतद्वो बहुमतं मन्यध्वं वा क्षमं यदि / त्यक्त्वा शोकं महाराज हृष्टरूपोऽभवत्तदा // 16 तदानयामहे सर्वे कथं वा भीम मन्यसे // 9 पितापि तव धर्मज्ञ गर्भ तस्मिन्महामते। इत्युक्तवाक्ये नृपतौ तदा कुरुकुलोदह / अवर्धत यथाकालं शुक्लपक्षे यथा शशी // 17 भीमसेनो नृपश्रेष्ठं प्राञ्जलिर्वाक्यमब्रवीत् // 10 ततः संचोदयामास व्यासो धर्मात्मजं नृपम् / / रोचते मे महाबाहो यदिदं भाषितं त्वया। अश्वमेधं प्रति तदा ततः सोऽन्तर्हितोऽभवत् // 18 / व्यासाख्यातस्य वित्तस्य समुपानयनं प्रति // 11 धर्मराजोऽपि मेधावी श्रुत्वा व्यासस्य तद्वचः। / यदि तत्प्राप्नुयामेह धनमाविक्षितं प्रभो। - 2822 - Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 62. 12] आश्वमेधिकपर्व [14. 63. 15 कृतमेव महाराज भवेदिति मतिर्मम // 12 संस्तूयमानाः स्तुतिभिः सूतमागधबन्दिभिः / ते वयं प्रणिपातेन गिरीशस्य महात्मनः / स्वेन सैन्येन संवीता यथादित्याः स्वरश्मिभिः // 2 तदानयाम भद्रं ते समभ्यर्च्य कपर्दिनम् // 13 पाण्डुरेणातपत्रेण ध्रियमाणेन मूर्धनि / तं विभुं देवदेवेशं तस्यैवानुचरांश्च तान् / बभौ युधिष्ठिरस्तत्र पौर्णमास्यामिवोडुराट् // 3 प्रसाद्यार्थमवाप्स्यामो नूनं वाग्बुद्धिकर्मभिः // 14 जयाशिषः प्रहृष्टानां नराणां पथि पाण्डवः / रक्षन्ते ये च तद्रव्यं किंकरा रौद्रदर्शनाः / प्रत्यगृह्णाद्यथान्यायं यथावत्पुरुषर्षभः // 4 ते च वश्या भविष्यन्ति प्रसन्ने वृषभध्वजे // 15 तथैव सैनिका राजनराजानमनुयान्ति ये / श्रुत्वैवं वदतस्तस्य वाक्यं भीमस्य भारत / तेषां हलहलाशब्दो दिवं स्तब्ध्वा व्यतिष्ठत // 5 प्रीतो धर्मात्मजो राजा बभूवातीव भारत / स सरांसि नदीश्चैव वनान्युपवनानि च / अर्जुनप्रमुखाश्चापि तथेत्येवाब्रुवन्मुदा // 16 अत्यकामन्महाराजो गिरिं चैवान्वपद्यत // 6 कृत्वा तु पाण्डवाः सर्वे रत्नाहरणनिश्चयम् / तस्मिन्देशे च राजेन्द्र यत्र तद्रव्यमुत्तमम् / सेनामाज्ञापयामासुर्नक्षत्रेऽहनि च ध्रुवे // 17 चक्रे निवेशनं राजा पाण्डवः सह सैनिकैः / ततो ययुः पाण्डुसुता ब्राह्मणान्स्वस्ति वाच्य च / शिवे देशे समे चैव तदा भरतसत्तम // 7 अर्चयित्वा सुरश्रेष्ठं पूर्वमेव महेश्वरम् // 18 अग्रतो ब्राह्मणान्कृत्वा तपोविद्यादमान्वितान् / मोदकैः पायसेनाथ मांसापूरैस्तथैव च / पुरोहितं च कौरव्य वेदवेदाङ्गपारगम् // 8 आशास्य च महात्मानं प्रययुर्मुदिता भृशम् // 19 / प्राक्वेिशात्तु राजानं ब्राह्मणाः सपुरोधसः / तेषां प्रयाम्यतां तत्र मङ्गलानि शुभान्यथ / कृत्वा शान्ति यथान्यायं सर्वतः पर्यवारयन् // 9 प्राहुः प्रहृष्टमनसो द्विजाग्र्या नागराश्च ते // 20 कृत्वा च मध्ये राजानममात्यांश्च यथाविधि / ततः प्रदक्षिणीकृत्य शिरोभिः प्रणिपत्य च।। षट्पथं नवसंस्थानं निवेशं चक्रिरे द्विजाः // 10 ब्राह्मणानग्निसहितान्प्रययुः पाण्डुनन्दनाः // 21 मत्तानां वारणेन्द्राणां निवेशं च यथाविधि / समनुज्ञाप्य राजानं पुत्रशोकसमाहतम् / कारयित्वा स राजेन्द्रो ब्राह्मणानिदमब्रवीत् // 11 धृतराष्ट्र सभायं वै पृथां पृथुललोचनाम् / / 22 अस्मिन्कार्ये द्विजश्रेष्ठा नक्षत्रे दिवसे शुभे / मूले निक्षिप्य कौरव्यं युयुत्सुं धृतराष्ट्रजम् / यथा भवन्तो मन्यन्ते कर्तुमर्हथ तत्तथा // 12 संपूज्यमानाः पौरैश्च ब्राह्मणैश्च मनीषिभिः // 23 न नः कालात्ययो वै स्यादिहैव परिलम्बताम् / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि इति निश्चित्य विप्रेन्द्राः क्रियतां यदनन्तरम् // 13 द्विषष्टितमोऽध्यायः॥ 62 // श्रुत्वैतद्वचनं राज्ञो ब्राह्मणाः सपुरोधसः / इदमूचुर्वचो हृष्टा धर्मराजप्रियेप्सवः // 14 वैशंपायन उवाच। अद्यैव नक्षत्रमहश्च पुण्यं ततस्ते प्रययुर्हृष्टाः प्रहृष्टनरवाहनाः। यतामहे श्रेष्ठतमं क्रियासु। रयघोषेण महता पूरयन्तो वसुंधराम् // 1 अम्भोभिरयेह वसाम राज-2823 - Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 63. 15 ] महामारते [ 14. 64.20 64 पोष्यतां चापि भवद्भिरद्य // 15 कृत्वा तु पूजां रुद्रस्य गणानां चैव सर्वशः / श्रुत्वा तु तेषां द्विजसत्तमानां ययौ व्यासं पुरस्कृत्य नृपो रत्ननिधिं प्रति // 8 कृतोपवासा रजनी नरेन्द्राः / पूजयित्वा धनाध्यक्षं प्रणिपत्याभिवाद्य च / ऊषुः प्रतीताः कुशसंस्तरेषु सुमनोभिर्विचित्राभिरपूपैः कृसरेण च // 9 यथाध्वरेषु ज्वलिता हव्यवाहाः // 16 शङ्खादींश्च निधीन्सर्वान्निधिपालांश्च सर्वशः / ततो निशा सा व्यगमन्महात्मनां अर्चयित्वा द्विजाग्र्यान्स स्वस्ति वाच्य च वीर्यवान। __ संशृण्वतां विप्रसमीरिता गिरः / तेषां पुण्याहघोषेण तेजसा समवस्थितः। ततः प्रभाते विमले द्विजर्षभा प्रीतिमान्स कुरुश्रेष्ठः खानयामास तं निधिम् // __ वचोऽब्रुवन्धर्मसुतं नराधिपम् // 17 ततः पाठ्यः सकरकाः साइमन्तकमनोरमाः / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि भृङ्गाराणि कटाहानि कलशान्वर्धमानकान् // 12 त्रिषष्टितमोऽध्यायः // 63 // वहूनि च विचित्राणि भाजनानि सहस्रशः / उद्धारयामास तदा धर्मराजो युधिष्ठिरः॥ 13 तेषां लक्षणमप्यासीन्महान्करपुटस्तथा। ब्राह्मणा ऊचुः / त्रिलक्षं भाजनं राजंस्तुलार्धमभवनप // 14 क्रियतामुपहारोऽद्य त्र्यम्बकस्य महात्मनः / वाहनं पाण्डुपुत्रस्य तत्रासीतु विशां पते / कृत्वोपहारं नृपते ततः स्वार्थे यतामहे // 1 षष्टिरुष्ट्रसहस्राणि शतानि द्विगुणा हयाः // 15 वैशंपायन उवाच / वारणाश्च महाराज सहस्रशतसंमिताः / श्रुत्वा तु वचनं तेषां ब्राह्मणानां युधिष्ठिरः / शकटानि रथाश्चैव तावदेव करेणवः / गिरीशस्य यथान्यायमुपहारमुपाहरत् // 2 खराणां पुरुषाणां च परिसंख्या न विद्यते // 16 आज्येन तर्पयित्वाग्निं विधिवत्संस्कृतेन ह। एतद्वित्तं तदभवद्यदुइभ्रे युधिष्ठिरः / मत्रसिद्धं चरुं कृत्वा पुरोधाः प्रययौ सदा // 3 षोडशाष्टौ चतुर्विशत्सहस्रं भारलक्षणम् // 1. स गृहीत्वा सुमनसो मत्रपूता जनाधिप / एतेष्वाधाय तद्व्यं पुनरभ्यर्च्य पाण्डवः / मोदकैः पायसेनाथ मांसैश्चोपाहरदलिम् // 4 महादेवं प्रति ययौ पुरं नागाह्वयं प्रति // 18 सुमनोभिश्च चित्राभिर्लाजैरुच्चावचैरपि / द्वैपायनाभ्यनुज्ञातः पुरस्कृत्य पुरोहितम् / सर्व स्विष्टकृतं कृत्वा विधिवद्वेदपारगः / गोयुते गोयुते चैव न्यवसत्पुरुषर्षभः // 19 किंकराणां ततः पश्चाच्चकार बलिमुत्तमम् // 5 सा पुराभिमुखी राजञ्जगाम महती चमूः / यक्षेन्द्राय कुबेराय मणिभद्राय चैव ह / कृच्छ्रादविणभारार्ता हर्षयन्ती कुरूद्वहान् // 20 तथान्येषां च यक्षाणां भूताधिपतयश्च ये // 6 इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि कृसरेण समांसेन निवास्तिलसंयुतैः / / चतुःषष्टितमोऽध्यायः // 6 // शुशुभे स्थानमत्यर्थं देवदेवस्य पार्थिव // 7 -2824 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 65.1] आश्वमेधिकपर्व [14. 65. 29 वासुदेव महाबाहो सुप्रजा देवकी त्वया / वैशंपायन उवाच / त्वं नो गतिः प्रतिष्ठा च त्वदायत्तमिदं कुलम् // 15 एतस्मिन्नेव काले तु वासुदेवोऽपि वीर्यवान् / यदुप्रवीर योऽयं ते स्वस्रीयस्यात्मजः प्रभो। उपायावृष्णिभिः साधं पुरं वारणसाह्वयम् // 1 अश्वत्थाम्ना हतो जातस्तमुज्जीवय केशव // 16 समयं वाजिमेधस्य विदित्वा पुरुषर्षभः / त्वया ह्येतत्प्रतिज्ञातमैषीके यदुनन्दन / यथोक्तो धर्मपुत्रेण व्रजन्स स्वपुरी प्रति // 2 अहं संजीवयिष्यामि मृतं जातमिति प्रभो // 17 रौक्मिणेयेन सहितो युयुधानेन चैव ह। . सोऽयं जातो मृतस्तात पश्यैनं पुरुषर्षभ / / चारुदेष्णेन साम्बेन गदेन कृतवर्मणा // 3 उत्तरां च सुभद्रां च द्रौपदी मां च माधव // 18 सारणेन च वीरेण निशठेनोल्मुकेन च।। धर्मपुत्रं च भीमं च फल्गुनं नकुलं तथा। बलदेवं पुरस्कृत्य सुभद्रासहितस्तदा // 4 सहदेवं च दुर्धर्ष सर्वान्नखातुमर्हसि // 19 द्रौपदीमुत्तरां चैव पृथां चाप्यवलोककः / अस्मिन्प्राणाः समायत्ताः पाण्डवानां ममैव च / समाश्वासयितुं चापि क्षत्रिया निहतेश्वराः // 5 पाण्डोश्च पिण्डो दाशाई तथैव श्वशुरस्य मे // 20 तानागतान्समीक्ष्यैव धृतराष्ट्रो महीपतिः / अभिमन्योश्च भद्रं ते प्रियस्य सदृशस्य च / प्रत्यगृह्णाद्यथान्यायं विदुरश्च महामनाः // 6 तत्रैव न्यवसत्कृष्णः स्वर्चितः पुरुषर्षभः / प्रियमुत्पादयाद्य त्वं प्रेतस्यापि जनार्दन // 21 उत्तरा हि प्रियोक्तं वै कथयत्यरिसूदन / विदुरेण महातेजास्तथैव च युयुत्सुना // 7 अभिमन्योर्वचः कृष्ण प्रियत्वात्ते न संशयः // 22 वसत्सु वृष्णिवीरेषु तत्राथ जनमेजय / जज्ञे तव पिता राजन्परिक्षित्परवीरहा // 8 अब्रवीत्किल दाशार्ह वैराटीमार्जुनिः पुरा / स तु राजा महाराज ब्रह्मास्त्रेणाभिपीडितः / मातुलस्य कुलं भद्रे तव पुत्रो गमिष्यति // 23 शवो बभूव निश्चेष्टो हर्षशोकविवर्धनः // 9 गत्वा वृष्ण्यन्धककुलं धनुर्वेदं प्रहीष्यति / हृष्टानां सिंहनादेन जनानां तत्र निस्वनः / अत्राणि च विचित्राणि नीतिशास्त्रं च केवलम् / / आविश्य प्रदिशः सर्वाः पुनरेव व्युपारमत् // 10 इत्येतत्प्रणयात्तात सौभद्रः परवीरहा / ततः सोऽतित्वरः कृष्णो विवेशान्तःपुरं तदा / कथयामास दुर्धर्षस्तथा चैतन्न संशयः // 25 युयुधानद्वितीयो वै व्यथितेन्द्रियमानसः॥ 11 तास्त्वां वयं प्रणम्येह याचामो मधुसूदन / ततस्त्वरितमायान्तीं ददर्श स्वां पितृष्वसाम् / कुलस्यास्य हितार्थ त्वं कुरु कल्याणमुत्तमम् // 26 कोशन्तीमभिधावेति वासुदेवं पुनः पुनः // 12 एवमुक्त्वा तु वार्ष्णेयं पृथा पृथुललोचना / पृष्ठतो द्रौपदी चैव सुभद्रां च यशस्विनीम् / उच्छ्रित्य बाहू दुःखार्ता ताश्चान्याः प्रापतन्भुवि / / सविक्रोशं सकरुणं बान्धवानां स्त्रियो नृप // 13 | अब्रुवंश्च महाराज सर्वाः सास्राविलेक्षणाः। ततः कृष्णं समासाद्य कुन्ती राजसुता तदा। स्वस्रीयो वासुदेवस्य मृतो जात इति प्रभो // 28 प्रोवाच राजशार्दूल बाष्पगद्गदया गिरः // 14 / एवमुक्ते ततः कुन्तीं प्रत्यगृहाजनार्दनः / म.भा. 354. -2825 - Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 65. 29 ] महाभारते [ 14. 67.6 भूमौ निपतितां चैनां सान्त्वयामास भारत // 29 सफलं वृष्णिशार्दूल मृतां मामुपधारय // 13 इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अभिमन्योः सुतो वीर न संजीवति यद्ययम् / पञ्चषष्टितमोऽध्यायः // 65 // जीवति त्वयि दुर्धर्ष किं करिष्याम्यहं त्वया // 14 संजीवयैनं दुर्धर्ष मृतं त्वमभिमन्युजम् / वैशंपायन उवाच / सदृशाक्षसुतं वीर सस्यं वर्षन्निवाम्बुदः // 15 उत्थितायां पृथायां तु सुभद्रा भ्रातरं तदा / त्वं हि केशव धर्मात्मा सत्यवान्सत्यविक्रमः।। दृष्ट्वा चुक्रोश दुःखार्ता वचनं चेदमब्रवीत् // 1 स तां वाचमृतां कर्तुमर्हसि त्वमरिंदम // 16 पुण्डरीकाक्ष पश्यस्व पौत्रं पार्थस्य धीमतः / इच्छन्नपि हि लोकांस्त्रीञ्जीवयेथा मृतानिमान् / परिक्षीणेषु कुरुषु परिक्षीणं गतायुषम् // 2 किं पुनर्दयितं जातं स्वस्रीयस्यात्मजं मृतम् // 17 इषीका द्रोणपुत्रेण भीमसेनार्थमुद्यता। प्रभावज्ञास्मि ते कृष्ण तस्मादेतद्ब्रवीमि ते / सोत्तरायां निपतिता विजये मयि चैव ह // 3 कुरुष्व पाण्डुपुत्राणामिमं परमनुग्रहम् // 18 सेयं ज्वलन्ती हृदये मयि तिष्ठति केशव / / स्वसेति च महाबाहो हतपुत्रेति वा पुनः / यन्न पश्यामि दुर्धर्ष मम पुत्रसुतं विभो // 4 / प्रपन्ना मामियं वेति दयां कर्तुमिहार्हसि // 19 किं नु वक्ष्यति धर्मात्मा धर्मराज्ञो युधिष्ठिरः / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि भीमसेनार्जुनौ चापि माद्रवत्याः सुतौ च तौ // 5 षट्षष्टितमोऽध्यायः // 66 // श्रुत्वाभिमन्योस्तनयं जातं च मृतमेव च। 67 मुषिता इव वार्ष्णेय द्रोणपुत्रेण पाण्डवाः // 6 वैशंपायन उवाच। अभिमन्युः प्रियः कृष्ण पितॄणां नात्र संशयः। एवमुक्तस्तु राजेन्द्र केशिहा दुःखमूर्छितः / ते श्रुत्वा किं नु वक्ष्यन्ति द्रोणपुत्रास्त्रनिर्जिताः // 7 तथेति व्याजहारोचैर्हादयन्निव तं जनम् // 1 भवितातः परं दुःखं किं नु मन्ये जनार्दन।। वाक्येन तेन हि तदा तं जनं पुरुषर्षभः / अभिमन्योः सुतात्कृष्ण मृताज्जातादरिंदम // 8 ह्रादयामाम स विभुर्धर्मात सलिलैरिव // 2 साहं प्रसादये कृष्ण त्वामद्य शिरसा नता। ततः स प्राविशत्तूर्णं जन्मवेश्म पितुस्तव / पृथेयं द्रौपदी चैव ताः पश्य पुरुषोत्तम // 9 अर्चितं पुरुषव्याघ्र सितैर्माल्यैर्यथाविधि // 3 यदा द्रोणसुतो गर्भान्पाण्डूनां हन्ति माधव / अपां कुम्भैः सुपूर्णैश्च विन्यस्तैः सर्वतोदिशम् / तदा किल त्वया द्रौणिः क्रुद्धेनोक्तोऽरिमर्दन // 10 घृतेन तिन्दुकालातैः सर्षपैश्च महाभुज // 4 अकामं त्वा करिष्यामि ब्रह्मबन्धो नराधम। शस्त्रैश्च विमलैयस्तैः पावकैश्च समन्ततः। अहं संजीवयिष्यामि किरीटितनयात्मजम् // 11 वृद्धाभिश्चाभिरामाभिः परिचारार्थमच्युतः // 5 इत्येतद्वचनं श्रुत्वा जानमाना बलं तव / दक्षैश्च परितो वीर भिषग्भिः कुशलैस्तथा / प्रसादये त्वा दुर्धर्ष जीवतामभिमन्युजः // 12 / ददर्श च स तेजस्वी रक्षोनान्यपि सर्वशः / यद्येवं त्वं प्रतिश्रुत्य न करोषि वचः शुभम् / द्रव्याणि स्थापितानि स्म विधिवत्कुशलैर्जनैः॥ 6 -2826 - Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 67.7] आश्वमेधिकपर्व [14. 68. 10 तथायुक्तं च तदृष्ट्वा जन्मवेश्म पितुस्तव / कृतघ्नोऽयं नृशंसोऽयं यथास्य जनकस्तथा। हृष्टोऽभवद्धृषीकेशः साधु साध्विति चाब्रवीत् // 7 | यः पाण्डवीं श्रियं त्यक्त्वा गतोऽद्य यमसादनम् // तथा ब्रुवति वार्ष्णेये प्रहृष्टवदने तदा / मया चैतत्प्रतिज्ञातं रणमूर्धनि केशव / द्रौपदी त्वरिता गत्वा वैराटी वाक्यमब्रवीत् // 8 / अभिमन्यौ हते वीर त्वामेष्याम्यचिरादिति // 23 अयमायाति ते भद्रे श्वशुरो मधुसूदनः / तच्च नाकरवं कृष्ण नृशंसा जीवितप्रिया / पुराणर्षिरचिन्त्यात्मा समीपमपराजितः // 9 इदानीमागतां तत्र किं नु वक्ष्यति फाल्गुनिः // 24 सापि बाष्पकलां वाचं निगृह्याश्रूणि चैव ह। इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि सुसंवीताभवद्देवी देववत्कृष्णमीक्षती // 10 सप्तषष्टितमोऽध्यायः // 67 // सा तथा दूयमानेन हृदयेन तपस्विनी। . दृष्ट्वा गोविन्दमायान्तं कृपणं पर्यदेवयत् // 11 वैशंपायन उवाच / पुण्डरीकाक्ष पश्यस्व बालाविह विनाकृतौ।। सैवं विलप्य करुणं सोन्मादेव तपस्विनी / अभिमन्युं च मां चैव हतौ तुल्यं जनार्दन // 12 / | उत्तरा न्यपतद्भूमौ कृपणा पुत्रगृद्धिनी // 1 वार्ष्णेय मधुहन्वीर शिरसा त्वां प्रसादये। तां तु दृष्ट्वा निपतितां हतबन्धुपरिच्छदाम् / द्रोणपुत्रास्त्रनिर्दग्धं जीवयनं ममात्मजम् // 13 चुक्रोश कुन्ती दुःखार्ता सर्वाश्च भरतस्त्रियः // 2 यदि स्म धर्मराज्ञा वा भीमसेनेन वा पुनः / मुहूर्तमिव तद्राजन्पाण्डवानां निवेशनम् / त्वया वा पुण्डरीकाक्ष वाक्यमुक्तमिदं भवेत् // 14 अप्रेक्षणीयमभवदार्तस्वरनिनादितम् // 3 अजानतीमिषीकेयं जनित्री हन्त्विति प्रभो। सा मुहूर्तं च राजेन्द्र पुत्रशोकाभिपीडिता / अहमेव विनष्टा स्यां नेदमेवंगनं भवेत् // 15 कश्मलाभिहता वीर वैराटी त्वभवत्तदा // 4 गर्भस्थस्यास्य बालस्य ब्रह्मास्त्रेण निपातनम् / प्रतिलभ्य तु सा संज्ञामुत्तरा भरतर्षभ / कृत्वा नृशंसं दुर्बुद्धिौणिः किं फलमभुते // 16 अङ्कमारोप्य तं पुत्रमिदं वचनमब्रवीत् // 5 सा त्या प्रसाद्य शिरसा याचे शत्रुनिबर्हण / धर्मज्ञस्य सुतः संस्त्वमधर्ममवबुध्यसे / प्राणांस्त्यक्ष्यामि गोविन्द नायं संजीवते यदि॥१७ यस्त्वं वृष्णिप्रवीरस्य कुरुषे नाभिवादनम् // 6 अस्मिन्हि बहवः साधो ये ममासन्मनोरथाः। पुत्र गत्वा मम वचो ब्रूयास्त्वं पितरं तव / ते द्रोणपुत्रेण हताः किं नु जीवामि केशव // 18 दुर्मरं प्राणिनां वीर काले प्राप्ते कथंचन // 7 // आसीन्मम मतिः कृष्ण पूर्णोत्सङ्गा जनार्दन / याहं त्वया विहीनाद्य पत्या पुत्रेण चैव ह। अभिवादयिष्ये दिष्ट्येति तदिदं वितथीकृतम् // 19 मर्तव्ये सति जीवामि हतस्वस्तिरकिंचना // 8 चपलाक्षस्य दायादे मृतेऽस्मिन्पुरुषर्षभ / अथ वा धर्मराज्ञाहमनुज्ञाता महाभुज / विफला मे कृताः कृष्ण हृदि सर्वे मनोरथाः॥२० / भक्षयिष्ये विषं तीक्ष्णं प्रवेक्ष्ये वा हुताशनम् // 9 चपलाक्षः किलातीव प्रियस्ते मधुसूदन / अथ वा दुर्मरं तात यदिदं मे सहस्रधा। सुतं पश्यस्व तस्येमं ब्रह्मास्त्रेण निपातितम् // 21 / पतिपुत्रविहीनाया हृदयं न विदीर्यते // 10 - 2827 - Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 68. 11] महाभारते [ 14. 69. 13 उत्तिष्ठ पुत्र पश्येमां दुःखितां प्रपितामहीम् / आर्तामुपप्लुतां दीनां निमग्नां शोकसागरे // 11 वैशंपायन उवाच / आयां च पश्य पाञ्चाली सात्वतीं च तपस्विनीम्।। ब्रह्मास्त्रं तु यदा राजन्कृष्णेन प्रतिसंहृतम् / मां च पश्य सुदुःखाता व्याधविहां मृगीमिव // तदा तद्वेश्म ते पित्रा तेजसामिविदीपितम् // 1 उत्तिष्ठ पश्य वदनं लोकनाथस्य धीमतः / ततो रक्षांसि सर्वाणि नेशुस्त्यक्त्वा गृहं तु तत् / पुण्डरीकपलाशाक्षं पुरेव घपलेक्षणम् // 13 अन्तरिक्षे च वागासीत्साधु केशव साध्विति // 2 एवं विप्रलपन्ती तु दृष्ट्वा निपतितां पुनः / तदत्रं ज्वलितं चापि पितामहमगात्तदा / उत्तरां ताः स्त्रियः सर्वाः पुनरुत्थापयन्त्युत // 14 ततः प्राणान्पुनर्लेभे पिता तव जनेश्वर / उत्थाय तु पुनधैर्यात्तदा मत्स्यपतेः सुता। ब्यचेष्टत च बालोऽसौ यथोत्साहं यथाबलम् // 3 प्राञ्जलिः पुण्डरीकाक्षं भूमावेवाभ्यवादयत् // 15 घभवुर्मुदिता राजंस्ततस्ता भरतस्त्रियः / ' श्रुत्वा स तस्या विपुलं विलापं पुरुषर्षभः / ब्राह्मणान्वाचयामासुर्गोविन्दस्य च शासनात् / / 4 उपस्पृश्य ततः कृष्णो ब्रह्मास्त्रं संजहार तत् // 16 ततस्ता मुदिताः सर्वाः प्रशशंसुर्जनार्दनम् / प्रतिजज्ञे च दाशार्हस्तस्य जीवितमच्युतः / स्त्रियो भरतसिंहानां नावं लब्ध्वेव पारगाः // 5 अब्रवीच्च विशुद्धात्मा सर्व विश्रावयञ्जगत् // 17 कुन्ती द्रुपदपुत्री च सुभद्रा चोत्तरा तथा / न प्रवीम्युत्तरे मिथ्या सत्यमेतद्भविष्यति / स्त्रियश्चान्या नृसिंहानां बभूवुर्हृष्टमानसाः // 6 एष संजीवयाम्येनं पश्यतां सर्वदेहिनाम् // 18 तत्र मल्ला नटा झल्ला प्रन्थिकाः सौखशायिकाः / नोक्तपूर्व मया मिथ्या स्वैरेष्वपि कदाचन / / सूतमागधसंघाश्चाप्यस्तुवन्वै जनार्दनम् / न च युद्धे परावृत्तस्तथा संजीवतामयम् // 19 कुरुवंशस्तवाख्याभिराशीभिर्भरतर्षभ // 7 यथा मे दयितो धर्मो ब्राह्मणाश्च विशेषतः / उत्थाय तु यथाकालमुत्तरा यदुनन्दनम् / अभिमन्योः सुतो जातो मृतो जीवत्वयं तथा॥२० अभ्यवादयत प्रीता सह पुत्रेण भारत / यथाहं नाभिजानामि विजयेन कदाचन / ततस्तस्यै ददौ प्रीतो बहुरत्नं विशेषतः // 8 विरोधं तेन सत्येन मृतो जीवत्वयं शिशुः / / 21 तथान्ये वृष्णिशार्दूला नाम चास्याकरोत्प्रभुः / यथा सत्यं च धर्मश्च मयि नित्यं प्रतिष्ठितौ / पितुस्तव महाराज सत्यसंधो जनार्दनः // 9 तथा मृतः शिशुरयं जीवतामभिमन्युजः // 22 परिक्षीणे कुले यस्माज्जातोऽयमभिमन्युजः / यथा कंसश्च केशी च धर्मेण निहती मया / परिक्षिदिति नामास्य भवत्वित्यब्रवीत्तदा // 10 तेन सत्येन बालोऽयं पुनरुज्जीवतामिह // 23 सोऽवर्धत यथाकालं पिता तव नराधिप / इत्युक्तो वासुदेवेन स बालो भरतर्षभ / मनःप्रह्लादनश्चासीत्सर्वलोकस्य भारत // 11 शनैः शनैर्महाराज प्रास्पन्दत सचेतनः // 24 मासजातस्तु ते वीर पिता भवति भारत / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अथाजग्मुः सुबहुलं रत्नमादाय पाण्डवाः // 12 अष्टषष्टितमोऽध्यायः // 68 // तान्समीपगताश्रुत्वा निर्ययुर्वृष्णिपुंगवाः / - 2828 - Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 69. 13 ] आश्वमेधिकपर्व [ 14. 70.20 अलंचक्रुश्च माल्यौघैः पुरुषा नागसाह्वयम् // 13 कुन्ती च राजशार्दूल तदा भरतसत्तमाः // 6 पताकाभिर्विचित्राभिर्ध्वजैश्च विविधैरपि / विदुरं पूजयित्वा च वैश्यापुत्रं समेत्य च / वेश्मानि समलंचक्रुः पौराश्चापि जनाधिप // 14 पूज्यमानाः स्म ते वीरा व्यराजन्त विशां पते॥. देवतायतनानां च पूजा बहुविधास्तथा / ततस्तत्परमाश्चर्य विचित्रं महदद्भुतम् / संदिदेशाथ विदुरः पाण्डुपुत्रप्रियेप्सया // 15 शुश्रुवुस्ते तदा वीराः पितुस्ते जन्म भारत // 8 राजमार्गाश्च तत्रासन्सुमनोभिरलंकृताः / तदुपश्रुत्य ते कर्म वासुदेवस्य धीमतः।। शुशुभे तत्पुरं चापि समुद्रौघनिभस्वनम् // 16 . पूजाहं पूजयामासुः कृष्णं देवकिनन्दनम् // 9 नर्तकैश्चापि नृत्यद्भिर्गायनानां च निस्वनैः / ततः कतिपयाहस्य व्यासः सत्यवतीसुतः। आसीद्वैश्रवणस्येव निवासस्तत्पुरं तदा // 17 . आजगाम महातेजा नगरं नागसाह्वयम् // 10 बन्दिभिश्च नरै राजन्त्रीसहायैः सहस्रशः। तस्य सर्वे यथान्यायं पूजां चक्रुः कुरूद्वहाः / तत्र तत्र विविक्तेषु समन्तादुपशोभितम् // 18 सह वृष्ण्यन्धकव्याप्रैरुपासांचक्रिरे तदा // 11 पताका धूयमानाश्च श्वसता मातरिश्वना / तत्र नानाविधाकाराः कथाः समनुकीर्त्य वै / अदर्शयन्निव तदा कुरून्वै दक्षिणोत्तरान् // 19 युधिष्ठिरो धर्मसुतो व्यासं वचनमब्रवीत् // 12 अघोषयत्तदा चापि पुरुषो राजधूर्गतः / भवत्प्रसादाद्भगवन्यदिदं रत्नमाहृतम् / सर्वरात्रिविहारोऽद्य रत्नाभरणलक्षणः // 20 उपयोक्तुं तदिच्छामि वाजिमेधे महाक्रतौ // 13 इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि तदनुज्ञातुमिच्छामि भवता मुनिसत्तम / एकोनसप्ततितमोऽध्यायः // 69 // त्वदधीना वयं सर्वे कृष्णस्य च महात्मनः // 14 __ व्यास उवाच / वैशंपायन उवाच / अनुजानामि राजंस्त्वां क्रियतां यदनन्तरम् / तान्समीपगताठश्रुत्वा पाण्डवाशत्रुकर्शनः / यजस्व वाजिमेधेन विधिवदक्षिणावता / / 15 वासुदेवः सहामात्यः प्रत्युद्यातो दिदृक्षया // 1 अश्वमेधो हि राजेन्द्र पावनः सर्वपाप्मनाम् / ते समेत्य यथान्यायं पाण्डवा वृष्णिभिः सह / तेनेष्ट्वा त्वं विपाप्मा वै भविता नात्र संशयः॥१६ विविशुः सहिता राजन्पुरं वारणसाह्वयम् // 2 वैशंपायन उवाच / महतस्तस्य सैन्यस्य खुरनेमिस्वनेन च / इत्युक्तः स तु धर्मात्मा कुरुराजो युधिष्ठिरः / यावापृथिव्यौ खं चैव शब्देनासीत्समावृतम् // 3 अश्वमेधस्य कौरव्य चकाराहरणे मतिम् // 17 ते कोशमग्रतः कृत्वा विविशुः स्वपुरं तदा। समनुज्ञाप्य तु स तं कृष्णद्वैपायनं नृपः / पाण्डवाः प्रीतमनसः सामात्याः ससुहृद्गणाः // 4 वासुदेवमथामश्रय वाग्मी वचनमब्रवीत् // 18 ते समेत्य यथान्यायं धृतराष्ट्रं जनाधिपम् / देवकी सुप्रजा देवी त्वया पुरुषसत्तम / कीर्तयन्तः स्वनामानि तस्य पादौ ववन्दिरे // 5 / यद्यां त्वां महाबाहो तत्कृथास्त्वमिहाच्युत // 19 धृतराष्ट्रादनु च ते गान्धारी सुबलात्मजाम् / / त्वत्प्रभावार्जितान्भोगाननीम यदुनन्दन / -2829 - Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 70. 20] महाभारते [ 14. 71.18 पराक्रमेण बुद्ध्या च त्वयेयं निर्जिता मही // 20 / तमुत्सृज्य यथाशास्त्रं पृथिवीं सागराम्बराम् / दीक्षयस्व त्वमात्मानं त्वं नः परमको गुरुः / स पर्येतु यशो नाम्ना तव पार्थिव वर्धयन् // 6 त्वयीष्टवति धर्मज्ञ विपाप्मा स्यामहं विभो / वैशंपायन उवाच / त्वं हि यज्ञोऽक्षरः सर्वस्त्वं धर्मस्त्वं प्रजापतिः॥२१ इत्युक्तः स तथेत्युक्त्वा पाण्डवः पृथिवीपतिः / वासुदेव उवाच / चकार सर्व राजेन्द्र यथोक्तं ब्रह्मवादिना / त्वमेवैतन्महाबाहो वक्तुमर्हस्यरिंदम / संभाराश्चैव राजेन्द्र सर्वे संकल्पिताभवन् // . त्वं गतिः सर्वभूतानामिति मे निश्चिता मतिः॥२२ स संभारान्समाहृत्य नृपो धर्मात्मजस्तदा / त्वं चाद्य कुरुवीराणां धर्मेणाभिविराजसे / न्यवेदयदमेयात्मा कृष्णद्वैपायनाय वै // 8 गुणभूताः स्म ते राजंस्त्वं नो राजन्मतो गुरुः // 23 ततोऽब्रवीन्महातेजा व्यासो धर्मात्मजं नृपम् / यजस्व मदनुज्ञातः प्राप्त एव ऋतुर्मया / यथाकालं यथायोगं सज्जाः स्म तव दीक्षणे॥९ युनक्तु नो भवान्कार्ये यत्र वाञ्छसि भारत / स्फ्यश्च कूर्चश्च सौवर्णो यच्चान्यदपि कौरव / सत्यं ते प्रतिजानामि सर्व कर्तास्मि तेऽनघ // 24 तत्र योग्यं भवेत्किचित्तद्रौक्मं क्रियतामिति // 11 भीमसेनार्जुनौ चैव तथा माद्रवतीसुतौ। अश्वश्चोत्सृज्यतामद्य पृथ्व्यामथ यथाक्रमम् / इष्टवन्तो भविष्यन्ति त्वयीष्टवति भारत // 25 सुगुप्तश्च चरत्वेष यथाशास्त्रं युधिष्ठिर // 11 इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि युधिष्ठिर उवाच / सप्ततितमोऽध्यायः // 70 // अयमश्वो मया ब्रह्मन्नुत्सृष्टः पृथिवीमिमाम् / चरिष्यति यथाकामं तत्र वै संविधीयताम् // 13 बैशंपायन उवाच / पृथिवीं पर्यटन्तं हि तुरगं कामचारिणम् / एवमुक्तस्तु कृष्णेन धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः / कः पालयेदिति मुने तद्भवान्वक्तुमर्हति // 13 व्यासमामय मेधावी ततो वचनमब्रवीत् // 1 . वैशंपायन उवाच। यथा कालं भवान्वेत्ति हयमेधस्य तत्त्वतः / / इत्युक्तः स तु राजेन्द्र कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत् / दीक्षयस्व तदा मा त्वं त्वय्यायत्तो हि मे क्रतुः // 2 | भीमसेनादवरजः श्रेष्ठः सर्वधनुष्मताम् // 14 व्यास उवाच / जिष्णुः सहिष्णुर्धष्णुश्च स एनं पालयिष्यति / अहं पैलोऽथ कौन्तेय याज्ञवल्क्यस्तथैव च / शक्तः स हि महीं जेतुं निवातकवचान्तकः // 15 विधानं यद्यथाकालं तत्कर्तारो न संशयः // 3 तस्मिन्यस्त्राणि दिव्यानि दिव्यं संहननं तथा। चैत्र्यां हि पौर्णमास्यां च तव दीक्षा भविष्यति / दिव्यं धनुश्चेषुधी च स एनमनुयास्यति // 16 संभाराः संभ्रियन्तां ते यज्ञार्थं पुरुषर्षभ // 4 स हि धर्मार्थकुशलः सर्वविद्याविशारदः। अश्वविद्याविदश्चैव सूता विप्राश्च तद्विदः। यथाशास्त्रं नृपश्रेष्ठ चारयिष्यति ते हयम् // 17 मेध्यमश्वं परीक्षन्तां तव यज्ञार्थसिद्धये // 5 / राजपुत्रो महाबाहुः श्यामो राजीवलोचनः / -2830 - 71 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 71. 18] आश्वमेधिकपर्व [14. 72. 19 अभिमन्योः पिता वीरः स एनमनुयास्यति // 18 कृष्णाजिनी दण्डपाणिः क्षौमवासाः स धर्मजः / मीमसेनोऽपि तेजस्वी कौन्तेयोऽमितविक्रमः / विबभौ द्युतिमान्भूयः प्रजापतिरिवाध्वरे // 5 समर्थो रक्षितुं राष्ट्र नकुलश्च विशां पते // 19 तथैवास्यविजः सर्वे तुल्यवेषा विशां पते / सहदेवस्तु कौरव्य समाधास्यति बुद्धिमान् / बभूवुरर्जुनश्चैव प्रदीप्त इव पावकः // 6 कुटुम्बतत्रं विधिवत्सर्वमेव महायशाः // 20 श्वेताश्वः कृष्णसारं तं ससाराश्वं धनंजयः / तत्तु सर्व यथान्यायमुक्तं कुरुकुलोद्वहः। विधिवत्पृथिवीपाल धर्मराजस्य शासनात् // 7 चकार फल्गुनं चापि संदिदेश हयं प्रति // 2.1 विक्षिपन्गाण्डिवं राजन्बद्धगोधाङ्गुलित्रवान् / युधिष्ठिर उवाच / तमश्वं पृथिवीपाल मुदा युक्तः ससार ह // 8 एह्यर्जुन त्वया वीर योऽयं परिपाल्यताम् / आकुमारं तदा राजन्नागमत्तत्पुरं विभो। त्वम) रक्षितुं ह्येनं नान्यः कश्चन मानवः / / 22 द्रष्टुकामं कुरुश्रेष्ठं प्रयास्यन्तं धनंजयम् // 9 ये चापि त्वां महाबाहो प्रत्युदीयुनराधिपाः / / तेषामन्योन्यसंमदूष्मेव समजायत / तैर्विग्रहो यथा न स्यात्तथा कार्य त्वयानघ // 23 दिदृक्षणां हयं तं च तं चैव हयसारिणम् // 10 आख्यातव्यश्च भवता यज्ञोऽयं मम सर्वशः / ततः शब्दो महाराज दशाशाः प्रतिपूरयन् / पार्थिवेभ्यो महाबाहो समये गम्यतामिति // 24 बभूव प्रेक्षतां नृणां कुन्तीपुत्रं धनंजयम् // 11 एवमुक्त्वा स धर्मात्मा भ्रातरं सव्यसाचिनम् / एष गच्छति कौन्तेयस्तुरगश्चैव दीप्तिमान् / भीमं च नकुलं चैव पुरगुप्तौ समादधत् // 25 यमन्वेति महाबाहुः संस्पृशन्धनुरुत्तमम् // 12 कुटुम्बतत्रे च तथा सहदेवं युधां पतिम् / एवं शुश्राव वदतां गिरो जिष्णुरुदारधीः / अनुमान्य महीपालं धृतराष्ट्र युधिष्ठिरः / / 26 स्वस्ति तेऽस्तु व्रजारिष्टं पुनश्चैहीति भारत // 13 इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अथापरे मनुष्येन्द्र पुरुषा वाक्यमब्रुवन् / एकसप्ततितमोऽध्यायः॥ 71 // नैनं पश्याम संमर्दे धनुरेतत्प्रदृश्यते // 14 72 एतद्धि भीमनिदिं विश्रुतं गाण्डिवं धनुः / वैशंपायन उवाच। स्वस्ति गच्छत्वरिष्टं वै पन्थानमकुतोभयम् / दीक्षाकाले तु संप्राप्ते ततस्ते सुमहर्विजः। निवृत्तमेनं द्रक्ष्यामः पुनरेवं च तेऽब्रुवन् // 15 विधिवदीक्षयामासुरश्वमेधाय पार्थिवम् // 1 एवमाद्या मनुष्याणां स्त्रीणां च भरतर्षभ / कृत्वा स पशुबन्धांश्च दीक्षितः पाण्डुनन्दनः / शुश्राव मधुरा वाचः पुनः पुनरुदीरिताः // 16 धर्मराजो महातेजाः सहविंग्भियंरोचत // 2 याज्ञवल्क्यस्य शिष्यश्च कुशलो यज्ञकर्मणि / हयश्च हयमेधार्थ स्वयं स ब्रह्मवादिना / प्रायात्पार्थेन सहितः शान्त्यर्थं वेदपारगः // 17 उत्सृष्टः शास्त्रविधिना व्यासेनामिततेजसा // 3 ब्राह्मणाश्च महीपाल बहवो वेदपारगाः / स राजा धर्मजो राजन्दीक्षितो विबभौ तदा / अनुजग्मुर्महात्मानं क्षत्रियाश्च विशोऽपि च / / 18 हेममाली रुक्मकण्ठः प्रदीप्त इव पावकः // 4 पाण्डवैः पृथिवीमश्वो निर्जितामत्रतेजसा / -2831 - एकल Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 72. 19 ] महाभारते [ 14. 73.20 पचार स महाराज यथादेशं स सत्तम // 19 तमोरजोभ्यां संछन्नांस्तान्किरीटी न्यवारयत् // 5 वत्र युद्धानि वृत्तानि यान्यासन्पाण्डवस्य ह। अब्रवीञ्च ततो जिष्णुः प्रहसन्निव भारत / तानि वक्ष्यामि ते वीर विचित्राणि महान्ति च // निवर्तध्वमधर्मज्ञाः श्रेयो जीवितमेव वः // 6 स हयः पृथिवीं राजन्प्रदक्षिणमरिंदम / स हि वीरः प्रयास्यन्वै धर्मराजेन वारितः / ससारोत्तरतः पूर्वं तन्निबोध महीपते // 21 हतबान्धवा न ते पार्थ हन्तव्याः पार्थिवा इति // अवमृद्गन्स राष्ट्राणि पार्थिवानां हयोत्तमः। स तदा तद्वचः श्रुत्वा धर्मराजस्य धीमतः / शनैस्तदा परिययौ श्वेताश्वश्च महारथः // 22 तान्निवर्तध्वमित्याह न न्यवर्तन्त चापि ते // 8 तत्र संकलना नास्ति राज्ञामयुतशस्तदा / ततस्निगर्तराजानं सूर्यवर्माणमाहवे। येऽयुध्यन्त महाराज क्षत्रिया हतबान्धवाः / / 23 / वितत्य शरजालेन प्रजहास धनंजयः // 9 किराता विकृता राजन्बहवोऽसिधनुर्धराः। ततस्ते रथघोषेण खुरनेमिखनेन च। .. म्लेच्छाश्चान्ये बहुविधाः पूर्व विनिकृता रणे // 24 पूरयन्तो दिशः सर्वा धनंजयमुपाद्रवन् // 10 थार्याश्च पृथिवीपालाः प्रहृष्टनरवाहनाः।। सूर्यवर्मा ततः पार्थे शराणां नतपर्वणाम् / समीयुः पाण्डुपुत्रेण बहवो युद्धदुर्मदाः // 25 शतान्यमुश्चद्राजेन्द्र लध्वस्त्रमभिदर्शयन् // 11 एवं युद्धानि वृत्तानि तत्र तत्र महीपते / तथैवान्ये महेष्वासा ये तस्यैवानुयायिनः / अर्जुनस्य महीपालै नादेशनिवासिभिः // 26 मुमुचुः शरवर्षाणि धनंजयवधैषिणः // 12 यानि तूभयतो राजन्प्रतप्तानि महान्ति च / स ताझ्यापुङनिर्मुक्तैर्बहुभिः सुबह शरान् / तानि युद्धानि वक्ष्यामि कौन्तेयस्य तवानघ // 27 चिच्छेद पाण्डवो राजंस्ते भूमौ न्यपतंस्तदा // 13 इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि केतुवर्मा तु तेजस्वी तस्यैवावरजो युवा / द्विसप्ततितमोऽध्यायः // 72 // युयुधे भ्रातुरर्थाय पाण्डवेन महात्मना // 14 तमापतन्तं संप्रेक्ष्य केतुवर्माणमाहवे / वैशंपायन उवाच / अभ्यन्ननिशितैर्बाणैर्बीभत्सुः परवीरहा // 15 त्रिगतैरभवद्युद्धं कृतवैरैः किरीटिनः / केतुवर्मण्यभिहते धृतवर्मा महारथः / महारथसमाज्ञातैर्हतानां पुत्रनप्तभिः // 1 रथेनाशु समावृत्य शरैर्जिष्णुमवाकिरत् / / 16 से समाज्ञाय संप्राप्तं यज्ञियं तुरगोत्तमम् / तस्य तां शीघ्रतामीक्ष्य तुतोषातीव वीर्यवान् / विषयान्ते ततो वीरा दंशिताः पर्यवारयन् // 2 गुडाकेशो महातेजा बालस्य धृतवर्मणः // 17 रथिनो बद्धतूणीराः सदश्वैः समलंकृतैः / न संदधानं ददृशे नाददानं च तं तदा। परिवार्य हयं राजन्ग्रहीतुं संप्रचक्रमुः // 3 किरन्तमेव स शरान्ददृशे पाकशासनिः / / 18 सतः किरीटी संचिन्त्य तेषां राज्ञां चिकीर्षितम् / स तु तं पूजयामास धृतवर्माणमाहवे / वारयामास तान्वीरान्सान्त्वपूर्वमरिंदमः / / 4 मनसा स मुहूर्त वै रणे समभिहर्षयन् // 19 तमनाद्दत्य ते सर्वे शरैरभ्यहनस्तदा / तं पन्नगमिव क्रुद्धं कुरुवीरः स्मयन्निव / -2832 - 73 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 78. 20] आश्वमेधिकपर्व [14. 74. 13 प्रीतिपूर्व महाराज प्राणैर्न व्यपरोपयत् // 20 / जीवितं रक्षत नृपाः शासनं गृह्यतामिति // 34 स तथा रक्ष्यमाणो वै पार्थेनामिततेजसा / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि धृतवर्मा शरं तीक्ष्णं मुमोच विजये तदा // 21 त्रिसप्ततितमोऽध्यायः॥७३॥ स तेन विजयस्तूर्णमस्यन्विद्धः करे भृशम् / 74 मुमोच गाण्डिवं दुःखात्तत्पपाताथ भूतले // 22 वैशंपायन उवाच। धनुषः पततस्तस्य सव्यसाचिकराद्विभो। प्राग्ज्योतिषमथाभ्येत्य व्यचरत्स हयोत्तमः / इन्द्रस्येवायुधस्यासीदूपं भरतसत्तम // 23 भगदत्तात्मजस्तत्र निर्ययौ रणकर्कशः // 1 तस्मिनिपतिते दिव्ये महाधनुषि पार्थिव। . स हयं पाण्डुपुत्रस्य विषयान्तमुपागतम् / युयुधे भरतश्रेष्ठ वञदत्तो महीपतिः // 2 जहास सस्वनं हासं धृतवर्मा महाहवे // 24 सोऽभिनिर्याय नगराद्भगदत्तसुतो नृपः / ततो रोषान्वितो जिष्णुः प्रमृज्य रुधिरं करात् / अश्वमायान्तमुन्मथ्य नगराभिमुखो ययौ // 3 धनुरादत्त तहिव्यं शरवर्ष ववर्ष च // 25 तमालक्ष्य महाबाहुः कुरूणामृषभस्तदा / ततो हलहलाशब्दो दिवस्पृगभवत्तदा / गाण्डीवं विक्षिपस्तूर्णं सहसा समुपाद्रवत् // 4 नानाविधानां भूतानां तत्कर्मातीव शंसताम् / / 26 ततो गाण्डीवनिर्मुक्तैरिषुभिर्मोहितो नृपः / ततः संप्रेक्ष्य तं क्रुद्धं कालान्तकयमोपमम् / हयमुत्सृज्य तं वीरस्ततः पार्थमुपाद्रवत् // 5 जिष्णुं त्रैगर्तका योधास्त्वरिताः पर्यवारयन् // 27 पुनः प्रविश्य नगरं दंशितः स नृपोत्तमः / अभिसृत्य परीप्सायं ततस्ते धृतवर्मणः / आरुह्य नागप्रवरं निर्ययौ युद्धकावया // 6 परिवत्रुर्गुडाकेशं तत्राक्रुध्यद्धनंजयः / / 28 पाण्डुरेणातपत्रेण ध्रियमाणेन मूर्धनि / ततो योधाञ्जघानाशु तेषां स दश चाष्ट च / दोधूयता चामरेण श्वेतेन च महारथः // 7 महेन्द्रवनप्रतिमैरायसैर्निशितैः शरैः // 29 ततः पार्थ समासाद्य पाण्डवानां महारथम् / तांस्तु प्रभमान्संप्रेक्ष्य त्वरमाणो धनंजयः / आह्वयामास कौरव्यं बाल्यान्मोहाच संयुगे॥८ शरैराशीविषाकारैर्जघान स्वनवद्धसन् // 30 स वारणं नगप्रख्यं प्रभिन्नकरटामुखम् / से भग्नमनसः सर्वे त्रैगर्तकमहारथाः / प्रेषयामास संक्रुद्धस्ततः श्वेतहयं प्रति // 9 दिशो विदुद्रुवुः सर्वा धनंजयशरार्दिताः // 31 विक्षरन्तं यथा मेघं परवारणवारणम् / शास्त्रवत्कल्पितं संख्ये त्रिसाहं युद्धदुर्मदम् // 10 व ऊचुः पुरुषव्याघ्र संशप्तकनिषूदनम् / प्रचोद्यमानः स गजस्तेन राज्ञा महाबलः / उव स्म किंकराः सर्वे सर्वे च वशगास्तव // 32 तदाङ्कशेन विबभावुत्पतिष्यन्निवाम्बरम् // 11 प्राज्ञापयस्व नः पार्थ प्रह्वान्प्रेष्यानवस्थितान् / तमापतन्तं संप्रेक्ष्य क्रुद्धो राजन्धनंजयः / करिष्यामः प्रियं सर्व तव कौरवनन्दन // 33 भूमिष्ठो वारणगतं योधयामास भारत // 12 श्तदाज्ञाय वचनं सर्वांस्तानब्रवीत्तदा। वज्रदत्तस्तु संक्रुद्धो मुमोचाशु धनंजये / ह.भा. 355 -2833 - Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 74. 13] महाभारते [ 14. 75.21 तोमरानग्निसंकाशाशलभानिव वेगितान् // 13 / उत्पतिष्यन्निवाकाशमभिदुद्राव पाण्डवम् // 6 अर्जुनस्तानसंप्राप्तान्गाण्डीवप्रेषितैः शरैः। अग्रहस्तप्रमुक्तेन शीकरेण स फल्गुनम् / द्विधा त्रिधा च चिच्छेद ख एव खगमैस्तदा // 14 समुक्षत महाराज शैलं नील इवाम्बुदः॥ 7 स तान्दृष्ट्वा तथा छिन्नांस्तोमरान्भगदत्तजः / स तेन प्रेषितो राज्ञा मेघवन्निनदन्मुहुः / इषूनसक्तांस्त्वरितः प्राहिणोत्पाण्डवं प्रति // 15 / मुखाडम्बरघोषेण समाद्रवत फल्गुनम् // 8 ततोऽर्जुनस्तूर्णतरं रुक्मपुङ्खानजिह्मगान् / स नृत्यन्निव नागेन्द्रो वज्रदत्तप्रचोदितः / प्रेषयामास संक्रुद्धो भगदत्तात्मजं प्रति // 16 आससाद द्रुतं राजन्कौरवाणां महारथम् // 9 स तैर्विद्धो महातेजा वज्रदत्तो महाहवे। तमापतन्तं संप्रेक्ष्य वज्रदत्तस्य वारणम् / भृशाहतः पपातो| न त्वेनमजहात्स्मृतिः // 17 गाण्डीवमाश्रित्य बली न व्यकम्पत शत्रुहा // 10 ततः स पुनरारुह्य वारणप्रवरं रणे। चुक्रोध बलवच्चापि पाण्डवस्तस्य भूपतेः / अव्यग्रः प्रेषयामास जयार्थी विजयं प्रति // 18 कार्यविनमनुस्मृत्य पूर्ववैरं च भारत // 11 तस्मै बाणांस्ततो जिष्णुर्निर्मुक्ताशीविषोपमान् / / ततस्तं वारणं क्रुद्धः शरजालेन पाण्डवः / प्रेषयामास संक्रुद्धो ज्वलितानिव पावकान् // 19 निवारयामास तदा वेलेव मकरालयम् // 12 स तैर्विद्धो महानागो विस्रवन्रुधिरं बभौ / स नागप्रवरो वीर्यादर्जुनेन निवारितः / हिमवानिव शैलेन्द्रो बहुप्रस्रवणस्तदा // 20 तस्थौ शरैर्वितन्नाङ्गः श्वाविच्छललितो यथा // 13 इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि निवारितं गजं दृष्ट्वा भगदत्तात्मजो नृपः / चतुःसप्ततितमोऽध्यायः // 7 // उत्ससर्ज शितान्बाणानर्जुने क्रोधमूर्छितः // 14 75 अर्जुनस्तु महाराज शरैः शरविघातिभिः। वैशंपायन उवाच / वारयामास तानस्तांस्तदद्भुतमिवाभवत् / / 15 एवं त्रिरात्रमभवत्तद्युद्धं भरतर्षभ। ततः पुनरतिक्रुद्धो राजा प्राग्ज्योतिषाधिपः / अर्जुनस्य नरेन्द्रेण वृत्रेणेव शतक्रतोः॥ 1 प्रेषयामास नागेन्द्रं बलवच्छ्स नोपमम् // 16 ततश्चतुर्थे दिवसे वज्रदत्तो महाबलः / तमापतन्तं संप्रेक्ष्य बलवान्पाकशासनिः / जहास सस्वनं हासं वाक्यं चेदमथाब्रवीत् // 2 नाराचमग्निसंकाशं प्राहिणोद्वारणं प्रति // 17 अर्जुनार्जुन तिष्ठस्व न मे जीवन्विमोक्ष्यसे / स तेन वारणो राजन्मर्मण्यभिहतो भृशम् / त्वां निहत्य करिष्यामि पितुस्तोयं यथाविधि / / 3 पपात सहसा भूमौ वज्ररुग्ण इवाचलः // 18 त्वया वृद्धो मम पिता भगदत्तः पितुः सखा / स पतञ्शुशुभे नागो धनंजयशराहतः / हतो वृद्धोऽपचायित्वाच्छिशुं मामद्य योधय // 4 / विशन्निव महाशैलो महीं वज्रप्रपीडितः // 19 इत्येवमुक्त्वा संक्रुद्धो वज्रदत्तो नराधिपः / तस्मिन्निपतिते नागे वज्रदत्तस्य पाण्डवः / प्रेषयामास कौरव्य वारणं पाण्डवं प्रति // 5 / तं न भेतव्यमित्याह ततो भूमिगतं नृपम् / / 20 संप्रेष्यमाणो नागेन्द्रो वज्रदत्तेन धीमता। अब्रवीद्धि महातेजाः प्रस्थितं मां युधिष्ठिरः / -2834 - Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 75. 21 ] आश्वमेधिकपर्व [ 14. 76. 23 राजानस्ते न हन्तव्या धनंजय कथंचन // 21 सर्वे युयुधिरे वीरा रथस्थास्तं पदातिनम् // 8 सर्वमेतन्नरव्याघ्र भवत्वेतावता कृतम् / ते तमाजग्निरे वीरं निवातकवचान्तकम् / योधाश्चापि न हन्तव्या धनंजय रणे त्वया // 22 संशप्तकनिहन्तारं हन्तारं सैन्धवस्य च // 9 वक्तव्याश्चापि राजानः सर्वैः सह सुहृज्जनैः / ततो रथसहस्रेण हतानामयुतेन च / युधिष्ठिरस्याश्वमेधो भवद्भिरनुभूयताम् // 23 कोष्ठकीकृत्य कौन्तेयं संप्रहृष्टमयोधयन् // 10 इति भ्रातृवचः श्रुत्वा न हन्मि त्वां जनाधिप / संस्मरन्तो वधं वीराः सिन्धुराजस्य धीमतः / उत्तिष्ठ न भयं तेऽस्ति स्वस्तिमान्गच्छ पार्थिव // जयद्रथस्य कौरव्य समरे सव्यसाचिना // 11 आगच्छेथा महाराज परां चैत्रीमुपस्थिताम् / ततः पर्जन्यवत्सर्वे शरवृष्टिमवासृजन / तदाश्वमेधो भविता धर्मराजस्य धीमतः // 25 तैः कीर्णः शुशुभे पार्थो रविर्मेघान्तरे यथा // 12 एवमुक्तः स राजा तु भगदत्तात्मजस्तदा / स शरैः समवच्छन्नो ददृशे पाण्डवर्षभः / तथेत्येवाब्रवीद्वाक्यं पाण्डवेनाभिनिर्जितः // 26. पञ्जरान्तरसंचारी शकुन्त इव भारत // 13 इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि ततो हाहाकृतं सर्व कौन्तेये शरपीडिते / पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः // 75 // त्रैलोक्यमभवद्राजन्रविश्वासीद्रजोरुणः // 14 ततो ववौ महाराज मारुतो रोमहर्षणः / वैशंपायन उवाच / राहुरप्रसदादित्यं युगपत्सोममेव च // 15 सैन्धवैरभवयुद्धं ततस्तस्य किरीटिनः / उल्काश्च जग्निरे सूर्य विकीर्यन्त्यः समन्ततः / हतशेषैर्महाराज हतानां च सुतैरपि // 1 वेपथुश्चाभवद्राजन्कैलासस्य महागिरेः // 16 तेऽवतीर्णमुपश्रुत्य विषयं श्वेतवाहनम् / मुमुचुश्चास्रमत्युष्णं दुःखशोकसमन्विताः। प्रत्युद्ययुरमृष्यन्तो राजानः पाण्डवर्षभम् // 2 सप्तर्षयो जातभयास्तथा देवर्षयोऽपि च // 17 अश्वं च तं परामृश्य विषयान्ते विषोपमाः। शशश्चाशु विनिर्भिद्य मण्डलं शशिनोऽपतत् / न भयं चक्रिरे पार्थाद्धीमसेनादनन्तरात् // 3 बिपरीतस्तदा राजस्तस्मिन्नुत्पातलक्षणे // 18 तेऽविदूराद्धनुष्पाणिं यज्ञियस्य हयस्य च / रासभारुणसंकाशा धनुष्मन्तः सविद्युतः। बीभत्सुं प्रत्यपद्यन्त पदातिनमवस्थितम् // 4 आवृत्य गगनं मेघा मुमुचुमासशोणितम् // 19 ततस्ते तु महावीर्या राजानः पर्यवारयन् / एवमासीत्तदा वीरे शरवर्षाभिसंवृते / जिगीषन्तो नरव्याघ्राः पूर्वं विनिकृता युधि // 5 लोकेऽस्मिन्भरतश्रेष्ठ तदद्भुतमिवाभवत् // 20 ते नामान्यथ गोत्राणि कर्माणि विविधानि च।। तस्य तेनावकीर्णस्य शरजालेन सर्वशः / कीर्तयन्तस्तदा पार्थ शरवर्षैरवाकिरन् // 6 मोहात्पपात गाण्डीवमावापश्च करादपि // 21 ते किरन्तः शरांस्तीक्ष्णान्वारणेन्द्रनिवारणान् / / तस्मिन्मोहमनुप्राप्ते शरजालं महत्तरम् / रणे ज़यमभीप्सन्तः कौन्तेयं पर्यवारयन् // 7 सैन्धवा मुमुचुस्तूणं गतसत्त्वे महारथे // 22 तेऽसमीक्ष्यैव तं वीरमुप्रकर्माणमाहवे / ततो मोहसमापन्नं ज्ञात्वा पार्थ दिवौकसः / -2835 - Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 76. 28 ] महाभारते [ 14. 77. 18 सर्वे वित्रस्तमनसस्तस्य शान्तिपराभवन् // 23 कुरुध्वं सर्वकार्याणि महतो भयमागतम् // 4 ततो देवर्षयः सर्वे तथा सप्तर्षयोऽपि च / एष योत्स्यामि वः सर्वान्निवार्य शरवागुराम् / ब्रह्मर्षयश्च विजयं जेपुः पार्थस्य धीमतः // 24 तिष्ठध्वं युद्धमनसो दर्प विनयितास्मि वः // 5 ततः प्रदीपिते देवैः पार्थतेजसि पार्थिव / एतावदुक्त्वा कौरव्यो रुषा गाण्डीवभृत्तदा। वस्थावचलवद्धीमान्संग्रामे परमास्त्रवित् // 25 ततोऽथ वचनं स्मृत्वा भ्रातुर्येष्ठस्य भारत // 6 विचकर्ष धनुर्दिव्यं ततः कौरवनन्दनः / न हन्तव्या रणे तात क्षत्रिया विजिगीपवः / पत्रस्येवेह शब्दोऽभून्महांस्तस्य पुनः पुनः // 26 जेतव्याश्चेति यत्प्रोक्तं धर्मराज्ञा महात्मना / ततः स शरवर्षाणि प्रत्यमित्रान्प्रति प्रभुः। चिन्तयामास च तदा फल्गुनः पुरुषर्षभः // . ववर्ष धनुषा पार्थो वर्षाणीव सुरेश्वरः // 2. इत्युक्तोऽहं नरेन्द्रेण न हन्तव्या नृपा इति / ततस्ते सैन्धवा योधाः सर्व एव सराजकाः / कथं तन्न मृषेह स्याद्धर्मराजवचः शुभम् // 8 नादृश्यन्त शरैः कीर्णाः शलभैरिव पावकाः // 28 न हन्येरंश्च राजानो राज्ञश्चाज्ञा कृता भवेत् / तस्य शब्देन वित्रेसुर्भयार्ताश्च विदुद्रुवुः। इति संचिन्त्य स तदा भ्रातुः प्रियहिते रतः / मुमुचुश्चाश्रु शोकार्ताः सुषुपुश्चापि सैन्धवाः // 29 प्रोवाच वाक्यं धर्मज्ञः सैन्धवान्युद्धदुर्मदान् // 9 सांस्तु सर्वान्नरश्रेष्ठः सर्वतो विचरन्बली / बालान्नियो वा युष्माकं न हनिष्ये व्यवस्थितान् / अलातचक्रवद्राजशरजालैः समर्पयत् // 30 यश्च वक्ष्यति संग्रामे तवास्मीति पराजितः // 10 तदिन्द्रजालप्रतिमं बाणजालममित्रहा / एतच्छ्रुत्वा वचो मह्यं कुरुध्वं हितमात्मनः / व्यसजदिक्षु सर्वासु महेन्द्र इव वज्रभृत् // 31 अतोऽन्यथा कृच्छ्रगता भविष्यथ मयार्दिताः // 11 मेघजालनिभं सैन्यं विदार्य स रविप्रभः / एवमुक्त्वा तु तान्वीरान्युयुधे कुरुपुंगवः / विबभौ कौरवश्रेष्ठः शरदीव दिवाकरः // 32 अत्वरावानसंरब्धः संरब्धैर्विजिगीषुभिः // 12 इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि ततः शतसहस्राणि शराणां नतपर्वणाम् / षट्सप्ततितमोऽध्यायः // 76 // मुमुचुः सैन्धवा राजस्तदा गाण्डीवधन्वनि // 13 77 स तानापततः क्रूरानाशीविषविषोपमान / वैशंपायन उवाच / चिच्छेद निशितैर्बाणैरन्तरैव धनंजयः // 14 ततो गाण्डीवभृच्छ्रो युद्धाय समवस्थितः / छित्त्वा तु तानाशुगमान्कङ्कपत्राशिलाशितान् / विबभौ युधि दुर्धर्षो हिमवानचलो यथा // 1 एकैकमेष दशभिर्बिभेद समरे शरैः // 15 ततः सैन्धवयोधास्ते पुनरेव व्यवस्थिताः। ततः प्रासांश्च शक्तीश्च पुनरेव धनंजये / विमुञ्चन्तः सुसंरब्धाः शरवर्षाणि भारत // 2 जयद्रथं हतं स्मृत्वा चिक्षिपुः सैन्धवा नृपाः // 16 तान्प्रसह्य महावीर्यः पुनरेव व्यवस्थितान / तेषां किरीटी संकल्पं मोघं चक्रे महामनाः / ततः प्रोवाच कौन्तेयो मुमूलक्ष्णया गिरा // 3 सर्वांस्तानन्तरा छित्त्वा मुदा चुक्रोश पाण्डवः // 17 युध्यध्वं परया शक्त्या यतध्वं च वधे मम / तथैवापततां तेषां योधानां जयगृद्धिनाम् / - 2836 - Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 77. 18 ] आश्वमेधिकपर्व [14. 77. 45 शिरांसि पातयामास भल्लैः संनतपर्वभिः // 18 / स्वसारं मामवेक्षस्व स्वस्रीयात्मजमेव च / तेषां प्रद्रवतां चैव पुनरेव च धावताम् / कर्तुमर्हसि धर्मज्ञ दयां मयि कुरूद्वह।। निवर्ततां च शब्दोऽभूत्पूर्णस्येव महोदधेः // 19 विस्मृत्य कुरुराजानं तं च मन्दं जयद्रथम् // 32 से वध्यमानास्तु तदा पार्थेनामिततेजसा / अभिमन्योर्यथा जातः परिक्षित्परवीरहा / यथाप्राणं यथोत्साहं योधयामासुरर्जुनम् // 20 तथायं सुरथाज्जातो मम पौत्रो महाभुज // 33 ततस्ते फल्गुनेनाजी शरैः संनतपर्वभिः / तमादाय नरव्याघ्र संप्राप्तास्मि तवान्तिकम् / कता विसंज्ञा भूयिष्ठाः क्लान्तवाहनसैनिकाः // 21 शमाथं सर्वयोधानां शृणु चेदं वचो मम // 34 तांस्तु सर्वान्परिम्लानान्विदित्वा धृतराष्ट्रजा / आगतोऽयं महाबाहो तस्य मन्दस्य पौत्रकः / दुःशला बालमादाय नप्तारं प्रययौ तदा। प्रसादमस्य बालस्य तस्मात्त्वं कर्तुमर्हसि // 35 सुरथस्य सुतं वीरं रथेनानागसं तदा // 22 एष प्रसाद्य शिरसा मया सार्धमरिंदम / शान्त्यर्थं सर्वयोधानामभ्यगच्छत पाण्डवम् / याचते त्वां महाबाहो शमं गच्छ धनंजय // 36 सा धनंजयमासाद्य मुमोचार्तस्वरं तदा। बालस्य हतबन्धोश्च पार्थ किंचिदजानतः / धनंजयोऽपि तां दृष्ट्वा धनुर्विससृजे प्रभुः // 23 प्रसादं कुरु धर्मज्ञ मा मन्युवशमन्वगाः // 37 समुत्सृष्टधनुः पार्थो विधिवद्भगिनीं तदा / तमनायं नृशंसं च विस्मृत्यास्य पितामहम् / प्राह किं करवाणीति सा च तं वाक्यमब्रवीत् // 24 आगस्कारिणमत्यर्थ प्रसादं कर्तुमर्हसि // 38 एष ते भरतश्रेष्ठ स्वस्रीयस्यात्मजः शिशुः / एवं ब्रुवत्यां करुणं दुःशलायां धनंजयः / अमिवादयते वीर तं पश्य पुरुषर्षभ // 25 संस्मृत्य देवीं गान्धारी धृतराष्ट्रं च पार्थिवम् / इत्युक्तस्तस्य पितरं स पप्रच्छार्जुनस्तदा। प्रोवाच दुःखशोकातः क्षत्रधर्म विगर्हयन् // 39 कासाविति ततो राजन्दुःशला वाक्यमग्रवीत् // 26 धिक्तं दुर्योधनं क्षुद्रं राज्यलुब्धं च मानिनम् / पितृशोकाभिसंतप्तो विषादार्तोऽस्य वै पिता / यत्कृते बान्धवाः सर्वे मया नीता यमक्षयम् / / 40 पञ्चत्वमगमद्वीर यथा तन्मे निबोध ह // 27 इत्युक्त्वा बहु सान्त्वादि प्रसादमकरोज्जयः। स पूर्व पितरं श्रुत्वा हतं युद्धे स्वयानघ / परिष्वज्य च तां प्रीतो विससर्ज गृहान्प्रति // 41 त्वामागतं च संश्रुत्य युद्धाय हयसारिणम् / दुःशला चापि तान्योधाग्निवार्य महतो रणात् / पितुश्च मृत्युदुःखार्तोऽजहात्प्राणान्धनंजय // 28 / संपूज्य पार्थ प्रययौ गृहान्प्रति शुभानना // 42 प्राप्तो बीभत्सुरित्येव नाम श्रुत्वैव तेऽनघ / ततः सैन्धवकान्योधान्विनिर्जित्य नरर्षभः / विषादातः पपातोव्यां ममार च ममात्मजः // 29 पुनरेवान्वधावत्स तं हयं कामचारिणम् // 43 तं तु दृष्ट्वा निपतितं ततस्तस्यात्मजं विभो। ससार यज्ञियं वीरो विधिवत्स विशां पते / गृहीत्वा समनुप्राप्ता त्वामय शरणैषिणी // 30 / तारामृगमिवाकाशे देवदेवः पिनाकधृक् // 44 इत्युक्त्वार्तस्वरं सा तु मुमोच धृतराष्ट्रजा। स च वाजी यथेष्टेन तांस्तान्देशान्यथासुखम् / दीना दीनं स्थितं पार्थमब्रवीच्चाप्यधोमुखम् // 31 / विचचार यथाकामं कर्म पार्थस्य वर्धयन् // 45 - 2897 Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 77.46] महाभारते [14. 78. 27 78 क्रमेण स हयस्त्वेवं विचरन्भरतर्षभ / एवमुद्धर्षितो मात्रा स राजा बभ्रुवाहनः / मणिपूरपतेर्देशमुपायात्सहपाण्डवः // 46 मनश्चक्रे महातेजा युद्धाय भरतर्षभ // 13 इति श्रीमहाभारते भाश्वमेधिकपर्वणि संना काञ्चनं वर्म शिरस्त्राणं च भानुमत् / सप्तसप्ततितमोऽध्यायः // 77 // तूणीरशतसंबाधमारुरोह महारथम् // 14 सर्वोपकरणैर्युक्तं युक्तमश्वैर्मनोजवैः / वैशंपायन उवाच / सुचक्रोपस्करं धीमान्हेमभाण्डपरिष्कृतम् // 15 श्रुत्वा तु नृपतिर्वीरं पितरं बभ्रुवाहनः / परमार्चितमुच्छ्रित्य ध्वजं सिंहं हिरण्मयम् / निर्ययौ विनयेनार्यो ब्राह्मणार्घ्यपुरःसरः // 1 प्रययौ पार्थमुद्दिश्य स राजा बभ्रुवाहनः // 16 . मणिपूरेश्वरं त्वेवमुपयातं धनंजयः / ततोऽभ्येत्य हयं वीरो यज्ञियं पार्थरक्षितम् / नाभ्यनन्दत मेधावी क्षत्रधर्ममनुस्मरन् // 2 ग्राहयामास पुरुषैर्हयशिक्षाविशारदैः // 17. उवाच चैनं धर्मात्मा समन्युः फल्गुनस्तदा। गृहीतं वाजिनं दृष्ट्वा प्रीतात्मा स धनंजयः / प्रक्रियेयं न ते युक्ता बहिस्त्वं क्षत्रधर्मतः // 3 पुत्रं रथस्थं भूमिष्ठः संन्यवारयदाहवे // 18 संरक्ष्यमाणं तुरगं यौधिष्ठिरमुपागतम् / ततः स राजा तं वीरं शरवातैः सहस्रशः। यज्ञियं विषयान्ते मां नायोत्सीः किं नु पुत्रक // अर्दयामास निशितैराशीविषविषोपमैः // 19 धिक्त्वामस्तु सुदुर्बुद्धि क्षत्रधर्मविशारदम् / तयोः समभवद्युद्धं पितुः पुत्रस्य चातुलम् / यो मां युद्धाय संप्राप्तं साम्नवाथो त्वमग्रहीः // 5 देवासुररणप्रख्यमुभयोः प्रीयमाणयोः // 20 न त्वया पुरुषार्थश्च कश्चिदस्तीह जीवता। किरीटिनं तु विव्याध शरेण नतपर्वणा। यस्त्वं स्त्रीवद्युधा प्राप्तं साम्रा मां प्रत्यगृह्णथाः // 6 जत्रुदेशे नरव्याघ्रः प्रहसन्बभ्रुवाहनः // 21 यद्यहं न्यस्तशस्त्रस्त्वामागच्छेयं सुदुर्मते / सोऽभ्यगात्सह पुखेन वल्मीकमिव पन्नगः / प्रक्रियेयं ततो युक्ता भवेत्तव नराधम // 7 विनिर्भिद्य च कौन्तेयं महीतलमथाविशत् // 22 तमेवमुक्तं भ; तु विदित्वा पन्नगात्मजा / स गाढवेदनो धीमानालम्ब्य धनुरुत्तमम् / अमृष्यमाणा भित्त्वोर्वीमुलूपी तमुपागमत् // 8 दिव्यं तेजः समाविश्य प्रमीत इव संबभौ // 23 सा ददर्श ततः पुत्रं विमृशन्तमधोमुखम् / / स संज्ञामुपलभ्याथ प्रशस्य पुरुषर्षभः / संतय॑मानमसकृद्भा युद्धार्थिना विभो // 9 पुत्रं शक्रात्मजो वाक्यमिदमाह महीपते // 24 ततः सा चारुसर्वाङ्गी तमुपेत्योरगात्मजा। साधु साधु महाबाहो वत्स चित्राङ्गदात्मज / उलूपी प्राह वचनं क्षत्रधर्मविशारदा // 10 सदृशं कर्म ते दृष्ट्वा प्रीतिमानस्मि पुत्रक // 25 उलूपी मां निबोध त्वं मातरं पन्नगात्मजाम् / विमुश्चाम्येष बाणांस्ते पुत्र युद्धे स्थिरो भव / कुरुष्व वचनं पुत्र धर्मस्ते भविता परः // 11 इत्येवमुक्त्वा नाराचैरभ्यवर्षदमित्रहा // 26 युध्यस्वैनं कुरुश्रेष्ठं धनंजयमरिंदम। तान्स गाण्डीवनिर्मुक्तान्वज्राशनिसमप्रभान् / एवमेष हि ते प्रीतो भविष्यति न संशयः // 12 नाराचैरच्छिनद्राजा सर्वानेव त्रिधा त्रिधा // 27 -2838 - Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 78. 28 ] आश्वमधिकपर्व [14. 79. 16 तस्य पार्थः शरैर्दिव्यैर्ध्वजं हेमपरिष्कृतम् / प्रतिलभ्य च सा संज्ञां देवी दिव्यवपुर्धरा / सुवर्णतालप्रतिमं क्षुरेणापाहरद्रथात् // 28 उल्लूपी पन्नगसुतां दृष्ट्वदं वाक्यमब्रवीत् // 2 हयांश्चास्य महाकायान्महावेगपराक्रमान् / उलूपि पश्य भर्तारं शयानं निहतं रणे। चकार राज्ञो निर्जीवान्प्रहसन्पाण्डवर्षभः // 29 त्वत्कृते मम पुत्रेण बालेन समितिजयम् // 3 स रथादवतीर्याशु राजा परमकोपनः / ननु त्वमार्ये धर्मज्ञा ननु चासि पतिव्रता / पदातिः पितरं कोपाद्योधयामास पाण्डवम् // 30 यत्त्वत्कृतेऽयं पतितः पतिस्ते निहतो रणे // 4 संप्रीयमाणः पाण्डूनामृषभः पुत्रविक्रमात् / किं नु सर्वापराधोऽयं यदि तेऽद्य धनंजयः / नात्यर्थं पीडयामास पुत्रं वज्रधरात्मजः // 31 क्षमस्व याच्यमाना मे संजीवय धनंजयम् // 5 स हन्यमानो विमुखं पितरं बभ्रुवाहनः / ननु त्वमार्ये धर्मज्ञा त्रैलोक्यविदिता शुभे / शरैराशीविषाकारैः पुनरेवादयदली // 32 यद्धातयित्वा भर्तारं पुत्रेणेह न शोचसि // 6 ततः स बाल्यात्पितरं विव्याध हृदि पत्रिणा / नाहं शोचामि तनयं निहतं पन्नगात्मजे / निशितेन सुपुखेन बलवद्वध्रुवाहनः // 33 पतिमेव तु शोचामि यस्यातिथ्यमिदं कृतम् // 7 स बाणस्तेजसा दीप्तो ज्वलन्निव हुताशनः / इत्युक्त्वा सा तदा देवीमुलूपी पन्नगात्मजाम् / विवेश पाण्डवं राजन्मर्म भित्त्वातिदुःखकृत् // 34 भर्तारमभिगम्येदमित्युवाच यशस्विनी // 8 स तेनातिभृशं विद्धः पुत्रेण कुरुनन्दनः / उत्तिष्ठ कुरुमुख्यस्य प्रियकाम मम प्रिय / महीं जगाम मोहातस्ततो राजन्धनंजयः / / 35 अयमश्वो महाबाहो मया ते परिमोक्षितः // 9 तस्मिन्निपतिते वीरे कौरवाणां धुरंधरे। ननु नाम त्वया वीर धर्मराजस्य यज्ञियः / सोऽपि मोहं जगामाशु ततश्चित्राङ्गदासुतः // 36 अयमश्वोऽनुसर्तव्यः स शेपे किं महीतले // 10 व्यायम्य संयुगे राजा दृष्ट्वा च पितरं हतम् / त्वयि प्राणाः समायत्ताः कुरूणां कुरुनन्दन / पूर्वमेव च बाणौधैर्गाढविद्धोऽर्जुनेन सः // 37 स कस्मात्प्राणदोऽन्येषां प्राणान्सत्यक्तवानसि॥११ भर्तारं निहतं दृष्ट्वा पुत्रं च पतितं भुवि / उलूपि साधु संपश्य भर्तारं निहतं रणे। चित्राङ्गदा परित्रस्ता प्रविवेश रणाजिरम् // 38 पुत्रं चैनं समुत्साह्य घातयित्वा न शोचसि // 12 शोकसंतप्तहृदया रुदती सा ततः शुभा। कामं स्वपितु बालोऽयं भूमौ प्रेतगतिं गतः / मणिपूरपतेर्माता ददर्श निहतं पतिम् // 39 लोहिताक्षो गुडाकेशो विजयः साधु जीवतु // 13 . इति श्रीमहाभारते श्राश्वमेधिकपर्वणि नापराधोऽस्ति सुभगे नराणां बहुभार्यता। अष्टसप्ततितमोऽध्यायः // 78 // नारीणां तु भवत्येतन्मा ते भद्बुद्धिरीदृशी // 14 सख्यं ह्येतत्कृतं धात्रा शाश्वतं चाव्ययं च ह / वैशंपायन उवाच / सख्यं समभिजानीहि सत्यं संगतमस्तु ते // 15 ततो बहुविधं भीरुर्विलप्य कमलेक्षणा। पुत्रेण घातयित्वेमं पति यदि न मेऽद्य वै / मुमोह दुःखाहुर्धर्षा निपपात च भूतले // 1 / जीवन्तं दर्शयस्यद्य परित्यक्ष्यामि जीवितम् // 16 - 2839 - Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 79. 17 ] महाभारते [14. 81.2 8o साहं दुःखान्विता भीरु पतिपुत्रविनाकृता। शिरःकपाले चास्यैव भुञ्जतः पितुरद्य मे / इहैव प्रायमाशिष्ये प्रेक्षन्त्यास्ते न संशयः // 17 प्रायश्चित्तं हि नास्त्यन्यद्धत्वाद्य पितरं मम // 12 इत्युक्त्वा पन्नगसुतां सपत्नी चैत्रवाहिनी / पश्य नागोत्तमसुते भर्तारं निहतं मया / ततः प्रायमुपासीना तूष्णीमासीजनाधिप // 18 कृतं प्रियं मया तेऽद्य निहत्य समरेऽर्जुनम् // 13 इति श्रीमहाभारते श्राश्वमेधिकपर्वणि सोऽहमप्यद्य यास्यामि गतिं पितृनिषेविताम् / एकोनाशीतितमोऽध्यायः // 79 // न शक्नोम्यात्मनात्मानमहं धारयितुं शुभे // 14 सा त्वं मयि मृते मातस्तथा गाण्डीवधन्वनि / वैशंपायन उवाच / भव प्रीतिमती देवि सत्येनात्मानमालभे // 15 तथा विलप्योपरता भर्तुः पादौ प्रगृह्य सा / इत्युक्वा स तदा राजा दुःखशोकसमाहतः / उपविष्टाभवहेवी सोच्छासं पुत्रमीक्षती // 1 उपस्पृश्य महाराज दुःखाद्वचनमब्रवीत् // 16 ततः संज्ञा पुनर्लब्ध्वा स राजा बभ्रुवाहनः / शृण्वन्तु सर्वभूतानि स्थावराणि चराणि च / मातरं तामथालोक्य रणभूमावथाब्रवीत् // 2 त्वं च मातर्यथा सत्यं ब्रवीमि भुजगोत्तमे // 15 इतो दुःखतरं किं नु यन्मे माता सुखैधिता / यदि नोत्तिष्ठति जयः पिता मे भरतर्षभः / भूमौ निपतितं वीरमनुशेते मृतं पतिम् // 3 अस्मिन्नेव रणोद्देशे शोषयिष्ये कलेवरम् // 18 निहन्तारं रणेऽरीणां सर्वशस्त्रभृतां वरम् / न हि मे पितरं हत्वा निष्कृतिर्विद्यते कचित् / मया विनिहतं संख्ये प्रेक्षते दुर्मरं बत // 4 नरकं प्रतिपत्स्यामि ध्रुवं गुरुवधादितः // 19 अहोऽस्या हृदयं देव्या दृढं यन्न विदीर्यते / वीरं हि क्षत्रियं हत्वा गोशतेन प्रमुच्यते / व्यूढोरस्कं महाबाहुं प्रेक्षन्त्या निहतं पतिम् // 5 पितरं तु निहत्यैवं दुस्तरा निष्कृतिर्मया // 20 दुर्मरं पुरुषेणेह मन्ये ह्यध्वन्यनागते / एष टेको महातेजाः पाण्डुपुत्रो धनंजयः / यत्र नाहं न मे माता विप्रयुज्येत जीवितात् // 6 पिता च मम धर्मात्मा तस्य मे निष्कृतिः कुतः॥ अहो धिकुरुवीरस्य युरःस्थं काञ्चनं भुवि / इत्येवमुक्त्वा नृपते धनंजयसुतो नृपः / व्यपविद्धं हतस्येह मया पुत्रेण पश्यत // 7 उपस्पृश्याभवत्तूष्णीं प्रायोपेतो महामतिः // 22 भो भो पश्यत मे वीरं पितरं ब्राह्मणा भुवि / / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि शयानं वीरशयने मया पुत्रेण पातितम् // 8 मशीतितमोऽध्यायः // 8 // ब्राह्मणाः कुरुमख्यस्य प्रयक्ता हयसारिणः / कुर्वन्तु शान्तिकां त्वद्य रणे योऽयं मया हतः॥९ वैशंपायन उवाच। व्यादिशन्तु च किं विप्राः प्रायश्चित्तमिहाद्य मे।। प्रायोपविष्टे नृपतौ मणिपूरेश्वरे तदा / सुनृशंसस्य पापस्य पितृहन्तू रणाजिरे // 10 / पितृशोकसमाविष्टे सह मात्रा परंतप // 1 दुश्चरा द्वादश समा हत्वा पितरमद्य वै। उलूपी चिन्तयामास तदा संजीवनं मणिम् / ममेह सुनृशंसस्य संवीतस्यास्य चर्मणा // 11 स चोपातिष्ठत तदा पन्नगानां परायणम् // 2 - 2840 - Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 81. 3] आश्वमेधिकपर्व [14. 82.9 तं गृहीत्वा तु कौरव्य नागराजपतेः सुता। . क्किमिदं लक्ष्यते सर्वं शोकविस्मयहर्षवत् / मनःप्रह्लादनीं वाचं सैनिकानामथाब्रवीत् // 3 रणाजिरममित्रघ्न यदि जानासि शंस मे // 18 उत्तिष्ठ मा शुचः पुत्र नैष जिष्णुस्त्वया हतः / जननी च किमर्थं ते रणभूमिमुपागता / अजेयः पुरुषैरेष देवैर्वापि सवासवैः॥ 4 नागेन्द्रदुहिता चेयमुलूपी किमिहागता // 19 मया तु मोहिनी नाम मायैषा संप्रयोजिता / जानाम्यहमिदं युद्धं त्वया मद्वचनात्कृतम् / प्रियार्थं पुरुषेन्द्रस्य पितुस्तेऽद्य यशस्विनः // 5 स्त्रीणामागमने हेतुमहमिच्छामि वेदितुम् // 20 जिज्ञासुर्खेष वै पुत्र बलस्य तव कौरवः / / तमुवाच ततः पृष्ठो मणिपूरपतिस्तदा / संग्रामे युध्यतो राजन्नागतः परवीरहा // 6 प्रसाद्य शिरसा विद्वानुलूपी पृच्छयतामिति // 21 तस्मादसि मया पुत्र युद्धार्थ परिचोदितः / / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि मा पापमात्मनः पुत्र शāथास्त्वण्वपि प्रभो // 7 एकाशीतितमोऽध्यायः // 81 // ऋषिरेष महातेजाः पुरुषः शाश्वतोऽव्ययः। . नैनं शक्तो हि संग्रामे जेतुं शक्रोऽपि पुत्रक // 8 अर्जुन उवाच / अयं तु मे मणिर्दिव्यः समानीतो विशां पते / किमागमनकृत्यं ते कौरव्यकुलनन्दिनि / मृतान्मृतान्पन्नगेन्द्रान्यो जीवयति नित्यदा // 9 मणिपूरपतेर्मातुस्तथैव च रणाजिरे // 1 एतमस्योरसि त्वं तु स्थापयस्व पितुः प्रभो।। कञ्चित्कुशलकामासि राज्ञोऽस्य भुजगात्मजे / संजीवितं पुनः पुत्र ततो द्रष्टासि पाण्डवम् // 10 मम वा चञ्चलापाङ्गे कच्चित्त्वं शुभमिच्छसि // 2 इत्युक्तः स्थापयामास तस्योरसि मणिं तदा। कञ्चित्ते पृथुलश्रोणि नाप्रियं शुभदर्शने / पार्थस्यामिततेजाः स पितुः स्नेहादपापकृत् // 11 अकार्षमहमज्ञानादयं वा बभ्रुवाहनः // 3 तस्मिन्यस्ते मणौ वीर जिष्णुरुज्जीवितः प्रभुः / कञ्चिच्च राजपुत्री ते सपत्नी चैत्रवाहिनी / सुप्तोत्थित इवोत्तस्थौ मृष्टलोहितलोचनः // 12 चित्राङ्गदा वरारोहा नापराध्यति किंचन // 4 तमुत्थितं महात्मानं लब्धसंज्ञं मनस्विनम् / तमुवाचोरगपतेर्दुहिता प्रहसन्त्यथ / समीक्ष्य पितरं स्वस्थं ववन्दे बभ्रुवाहनः // 13 न मे त्वमपराद्धोऽसि न नृपो बभ्रुवाहनः / उत्थिते पुरुषव्याघ्र पुनर्लक्ष्मीवति प्रभो। न जनित्री तथास्येयं मम या प्रेष्यवस्थिता // 5 दिव्याः समनसः पुण्या ववृषे पाकशासनः॥१४ श्रूयतां यद्यथा चेदं मया सर्व विचेष्टितम् / अनाहता दुन्दुभयः प्रणेदुर्मेघनिस्वनाः / न मे कोपस्त्वया कार्यः शिरसा त्वां प्रसादये // 6 साधु साध्विति चाकाशे बभूव सुमहान्स्वनः // 15 त्वत्प्रीत्यर्थं हि कौरव्य कृतमेतन्मयानघ / उत्थाय तु महाबाहुः पर्याश्वस्तो धनंजयः। यत्तच्छृणु महाबाहो निखिलेन धनंजय // 7 बभ्रुवाहनमालिङ्गय समाजिघ्रत मूर्धनि // 16 महाभारतयुद्धे यत्त्वया शांतनवो नृपः / ददर्श चाविदूरेऽस्य मातरं शोककर्शिताम् / अधर्मेण हतः पार्थ तस्यैषा निष्कृतिः कृता // 8 उलूप्या सह तिष्ठन्तीं ततोऽपृच्छद्धनंजयः॥ 17 / न हि भीष्मस्त्वया वीर युध्यमानो निपातितः / म. भा. 356 -2841 - Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 82.9 ] महाभारते [ 14. 83.5 शिखण्डिना तु संसक्तस्तमाश्रित्य हतस्त्वया // 9 तत्रागच्छेः सहामात्यो मातृभ्यां सहितो नृप // 24 तस्य शान्तिमकृत्वा तु त्यजेस्त्वं यदि जीवितम् / इत्येवमुक्तः पार्थेन स राजा बभ्रुवाहनः / कर्मणा तेन पापेन पतेथा निरये ध्रुवम् // 10 उवाच पितरं धीमानिदमस्राविलेक्षणः // 25 एषा तु विहिता शान्तिः पुत्राद्यां प्राप्तवानसि / उपयास्यामि धर्मज्ञ भवतः शासनादहम् / वसुभिर्वसुधापाल गङ्गया च महामते // 11 अश्वमेधे महायज्ञे द्विजातिपरिवेषकः // 26 . पुरा हि श्रुतमेतद्वै वसुभिः कथितं मया। मम त्वनुग्रहार्थाय प्रविशस्व पुरं स्वकम् / . गङ्गायास्तीरमागम्य हते शांतनवे नृपे // 12 भार्याभ्यां सह शत्रुघ्न मा भूत्तेऽत्र विचारणा // 27 आप्लुत्य देवा वसवः समेत्य च महानदीम् / उषित्वेह विशल्यस्त्वं सुखं स्वे वेश्मनि प्रभो। इदमूचुर्वचो घोरं भागीरथ्या मते तदा // 13 पुनरश्वानुगमनं कर्तासि जयतां वर / / 28 एष शांतनवो भीष्मो निहतः सव्यसाचिना। इत्युक्तः स तु पुत्रेण तदा वानरकेतनः / अयुध्यमानः संग्रामे संसक्तोऽन्येन भामिनि // 14 स्मयन्प्रोवाच कौन्तेयस्तदा चित्राङ्गदासुतम् // 29 तदनेनाभिषङ्गेण वयमप्यर्जुनं शुभे। विदितं ते महाबाहो यथा दीक्षां चराम्यहम् / शापेन योजयामेति तथास्त्विति च साब्रवीत्॥१५ न स तावत्प्रवेक्ष्यामि पुरं ते पृथुलोचन // 30 तदहं पितुरावेद्य भृशं प्रव्यथितेन्द्रिया। यथाकामं प्रयात्येष यज्ञियश्च तुरंगमः / अभवं स च तच्छ्रुत्वा विषादमगमत्परम् // 16 स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामि न स्थानं विद्यते मम / / पिता तु मे वसून्गत्वा त्वदर्थं समयाचत / स तत्र विधिवत्तेन पूजितः पाकशासनिः / पुनः पुनः प्रसाद्यैनांस्त एनमिदमब्रुवन् // 17 भार्याभ्यामभ्यनुज्ञातः प्रायाद्भरतसत्तमः // 32 पुनस्तस्य महाभाग मणिपूरेश्वरो युवा / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि स एनं रणमध्यस्थं शरैः पातयिता भुवि // 18 यशीतितमोऽध्यायः॥ 82 // एवं कृते स नागेन्द्र मुक्तशापो भविष्यति / . 83 गच्छेति वसुभिश्चोक्तो मम चेदं शशंस सः॥१९ वैशंपायन उवाच / तच्छ्रुत्वा त्वं मया तस्माच्छापादसि विमोक्षितः। | स तु वाजी समुद्रान्तां पर्येत्य पृथिवीमिमाम् / न हि त्वां देवराजोऽपि समरेषु पराजयेत् // 20 निवृत्तोऽभिमुखो राजन्येन नागाह्वयं पुरम् // 1 आत्मा पुत्रः स्मृतस्तस्मात्तेनेहासि पराजितः।। अनुगच्छंश्च तेजस्वी निवृत्तोऽथ किरीटभृत् / नात्र दोषो मम मतः कथं वा मन्यसे विभो // 21 / यदृच्छया समापेदे पुरं राजगृहं तदा // 2 इत्येवमुक्तो विजयः प्रसन्नात्माब्रवीदिदम्। तमभ्याशगतं राजा जरासंधात्मजात्मजः / सर्व मे सुप्रियं देवि यदेतत्कृतवत्यसि // 22 क्षत्रधर्मे स्थितो वीरः समरायाजुहाव ह // 3 इत्युक्त्वाथाब्रवीत्पुत्रं मणिपूरेश्वरं जयः / ततः पुरात्स निष्क्रम्य रथी धन्वी शरी तली। चित्राङ्गदायाः शृण्वन्त्याः कौरव्यदुहितुस्तथा // 23 - मेघसंधिः पदाति तं धनंजयमुपाद्रवत् // 4 युधिष्ठिरस्याश्वमेधः परां चैत्री भविष्यति / / | आसाद्य च महातेजा मेधसंधिर्धनंजयम् / - 2842 - Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 83. 5] आश्वमेधिकपर्व [14. 84.3 बालभावान्महाराज प्रोवाचेदं न कौशलात् // 5 शरैश्चकर्त बहुधा बहुभिर्गृध्रवा जितैः // 20 किमयं चार्यते वाजी स्त्रीमध्य इव भारत / सा गदा शकलीभूता विशीर्णमणिबन्धना / हयमेनं हरिष्यामि प्रयतस्व विमोक्षणे // 6 व्याली निर्मुच्यमानेव पपातास्य सहस्रधा // 21 अदत्तानुनयो युद्धे यदि त्वं पितृभिर्मम / विरथं तं विधन्वानं गदया परिवर्जितम् / करिष्यामि तवातिथ्यं प्रहर प्रहरामि वा // 7 नैच्छत्ताडयितुं धीमानर्जुनः समरामणीः // 22 इत्युक्तः प्रत्युवाचैनं पाण्डवः प्रहसन्निव / तत एनं विमनसं क्षत्रधर्मे समास्थितम् / विघ्नकर्ता मया वार्य इति मे व्रतमाहितम् // 8 सान्त्वपूर्वमिदं वाक्यमब्रवीत्कपिकेतनः // 23 भ्रात्रा ज्येष्ठेन नृपते तवापि विदितं ध्रुवम् / पर्याप्तः क्षत्रधर्मोऽयं दर्शितः पुत्र गम्यताम् / प्रहरस्व यथाशक्ति न मन्युर्विद्यते मम // 9 बह्वेतत्समरे कर्म तव बालस्य पार्थिव // 24 इत्युक्तः प्राहरत्पूर्वं पाण्डवं मगधेश्वरः / युधिष्ठिरस्य संदेशो न हन्तव्या नृपा इति / किरशरसहस्राणि वर्षाणीव सहस्रदृक् // 10 तेन जीवसि राजंस्त्वमपराद्धोऽपि मे रणे // 25 ततो गाण्डीवभृच्छ्रो गाण्डीवप्रेषितैः शरैः। इति मत्वा स चात्मानं प्रत्यादिष्टं स्म मागधः / चकार मोघांस्तान्बाणानयत्नाद्भरतर्षभ // 11 तथ्यमित्यवगम्यैनं प्राञ्जलिः प्रत्यपूजयत् // 26 स मोघं तस्य बाणौघं कृत्वा वानरकेतनः / तमर्जुनः समाश्वास्य पुनरेवेदमब्रवीत् / शरान्मुमोच ज्वलितान्दीप्तास्यानिव पन्नगान् // 12 आगन्तव्यं परां चैत्रीमश्वमेधे नृपस्य नः // 27 ध्वजे पताकादण्डेषु रथयात्र हयेषु च / इत्युक्तः स तथेत्युक्त्वा पूजयामास तं हयम् / अन्येषु च रथाङ्गेषु न शरीरे न सारथौ // 13 फल्गुनं च युधां श्रेष्ठं विधिवत्सहदेवजः // 28 संरक्ष्यमाणः पार्थेन शरीरे फल्गुनस्य ह / ततो यथेष्टमगमत्पुनरेव स केसरी / मन्यमानः स्ववीर्यं तन्मागधः प्राहिणोच्छरान्॥१४ | ततः समुद्रतीरेण वङ्गान्पुण्ड्रान्सकेरलान् // 29 ततो गाण्डीवभृच्छ्रो मागधेन समाहतः / तत्र तत्र च भूरीणि म्लेच्छसैन्यान्यनेकशः / बभौ वासन्तिक इव पलाशः पुष्पितो महान् // 15 / विजिग्ये धनुषा राजन्गाण्डीवेन धनंजयः॥३० अवध्यमानः सोऽभ्यन्नन्मागधः पाण्डवर्षभम् / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि तेन तस्थौ स कौरव्य लोकवीरस्य दर्शने // 16 ज्यशीतितमोऽध्यायः॥ 83 // सव्यसाची तु संक्रुद्धो विकृष्य बलवद्धनुः / हयांश्चकार निर्देहान्सारथेश्च शिरोऽहरत् // 17 वैशंपायन उवाच / धनुश्चास्य महच्चित्रं क्षुरेण प्रचकर्त ह / मागधेनार्चितो राजन्पाण्डवः श्वेतवाहनः / हस्तावापं पताकां च ध्वजं चास्य न्यपातयत् // 18 दक्षिणां दिशमास्थाय चारयामास तं हयम् // 1 स राजा व्यथितो व्यश्वो विधनुर्हतसारथिः।। ततः स पुनरावृत्य हयः कामचरो बली / गदामादाय कौन्तेयमभिदुद्राव वेगवान् // 19 आससाद पुरी रम्यां चेदीनां शुक्तिसाह्वयाम् // 2 तस्यापतत एवाशु गदां हेमपरिष्कृताम् / शरभेणार्चितस्तत्र शिशुपालात्मजेन सः / -2843 - Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 84. 3] महाभारते [ 14. 85. 10 युद्धपूर्वेण मानेन पूजया च महाबलः // 3 तस्मादपि स कौरव्य गान्धारविषयं हयः / तत्रार्चितो ययौ राजस्तदा स तुरगोत्तमः / विचचार कथाकामं कौन्तेयानुगतस्तदा // 18 काशीनन्ध्रान्कोसलांश्च किरातानथ तङ्गणान् // 4 तत्र गान्धारराजेन युद्धमासीन्महात्मनः / तत्र पूजां यथान्यायं प्रतिगृह्य स पाण्डवः / घोरं शकुनिपुत्रेण पूर्ववैरानुसारिणा // 19 पुनरावृत्य कौन्तेयो दशार्णानगमत्तदा // 5 इति श्रीमहाभारते आश्चमेधिकपर्वणि तत्र चित्राङ्गदो नाम बलवान्वसुधाधिपः / चतुरशीतितमोऽध्यायः // 84 // तेन युद्धमभूत्तस्य विजयस्यातिभैरवम् // 6 तं चापि वशमानीय किरीटी पुरुषर्षभः / वैशंपायन उवाच / निषादराज्ञो विषयमेकलव्यस्य जग्मिवान् // 7 शकुनेस्तु सुतो वीरो गान्धाराणां महारथः / एकलव्यसुतश्चैनं युद्धेन जगृहे तदा / प्रत्युद्ययौ गुडाकेशं सैन्येन महता वृतः / ततश्चक्रे निषादैः स संग्रामं रोमहर्षणम् // 8 हस्त्यश्वरथपूर्णेन पताकाध्वजमालिना // 1 ततस्तमपि कौन्तेयः समरेष्वपराजितः / अमृष्यमाणास्ते योधा नृपतेः शकुनेर्वधम / जिगाय समरे वीरो यज्ञविन्नार्थमुद्यतम् // 9 अभ्ययुः सहिताः पार्थं प्रगृहीतशरासनाः / / स तं जित्वा महाराज नैषादि पाकशासनिः / तानुवाच स धर्मात्मा बीभत्सुरपराजितः। अर्चितः प्रययौ भूयो दक्षिणं सलिलार्णवम् // 10 युधिष्ठिरस्य वचनं न च ते जगृहुर्हितम् // 3 तत्रापि द्रविडैरन्धे रौद्रैर्माहिषकैरपि / वार्यमाणास्तु पार्थेन सान्त्वपूर्वममर्षिताः / तथा कोल्लगिरेयैश्च युद्धमासीकिरीटिनः // 11 परिवार्य हयं जग्मुस्ततश्चक्रोध पाण्डवः / / 4 तुरगस्य वशेनाथ सुराष्ट्रानभितो ययौ / ततः शिरांसि दीप्तात्रैस्तेषां चिच्छेद पाण्डवः / गोकर्णमपि चासाद्य प्रभासमपि जग्मिवान् // 12 क्षुरैर्गाण्डीवनिर्मुक्तेर्नातियत्नादिवार्जुनः / / 5 ततो द्वारवती रम्यां वृष्णिवीराभिरक्षिताम् / ते वध्यमानाः पार्थेन हयमुत्सृज्य संभ्रमात् / आससाद हयः श्रीमान्कुरुराजस्य यज्ञियः // 13 न्यवर्तन्त महाराज शरवर्षार्दिता भृशम् / 6 तमुन्मथ्य हयश्रेष्ठं यादवानां कुमारकाः / वितुद्यमानस्तैश्चापि गान्धारैः पाण्डवर्षभः / प्रययुस्तास्तदा राजन्नुग्रसेनो न्यवारयत् // 14 आदिश्यादिश्य तेजस्वी शिरांस्येषां न्यपातयत् // 7 ततः पुर्या विनिष्क्रम्य वृष्ण्यन्धकपतिस्तदा / वध्यमानेषु तेष्वाजौ गान्धारेषु समन्ततः / सहितो वसुदेवेन मातुलेन किरीटिनः // 15 स राजा शकुनेः पुत्रः पाण्डवं प्रत्यवारयत् / / 8 तौ समेत्य कुरुश्रेष्ठं विधिवत्प्रीतिपूर्वकम् / तं युध्यमानं राजानं क्षत्रधर्मे व्यवस्थितम् / परया भरतश्रेष्ठं पूजया समवस्थितौ / पार्थोऽब्रवीन्न मे वध्या राजानो राजशासनात् / ततस्ताभ्यामनुज्ञातो ययौ येन हयो गतः // 16 अलं युद्धेन ते वीर न तेऽस्त्यद्य पराजयः // 9 ततः स पश्चिमं देशं समुद्रस्य तदा हयः / इत्युक्तस्तदनादृत्य वाक्यमज्ञानमोहितः / क्रमेण व्यचरत्स्फीतं ततः पश्चनदं ययौ // 17 / स शक्रसमकर्माणमवाकिरत सायकैः // 10 -2844 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 85. 11] आश्वमेधिकपर्व [ 14. 86. 14 तस्य पार्थः शिरस्त्राणमर्धचन्द्रेण पत्रिणा।। अपाहरदसंभ्रान्तो जयद्रथशिरो यथा // 11 वैशंपायन उवाच / तदृष्ट्वा विस्मयं जग्मुर्गान्धाराः सर्व एव ते / इत्युक्त्वानुययौ पार्थो हयं तं कामचारिणम् / इच्छता तेन न हतो राजेत्यपि च ते विदुः॥१२ न्यवर्तत ततो वाजी येन नागाह्वयं पुरम् // 1 गान्धारराजपुत्रस्तु पलायनकृतक्षणः / तं निवृत्तं तु शुश्राव चारेणैव युधिष्ठिरः। बभौ तैरेव सहितस्त्रस्तैः क्षुद्रमृगैरिव // 13 श्रुत्वार्जुनं कुशलिनं स च हृष्टमनाभवत् // 2 तेषां तु तरसा पार्थस्तत्रैव परिधावताम् / . विजयस्य च तत्कर्म गान्धारविषये तदा / विजहारोत्तमाङ्गानि भल्लैः संनतपर्वभिः // 14 श्रुत्वान्येषु च देशेषु स सुप्रीतोऽभवन्नृपः // 3 उच्छ्रितांस्तु भुजान्केचिन्नाबुध्यन्त शरैर्हृतान् / एतस्मिन्नेव काले तु द्वादशी माघपाक्षिकीम् / शरैर्गाण्डीवनिर्मुक्तैः पृथुभिः पार्थचोदितैः॥ 15 इष्टं गृहीत्वा नक्षत्रं धर्मराजो युधिष्ठिरः // 4 संभ्रान्तनरनागाश्वमथ तद्विद्रुतं बलम् / समानाय्य महातेजाः सर्वान्भ्रातॄन्महामनाः / हतविध्वस्तभूयिष्ठमावर्तत मुहुर्मुहुः // 16 भीमं च नकुलं चैव सहदेवं च कौरवः // 5 न ह्यदृश्यन्त वीरस्य केचिद्ग्रेऽऽयकर्मणः।। प्रोवाचेदं वचः काले तदा धर्मभृतां वरः। रिपवः पात्यमाना वै ये सहेयुर्महाशरान् // 17 आमव्य वदतां श्रेष्ठो भीमं भीमपराक्रमम् // 6 ततो गान्धारराजस्य मत्रिवृद्धपुरःसरा / आयाति भीमसेनासौ सहाश्वेन तवानुजः। जननी निर्ययौ भीता पुरस्कृत्याय॑मुत्तमम् // 18 यथा मे पुरुषाः प्राहुर्ये धनंजयसारिणः // 7 सा न्यवारयदव्यग्रा तं पुत्रं युद्धदुर्मदम् / उपस्थितश्च कालोऽयमभितो वर्तते हयः / प्रसादयामास च तं जिष्णुमक्लिष्टकारिणम् // 19 माघी च पौर्णमासीयं मासः शेषो वृकोदर // 8 तां पूजयित्वा कौन्तेयः प्रसादमकरोत्तदा। . तत्प्रस्थाप्यन्तु विद्वांसो ब्राह्मणा वेदपारगाः / शकुनेश्चापि तनयं सान्त्वयन्निदमब्रवीत् // 20 वाजिमेधार्थसिद्ध्यर्थं देशं पश्यन्तु यज्ञियम् // 9 न मे प्रियं महाबाहो यत्ते बुद्धिरियं कृता।। इत्युक्तः स तु तच्चक्रे भीमो नृपतिशासनम् / प्रतियोद्धममित्रघ्न भ्रातैव त्वं ममानघ // 21 हृष्टः श्रुत्वा नरपतेरायान्तं सव्यसाचिनम् // 10 गान्धारी मातरं स्मृत्वा धृतराष्ट्रकृतेन च / ततो ययौ भीमसेनः प्राज्ञैः स्थपतिभिः सह / तेन जीवसि राजंस्त्वं निहतास्त्वनुगास्तव // 22 ब्राह्मणानग्रतः कृत्वा कुशलान्यज्ञकर्मसु // 11 मैवं भूः शाम्यतां वैरं मा ते भद्बुद्धिरीदृशी। तं सशालचयग्रामं संप्रतोलीविटङ्किनम् / आगन्तव्यं परां चैत्रीमश्वमेधे नृपस्य नः // 23 मापयामास कौरव्यो यज्ञवाट यथाविधि // 12 इति श्रीमहाभारते भाश्वमेधिकपर्वणि सदः सपत्नीसदनं सानीध्रमपि चोत्तरम् / पञ्चाशीतितमोऽध्यायः॥ 85 // कारयामास विधिवन्मणिहेमविभूषितम् // 13 स्तम्भान्कनकचित्रांश्च तोरणानि बृहन्ति च / यज्ञायतनदेशेषु दत्त्वा शुद्धं च काश्चनम् // 14 -2845 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 86. 15 ] महाभारते [ 14. 87. 16 अन्तःपुराणि राज्ञां च नानादेशनिवासिनाम् / ददृशुस्तं नृपतयो यज्ञस्य विधिमुत्तमम् / कारयामास धर्मात्मा तत्र तत्र यथाविधि / / 15 / देवेन्द्रस्येव विहितं भीमेन कुरुनन्दन // 2 ब्राह्मणानां च वेश्मानि नानादेशसमेयुषाम् / ददृशुस्तोरणान्यत्र शातकुम्भमयानि ते। कारयामास भीमः स विविधानि ह्यनेकशः // 16 शय्यासनविहारांश्च सुबहू-रत्नभूषितान् // 3 तथा संप्रेषयामास दूतान्नपतिशासनात् / घटान्पात्रीः कटाहानि कलशान्वर्धमानकान् / भीमसेनो महाराज राज्ञामक्लिष्टकर्मणाम् // 17 न हि किंचिदसौवर्णमपश्यंस्तत्र पार्थिवाः // 4 ते प्रियार्थं कुरुपतेराययुनृपसत्तमाः। यूपांश्च शास्त्रपठितान्दारवान्हेमभूषितान् / रत्नान्यनेकान्यादाय स्त्रियोऽश्वानायुधानि च // 18 उपक्लप्लान्यथाकालं विधिवद्भरिवर्चसः॥ 5 तेषां निविशतां तेषु शिबिरेषु सहस्रशः / स्थलजा जलजा ये च पशवः केचन प्रभो। नर्दतः सागरस्येव शब्दो दिवमिवास्पृशत् // 19 सर्वानेव समानीतांस्तानपश्यन्त ते नृपाः // 6 तेषामभ्यागतानां स राजा राजीवलोचनः। गाश्चैव महिषीश्चैव तथा वृद्धाः स्त्रियोऽपि च / व्यादिदेशान्नपानानि शय्याश्चाप्यतिमानुषाः॥२० औदकानि च सत्त्वानि श्वापदानि वयांसि च // वाहनानां च विविधाः शालाः शालीक्षुगोरसः। जरायुजान्यण्डजानि स्येदजान्युद्भिदानि च / उपेताः पुरुषव्याघ्र व्यादिदेश स धर्मराट् // 21 पर्वतानूपवन्यानि भूतानि ददृशुश्च ते // 8 तथा तस्मिन्महायज्ञे धर्मराजस्य धीमतः / एवं प्रमुदितं सर्व पशुगोधनधान्यतः / समाजग्मुर्मुनिगणा बहवो ब्रह्मवादिनः / / 22 यज्ञवाटं नृपा दृष्ट्वा परं विस्मयमागमन् / ये च द्विजातिप्रवरास्तत्रासन्पृथिवीपते / ब्राह्मणानां विशां चैव बहुमृष्टान्नमृद्धिमत् // 9 समाजग्मुः सशिष्यांस्तान्प्रतिजग्राह कौरवः // 23 पूर्णे शतसहस्रे तु विप्राणां तत्र भुञ्जताम् / सर्वांश्च ताननुययौ यावदावसथादिति / दुन्दुभिर्मेघनिर्घोषो मुहुर्मुहुरताड्यत // 10 स्वयमेव महातेजा दम्भं त्यक्त्वा युधिष्ठिरः // 24 विननादासकृत्सोऽथ दिवसे दिवसे तदा। ततः कृत्वा स्थपतयः शिल्पिनोऽन्ये च ये तदा / एवं स ववृते यज्ञो धर्मराजस्य धीमतः // 11 कृत्स्नं यज्ञविधिं राजन्धर्मराज्ञे न्यवेदयन् // 25 अन्नस्य बहवो राजन्नुत्सर्गाः पर्वतोपमाः / तच्छ्रुत्वा धर्मराजः स कृतं सर्वमनिन्दितम् / दधिकुल्याश्च ददृशुः सर्पिषश्च ह्रदाञ्जनाः // 12 हृष्टरूपोऽभवद्राजा सह भ्रातृभिरच्युतः // 26 जम्बूद्वीपो हि सकलो नानाजनपदायुतः / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि राजन्नदृश्यतैकस्थो राज्ञस्तस्मिन्महाक्रतौ // 13 षडशीतितमोऽध्यायः॥८६॥ तत्र जातिसहस्राणि पुरुषाणां ततस्ततः / 87 गृहीत्वा धनमाजग्मुर्बहूनि भरतर्षभ // 14 वैशंपायन उवाच / राजानः स्रग्विणश्चापि सुमृष्टमणिकुण्डलाः / तस्मिन्यज्ञे प्रवृत्ते तु वाग्मिनो हेतुवादिनः / पर्यवेषन्द्विजाग्र्यांस्ताञ्शतशोऽथ सहस्रशः // 15 हेतुवादान्बहून्प्राहुः परस्परजिगीषवः // 1 / विविधान्यन्नपानानि पुरुषा येऽनुयायिनः / -2846 Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 87. 16 ] आश्वमेधिकपर्व [ 14. 89. 4 तेषां नृपोपभोज्यानि ब्राह्मणेभ्यो ददुः स्म ते // 16 | प्रोवाचेदं वचो वाग्मी धर्मात्मानं युधिष्ठिरम् // 13 इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि इदमाह महाराज पार्थवाक्यं नरः स माम् / सप्ताशीतितमोऽध्यायः // 87 // वाच्यो युधिष्ठिरः कृष्ण काले वाक्यमिदं मम // आगमिष्यन्ति राजानः सर्वतः कौरवान्प्रति / वैशंपायन उवाच / तेषामेकैकशः पूजा कार्येत्येतत्क्षमं हि नः // 15 समागतान्वेदविदो राज्ञश्च पृथिवीश्वरान् / इत्येतद्वचनाद्राजा विज्ञाप्यो मम मानद / / दृष्ट्वा युधिष्ठिरो राजा भीमसेनमथाब्रवीत् // 1 न तदात्ययिकं हि स्याद्यानयने भवेत् // 16 उपयाता नरव्याघ्रा य इमे जगदीश्वरः। कर्तुमर्हति तद्राजा भवांश्चाप्यनुमन्यताम् / एतेषां क्रियतां पूजा पूजार्हा हि नरेश्वराः // 2 राजद्वेषाद्विनश्येयुर्नेमा राजन्प्रजाः पुनः // 17 इत्युक्तः स तथा चक्रे नरेन्द्रेण यशस्विना / इदमन्यच्च कौन्तेय वचः स पुरुषोऽब्रवीत् / भीमसेनो महातेजा यमाभ्यां सह भारत // 3 धनंजयस्य नृपते तन्मे निगदतः शृणु // 18 अथाभ्यगच्छद्गोविन्दो वृष्णिभिः सह धर्मजम् / उपयास्यति यज्ञं नो मणिपूरपतिर्नृपः / बलदेवं पुरस्कृत्य सर्वप्राणभृतां वरः // 4 पुत्रो मम महातेजा दयितो बभ्रुवाहनः // 19 युयुधानेन सहितः प्रद्युझेन गदेन च।। तं भवान्मदपेक्षाथं विधिवत्प्रतिपूजयेत् / निशठेनाथ साम्बेन तथैव कृतवर्मणा // 5 स हि भक्तोऽनुरक्तश्च मम नित्यमिति प्रभो // 20 तेषामपि परां पूजां चक्रे भीमो महाभुजः / इत्येतद्वचनं श्रुत्वा धर्मराजो युधिष्ठिरः / विविशुस्ते च वेश्मानि रत्नवन्ति नरर्षभाः // 6 अभिनन्द्यास्य तद्वाक्यमिदं वचनमब्रवीत् // 21 युधिष्ठिरसमीपे तु कथान्ते मधुसूदनः / / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अर्जनं कथयामास बहुसंग्रामकर्शितम् // 7 अष्टाशीतितमोऽध्यायः॥ 88 // स तं पप्रच्छ कौन्तेयः पुनः पुनररिंदमम् / धर्मराड् भ्रातरं जिष्णुं समाचष्ट जगत्पतिः // 8 युधिष्ठिर उवाच। आगमहारकावासी ममाप्तः पुरुषो नृप। श्रुतं प्रियमिदं कृष्ण यत्त्वमर्हसि भाषितुम् / योऽद्राक्षीत्पाण्डवश्रेष्ठं बहुसंग्रामकर्शितम् // 9 तन्मेऽमृतरसप्रख्यं मनो ह्रादयते विभो // 1 समीपे च महाबाहुमाचष्ट च मम प्रभो। बहूनि किल युद्धानि विजयस्य नराधिपः / कुरु कार्याणि कौन्तेय हयमेधार्थसिद्धये // 10 पुनरासन्हृषीकेश तत्र तत्रेति मे श्रुतम् / / 2 इत्युक्तः प्रत्युवाचैनं धर्मराजो युधिष्ठिरः / मन्निमित्तं हि स सदा पार्थः सुखविवर्जितः / दिष्ट्या स कुशली जिष्णुरुपयाति च माधव // 11 अतीव विजयो धीमानिति मे दूयते मनः // 3 तव यत्संदिदेशासौ पाण्डवानां बलाग्रणीः। संचिन्तयामि वार्ष्णेय सदा कुन्तीसुतं रहः / तदाख्यातुमिहेच्छामि भवता यदुनन्दन // 12 किं नु तस्य शरीरेऽस्ति सर्वलक्षणपूजिते / इत्युक्ते राजशार्दूल वृष्ण्यन्धकपतिस्तदा / अनिष्टं लक्षणं कृष्ण येन दुःखान्युपाश्नुते // 4 - 2847 - Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 89. 5] महाभारते [14. 90.5 अतीव दुःखभागी स सततं कुन्तिनन्दनः / ये व्यतीता महात्मानो राजानः सगरादयः / न च पश्यामि बीभत्सोर्निन्यं गात्रेषु किंचन // 5 तेषामपीदृशं कर्म न किंचिदनुशुश्रुम // 19 श्रोतव्यं चेन्मयैतद्वै तन्मे व्याख्यातुमर्हसि / नैतदन्ये करिष्यन्ति भविष्याः पृथिवीक्षितः / इत्युक्तः स हृषीकेशो ध्यात्वा सुमहदन्तरम् / यत्त्वं कुरुकुलश्रेष्ठ दुष्करं कृतवानिह // 20 राजानं भोजराजन्यवर्धनो विष्णुरब्रवीत् // 6 इत्येवं वदतां तेषां नृणां श्रुतिसुखा गिरः / न ह्यस्य नृपते किंचिदनिष्टमुपलक्षये / / शृण्वन्विवेश धर्मात्मा फल्गुनो यज्ञसंस्तरम् // 21 ऋते पुरुषसिंहस्य पिण्डिकेऽस्यातिकायतः // 7 ततो राजा सहामात्यः कृष्णश्च यदुनन्दनः / ताभ्यां स पुरुषव्याघ्रो नित्यमध्वसु युज्यते / धृतराष्ट्र पुरस्कृत्य ते तं प्रत्युद्ययुस्तदा // 22 न ह्यन्यदनुपश्यामि येनासौ दुःखभाग्जयः // 8 सोऽभिवाद्य पितुः पादौ धर्मराजस्य धीमतः / इत्युक्तः स कुरुश्रेष्ठस्तथ्यं कृष्णेन धीमता / भीमादींश्चापि संपूज्य पर्यष्वजत केशवम् // 23 प्रोवाच वृष्णिशार्दूलमेवमेतदिति प्रभो // 9 तैः समेत्यार्चितस्तान्स प्रत्यर्च्य च यथाविधि / कृष्णा तु द्रौपदी कृष्णं तिर्यक्सासूयमैक्षत / विशश्रामाथ धर्मात्मा तीरं लब्ध्वेव पारगः // 21 प्रतिजग्राह तस्यास्तं प्रणयं चापि केशिहा। एतस्मिन्नेव काले तु स राजा बभ्रुवाहनः / सख्युः सखा हृषीकेशः साक्षादिव धनंजयः॥ 10 मातृभ्यां सहितो धीमान्कुरूनभ्याजगाम ह // 25 तत्र भीमादयस्ते तु कुरवो यादवास्तथा। स समेत्य कुरून्सर्वान्सर्वैस्तैरभिनन्दितः / / रेमुः श्रुत्वा विचित्रार्था धनंजयकथा विभो // 11 / प्रविवेश पितामह्याः कुन्त्या भवनमुत्तमम् // 26 तथा कथयतामेव तेषामर्जुनसंकथाः / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि उपायाद्वचनान्मयो विजयस्य महात्मनः // 12 एकोननवतितमोऽध्यायः // 89 // सोऽभिगम्य कुरुश्रेष्ठं नमस्कृत्य च बुद्धिमान् / उपायातं नरव्याघ्रमर्जुनं प्रत्यवेदयत् // 13 वैशंपायन उवाच / तच्छ्रुत्वा नृपतिस्तस्य हर्षबाष्पाकुलेक्षणः / स प्रविश्य यथान्यायं पाण्डवानां निवेशनम् / प्रियाख्याननिमित्तं वै ददौ बहु धनं तदा // 14 / पितामहीमभ्यवदत्साम्ना परमवल्गुना // 1 ततो द्वितीये दिवसे महाशब्दो व्यवर्धत / तथा चित्राङ्गदा देवी कौरव्यस्यात्मजापि च / आयाति पुरुषव्याने पाण्डवानां धुरंधरे // 15 / पृथां कृष्णां च सहिते विनयेनाभिजग्मतुः / / ततो रेणुः समुद्भूतो विबभौ तस्य वाजिनः / सुभद्रां च यथान्यायं याश्चान्याः कुरुयोषितः॥२ अभितो वर्तमानस्य यथोच्चैःश्रवसस्तथा // 16 ददी कुन्ती ततस्ताभ्यां रत्नानि विविधानि च। तत्र हर्षकला वाचो नराणां शुश्रुवेऽर्जुनः / द्रौपदी च सुभद्रा च याश्चाप्यन्या ददुः स्त्रियः / दिष्ट्यासि पार्थ कुशली धन्यो राजा युधिष्ठिरः // ऊपतुस्तत्र ते देव्यौ महार्हशयनासने / कोऽन्यो हि पृथिवीं कृत्स्नामवजित्य सपार्थिवाम् / / सुपूजिते स्वयं कुन्त्या पार्थस्य प्रियकाम्यया // 4 चारयित्वा हयश्रेष्ठमुपायायाहतेऽर्जुनम् // 18 / स च राजा महावीर्यः पूजितो बभ्रुवाहनः / - 2848 - Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 90. 5] आश्वमेधिकपर्व [14. 90. 34 धृतराष्ट्र महीपालमुपतस्थे यथाविधि // 5 कृत्वा प्रवयं धर्मज्ञा यथावद्विजसत्तमाः / युधिष्ठिरं च राजानं भीमादींश्चापि पाण्डवान् / चक्रुस्ते विधिवद्राजंस्तथैवाभिषवं द्विजाः // 20 उपगम्य महातेजा विनयेनाभ्यवादयत् // 6 अभिषूय ततो राजन्सोमं सोमपसत्तमाः।। स तैः प्रेम्णा परिष्वक्तः पूजितश्च यथाविधि / सवनान्यानुपर्येण चक्रुः शास्त्रानुसारिणः // 21 धनं चास्मै ददुर्भूरि प्रीयमाणा महारथाः // 7 न तत्र कृपणः कश्चिन्न दरिद्रो बभूव ह / तथैव स महीपालः कृष्णं चक्रगदाधरम् / क्षुधितो दुःखितो वापि प्राकृतो वापि मानवः॥२२ प्रद्यम्न इव गोविन्दं विनयेनोपतस्थिवान् // 8 भोजनं भोजनार्थिभ्यो दापयामास नित्यदा। तस्मै कृष्णो ददौ राज्ञे महार्हमभिपूजितम् / भीमसेनो महातेजाः सततं राजशासनात् // 23 रथं हेमपरिष्कारं दिव्याश्वयुजमुत्तमम् // 9 संस्तरे कुशलाश्चापि सर्वकर्माणि याजकाः / धर्मराजश्च भीमश्च यमजौ फल्गुनस्तथा / दिवसे दिवसे चक्रुर्यथाशास्त्रार्थचक्षुषः // 24 पृथक्पृथगतीवैनं मानार्ह समपूजयन् // 10 नाषडङ्गविदत्रासीत्सदस्यस्तस्य धीमतः / ततस्तृतीये दिवसे सत्यवत्याः सुतो मुनिः / नाव्रतो नानुपाध्यायो न च वादाक्षमो द्विजः॥२५ युधिष्ठिरं समभ्येत्य वाग्मी वचनमब्रवीत् // 11 ततो यूपोच्छ्रये प्राप्ते षडैल्वान्भरतर्षभ / अद्य प्रभृति कौन्तेय यजस्व समयो हि ते। खादिरान्बिल्वसमितांस्तावतः सर्ववर्णिनः // 26 मुहूर्तो यज्ञियः प्राप्तश्चोदयन्ति च याजकाः // 12 देवदारुमयौ द्वौ तु यूपौ कुरुपतेः क्रतौ / अहीनो नाम राजेन्द्र क्रतुस्तेऽयं विकल्पवान् / श्लेष्मातकमयं चैकं याजकाः समकारयन् // 27 बहुत्वात्काञ्चनस्यास्य ख्यातो बहुसुवर्णकः // 13 शोभार्थं चापरान्यूपान्काश्चनान्पुरुषर्षभ / एवमेव महाराज दक्षिणां त्रिगुणां कुरु / स भीमः कारयामास धर्मराजस्य शासनात् // 28 त्रित्वं व्रजतु ते राजन्ब्राह्मणा ह्यत्र कारणम् / / 14 ते व्यराजन्त राजर्षे वासोभिरुपशोभिताः / त्रीनश्वमेधानत्र त्वं संप्राप्य बहुदक्षिणान् / नरेन्द्राभिगता देवान्यथा सप्तर्षयो दिवि // 29 ज्ञातिवध्याकृतं पापं प्रहास्यसि नराधिप / / 15 इष्टकाः काञ्चनीश्चात्र चयनाथं कृताभवन् / पवित्रं परमं ह्येतत्पावनानां च पावनम् / शुशुभे चयनं तत्र दक्षस्येव प्रजापतेः // 30 यदश्वमेधावभृथं प्राप्स्यसे कुरुनन्दन // 16 चतुश्चित्यः स तस्यासीदष्टादशकरात्मकः / इत्युक्तः स तु तेजस्वी व्यासेनामिततेजसा / स रुक्मपक्षो निचितत्रिगुणो गरुडाकृतिः // 31 दीक्षां विवेश धर्मात्मा वाजिमेधाप्तये तदा। ततो नियुक्ताः पशवो यथाशास्त्रं मनीषिभिः / नराधिपः प्रायजत वाजिमेधं महाक्रतुम् // 17 तं तं देवं समुद्दिश्य पक्षिणः पशवश्च ये // 32 तत्र वेदविदो राजंश्चक्रुः कर्माणि याजकाः।। ऋषभाः शास्त्रपठितास्तथा जलचराश्च ये। परिक्रमन्तः शास्त्रज्ञा विधिवत्साधुशिक्षिताः // 18 सर्वांस्तानभ्ययुञ्जस्ते तत्राग्निचयकर्मणि / / 33 न तेषां स्खलितं तत्र नासीदपहुतं तथा / यूपेषु नियतं चासीत्पशूनां त्रिशतं तथा। क्रमयुक्तं च युक्तं च चक्रुस्तत्र द्विजर्षभाः // 19 / अश्वरत्नोत्तरं राज्ञः कौन्तेयस्य महात्मनः // 34 म. भा. 355 -2849 - Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 90. 35] महाभारते [ 14. 91. 28 91 स यज्ञः शुशुभे तस्य साक्षाद्देवर्षिसंकलः / अब्रवीद्भरतश्रेष्ठं धर्मात्मानं युधिष्ठिरम् // 8 गन्धर्वगणसंकीर्णः शोभितोऽप्सरसां गणैः // 35 पृथिवी भवतस्त्वेषा संन्यस्ता राजसत्तम / स किंपुरुषगीतैश्च किंनरैरुपशोभितः / निष्क्रयो दीयतां मह्यं ब्राह्मणा हि धनार्थिनः॥९ सिद्धविप्रनिवासैश्च समन्तादभिसंवृतः // 36 / युधिष्ठिरस्तु तान्विप्रान्प्रत्युवाच महामनाः। . तस्मिन्सदसि नित्यास्तु व्यासशिष्या द्विजोत्तमाः / भ्रातृभिः सहितो धीमान्मध्ये राज्ञां महात्मनाम् // सर्वशासप्रणेतारः कुशला यज्ञकर्मसु // 37 अश्वमेधे महायज्ञे पृथिवी दक्षिणा स्मृता / नारदश्च बभूवात्र तुम्बुरुश्च महाद्युतिः / अर्जुनेन जिता सेयमृत्विग्भ्यः प्रापिता मया // 11 विश्वावसुश्चित्रसेनस्तथान्ये गीतकोविदाः // 38 वनं प्रवेक्ष्ये विप्रेन्द्रा विभजध्वं महीमिमाम् / गन्धर्वा गीतकुशला नृत्तेषु च विशारदाः। चतुर्धा पृथिवीं कृत्वा चातुर्होत्रप्रमाणतः // 12 रमयन्ति स्म तान्विप्रान्यज्ञकर्मान्तरेष्वथ // 39 नाहमादातुमिच्छामि ब्रह्मस्वं मुनिसत्तमाः / इति श्रीमहाभारते भाश्वमेधिकपर्वणि इदं हि मे मतं नित्यं भ्रातॄणां च ममानघाः॥१३ नवतितमोऽध्यायः // 9 // इत्युक्तवति तस्मिंस्ते भ्रातरो द्रौपदी च सा। एवमेतदिति प्राहुस्तभूद्रोमहर्षणम् // 14 वैशंपायन उवाच / ततोऽन्तरिक्षे वागासीत्साधु साध्विति भारत। शमयित्वा पशूनन्यान्विधिवहिजसत्तमाः। तथैव द्विजसंघानां शंसतां विबभौ स्वनः // 15 तुरगं तं यथाशास्त्रमालभन्त द्विजातयः // 1 द्वैपायनस्तथोक्तस्तु पुनरेव युधिष्ठिरम् / ततः संज्ञाप्य तुरगं विधिवद्याजकर्षभाः। उवाच मध्ये विप्राणामिदं संपूजयन्मुनिः // 16 उपसंवेशयन्राजंस्ततस्तां द्रुपदात्मजाम् / दत्तैषा भवता मह्यं तां ते प्रतिददाम्यहम् / कलाभिस्तिसभी राजन्यथाविधि मनस्विनीम् // 2 हिरण्यं दीयतामेभ्यो द्विजातिभ्यो धरास्तु ते // 17 उद्धृत्य तु वपां तस्य यथाशास्त्रं द्विजर्षभाः / ततोऽब्रवीद्वासुदेवो धर्मराज युधिष्ठिरम् / अपयामासुरव्यग्राः शास्त्रवद्भरतर्षभ // 3 . यथाह भगवान्व्यासस्तथा तत्कर्तुमर्हसि // 18 तं वपाधूमगन्धं तु धर्मराजः सहानुजः / इत्युक्तः स कुरुश्रेष्ठः प्रीतात्मा भ्रातृभिः सह / उपाजिघ्रद्यथान्यायं सर्वपाप्मापहं तदा // 4 कोटिकोटिकृतां प्रादादक्षिणां त्रिगुणां सोः // 19 शिष्टान्यङ्गानि यान्यासंस्तस्याश्वस्य नराधिप / न करिष्यति तल्लोके कश्चिदन्यो नराधिपः / तान्यग्नौ जुहुवु/राः समस्ताः षोडशर्विजः॥ 5 यत्कृतं कुरुसिंहेन मरुत्तस्यानुकुर्वता // 20 संस्थाप्यैवं तस्य राज्ञस्तं ऋतुं शक्रतेजसः / प्रतिगृह्य तु तद्रव्यं कृष्णद्वैपायनः प्रभुः / व्यासः सशिष्यो भगवान्वर्धयामास तं नृपम् // 6 ऋत्विग्भ्यः प्रददौ विद्वांश्चतुर्धा व्यभजंश्च ते॥२१ ततो युधिष्ठिरः प्रादात्सदस्येभ्यो यथाविधि / / पृथिव्या निष्क्रयं दत्त्वा तद्धिरण्यं युधिष्ठिरः / कोटीसहस्रं निष्काणां व्यासाय तु वसुंधराम् // 7 धूतपाप्मा जितस्वर्गो मुमुदे भ्रातृभिः सह // 22 प्रतिगृह्य धरां राजन्व्यासः सत्यवतीसुतः / ऋत्विजस्तमपर्यन्तं सुवर्णनिचयं तदा / -2850 - Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 91. 23 ] आश्वमेधिकपर्व [14. 92.7 व्यभजन्त द्विजातिभ्यो यथोत्साहं यथाबलम् // 23 रसालाकर्दमाः कुल्या बभूवुर्भरतर्षभ // 30 यज्ञवाटे तु यत्किचिद्धिरण्यमपि भूषणम् / भक्ष्यषाण्डवरागाणां क्रियतां भुज्यतामिति / तोरणानि च यूपांश्च घटाः पात्रीस्तथेष्टकाः / / पशूनां वध्यतां चापि नान्तस्तत्र स्म दृश्यते // 38 युधिष्ठिराभ्यनुज्ञाताः सर्व तद्व्यभजन्द्विजाः // 24 / / मत्तोन्मत्तप्रमुदितं प्रगीतयवतीजनम / अनन्तरं ब्राह्मणेभ्यः क्षत्रिया जहिरे वसु / मृदङ्गशङ्खशब्दैश्च मनोरममभूत्तदा // 39 तथा विट्शूद्रसंघाश्च तथान्ये म्लेच्छजातयः / दीयतां भुज्यतां चेति दिवारात्रमवारितम् / कालेन महता जहुस्तत्सुवर्ण ततस्ततः // 25 तं महोत्सवसंकाशमतिहृष्टजनाकुलम् / ततस्ते ब्राह्मणाः सर्वे मुदिता जग्मुरालयान् / कथयन्ति स्म पुरुषा नानादेशनिवासिनः // 40 तर्पिता वसुना तेन धर्मराज्ञा महात्मना // 26 वर्षित्वा धनधाराभिः कामै रत्नैर्धनैस्तथा / स्वमंशं भगवान्व्यासः कुन्त्यै पादाभिवादनात् / विपाप्मा भरतश्रेष्ठः कृतार्थः प्राविशत्पुरम् // 41 प्रददौ तस्य महतो हिरण्यस्य महाद्युतिः // 27 इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि श्वशुरात्प्रीतिदायं तं प्राप्य सा प्रीतमानसा / एकनवतितमोऽध्यायः // 11 // घकार पुण्यं लोके तु सुमहान्तं पृथा तदा // 28 92 गत्वा त्ववभृथं राजा विपाप्मा भ्रातृभिः सह / जनमेजय उवाच / सभाज्यमानः शुशुभे महेन्द्रो दैवतैरिव / / 29 पाण्डवाश्च महीपालैः समेतैः संवृतास्तदा / पितामहस्य मे यज्ञे धर्मपुत्रस्य धीमतः / अशोभन्त महाराज ग्रहास्तारागणैरिव // 30 यदाश्चर्यमभूत्किचित्तद्भवान्वक्तुमर्हति // 1 राजभ्योऽपि ततः प्रादाद्रत्नानि विविधानि च / - वैशंपायन उवाच / गजानश्वानलंकारान्त्रियो वस्त्राणि काश्चनम् / / 31 श्रूयतां राजशार्दूल महदाश्चर्यमुत्तमम् / तद्धनौघमपर्यन्तं पार्थः पार्थिवमण्डले। अश्वमेधे महायज्ञे निवृत्ते यदभूद्विभो // 2 विसृजशुशुभे राजा यथा वैश्रवणस्तथा // 32 तर्पितेषु द्विजाग्र्येषु ज्ञातिसंबन्धिबन्धुषु। आनाय्य च तथा वीरं राजानं बभ्रुवाहनम् / दीनान्धकृपणे चापि तदा भरतसत्तम // 3 प्रदाय विपुलं वित्तं गृहान्प्रास्थापयत्तदा // 33 घुष्यमाणे महादाने दिक्षु सर्वासु भारत / दुःशलायाश्च तं पौत्रं बालकं पार्थिवर्षभ / पतत्सु पुष्पवर्षेषु धर्मराजस्य मूर्धनि // 4 स्वराज्ये पितृभिर्गुप्ते प्रीत्या समभिषेचयत् // 34 बिलान्निष्क्रम्य नकुलो रुक्मपार्श्वस्तदानघ / राज्ञश्चैवापि तान्सर्वान्सुविभक्तान्सुपूजितान् / वज्राशनिसमं नादममुश्चत विशां पते // 5 प्रस्थापयामास वशी कुरुराजो युधिष्ठिरः // 35 सकृदुत्सृज्य तं नादं त्रासयानो मृगद्विजान् / एवं बभूव यज्ञः स धर्मराजस्य धीमतः / मानुषं वचनं प्राह धृष्टो बिलशयो महान् // 6 बन्नधनरत्नौघः सुरामैरेयसागरः // 36 | सक्तुप्रस्थेन वो नायं यज्ञस्तुल्यो नराधिपाः / सर्पिःपका ह्रदा यत्र बहवश्चान्नपर्वताः / उच्छवृत्तेर्वदान्यस्य कुरुक्षेत्रनिवासिनः / / 7 -2851 - Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 92.8] महाभारते [14. 93. 11 तस्य तद्वचनं श्रुत्वा नकुलस्य विशां पते। यथा चाधं शरीरस्य ममेदं काश्चनीकृतम् // 22 विस्मयं परमं जग्मुः सर्वे ते ब्राह्मणर्षभाः // 8 / इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि ततः समेत्य नकुलं पर्यपृच्छन्त ते द्विजाः / द्विनवतितमोऽध्यायः॥ 92 // कुतस्त्वं समनुप्राप्तो यज्ञं साधुसमागमम् // 9 93 किं बलं परमं तुभ्यं किं श्रुतं किं परायणम् / नकुल उवाच / कथं भवन्तं विद्याम यो नो यज्ञं विगर्हसे // 10 / हन्त वो वर्तयिष्यामि दानस्य परमं फलम् / अविलुप्यागमं कृत्स्नं विधिज्ञैर्याजकैः कृतम् / न्यायलब्धस्य सूक्ष्मस्य विप्रदत्तस्य यहिजाः // 1 यथागमं यथान्यायं कर्तव्यं च यथाकृतम् / / 11 धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे धर्म बहुभिर्वृते / पूजार्हाः पूजिताश्चात्र विधिवच्छात्रचक्षुषा / उच्छवृत्तिर्द्विजः कश्चित्कापोतिरभवत्पुरा // 2 मन्त्रपूतं हुतश्चाग्निदत्तं देयममत्सरम् // 12 सभार्यः सह पुत्रेण सस्नुषस्तपसि स्थितः / तुष्टा द्विजर्षभाश्चात्र दानैर्बहुविधैरपि / वधूचतुर्थो वृद्धः स धर्मात्मा नियतेन्द्रियः // 3 क्षत्रियाश्च सुयुद्धेन श्राद्धैरपि पितामहाः // 13 षष्ठे काले तदा विप्रो भुङ्क्ते तैः सह सुव्रतः / पालनेन विशस्तुष्टाः कामैस्तुष्टा वरस्त्रियः / षष्ठे काले कदाचिच्च तस्याहारो न विद्यते / अनुक्रोशैस्तथा शूद्रा दानशेषैः पृथग्जनाः // 14 भुतऽन्यस्मिन्कदाचित्स षष्ठे काले द्विजोत्तमः // ज्ञातिसंबन्धिनस्तुष्टाः शौचेन च नृपस्य नः।। कपोतधर्मिणस्तस्य दुर्भिक्षे सतिं दारुणे। देवा हविभिः पुण्यैश्च रक्षणैः शरणागताः // 15 नाविद्यत तदा विप्राः संचयस्तान्निबोधत / यदत्र तथ्यं तद्भहि सत्यसंध द्विजातिषु। . क्षीणौषधिसमावायो द्रव्यहीनोऽभवत्तदा // 5 यथाश्रुतं यथादृष्टं पृष्टो ब्राह्मणकाम्यया // 16 काले कालेऽस्य संप्राप्ते नैव विद्यत भोजनम् / श्रद्धेयवाक्यः प्राज्ञस्त्वं दिव्यं रूपं बिभर्षि च / क्षुधापरिगताः सर्वे प्रातिष्ठन्त तदा तु ते // 6 समागतश्च विप्रैस्त्वं तत्त्वतो वक्तुमर्हसि // 17 उञ्छंस्तदा शुक्लपक्षे मध्यं तपति भास्करे / इति पृष्टो द्विजैस्तैः स प्रहस्य नकुलोऽब्रवीत् / उष्णार्तश्च क्षुधार्तश्च सविप्रस्तपसि स्थितः / नैषानृता मया वाणी प्रोक्ता दर्पण वा द्विजाः। उञ्छमप्राप्तवानेव साधं परिजनेन ह // 7 यन्मयोक्तमिदं किंचिद्युष्माभिश्चाप्युपश्रुतम् / स तथैव क्षुधाविष्टः स्पृष्ट्वा तोयं यथाविधि / सक्तुप्रस्थेन वो नायं यज्ञस्तुल्यो नराधिपाः / क्षपयामास तं कालं कृच्छ्रप्राणो द्विजोत्तमः // 8 उञ्छवृत्तेर्वदान्यस्य कुरुक्षेत्रनिवासिनः // 19 अथ षष्ठे गते काले यवप्रस्थमुपार्जयत् / इत्यवश्यं मयैतद्वो वक्तव्यं द्विजपुंगवाः। यवप्रस्थं च ते सक्तूनकुर्वन्त तपस्विनः // 9 शृणुताव्यग्रमनसः शंसतो ये द्विजर्षभाः // 20 कृतजप्याहिकास्ते तु हुत्वा वह्निं यथाविधि / अनुभूतं च दृष्टं च यन्मयाद्भुतमुत्तमम् / कुडवं कुडवं सर्वे व्यभजन्त तपस्विनः // 10 उञ्छवृत्तेर्यथावृत्तं कुरुक्षेत्रनिवासिनः // 21 अथागच्छहिजः कश्चिदतिथिर्भुञ्जतां तदा / स्वगं येन द्विजः प्राप्तः सभार्यः ससुतस्नुषः / ते तं दृष्ट्वातिथि तत्र प्रहृष्टमनसोऽभवन् // 11 - 2852 - Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 93. 12] आश्वमेधिकपर्व [14. 93. 38 तेऽभिवाद्य सुखप्रश्नं पृष्ट्वा तमतिथिं तदा।। पुत्रप्रदानाद्वरदस्तस्मात्सक्तन्गृहाण मे // 26 विशुद्धमनसो दान्ताः श्रद्धादमसमन्विताः // 12 जरापरिगतो वृद्धः क्षुधार्तो दुर्बलो भृशम् / अनसूयवो गतक्रोधाः साधवो गतमत्सराः / उपवासपरिश्रान्तो यदा त्वमपि कर्शितः // 27 त्यक्तमाना जितक्रोधा धर्मज्ञा द्विजसत्तमाः // 13 इत्युक्तः स तया सक्तून्प्रगृह्येदं वचोऽब्रवीत् / सब्रह्मचर्य स्वं गोत्रं समाख्याय परस्परम् / द्विज सक्तनिमान्भूयः प्रतिगृह्णीष्व सत्तम / / 28 कुटी प्रवेशयामासुः क्षुधार्तमतिथिं तदा // 14 स तान्प्रगृह्य भुक्त्वा च न तुष्टिमगमहिजः। इदमध्यं च पाद्यं च बृसी चेयं तवानघ।। समुञ्छवृत्तिरालक्ष्य ततश्चिन्तापरोऽभवत् // 29 शुचयः सक्तवश्वेमे नियमोपार्जिताः प्रभो। पुत्र उवाच। प्रतिगृह्णीष्व भद्रं ते मया दत्ता द्विजोत्तम // 15 सक्तनिमान्प्रगृह्य त्वं देहि विप्राय सत्तम / इत्युक्तः प्रतिगृह्याथ सक्तनां कुडवं द्विजः। इत्येवं सुकृतं मन्ये तस्मादेतकरोम्यहम् // 30 भक्षयामास राजेन्द्र न च तुष्टिं जगाम सः // 16 भवान्हि परिपाल्यो मे सर्वयलैर्द्विजोत्तम / स उञ्छवृत्तिः तं प्रेक्ष्य क्षुधापरिगतं द्विजम् / साधूनां काङ्कितं ह्येतत्पितुर्वृद्धस्य पोषणम् // 31 आहारं चिन्तयामास कथं तुष्टो भवेदिति // 17 पुत्रार्थो विहितो ह्येष स्थाविर्ये परिपालनम् / तस्य भार्याब्रवीद्राजन्मद्भागो दीयतामिति / श्रुतिरेषा हि विप्रर्षे त्रिषु लोकेषु विश्रुता // 32 गच्छत्वेष यथाकामं संतुष्टो द्विजसत्तमः॥ 18 प्राणधारणमात्रेण शक्यं कर्तुं तपस्त्वया / इति ब्रुवन्तीं तां साध्वीं धर्मात्मा स द्विजर्षभः / प्राणो हि परमो धर्मः स्थितो देहेषु देहिनाम् // 33 क्षुधापरिगतां ज्ञात्वा सक्तंस्तान्नाभ्यनन्दत // 19 पितोवाच / जानन्वृद्धां क्षुधाता च श्रान्तां ग्लानां तपस्विनीम् / त्वगस्थिभूतां वेपन्ती ततो भार्यामुवाच ताम् // 20 अपि वर्षसहस्री त्वं बाल एव मतो मम / अपि कीटपतंगानां मृगाणां चैव शोभने / उत्पाद्य पुत्रं हि पिता कृतकृत्यो भवत्युत // 34 स्त्रियो रक्ष्याश्च पोष्याश्च नैवं त्वं वक्तुमर्हसि॥२१ बालानां क्षुदलवती जानाम्येतदहं विभो / अनुकम्पितो नरो नार्या पुष्टो रक्षित एव च। वृद्धोऽहं धारयिष्यामि त्वं बली भव पुत्रक // 35 प्रपतेद्यशसो दीप्तान च लोकानवाप्नुयात् // 22 जीर्णेन वयसा पुत्र न मा क्षुद्वाधतेऽपि च / दीर्घकालं तपस्तप्तं न मे मरणतो भयम् // 36 इत्युक्ता सा ततः प्राह धर्मार्थो नौ समौ द्विज / सक्तुप्रस्थचतुर्भागं गृहाणेमं प्रसीद मे // 23 पुत्र उवाच / सत्यं रतिश्च धर्मश्च स्वर्गश्च गुणनिर्जितः / अपत्यमस्मि ते पुत्रत्राणात्पुत्रो हि विश्रुतः / स्त्रीणां पतिसमाधीनं काशितं च द्विजोत्तम // 24 आत्मा पुत्रः स्मृतस्तस्मात्राह्यात्मानमिहात्मना // 37 ऋतुर्मातुः पितुर्बीजं दैवतं परमं पतिः / पितोवाच / भर्तुः प्रसादात्स्त्रीणां वै रतिः पुत्रफलं तथा // 25 / रूपेण सदृशस्त्वं मे शीलेन च दमेन च / पालनाद्धि पतिस्त्वं मे भर्तासि भरणान्मम / / परीक्षितश्च बहुधा सक्तूनादमि ते ततः // 38 -2853 - Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 93. 39 ] महाभारते [14. 93.67 इत्युक्त्वादाय तान्सक्तून्प्रीतात्मा द्विजसत्तमः / श्वशुर उवाच / प्रहसन्निव विप्राय स तस्मै प्रददौ तदा // 39 अनेन नित्यं साध्वी त्वं शीलवृत्तेन शोभसे / भुक्त्वा तानपि सक्तन्स नैव तुष्टो बभूव ह। या त्वं धर्मव्रतोपेता गुरुवृत्तिमवेक्षसे // 53 उन्छवृत्तिस्तु सवीडो बभूव द्विजसत्तमः // 40 तस्मात्सक्तून्प्रहीष्यामि वधूर्नाईसि वश्वनाम् / तं वै वधूः स्थिता साध्वी ब्राह्मणप्रियकाम्यया। गणयित्वा महाभागे त्वं हि धर्मभृतां वरा // 54 सक्तूनादाय संहृष्टा गुरुं तं वाक्यमब्रवीत् // 41 इत्युक्त्वा तानुपादाय सतन्प्रादारिजातये / संतानात्तव संतानं मम विप्र भविष्यति / ततस्तुष्टोऽभवद्विप्रस्तस्य साधोर्महात्मनः // 55 सक्तनिमानतिथये गृहीत्वा त्वं प्रयच्छ मे // 42 प्रीतात्मा स तु तं वाक्यमिदमाह द्विजर्षभम् / तव प्रसवनिर्वृत्या मम लोकाः किलाक्षयाः।। वाग्मी तदा द्विजश्रेष्ठो धर्मः पुरुषविप्रहः // 56 पौत्रेण तानवाप्नोति यत्र गत्वा न शोचति // 45 शुद्धेन तव दानेन न्यायोपात्तन यत्नतः / धर्माद्या हि यथा त्रेता वह्नित्रेता तथैव च। यथाशक्ति विमुक्तेन प्रीतोऽस्मि द्विजसत्तम // 57 तथैव पुत्रपौत्राणां स्वर्गे त्रेता किलाक्षया // 44 अहो दानं घुष्यते ते स्वर्गे स्वर्गनिवासिभिः। पितॄत्राणात्तारयति पुत्र इत्यनुशुश्रुम / गगनात्पुष्पवर्ष च पश्यस्व पतितं भुवि / / 58 पुत्रपौत्रैश्च नियतं साधुलोकानुपाभुते // 45 सुरर्षिदेवगन्धर्वा ये च देवपुरःसराः / श्वशुर उवाच / स्तुवन्तो देवदूताश्च स्थिता दानेन विस्मिताः // 59 वातातपविशीर्णाङ्गीं त्वां विवर्णा निरीक्ष्य वै / ब्रह्मर्षयो विमानस्था ब्रह्मलोकगताश्च ये। कर्शितां सुव्रताचारे क्षुधाविह्वलचेतसम् // 46 काङ्क्षन्ते दर्शनं तुभ्यं दिवं गच्छ द्विजर्षभ // 60 कथं सक्तून्प्रहीष्यामि भूत्वा धर्मोपघातकः / पितृलोकगताः सर्वे तारिताः पितरस्त्वया / कल्याणवृत्ते कल्याणि नैवं त्वं वक्तुमर्हसि // 47 अनागताश्च बहवः सुबहूनि युगानि च // 61 षष्ठे काले व्रतवतीं शीलशौचसमन्विताम् / ब्रह्मचर्येण यज्ञेन दानेन तपसा तथा / कृच्छ्रवृत्तिं निराहारां द्रक्ष्यामि त्वां कथं न्वहम् // अगह्वरेण धर्मेण तस्माद्गच्छ दिवं द्विज / / 62 बाला क्षुधार्ता नारी च रक्ष्या त्वं सततं मया / श्रद्धया परया यस्त्वं तपश्चरसि सुव्रत / उपवासपरिश्रान्ता त्वं हि बान्धवनन्दिनी // 49 तस्माद्देवास्तवानेन प्रीता द्विजवरोत्तम // 63 स्नुषोवाच / सर्वस्वमेतद्यस्मात्ते त्यक्तं शुद्धेन चेतसा / गुरोर्मम गुरुस्त्वं वै यतो दैवतदैवतम् / कृच्छ्रकाले ततः स्वर्गो जितोऽयं तव कर्मणा // 64 देवातिदेवस्तस्मात्त्वं सक्तनादस्व मे विभो // 50 क्षुधा निर्गुदति प्रज्ञा धम्या बुद्धिं व्यपोहति / देहः प्राणश्च धर्मश्च शुश्रूषार्थमिदं गुरोः / / क्षुधापरिगतज्ञानो धृतिं त्यजति चैव ह // 65 तव विप्र प्रसादेन लोकान्प्राप्स्याम्यभीप्सितान् // बुभुक्षां जयते यस्तु स स्वगं जयते ध्रुवम् / अवेक्ष्या इति कृत्वा त्वं दृढभक्त्येति वा द्विज। | यदा दानरुचिर्भवति तदा धर्मो न सीदति // 66 चिन्त्या ममेयमिति वा सक्तूनादातुमर्हसि // 52 / अनवेक्ष्य सुतस्नेहं कलत्रस्नेहमेव च / - 2854 - Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 93. 67 ] आश्वमेधिकपर्व [ 14. 93. 98 धर्ममेव गुरुं ज्ञात्वा तृष्णा न गणिता त्वया // 67 / सभार्यः ससुतश्चापि सस्नुषश्च दिवं ययौ // 82 द्रव्यागमो नृणां सूक्ष्मः पात्रे दानं ततः परम् / / तस्मिन्विप्रे गते स्वर्ग ससुते सस्नुषे तदा। कालः परतरो दानाच्छ्रद्धा चापि ततः परा // 68 भार्याचतुर्थे धर्मज्ञे ततोऽहं निःसतो बिलात् // 83 स्वर्गद्वारं सुसूक्ष्मं हि नरैर्मोहान्न दृश्यते / ततस्तु सक्नुगन्धेन छेदेन सलिलस्य च / स्वर्गार्गलं लोभबीजं रागगुप्तं दुरासदम् // 69 / दिव्यपुष्पावमच साधोनिलवैश्च तैः / तत्तु पश्यन्ति पुरुषा जितक्रोधा जितेन्द्रियाः / विप्रस्य तपसा तस्य शिरो मे काश्चनीकृतम् // 84 ब्राह्मणास्तपसा युक्ता यथाशक्तिप्रदायिनः // 70. तस्य सत्याभिसंधस्य सूक्ष्मदानेन चैव ह / सहस्रशक्तिश्च शतं शतशक्तिर्दशापि च / शरीराधं च मे विप्राः शातकुम्भमयं कृतम् / दयादपश्च यः शक्त्या सर्वे तुल्यफलाः स्मृताः॥ पश्यतेदं सुविपुलं तपसा तस्य धीमतः // 85 रन्तिदेवो हि नृपतिरपः प्रादादकिंचनः / कथमेवंविधं मे स्यादन्यत्पार्श्वमिति द्विजाः / शुद्धेन मनसा विप्र नाकपृष्ठं ततो गतः // 72 तपोवनानि यज्ञांश्च दृष्टोऽभ्येमि पुनः पुनः // 86 न धर्मः प्रीयते तात दानैर्दत्तैर्महाफलैः / यहं त्वहमिमं श्रुत्वा कुरुराजस्य धीमतः / न्यायलब्धैर्यथा सूक्ष्मैः श्रद्धापूतैः स तुष्यति // 73 / आशया परया प्राप्तो न चाहं काञ्चनीकृतः॥ 87 गोप्रदानसहस्राणि द्विजेभ्योऽदान्मृगो नृपः। ततो मयोक्तं तद्वाक्यं प्रहस्य द्विजसत्तमाः / एकां दत्त्वा स पारक्यां नरकं समवाप्तवान् // 74 सक्नुप्रस्थेन यज्ञोऽयं संमितो नेति सर्वथा // 88 भात्ममांसप्रदानेन शिविरौशीनरो नृपः / सक्नुप्रस्थलवैस्तैर्हि तदाहं काश्चनीकृतः / प्राप्य पुण्यकताल्लोकान्मोदते दिवि सुव्रतः // 75 न हि यज्ञो महानेष सरशस्तैर्मतो मम // 89 विभवे न नृणां पुण्यं स्वशक्त्या स्वर्जितं सताम् / वैशंपायन उवाच / न यज्ञैर्विविधैर्विप्र यथान्यायेन संचितैः // 76 . इत्युक्त्वा नकुलः सर्वान्यज्ञे द्विजवरांस्तदा / क्रोधो दानफलं हन्ति लोभात्स्वर्ग न गच्छति। जगामादर्शनं राजन्विप्रास्ते च ययुर्गृहान् // 90 न्यायवृत्तिर्हि तपसा दानवित्स्वर्गमभुते // 77 एतत्ते सर्वमाख्यातं मया परपुरंजय / न राजसूयैर्बहुभिरिष्ट्वा विपुलदक्षिणैः। यदाश्चर्यमभूत्तस्मिन्वाजिमेधे महाक्रती // 91 न घाश्वमेधैर्बहुभिः फलं सममिदं तव // 78 / न विस्मयस्ते नृपते यज्ञे कार्यः कथंचन। सक्तुप्रस्थेन हि जितो ब्रह्मलोकस्त्वयानघ / ऋषिकोटिसहस्राणि तपोभिर्ये दिवं गताः // 92 विरजो ब्रह्मभवनं गच्छ विप्र यथेच्छकम् // 79 अद्रोहः सर्वभूतेषु संतोषः शीलमार्जवम् / सर्वेषां वो द्विजश्रेष्ठ दिव्यं यानमुपस्थितम्। तपो दमश्च सत्यं च दानं चेति समं मतम् // 93 धारोहत यथाकामं धर्मोऽस्मि द्विज पश्य माम् // इति श्रीमहाभारते भाश्वमेधिकपर्वणि पावितो हि त्वया देहो लोके कीर्तिः स्थिरा च ते। त्रिनवतितमोऽध्यायः // 93 // सभार्यः सहपुत्रश्च सस्नुषश्च दिवं व्रज // 81 इत्युक्तवाक्यो धर्मेण यानमारुह्य स द्विजः। -2855 - Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 94. 1] महाभारते [14. 94.20 नायं धर्मकृतो धर्मो न हिंसा धर्म उच्यते // 14 जनमेजय उवाच / आगमेनैव ते यज्ञं कुर्वन्तु यदि हेच्छसि / यज्ञे सक्ता नृपतयस्तपःसक्ता महर्षयः / विधिदृष्टेन यज्ञेन धर्मस्ते सुमहान्भवेत् // 15 शान्तिव्यवसिता विप्राः शमो दम इति प्रभो // 1 यज बीजैः सहस्राक्ष त्रिवर्षपरमोषितैः / तस्माद्यज्ञफलैस्तुल्यं न किंचिदिह विद्यते / एष धर्मो महाशक चिन्त्यमानोऽधिगम्यते // 16 इति मे वर्तते बुद्धिस्तथा चैतदसंशयम् // 2 शतक्रतुस्तु तद्वाक्यमृषिभिस्तत्त्वदर्शिभिः / यज्ञैरिष्ट्वा हि बहवो राजानो द्विजसत्तम / उक्तं न प्रतिजग्राह मानमोहवशानुगः // 17 इह कीर्ति परां प्राप्य प्रेत्य स्वर्गमितो गताः / / 3 तेषां विवादः सुमहाञ्जज्ञे शक्रमहर्षिणाम् / देवराजः सहस्राक्षः क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः / जङ्गमैः स्थावरैर्वापि यष्टव्यमिति भारत // 18 देवराज्यं महातेजाः प्राप्तवानखिलं विभुः // 4 ते तु खिन्ना विवादेन ऋषयस्तत्त्वदर्शिनः / यथा युधिष्ठिरो राजा भीमार्जुनपुरःसरः। ततः संधाय शक्रेण पप्रच्छनृपतिं वसुम् // 19 सदृशो देवराजेन समृद्ध्या विक्रमेण च // 5 महाभाग कथं यज्ञेष्वागमो नृपते स्मृतः / अथ कस्मात्स नकुलो गर्हयामास तं ऋतुम् / यष्टव्यं पशुभिर्मेध्यैरथो बीजैरजैरपि // 20 अश्वमेधं महायज्ञं राज्ञस्तस्य महात्मनः // 6 तच्छ्रुत्वा तु वचस्तेषामविचार्य बलाबलम् / वैशंपायन उवाच / यथोपनीतैर्यष्टव्यमिति प्रोवाच पार्थिवः // 21 यज्ञस्य विधिमग्र्यं वै फलं चैव नरर्षभ / एवमुक्त्वा स नृपतिः प्रविवेश रसातलम् / गदतः शृणु मे राजन्यथावदिह भारत // 7 उक्त्वेह वितथं राजश्चेदीनामीश्वरः प्रभुः // 22 पुरा शक्रस्य यजतः सर्व ऊचुर्महर्षयः / अन्यायोपगतं द्रव्यमतीतं यो ह्यपण्डितः / ऋत्विक्षु कर्मव्यग्रेषु वितते यज्ञकर्मणि // 8 धर्माभिकाङ्क्षी यजते न धर्मफलमश्नुते // 23 हूयमाने तथा वह्नौ होत्रे बहुगुणान्विते / धर्मवैतंसिको यस्तु पापात्मा पुरुषस्तथा / देवेष्वाहूयमानेषु स्थितेषु परमर्षिषु / / 9 ददाति दानं विप्रेभ्यो लोकविश्वासकारकम् // 24 सुप्रतीतैस्तदा विप्रैः स्वागमैः सुस्वनैर्नृप / पापेन कर्मणा विप्रो धनं लब्ध्वा निरङ्कशः / अश्रान्तैश्चापि लघुभिरध्वर्युवृषभैस्तथा // 10 रागमोहान्वितः सोऽन्ते कलुषां गतिमाप्नुते // 25 आलम्भसमये तस्मिन्गृहीतेषु पशुष्वथ / तेन दत्तानि दानानि पापेन हतबुद्धिना / महर्षयो महाराज संबभूवुः कृपान्विताः // 11 तानि सत्त्वमनासाद्य नश्यन्ति विपुलान्यपि // 26 ततो दीनान्पशून्दृष्ट्वा ऋषयस्ने तपोधनाः / तस्याधर्मप्रवृत्तस्य हिंसकस्य दुरात्मनः / ऊचुः शक्रं समागम्य नायं यज्ञविधिः शुभः // 12 दाने न कीर्तिर्भवति प्रेत्य चेह च दुर्मतेः // 27 अपविज्ञानमेतत्ते महान्तं धर्ममिच्छतः / अपि संचयबुद्धिर्हि लोभमोहवशगतः / न हि यज्ञे पशुगणा विधिदृष्टाः पुरंदर // 13 / उद्वेजयति भूतानि हिंसया पापचेतनः // 28 धर्मोपघातकस्त्वेष समारम्भस्तव प्रभो। एवं लब्ध्वा धनं लोभाद्यजते यो ददाति च / -2856 - Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 94. 29 ] आश्वमेधिकपर्व [14. 95. 21 स कृत्वा कर्मणा तेन न सिध्यति दुरागमात् // 29 | परिघृष्टिका वैघसिकाः संप्रक्षालास्तथैव च / उन्छे मूलं फलं शाकमुदपात्रं तपोधनाः / यतयो भिक्षवश्चात्र बभूवुः पर्यवस्थिताः॥ 7 दानं विभवतो दत्त्वा नराः स्वर्यान्ति धर्मिणः // 30 सर्वे प्रत्यक्षधर्माणो जितक्रोधा जितेन्द्रियाः / एष धर्मो महांस्त्यागो दानं भूतदया तथा / दमे स्थिताश्च ते सर्वे दम्भमोहविवर्जिताः // 8 . ब्रह्मचर्य तथा सत्यमनुक्रोशो धृतिः क्षमा। वृत्ते शुद्धे स्थिता नित्यमिन्द्रियैश्चाप्यवाहिताः / सनातनस्य धर्मस्य मूलमेतत्सनातनम् // 31 उपासते स्म तं यज्ञं भुञ्जानास्ते महर्षयः // 9 श्रूयन्ते हि पुरा विप्रा विश्वामित्रादयो नृपाः / यथाशक्त्या भगवता तदन्नं समुपार्जितम् / विश्वामित्रोऽसितश्चैव जनकश्च महीपतिः / तस्मिन्सत्रे तु यत्किंचिदयोग्यं तत्र नाभवत् / कक्षसेनार्टिषेणौ च सिन्धुद्वीपश्च पार्थिवः // 32 तथा ह्यनेकैर्मुनिभिर्महान्तः क्रतवः कृताः // 10 एते चान्ये च बहवः सिद्धि परमिकां गताः।। एवंविधेस्त्वगस्त्यस्य वर्तमाने महाध्वरे / नृपाः सत्यैश्च दानैश्च न्यायलन्धैस्तपोधनाः // 33 / न ववर्ष सहस्राक्षस्तदा भरतसत्तम // 11 ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्रा ये चाश्रितास्तपः। ततः कर्मान्तरे राजन्नगस्त्यस्य महात्मनः / दानधर्माग्निना शुद्धास्ते स्वर्ग यान्ति भारत // 34 कथेयमभिनिर्वृत्ता मुनीनां भावितात्मनाम् // 12 इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि अगस्त्यो यजमानोऽसौ ददात्यन्नं विमत्सरः / चतुर्नवतितमोऽध्यायः / / 94 // न च वर्षति पर्जन्यः कथमन्नं भविष्यति // 13 सत्रं चेदं मह द्विप्रा मुनेादशवार्षिकम् / जनमेजय उवाच / न वर्षिष्यति देवश्च वर्षाण्येतानि द्वादश // 14 धर्मागतेन त्यागेन भगवन्सर्वमस्ति चेत् / एतद्भवन्तः संचिन्त्य महर्षेरस्य धीमतः। एतन्मे सर्वमाचक्ष्व कुशलो ह्यसि भाषितुम् // 1 अगस्त्यस्यातितपसः कर्तुमर्हन्त्यनुग्रहम् // 15 ततोञ्छवृत्तद्वृत्तं सक्तदाने फलं महत् / इत्येवमुक्ते वचने ततोऽगस्त्यः प्रतापवान् / कथितं मे महद्ब्रह्मंस्तथ्यमेतदसंशयम् // 2 प्रोवाचेदं वचो वाग्मी प्रसाद्य शिरसा मुनीन् // कथं हि सर्वयज्ञेषु निश्चयः परमो भवेत् / यदि द्वादशवर्षाणि न वर्षिष्यति वासवः / एतदर्हसि मे वक्तुं निखिलेन द्विजर्षभ // 3 चिन्तायझं करिष्यामि विधिरेष सनातनः // 17 वैशंपायन उवाच / यदि द्वादशवर्षाणि न वर्षिष्यति वासवः / अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् / व्यायामेनाहरिष्यामि यज्ञानन्यानतिव्रतान् // 18 अगस्त्यस्य महायज्ञे पुरावृत्तमरिंदम // 4 बीजयज्ञो मयायं वै बहुवर्षसमाचितः / पुरागस्त्यो महातेजा दीक्षां द्वादशवार्षिकीम् / बीजैः कृतैः करिष्ये च नात्र विघ्नो भविष्यति // प्रविवेश महाराज सर्वभूतहिते रतः // 5 नेदं शक्यं वृथा कर्तुं मम सत्रं कथंचन / तत्राग्निकल्पा होतार आसन्सत्रे महात्मनः / वर्षिष्यतीह वा देवो न वा देवो भविष्यति // 20 मूलाहारा निराहाराः साश्मकुट्टा मरीचिपाः // 6 | अथ वाभ्यर्थनामिन्द्रः कुर्यान्न त्विह कामतः / म. भा. 350 - 2857 - Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 95. 21 ] महाभारते [ 14. 96. 10 स्वयमिन्द्रो भविष्यामि जीवयिष्यामि च प्रजाः // प्रसादयामास च तमगस्त्यं त्रिदशेश्वरः / यो यदाहारजातश्च स तथैव भविष्यति / स्वयमभ्येय राजर्षे पुरस्कृत्य बृहस्पतिम् // 35 विशेषं चैव कर्तास्मि पुनः पुनरतीव हि // 22 ततो यज्ञसमाप्तौ तान्विससर्ज महामुनीन् / अद्येह स्वर्णमभ्येतु यच्चान्यद्वसु दुर्लभम् / अगस्त्यः परमप्रीतः पूजयित्वा यथाविधि // 36 त्रिषु लोकेषु यच्चास्ति तदिहागच्छतां स्वयम् // 23 इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि दिव्याश्चाप्सरसा संघाः सगन्धर्वाः सकिनराः / पञ्चनवतितमोऽध्यायः // 95 // विश्वावसुश्च ये चान्ये तेऽप्युपासन्तु वः सदा // उत्तरेभ्यः कुरुभ्यश्च यत्किचिद्वसु विद्यते / जनमेजय उवाच / सर्व तदिह यज्ञे मे स्वयमेवोपतिष्ठतु / कोऽसौ नकुलरूपेण शिरसा काश्चनेन वै / स्वर्ग स्वर्गसदश्चैव धर्मश्च स्वयमेव तु // 25 प्राह मानुषवद्वाचमेतत्पृष्टो वदस्व मे // 1 इत्युक्ते सर्वमेवैतदभवत्तस्य धीमतः। वैशंपायन उवाच। ततस्ते मुनयो दृष्ट्वा मुनेस्तस्य तपोबलम् / एतत्पूर्व न पृष्टोऽहं न चास्माभिः प्रभाषितम् / विस्मिता वचनं प्राहुरिदं सर्वे महार्थवत् // 26 श्रयतां नकुलो योऽसौ यथा वागस्य मानुषी // 2 प्रीताः स्म तव वाक्येन न त्विच्छामस्तपोव्ययम् / श्राद्धं संकल्पयामास जमदग्निः पुरा किल / स्वैरेव यज्ञैस्तुष्टाः स्मो न्यायेनेच्छामहे वयम् // 27 होमधेनुस्तमागाच्च स्वयं चापि दुदोह ताम् // 3 यज्ञान्दीक्षास्तथा होमान्यच्चान्यन्मृगयामहे / / तत्क्षीरं स्थापयामास नवे भाण्डे दृढे शुचौ / तन्नोऽस्तु स्वकृतैर्यज्ञैर्नान्यतो मृगयामहे // 28 तच्च क्रोधः स्वरूपेण पिठरं पर्यवर्तयत् // 4 न्यायेनोपार्जिताहाराः स्वकर्मनिरता वयम् / जिज्ञासुस्तमृषिश्रेष्ठं किं कुर्याद्विप्रिये कृते / वेदांश्च ब्रह्मचर्येण न्यायतः प्रार्थयामहे // 29 इति संचिन्त्य दुर्मेधा धर्षयामास तत्पयः // 5 न्यायेनोत्तरकालं च गृहेभ्यो निःसृता वयम् / तमाज्ञाय मुनिः क्रोधं नैवास्य चुकुपे ततः / धर्मदृष्टैर्विधिद्वारैस्तपस्तप्स्यामहे वयम् // 30 स तु क्रोधस्तमाहेदं प्राञ्जलिमूर्तिमास्थितः // 6 भवतः सम्यगेषा हि बुद्धिहिंसाविवर्जिता। जितोऽस्मीति भृगुश्रेष्ठ भृगवो ह्यतिरोषणाः। एतामहिंसां यज्ञेषु ब्रूयास्त्वं सततं प्रभो // 31 लोके मिथ्याप्रवादोऽयं यत्त्वयास्मि पराजितः // 7 प्रीतास्ततो भविष्यामो वयं द्विजवरोत्तम / सोऽहं त्वयि स्थितो ह्यद्य क्षमावति महात्मनि / विसर्जिताः समाप्तौ च सत्रादस्माद्भजामहे // 32 बिभेमि तपसः साधो प्रसादं कुरु मे विभो // 8 वैशंपायन उवाच। तथा कथयतामेव देवराजः पुरंदरः। जमदग्निरुवाच / ववर्ष सुमहातेजा दृष्ट्वा तस्य तपोबलम् // 33 साक्षादृष्टोऽसि मे क्रोध गच्छ त्वं विगतज्वरः / असमाप्तौ च यज्ञस्य तस्यामितपराक्रमः / न ममापकृतं तेऽद्य न मन्युर्विद्यते मम // 9 निकामवर्षी देवेन्द्रो बभूव जनमेजय // 34 यानुद्दिश्य तु संकल्पः पयसोऽस्य कृतो मया। - 2858 - Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. 96. 10] आश्वमेधिकपर्व [ 14. 96. 15 पितरस्ते महाभागास्तेभ्यो बुध्यस्व गम्यताम् // 10 / धर्मपुत्रमथाक्षिप्य सक्तुप्रस्थेन तेन सः / इत्युक्तो जातसंत्रासः स तत्रान्तरधीयत / मुक्तः शापात्ततः क्रोधो धर्मो ह्यासीद्युधिष्ठिरः॥१४ पितृणामभिषङ्गात्तु नकुलत्वमुपागतः // 11 एवमेवत्तदा वृत्तं तस्य यज्ञे महात्मनः / स तान्प्रसादयामास शापस्यान्तो भवेदिति / पश्यतां चापि नस्तत्र नकुलोऽन्तर्हितस्तदा // 15 तैश्चाप्युक्तो यदा धर्म क्षेप्स्यसे मोक्ष्यसे तदा // इति श्रीमहाभारते आश्वमेधिकपर्वणि तैश्चोक्तो यज्ञियान्देशान्धर्मारण्यानि चैव ह / षण्णवतितमोऽध्यायः // 16 // जुगुप्सन्परिधावन्स यज्ञं तं समुपासदत् // 13 आश्वमेधिकपर्व समाप्तम् / -2859 - Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 आश्रमवासिकपर्व युधिष्ठिरो महाराज धृतराष्ट्रेऽभ्युपाहरत् // 9 जनमेजय उवाच / तथैव कुन्ती गान्धाया गुरुवृत्तिमवर्तत / प्राप्य राज्यं महाभागाः पाण्डवा मे पितामहाः / विदुरः संजयश्चैव युयुत्सुश्चैव कौरवः / . कथमासन्महाराजे धृतराष्ट्र महात्मनि // 1 उपासते स्म तं वृद्धं हतपुत्रं जनाधिपम् // 10 स हि राजा हतामात्यो हतपुत्रो निराश्रयः / स्यालो द्रोणस्य यश्चैको दयितो ब्राह्मणो महान् / कथमासीद्धतैश्वर्यो गान्धारी च यशस्विनी // 2 स च तस्मिन्महेष्वासः कृपः समभवत्तदा // 11 कियन्तं चैव कालं ते पितरो मम पूर्वकाः।। व्यासश्च भगवान्नित्यं वासं चक्रे नृपेण ह / स्थिता राज्ये महात्मानस्तन्मे व्याख्यातुमर्हसि // 3 कथाः कुर्वन्पुराणर्षिर्देवर्षिनृपरक्षसाम् // 12 वैशंपायन उवाच। धर्मयुक्तानि कार्याणि व्यवहारान्वितानि च / प्राप्य राज्यं महात्मानः पाण्डवा हतशत्रवः / धृतराष्ट्राभ्यनुज्ञातो विदुरस्तान्यकारयत् // 13 धृतराष्ट्र पुरस्कृत्य पृथिवीं पर्यपालयन् // 4 सामन्तेभ्यः प्रियाण्यस्य कार्याणि सुगुरूण्यपि। धृतराष्ट्रमुपातिष्ठद्विदुरः संजयस्तथा / प्राप्यन्तेऽथैः सुलघुभिः प्रभावाद्विदुरस्य वै // 14 युयुत्सुश्चापि मेधावी वैश्यापुत्रः स कौरवः // 5 अकरोद्वन्धमोक्षांश्च वध्यानां मोक्षणं तथा / पाण्डवाः सर्वकार्याणि संपृच्छन्ति स्म तं नृपम् / न च धर्मात्मजो राजा कदाचित्किंचिदब्रवीत्॥१५ चक्रुस्तेनाभ्यनुज्ञाता वर्षाणि दश पञ्च च // 6 विहारयात्रासु पुनः कुरुराजो युधिष्ठिरः / सदा हि गत्वा ते वीराः पर्युपासन्त तं नृपम् / सर्वान्कामान्महातेजाः प्रददावम्बिकासुते // 16 पादाभिवन्दनं कृत्वा धर्मराजमते स्थिताः। आरालिकाः सूपकारा रागखाण्डविकास्तथा / ते मूर्ध्नि समुपाघ्राताः सर्वकार्याणि चक्रिरे॥७ उपातिष्ठन्त राजानं धृतराष्ट्रं यथा पुरा // 17 कुन्तिभोजसुता चैव गान्धारीमन्ववर्तत / वासांसि च महार्हाणि माल्यानि विविधानि च / द्रौपदी च सुभद्रा च याश्चान्याः पाण्डवस्त्रियः / उपाजगुर्यथान्यायं धृतराष्ट्रस्य पाण्डवाः // 18 समां वृत्तिमवर्तन्त तयोः श्वश्र्वोर्यथाविधि // 8 | मैरेयं मधु मांसानि पानकानि लघूनि च / शयनानि महार्हाणि वासांस्याभरणानि च / / चित्रान्भक्ष्यविकारांश्च चक्रुरस्य यथा पुरा // 19 राजार्हाणि च सर्वाणि भक्ष्यभोज्यान्यनेकशः। / ये चापि पृथिवीपालाः समाजग्मुः समन्ततः। -2860 - Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 1. 20 ] आश्रमवासिकपर्व [15. 3. 1 उपातिष्ठन्त ते सर्वे कौरवेन्द्रं यथा पुरा // 20 कथं नु राजा वृद्धः सन्पुत्रशोकसमाहतः / कुन्ती च द्रौपदी चैव सात्वती चैव भामिनी। शोकमस्मत्कृतं प्राप्य न म्रियेतेति चिन्त्यते // 8 उलूपी नागकन्या च देवी चित्राङ्गदा तथा // 21 यावद्धि कुरुमुख्यस्य जीवत्पुत्रस्य वै सुखम् / धृष्टकेतोश्च भगिनी जरासंधस्य चात्मजा / बभूव तदवाप्नोतु भोगांश्चेति व्यवस्थिताः // 9 किंकराः स्मोपतिष्ठन्ति सर्वाः सुबलजां तथा // 22 ततस्ते सहिताः सर्वे भ्रातरः पञ्च पाण्डवाः। यथा पुत्रवियुक्तोऽयं न किंचिद्दुःखमाप्नुयात् / तथाशीलाः समातस्थुधृतराष्ट्रस्य शासने // 10 इति राजान्वशाद्धातृन्नित्यमेव युधिष्ठिरः // 23 धृतराष्ट्रश्च तान्वीरान्विनीतान्विनये स्थितान् / एवं ते धर्मराजस्य श्रुत्वा वचनमर्थवत् / शिष्यवृत्तौ स्थितान्नित्यं गुरुवत्पर्यपश्यत // 11 सविशेषमवर्तन्त भीममेकं विना तदा // 24 गान्धारी चैव पुत्राणां विविधैः श्राद्धकर्मभिः / न हि तत्तस्य वीरस्य हृदयादपसर्पति / आनृण्यमगमत्कामान्विप्रेभ्यः प्रतिपाद्य वै // 12 धृतराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्यद्वृत्तं द्यूतकारितम् // 25 एवं धर्मभृतां श्रेष्ठो धर्मराजो युधिष्ठिरः / इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि भ्रातृभिः सहितो धीमान्पूजयामास तं नृपम् // 13 प्रथमोऽध्यायः॥१॥ इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः॥२॥ वैशंपायन उवाच / एवं संपूजितो राजा पाण्डवैरम्बिकासुतः / वैशंपायन उवाच / त्रिजहार यथापूर्वमृषिभिः पर्युपासितः // 1 स राजा सुमहातेजा वृद्धः कुरुकुलोद्वहः / ब्रह्मदेयाग्रहारांश्च प्रददौ स कुरूद्वहः। नापश्यत तदा किंचिदप्रियं पाण्डुनन्दने // 1 तश्च कुन्तीसुतो राजा सर्वमेवान्वमोदत // 2 वर्तमानेषु सद्वृत्ति पाण्डवेषु महात्मसु / आनृशंस्यपरो राजा प्रीयमाणो युधिष्ठिरः। प्रीतिमानभवद्राजा धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः / / 2 उवाच स तदा भ्रातृनमात्यांश्च महीपतिः // 3 सौबलेयी च गान्धारी पुत्रशोकमपास्य तम् / मया चैव भवद्भिश्च मान्य एष नराधिपः / सदैव प्रीतिमत्यासीत्तनयेषु निजेष्विव // 3 निदेशे धृतराष्ट्रस्य यः स्थास्यति स मे सुहृत् / प्रियाण्येव तु कौरव्यो नाप्रियाणि कुरूद्वह / विपरीतश्च मे शत्रुर्निरस्यश्च भवेन्नरः // 4 वैचित्रवीर्ये नृपतौ समाचरति नित्यदा // 4 परिदृष्टेषु चाहःसु पुत्राणां श्राद्धकर्मणि / यद्यद्भूते च किंचित्स धृतराष्ट्रो नराधिपः / ददातु राजा सर्वेषां यावदस्य चिकीर्षितम् // 5 गुरु वा लघु वा कार्य गान्धारी च यशस्विनी // 5 ततः स राजा कौरव्यो धृतराष्ट्रो महामनाः / / तत्स राजा महाराज पाण्डवानां धुरंधरः / ब्राह्मणेभ्यो महाहेभ्यो ददौ वित्तान्यनेकशः // 6 | पूजयित्वा वचस्तत्तदकार्षीत्परवीरहा // 6 धर्मराजश्च भीमश्च सव्यसाची यमावपि / तेन तस्याभवत्प्रीतो वृत्तेन स नराधिपः / तत्सर्वमन्ववर्तन्त धृतराष्ट्रव्यपेक्षया // 7 अन्वतप्यच्च संस्मृत्य पुत्रं मन्दमचेतसम् // . -2861 - Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 3. 8] महाभारते [ 15. 5.1 सदा च प्रातरुत्थाय कृतजप्यः शुचिर्नृपः / अप्रकाशान्यप्रियाणि चकारास्य वृकोदरः। आशास्ते पाण्डुपुत्राणां समरेष्वपराजयम् // 8 आज्ञां प्रत्यहरच्चापि कृतकैः पुरुषैः सदा // 4 ब्राह्मणान्वाचयित्वा च हुत्वा चैव हुताशनम् / अथ भीमः सुहृन्मध्ये बाहुशब्दं तथाकरोत् / आयुष्यं पाण्डुपुत्राणामाशास्ते स नराधिपः // 9 संश्रवे धृतराष्ट्रस्य गान्धार्याश्चाप्यमर्षणः // 5 न तां प्रीतिं परामाप पुत्रेभ्यः स महीपतिः / स्मृत्वा दुर्योधनं शत्रु कर्णदुःशासनावपि। यां प्रीतिं पाण्डुपुत्रेभ्यः समवाप तदा नृपः // 10 प्रोवाचाथ सुसंरब्धो भीमः स परुषं वचः // 6 ब्राह्मणानां च वृद्धानां क्षत्रियाणां च भारत / अन्धस्य नृपतेः पुत्रा मया परिघबाहुना / तथा विटशूद्रसंघानामभवत्सुप्रियस्तदा // 11 नीता लोकममुं सर्वे नानाशस्त्रात्तजीविताः // 7 यच्च किंचित्पुरा पापं धृतराष्ट्रसुतैः कृतम् / इमौ तौ परिघप्रख्यौ भुजौ मम दुरासदौ / अकृत्वा हृदि तद्राजा तं नृपं सोऽन्ववर्तत // 12 ययोरन्तरमासाद्य धार्तराष्ट्राः क्षयं गताः // 8 यश्च कश्चिन्नरः किंचिदप्रियं चाम्बिकासुते / ताविमौ चन्दनेनाक्तौ वन्दनीयौ च मे भुजौ / कुरुते द्वेष्यतामेति स कौन्तेयस्य धीमतः // 13 याभ्यां दुर्योधनो नीतः क्षयं ससुतबान्धवः // 9 न राज्ञो धृतराष्ट्रस्य न च दुर्योधनस्य वै।। एताश्चान्याश्च विविधाः शल्यभूता जनाधिपः / उवाच दुष्कृतं किंचिद्युधिष्ठिरभयान्नरः // 14 वृकोदरस्य ता वाचः श्रुत्वा निर्वेदमागमत् // 10 धृत्या तुषो नरेन्द्रस्य गान्धारी विदुरस्तथा। सा च बुद्धिमती देवी कालपर्यायवेदिनी / शौचेन चाजातशत्रोर्न तु भीमस्य शत्रुहन् // 15 गान्धारी सर्वधर्मज्ञा तान्यलीकानि शुश्रुवे // 11 अन्ववर्तत मीमोऽपि निष्टनन्धर्मजं नृपम् / ततः पञ्चदशे वर्षे समतीते नराधिपः / धृतराष्ट्रं च संप्रेक्ष्य सदा भवति दुर्मनाः // 16 राजा निर्वेदमापेदे भीमवाग्बाणपीडितः // 12 राजानमनुवर्तन्तं धर्मपुत्रं महामतिम् / नान्वबुध्यत तद्राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। अन्ववर्तत कौरव्यो हृदयेन पराङ्मुखः // 17 श्वेताश्वो वाथ कुन्ती वा द्रौपदी वा यशस्विनी / / इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि माद्रीपुत्रौ च भीमस्य चित्तज्ञावन्वमोदताम् / तृतीयोऽध्यायः // 3 // राज्ञस्तु चित्तं रक्षन्तौ नोचतुः किंचिदप्रियम् // 14 ततः समानयामास धृतराष्ट्रः सुहृज्जनम् / वैशंपायन उवाच / बाष्पसंदिग्धमत्यर्थमिदमाह वचो भृशम् // 15 युधिष्ठिरस्य नृपतेदुर्योधनपितुस्तथा / इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि नान्तरं ददृशू राजन्पुरुषाः प्रणयं प्रति // 1 चतुर्थोऽध्यायः // 4 // यदा तु कौरवो राजा पुत्रं सस्मार बालिशम् / तदा भीमं हृदा राजन्नपध्याति स पार्थिवः // 2 धृतराष्ट्र उवाच / तथैव भीमसेनोऽपि धृतराष्ट्र जनाधिपम् / विदितं भवतामेतद्यथा वृत्तः कुरुक्षयः / नामर्षयत राजेन्द्र सदेवातुष्टवद्धृदा // 3 ममापराधात्तत्सर्वमिति ज्ञेयं तु कौरवाः // 1 -2862 - Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 5. 2] आश्रमवासिकपर्व [ 15. 6.5 योऽहं दुष्टमतिं मूढं ज्ञातीनां भयवर्धनम् / द्रौपद्या ह्यपकर्तारस्तव चैश्वर्यहारिणः / दुर्योधनं कौरवाणामाधिपत्येऽभ्यषेचयम् // 2 समतीता नृशंसास्ते धर्मेण निहता युधि // 16 यच्चाहं वासुदेवस्य वाक्यं नाश्रौषमर्थवत् / न तेषु प्रतिकर्तव्यं पश्यामि कुरुनन्दन / वध्यतां साध्वयं पापः सामात्य इति दुर्मतिः // 3 सर्वे शस्त्रजिताल्लोकान्गतास्तेऽभिमुखं हताः // 17 पुत्रस्नेहाभिभूतश्च हितमुक्तो मनीषिभिः / आत्मनस्तु हितं मुख्यं प्रतिकर्तव्यमद्य मे / विदुरेणाथ भीष्मेण द्रोणेन च कृपेण च // 4 गान्धार्याश्चैव राजेन्द्र तदनुज्ञातुमर्हसि // 18 पदे पदे भगवता व्यासेन च महात्मना। . त्वं हि धर्मभृतां श्रेष्ठः सततं धर्मवत्सलः / संजयेनाथ गान्धार्या तदिदं तप्यतेऽद्य माम् // 5 राजा गुरुः प्राणभृतां तस्मादेतद्भवीम्यहम् // 19 यच्चाहं पाण्डुपुत्रेण गुणवत्सु महात्मसु / अनुज्ञातस्त्वया वीर संश्रयेयं वनान्यहम् / न दत्तवाश्रियं दीप्तां पितृपैतामहीमिमाम् // 6 चीरवल्कलभृद्राजन्गान्धार्या सहितोऽनया। विनाशं पश्यमानो हि सर्वराज्ञां गदाग्रजः / तवाशिषः प्रयुञ्जानो भविष्यामि वनेचरः // 20 एतच्छ्रेयः स परमममन्यत जनार्दनः // 7 उचितं नः कुले तात सर्वेषां भरतर्षभ / सोऽहमेतान्यलीकानि निवृत्तान्यात्मनः सदा। पुत्रेष्वैश्वर्यमाधाय वयसोऽन्ते वनं नृप // 21 हृदये शल्यभूतानि धारयामि सहस्रशः // 8 तत्राहं वायुभक्षो वा निराहारोऽपि वा वसन् / विशेषतस्तु दह्यामि वर्ष पञ्चदशं हि वै / पत्न्या सहानया वीर चरिष्यामि तपः परम् // 22 अस्य पापस्य शुद्ध्यर्थं नियतोऽस्मि सुदुर्मतिः // 9 / त्वं चापि फलभाक्तात तपसः पार्थिवो ह्यसि / चतुर्थे नियते काले कदाचिदपि चाष्टमे / फलभाजो हि राजानः कल्याणस्येतरस्य वा // 23 तृष्णाविनयनं भुञ्ज गान्धारी वेद तन्मम // 10 इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि करोत्याहारमिति मां सर्वः परिजनः सदा / पञ्चमोऽध्यायः // 5 // युधिष्ठिरभयाद्वेत्ति भृशं तप्यति पाण्डवः // 11 भूमौ शये जप्यपरो दर्भेष्वजिनसंवृतः / युधिष्ठिर उवाच / नियमव्यपदेशेन गान्धारी च यशस्विनी // 12 न मां प्रीणयते राज्यं त्वय्येवं दुःखिते नृप / हतं पुत्रशतं शूरं संग्रामेष्वपलायिनम् / धिङ्मामस्तु सुदुर्बुद्धिं राज्यसक्तं प्रमादिनम् // 1 नानुतप्यामि तच्चाहं क्षत्रधर्म हि तं विदुः / योऽहं भवन्तं दुःखार्तमुपवासकृशं नृप / इत्युक्त्वा धर्मराजानमभ्यभाषत कौरवः // 13 यताहारं क्षितिशयं नाविन्दं भ्रातृभिः सह // 2 भद्रं ते यादवीमातर्वाक्यं चेदं निबोध मे। अहोऽस्मि वश्चितो मूढो भवता गूढबुद्धिना / सुखमस्म्युषितः पुत्र त्वया सुपरिपालितः // 14 विश्वासयित्वा पूर्व मां यदिदं दुःखमनुथाः // 3 महादानानि दत्तानि श्राद्धानि च पुनः पुनः / किं मे राज्येन भोगैर्वा किं यज्ञैः किं सुखेन वा। प्रकृष्टं मे वयः पुत्र पुण्यं चीणं यथाबलम् / / यस्य मे त्वं महीपाल दुःखान्येतान्यवाप्तवान् // 4 गान्धारी हतपुत्रेयं धैर्येणोदीक्षते च माम् // 15 / पीडितं चापि जानामि राज्यमात्मानमेव च / -2863 - Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 6.5] महाभारते [15. 7.2 अनेन वचसा तुभ्यं दुःखितस्य जनेश्वर // 5 अनुनेतुमिहेच्छामि भवद्भिः पृथिवीपतिम् // 19 भवान्पिता भवान्माता भवान्नः परमो गुरुः। ग्लायते मे मनो हीदं मुखं च परिशुष्यति / भवता विहीणा हि क नु तिष्ठामहे वयम् // 6 वयसा च प्रकृष्टेन वाग्व्यायामेव चैव हि // 20 औरसो भवतः पुत्रो युयुत्सुर्नृपसत्तम / इत्युक्त्वा स तु धर्मात्मा वृद्धो राजा कुरूद्वहः। अस्तु राजा महाराज यं चान्यं मन्यते भवान् // 7 गान्धारी शिश्रिये धीमान्सहसैव गतासुंवत् // 21 अहं वनं गमिष्यामि भवानराज्यं प्रशास्त्विदम् / तं तु दृष्ट्वा तथासीनं निश्चेष्टं कुरुपार्थिवम् / न मामयशसा दग्धं भूयस्त्वं दग्धुमर्हसि // 8 आति राजा ययौ तूणं कौन्तेयः परवीरहा // 22 नाहं राजा भवानराजा भवता परवानहम् / युधिष्ठिर उवाच / कथं गुरुं त्वां धर्मज्ञमनुज्ञातुमिहोत्सहे // 9 यस्य नागसहस्रेण दशसंख्येन वै बलम् / न मन्युहृदि नः कश्चिदुर्योधनकृतेऽनघ / सोऽयं नारीमुपाश्रित्य शेते राजा गतांसुवत् // 23 भवितव्यं तथा तद्धि वयं ते चैव मोहिताः॥१० आयसी प्रतिमा येन भीमसेनस्य वै पुरा। वयं हि पुत्रा भवतो यथा दुर्योधनादयः / चूर्णीकृता बलवता स बलार्थी श्रितः स्त्रियम् // गान्धारी चैव कुन्ती च निर्विशेषे मते मम // 11 धिगस्तु मामधर्मज्ञं धिग्बुद्धिं धिक्च मे श्रुतम् / स मां त्वं यदि राजेन्द्र परित्यज्य गमिष्यसि / यत्कृते पृथिवीपालः शेतेऽयमतथोचितः // 25 पृष्ठतस्त्वानुयास्यामि सत्येनात्मानमालभे // 12 अहमप्युपवत्स्यामि यथैवायं गुरुर्मम।। इयं हि वसुसंपूर्णा मही सागरमेखला। भवता विहीणस्य न मे प्रीतिकरी भवेत् // 13 यदि राजा न भुङ्क्तेऽयं गान्धारी च यशस्विनी // भवदीयमिदं सर्व शिरसा त्वां प्रसादये। वैशंपायन उवाच। त्वदधीनाः स्म राजेन्द्र व्येतु ते मानसो ज्वरः // ततोऽस्य पाणिना राजा जलशीतेन पाण्डवः / भवितव्यमनुप्राप्तं मन्ये त्वां तज्जनाधिप। उरो मुखं च शनकैः पर्यमार्जत धर्मवित् // 27 दिष्ट्या शुश्रूषमाणस्त्वां मोक्ष्यामि मनसो ज्वरम् // तेन रत्नौषधिमता पुण्येन च सुगन्धिना / धृतराष्ट्र उवाच / पाणिस्पर्शेन राज्ञस्तु राजा संज्ञामवाप ह // 28 तापस्ये मे मनस्तात वर्तते कुरुनन्दन / ' इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि उचितं हि कुलेऽस्माकमरण्यगमनं प्रभो // 16 षष्ठोऽध्यायः // 6 // चिरमस्म्युषितः पुत्र चिरं शुश्रषितस्त्वया। वृद्धं मामभ्यनुज्ञातुं त्वमर्हसि जनाधिप // 17 धृतराष्ट्र उवाच / वैशंपायन उवाच। स्पृश मां पाणिना भूयः परिध्वज च पाण्डव / इत्युक्त्वा धर्मराजानं वेपमानः कृताञ्जलिम् / / जीवामीव हि संस्पर्शात्तव राजीवलोचन // 1 उवाच वचनं राजा धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः // 18 / मूर्धानं च तवाघ्रातुमिच्छामि मनुजाधिप। संजयं च महामानं कृपं चापि महारथम् / | पाणिभ्यां च परिस्प्रष्टुं प्राणा -हि न जहुर्मम // 2 -2864 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 7. 3] आश्रमवासिकपर्व [15. 8. 10 अष्टमो ह्यद्य कालोऽयमाहारस्य कृतस्य मे। क्रियतां तावदाहारस्ततो वेत्स्यामहे वयम् // 17 येनाहं कुरुशार्दूल न शक्नोमि विचेष्टितम् // 3 ततोऽब्रवीन्महातेजा धर्मपुत्रं स पार्थिवः / व्यायामश्चायमत्यर्थं कृतस्त्वामभियाचता / अनुज्ञातस्त्वया पुत्र भुञ्जीयामिति कामये // 18 ततो ग्लानमनास्तात नष्टसंश इवाभवम् // 4 इति युवति राजेन्द्रे धृतराष्ट्रे युधिष्ठिरम् / तवामृतसमस्पर्श हस्तरपर्शमिमं विभो / ऋषिः सत्यवतीपुत्रो व्यासोऽभ्येत्य वचोऽब्रवीत् // लब्ध्वा संजीवितोऽस्मीति मन्ये कुरुकुलोद्वह // 5 इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि वैशंपायन उवाच। सप्तमोऽध्यायः // 7 // एवमुक्तस्तु कौन्तेयः पित्रा ज्येष्ठेन भारत / पस्पर्श सर्वगात्रेषु सौहार्दात्तं शनैस्तदा // 6. व्यास उवाच। उपलभ्य ततः प्राणान्धृतराष्ट्रो महीपतिः / युधिष्ठिर महाबाहो यदाह कुरुनन्दनः / बाहुभ्यां संपरिष्वज्य मा जिघ्रत पाण्डवम् // 7 // धृतराष्ट्रो महात्मा त्वां तत्कुरुष्वाविचारयन् // 1 विदुरादयश्च ते सर्वे रुरुदुर्दुःखिता भृशम् / / अयं हि वृद्धो नृपतिईतपुत्रो विशेषतः / / अतिदुःखाच राजानं नोचुः किंचन पाण्डवाः // 8 गान्धारी त्वेव धर्मज्ञा मनसोद्वहती भृशम् / नेदं कृच्छं चिरतरं सहेदिति मतिर्मम // 2 दुःखान्यवारयद्राजन्मैवमित्येव चाप्रवीत् // 9 गान्धारी च महाभागा प्राज्ञा करुणवेदिनी / पुत्रशोकं महाराज धैर्येणोद्वहते भृशम् // 3 इतरास्तु नियः सर्वाः कुन्त्या सह सुदुःखिताः। अहमप्येतदेव त्वां ब्रवीमि कुरु मे वचः / नेत्रैरागतविक्लेदैः परिवार्य स्थिताभवन् // 10 अथाब्रवीत्पुनर्याक्यं धृतराष्ट्रो युधिष्ठिरम् / अनुज्ञां लभतां राजा मा वृथेह मरिष्यति // 4 राजर्षीणां पुराणानामनुयातु गतिं नृपः / अनुजानीहि मां राजस्तापस्ये भरतर्षभ // 11 ग्लायते मे मनस्तात भूयो भूयः प्रजल्पतः / राजर्षीणां हि सर्वेषामन्ते वनमुपाश्रयः॥ 5 न मामतः परं पुत्र परिक्लेष्टुमिहार्हसि // 12 वैशंपायन उवाच। तस्मिस्तु कौरवेन्द्रे तं तथा ब्रुवति पाण्डवम् / इत्युक्तः स तदा राजा व्यासेनाद्भुतकर्मणा / सर्वेषावमरोधानामार्तनादो महानभूत् // 13 प्रत्युवाच महातेजा धर्मराजो युधिष्ठिरः॥६ दृष्ट्वा कृशं विवर्ण च राजानमतथोचितम् / भगवानेव नो मान्यो भगवानेव नो गुरुः / उपवासपरिश्रान्तं त्वगस्थिपरिवारितम् // 14 भगवानस्य राज्यस्य कुलस्य च परायणम् // . धर्मपुत्रः स पितरं परिष्वज्य महाभुजः / अहं तु पुत्रो भगवान्पिता राजा गुरुश्च मे। शोकजं बाष्पमुत्सृज्य पुनर्वचनमब्रवीत् // 15 निदेशवर्ती च पितुः पुत्रो भवति धर्मतः // 8 न कामये नरश्रेष्ठ जीवितं पृथिवीं तथा / इत्युक्तः स तु तं प्राह व्यासो धर्मभृतां वरः / यथा तव प्रियं राजंश्चिकीर्षामि परंतप // 16 / युधिष्ठिरं महातेजाः पुनरेव विशां पते // 9 यदि त्वहमनुप्राह्यो भवतो दयितोऽपि वा / / एवमेतन्महाबाहो यथा वदसि भारत / म.भा. 359 - 2865 - Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 8. 10 ] महाभारते [ 15. 9. 16 राजायं वृद्धतां प्राप्तः प्रमाणे परमे स्थितः // 10 ययौ स्वभवनं राजा गान्धार्यानुगतस्तदा // 1 सोऽयं मयाभ्यनुज्ञातस्त्वया च पृथिवीपते / मन्दप्राणगति/मान्कृच्छ्रादिव समुद्धरन् / करोतु स्वमभिप्रायं मास्य विघ्नकरो भव // 11 पदातिः स महीपालो जीर्णो गजपतिर्यथा // 2 एष एव परो धर्मो राजर्षीणां युधिष्ठिर / तमन्वगच्छद्विदुरो विद्वान्सूतश्च संजयः / समरे वा भवेन्मृत्युर्वने वा विधिपूर्वकम् // 12 स चापि परमेष्वासः कृपः शारद्वतस्तथा // 3 पित्रा तु तव राजेन्द्र पाण्डुना पृथिवीक्षिता। स प्रविश्य गृहं राजा कृतपूर्वाहिकक्रियः / शिष्यभूतेन राजायं गुरुवत्पर्युपासितः // 13 तर्पयित्वा द्विजश्रेष्ठानाहारमकरोत्तदा / / 4 क्रतुभिर्दक्षिणावद्भिरन्नपर्वतशोभितैः / गान्धारी चैव धर्मज्ञा कुन्त्या सह मनस्विनी / महद्भिरिष्टं भोगाश्च भुक्ताः पुत्राश्च पालिताः // 14 वधूभिरुपचारेण पूजिताभुत भारत // 5 पुत्रसंस्थं च विपुलं राज्यं विप्रोषिते त्वयि / कृताहारं कृताहाराः सर्वे ते. विदुरादयः / त्रयोदशसमा भुक्तं दत्तं च विविधं वसु / / 15 पाण्डवाश्च कुरुश्रेष्ठमुपातिष्ठन्त तं नृपम् // 6 त्वया चायं नरव्याघ्र गुरुशुश्रूषया नृपः / ततोऽब्रवीन्महाराज कुन्तीपुत्रमुपह्वरे / आराधितः सभृत्येन गान्धारी च यशस्विनी॥१६ / निषण्णं पाणिना पृष्ठे संस्पृशन्नम्बिकासुतः // . अनुजानीहि पितरं समयोऽस्य तपोविधौ / अप्रमादस्त्वया कार्यः सर्वथा कुरुनन्दन / न मन्युर्विद्यते चास्य सुसूक्ष्मोऽपि युधिष्ठिर // 17 अष्टाङ्गे राजशार्दूल राज्ये धर्मपुरस्कृते / / 8 एतावदुक्त्वा वचनमनुज्ञाप्य च पार्थिवम् / तत्तु शक्यं यथा तात रक्षितुं पाण्डुनन्दन / तथास्त्विति च तेनोक्तः कौन्तेयेन ययौ वनम् // राज्यं धर्मं च कौन्तेय विद्वानसि निबोध तत् // 9 गते भगवति व्यासे राजा पाण्डुसुतस्ततः। विद्यावृद्धान्सदैव त्वमुपासीथा युधिष्ठिर / प्रोवाच पितरं वृद्धं मन्दं मन्दमिवानतः // 19 / शृणुयास्ते च यद्युः कुर्याश्चैवाविचारयन् // 10 यदाह भगवान्व्यासो यच्चापि भवतो मतम् / प्रातरुत्थाय तान्राजन्पूजयित्वा यथाविधि / यदाह स महेष्वासः कृपो विदुर एव च // 20 कृत्यकाले समुत्पन्ने पृच्छेथाः कार्यमात्मनः // 11 युयुत्सुः संजयश्चैव तत्कर्तास्म्यहमञ्जसा। ते तु संमानिता राजंस्त्वया राज्यहितार्थिना। सर्वे ह्येतेऽनुमान्या मे कुलस्यास्य हितैषिणः // 21 प्रवक्ष्यन्ति हितं तात सर्वं कौरवनन्दन / / 12 इदं तु याचे नृपते त्वामहं शिरसा नतः / इन्द्रियाणि च सर्वाणि वाजिवत्परिपालय / क्रियतां तावदाहारस्ततो गच्छाश्रमं प्रति // 22 हिताय वै भविष्यन्ति रक्षितं द्रविणं यथा // 13 इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि अमात्यानुपधातीतान्पितृपैतामहाशुचीन् / . अष्टमोऽध्यायः // 8 // दान्तान्कर्मसु सर्वेषु मुख्यान्मुख्येषु योजयेः // 14 चारयेथाश्च सततं चारैरविदितैः परान् / वैशंपायन उवाच / परीक्षितैर्बहुविधं स्वराष्ट्रेषु परेषु च // 15 ततो राज्ञाभ्यनुज्ञातो धृतराष्ट्रः प्रतापवान् / पुरं च ते सुगुप्तं स्यादृढप्राकारतोरणम् / - 2866 - Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 9. 16 } आश्रमवासिकपर्व [15. 10. 16 अट्टाहालकसंबाधं षट्पथं सर्वतोदिशम् // 16 आदानरुचयश्चैव परदाराभिमर्शकाः। तस्य द्वाराणि कार्याणि पर्याप्तानि बृहन्ति च / उपदण्डप्रधानाश्च मिथ्या व्याहारिणस्तथा // 3 सर्वतः सुविभक्तानि यत्रैरारक्षितानि च // 17 आक्रोष्टारश्च लुब्धाश्च हन्तारः साहसप्रियाः। पुरुषैरलमर्थज्ञैर्विदितैः कुलशीलतः / सभाविहारभेत्तारो वर्णानां च प्रदूषकाः / आत्मा च रक्ष्यः सततं भोजनादिषु भारत // 18 हिरण्यदण्ड्या वध्याश्च कर्तव्या देशकालतः // 4 विहाराहारकालेषु माल्यशय्यासनेषु च / प्रातरेव हि पश्येथा ये कुर्युर्व्ययकर्म ते / स्त्रियश्च ते सुगुप्ताः स्युवृद्धराप्तैरधिष्ठिताः। . अलंकारमथो भोज्यमत ऊर्ध्वं समाचरेः // 5 शीलवद्भिः कुलीनैश्च विद्वद्भिश्च युधिष्ठिर // 19 पश्येथाश्च ततो योधान्सदा त्वं परिहर्षयन् / मत्रिणश्चैव कुर्वीथा द्विजान्विद्याविशारदान् / .. दूतानां च चराणां च प्रदोषस्ते सदा भवेत् // 6 विनीतांश्च कुलीनांश्च धर्मार्थकुशलानृजून // 20 सदा चापररात्रं ते भवेत्कार्यार्थनिर्णये / तैः साधं मन्त्रयेथास्त्वं नात्यर्थ बहुभिः सह / मध्यरात्रे विहारस्ते मध्याह्न च सदा भवेत् // 7 समस्तैरपि च व्यस्तैर्व्यपदेशेन केनचित् // 21 सर्वे त्वात्ययिकाः कालाः कार्याणां भरतर्षभ / सुसंवृतं मन्त्रगृहं स्थलं चारुह्य मन्त्रयः / तथैवालंकृतः काले तिष्ठेथा भूरिदक्षिणः / अरण्ये निःशलाके वा न च रात्रौ कथंचन // 22 चक्रवत्कर्मणां तात पर्यायो ह्येष नित्यशः // 8 वानराः पक्षिणश्चैव ये मनुष्यानुकारिणः / कोशस्य संचये यत्नं कुर्वीथा न्यायतः सदा / सर्वे मत्रगृहे वा ये चापि जडपङ्गकाः // 23 द्विविधस्य महाराज विपरीतं विवर्जयेः // 9 मन्त्रभेदे हि ये दोषा भवन्ति पृथिवीक्षिताम् / न ते शक्याः समाधातुं कथंचिदिति मे मतिः // चारैर्विदित्वा शत्रूश्च ये ते राज्यान्तरायिणः / दोषांश्च मत्रभेदेषु व्यास्त्वं मन्त्रिमण्डले / तानाप्तैः पुरुषैर्दूराद्धातयेथाः परस्परम् // 10 अभेदे च गुणान्राजन्पुनः पुनररिंदम / / 25 कर्मदृष्ट्याथ भृत्यांस्त्वं वरयेथाः कुरुद्वह / पौरजानपदानां च शौचाशौचं युधिष्ठिर / कारयेथाश्च कर्माणि युक्तायुक्तैरधिष्ठितैः // 11 यथा स्याद्विदितं राजस्तथा कार्यमरिंदम // 26 सेनाप्रणेता च भवेत्तव तात दृढव्रतः / इति श्रीमहाआरते आश्रमवासिकपर्वणि शूरः क्लेशसहश्चैव प्रियश्च तव मानवः // 12 नवमोऽध्यायः॥९॥ सर्वे जानपदाश्चैव तव कर्माणि पाण्डव / पौरोगवाश्च सभ्याश्च कुर्ये व्यवहारिणः // 13 धृतराष्ट्र उवाच / स्वरन्ध्र पररन्धं च स्वेषु चैव परेषु च / व्यवहाराश्च ते तात नित्यमाप्तैरधिष्ठिताः / उपलक्षयितव्यं ते नित्यमेव युधिष्ठिर // 14 योज्यास्तुष्टैर्हितै राजन्नित्यं चारैरनुष्ठिताः // 1 देशान्तरस्थाश्च नरा विक्रान्ताः सर्वकर्मसु / परिमाणं विदित्वा च दण्डं दण्ड्येषु भारत / मात्राभिरनुरूपाभिरनुग्राह्या हितास्त्वया // 15 प्रणयेयुर्यथान्यायं पुरुषास्ते युधिष्ठिर // 2 | गुणार्थिनां गुणः कार्यो विदुषां ते जनाधिप / -2867 - Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 10. 16] महाभारते [15. 12.6 11 अविचाल्याश्च ते ते स्युर्यथा मेरुर्महागिरिः॥ 16 क्रमेण युगपहुंद्वं व्यसनानां बलाबलम् // 12 इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि पीडनं स्तम्भनं चैव कोशभङ्गस्तथैव च / दामोऽध्यायः॥ 10 // कार्य यत्नेन शत्रूणां स्वराष्ट्र रक्षता स्वयम् // 15 न च हिंस्योऽभ्युपगतः सामन्तो वृद्धिमिच्छता / धृतराष्ट्र उवाच / कौन्तेय तं न हिंसेत यो महीं विजिगीषते // 14 मण्डलानि च बुध्येथाः परेषामात्मनस्तथा / गणानां भेदने योगं गच्छेथाः सह मत्रिभिः / उदासीनगुणानां च मध्यमानां तथैव च // 1 साधुसंग्रहणाच्चैव पापनिग्रहणात्तथा // 15 चतुर्णा शत्रुजातानां सर्वेषामाततायिनाम् / दुर्बलाश्चापि सततं नावष्टभ्या बलीयसा / मित्रं चामित्रमित्रं च बोद्धव्यं तेऽरिकर्शन // 2 तिष्ठेथा राजशार्दूल वैतसी वृत्तिमास्थितः // 16 तथामात्या जनपदा दुर्गाणि विषमाणि च / यद्येवमभियायाच दुर्बलं बलवान्नृपः / .. बलानि च कुरुश्रेष्ठ भवन्त्येषां यथेच्छकम् // 3 सामादिभिरुपायैस्तं क्रमेण विनिवर्तयेत् // 17 ते च द्वादश कौन्तेय राज्ञां वै विविधात्मकाः। अशक्नुवंस्तु युद्धाय निष्पतेत्सह मत्रिभिः / मश्रिप्रधानाश्च गुणाः षष्टिादश च प्रभो // 4 कोशेन पौरैर्दण्डेन ये चान्ये प्रियकारिणः // 15 एतन्मण्डलमित्याहुराचार्या नीतिकोविदाः / असंभवे तु सर्वस्य यथामुख्येन निष्पतेत् / अत्र षानुण्यमायत्तं युधिष्ठिर निबोध तत् // 5 क्रमेणानेन मोक्षः स्याच्छरीरमपि केवलम् // 1 // वृद्धिक्षयौ च विज्ञेयौ स्थानं च कुरुनन्दन।। इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि द्विसप्तत्या महाबाहो ततः षाड्गुण्यचारिणः // 6 एकादशोऽध्यायः / / 11 // यदा स्वपक्षो बलवान्परपक्षस्तथाबलः / विगृह्य शत्रून्कौन्तेय यायारिक्षतिपतिस्तदा // 7 धृतराष्ट्र उवाच / यदा स्वपक्षोऽबलवांस्तदा संधि समाश्रयेत् / संधिविग्रहमप्यत्र पश्येथा राजसत्तम / द्रव्याणां संचयश्चैव कर्तव्यः स्यान्महांस्तथा / द्वियोनि त्रिविधोपानं बहुकल्पं युधिष्ठिर // 1 यदा समर्थो यानाय नचिरेणैव भारत // 8 राजेन्द्र पर्युपासीथाश्छित्त्वा द्वैविध्यमात्मनः / तदा सर्व विधेयं स्यात्स्थानं च न विभाजयेत् / तुष्टपुष्टबलः शत्रुरात्मवानिति च स्मरेत् / / 2 भूमिरल्पफला देया विपरीतस्य भारत // 9 पर्युपासनकाले तु विपरीतं विधीयते। हिरण्यं कुप्यभूयिष्ठं मित्रं क्षीणमकोशवत् / आमर्दकाले राजेन्द्र व्यपसर्पस्ततो वरः // 3 विपरीतान्न गृहीयात्स्वयं संधिविशारदः // 10 व्यसनं भेदनं चैव शत्रूणां कारयेत्ततः / संध्यर्थ राजपुत्रं च लिप्सेथा भरतर्षभ / कर्शनं भीषणं चैव युद्धे चापि बहुक्षयम् // 4 विपरीतस्तु तेऽदेयः पुत्र कस्यांचिदापदि / प्रयास्यमानो नृपतिस्त्रिविधं परिचिन्तयेत् / तस्य प्रमोक्षे यत्नं च कुर्याः सोपायमत्रवित्॥११ आत्मनश्चैव शत्रोश्च शक्तिं शास्त्रविशारदः // 5 प्रकृतीनां च कौन्तेय राजा दीनां विभावयेत् / / उत्साहप्रभुशक्तिभ्यां मत्रशक्त्या च भारत / -2868 - Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 12. 6] आश्रमवासिकपर्व [15. 13. 8 13 उपपन्नो नरो यायाद्विपरीतमतोऽन्यथा // 6 उभयोर्लोकयोस्तात प्राप्तये नित्यमेव च // 20 आददीत बलं राजा मौलं मित्रबलं तथा / भीष्मेण पूर्वमुक्तोऽसि कृष्णेन विदुरेण च / अटवीबलं भृतं चैव तथा श्रेणीबलं च यत् // 7 मयाप्यवश्यं वक्तव्यं प्रीत्या ते नृपसत्तम / / 21 तत्र मित्रबलं राजन्मौलेन च विशिष्यते। एतत्सर्व यथान्यायं कुर्वीथा भूरिदक्षिण / श्रेणीबलं भृतं चैव तुल्य एवेति मे मतिः // 8 प्रियस्तथा प्रजानां त्वं स्वर्ग सुखमवाप्स्यसि // 22 तथा चारबलं चैव परस्परसमं नृप / अश्वमेधसहस्रेण यो यजेत्पृथिवीपतिः / विज्ञेयं बलकालेषु राज्ञा काल उपस्थिते // 9 . पालयेद्वापि धर्मेण प्रजास्तुल्यं फलं लभेत् // 23 आपदश्चापि बोद्धव्या बहुरूपा नराधिप / इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि भवन्ति राज्ञां कौरव्य यास्ताः पृथगतः शृणु // 10 द्वादशोऽध्यायः // 12 // विकल्पा बहवो राजन्नापदां पाण्डुनन्दन / सामादिभिरुपन्यस्य शमयेत्तान्नृपः सदा // 11 युधिष्ठिर उवाच / यात्रां यायालैर्युक्तो राजा षड्भिः परंतप / / एवमेतत्करिष्यामि यथात्थ पृथिवीपते / संयुक्तो देशकालाभ्यां बलैरात्मगुणैस्तथा // 12 भूयश्चैवानुशास्योऽहं भवता पार्थिवर्षभ // 1 तुष्टपुष्टबलो यायाद्राजा वृद्धथुदये रतः / भीष्मे स्वर्गमनुप्राप्ते गते च मधुसूदने / आहूतश्चाप्यथो यायादनृतावपि पार्थिवः // 13 विदुरे संजये चैव कोऽन्यो मां वक्तुमर्हति // 2 स्थूणाश्मानं वाजिरथप्रधानां यत्तु मामनुशास्तीह भवानद्य हिते स्थितः / ___ध्वजद्रुमैः संवृतकूलरोधसम् / कर्तास्म्येतन्महीपाल निर्वृतो भव भारत // 3 पदातिनागैर्बहुकर्दमां नदी __सपत्ननाशे नृपतिः प्रयायात् // 14 वैशंपायन उवाच / अथोपपत्त्या शकटं पद्मं वजं च भारत / एवमुक्तः स राजर्षिर्धर्मराजेन धीमता / उशना वेद यच्छास्त्रं तत्रैतद्विहितं विभो // 15 कौन्तेयं समनुज्ञातुमियेष भरतर्षभ // 4 सादयित्वा परयलं कृत्वा च बलहर्षणम् / पुत्र विश्रम्यतां तावन्ममापि बलवान् श्रमः / स्वभूमौ योजयेद्युद्धं परभूमौ तथैव च // 16 इत्युक्त्वा प्राविशद्राजा गान्धार्या भवनं तदा // 5 लब्धं प्रशमयेद्राजा निक्षिपेद्धनिनो नरान् / तमासनगतं देवी गान्धारी धर्मचारिणी / ज्ञात्वा स्वविषयं तं च सामादिभिरुपक्रमेत् // 17 उवाच काले कालज्ञा प्रजापतिसमं पतिम् // 6 सर्वथैव महाराज शरीरं धारयेदिह / अनुज्ञातः स्वयं तेन व्यासेनापि महर्षिणा / प्रेत्येह चैव कर्तव्यमात्मनिःश्रेयसं परम् // 18. युधिष्ठिरस्यानुमते कदारण्यं गमिष्यसि // 7 एवं कुर्वशुभा वाचो लोकेऽस्मिन्शृणुते नृपः / धृतराष्ट्र उवाच। प्रेत्य स्वर्ग तथाप्नोति प्रजा धर्मेण पालयन् // 19 गान्धार्यहमनुज्ञातः स्वयं पित्रा महात्मना / एवं त्वया कुरुश्रेष्ठ वर्तितव्यं प्रजाहितम् / युधिष्ठिरस्यानुमते गन्तास्मि नचिराद्वनम् // 8 -2869 - Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 13. 9] महाभारते [15. 14. 11 अहं हि नाम सर्वेषां तेषां दुर्भूतदेविनाम् / तानविब्रुवतः किंचिद्दुःखशोकपरायणान् / पुत्राणां दातुमिच्छामि प्रेत्यभावानुगं वसु / पुनरेव महातेजा धृतराष्ट्रोऽब्रवीदिदम् / / 22 सर्वप्रकृतिसांनिध्यं कारयित्वा स्ववेश्मनि // 9 इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि वैशंपायन उवाच / त्रयोदशोऽध्यायः॥ 13 // इत्युक्त्वा धर्मराजाय प्रेषयामास पार्थिवः / स च तद्वचनात्सर्वं समानिन्ये महीपतिः // 10 धृतराष्ट्र उवाच / ततो निष्क्रम्य नृपतिस्तस्मादन्तःपुरात्तदा / शंतनुः पालयामास यथावत्पृथिवीमिमाम् / सर्व सुहृज्जनं चैव सर्वाश्च प्रकृतीस्तथा / तथा विचित्रवीर्यश्च भीष्मेण परिपालितः / समवेतांश्च तान्सर्वान्पौरजानपदानथ // 11 पालयामास वस्तातो विदितं वो नसंशयः // 1 ब्राह्मणांश्च महीपालान्नानादेशसमागतान् / यथा च पाण्डु_ता मे दयितो भवतामभूत् / ततः प्राह महातेजा धृतराष्ट्रो महीपतिः // 12 स चापि पालयामास यथावत्तच्च वेत्थ ह // 2 शृण्वन्त्येकाग्रमनसो ब्राह्मणाः कुरुजाङ्गलाः / मया च भवतां सम्यक्शुश्रूषा या कृतानघाः / क्षत्रियाश्चैव वैश्याश्च शूद्राश्चैव समागताः // 13 असम्यग्वा महाभागास्तत्क्षन्तव्यमन्तन्द्रितैः // 3 भवन्तः कुरवश्चैव बहुकालं सहोषिताः। यच्च दुर्योधनेनेदं राज्यं भुक्तमकण्टकम् / परस्परस्य सुहृदः परस्परहिते रताः // 14 अपि तत्र न वो मन्दो दुर्बुद्धिरपराद्धवान् // 4 यदिदानीमहं ब्रयामस्मिन्काल उपस्थिते / तस्यापराधादुर्बुद्धेरभिमानान्महीक्षिताम् / तथा भवद्भिः कर्तव्यमविचार्य वचो मम // 15 विमर्दः सुमहानासीदनयान्मत्कृतादथ // 5 अरण्यगमने बुद्धिर्गान्धारीसहितस्य मे।। तन्मया साधु वापीदं यदि वासाधु वै कृतम् / व्यासस्यानुमते राज्ञस्तथा कुन्तीसुतस्य च। तद्वो हृदि न कर्तव्यं मामनुज्ञातुमर्हथ // 6 भवन्तोऽप्यनुजानन्तु मा वोऽन्या भूद्विचारणा / / वृद्धोऽयं हतपुत्रोऽयं दुःखितोऽयं जनाधिपः / अस्माकं भवतां चैव येयं प्रीतिर्हि शाश्वती।। पूर्वराज्ञां च पुत्रोऽयमिति कृत्वानुजानत // 7 न चान्येष्वस्ति देशेषु राज्ञामिति मतिर्मम // 17 इयं च कृपणा वृद्धा हतपुत्रा तपस्विनी / श्रान्तोऽस्मि वयसानेन तथा पुत्रविनाकृतः / गान्धारी पुत्रशोकार्ता तुल्यं याचति वो मया // 8 उपवासकृशश्चास्मि गान्धारीसहितोऽनघाः / / 18 हतपुत्राविमौ वृद्धौ विदित्वा दुःखितौ तथा। युधिष्ठिरगते राज्ये प्राप्तश्चास्मि सुखं महत् / / अनुजानीत भद्रं वो बजावः शरणं च वः // 9 मन्ये दुर्योधनैश्वर्याद्विशिष्टमिति सत्तमाः॥ 19 अयं च कौरवो राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः / मम त्वन्धस्य वृद्धस्य हतपुत्रस्य का गतिः / सर्वैर्भवद्भिद्रष्टव्यः समेषु विषमेषु च / ऋते वनं महाभागास्तन्मानुज्ञातुमर्हथ // 20 न जातु विषमं चैव गमिष्यति कदाचन / / 10 तस्य तद्वचनं श्रुत्वा सर्वे ते कुरुजाङ्गलाः / चत्वारः सचिवा यस्य भ्रातरो विपुलौजसः। बाष्पसंदिग्धया वाचा रुरुदुर्भरतर्षभ // 21 / लोकपालोपमा ह्येते सर्व धर्मार्थदर्शिनः // 11 -2870 - Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 14. 12 ] आश्रमवासिकपर्व [ 15. 15. 21 ब्रह्मेव भगवानेष सर्वभूतजगत्पतिः / रुरुदुः शोकसंतप्ता मुहूर्तं पितृमातृवत् // 7 युधिष्ठिरो महातेजा भवतः पालयिष्यति // 12 हृदयैः शून्यभूतैस्ते धृतराष्ट्रप्रवासजम् / अवश्यमेव वक्तव्यमिति कृत्वा ब्रवीमि वः / दुःखं संधारयन्तः स्म नष्टसंज्ञा इवाभवन् // 8 एष न्यासो मया दत्तः सर्वेषां वो युधिष्ठिरः / ते विनीय तमायासं कुरुराजवियोगजम् / भवन्तोऽस्य च वीरस्य न्यासभूता मया कृताः॥ शनैः शनैस्तदान्योन्यमब्रुवन्स्वमतान्युत // 9 यद्येव तैः कृतं किंचिद्यलीकं वा सुतैर्मम / ततः संधाय ते सर्वे वाक्यानथ समासतः / यद्यन्येन मदीयेन तदनुज्ञातुमर्हथ // 14 . एकस्मिन्ब्राह्मणे राजन्नावेश्योचुनराधिपम् // 10 भवद्भिर्हि न मे मन्युः कृतपूर्वः कथंचन / ततः स्वचरणे वृद्धः संमतोऽर्थविशारदः / अत्यन्तगुरुभक्तानामेषोऽञ्जलिरिदं नमः // 15 साम्बाख्यो बढ्चो राजन्वक्तुं समुपचक्रमे // 11 तेषामस्थिरबुद्धीनां लुब्धानां कामचारिणाम् / अनुमान्य महाराजं तत्सदः संप्रभाष्य च / कृते याचामि वः सर्वान्गान्धारीसहितोऽनघाः॥ विप्रः प्रगल्भो मेधावी स राजानमुवाच ह // 12 इत्युक्तास्तेन ते राज्ञा पौरजानपदा जनाः / राजन्वाक्यं जनस्यास्य मयि सर्व समर्पितम् / नोचुर्बाष्पकलाः किंचिद्वीक्षांचक्रुः परस्परम् // 17 वक्ष्यामि तदहं वीर तज्जुषस्व नराधिप // 13 इति महाभारते आश्रमवासिकपर्वणि यथा वदसि राजेन्द्र सर्वमेतत्तथा विभो। चतुर्दशोऽध्यायः // 14 // नात्र मिथ्या वचः किंचित्सुहृत्त्वं नः परस्परम् // न जात्वस्य तु वंशस्य राज्ञां कश्चित्कदाचन / .. वैशंपायन उवाच / राजासीद्यः प्रजापालः प्रजानामप्रियो भवेत् // 15 एवमुक्तास्तु ते तेन पौरजानपदा जनाः। पितृवद्धातृवच्चैव भवन्तः पालयन्ति नः / वृद्धेन राज्ञा कौरव्य नष्टसंज्ञा इवाभवन् // 1 न च दुर्योधनः किंचिदयुक्तं कृतवान्नप // 16 तूष्णीभूलांस्ततस्तांस्तु बाष्पकण्ठान्महीपतिः / यथा ब्रवीति धर्मज्ञो मुनिः सत्यवतीसुतः / धृतराष्ट्रो महीपालः पुनरेवाभ्यभाषत // 2 तथा कुरु महाराज स हि नः परमो गुरुः // 17 वृद्धं मां हतपुत्रं च धर्मपन्या सहानया / त्यक्ता वयं तु भवता दुःखशोकपरायणाः / विलपन्तं बहुविधं कृपणं चैव सत्तमाः // 3 भविष्यामश्चिरं राजन्भवद्गुणशतैर्हताः // 18 पित्रा स्वयमनुज्ञातं कृष्णद्वैपायनेन वै / यथा शंतनुना गुप्ता राज्ञा चित्राङ्गदेन च / वनवासाय धर्मज्ञा धर्मज्ञेन नृपेण च // 4 भीष्मवीर्योपगूढेन पित्रा च तव पार्थिव // 19 सोऽहं पुनः पुनर्याचे शिरसावनतोऽनघाः / भवद्बुद्धियुजा चैव पाण्डुना पृथिवीक्षिता / गान्धार्या सहितं तन्मां समनुज्ञातुमर्हथ // 5 तथा दुर्योधनेनापि राज्ञा सुपरिपालिताः // 20 श्रुत्वा तु कुरुराजस्य वाक्यानि करुणानि ते / न स्वल्पमपि पुत्रस्ते व्यलीकं कृतवान्नप / रुरुदुः सर्वतो राजन्समेताः कुरुजाङ्गलाः // 6 पितरीव सुविश्वस्तास्तस्मिन्नपि नराधिपे / उत्तरीयैः करैश्चापि संछाद्य वदनानि ते / वयमास्म यथा सम्यग्भवतो विदितं तथा // 21 - 2871 - Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 15. 22 ] महाभारते [ 15. 16. 28 तथा वर्षसहस्राय कुन्तीपुत्रेण धीमता। यद्विनष्टाः कुरुश्रेष्ठा राजानश्च सहस्रशः। पाल्यमाना धृतिमता सुखं विन्दामहे नृप // 22 सर्व दैवकृतं तद्वै कोऽत्र किं वक्तुमर्हति // 9 राजर्षीणां पुराणानां भवतां वंशधारिणाम् / गुरुर्मतो भवानस्य कृत्स्नस्य जगतः प्रभुः / कुरुसंवरणादीनां भरतस्य च धीमतः // 23 धर्मात्मानमतस्तुभ्यमनुजानीमहे सुतम् // 10 वृत्तं समनुयात्येष धर्मात्मा भूरिदक्षिणः / लभतां वीरलोकान्स ससहायो नराधिपः / नात्र वाच्यं महाराज सुसूक्ष्ममपि विद्यते // 24 / द्विजाग्र्यः समनुज्ञातखिदिवे मोदतां सुखी // 11 उषिताः स्म सुखं नित्यं भवता परिपालिताः। प्राप्स्यते च भवान्पुण्यं धर्मे च परमां स्थितिम् / सुसूक्ष्मं च व्यलीकं ते सपुत्रस्य न विद्यते // 25 वेद पुण्यं च कात्स्न्येन सम्यग्भरतसत्तम // 12 यत्तु ज्ञातिविमर्देऽस्मिन्नात्थ दुर्योधनं प्रति / दृष्टापदानाश्चास्माभिः पाण्डवाः पुरुषर्षभाः / भवन्तमनुनेष्यामि तत्रापि कुरुनन्दन // 26 समर्थास्त्रिदिवस्यापि पालने किं पुनः क्षितेः // 13 इति श्रीमहाभारते आश्रवासिकपर्वणि अनुवत्स्यन्ति चापीमाः समेषु विषमेषु च / पञ्चदशोऽध्यायः // 15 // प्रजाः कुरुकुलश्रेष्ठ पाण्डवाशीलभूषणान् // 14 ब्रह्मदेयाग्रहारांश्च परिहारांश्च पार्थिव / ब्राह्मण उवाच / पूर्वराजातिसर्गाश्च पालयत्येव पाण्डवः // 15 न तहुर्योधनकृतं न च तद्भवता कृतम् / दीर्घदर्शी कृतप्रज्ञः सदा वैश्रवणो यथा / न कर्णसौबलाभ्यां च कुरवो यत्क्षयं गताः // 1 // अक्षुद्रसचिवश्वायं कुन्तीपुत्रो महामनाः // 16 दैवं तत्तु विजानीमो यन्न शक्यं प्रबाधितुम् / अप्यमित्रे दयावांश्च शुचिश्च भरतर्षभ / दैवं पुरुषकारेण न शक्यमतिवर्तितुम् // 2 ऋजु पश्यति मेधावी पुत्रवत्पाति नः सदा // 17 अक्षौहिण्यो महाराज दशाष्टौ च समागताः / विप्रियं च जनस्यास्य संसर्गाद्धर्मजस्य वै। अष्टादशाहेन हता दशभिर्योधपुंगवैः // 3 न करिष्यन्ति राजर्षे तथा भीमार्जुनादयः // 18 मीष्मद्रोणकृपाद्यैश्च कर्णेन च महात्मना / मन्दा मृदुषु कौरव्यास्तीक्ष्णेष्वाशीविषोपमाः / युयुधानेन वीरेण धृष्टद्युम्नेन चैव ह // 4 वीर्यवन्तो महात्मानः पौराणां च हिते रताः // 19 चतुर्भिः पाण्डुपुत्रैश्च भीमार्जुनयमैर्नृप / न कुन्ती न च पाश्चाली न चोलूपी न सात्वती। जनक्षयोऽयं नृपते कृतो दैवबलात्कृतैः // 5 अस्मिञ्जने करिष्यन्ति प्रतिकूलानि कर्हि चित् // 20 अवश्यमेव संग्रामे क्षत्रियेण विशेषतः / भवत्कृतमिमं स्नेहं युधिष्ठिरविवर्धितम् / कर्तव्यं निधनं लोके शस्त्रेण क्षत्रबन्धुना // 6 न पृष्ठतः करिष्यन्ति पौरजानपदा जनाः // 21 तैरियं पुरुषव्याघैर्विद्याबाहुबलान्वितैः / अधर्मिष्ठानपि सतः कुन्तीपुत्रा महारथाः / पृथिवी निहता सर्वा सहया सरथद्विपा // 7 मानवान्पालयिष्यन्ति भूत्वा धर्मपरायणाः // 22 न स राजापरानोति पुत्रस्तव महामनाः / स राजन्मानसं दुःखमपनीय युधिष्ठिरात् / न भवान्न न च ते भृत्या न कर्णो न च सौबलः // 8 | कुरु कार्याणि धाणि नमस्ते भरतर्षभ // 23 - 2872 - Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 16. 24 ] आश्रमवासिकपर्व [ 15. 17. 21 वैशंपायन उवाच / भीम राजा पिता वृद्धो वनवासाय दीक्षितः / तस्य तद्वचनं धर्म्यमनुबन्धगुणोत्तरम् / दातुमिच्छति सर्वेषां सुहृदामौर्ध्वदेहिकम् // 9 साधु साध्विति सर्वः स जनः प्रतिगृहीतवान् // भवता निर्जितं वित्तं दातुमिच्छति कौरवः / धृतराष्ट्रश्च तद्वाक्यमभिपूज्य पुनः पुनः / भीष्मादीनां महाबाहो तदनुज्ञातुमर्हसि // 10 विसर्जयामास तदा सर्वास्तु प्रकृतीः शनैः // 25 दिष्ट्या त्वद्य महाबाहो धृतराष्ट्रः प्रयाचति / स तैः संपूजितो राजा शिवेनावेक्षितस्तदा। याचितो यः पुरास्माभिः पश्य कालस्य पर्ययम् // प्राञ्जलिः पूजयामास तं जनं भरतर्षभ // 26 / योऽसौ पृथिव्याः कृत्स्नाया भर्ता भूत्वा नराधिप / ततो विवेश भुवनं गान्धार्या सहितो नृपः। परैर्विनिहतापत्यो वनं गन्तुमभीप्सति // 12 व्युष्टायां चैव शर्वयां यच्चकार निबोध तत् // 27 मा तेऽन्यत्पुरुषव्याघ्र दानाद्भवतु दर्शनम् / इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि अयशस्यमतोऽन्यत्स्यादधयं च महाभुज // 13 षोडशोऽध्यायः // 16 // राजानमुपतिष्ठस्व ज्येष्ठं भ्रातरमीश्वरम् / 17 अहंस्त्वमसि दातुं वै नादातुं भरतर्षभ / वैशंपायन उवाच / एवं बुवाणं कौन्तेयं धर्मराजोऽभ्यपूजयत् // 14 व्युषितायां रजन्यां तु धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः / भीमसेनस्तु सक्रोधः प्रोवाचेदं वचस्तदा / विदुरं प्रेषयामास युधिष्ठिरनिवेशनम् // 1 वयं भीष्मस्य कुर्मेह प्रेतकार्याणि फल्गुन // 15 स गत्वा राजवचनादुवाचाच्युतमीश्वरम् / सोमदत्तस्य नृपतेर्भूरिश्रवस एव च / युधिष्ठिरं महातेजाः सर्वबुद्धिमतां वरः // 2 बाह्रीकस्य च राजर्षेनॊणस्य च महात्मनः // 16 धृतराष्ट्रो महाराज वनवासाय दीक्षितः / अन्येषां चैव सुहृदां कुन्ती कर्णाय दास्यति / गमिष्यति वनं राजन्कार्तिकीमागतामिमाम् // 3 श्राद्धानि पुरुषव्याघ्र मादात्कौरवको नृपः // 17 स त्वा कुरुकुलश्रेष्ठ किंचिदर्थमभीप्सति / इति मे वर्तते बुद्धिर्मा वो नन्दन्तु शत्रवः। श्राद्धमिच्छति दातुं स गाङ्गेयस्य महात्मनः॥ 4 कष्टात्कष्टतरं यान्तु सर्वे दुर्योधनादयः / द्रोणस्य सोमदत्तस्य बाह्रीकस्य च धीमतः / यैरियं पृथिवी सर्वा घातिता कुलपांसनैः // 18 पुत्राणां चैव सर्वेषां ये चास्य सुहृदो हताः। कुतस्त्वमद्य विस्मृत्य वैरं द्वादशवार्षिकम् / यदि चाभ्यनुजानीषे सैन्धवापसदस्य च // 5 अज्ञातवासगमनं द्रौपदीशोकवर्धनम् / एतच्छ्रुत्वा तु वचनं विदुरस्य युधिष्ठिरः।। क तदा धृतराष्ट्रस्य स्नेहोऽस्मास्वभवत्तदा // 19 हृष्टः संपूजयामास गुडाकेशश्च पाण्डवः // 6 कृष्णाजिनोपसंवीतो हृताभरणभूषणः / न तु भीमो दृढक्रोधस्तद्वचो जगृहे तदा। साधं पाश्चालपुत्र्या त्वं राजानमुपजग्मिवान् / विदुरस्य महातेजा दुर्योधनकृतं स्मरन् // 7 क तदा द्रोणभीष्मौ तौ सोमदत्तोऽपि वाभवत् // अभिप्रायं विदित्वा तु भीमसेनस्य फल्गुनः / यत्र त्रयोदश समा वने वन्येन जीवसि / किरीटी किंचिदानम्य भीमं वचनमब्रवीत् // 8 न तदा त्वा पिता ज्येष्ठः पितृत्वेनाभिवीक्षते // 21 म. भा. 360 -2873 - Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 17. 22] महाभारते [ 15. 19. 12 किं ते तद्विस्मृतं पार्थ यदेष कुलपांसनः / पुत्राणां सुहृदां चैव गच्छत्वानृण्यमद्य सः // 11 दुर्वृत्तो विदुरं प्राह ते किं जितमित्युत // 22 / इदं चापि शरीरं मे तवायत्तं जनाधिप / तमेवंवादिनं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। धनानि चेति विद्धि त्वं क्षत्तर्नास्त्यत्र संशयः // 12 उवाच भ्रातरं धीमाञ्जोषमास्वेति भर्त्सयन् // 23 इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि अष्टादशोऽध्यायः // 18 // सप्तदशोऽध्यायः // 17 // वैशंपायन उवाच / अर्जुन उवाच। एवमुक्तस्तु राज्ञा स विदुरो बुद्धिसत्तमः / भीम ज्येष्ठो गुरुर्मे त्वं नातोऽन्यद्वक्तुमुत्सहे। धृतराष्ट्रमुपेत्येदं वाक्यमाह महार्थवत् / / 1 धृतराष्ट्रो हि राजर्षिः सर्वथा मानमर्हति // 1 उक्तो युधिष्टिरो राजा भवद्वचनमादितः / . . न स्मरन्त्यपराद्धानि स्मरन्ति सुकृतानि च / स च संश्रुत्य वाक्यं ते प्रशशंस महाद्युतिः // 2 असंभिन्नार्थमर्यादाः साधवः पुरुषोत्तमाः // 2 बीभत्सुश्च महातेजा निवेदयति ते गृहान् / इदं मद्वचनात्क्षत्तः कौरवं ब्रूहि पार्थिवम् / .. वसु तस्य गृहे यञ्च प्राणानपि च केवलान् // 3 यावदिच्छति पुत्राणां दातुं तावद्ददाम्यहम् // 3 धर्मराजश्च पुत्रस्ते राज्यं प्राणान्धनानि च / भीष्मादीनां च सर्वेषां सुहृदामुपकारिणाम् / अनुजानाति राजर्षे यच्चान्यदपि किंचन // 4 . मम कोशादिति विभो मा भूभीमः सुदुर्मनाः // 4 भीमस्तु सर्वदुःखानि संस्मृत्य बहुलान्युत / वैशंपायन उवाच / कृच्छ्रादिव महावाहुरनुमन्ये विनिःश्वसन् // 5 इत्युक्ते धर्मराजस्तमर्जुनं प्रत्यपूजयत् / स राज्ञा धर्मशीलेन भ्रात्रा बीभत्सुना तथा / भीमसेनः कटाक्षेण वीक्षांचक्रे धनंजयम् // 5 अनुनीतो महावाहुः सौहृदे स्थापितोऽपि च // 6 ततः स विदुरं धीमान्वाक्यमाह युधिष्ठिरः। न च मन्युस्त्वया कार्य इति त्वां प्राह धर्मराट् / न भीमसेने कोपं स नृपतिः कर्तुमर्हति // 6 संस्मृत्य भीमस्तद्वैरं यदन्यायवदाचरेत् // 7 परिक्लिष्टो हि भीमोऽयं हिमवृष्ट्यातपादिभिः / एवंप्रायो हि धर्मोऽयं क्षत्रियाणां नराधिप / दुःखैर्बहुविधैर्धीमानरण्ये विदितं तव // 7 युद्धे क्षत्रियधर्मे च निरतोऽयं वृकोदरः // 8 किं नु मद्वचनाहि राजानं भरतर्षभम् / / वृकोदरकृते चाहमर्जुनश्च पुनः पुनः / यद्यदिच्छसि यावच्च गृह्यतां मद्गृहादिति // 8 प्रसादयाव नृपते भवान्प्रभुरिहास्ति यत् // 9 यन्मात्सर्यमयं भीमः करोति भृशदुःखितः। प्रददातु भवान्वित्तं यावदिच्छसि पार्थिव / न तन्मनसि कर्तव्यमिति वाच्यः स पार्थिवः // 9 त्वमीश्वरो नो राज्यस्य प्राणानां चेति भारत // 10 यन्ममास्ति धनं किंचिदर्जुनस्य च वेश्मनि / ब्रह्मदेयाग्रहारांश्च पुत्राणां चौर्ध्वदेहिकम् / तस्य स्वामी महाराज इति वाच्यः स पार्थिवः // इतो रत्नानि गाश्चैव दासीदासमजाविकम् // 11 ददातु राजा विप्रेभ्यो यथेष्टं क्रियतां व्ययः। / आनयित्वा कुरुश्रेष्ठो ब्राह्मणेभ्यः प्रयच्छतु / -2874 - Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 19. 12] आश्रमवासिकपर्व [ 15. 21. 4 20 दीनान्धकृपणेभ्यश्च तत्र तत्र नृपाज्ञया // 12 दीयते वचनाद्राज्ञः कुन्तीपुत्रस्य धीमतः // 9 बन्नरसपानाढ्याः सभा विदुर कारय / एवं स वसुधाराभिर्वर्षमाणो नृपाम्बुदः / गवां निपानान्यन्यच्च विविधं पुण्यकर्म यत् // 13 तर्पयामास विप्रांस्तान्वर्षन्भूमिमिवाम्बुदः // 10 इति मामब्रवीद्राजा पार्थश्चैव धनंजयः / ततोऽनन्तरमेवात्र सर्ववर्णान्महीपतिः / यदत्रानन्तरं कायं तद्भवान्वक्तुमर्हति // 14 / अन्नपानरसौघेन प्लावयामास पार्थिवः // 11 इत्युक्तो विदुरेणाथ धृतराष्ट्रोऽभिनन्द्य तत् / सवस्रफेनरत्नौघो मृदङ्गनिनदखनः / मनश्चक्रे महादाने कार्तिक्यां जनमेजय // 15 गवाश्वमकरावर्तो नारीरत्नमहाकरः // 12 इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि प्रामाग्रहारकुल्याढ्यो मणिहेमजलार्णवः / एकोनविंशोऽध्यायः // 19 // जगत्संप्लावयामास धृतराष्ट्रदयाम्बुधिः // 13 एतं स पुत्रपौत्राणां पितॄणामात्मनस्तथा। वैशंपायन उवाच / गान्धार्याश्च महाराज प्रददावौ देहिकम् // 14 विदुरेणैवमुक्तस्तु धृतराष्ट्रो जनाधिपः / परिश्रान्तो यदासीत्स ददद्दानान्यनेकशः / प्रीतिमानभवद्राजा राज्ञो जिष्णोश्च कर्मणा // 1 ततो निर्वतयामास दानयज्ञं कुरूद्वहः // 15 ततोऽभिरूपान्भीष्माय ब्राह्मणानृषिसत्तमान् / एवं स राजा कौरव्यश्चक्रे दानमहोत्सवम् / पुत्रार्थे सुहृदां चैव स समीक्ष्य सहस्रशः // 2 नटनर्तकलास्याढ्यं बह्वन्नरसदक्षिणम् // 16 कारयित्वान्नपानानि यानान्याच्छादनानि च।। दशाहमेवं दानानि दत्त्वा राजाम्बिकासुतः / सुवर्णमणिरत्नानि दासीदासपरिच्छदान् // 3 बभूव पुत्रपौत्राणामनृणो भरतर्षभ // 17 कम्बलाजिनरत्नानि ग्रामान्क्षेत्रानजाविकम / इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि अलंकारान्गजानश्वान्कन्याश्चैव वरस्त्रियः / विंशोऽध्यायः // 20 // आदिश्यादिश्य विप्रेभ्यो ददौ स नृपसत्तमः // 4 . 21 द्रोणं संकीर्त्य भीष्मं च सोमदत्तं च बाह्निकम् / वैशंपायन उवाच / दुर्योधनं च राजानं पुत्रांश्चैव पृथक्पृथक् / ततः प्रभाते राजा स धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः / जयद्रथपुरोगांश्च सुहृदश्चैव सर्वशः // 5 आहूय पाण्डवान्वीरान्वनवासकृतक्षणः // 1 स श्राद्धयज्ञो ववृधे बहुगोधनदक्षिणः। गान्धारीसहितो धीमानभिनन्द्य यथाविधि / अनेकधनरत्नौघो युधिष्ठिरमते तदा // 6 कार्तिक्या कारयित्वेष्टिं ब्राह्मणैर्वेदपारगैः // 2 अनिशं यत्र पुरुषा गणका लेखकास्तथा / अग्निहोत्रं पुरस्कृत्य वल्कलाजिनसंवृतः / युधिष्ठिरस्य वचनात्तदापृच्छन्ति तं नृपम् // 7 वधूपरिवृतो राजा निर्ययौ भवनात्ततः // 3 आज्ञापय किमेतेभ्यः प्रदेयं दीयतामिति / ततः स्त्रियः कौरवपाण्डवानां तदुपस्थितमेवात्र वचनान्ते प्रदृश्यते // 8 याश्चाप्यन्याः कौरवराजवंश्याः / शते देये दशशतं सहस्र चायुतं तथा। तासां नादः प्रादुरासीत्तदानीं -2875 - Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 21. 4] महाभारते [15. 22. 10 वैचित्रवीर्ये नृपतौ प्रयाते // 4 गजाह्वयेऽतीव बभूव राजन् / ततो लाजैः सुमनोभिश्च राजा यथा पूर्व गच्छतां पाण्डवानां विचित्राभिस्तद्गृहं पूजयित्वा / __ ते राजन्कौरवाणां सभायाम् // 12 संयोज्याथै त्यजनं च सर्व या नापश्यच्चन्द्रमा नैव सूर्यो ततः समुत्सृज्य ययौ नरेन्द्रः // 5 रामाः कदाचिदपि तस्मिन्नरेन्द्रे / ततो राजा प्राञ्जलिर्वेपमानो महावनं गच्छति कौरवेन्द्र युधिष्ठिरः सस्वनं बाष्पकण्ठः / शोकेनार्ता राजमार्ग प्रपेदुः // 13 विलप्योच्चैर्हा महाराज साधो इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि क गन्तासीत्यपतत्तात भूमौ // 6 एकविंशोऽध्यायः // 21 // तथार्जुनस्तीव्रदुःखाभितप्तो ___ मुहुर्मुहुनिःश्वसन्भारताग्र्यः / वैशंपायन उवाच / युधिष्ठिरं मैवमित्येवमुक्त्वा ततः प्रासादहर्येषु वसुधायां च पार्थिव / निगृह्याथोदीधरत्सीदमानः // 7 स्त्रीणां च पुरुषाणां च सुमहान्निस्वनोऽभवत् // 1 वृकोदरः फल्गुनश्चैव वीरौ स राजा राजमार्गेण नृनारीसंकुलेन च / माद्रीपुत्रौ विदुरः संजयश्च / कथंचिन्निर्ययौ धीमान्वेपमानः कृताञ्जलिः // 2 वैश्यापुत्रः सहितो गौतमेन स वर्धमानद्वारेण निर्ययौ गजसाह्वयात् / धौम्यो विप्राश्चान्वयुर्बाष्पकण्ठाः // 8 विसर्जयामास च तं जनघं स मुहुर्मुहुः // 3 कुन्ती गान्धारी बद्धनेत्रां व्रजन्ती वनं गन्तुं च विदुरो राज्ञा सह कृतक्षणः / स्कन्धासक्तं हस्तमथोद्वहन्ती / संजयश्च महामात्रः सूतो गावल्गणिस्तथा // 4 राजा गान्धार्याः स्कन्धदेशेऽवसज्य कृपं निवर्तयामास युयुत्सुं च महारथम् / पाणिं ययौ धृतराष्ट्रः प्रतीतः // 9 धृतराष्ट्रो महीपालः परिदाय युधिष्ठिरे // 5 तथा कृष्णा द्रौपदी यादवी च निवृत्ते पौरवर्गे तु राजा सान्तःपुरस्तदा। बालापत्या चोत्तरा कौरवी च / धृतराष्ट्राभ्यनुज्ञातो निवर्तितुमियेष सः॥ 6 चित्राङ्गदा याश्च काश्चिस्त्रियोऽन्याः सोऽब्रवीन्मातरं कुन्तीमुपेत्य भरतर्षभ / साधं राज्ञा प्रस्थितास्ता वधूभिः // 10 अहं राजानमन्विष्ये भवती विनिवर्तताम् // 7 तासां नादो रुदतीनां तदासी वधूपरिवृता राज्ञि नगरं गन्तुमर्हसि / ___ द्राजन्दुःखात्कुररीणामिवोच्चैः / राजा यात्वेष धर्मात्मा तपसे धृतनिश्चयः // 8 ततो निष्पेतुर्बाह्मणक्षत्रियाणां इत्युक्ता धर्मराजेन बाष्पव्याकुललोचना / विट्शूद्राणां चैव नार्यः समन्तात् // 11 जगादेवं तदा कुन्ती गान्धारी परिगृह्य ह // 9 तन्निर्याणे दुःखितः पौरवर्गो सहदेवे महाराज मा प्रमादं कृथाः कचित् / -2876 Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 22. 10 ] आश्रमवासिकपर्व [15. 23.5 एष मामनुरक्तो हि राजंस्त्वां चैव नित्यदा // 10 यदा राज्यमिदं कुन्ति भोक्तव्यं पुत्रनिर्जितम् / कर्ण स्मरेथाः सततं संग्रामेष्वपलायिनम् / प्राप्तव्या राजधर्माश्च तदेयं ते कुतो मतिः // 25 अवकीर्णो हि स मया वीरो दुष्प्रज्ञया तदा॥११ किं वयं कारिताः पूर्वं भवत्या पृथिवीक्षयम् / आयसं हृदयं नूनं मन्दाया मम पुत्रक / कस्य हेतोः परित्यज्य वनं गन्तुमभीप्ससि // 26 यत्सूर्यजमपश्यन्त्याः शतधा न विदीर्यते // 12 वनाच्चापि किमानीता भवत्या बालका वयम् / एवंगते तु किं शक्यं मया कर्तुमरिंदम / दुःखशोकसमाविष्टौ माद्रीपुत्राविमौ तथा // 27 मम दोषोऽयमत्यर्थं ख्यापितो यन्न सूर्यजः।. प्रसीद मातर्मा गास्त्वं वनमद्य यशस्विनि / तन्निमित्तं महाबाहो दानं दद्यास्त्वमुत्तमम् // 13 श्रियं यौधिष्ठिरी तावद्भुत पार्थबलार्जिताम् // 28 सदैव भ्रातृभिः सार्धमग्रजस्यारिमर्दन / . इति सा निश्चितैवाथ वनवासकृतक्षणा / द्रौपद्याश्च प्रिये नित्यं स्थातव्यमरिकर्शन // 14 लालप्यतां बहुविधं पुत्राणां नाकरोद्वचः // 29 भीमसेनार्जुनौ चैव नकुलश्च कुरूद्वह / द्रौपदी चान्वयाच्श्रं विषण्णवदना तदा / समाधेयास्त्वया वीर त्वय्यद्य कुलधूर्गता // 15 वनवासाय गच्छन्तीं रुदती भद्रया सह // 30 श्वश्रूश्वशुरयोः पादाशुश्रूषन्ती वने त्वहम् / / सा पुत्रान्रुदतः सर्वान्मुहुर्मुहुरवेक्षती / गान्धारीसहिता वत्स्ये तापसी मलपङ्किनी // 16 जगामैव महाप्राज्ञा वनाय कृतनिश्चया // 31 एवमुक्तः स धर्मात्मा भ्रातृभिः सहितो वशी। अन्वयुः पाण्डवास्तां तु सभृत्यान्तःपुरास्तदा / विषादमगमत्तीव्र न च किंचिदुवाच ह // 17 ततः प्रमृज्य साश्रूणि पुत्रान्वचनमब्रवीत् // 32 स मुहूर्तमिव ध्यात्वा धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः / इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि उवाच मातरं दीनश्चिन्ताशोकपरायणः // 18 द्वाविंशोऽध्यायः॥ 22 // किमिदं ते व्यवसितं नैवं त्वं वक्तुमर्हसि / न त्वामभ्यनुजानामि प्रसादं कर्तुमर्हसि // 19 कुन्त्युवाच। व्यरोचयः पुरा ह्यस्मानुत्साह्य प्रियदर्शने / एवमेतन्महाबाहो यथा वदसि पाण्डव / विदुराया वचोभिस्त्वमस्मान्न त्यक्तुमर्हसि // 20 कृतमुद्धर्षणं पूर्व मया वः सीदतां नृप // 1 निहत्य पृथिवीपालान्राज्यं प्राप्तमिदं मया / द्यूतापहृतराज्यानां पतितानां सुखादपि / तव प्रज्ञामुपश्रुत्य वासुदेवान्नरर्षभात् // 21 ज्ञातिभिः परिभूतानां कृतमुद्धर्षणं मया // 2 क सा बुद्धिरियं चाद्य भवत्या या श्रुता मया / कथं पाण्डोर्न नश्येत संततिः पुरुषर्षभाः / क्षत्रधर्मे स्थिति ह्युक्त्वा तस्याश्चलितुमिच्छसि // 22 यशश्च वो न नश्येत इति चोद्धर्षणं कृतम् // 3 अस्मानुत्सृज्य राज्यं च स्नुषां चेमां यशस्विनीम्। यूयमिन्द्रसमाः सर्वे देवतुल्यपराक्रमाः / कथं वत्स्यसि शून्येषु वनेष्वम्ब प्रसीद मे // 23 / मा परेषां मुखप्रेक्षाः स्थेत्येवं तत्कृतं मया // 4 इति बाष्पकलां वाचं कुन्ती पुत्रस्य शृण्वती। कथं धर्मभृतां श्रेष्ठो राजा त्वं वासवोपमः। जगामैवाश्रुपूर्णाक्षी भीमस्तामिदमब्रवीत् // 24 / पुनर्वने न दुःखी स्या इति चोद्धर्षणं कृतम् // 5 -2877 - 23 Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 23. 6] महाभारते [ 15. 24. 12 नागायुतसमप्राणः ख्यातविक्रमपौरुषः। निवर्तस्व कुरुश्रेष्ठ भीमसेनादिभिः सह / नायं भीमोऽत्ययं गच्छेदिति चोद्धर्षणं कृतम् // 6- धर्मे ते धीयतां बुद्धिर्मनस्ते महदस्तु च // 21 भीमसेनादवरजस्तथायं वासवोपमः / इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि विजयो नावसीदेत इति चोद्धर्षणं कृतम् // . त्रयोविंशोऽध्यायः॥२३॥ नकुलः सहदेवश्च तथेमौ गुरुवर्तिनौ / क्षुधा कथं न सीदेतामिति चोद्धर्षणं कृतम् // 8 वैशंपायन उवाच। इयं च बृहती श्यामा श्रीमत्यायतलोचना। कुन्त्यास्तु वचनं श्रुत्वा पाण्डवा राजसत्तम / वृथा सभातले क्लिष्टा मा भूदिति च तत्कृतम् / / 9 वीडिताः संन्यवर्तन्त पाञ्चाल्या सहितानघाः॥१ प्रेक्षन्त्या मे तदा हीमा वेपन्तीं कदलीमिव / ततः शब्दो महानासीत्सर्वेषामेव भारत / स्त्रीधर्मिणीमनिन्द्याङ्गी तथा द्यूतपराजिताम् // 10 अन्तःपुराणां रुदतां दृष्ट्वा कुन्ती तथागताम् // 2 दुःशासनो यदा मौढ्याद्दासीवत्पर्यकर्षत / प्रदक्षिणमथावृत्य राजानं पाण्डवास्तदा / तदैव विदितं मह्यं पराभूतमिदं कुलम् // 11 अभिवाद्य न्यवर्तन्त पृथां तामनिवर्त्य वै // 3 विषण्णाः कुरवश्चैव तदा मे श्वशुरादयः / ततोऽब्रवीन्महाराजो धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः / यदैषा नाथमिच्छन्ती व्यलपत्कुररी यथा // 12 गान्धारी विदुरं चैव समाभाष्य निगृह्म च // 4 केशपक्षे परामृष्टा पापेन हतबुद्धिना। युधिष्ठिरस्य जननी देवी साधु निवर्त्यताम् / यदा दुःशासनेनैषा तदा मुह्याम्यहं नृप // 13 यथा युधिष्ठिरः प्राह तत्सर्वं सत्यमेव हि // 5 युष्मत्तेजोविवृद्ध्यर्थं मया युद्धर्षणं कृतम् / पुत्रैश्वर्यं महदिदमपास्य च महाफलम् / तदानीं विदुरावाक्यैरिति तद्वित्त पुत्रकाः॥ 14 का नु गच्छेद्वनं दुर्ग पुत्रानुत्सृज्य मूढवत् // 6 कथं न राजवंशोऽयं नश्येत्प्राप्य सुतान्मम / राज्यस्थया तपस्तप्तं दानं दत्तं व्रतं कृतम् / पाण्डोरिति मया पुत्र तस्मादुद्धर्षणं कृतम् // 15 अनया शक्यमद्येह श्रूयतां च वचो मम // 7 न तस्य पुत्रः पौत्रौ वा कुत एव स पार्थिवः / गान्धारि परितुष्टोऽस्मि वध्वाः शुश्रूषणेन वै। लभते सुकृताल्लोकान्यस्माद्वंशः प्रणश्यति // 16 तस्मात्त्वमेनां धर्मज्ञे समनुज्ञातुमर्हसि // 8 भुक्तं राज्यफलं पुत्रा भर्तुर्मे विपुलं पुरा। इत्युक्ता सौबलेयी तु राज्ञा कुन्तीमुवाच ह / महादानानि दत्तानि पीतः सोमो यथाविधि // 17 तत्सर्वं राजवचनं स्वं च वाक्यं विशेषवत् // 9 साई नात्मफलार्थं वै वासुदेवमचूचुदम् / न च सा वनवासाय देवीं कृतमतिं तदा। विदुरायाः प्रलापैस्तैः प्लावनार्थं तु तत्कृतम् // 18 शक्नोत्युपावर्तयितुं कुन्ती धर्मपरां सतीम् // 10 नाहं राज्यफलं पुत्र कामये पुत्रनिर्जितम् / तस्यास्तु तं स्थिरं ज्ञात्वा व्यवसायं कुरुस्त्रियः / पतिलोकानहं पुण्याकामये तपसा विभो // 19 निवृत्ताश्च कुरुश्रेष्ठान्दृष्ट्वा प्ररुरुदुस्तदा // 11 श्वश्रूश्वशुरयोः कृत्वा शुश्रूषां वनवासिनोः।। उपावृत्तेषु पार्थेषु सर्वेष्वन्तःपुरेषु च।। तपसा शोषयिष्यामि युधिष्ठिर कलेवरम् // 20 / ययौ राजा महाप्राज्ञो धृतराष्ट्रो वनं तदा // 12 -2878 - Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 24. 13] आश्रमवासिकपर्व [ 15. 25. 14 पाण्डवा अपि दीनास्ते दुःखशोकपरायणाः / यानैः स्त्रीसहिताः सर्वे पुरं प्रविविशुस्तदा // 13 वैशंपायन उवाच। तदहृष्टमिवाकूजं गतोत्सवमिवाभवत् / ततो भागीरथीतीरे मेध्ये पुण्यजनोचिते। नगरं हास्तिनपुरं सस्त्रीवृद्धकुमारकम् // 14 निवासमकरोद्राजा विदुरस्य मते स्थितः // 1 / सर्वे चासन्निरुत्साहाः पाण्डवा जातमन्यवः / तत्रैनं पर्युपातिष्ठन्ब्राह्मणा राष्ट्रवासिनः। .. कुन्त्या हीनाः सुदुःखार्ता वत्सा इव विनाकृताः // क्षत्रविशद्रसंघाश्च बहवो भरतर्षभ // 2 धृतराष्ट्रस्तु तेनाहा गत्वा सुमहदन्तरम् / . . स तैः परिवृतो राजा कथाभिरभिनन्द्य तान् / ततो भागीरथीतीरे निवासमकरोत्प्रभुः // 16 अनुजज्ञे सशिष्यान्वै विधिवत्प्रतिपूज्य च // 3 प्रादुष्कृता यथान्यायमग्नयो वेदपारगैः / सायाह्ने स महीपालस्ततो गङ्गामुपेत्य ह / व्यराजन्त द्विजश्रेष्ठस्तत्र तत्र तपोधनैः / चकार विधिवच्छौचं गान्धारी च यशस्विनी // 4 प्रादुष्कृताग्निरभवत्स च वृद्धो नराधिपः // 17 तथैवान्ये पृथक्सर्वे तीर्थेष्वाप्लुत्य भारत। स राजाग्नीन्पर्युपास्य हुत्वा च बिधिवत्तदा / चक्रुः सर्वाः क्रियास्तत्र पुरुषा विदुरादयः // 5 संध्यागतं सहस्रांशुमुपातिष्ठत मारत // 18 कृतशाचं ततो वृद्धं श्वशुरं कुन्तिभोजजा। . विदुरः संजयश्चैव राज्ञः शय्यां कुशैस्ततः / गान्धारी च पृथा राजन्गङ्गातीरमुपानयत् // 6 चक्रतुः कुरुवीरस्य गान्धार्याश्चाविदूरतः // 19 राज्ञस्तु याजकस्तत्र कृतो वेदीपरिस्तरः / गान्धार्याः संनिकर्षे तु निषसाद कुशेष्वथ / जुहाव तत्र वह्निं स नृपतिः सत्यसंगरः // 7 युधिष्ठिरस्य जननी कुन्ती साधुव्रते स्थिता // 20 ततो भागीरथीतीरात्कुरुक्षेत्रं जगाम सः / तेषां संश्रवणे चापि निषेदुर्विदुरादयः / सानुगो नृपतिर्विद्वान्नियतः संयतेन्द्रियः // 8. याजकाश्च यथोद्देशं द्विजा ये चानुयायिनः // 21 / तत्राश्रमपदं धीमानभिगम्य स पार्थिवः / प्राधीतद्विजंमुख्या सा संप्रज्वालितपावका। आससादाथ राजर्षिः शतयूपं मनीषिणम् // 9 बभूव तेषां रजनी ब्राह्मीव प्रीतिवर्धनी // 22 . स हि राजा महानासीत्केकयेषु परंतपः / ततो रात्र्यां व्यतीतायां कृतपूर्वाह्निकक्रियाः। स पुत्रं मनुजेश्वर्ये निवेश्य वनमाविशत् // 10 हुत्वाग्निं विधिवत्सर्वे प्रययुस्ते यथाक्रमम् / तेनासौ सहितो राजा ययौ व्यासाश्रमं तदा / उदङ्मुखा निरीक्षन्त उपवासपरायणाः // 23 तत्रैनं विधिवद्राजन्प्रत्यगृह्वात्कुरूद्वहम् // 11 स तेषामतिदुःखोऽभून्निवासः प्रथमेऽहनि / स दीक्षां तत्र संप्राप्य राजा कौरवनन्दनः / शोचतां शोच्यमानानां पौरजानपदैर्जनैः // 24 शतयूपाश्रमे तस्मिन्निवासमकरोत्तदा // 12 इति श्रीमहाभारते भाश्रमवासिकपर्वणि तस्मै सर्व विधिं राजनराजाचख्यौ महामतिः / चतुर्विशोऽध्यायः // 24 // आरण्यकं महाराज व्यासस्यानुमते तदा // 13 एवं स तपसा राजा धृतराष्ट्रो महामनाः / योजयामास चात्मानं तांश्चाप्यनुचरांस्तदा // 14 - 2879 - Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 25. 15 ] महाभारते . [ 15. 26. 21 तथैव देवी गान्धारी वल्कलाजिनवासिनी।। सगत्वा तपसः पारं दीप्तस्य स नराधिपः / कुन्त्या सह महाराज समानव्रतचारिणी // 15 पुरंदरस्य संस्थानं प्रतिपेदे महामनाः // 8 कर्मणा मनसा वाचा चक्षुषा चापि ते नृप / दृष्टपूर्वः स बहुशो राजन्संपतता मया / संनियम्येन्द्रियग्राममास्थिताः परमं तपः // 16 महेन्द्रसदने राजा तपसा दग्धकिल्बिषः // 9 त्वगस्थिभूतः परिशुष्कमांसो तथा शैलालयो राजा भगदत्तपितामहः / जटाजिनी वल्कलसंवृताङ्गः। तपोबलेनैव नृपो महेन्द्रसदनं गतः // 10 स पार्थिवस्तत्र तपश्चचार तथा पृषध्रो नामासीद्राजा वज्रधरोपमः। महर्षिवत्तीव्रमपेतदोषः // 17 स चापि तपसा लेभे नाकपृष्ठमितो नृपः // 11 . क्षत्ता च धर्मार्थविदग्र्यबुद्धिः अस्मिन्नरण्ये नृपते मान्धातुरपि चात्मजः / __ ससंजयस्तं नृपतिं सदारम् / पुरुकुत्सो नृपः सिद्धि महतीं समवाप्तवान् // 12 उपाचरद्धोरतपो जितात्मा भार्या समभवद्यस्य नर्मदा सरितां वरा / तदा कृशो वल्कलचीरवासाः // 18 सोऽस्मिन्नरण्ये नृपतिस्तपस्तत्वा दिवं गतः॥ 13 इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि शशलोमा च नामासीद्राजा परमधार्मिकः / पञ्चविंशोऽध्यायः // 25 // स चाप्यस्मिन्वने तप्त्वा तपो दिवमवाप्तवान् // 14 26 द्वैपायनप्रसादाच्च त्वमपीदं तपोवनम् / वैशंपायन उवाच / राजन्नवाप्य दुष्प्रापां सिद्धिमत्र्यां गमिष्यसि // 15 ततस्तस्मिन्मुनिश्रेष्ठा राजानं द्रष्टुमभ्ययुः / त्वं चापि राजशार्दूल तपसोऽन्ते श्रिया वृतः / नारदः पर्वतश्चैव देवलश्च महातपाः // 1 गान्धारीसहितो गन्ता गतिं तेषां महात्मनाम् // 16 द्वैपायनः सशिष्यश्च सिद्धाश्चान्ये मनीषिणः / पाण्डुः स्मरति नित्यं च बलहन्तुः समीपतः / शतयूपश्च राजर्षिर्वृद्धः परमधार्मिकः // 2 त्वां सदैव महीपाल स त्वां श्रेयसि योक्ष्यति // 17 तेषां कुन्ती महाराज पूजां चक्रे यथाविधि / तव शुश्रूषया चैव गान्धार्याश्च यशस्विनी / ते चापि तुतुषुस्तस्यास्तापसाः परिचर्यया // 3 भर्तुः सलोकतां कुन्ती गमिष्यति वधूस्तव // 18 तत्र धाः कथास्तात चक्रुस्ते परमर्षयः / युधिष्ठिरस्य जननी स हि धर्मः सनातनः / रमयन्तो महात्मानं धृतराष्ट्रं जनाधिपम् // 4 वयमेतत्प्रपश्यामो नृपते दिव्यचक्षुषा // 19 कथान्तरे तु कस्मिंश्चिदेवर्षि रदस्तदा / प्रवेक्ष्यति महात्मानं विदुरश्च युधिष्ठिरम् / कथामिमामकथयत्सर्वप्रत्यक्षदर्शिवान् // 5 संजयस्त्वदनुध्यानात्पूतः स्वर्गमवाप्स्यति // 20 पुरा प्रजापतिसमो राजासीदकुतोभयः / एतच्छ्रुत्वा कौरवेन्द्रो महात्मा सहस्रचित्य इत्युक्तः शतयूपपितामहः // 6 ___ सहैव पत्न्या प्रीतिमान्प्रत्यगृह्णात् / स पुत्रे राज्यमासज्य ज्येष्ठे परमधार्मिके। विद्वान्वाक्यं नारदस्य प्रशस्य सहस्रचित्यो धर्मात्मा प्रविवेश वनं नृपः // 7 चक्रे पूजां चातुलां नारदाय // 21 - 2880 - Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 26. 22 ] आश्रमवासिकपर्व [15. 28. 8 वैशंपायन उवाच / तथा सर्वे नारदं विप्रसंघाः कामगेन विमानेन दिव्याभरणभूषितः / संपूजयामासुरतीव राजन् / ऋषिपुत्रो महाभागस्तपसा दग्धकिल्बिषः // 12 राज्ञः प्रीत्या धृतराष्ट्रस्य ते वै संचरिष्यति लोकांश्च देवगन्धर्वरक्षसाम् / पुनः पुनः समहृष्टास्तदानीम् // 22 स्वच्छन्देनेति धर्मात्मा यन्मां त्वं परिपृच्छसि // इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि देवगुह्यमिदं प्रीत्या मया वः कथितं महत् / षड्विंशोऽध्यायः // 26 // भवन्तो हि श्रुतधनास्तपसा दग्धकिल्बिषाः // 14 इति ते तस्य तच्छ्रुत्वा देवर्षेर्मधुरं वचः / सर्वे सुमनसः प्रीता वभूवुः स च पार्थिवः // 15 नारदस्य तु तद्वाक्यं प्रशशंसुर्द्विजोत्तमाः। . एवं कथाभिरन्वास्य धृतराष्ट्र मनीषिणः / शतयूपस्तु राजर्षिर्नारदं वाक्यमब्रवीत् // 1 विप्रजग्मुर्यथाकामं ते सिद्धगतिमास्थिताः // 16 अहो भगवता श्रद्धा कुरुराजस्य वर्धिता। इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि सर्वम्य च जनस्यास्य मम चैव महाद्युते // 2 सप्तविंशोऽध्यायः // 27 // अस्ति काचिद्विवक्षा तु मम तां गदतः शृणु / 28 धृतराष्ट्र प्रति नृपं देवर्षे लोकपूजित // 3 वैशंपायन उवाच / सर्ववृत्तान्ततत्त्वज्ञो भवान्दिव्येन चक्षुषा / वनं गते कौरवेन्द्रे दुःखशोकसमाहताः / युक्तः पश्यसि देवर्षे गतीवै विविधा नृणाम् // 4 बभूवुः पाण्डवा राजन्मातृशोकेन चार्दिताः // 1 उक्तवान्नृपतीनां त्वं महेन्द्रस्य सलोकताम् / तथा पौरजनः सर्वः शोचन्नास्ते जनाधिपम् / न त्वस्य नृपतेर्लोकाः कथितास्ते महामुने // 5 / कुर्वाणाश्च कथास्तत्र ब्राह्मणा नृपतिं प्रति // 2 स्थानमस्य क्षितिपतेः श्रोतुमिच्छाम्यहं विभो। कथं नु राजा वृद्धः स वने वसति निर्जने / त्वत्तः कीदृक्कदा वेति तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः॥६ गान्धारी च महाभागा सा च कुन्ती पृथा कथम् // इत्युक्तो नारदस्तेन वाक्यं सर्वमनोनुगम् / सुखार्हः स हि राजर्षिर्न सुखं तन्महावनम् / व्याजहार सतां मध्ये दिव्यदर्शी महातपाः // 7 किमवस्थः समासाद्य प्रज्ञाचक्षुर्हतात्मजः // 4 यदृच्छया शक्रसदो गत्वा शक्रं शचीपतिम् / सुदुष्करं कृतवती कुन्ती पुत्रानपश्यती / दृष्टवानस्मि राजर्षे तत्र पाण्डुं नराधिपम् // 8 राज्यश्रियं परित्यज्य वनवासमरोचयत् // 5 तत्रेयं धृतराष्ट्रस्य कथा समभवन्नृप / विदुरः किमवस्थश्च भ्रातुः शुश्रूषुरात्मवान् / तपसो दुश्चरस्यास्य यदयं तप्यते नृपः // 9 स च गावल्गणिर्धीमान्भर्तृपिण्डानुपालकः // 6 तत्राहमिदमश्रौषं शक्रस्य वदतो नृप / आकुमारं च पौरास्ते चिन्ताशोकसमाहताः / वर्षाणि त्रीणि शिष्टानि राज्ञोऽस्य परमायुषः // 10 तत्र तत्र कथाश्चक्रः समासाद्य परस्परम् // 7 ततः कुबेरभवनं गान्धारीसहितो नृपः / पाण्डवाश्चैव ते सर्वे भृशं शोकपरायणाः / विहर्ता धृतराष्ट्रोऽयं राजराजाभिपूजितः // 11 / शोचन्तो मातरं वृद्धामूषुर्नातिचिरं पुरे // 8 म. भा. 361 - 2881 - Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 28.9] महाभारते [ 15. 29. 20 तथैव पितरं वृद्धं हतपुत्रं जनेश्वरम् / कथं च स महीपालो हतपुत्रो निराश्रयः / गान्धारी च महाभागां विदुरं च महामतिम् // 9 पन्या सह वसत्येको वने श्वापदसेविते // 6 नैषां बभूव संप्रीतिस्तान्विचिन्तयतां तदा। सा च देवी महाभागा गान्धारी हतबान्धवा / न राज्ये न च नारीषु न वेदाध्ययने तथा / / 10 पतिमन्धं कथं वृद्धमन्वेति विजने वने // 7 परं निर्वेदमगमंश्चिन्तयन्तो नराधिपम् / एवं तेषां कथयतामौत्सुक्यमभवत्तदा / तच्च ज्ञातिवधं घोरं संस्मरन्तः पुनः पुनः // 11 गमने चाभवद्बुद्धिधृतराष्ट्रदिदृक्षया // 8. अभिमन्योश्च बालस्य विनाशं रणमूर्धनि / सहदेवस्तु राजानं प्रणिपत्येदमब्रवीत् / कर्णस्य च महाबाहोः संग्रामेष्वपलायिनः // 12 अहो मे भवतो दृष्टं हृदयं गमनं प्रति // 9 तथैव द्रौपदेयानामन्येषां सुहृदामपि / न हि त्वा गौरवेणाहमशकं वक्तुमात्मना / वधं संस्मृत्य ते वीरा नातिप्रमनसोऽभवन् // 13 गमनं प्रति राजेन्द्र तदिदं समुपस्थितम् // 10 हतप्रवीरां पृथिवीं हतरत्नां च भारत / दिष्ट्या द्रक्ष्यामि तां कुन्ती वर्तयन्ती तपस्विनीम् / सदैव चिन्तयन्तस्ते न निद्रामुपलेभिरे // 14 जटिलां तापसी वृद्धां कुशकाशपरिक्षताम् // 11 द्रौपदी हतपुत्रा च सुभद्रा चैव भामिनी / प्रासादहर्म्यसंवृद्धामत्यन्तसुखभागिनीम् / नातिप्रीतियुते देव्यौ तदास्तामप्रहृष्टवत् / / 15 कदा नु जननीं श्रान्तां द्रक्ष्यामि भृशदुःखिताम् // वैराट्यास्तु सुतं दृष्ट्वा पितरं ते परिक्षितम् / अनित्याः खलु मर्त्यानां गतयो भरतर्षभ। . धारयन्ति स्म ते प्राणांस्तव पूर्वपितामहाः // 16 कुन्ती राजसुता यत्र वसत्यसुखिनी वने // 13 इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि सहदेववचः श्रुत्वा द्रौपदी योषितां वरा / अष्टाविंशोऽध्यायः // 28 // उवाच देवी राजानमभिपूज्याभिनन्द्य च // 14 कदा द्रक्ष्यामि तां देवीं यदि जीवति सा पृथा। वैशंपायन उवाच। जीवन्त्या गद्य नः प्रीतिभविष्यति नराधिप // 15 एवं ते पुरुषव्याघ्राः पाण्डवा मातृनन्दनाः / एषा तेऽस्तु मतिर्नित्यं धर्मे ते रमतां मनः / स्मरन्तो मातरं वीरा बभूवुर्भृशदुःखिताः // 1 योऽद्य त्वमस्मानराजेन्द्र श्रेयसा योजयिष्यसि॥१६ ये राजकार्येषु पुरा व्यासक्ता नित्यशोऽभवन् / अग्रपादस्थितं चेमं विद्धि राजन्वधूजनम् / ते राजकार्याणि तदा नाकार्षुः सर्वतः पुरे // 2 काङ्क्षन्तं दर्शनं कुन्त्या गान्धार्याः श्वशुरस्य च // आविष्टा इव शोकेन नाभ्यनन्दन्त किंचन। इत्युक्तः स नृपो देव्या पाश्चाल्या भरतर्षभ / संभाष्यमाणा अपि ते न किंचित्प्रत्यपूजयन् // 3 सेनाध्यक्षान्समानाय्य सर्वानिदमथाब्रवीत् // 18 ते स्म वीरा दुराधर्षा गाम्भीर्ये सागरोपमाः। निर्यातयत मे सेनां प्रभूतरथकुञ्जराम् / शोकोपहतविज्ञाना नष्टसंज्ञा इवाभवन् // 4 द्रक्ष्यामि वनसंस्थं च धृतराष्ट्रं महीपतिम् // 19 अनुस्मरन्तो जननी ततस्ते कुरुनन्दनाः / रूयध्यक्षांश्चाब्रवीद्राजा यानानि विविधानि मे। कथं नु वृद्धमिथुनं वहत्यद्य पृथा कृशा // 5 सज्जीक्रियन्तां सर्वाणि शिबिकाश्च सहस्रशः // 20 -2882 - Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 29. 21] .. आश्रमवासिकपर्व [15. 31.2 शकटापणवेशाश्च कोशशिल्पिन एव च / पाण्डुरेणातपत्रेण ध्रियमाणेन मूर्धनि / निर्यान्तु कोशपालाश्च कुरुक्षेत्राश्रमं प्रति // 21 / रथानीकेन महता निर्ययौ कुरुनन्दनः // 8 यश्च पौरजनः कश्चिद्रष्टुमिच्छति पार्थिवम् / गजैश्चाचलसंकाशैर्भीमकर्मा वृकोदरः / अनावृतः सुविहितः स च यातु सुरक्षितः // 22 / सज्जयश्रायुधोपेतैः प्रययौ मारुतात्मजः // 9 सूदाः पौरोगवाश्चैव सर्व चैव महानसम् / माद्रीपुत्रावपि तथा हयारोहैः सुसंवृतौ / विविधं भक्ष्यभोज्यं च शकटैरुह्यतां मम // 23 जग्मतुः प्रीतिजननौ संनद्धकवचध्वजौ // 10 प्रयाणं घुष्यतां चैव श्वोभूत इति मा चिरम् / अर्जुनश्च महातेजा रथेनादित्यवर्चसा / क्रियन्तां पथि चाप्यद्य वेश्मानि विविधानि च // वशी श्वेतैर्हयैर्दिव्यैर्युक्तेनान्वगमन्नृपम् // 11 एवमाज्ञाप्य राजा स भ्रातृभिः सह पाण्डवः / द्रौपदीप्रमुखाश्चापि स्त्रीसंघाः शिबिकागताः / श्वोभूते निर्ययौ राजा सस्त्रीबालपुरस्कृतः // 25 ख्यध्यक्षयुक्ताः प्रययुर्विजन्तोऽमितं वसु // 12 स बहिर्दिवसानेवं जनौघं परिपालयन् / समृद्धनरनागाश्वं वेणुवीणानिनादितम् / न्यवसन्नपतिः पञ्च ततोऽगच्छद्वनं प्रति // 26 / शुशुभे पाण्डवं सैन्यं तत्तदा भरतर्षभ // 13 इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि नदीतीरेषु रम्येषु सरत्सु च विशां पते / एकोनत्रिंशोऽध्यायः // 29 // वासान्कृत्वा क्रमेणाथ जग्मुस्ते कुरुपुंगवाः // 14 युयुत्सुश्च महातेजा धौम्यश्चैव पुरोहितः / वैशंपायन उवाच / युधिष्ठिरस्य वचनात्पुरगुप्ति प्रचक्रतुः // 15 . आज्ञापयामास ततः सेनां भरतसत्तमः / ततो युधिष्ठिरो राजा कुरुक्षेत्रमवातरत् / अर्जुनप्रमुखैर्गुप्तां लोकपालोपमैनरैः // 1 क्रमेणोत्तीर्य यमुना नदी परमपावनीम् // 16 योगो योग इति प्रीत्या ततः शब्दो महानभूत् / स ददर्शाश्रमं दूराद्राजर्षेस्तस्य धीमतः / क्रोशतां सांदिनां तत्र युज्यतां युज्यतामिति // 2 शतयूपस्य कौरव्य धृतराष्ट्रस्य चैव ह // 17 केचिद्यानैनरा जग्मुः केचिदश्वैर्मनोजवैः / / ततः प्रमुदितः सर्वो जनस्तद्वनमञ्जसा / रथैश्च नगराकारैः प्रदीप्तज्वलनोपमैः // 3 विवेश सुमहानादैरापूर्य भरतर्षभ // 18 गजेन्द्रश्च तथैवान्ये केचिदुष्टैनराधिप / इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि पदातिनस्तथैवान्ये नखरप्रासयोधिनः // 4 त्रिंशोऽध्यायः॥३०॥ पौरजानपदाश्चैव यानैबहुविधैस्तथा।। अन्वयुः कुरुराजानं धृतराष्ट्रदिदृक्षया // 5 वैशंपायन उवाच / स चापि राजवचनादाचार्यो गौतमः कृपः / ततस्ते पाण्डवा दूरावतीर्य पदातयः / सेनामादाय सेनानी प्रययावाश्रमं प्रति // 6 अभिजग्मुर्नरपतेराश्रमं विनयानताः // 1 ततो द्विजैर्वृतः श्रीमान्कुरुराजो युधिष्ठिरः।। स च पौरजनः सर्वो ये च राष्ट्रनिवासिनः / संस्तूयमानों बहुभिः सूतमागधबन्दिभिः // 7 स्त्रियश्च कुरुमुख्यानां पद्भिरेवान्वयुस्तदा // 2 -2883 - Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 31. 3] महाभारते [15. 32.7 32 आश्रमं ते ततो जग्मुधृतराष्ट्रस्य पाण्डवाः / स तैः परिवृतो मेने हर्षबाष्पाविलेक्षणः / शून्यं मृगगणाकीर्णं कदलीवनशोभितम् // 3 राजात्मानं गृहगतं पुरेव गजसाह्वये // 18 ततस्तत्र समाजग्मुस्तापसा विविधव्रताः / अभिवादितो वधूभिश्च कृष्णाद्याभिः स पार्थिवः / पाण्डवानागतान्द्रष्टुं कौतूहलसमन्विताः॥ 4 गान्धार्या सहितो धीमान्कुन्त्या च प्रत्यनन्दत // 19 तानपृच्छत्ततो राजा कासौ कौरववंशभृत् / ततश्चाश्रममागच्छत्सिद्धचारणसेवितम् / पिता ज्येष्ठो गतोऽस्माकमिति बाष्पपरिप्लुतः // 5 / दिक्षुभिः समाकीणं नमस्तारागणैरिव // 20 तमूचुस्ते ततो वाक्यं यमुनामवगाहितुम् / इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि पुष्पाणामुदकुम्भस्य चार्थे गत इति प्रभो // 6 एकत्रिंशोऽध्यायः // 31 // तैराख्यातेन मार्गेण ततस्ते प्रययुस्तदा / ददृशुश्वाविदूरे तान्सर्वानथ पदातयः // 7 वैशंपायन उवाच / ततस्ते सत्वरा जग्मुः पितुर्दर्शनकाङ्गिणः।। सं तैः सह नरव्याघैर्भातृभिर्भरतर्षभ / सहदेवस्तु वेगेन प्राधावद्येन सा पृथा // 8 राजा रुचिरपद्माक्षैरासांचक्रे तदाश्रमे // 1 सस्वनं प्ररुदन्धीमान्मातुः पादावुपस्पृशन् / तापसैश्च महाभागैर्नानादेशसमागतैः / . सा च बाष्पाविलमुखी प्रददर्श प्रियं सुतम् // 9 द्रष्टुं कुरुपतेः पुत्रान्पाण्डवान्पृथुवक्षसः // 2 बाहुभ्यां संपरिष्वज्य समुन्नाम्य च पुत्रकम् / तेऽब्रुवज्ञातुमिच्छामः कतमोऽत्र युधिष्ठिरः / गान्धार्याः कथयामास सहदेवमुपस्थितम् // 10 भीमार्जुनयमाश्चैव द्रौपदी च यशस्विनी // 3 अनन्तरं च राजानं भीमसेनमथार्जुनम् / तानाचख्यौ तदा सूतः सर्वान्नामाभिनामतः / नकुलं च पृथा दृष्ट्वा त्वरमाणोपचक्रमे // 11 संजयो द्रौपदीं चैव सर्वाश्चान्याः कुरुस्त्रियः // 1 सा ह्यग्रेऽगच्छत तयोर्दपत्योहतपुत्रयोः / य एष जाम्बूनदशुद्धगौरकर्षन्ती तौ ततस्ते तां दृष्ट्वा संन्यपतन्भुवि // 12 तनुर्महासिंह इव प्रवृद्धः / ताराजा स्वरयोगेन स्पर्शेन च महामनाः। प्रचण्डघोणः पृथुदीर्घनेत्रप्रत्यभिज्ञाय मेधावी समाश्वासयत प्रभुः // 13 स्ताम्रायतास्यः कुरुराज एषः // 5 ततस्ते बाष्पमुत्सृज्य गान्धारीसहितं नृपम् / अयं पुनर्मत्तगजेन्द्रगामी . उपतस्थुर्महात्मानो मातरं च यथाविधि // 14 प्रतप्तचामीकरशुद्धगौरः। सर्वेषां तोयकलशाञ्जगृहुस्ते स्वयं तदा / पृथ्वायतांसः पृथुदीर्घबाहुपाण्डवा लब्धसंज्ञास्ते मात्रा चाश्वासिताः पुनः॥ वृकोदरः पश्यत पश्यतैनम् // 6 ततो नार्यो नृसिंहानां स च योधजनस्तदा / यस्त्वेष पार्श्वेऽस्य महाधनुष्मापौरजानपदाश्चैव ददृशुस्तं नराधिपम् // 16 झ्यामो युवा वारणयूथपाभः / निवेदयामास तदा जनं तं नामगोत्रतः / / सिंहोन्नतांसो गजखेलगमी युधिष्ठिरो नरपतिः स चैनान्प्रत्यपूजयत् // 17 पद्मायताक्षोऽर्जुन एष वीरः // 7 -2884 - Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 32.8] आश्रमवासिकपर्व [15. 33. 6 कुन्तीसमीपे पुरुषोत्तमौ तु राज्ञोऽस्य वृद्धस्य परंशताख्याः यमाविमौ विष्णुमहेन्द्रकल्पौ। स्नुषा विवीरा हतपुत्रनाथाः // 15 मनुष्यलोके सकले समोऽस्ति एता यथामुख्यमुदाहृता वो ययोर्न रूपे न बले न शीले // 8 ___ ब्राह्मण्यभावाहजुबुद्धिसत्त्वाः / इयं पुनः पद्मदलायताक्षी सर्वा भवद्भिः परिपृच्छयमाना मध्यं वयः किंचिदिव स्पृशन्ती। नरेन्द्रपल्यः सुविशुद्धसत्त्वाः // 16 नीलोत्पलाभा पुरदेवतेव एवं स राजा कुरुवृद्धवर्यः कृष्णा स्थिता मूर्तिमतीव लक्ष्मीः // 9 समागतस्तैर्नरदेवपुत्रैः। अस्यास्तु पार्श्वे कनकोत्तमामा पप्रच्छ सर्वान्कुशलं तदानीं यैषा प्रभा मूर्तिमतीव गौरी। गतेषु सर्वेष्वथ तापसेषु // 17 मध्ये स्थितैषा भगिनी द्विजाग्र्या योधेषु चाप्याश्रममण्डलं तं ___ चक्रायुधस्याप्रतिमस्य तस्य // 10 __मुक्त्वा निविष्टेषु विमुच्य पत्रम् / इयं स्वसा राजचमूपतेस्तु स्त्रीवृद्धबाले च सुसंनिविष्टे __प्रवृद्धनीलोत्पलदामवर्णा / यथार्हतः कुशलं पर्यपृच्छत् // 18 पस्पर्ध कृष्णेन नृपः सदा यो इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि वृकोदरस्यैष परिग्रहोऽयः॥ 11 द्वात्रिंशोऽध्यायः // 32 // इयं च राज्ञो मगधाधिपस्य सुता जरासंध इति श्रुतस्य / धृतराष्ट्र उवाच / यवीयसो माद्रवतीसुतस्य युधिष्ठिर महाबाहो कञ्चित्तात कुशल्यसि / भार्या मता चम्पकदामगौरी // 12 सहितो भ्रातृभिः सर्वैः पौरजानपदैस्तथा // 1 इन्दीवरश्यामतनुः स्थिता तु ये च त्वामुपजीवन्ति कञ्चित्तेऽपि निरामयाः / - यैषापरासन्नमहीतले च / सचिवा भृत्यवर्गाश्च गुरवश्चैव ते विभो // 2 भार्या मता माद्रवतीसुतस्य कञ्चिद्वर्तसि पौराणी वृत्तिं राजर्षिसेविताम् / .. ज्येष्ठस्य सेयं कमलायताक्षी // 13 कञ्चिद्दायाननुच्छिद्य कोशस्तेऽभिप्रपूर्यते // 3 इयं तु निष्टप्तसुवर्णगौरी अरिमध्यस्थमित्रेषु वर्तसे चानुरूपतः / राज्ञो विराटस्य सुता सपुत्रा। ब्राह्मणानग्रहारैर्वा यथावदनुपश्यसि // 4 भार्याभिमन्योर्निहतो रणे यो कच्चित्ते परितुष्यन्ति शीलेन भरतर्षभ / ___ द्रोणादिभिस्तैर्विरथो रथस्थैः // 14 शत्रवो गुरवः पौरा भृत्या वा स्वजनोऽपि वा // 5 एतास्तु सीमन्तशिरोरुहा याः कच्चिद्यजसि राजेन्द्र श्रद्धावान्पितृदेवताः / शुक्लोत्तरीया नरराजपन्यः। अतिथींश्चान्नपानेन कच्चिदर्चसि भारत // 6 -2885 - Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 33.7] महाभारते [ 15. 33. 35 कच्चिच्च विषये विप्राः स्वकर्मनिरतास्तव / ततो विविक्त एकान्ते तस्थौ बुद्धिमतां वरः / क्षत्रिया वैश्यवर्गा वा शुद्रा वापि कुटुम्बिनः // 7 // विदुरो वृक्षमाश्रित्य कंचित्तत्र वनान्तरे // 21 कञ्चित्स्त्रीबालवृद्धं ते न शोचति न याचते / तं राजा क्षीणभूयिष्ठमाकृतीमात्रसूचितम् / जामयः पूजिताः कञ्चित्तव गेहे नरर्षभ // 8 अभिजज्ञे महाबुद्धि महाबुद्धियुधिष्ठिरः // 22 कञ्चिद्राजर्षिवंशोऽयं त्वामासाद्य महीपतिम् / युधिष्ठिरोऽहमस्मीति वाक्यमुक्त्वाग्रतः स्थितः / यथोचितं महाराज यशसा नावसीदति // 9 विदुरस्याश्रवे राजा स च प्रत्याह संज्ञया // 23 वैशंपायन उवाच / ततः सोऽनिमिषो भूत्वा राजानं समुदैक्षत / इत्येवंवादिनं तं स न्यायवित्प्रत्यभाषत / संयोज्य विदुरस्तस्मिन्दृष्टिं दृष्ट्या समाहितः // 24 कुशलप्रश्नसंयुक्तं कुशलो वाक्यकर्मणि / / 10 विवेश विदुरो धीमान्गात्रैर्गात्राणि चैव ह / कच्चित्ते वर्धते राजस्तपो मन्दश्रमस्य ते / प्राणान्प्राणेषु च दधदिन्द्रियाणीन्द्रियेषु च // 25 अपि मे जननी चेयं शुश्रुषुर्विगतक्लमा / स योगबलमास्थाय विवेश नृपतेस्तनुम् / अप्यस्याः सफलो राजन्वनवासो भविष्यति // 11 विदुरो धर्मराजस्य तेजसा प्रज्वलन्निव // 26 इयं च माता ज्येष्ठा मे वीतवाताध्वकर्शिता / / विदुरस्य शरीरं तत्तथैव स्तब्धलोचनम् / घोरेण तपसा युक्ता देवी कच्चिन्न शोचति // 12 वृक्षाश्रितं तदा राजा ददर्श गतचेतनम् // 27 हतान्पुत्रान्महावीर्यान्क्षत्रधर्मपरायणान् / बलवन्तं तथात्मानं मेने बहुगुणं तदा। नापध्यायति वा कच्चिदस्मान्पापकृतः सदा // 13 धर्मराजो महातेजास्तच्च सस्मार पाण्डवः // 28 क चासौ विदुरो राजन्नैनं पश्यामहे वयम् / / पौराणमात्मनः सर्वं विद्यावान्स विशां पते / संजयः कुशली चायं कच्चिन्नु तपसि स्थितः // 14 योगधर्मं महातेजा व्यासेन कथितं यथा // 29 इत्युक्तः प्रत्युवाचेदं धृतराष्ट्रो जनाधिपम् / धर्मराजस्तु तत्रैनं संचस्कारयिषुस्तदा / कुशली विदुरः पुत्र तपो घोरं समास्थितः / / 15 दग्धुकामोऽभवद्विद्वानथ वै वागभाषत // 30 वायुभक्षो निराहारः कृशो धमनिसंततः / भो भो राजन्न दग्धव्यमेतद्विदुरसंज्ञकम् / कदाचिदृश्यते विप्रैः शून्येऽस्मिन्कानने क्वचित् // कलेवरमिहैतत्ते धर्म एष सनातनः // 31 इत्येवं वदतस्तस्य जटी वीटामुखः कृशः। लोकाः संतानका नाम भविष्यन्त्यस्य पार्थिव / दिग्वासा मलदिग्धाङ्गो वनरेणुसमुक्षितः // 17 यतिधर्ममवाप्तोऽसौ नैव शोच्यः परंतप // 32 दूरादालक्षितः क्षत्ता तत्राख्यातो महीपतेः / इत्युक्तो धर्मराजः स विनिवृत्य ततः पुनः / निवर्तमानः सहसा जनं दृष्ट्वाश्रमं प्रति // 18 राज्ञो वैचित्रवीर्यस्य तत्सर्वं प्रत्यवेदयत् // 33 तमन्वधावन्नपतिरेक एव युधिष्ठिरः / ततः स राजा द्युतिमान्स च सर्वो जनस्तदा / प्रविशन्तं वनं घोरं लक्ष्यालक्ष्यं क्वचित्वचित् // 19 / भीमसेनादयश्चैव परं विस्मयमागताः // 34 भो भो विदुर राजाहं दयितस्ते युधिष्ठिरः / तच्छ्रुत्वा प्रीतिमानराजा भूत्वा धर्मजमब्रवीत् / इति ब्रुवन्नरपतिस्तं यत्नादभ्यधावत // 20 | आपो मूलं फलं चैव ममेदं प्रतिगृह्यताम् // 35 - 2886 - Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 33. 36 ] आश्रमवासिकपर्व [15. 34. 26 यदन्नो हि नरो राजस्तदन्नोऽस्यातिथिः स्मृतः। / फलमूलसमुद्वाहैमहद्भिश्चोपशोभितम् // 11 इत्युक्तः स तथेत्येव प्राह धर्मात्मजो नृपम् / ततः स राजा प्रददौ तापसार्थमुपाहृतान् / फलं मूलं च बुभुजे राज्ञा दत्तं सहानुजः // 36 कलशान्काञ्चनानराजंस्तथैवौदुम्बरानपि // 12 ततस्ते वृक्षमूलेषु कृतवासपरिग्रहाः / अजिनानि प्रवेणीश्च सुक्नुवं च महीपतिः / तां रात्रिं न्यवसन्सर्वे फलमूलजलाशनाः // 3. कमण्डलुंस्तथा स्थालीः पिठराणि च भारत // 13 इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि भाजनानि च लौहानि पात्रीश्च विविधा नृप। त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः॥ 33 यद्यदिच्छति यावच्च यदन्यदपि काशितम् // 14 34 . एवं स राजा धर्मात्मा परीत्याश्रममण्डलम् / वैशंपायन उवाच / वसु विश्राण्य तत्सर्व पुनरायान्महीपतिः / / 15 एवं सा रजनी तेषामाश्रमे पुण्यकर्मणाम् / कृताहिकं च राजानं धृतराष्ट्र मनीषिणम् / शिवा नक्षत्रसंपन्ना सा व्यतीयाय भारत // 1 ददर्शासीनमव्यग्रं गान्धारीसहितं तदा // 16 तत्र तत्र कथाश्चासंस्तेषां धर्मार्थलक्षणाः / / मातरं चाविदूरस्थां शिष्यवत्प्रणतां स्थिताम् / विचित्रपदसंचारा नानाश्रुतिभिरन्विताः // 2 कुन्तीं ददर्श धर्मात्मा सततं धर्मचारिणीम् // 17 पाण्डवास्त्वभितो मातुर्धरण्यां सुषुपुस्तदा / स तमभ्यर्च्य राजानं नाम संश्राव्य चात्मनः / उत्सृज्य सुमहार्हाणि शयनानि नराधिप // 3 निषीदेत्यभ्यनुज्ञातो बृस्यामुपविवेश ह // 18 यदाहारोऽभवद्राजा धृतराष्ट्रो महामनाः / भीमसेनादयश्चैव पाण्डवाः कौरवर्षभम् / तदाहारा नृवीरास्ते न्यवसंस्तां निशां तदा // 4 अभिवाद्योपसंगृह्य निषेदुः पार्थिवाज्ञया // 19 व्यतीतायां तु शर्वर्यां कृतपूर्वाहिकक्रियः / स तैः परिवृतो राजा शुशुभेऽतीव कौरवः / भ्रातृभिः सह कौन्तेयो ददर्शाश्रममण्डलम् / / 5 बिभ्रद्राह्मीं श्रियं दीप्तां देवैरिव बृहस्पतिः // 20 सान्तःपुरपरीवारः सभृत्यः सपुरोहितः / तथा तेषूपविष्टेषु समाजग्मुर्महर्षयः / यथासुखं यथोद्देशं धृतराष्ट्राभ्यनुज्ञया // 6 शतयूपप्रभृतयः कुरुक्षेत्रनिवासिनः // 21 ददर्श तत्र वेदीश्च संप्रज्वलितपावकाः / व्यासश्च भगवान्विप्रो देवर्षिगणपूजितः / कृताभिषेकैर्मुनिभिर्हताग्निभिरुपस्थिताः // 7 वृतः शिष्यैर्महातेजा दर्शयामास तं नृपम् // 22 वानेयपुष्पनिकरैराज्यधूमोद्गमैरपि। ततः स राजा कौरव्यः कुन्तीपुत्रश्च वीर्यवान् / माझेण वपुषा युक्ता युक्ता मुनिगणैश्च ताः // 8 भीमसेनादयश्चैव समुत्थायाभ्यपूजयन् // 23 मृगयूथैरनुद्विग्नस्तत्र तत्र समाश्रितैः / समागतस्ततो व्यासः शतयूपादिभिर्वृतः / अशङ्कितैः पक्षिगणैः प्रगीतैरिव च प्रभो // 9 धृतराष्ट्रं महीपालमास्यतामित्यभाषत // 24 केकाभिर्नीलकण्ठानां दात्यूहानां च कूजितैः / नवं तु विष्टरं कौश्यं कृष्णाजिनकुशोत्तरम् / कोकिलानां च कुहरैः शुभैः श्रुतिमनोहरैः // 10 // प्रतिपेदे तदा व्यासस्तदर्थमुपकल्पितम् // 25 प्राधीतद्विजघोषैश्च कचित्वचिदलंकृतम् / ते च सर्वे द्विजश्रेष्ठा विष्टरेषु समन्ततः / -2887 - Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 34. 26] महाभारते [ 15. 35. 25 द्वैपायनाभ्यनुज्ञाता निषेदुर्विपुलौजसः॥ 26 न तथा बुद्धिसंपन्नो यथा स पुरुषर्षभः // 13 इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि तपोबलव्ययं कृत्वा सुमहच्चिरसंभृतम् / चतुस्त्रिंशोऽध्यायः // 34 // माण्डव्येनर्षिणा धर्मो ह्यभिभूतः सनातनः // 14 35 नियोगाद्ब्रह्मणः पूर्वं मया स्वेन बलेन च / वैशंपायन उवाच / वैचित्रवीर्यके क्षेत्रे जातः स सुमहामतिः // 15 तथा समुपविष्टेषु पाण्डवेषु महात्मसु / भ्राता तव महाराज देवदेवः सनातनः / व्यासः सत्यवतीपुत्रः प्रोवाचामव्य पार्थिवम् // 1 धारणाच्छ्रयसो ध्यानाद्यं धर्म कवयो विदुः // 16 धृतराष्ट्र महाबाहो कच्चित्ते वर्धते तपः / सत्येन संवर्धयति दमेन नियमेन च / कच्चिन्मनस्ते प्रीणाति वनवासे नराधिप // 2 अहिंसया च दानेन तपसा च सनातनः // 17 कच्चिद्धृदि न ते शोको राजन्पुत्रविनाशजः / येन योगबलाज्जातः कुरुराजो युधिष्ठिरः / . . कच्चिज्ज्ञानानि सर्वाणि प्रसन्नानि तवानघ // 3 धर्म इत्येष नृपते प्राज्ञेनामितबुद्धिना // 18 कञ्चिद्बुद्धि दृढां कृत्वा चरस्यारण्यकं विधिम् / यथा ह्यग्निर्यथा वायुर्यथापः पृथिवी यथा / कच्चिद्वधूश्च गान्धारी न शोकेनाभिभूयते // 4 यथाकाशं तथा धर्म इह चामुत्र च स्थितः // 19 महाप्रज्ञा बुद्धिमती देवी धर्मार्थदर्शिनी / सर्वगश्चैव कौरव्य सर्व व्याप्य चराचरम् / आगमापायतत्त्वज्ञा कच्चिदेषा न शोचति // 5 दृश्यते देवदेवः स सिद्धैर्निर्दग्धकिल्बिषैः // 20 कञ्चित्कुन्ती च राजंस्त्वां शुश्रषुरनहंकृता। यो हि धर्मः स विद्गुरो विदुरो यः स पाण्डवः / या परित्यज्य राज्यं स्वं गुरुशुश्रूषणे रता // 6 स एष राजन्वश्यस्ते पाण्डवः प्रेष्यवस्थितः // 21 कञ्चिद्धर्मसुतो राजा त्वया प्रीत्याभिनन्दितः / प्रविष्टः स स्वमात्मानं भ्राता ते बुद्धिसत्तमः / भीमार्जुनयमाश्चैव कञ्चिदेतेऽपि सान्त्विताः // 7 दिष्ट्या महात्मा कौन्तेयं महायोगबलान्वितः // 22 कञ्चिन्नन्दसि दृष्ट्वैतान्कञ्चित्ते निर्मलं मनः / त्वां चापि श्रेयसा योक्ष्ये नचिराद्भरतर्षभ / कञ्चिद्विशुद्धभावोऽसि जातज्ञानो नराधिप // 8 संशयच्छेदनार्थ हि प्राप्तं मां विद्धि पुत्रक // 23 एतद्धि त्रितयं श्रेष्ठं सर्वभूतेषु भारत / न कृतं यत्पुरा कैश्चित्कर्म लोके महर्षिभिः / निर्वैरता महाराज सत्यमद्रोह एव च // 9 आश्चर्यभूतं तपसः फलं संदर्शयामि वः // 24 कञ्चित्ते नानुतापोऽस्ति वनवासेन भारत / किमिच्छसि महीपाल मत्तः प्राप्तुममानुषम् / स्वदते वन्यमन्नं वा मुनिवासांसि वा विभो॥१० द्रष्टुं स्प्रष्टुमथ श्रोतुं वद कर्तास्मि तत्तथा // 25 विदितं चापि मे राजन्विदुरस्य महात्मनः / इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि गमनं विधिना येन धर्मस्य सुमहात्मनः // 11 पञ्चत्रिंशोऽध्यायः॥३५॥ माण्डव्यशापाद्धि स वै धर्मो विदुरतां गतः / // समाप्तमाश्रमवासपर्व // महाबुद्धिर्महायोगी महात्मा सुमहामनाः // 12 बृहस्पतिर्वा देवेषु शुक्रो वाप्यसुरेषु यः / - 2888 - Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 38. 1] आश्रमवासिकपर्व [ 15. 36. 28 ऋषीणां च पुराणानां देवासुरविमिश्रिताः // 14 जनमेजय उवाच / ततः कथान्ते व्यासस्तं प्रज्ञाचक्षुषमीश्वरम् / वनवासं गते विप्र धृतराष्ट्र महीपतौ / प्रोवाच वदतां श्रेष्ठः पुनरेव स तद्वचः / सभार्ये नृपशार्दूले वध्वा कुन्त्या समन्विते // 1 प्रीयमाणो महातेजाः सर्ववेदविदां वरः // 15 विदुरे चापि संसिद्धे धर्मराजं व्यपाश्रिते / विदितं मम राजेन्द्र यत्ते हृदि विवक्षितम् / वसत्सु पाण्डुपुत्रेषु सर्वेष्वाश्रममण्डले // 2 दह्यमानस्य शोकेन तव पुत्रकृतेन वै // 16 यत्तदाश्चर्यमिति वै करिष्यामीत्युवाच ह। गान्धार्याश्चैव यःदुःखं हृदि तिष्ठति पार्थिव / व्यासः परमतेजस्वी महर्षिस्तद्वदस्व मे // 3 कुन्त्याश्च यन्महाराज द्रौपद्याश्च हृदि स्थितम् // वनवासे च कौरव्यः कियन्तं कालमच्युतः / . यच्च धारयते तीव्र दुःखं पुत्रविनाशजम् / युधिष्ठिरो नरपतिय॑वसत्सजेनो द्विज // 4 सुभद्रा कृष्णभगिनी तच्चापि विदितं मम // 18 किमाहाराश्च ते तत्र ससैन्या न्यवंसन्प्रभो। श्रुत्वा समागममिमं सर्वेषां वस्ततो नृप / सान्तःपुरा महात्मान इति तद्रूहि मेऽनघ // 5 संशयच्छेदनायाहं प्राप्तः कौरवनन्दन // 19 वैशंपायन उवाच। इमे च देवगन्धर्वाः सर्वे चैव महर्षयः / तेऽनुज्ञातास्तदा राजन्कुरुराजेन पाण्डवाः / पश्यन्तु तपसो वीर्यमद्य मे चिरसंभृतम् // 20 विविधान्यन्नपानानि विश्रभ्यानुभवन्ति ते // 6 तदुच्यतां महाबाहो कं कामं प्रदिशामि ते / मासमेकं विजह्वस्ते ससैन्यान्तःपुरा वने / प्रवणोऽस्मि वरं दातुं पश्य मे तपसो बलम् // 21 अथ तत्रागमद्व्यासो यथोक्तं ते मयानघ // 7 एवमुक्तः स राजेन्द्रो व्यासेनामितबुद्धिना। तथा तु तेषां सर्वेषां कथाभिर्नृपसंनिधौ / मुहूर्तमिव संचिन्त्य वचनायोपचक्रमे // 22 व्यासमन्वासतां राजन्नाजग्मुर्मुनयोऽपरे // 8 धन्योऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि सफलं जीवितं च मे / नारदः पर्वतश्चैव देवलश्च महातपाः / यन्मे समागमोऽद्येह भवद्भिः सह साधुभिः // 23 यिश्वावसुस्तुम्बरुश्च चित्रसेनश्च भारत // 9 अद्य चाप्यवगच्छामि गतिमिष्टामिहात्मनः / तेषामपि यथान्यायं पूजां चक्रे महामनाः / भवद्भिर्ब्रह्मकल्पैर्यत्समेतोऽहं तपोधनाः // 24 धृतराष्ट्राभ्यनुज्ञातः कुरुराजो युधिष्ठिरः // 10 दर्शनादेव भवतां पूतोऽहं नात्र संशयः / निषेदुस्ते ततः सर्वे पूजां प्राप्य युधिष्ठिरात् / विद्यते न भयं चापि परलोकान्ममानघाः // 25 आसनेष्वथ पुण्येषु बर्हिष्केषु वरेषु च // 11 किं तु तस्य सुदुर्बुद्धेर्मन्दस्यापनयैर्धशम् / तेषु तत्रोपविष्टेषु स तु राजा महामतिः / दूयते मे मनो नित्यं स्मरतः पुत्रगृद्धिनः // 26 पाण्डुपुत्रैः परिवृतो निषसाद कुरूद्वहः // 12 अपापाः पाण्डवा येन निकृताः पापबुद्धिना। . गान्धारी चैव कुन्ती च द्रौपदी सात्वती तथा। घातिता पृथिवी चेयं सहसा सनरद्विपा // 27 स्त्रियश्चान्यास्तथान्याभिः सहोपविविशुस्ततः // 13 राजानश्च महात्मानो नानाजनपदेश्वराः / तेषां तत्र कथा दिव्या धर्मिष्ठाश्चाभवन्नृप / आगम्य मम पुत्रार्थे सर्वे मृत्युवशं गताः // 28 म.भा. 362 - 2889 - / आगल Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 36. 29 ] महाभारते [ 15. 38.2 37 ये ते पुत्रांश्च दारांश्च प्राणांश्च मनसः प्रियान् / सौभद्रवधसंतप्ता भृशं शोचति भामिनी // 8 परित्यज्य गताः शूराः प्रेतराजनिवेशनम् // 29 इयं च भूरिश्रवसो भार्या परमदुःखिता / का नु तेषां गतिर्ब्रह्मन्मित्रार्थे ये हता मृधे।। भर्तृव्यसनशोकार्ता न शेते वसती: प्रभो // 9 तथैव पुत्रपौत्राणां मम ये निहता युधि // 30 यस्यास्तु श्वशुरो धीमान्बाह्रीकः स कुरूद्वहः / दूयते मे मनोऽभीक्ष्णं घातयित्वा महाबलम् / निहतः सोमदत्तश्च पित्रा सह महारणे // 10 भीष्मं शांतनवं वृद्धं द्रोणं च द्विजसत्तमम् / / 31 श्रीमच्चास्य महाबुद्धेः संग्रामेष्वपलायिनः / . मम पुत्रेण मूढेन पापेन सुहृदद्विषा / पुत्रस्य ते पुत्रशतं निहतं यद्रणाजिरे // 11 क्षयं नीतं कुलं दीप्तं पृथिवीराज्यमिच्छता // 32 तस्य भार्याशतमिदं पुत्रशोकसमाहतम् / एतत्सर्वमनुस्मृत्य दह्यमानो दिवानिशम् / पुनः पुनर्वर्धयानं शोकं राज्ञो ममैव च / न शान्तिमधिगच्छामि दुःखशोकसमाहतः।। तेनारम्भेण महता मामुपास्ते महामुने // 12 इति मे चिन्तयानस्य पितः शर्म न विद्यते / / 33 ये च शूरा महात्मानः श्वशुरा मे महारथाः / इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि सोमदत्तप्रभृतयः का नु तेषां गतिः प्रभो // 13 षत्रिंशोऽध्यायः // 36 // तव प्रसादाद्भगवन्विशोकोऽयं महीपतिः / कुर्यात्कालमहं चैव कुन्ती चेयं वधूस्तव // 14 वैशंपायन उवाच / इत्युक्तवत्यां गान्धार्यां कुन्ती व्रतकृशानना। . तच्छ्रुत्वा विविधं तस्य राजर्षेः परिदेवितम् / प्रच्छन्नजातं पुत्रं तं सस्मारादित्यसंभवम् // 15 पुनर्नवीकृतः शोको गान्धार्या जनमेजय // 1 तामृषिर्वरदो व्यासो दूरश्रवणदर्शनः / कुन्त्या द्रुपदपुत्र्याश्च सुभद्रायास्तथैव च / अपश्यहुःखितां देवीं मातरं सव्यसाचिनः // 16 तासां च वरनारीणां वधूनां कौरवस्य ह // 2 तामुवाच ततो व्यासो यत्ते कार्य विवक्षितम् / पुत्रशोकसमाविष्टा गान्धारी त्विदमब्रवीत् / तहि त्वं महाप्राज्ञे यत्ते मनसि वर्तते // 17 श्वशुरं बद्धनयना देवी प्राञ्जलिरुत्थिता // 3 ततः कुन्ती श्वशुरयोः प्रणम्य शिरसा तदा। षोडशेमानि वर्षाणि गतानि मुनिपुंगव / उवाच वाक्यं सव्रीडं विवृण्वाना पुरातनम् // 18 अस्य राज्ञो हतान्पुत्राशोचतो न शमो विभो॥४ / इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि पुत्रशोकसमाविष्टो निःश्वसन्ह्येष भूमिपः / सप्तत्रिंशोऽध्यायः॥३७॥ न शेते वसतीः सर्वा धृतराष्ट्रो महामुने / / 5 लोकानन्यान्समर्थोऽसि स्रष्टुं सर्वांस्तपोबलात् / कुन्त्युवाच / किमु लोकान्तरगतान्राज्ञो दर्शयितुं सुतान् // 6- भगवश्वशुरो मेऽसि दैवतस्यापि दैवतम् / इयं च द्रौपदी कृष्णा हतज्ञातिसुता भृशम् / स मे देवातिदेवस्त्वं शृणु सत्यां गिरं मम // 1 शोचत्यतीव साध्वी ते स्नुषाणां दयिता स्नुषा / / 7 / तपस्वी कोपनो विप्रो दुर्वासा नाम मे पितुः / तथा कृष्णस्य भगिनी सुभद्रा भद्रभाषिणी। भिक्षामुपागतो भोक्तुं तमहं पर्यतोषयम् / / 2 -2890 - 38 Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 38. 3] आश्रमवासिकपर्व [ 15. 39. 6 शौचेन त्वागसत्यागैः शुद्धेन मनसा तथा / यदि पापमपापं वा तदेतद्विवृतं मया / कोपस्थानेष्वपि महत्स्वकुप्यं न कदाचन // 3 तन्मे भयं त्वं भगवन्व्यपनेतुमिहार्हसि // 17 स मे वरमदात्प्रीतः कृतमित्यहमब्रुवम् / यच्चास्य राज्ञो विदितं हृदिस्थं भवतोऽनध / अवश्यं ते ग्रहीतव्यमिति मां सोऽब्रवीद्वचः // 4 तं चायं लभतां काममद्यैव मुनिसत्तम // 18 ततः शापभयाद्विप्रमवोचं पुनरेव तम् / इत्युक्तः प्रत्युवाचेदं व्यासो वेदविदां वरः। एवमस्त्विति च प्राह पुनरेव स मां द्विजः // 5 / साधु सर्वमिदं तथ्यमेवमेव यथात्थ माम् // 19 धर्मस्य जननी भद्रे भवित्री त्वं वरानने / .. अपराधश्च ते नास्ति कन्याभावं गता ह्यसि / वशे स्थास्यन्ति ते देवा यांस्त्वमावाहयिष्यसि // 6 देवाश्चैश्वर्यवन्तो वै शरीराण्याविशन्ति वै // 20 इत्युक्त्वान्तर्हितो विप्रस्ततोऽहं विस्मिताभवम् / / सन्ति देवनिकायाश्च संकल्पाञ्जनयन्ति ये। न च सर्वास्ववस्थासु स्मृतिम विप्रणश्यति // 7 वाचा दृष्टया तथा स्पर्शात्संघर्षेणेति पञ्चधा // 21 अथ हर्म्यतलस्थाहं रविमुद्यन्तमीक्षती। मनुष्यधर्मो दैवेन धर्मेण न हि युज्यते / संस्मृत्य तदृषेर्वाक्यं स्पृहयन्ती दिवाकरम् / इति कुन्ति व्यजानीहि व्येतु ते मानसो ज्वरः॥ स्थिताहं बालभावेन तत्र दोषमबुध्यती / / 8 / सर्वं बलवतां पथ्यं सर्व बलवतां शुचि / अथ देवः सहस्रांशुमत्समीपगतोऽभवत्।। सर्व बलवतां धर्मः सर्व बलवतां स्वकम् // 23 द्विधा कृत्वात्मनो देहं भूमौ च गगनेऽपि च / इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि तताप लोकानेकेन द्वितीयेनागमच्च माम् // 9 . अष्टात्रिंशोऽध्यायः॥३८॥ स मामुवाच वेपन्तीं वरं मत्तो वृणीष्व ह। गम्यतामिति तं चाहं प्रणम्य शिरसावदम् // 10 व्यास उवाच / स मामुवाच तिग्मांशुवृथाह्वानं न ते क्षमम। भद्रे द्रक्ष्यसि गान्धारि पुत्रान्भ्रातॄन्सखींस्तथा / धक्ष्यामि त्वां च विप्रं च येन दत्तो वरस्तव // 11 वधूश्च पतिभिः साधं निशि सुप्तोत्थिता इव // 1 तमहं रक्षती विप्रं शापादनपराधिनम् / कर्ण द्रक्ष्यति कुन्ती च सौभद्रं चापि यादवी / पुत्रो मे त्वत्समो देव भवेदिति ततोऽब्रुवम् // 12 द्रौपदी पञ्च पुत्रांश्च पितॄन्भ्रानुंस्तथैव च // 2 ततो मां तेजसाविश्य मोहयित्वा च भानुमान् / पूर्वमेवैष हृदये व्यवसायोऽभवन्मम / उवाच भविता पुत्रस्तवेत्यभ्यगमद्दिवम् / / 13 यथास्मि चोदितो राज्ञा भवत्या पृथयैव च // 3 ततोऽहमन्तर्भवने पितुर्वृत्तान्तरक्षिणी / न ते शोच्या महात्मानः सर्व एव नरर्षभाः / गूढोत्पन्नं सुतं बालं जले कर्णमवासृजम् // 14 क्षत्रधर्मपराः सन्तस्तथा हि निधनं गताः // 4 नूनं तस्यैव देवस्य प्रसादात्पुनरेव तु / भवितव्यमवश्यं तत्सुरकार्यमनिन्दिते / कन्याहमभवं विप्र यथा प्राह स मामृषिः // 15 अवतेरुस्ततः सर्वे देवभागैर्महीतलम् // 5 स मया मूढया पुत्रो ज्ञायमानोऽप्युपेक्षितः / गन्धर्वाप्सरसश्चैव पिशाचा गुह्यराक्षसाः / तन्मां दहति विप्रर्षे यथा सुविदितं तव // 16 तथा पुण्यजनाश्चैव सिद्धा देवर्षयोऽपि च // 6 -2891 - 39 Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 39.7] महाभारते [ 15. 40.9 देवाश्च दानवाश्चैव तथा ब्रह्मर्षयोऽमलाः / सहितो मुनिशार्दूलैर्गन्धर्वैश्च समागतैः // 20 त एते निधनं प्राप्ताः कुरुक्षेत्रे रणाजिरे // 7 ततो गङ्गां समासाद्य क्रमेण स जनार्णवः / गन्धर्वराजो यो धीमान्धृतराष्ट्र इति श्रुतः / निवासमकरोत्सर्वो यथाप्रीति यथासुखम् // 21 स एव मानुषे लोके धृतराष्ट्रः पतिस्तव / / 8 राजा च पाण्डवैः सार्धमिष्टे देशे सहानुगः / पाण्डं मरुद्गणं विद्धि विशिष्टतममच्युतम् / निवासमकरोद्धीमान्सस्त्रीवृद्धपुरःसरः // 22 धर्मस्यांशोऽभवत्क्षत्ता राजा चायं युधिष्ठिरः // 9 जगाम तदहश्चापि तेषां वर्षशतं यथा / कलिं दुर्योधनं विद्धि शकुनि द्वापरं तथा।। निशां प्रतीक्षमाणानां दिदृक्षणां मृतान्नृपात् // 25 दुःशासनादीन्विद्धि त्वं राक्षसाशुभदर्शने // 10 अथ पुण्यं गिरिवरमस्तमभ्यगमद्रविः / मरुद्गणाद्भीमसेनं बलवन्तमरिंदमम् / / ततः कृताभिषेकास्ते नैशं कर्म समाचरन् // 24 विद्धि च त्वं नरमृषिमिमं पार्थं धनंजयम् / इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि नारायणं हृषीकेशमश्विनौ यमजावुभौ // 11 एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः // 39 // द्विधा कृत्वात्मनो देहमादित्यं तपतां वरम् / 40 लोकांश्च तापयानं वै विद्धि कणं च शोभने / वैशंपायन उवाच / यश्च वैरार्थमुद्भूतः संघर्षजननस्तथा // 12 ततो निशायां प्राप्तायां कृतसायाह्निकक्रियाः / यश्च पाण्डवदायादो हतः षड्भिर्महारथैः। व्यासमभ्यगमन्सर्वे ये तत्रासन्समागताः // 1 स सोम इह सौभद्रो योगादेवाभवहिधा // 13 धृतराष्ट्रस्तु धर्मात्मा पाण्डवैः सहितस्तदा / द्रौपद्या सह संभूतं धृष्टद्युम्नं च पावकात् / शुचिरेकमनाः सार्धमृषिभिस्तैरुपाविशत् // 2 अग्नेर्भागं शुभं विद्धि राक्षसं तु शिखण्डिनम्॥१४ गान्धार्या सह नार्यस्तु सहिताः समुपाविशन् / द्रोणं बृहस्पतेर्भागं विद्धि द्रौणिं च रुद्रजम् / पौरजानपदश्चापि जनः सर्वो यथावयः // 3 भीष्मं च विद्धि गाङ्गेयं वसुं मानुषतां गतम् // 15 ततो व्यासो महातेजाः पुण्यं भागीरथीजलम् / एवमेते महाप्राज्ञे देवा मानुष्यमेत्य हि / अवगाह्याजुहावाथ सर्वाल्लोकान्महामुनिः // 4 ततः पुनर्गताः स्वर्ग कृते कर्मणि शोभने // 16 पाण्डवानां च ये योधाः कौरवाणां च सर्वशः / यच्च वो हृदि सर्वेषां दुःखमेनच्चिरं स्थितम् / राजानश्च महाभागा नानादेशनिवासिनः // 5 तदद्य व्यपनेष्यामि परलोककृताद्भयात् // 17 ततः सुतुमुलः शब्दो जलान्तर्जनमेजय। सर्वे भवन्तो गच्छन्तु नदी भागीरथीं प्रति / प्रादुरासीद्यथा पूर्व कुरुपाण्डवसेनयोः / / 6 तत्र द्रक्ष्यथ तान्सर्वान्ये हतास्मिन्रणाजिरे // 18 ततस्ते पार्थिवाः सर्वे भीष्मद्रोणपुरोगमाः / वैशंपायन उवाच / ससैन्याः सलिलात्तस्मात्समुत्तस्थुः सहस्रशः // 7 इति व्यासस्य वचनं श्रुत्वा सर्वो जनस्तदा। विराटद्रुपदौ चोभौ सपुत्रौ सहसैनिकौ / महता सिंहनादेन गङ्गामभिमुखो ययौ // 19 द्रौपदेयाश्च सौभद्रो राक्षसश्च घटोत्कचः / / 8 धृतराष्ट्रश्च सामात्यः प्रययौ सह पाण्डवैः / कर्णदुर्योधनौ चोभौ शकुनिश्च महारथः / -2892 - Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 40. 9 ] आश्रमवासिकपर्व [ 15. 41. 16 दुःशासनादयश्चैव धार्तराष्ट्रा महारथाः // 9 विगतक्रोधमात्सर्याः सर्वे विगतकल्मषाः // 1 जारासंधिर्भगदत्तो जलसंधश्च पार्थिवः / विधि परममास्थाय ब्रह्मर्षिविहितं शुभम् / भूरिश्रवाः शलः शल्यो वृषसेनश्च सानुजः // 10 संप्रीतमनसः सर्वे देवलोक इवामराः // 2 लक्ष्मणो राजपुत्रश्च धृष्टद्युम्नस्य चात्मजाः / पुत्रः पित्रा च मात्रा च भार्या च पतिना सह / शिखण्डिपुत्राः सर्वे च धृष्टकेतुश्च सानुजः // 11 नाता भ्रात्रा सखा चैव सख्या राजन्समागताः॥ अचलो वृषकश्चैव राक्षसश्चाप्यलायुधः / पाण्डवास्तु महेष्वासं कणं सौभद्रमेव च / बाह्रीकः सोमदत्तश्च चेकितानश्च पार्थिवः // 12 संप्रहर्षात्समाजग्मुद्रौपदेयांश्च सर्वशः // 4 एते चान्ये च बहवो बहुत्वाद्ये न कीर्तिताः / ततस्ते प्रीयमाणा वै कर्णेन सह पाण्डवाः / सर्वे भासुरदेहास्ते समुत्तस्थुजेलात्ततः // 13 समेत्य पृथिवीपालाः सौहृदेऽवस्थिताभवन् / 5 यस्य वीरस्य यो वेषो यो ध्वजो यच्च वाहनम् / ऋषिप्रसादात्तेऽन्ये च क्षत्रिया नष्टमन्यवः / तेन तेन व्यदृशन्त समुपेता नराधिपाः // 14 असौहृदं परित्यज्य सौहृदे पर्यवस्थिताः // 6 दिव्याम्बरधराः सर्वे सर्वे भ्राजिष्णुकुण्डलाः / एवं समागताः सर्वे गुरुभिर्बान्धवैस्तथा। निर्वैराः निरहंकारा विगतक्रोधमन्यवः / / 15 / पुत्रैश्च पुरुषव्याघ्राः कुरवोऽन्ये च मानवाः // 7 गन्धर्वैरुपगीयन्तः स्तूयमानाश्च बन्दिभिः / तां रात्रिमेकां कृत्स्ना ते विहृत्य प्रीतमानसाः। दिव्यमाल्याम्बरधरा वृताश्चाप्सरसां गणैः // 16 मेनिरे परितोषेण नृपाः स्वर्गसदो यथा // 8 धृतराष्ट्रस्य च तदा दिव्यं चक्षुर्नराधिप। नात्र शोको भयं त्रासो नारति यशोऽभवत् / मुनिः सत्यवतीपुत्रः प्रीतः प्रादात्तपोबलात् // 17 परस्परं समागम्य योधानां भरतर्षभ / 9 दिव्यज्ञानबलोपेता गान्धारी च यशस्विनी। समागतास्ताः पितृभिर्धातृभिः पतिभिः सुतैः / ददर्श पुत्रांस्तान्सर्वान्ये चान्येऽपि रणे हताः॥१८ मुदं परमिकां प्राप्य नार्यो दुःखमथात्यजन् // 10 तदद्भुतमचिन्त्यं च सुमहद्रोमहर्षणम् / एकां रात्रि विहृत्यैवं ते वीरास्ताश्च योषितः / विस्मितः स जनः सर्वो ददर्शानिमिषेक्षणः // 19 आमन्त्रयान्योन्यमाश्लिष्य ततो जग्मुर्यथागतम्॥११ तदुत्सवमदोदग्रं हृष्टनारीनराकुलम् / ततो विसर्जयामास लोकांस्तान्मुनिपुंगवः / ददृशे बलमायान्तं चित्रं पटगतं यथा / 20 क्षणेनान्तर्हिताश्चैव प्रेक्षतामेव तेऽभवन् // 12 धृतराष्ट्रस्तु तान्सर्वान्पश्यन्दिव्येन चक्षुषा / अवगाह्य महात्मानः पुण्यां त्रिपथगां नदीम् / मुमुदे भरतश्रेष्ठ प्रसादात्तस्य वै मुनेः // 21 सरथाः सध्वजाश्चैव स्वानि स्थानानि भेजिरे // 13 इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि देवलोकं ययुः केचित्केचिद्ब्रह्मसदस्तथा / चत्वारिंशोऽध्यायः॥४०॥ केचिच्च वारुणं लोकं केचित्कौबेरमाप्नुवन् // 14 तथा वैवस्वतं लोकं केचिच्चैवाप्नुवन्नपाः / वैशंपायन उवाच। राक्षसानां पिशाचानां केचिच्चाप्युत्तरान्कुरून् // 15 ततस्ते भरतश्रेष्ठाः समाजग्मुः परस्परम् / विचित्रगतयः सर्वे या अवाप्यामरैः सह / -2893 - Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 41. 16 ] महाभारते [ 15. 42. 14 आजग्मुस्ते महात्मानः सवाहाः सपदानुगाः // 16 गतेषु तेषु सर्वेषु सलिलस्थो महामुनिः / सूत उवाच / धर्मशीलो महातेजाः कुरूणां हितकृत्सदा। एतच्छ्रुत्वा नृपो विद्वान्हृष्टोऽभूजनमेजयः / ततः प्रोवाच ताः सर्वाः क्षत्रिया निहतेश्वराः॥१७ पितामहानां सर्वेषां गमनागमनं तदा // 1 या याः पतिकृताललोकानिच्छन्ति परमस्त्रियः / अब्रवीच्च मुदा युक्तः पुनरागमनं प्रति / ता जाह्नवीजलं क्षिप्रमवगाहन्त्वतन्द्रिताः // 18 कथं नु त्यक्तदेहानां पुनस्तद्रूपदर्शनम् // 2 ततस्तस्य वचः श्रुत्वा श्रद्दधाना वराङ्गनाः / इत्युक्तः स द्विजश्रेष्ठो व्यासशिष्यः प्रतापवान् / श्वशुरं समनुज्ञाप्य विविशुर्जाह्नवीजलम् // 19 प्रोवाच वदतां श्रेष्ठस्तं नृपं जनमेजयम् // 3 विमुक्ता मानुषैर्देहैस्ततस्ता भर्तृभिः सह / अविप्रणाशः सर्वेषां कर्मणामिति निश्चयः / समाजग्मुस्तदा साध्व्यः सर्वा एव विशां पते // कर्मजानि शरीराणि तथैवाकृतयो नृप // 4 एवं क्रमेण सर्वास्ताः शीलवत्यः कुलस्त्रियः। महाभूतानि नित्यानि भूताधिपतिसंश्रयात् / प्रविश्य तोयं निर्मुक्ता जग्मुभर्तृसलोकताम् // 21 तेषां च नित्यसंवासो न विनाशो वियुज्यताम् // 5 दिव्यरूपसमायुक्ता दिव्याभरणभूषिताः। . अनाशाय कृतं कर्म तस्य चेष्टः फलागमः / दिव्यमालाम्बरधरा यथासां पतयस्तथा // 22 आत्मा चैभिः समायुक्तः सुखदुःखमुपाश्रुते // 6 ताः शीलसत्त्वसंपन्ना वितमस्का गतक्लमाः / अविनाशी तथा नित्यं क्षेत्रज्ञ इति निश्चयः। : सर्वाः सर्वगुणैर्युक्ताः स्वं स्वं स्थानं प्रपेदिरे // 23 भूतानामात्मभावो यो ध्रुवोऽसौ संविजानताम् // 7 यस्य यस्य च यः कामस्तस्मिन्कालेऽभवत्तदा / यावन्न क्षीयते कर्म तावदस्य स्वरूपता / तं तं विसृष्टवान्व्यासो वरदो धर्मवत्सलः // 24 संक्षीणकर्मा पुरुषो रूपान्यत्वं नियच्छति // 8 तच्छ्रुत्वा नरदेवानां पुनरागमनं नराः / नानाभावास्तथैकत्वं शरीरं प्राप्य संहताः / जहषुर्म दिताश्चासन्नन्यदेहगता अपि // 25 भवन्ति ते तथा नित्याः पृथग्भावं विजानताम् // 9 प्रियैः समागमं तेषां य इमं शृणुयान्नरः / अश्वमेधे श्रुतिश्चेयमश्वसंज्ञपनं प्रति / प्रियाणि लभते नित्यमिह च प्रेत्य चैव ह // 26 लोकान्तरगता नित्यं प्राणा नित्या हि वाजिनः॥१० इष्टबान्धवसंयोगमनायासमनामयम् / अहं हितं वदाम्येतत्प्रियं चेत्तव पार्थिव / य इमं श्रावयेद्विद्वान्संसिद्धि प्राप्नुयात्पराम् // 27 देवयाना हि पन्थानः श्रुतास्ते यज्ञसंस्तरे // 11 स्वाध्याययुक्ताः पुरुषाः क्रियायुक्ताश्च भारत / सुकृतो यत्र ते यज्ञस्तत्र देवा हितास्तव / अध्यात्मयोगयुक्ताश्च धृतिमन्तश्च मानवाः / यदा समन्विता देवाः पशूनां गमनेश्वराः / श्रुत्वा पर्व त्विदं नित्यमवाप्स्यन्ति परां गतिम् // 28 गतिमन्तश्च तेनेष्ट्वा नान्ये नित्या भवन्ति ते // 12 इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि नित्येऽस्मिन्पश्चके वर्गे नित्ये चात्मनि यो नरः। एकचत्वारिंशोऽध्यायः // 41 // अस्य नानासमायोगं यः पश्यति वृथामतिः // 13 वियोगे शोचतेऽत्यर्थं स बाल इति मे मतिः / -2894 - Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 42. 14 ] आश्रमवासिकपर्व [15. 44.1 वियोगे दोषदर्शी यः संयोगमिह वर्जयेत् / | शमीकं च महात्मानं पुत्रं तं चास्य शृङ्गिणम् / असङ्गे संगमो नास्ति दुःखं भुवि वियोगजम् // 14 अमात्या ये बभूवुश्च राज्ञस्तांश्च ददर्श ह // 8 परापरज्ञस्तु नरो नाभिमानादुदीरितः। ततः सोऽवभृथे राजा मुदितो जनमेजयः। अपरज्ञः परां बुद्धिं स्पृष्ट्वा मोहाद्विमुच्यते // 15 | पितरं स्नापयामास स्वयं सत्रौ च पार्थिवः॥ 9 अदर्शनादापतितः पुनश्चादर्शनं गतः / स्नात्वा च भरतश्रेष्ठः सोऽऽस्तीकमिदमब्रवीत् / नाहं तं वेनि नासौ मां न च मेऽस्ति विरागता / / यायावरकुलोत्पन्नं जरत्कारुसुतं तदा // 10 येन येन शरीरेण करोत्ययमनीश्वरः / आस्तीक विविधाश्चर्यो यज्ञोऽयमिति मे मतिः। तेन तेन शरीरेण तदवश्यमुपाभुते / यदद्यायं पिता प्राप्तो मम शोकप्रणाशनः // 11 मानसं मनसाप्नोति शारीरं च शरीरवान् // 17 आस्तीक उवाच / इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि ऋषिद्वैपायनो यत्र पुराणस्तपसो निधिः / द्विचत्वारिंशोऽध्यायः॥॥४२॥ यज्ञे कुरुकुलश्रेष्ठ तस्य लोकावुभौ जितौ // 12 श्रुनं विचित्रमाख्यानं त्वया पाण्डवनन्दन / वैशंपायन उवाच / सर्पाश्च भस्मसान्नीता गताश्च पदवीं पितुः // 13 अदृष्ट्वा तु नृपः पुत्रान्दर्शनं प्रतिलब्धवान् / कथंचित्तक्षको मुक्तः सत्यत्वात्तव पार्थिव / ऋषिप्रसात्पुत्राणां स्वरूपाणां कुरूद्वह // 1 ऋषयः पूजिताः सर्वे गतिं दृष्ट्वा महात्मनः // 14 स राजा राजधर्माश्च ब्रह्मोपनिषदं तथा / प्राप्तः सुविपुलो धर्मः श्रुत्वा पापविनाशनम् / अवाप्तवान्नरश्रेष्ठो बुद्धिनिश्चयमेव च // 2 विमुक्तो हृदयग्रन्थिरुदारजनदर्शनात् // 15 विदुरश्च महाप्राज्ञो ययौ सिद्धिं तपोबलात् / / ये च पक्षधरा धर्मे सद्वृत्तरुचयश्च ये / धृतराष्ट्रः समासाद्य व्यासं चापि तपस्विनम् // 3 यान्दृष्ट्वा हीयते पापं तेभ्यः कार्या नमस्क्रियाः॥ जनमेजय उवाच / सूत उवाच / ममापि वरदो व्यासो दर्शयेत्पितरं यदि / एतच्छ्रुत्वा द्विजश्रेष्ठात्स राजा जनमेजयः / तद्रूपवेषवयसं श्रद्दध्यां सर्वमेव ते // 4 पूजयामास तमृषिमनुमान्य पुनः पुनः // 17. प्रियं मे स्यात्कृतार्थश्च स्यामहं कृतनिश्चयः / पप्रच्छ तमृषि चापि वैशंपायनमच्युतम् / प्रसादादृषिपुत्रस्य मम कामः समृध्यताम् // 5 कथावशेषं धर्मज्ञो वनवासस्य सत्तम // 18 सूत उवाच / इति श्रीमहाभारते भाश्रमवासिकपर्वणि त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः // 43 // इत्युक्तवचने तस्मिन्नृपे व्यासः प्रतापवान् / प्रसादमकरोद्धीमानानयच्च परिक्षितम् // 6 ततस्तद्रूपवयसमागतं नृपतिं दिवः / जनमेजय उवाच। श्रीमन्तं पितरं राजा ददर्श जनमेजयः // 7 दृष्ट्वा पुत्रांस्तथा पौत्रान्सानुबन्धाञ्जनाधिपः / - 2895 - 44 Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 44. 1] महाभारते [ 15. 44. 30 धृतराष्ट्रः किमकरोद्राजा चैव युधिष्ठिरः // 1 प्राप्तं पुत्रफलं त्वत्तः प्रीतिर्मे विपुला त्वयि / वैशंपायन उवाच / न मे मन्युर्महाबाहो गम्यतां पुत्र मा चिरम् // 16 तदृष्ट्वा महदाश्चयं पुत्राणां दर्शनं पुनः / भवन्तं चेह संप्रेक्ष्य तपो मे परिहीयते / वीतशोकः स राजर्षिः पुनराश्रममागमत् / / 2 तपोयुक्तं शरीरं च त्वां दृष्ट्वा धारितं पुनः // 17 इतरस्तु जनः सर्वस्ते चैव परमर्षयः / / मातरौ ते तथैवेमे शीर्णपर्णकृताशने / प्रतिजग्मुर्यथाकामं धृतराष्ट्राभ्यनुज्ञया // 3 मम तुल्यव्रते पुत्र नचिरं वर्तयिष्यतः / / 18 पाण्डवास्तु महात्मानो लघुभूयिष्ठसैनिकाः / दुर्योधनप्रभृतयो दृष्टा लोकान्तरं गताः / अनुजग्मुर्महात्मानं सदारं तं महीपतिम् // 4 व्यासस्य तपसो वीर्याद्भवतश्च समागमात् // 19 तमाश्रमगतं धीमान्ब्रह्मर्षिलॊकपूजितः / प्रयोजनं चिरं वृत्तं जीवितस्य च मेऽनघ / मुनिः सत्यवतीपुत्रो धृतराष्ट्रमभाषत / / 5 उग्रं तपः समास्थास्ये त्वमनुज्ञातुमर्हसि // 20. धृतराष्ट्र महाबाहो शृणु कौरवनन्दन / त्वय्यद्य पिण्डः कीर्तिश्च कुलं चेदं प्रतिष्ठितम् / श्रुतं ते ज्ञानवृद्धानामृषीणां पुण्यकर्मणाम् // 6 श्वो वाद्य वा महाबाहो गम्यतां पुत्र मा चिरम्॥२१ ऋद्धाभिजनवृद्धानां वेदवेदाङ्गवेदिनाम् / / राजनीतिः सुबहुशः श्रुता ते भरतर्षभ / धर्मज्ञानां पुराणानां वदतां विविधाः कथाः // 7 संदेष्टव्यं न पश्यामि कृतमेतावता विभो // 22 मा स्म शोके मनः कार्बर्दिष्टेन व्यथते बुधः।। इत्युक्तवचनं तात नृपो राजानमब्रवीत् / श्रुतं देवरहस्यं ते नारदादेवदर्शनात् // 8 न मामर्हसि धर्मज्ञ परित्यक्तुमनागसम् // 23 गतास्ते क्षत्रधर्मेण शस्त्रपूतां गतिं शुभाम् / कामं गच्छन्तु मे सर्वे भ्रातरोऽनुचरास्तथा / यथा दृष्टास्त्वया पुत्रा यथाकामविहारिणः // 9 भवन्तमहमन्विष्ये मातरौ च यतव्रते // 24 युधिष्ठिरस्त्वयं धीमान्भवन्तमनुरुध्यते / तमुवाचाथ गान्धारी मैवं पुत्र शृणुष्व मे / सहितो भ्रातृभिः सर्वैः सदारः ससुहृज्जनः // 10 त्वय्यधीनं कुरुकुलं पिण्डश्च श्वशुरस्य मे / / 25 विसर्जयैनं यात्वेष स्वराज्यमनुशासताम् / गम्यतां पुत्र पर्याप्तमेतावत्पूजिता वयम् / मासः समधिको ह्येषामतीतो वसतां वने // 11 राजा यदाह तत्कायं त्वया पुत्र पितुर्वचः // 26 एतद्धि नित्यं यत्नेन पदं रक्ष्यं परंतप।। इत्युक्तः स तु गान्धार्या कुन्तीमिदमुवाच ह / बहुप्रत्यर्थिकं ह्येतद्राज्यं नाम नराधिप // 12 स्नेहबाष्पाकुले नेत्रे प्रमृज्य रुदतीं वचः // 27 इत्युक्तः कौरवो राजा व्यासेनामितबुद्धिना। विसर्जयति मां राजा गान्धारी च यशस्विनी। युधिष्ठिरमथाहूय वाग्मी वचनमब्रवीत् // 13 भवत्यां बद्धचित्तस्तु कथं यास्यामि दुःखितः / / 28 अजातशत्रो भद्रं ते शृणु मे भ्रातृभिः सह / न चोत्सहे तपोविघ्नं कर्तुं ते धर्मचारिणि / त्वत्प्रसादान्महीपाल शोको नास्मान्प्रबाधते // 14 / तपसो हि परं नास्ति तपसा विन्दते महत् // 29 रमे चाहं त्वया पुत्र पुरेव गजसाह्वये। ममापि न तथा राज्ञि राज्ये बुद्धिर्यथा पुरा / नाथेनानुगतो विद्वन्प्रियेषु परिवर्तिना / / 15 तपस्येवानुरक्तं मे मनः सर्वात्मना. तथा // 30 - 2896 - Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 44. 31] आश्रमवासिकपर्व [15. 45. 4 शून्येयं च मही सर्वा न मे प्रीतिकरी शुभे। अनुजज्ञे जयाशीभिरभिनन्द्य युधिष्टिरम् // 45 बान्धवा नः परिक्षीणा बलं नो न यथा पुरा // 31 भीमं च बलिनां श्रेष्ठं सान्त्वयामास पार्थिवः / पाञ्चालाः सुभृशं क्षीणाः कन्यामात्रावशेषिताः। / स चास्य सम्यङमेधावी प्रत्यपद्यत वीर्यवान् // 46 न तेषां कुलकर्तारं कंचित्पश्याम्यहं शुभे / / 32 अर्जुनं च समाश्लिष्य यमौ च पुरुर्षभौ। सर्वे हि भस्मसान्नीता द्रोणेनैकेन संयुगे। अनुजज्ञे स कौरव्यः परिष्वज्याभिनन्द्य च // 47 अवशेषास्तु निहता द्रोणपुत्रेण वै निशि // 33 गान्धार्या चाभ्यनुज्ञाताः कृतपादाभिवन्दनाः / चेदयश्चैव मत्स्याश्च दृष्टपूर्वास्तथैव नः / . जनन्या समुपाघ्राताः परिष्वक्ताश्च ते नृपम् / केवलं वृष्णिचक्रं तु वासुदेवपरिग्रहात् / चक्रुः प्रदक्षिणं सर्वे वत्सा इव निवारणे // 48 यं दृष्ट्वा स्थातुमिच्छामि धर्मार्थ नान्यहेतुकम् // 34 पुनः पुनर्निरीक्षन्तः प्रजग्मुस्ते प्रदक्षिणम् / शिवेन पश्य नः सर्वान्दुर्लभं दर्शनं तव / तथैव द्रौपदी साध्वी सर्वाः कौरवयोषितः // 49 भविष्यत्यम्ब राजा हि तीव्रमारप्स्यते तपः // 35 न्यायतः श्वशुरे वृत्तिं प्रयुज्य प्रययुस्ततः / एतच्छ्रुत्वा महाबाहुः सहदेवो युधां पतिः / / श्वश्रूभ्यां समनुज्ञाताः परिष्वज्याभिनन्दिताः / युधिष्ठिरमुवाचेदं बाष्पव्याकुललोचनः // 36 संविष्टाश्चेतिकर्तव्यं प्रययुभर्तृभिः सह // 50 नोत्सहेऽहं परित्यक्तुं मातरं पार्थिवर्षभ / ततः प्रजज्ञे विनदः सूतानां युज्यतामिति / प्रतियातु भवान्क्षिप्रं तपस्तप्स्याम्यहं वने // 37 / / उष्ट्राणां क्रोशतां चैव हयानां हेषतामपि // 51 इहैव शोषयिष्यामि तपसाहं कलेवरम् / ततो युधिष्ठिरो राजा सदारः सहसैनिकः / पादशुश्रूषणे युक्तो राज्ञो मात्रोस्तथानयोः // 38 नगरं हास्तिनपुरं पुनरायात्सबान्धवः // 52 तमुवाच ततः कुन्ती परिष्वज्य महाभुजम् / इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि गम्यतां पुत्र मैव त्वं वोचः कुरु वचो मम // 39 चतुश्चत्वारिंशोऽयायः // 44 // आगमा वः शिवाः सन्तु स्वस्था भवत पुत्रकाः / // समाप्तं पुत्रदर्शनपर्व // उपरोधो भवेदेवमस्माकं तपसः कृते // 40 त्वत्स्नेहपाशबद्धा च हीयेयं तपसः परात् / तस्मात्पुत्रक गच्छ त्वं शिष्टमल्पं हि नः प्रभो // 41 वैशंपायन उवाच / एवं संस्तम्भितं वाक्यैः कुन्त्या बहुविधैर्मनः। द्विवर्षोपनिवृत्तेषु पाण्डवेषु यदृच्छया / सहदेवस्य राजेन्द्र राज्ञश्चैव विशेषतः // 42 देवर्षिर्नारदो राजन्नाजगाम युधिष्ठिरम् // 1 ते मात्रा समनुज्ञाता राज्ञा च कुरुपुंगवाः / तमभ्यर्च्य महाबाहुः कुरुराजो युधिष्टिरः / अभिवाद्य कुरुश्रेष्ठमामयितुमारभन् // 43 आसीनं परिविश्वस्तं प्रोवाच वदतां वरः // 2 राजन्प्रतिगमिष्यामः शिवेन प्रतिनन्दिताः / चिरस्य खलु पश्यामि भगवन्तमुपस्थितम् / अनुज्ञातास्त्वया राजन्गमिष्यामो विकल्मषाः // 44 / कञ्चित्ते कुशलं विप्र शुभं वा प्रत्युपस्थितम् // 3 एवमुक्तः स राजर्षिर्धर्मराज्ञा महात्मना / के देशाः परिदृष्टास्ते किं च कार्य करोमि ते / म. भा. 363 - 2897 - Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 45. 4] महाभारते [15. 45. 31 तद्भूहि द्विजमुख्य त्वमस्माकं च प्रियोऽतिथिः // 4 गान्धार्यास्तु पृथा राजंश्चक्षुरासीदनिन्दिता // 17 नारद उवाच / ततः कदाचिद्गङ्गायाः कच्छे स नृपसत्तमः / चिरदृष्टोऽसि मे राजन्नागतोऽस्मि तपोवनात् / गङ्गायामाप्लुतो धीमानाश्रमाभिमुखोऽभवत् / / 18 परिदृष्टानि तीर्थानि गङ्गा चैव मया नृप // 5 अथ वायुः समुद्भूतो दावाग्निरभवन्महान् / ददाह तद्वनं सर्वं परिगृह्य समन्ततः // 19 युधिष्ठिर उवाच / दह्यत्सु मृगयूथेषु द्विजिह्वेषु समन्ततः। वदन्ति पुरुषा मेऽद्य गङ्गातीरनिवासिनः। वराहाणां च यूथेषु संश्रयत्सु जलाशयान् // 20 धृतराष्ट्रं महात्मानमास्थितं परमं तपः // 6 समाविद्धे वने तस्मिन्प्राप्ते व्यसन उत्तमे / अपि दृष्टस्त्वया तत्र कुशली स कुरूद्वहः / निराहारतया राजा मन्दप्राणविचेष्टितः / गान्धारी च पृथा चैव सूतपुत्रश्च संजयः॥७ असमर्थोऽपसरणे सुकृशौ मातरौ च ते // 21 . कथं च वर्तते चाद्य पिता मम स पार्थिवः / ततः स नृपतिर्दृष्ट्वा वह्निमायान्तमन्तिकात् / श्रोतुमिच्छामि भगवन्यदि दृष्टस्त्वया नृपः // 8 इदमाह ततः सूतं संजयं पृथिवीपते // 22 नारद उवाच। गच्छ संजय यत्राग्निर्न त्वां दहति कर्हिचित् / स्थिरीभूय महाराज शृणु सर्व यथातथम् / वयमत्राग्निना युक्ता गमिष्यामः परां गतिम // 23 यथा श्रुतं च दृष्टं च मया तस्मिंस्तपोवने // 9 तमुवाच किलोद्विग्नः संजयो वदतां वरः / वनवासनिवृत्तेषु भवत्सु कुरुनन्दन / राजन्मृत्युरनिष्टोऽयं भविता ते वृथाग्निना // 24 कुरुक्षेत्रात्पिता तुभ्यं गङ्गाद्वारं ययौ नृप / / 10 न चोपायं प्रपश्यामि मोक्षणे जातवेदसः / गान्धार्या सहितो धीमान्वध्वा कुन्या समन्वितः / यदत्रानन्तरं कायं तद्भवान्वक्तुमर्हति // 25 संजयेन च सूतेन साग्निहोत्रः सयाजकः // 11 इत्युक्तः संजयेनेदं पुनराह स पार्थिवः / आतस्थे स तपस्तीव्र पिता तव तपोधनः। नैष मृत्युरनिष्टो नो निःसृतानां गृहात्स्वयम् // 26 वीटां मुखे समाधाय वायुभक्षोऽभवन्मुनिः // 12 जलमग्निस्तथा वायुरथ वापि विकर्शनम् / वने स मुनिभिः सर्वैः पूज्यमानो महातपाः। तापसानां प्रशस्यन्ते गच्छ संजय माचिरम् // 27 त्वगस्थिमात्रशेषः स षण्मासानभवन्नृपः // 13 इत्युक्त्वा संजयं राजा समाधाय मनस्तदा। गान्धारी तु जलाहारा कुन्ती मासोपवासिनी / प्राङ्मुखः सह गान्धार्या कुन्त्या चोपाविशत्तदा // संजयः षष्ठभक्तेन वर्तयामास भारत // 14 संजयस्तं तथा दृष्ट्वा प्रदक्षिणमथाकरोत् / अग्नीस्तु याजकास्तत्र जुहुवुर्विधिवत्प्रभो / उवाच चैनं मेधावी युवात्मानमिति प्रभो // 29 दृश्यतोऽदृश्यतश्चैव वने तस्मिन्नृपस्य ह // 15 / ऋषिपुत्रो मनीषी स राजा चक्रेऽस्य तद्वचः / अनिकेतोऽथ राजा स बभूव वनगोचरः / संनिरुध्येन्द्रियग्राममासीत्काष्ठोपमस्तदा // 30 ते चापि सहिते देव्यौ संजयश्च तमन्वयुः // 16 गान्धारी च महाभागा जननी च पृथा तव / संजयो नृपतेर्नेता समेषु विषमेषु च। दावाग्निना समायुक्त स च राजा पिता तव // 31 -2898 - Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 45. 32] आश्रमवासिकपर्व [15. 46. 14 संजयस्तु महामात्रस्तस्मादावादमुच्यत / गङ्गाकूले मया दृष्टस्तापसैः परिवारितः // 32 युधिष्ठिर उवाच / स तानामश्रय तेजस्वी निवेद्यैतच्च सर्वशः / तथा महात्मनस्तस्य तपस्युग्रे च वर्ततः / प्रययौ संजयः सूतो हिमवन्तं महीधरम् // 33 अनाथस्येव निधनं तिष्ठत्स्वस्मासु बन्धुषु // 1 एवं स निधनं प्राप्तः कुरुराजो महामनाः। दुर्विज्ञेया हि गतयः पुरुषाणां मता मम / गान्धारी च पृथा चैव जनन्यौ ते नराधिप // 34 यत्र वैचित्रवीर्योऽसौ दग्ध एवं दवाग्निना // 2 यहच्छयानुव्रजता मया राज्ञः कलेवरम। यस्य पुत्रशतं श्रीमदभवद्वाहुशालिनः / तयोश्च देव्योरुभयोर्दृष्टानि भरतर्षभ // 35 नागायुतबलो राजा स दग्धो हि दवाग्निना // 3 ततस्तपोवने तस्मिन्समाजग्मुस्तपोधनाः। . यं पुरा पर्यवीजन्त तालवृन्तैर्वर स्त्रियः / श्रुत्वा राज्ञस्तथा निष्ठां न त्वंशोचन्गतिं च ते // 36 तं गृध्राः पर्यवीजन्त दावाग्निपरिकालितम् // 4 तत्राश्रौषमहं सर्वमेतत्पुरुषसत्तम / सूतमागधसंधैश्च शयानो यः प्रबोध्यते / यथा च नृपतिर्दग्धो देव्यौ ते चेति पाण्डव // 37 धरण्यां स नृपः शेते पापस्य मम कर्मभिः // 5 न शोचितव्यं राजेन्द्र स्वन्तः स पृथिवीपतिः। न तु शोचामि गान्धारी हतपुत्रां यशस्विनीम् / प्राप्तवानग्निसंयोगं गान्धारी जननी च ते // 38 पतिलोकमनुप्राप्तां तथा भर्तृव्रते स्थिताम् // 6 - वैशंपायन उवाच / पृथामेव तु शोचामि या पुत्रैश्वर्यमृद्धिमत् / एतच्छ्रुत्वा तु सर्वेषां पाण्डवानां महात्मनाम् / उत्सृज्य सुमहद्दीप्तं वनवासमरोचयत् // 7 निर्याणं धृतराष्ट्रस्य शोकः समभवन्महान् // 39 धिग्राज्यमिदमस्माकं धिग्बलं धिक्पराक्रमम् / अन्तःपुराणां च तदा महानार्तस्वरोऽभवत् / क्षत्रधर्म च धिग्यस्मान्मृता जीवामहे वयम् // 8 पौराणां च महाराज श्रुत्वा राज्ञस्तदा गतिम् // 40 सुसूक्ष्मा किल कालस्य गतिर्द्विजवरोत्तम / अहो धिगिति राजा तु विक्रुश्य भृशदुःखितः / यत्समुत्सृज्य राज्यं सा वनवासमरोचयत् // 9 ऊर्ध्वबाहुः स्मरन्मातुः प्ररुरोद युधिष्ठिरः। युधिष्ठिरस्य जननी भीमस्य विजयस्य च / भीमसेनपुरोगाश्च भ्रातरः सर्व एव ते // 41 अनाथवत्कथं दग्धा इति मुह्यामि चिन्तयन् // 10 अन्तःपुरेषु च तदा सुमहान्रुदितस्वनः / वृथा संतोषितो वह्निः खाण्डवे सव्यसाचिना / प्रादुरासीन्महाराज पृथां श्रुत्वा तथागताम् / / 42 उपकारमजानन्स कृतघ्न इति मे मतिः // 11 तं च वृद्धं तथा दग्धं हतपुत्रं नराधिपम् / यत्रादहत्स भगवान्मातरं सव्यसाचिनः / अन्वशोचन्त ते सर्वे गान्धारीं च तपस्विनीम् // 43 कृत्वा यो ब्राह्मणच्छद्म भिक्षार्थी समुपागतः। तस्मिन्नपरते शब्दे मुहूर्तादिव भारत / धिगग्निं धिक्च पार्थस्य विश्रुतां सत्यसंधताम् // 12 निगृह्म बाष्पं धैर्येण धर्मराजोऽब्रवीदिदम् // 44 इदं कष्टतरं चान्यद्भगवन्प्रतिभाति मे / इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि वृथाग्निना समायोगो यदभूपृथिवीपतेः॥१३ पञ्चचत्वारिंशोऽयायः॥४५॥ तथा तपस्विनस्तस्य राजर्षेः कौरवस्य ह / -2899 - Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15. 46. 14 ] महाभारते [ 15. 47. 21 कथमेवंविधो मृत्युः प्रशास्य पृथिवीमिमाम् // 14 मा शोचिथास्त्वं नृपतिं गतः स परमां गतिम् / / तिष्ठत्सु मन्त्रपूतेषु तस्याग्निषु महावने / गुरुशुश्रूषया चैव जननी तव पाण्डव / वृथाग्निना समायुक्तो निष्ठां प्राप्तः पिता मम // 15 प्राप्ता सुमहतीं सिद्धिमिति मे नात्र संशयः // 8 मन्ये पृथा वेपमाना कृशा धमनिसंतता। कर्तुमर्हसि कौरव्य तेषां त्वमुदकक्रियाम् / हा तात धर्मराजेति समाक्रन्दन्महाभये // 16 भ्रातृभिः सहितः सर्वैरेतदत्र विधीयताम् // 9 भीम पर्याप्नुहि भयादिति चैवाभिवाशती / वैशंपायन उवाच / समन्ततः परिक्षिप्ता माता मेऽभूद्दवाग्निना // 17 ततः स पृथिवीपालः पाण्डवानां धुरंधरः / सहदेवः प्रियस्तस्याः पुत्रेभ्योऽधिक एव तु। निर्ययौ सह सोदयः सदारो भरतर्षभ // 10 न चैनां मोक्षयामास वीरो माद्रवतीसुतः // 18 पौरजानपदाश्चैव राजभक्तिपुरस्कृताः। तच्छ्रुत्वा रुरुदुः सर्वे समालिङ्गय परस्परम् / / गङ्गां प्रजग्मुरभितो वाससैकेन संवृताः // 11 पाण्डवाः पञ्च दुःखार्ता भूतानीव युगक्षये // 19 ततोऽवगाह्य सलिलं सर्वे ते कुरुपुंगवाः / तेषां तु पुरुषेन्द्राणां रुदतां रुदितस्वनः / युयुत्सुमप्रतः कृत्वा ददुस्तोयं महात्मने // 12 प्रासादाभोगसंरुद्धो अन्वरौत्सीत्स रोदसी // 20 गान्धार्याश्च पृथायाश्च विधिवन्नामगोत्रतः। इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि शौचं निवर्तयन्तस्ते तत्रोपुर्नगराद्वहिः // 13 षट्चत्वारिंशोऽध्यायः // 46 // प्रेषयामास स नरान्विधिज्ञानाप्तकारिणः / 47 गङ्गाद्वारं कुरुश्रेष्ठो यत्र दग्धोऽभवन्नृपः // 14 नारद उवाच। तत्रैव तेषां कुल्यानि गङ्गाद्वारेऽन्वशात्तदा / नासौ वृथाग्निना दग्धो यथा तत्र श्रुतं मया / कर्तव्यानीति पुरुषान्दत्तदेयान्महीपतिः // 15 वैचित्रवीर्यो नृपतिस्तत्ते वक्ष्यामि भारत // 1 द्वादशेऽहनि तेभ्यः स कृतशौचो नराधिपः / वनं प्रविशता तेन वायुभक्षेण धीमता। ददौ श्राद्धानि विधिवदक्षिणावन्ति पाण्डवः // 16 अग्नयः कारयित्वेष्टिमुत्सृष्टा इति नः श्रुतम् // 2 धृतराष्ट्रं समुद्दिश्य ददौ स पृथिवीपतिः / याजकास्तु ततस्तस्य तानग्नीग्निर्जने वने / सुवर्ण रजतं गाश्च शय्याश्च सुमहाधनाः // 17 . समुत्सृज्यं यथाकामं जग्मुर्भरतसत्तम // 3 गान्धार्याश्चैव तेजस्वी पृथायाश्च पृथक्पृथक् / स विवृद्धस्तदा वह्निर्वने तस्मिन्नभूत्किल / संकीर्त्य नामनी राजा ददौ दानमनुत्तमम् // 18 तेन तद्वनमादीप्तमिति मे तापसाब्रुवन् // 4 यो यदिच्छति यावच्च तावत्स लभते द्विजः / स राजा जाह्नवीकच्छे यथा ते कथितं मया। शयनं भोजनं यानं मणिरत्नमथो धनम् // 19 तेनाग्निना समायुक्तः स्वेनैव भरतर्षभ // 5 . यानमाच्छादनं भोगान्दासीश्च परिचारिकाः। एवमावेदयामासुर्मुनयस्ते ममानघ। ददौ राजा समुद्दिश्य तयोर्मात्रोर्महीपतिः // 20 ये ते भागीरथीतीरे मया दृष्टा युधिष्ठिर // 6 / ततः स पृथिवीपालो दत्त्वा श्राद्धान्यनेकशः / एवं स्वेनाग्निना राजा समायुक्तो महीपते / / प्रविवेश पुनर्धीमान्नगरं वारणाह्वयम् // 21 -2900 Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16. 47. 22] आश्रमवासिकपर्व [ 15. 47. 21 . ते चापि राजवचनात्पुरुषा ये गताभवन् / संकल्प्य तेषां कुल्यानि पुनः प्रत्यागमंस्ततः // 22 माल्यैर्गन्धैश्च विविधैः पूजयित्वा यथाविधि / कुल्यानि तेषां संयोज्य तदाचख्युर्महीपतेः // 23 समाश्वास्य च राजानं धर्मात्मानं युधिष्ठिरम् / नारदोऽप्यगमद्राजन्परमर्षिर्यथेप्सितम् // 24 एवं वर्षाण्यतीतानि धृतराष्ट्रस्य धीमतः। . वनवासे तदा त्रीणि नगरे दश पञ्च च // 25 हतपुत्रस्य संग्रामे दानानि ददतः सदा / ज्ञातिसंबन्धिमित्राणां भ्रातॄणां स्वजनस्य च // 26 युधिष्ठिरस्तु नृपति तिप्रीतमनास्तदा। धारयामास तद्राज्यं निहतज्ञातिबान्धवः // 27 इति श्रीमहाभारते आश्रमवासिकपर्वणि सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः॥४७॥ नारदागमनपर्व समाप्तम् // // समाप्तमाश्रमवासिकं पर्व // -2901 Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौसलपर्व विषण्णा हतसंकल्पाः पाण्डवाः समुपाविशन् // 11 वैशंपायन उवाच / इति श्रीमहाभारते मौसलपर्वणि षट्त्रिंशे त्वथ संप्राप्ते वर्षे कौरवनन्दनः / प्रथमोऽध्यायः // 1 // ददर्श विपरीतानि निमित्तानि युधिष्ठिरः // 1 ववुर्वाताः सनिर्घाता रूक्षाः शर्करवर्षिणः / जनमेजय उवाच / अपसव्यानि शकुना मण्डलानि प्रचक्रिरे // 2 कथं विनष्टा भगवन्नन्धका वृष्णिभिः सह / प्रत्यगृहुर्महानद्यो दिशो नीहारसंवृताः।। पश्यतो वासुदेवस्य भोजाश्चैव महारथाः // 1 उल्काश्चाङ्गारवर्षिण्यः प्रपेतुर्गगनाद्भुवि // 3 वैशंपायन उवाच / आदित्यो रजसा राजन्समवच्छन्नमण्डलः / षट्त्रिंशेऽथ ततो वर्षे वृष्णीनामनयो महान् / विरश्मिरुदये नित्यं कबन्धैः समदृश्यत // 4 अन्योन्यं मुसलैस्ते तु निजघ्नुः कालचोदिताः // 2 परिवेषाश्च दृश्यन्ते दारुणाः चन्द्रसूर्ययोः / त्रिवर्णाः श्यामरूक्षान्तास्तथा भस्मारुणप्रभाः॥ 5 जनमेजय उवाच / एते चान्ये च बहव उत्पाता भयशंसिनः / केनानुशप्तास्ते वीराः क्षयं वृष्ण्यन्धका ययुः / दृश्यन्तेऽहरहो राजन्हृदयोद्वेगकारकाः // 6 भोजाश्च द्विजवर्य त्वं विस्तरेण वदस्व मे // 3 कस्यचित्त्वथ कालस्य कुरुराजो युधिष्ठिरः। वैशंपायन उवाच / शुश्राव वृष्णिचक्रस्य मौसले कदनं कृतम् // 7 विश्वामित्रं च कण्वं च नारदं च तपोधनम् / विमुक्तं वासुदेवं च श्रुत्वा रामं च पाण्डवः / सारणप्रमुखा वीरा ददृशुभरकागतान् // 4 समानीयाब्रवीद्धातृन्कि करिष्याम इत्युत // 8 ते वै साम्बं पुरस्कृत्य भूषयित्वा स्त्रियं यथा / परस्परं समासाद्य ब्रह्मदण्डबलात्कृतान् / अब्रुवन्नुपसंगम्य दैवदण्डनिपीडिताः // 5 वृष्णीन्विनष्टांस्ते श्रुत्वा व्यथिताः पाण्डवाभवन् / इयं स्त्री पुत्रकामस्य बभ्रोरमिततेजसः / निधनं वासुदेवस्य समुद्रस्येव शोषणम् / ऋषयः साधु जानीत किमियं जनयिष्यति // 6 वीरा न श्रद्दधुस्तस्य विनाशं शार्ङ्गधन्वनः // 10 / इत्युक्तास्ते तदा राजन्विप्रलम्भप्रधर्षिताः / मौसलं ते परिश्रुत्य दुःखशोकसमन्विताः। प्रत्यब्रुवंस्तान्मुनयो यत्तच्छृणु नराधिप // 7 -2902 - Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16. 2.8] मौसलपर्व [16. 3. 15 वृष्ण्यन्धकविनाशाय मुसलं घोरमायसम् / कालो गृहाणि सर्वेषां परिचक्राम नित्यशः // 1 वासुदेवस्य दायादः साम्बोऽयं जनयिष्यति // 8 करालो विकटो मुण्डः पुरुषः कृष्णपिङ्गलः / येन यूयं सुदुर्वृत्ता नृशंसा जातमन्यवः / गृहाण्यवेक्ष्य वृष्णीनां नादृश्यत पुनः कचित् // 2 उच्छेत्तारः कुलं कृत्स्नमृते रामजनार्दनौ // 9 उत्पेदिरे महावाता दारुणाश्च दिने दिने / समुद्रं यास्यति श्रीमांस्त्यक्त्वा देहं हलायुधः। वृष्ण्यन्धकविनाशाय बहवो रोमहर्षणाः // 3 जरा कृष्णं महात्मानं शयानं भुवि भेत्स्यति // 10 विवृद्धमूषका रथ्या विभिन्नमणिकास्तथा / इत्यब्रुवन्त ते राजन्प्रलब्धास्तैर्दुरात्मभिः। . चीचीकूचीति वाश्यन्त्यः सारिका वृष्णिवेश्मसु / मुनयः क्रोधरक्तामाः समीक्ष्याथ परस्परम् // 11. नोपशाम्यति शब्दश्च स दिवारानमेव हि // 4 तथोक्त्वा मुनयस्ते तु ततः केशवमभ्ययुः // 12 अनुकुर्वन्नुलूकानां सारसा विरुतं तथा / अथाब्रवीत्तदा वृष्णी श्रुत्वैवं मधुसूदनः / अजाः शिवानां च रुतमन्वकुर्वत भारत // 5 अन्तज्ञो मतिमांस्तस्य भवितव्यं तथेति तान् // 13 पाण्डुरा रक्तपादाश्च विहगाः कालचोदिताः / एवमुक्त्वा हृषीकेशः प्रविवेश पुनर्गृहान् / वृष्ण्यन्धकानां गेहेषु कपोता व्यचरंस्तदा // 6 कृतान्तमन्यथा नैच्छत्कर्तुं स जगतः प्रभुः // 14 व्यजायन्त खरा गोषु करभाश्वतरीषु च। श्वोभूतेऽथ ततः साम्बो मुसलं तदसूत वै / शुनीष्वपि बिडालाश्च मूषका नकुलीषु च // 7 वृष्ण्यन्धकविनाशाय किंकरप्रतिमं महत् // 15 नापत्रपन्त पापानि कुर्वन्तो वृष्णयस्तदा / प्रसूतं शापजं घोरं तच्च राजे न्यवेदयन् / प्राद्विषन्ब्राह्मणांश्चापि पितॄन्देवांस्तथैव च // 8 विषण्णरूपस्तद्राजा सूक्ष्मं चूर्णमकारयत् // 16 गुरूंश्चाप्यवमन्यन्त न तु रामजनार्दनौ / प्राक्षिपन्सागरे तच्च पुरुषा राजशासनात् / पन्यः पतीन्व्युच्चरन्त पत्नीश्च पतयस्तथा // 9 अघोषयंश्च नगरे वचनादाहुकस्य च / / 17 विभावसुः प्रज्वलितो वामं विपरिवर्तते / अद्य प्रभृति सर्वेषु वृष्ण्यन्धकगृहेष्विह / नीललोहितमाञ्जिष्ठा विसृजन्नर्चिषः पृथक् // 10 सुरासवो न कर्तव्यः सर्वैर्नगरवासिभिः // 18 उदयास्तमने नित्यं पुर्यां तस्यां दिवाकरः / यश्च नोऽविदितं कुर्यात्पेयं कश्चिन्नरः क्वचित् / / व्यदृश्यतासकृत्पुंभिः कबन्धैः परिवारितः // 11 जीवन्स शूलमारोहेत्स्वयं कृत्वा सबान्धवः // 19 | महानसेषु सिद्धेऽन्ने संस्कृतेऽतीव भारत / ततो राजभयात्सर्वे नियमं चक्रिरे तदा। आहार्यमाणे कृमयो व्यदृश्यन्त नराधिप // 12 नराः शासनमाज्ञाय तस्य राज्ञो महात्मनः / / 20 पुण्याहे वाच्यमाने च जपत्सु च महात्मसु / इति श्रीमहाभारते मौसलपर्वणि अभिधावन्तः श्रयन्ते न चादृश्यत कश्चन // 13 द्वितीयोऽध्यायः // 2 // परस्परं च नक्षत्रं हन्यमानं पुनः पुनः / प्रहैरपश्यन्सर्वे ते नात्मनस्तु कथंचन // 14 वैशंपायन उवाच / नदन्तं पाश्चजन्यं च वृष्ण्यन्धकनिवेशने / एवं प्रयतमानानां वृष्णीनामन्धकैः सह / समन्तात्प्रत्यवाश्यन्त रासभा दारुणस्वराः // 15 - 2903 - Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16. 3. 16 ] महाभारते [16. 4. 19 एवं पश्यन्हृषीकेशः संप्राप्तं कालपर्ययम् / उच्चैर्जगुरप्सरसो दिवानिशं त्रयोदश्याममावास्यां तान्दृष्ट्वा प्राब्रवीदिदम् // 16 वाचश्चोचुर्गम्यतां तीर्थयात्रा // 5 चतुर्दशी पञ्चदशी कृतेयं राहुणा पुनः / ततो जिगमिषन्तस्ते वृष्ण्यन्धकमहारथाः। तदा च भारते युद्धे प्राप्ता चाद्य क्षयाय नः // 17 सान्तःपुरास्तदा तीर्थयात्रामैच्छन्नरर्षभाः // 6 विमृशन्नेव कालं तं परिचिन्त्य जनार्दनः / ततो भोज्यं च भक्ष्यं च पेयं चान्धकवृष्णयः / मेने प्राप्तं स षट्त्रिंशं वर्ष वै केशिसूदनः // 18 बहु नानाविधं चक्रुर्मद्यं मांसमनेकशः // 7 पुत्रशोकाभिसंतप्ता गान्धारी हतवान्धवा / ततः सीधुषु सक्ताश्च निर्ययुर्नगराहिः। यद्नुव्याजहारार्ता तदिदं समुपागतम् // 19 यानैरश्वैर्गजैश्चैव श्रीमन्तस्तिग्मतेजसः // 8 इदं च तदनुप्राप्तमब्रवीयद्युधिष्ठिरः / / ततः प्रभासे न्यवसन्यथोदेशं यथागृहम् / पुरा व्यूढेष्वनीकेषु दृष्ट्वोत्पातान्सुदारुणान् / 20 प्रभूतभक्ष्यपेयास्ते सदारा यादवास्तदा // 9 . . इत्युक्त्वा वासुदेवस्तु चिकीर्षन्सत्यमेव तत् / निविष्टांस्तान्निशम्याथ समुद्रान्ते स योगवित् / आज्ञापयामास तदा तीर्थयात्रामरिंदम // 21 जगामामय तान्वीरानुद्धवोऽर्थविशारदः // 10 अघोषयन्त पुरुषास्तत्र केशवशासनात् / तं प्रस्थितं महात्मानमभिवाद्य कृताञ्जलिम् / तीर्थयात्रा समुद्रे वः कार्येति पुरुषर्षभाः // 22 जानन्विनाशं वृष्णीनां नैच्छद्वारयितुं हरिः // 11 इति श्रीमहाभारते मौसलपर्वणि ततः कालपरीतास्ते वृष्ण्यन्धकमहारथाः। . तृतीयोऽध्यायः // 3 // अपश्यन्नद्धवं यान्तं तेजसावृत्य रोदसी // 12 ब्राह्मणार्थेषु यत्सिद्धमन्नं तेषां महात्मनाम् / वैशंपायन उवाच। तद्वानरेभ्यः प्रददुः सुरागन्धसमन्वितम् // 13 काली स्त्री पाण्डुरैर्दन्तैः प्रविश्य हसती निशि। ततस्तूर्यशताकीणं नटनर्तकसंकुलम् / स्त्रियः स्वप्नेषु मुष्णन्ती द्वारकां परिधावति // 1 : प्रावर्तत महापानं प्रभासे तिग्मतेजसाम् // 14 अलंकाराश्च छत्रं च ध्वजाश्च कवचानि / कृष्णस्य संनिधौ रामः सहितः कृतवर्मणा / ढियमाणान्यदृश्यन्त रक्षोभिः सुभयानकैः // 2 अपिबद्युयुधानश्च गदो बभ्रस्तथैव च // 15 तच्चाग्निदत्तं कृष्णस्य वज्रनाभमयस्मयम् / / ततः परिषदो मध्ये युयुधानो मदोत्कटः / दिवमाचक्रमे चक्रं वृष्णीनां पश्यतां तदा // 3 अब्रवीत्कृतवर्माणमवहस्यावमन्य च // 16 युक्तं रथं दिव्यमादित्यवर्ण कः क्षत्रियो मन्यमानः सुप्तान्हन्यान्मृतानिव / हयाहरन्पश्यतो दारुकस्य / न तन्मृष्यन्ति हार्दिक्य यादवा यत्त्वया कृतम् // ते सागरस्योपरिष्टादवर्त इत्युक्ते युयुधानेन पूजयामास तद्वचः / न्मनोजवाश्चतुरो वाजिमुख्याः // 4 प्रद्युम्नो रथिनां श्रेष्ठो हार्दिक्यमवमन्य च // 18 तालः सुपर्णश्च महाध्वजौ तौ ततः परमसंक्रुद्धः कृतवर्मा तमब्रवीत् / सुपूजितौ रामजनार्दनाभ्याम् / निर्दिशन्निव सावज्ञं तदा सव्येन पाणिना // 19 -2904 - Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16. 4. 20 ] मौसलपर्व [ 16. 5.1 भूरिश्रवाश्छिन्नबाहृयुद्धे प्रायगतस्त्वया / तदभून्मुसलं घोरं वज्रकल्पमयोमयम् / वधेन सुनृशंसेन कथं वीरेण पातितः // 20 जघान तेन कृष्णस्तान्येऽस्य प्रमुखतोऽभवन् // 35 इति तस्य वचः श्रुत्वा केशव परवीरहा। ततोऽन्धकाश्च भोजाश्च शैनेया वृष्णयस्तथा। तिर्यक्सरोषया दृष्ट्या वीक्षांचक्रे स मन्युमान्॥२१ जघ्नुरन्योन्यमाक्रन्दे मुसलैः कालचोदिताः // 36 मणिः स्यमन्तकश्चैव यः स सत्राजितोऽभवत् / / यस्तेषामेरकां कश्चिज्जग्राह रुषितो नृप / तां कथां स्मारयामास सात्यकिर्मधुसूदनम् // 22 वनभूतेव सा राजन्नदृश्यत तदा विभो // 37 तच्छ्रुत्वा केशवस्याङ्कमगमद्रुदती तदा / तृणं च मुसलीभूतमपि तत्र व्यदृश्यत / सत्यभामा प्रकुपिता कोपयन्ती जनार्दनम् // 23 ब्रह्मदण्डकृतं सर्वमिति तद्विद्धि पार्थिव // 38 तत उत्थाय सक्रोधः सात्यकिर्वाक्यमब्रवीत् / आविध्याविध्य ते राजन्प्रक्षिपन्ति स्म यत्तृणम् / पश्चानां द्रौपदेयानां धृष्टद्युम्नशिखण्डिनोः // 24 तद्वनभूतं मुसलं व्यदृश्यत तदा दृढम् // 39 एष गच्छामि पदवीं सत्येन च तथा शपे।। अवधीपितरं पुत्रः पिता पुत्रं च भारत / सौप्तिके ये च निहताः सुप्तानेन दुरात्मना // 25 मत्ताः परिपतन्ति स्म पोथयन्तः परस्परम् / / 40 द्रोणपुत्रसहायेन पापेन कृतवर्मणा / पतंगा इव चाग्नौ ते न्यपतन्कुकुरान्धकाः / समाप्तमायुरस्याद्य यशश्चापि सुमध्यमे // 26 नासीत्पलायने बुद्धिर्वध्यमानस्य कस्यचित् // 41 इतीदमुक्त्वा खड्गेन केशवस्य समीपतः / तं तु पश्यन्महाबाहुर्जानन्कालस्य पर्ययम् / अभिद्रुत्य शिरः क्रुद्धश्चिच्छेद कृतवर्मणः // 27 मुसलं समवष्टभ्य तस्थौ स मधुसूदनः // 42 तथान्यानपि निघ्नन्तं युयुधानं समन्ततः / साम्ब च निहतं दृष्ट्वा चारुदेष्णं च माधवः / अभ्यधावद्धृषीकेशो विनिवारयिषुस्तदा // 28 प्रद्युम्नं चानिरुद्धं च ततश्चक्रोध भारत // 43 एकीभूतास्ततः सर्वे कालपर्यायचोदिताः।। गदं वीक्ष्य शयानं च भृशं कोपसमन्वितः / भोजान्धका महाराज शैनेयं पर्यवारयन् // 29 स निःशेषं तदा चक्रे शार्ङ्गचक्रगदाधरः // 44 तान्दृष्ट्वा पततस्तूर्णमभिक्रुद्धाञ्जनार्दनः / तं निघ्नन्तं महातेजा बभ्रुः परपुरंजयः। . न चुक्रोध महातेजा जानन्कालस्य पर्ययम् // 30 दारुकश्चैव दाशाईमूचतुर्यन्निबोध तत् // 45 ते तु पानमदाविष्टाश्चोदिताश्चैव मन्युना। भगवन्संहृतं सर्वं त्वया भूयिष्ठमच्युत / युयुधानमथाभ्यनन्नुच्छिष्टैर्भाजनैस्तदा // 31 रामस्य पदमन्विच्छ तत्र गच्छाम यत्र सः // 46 हन्यमाने तु शैनेये क्रुद्धो रुक्मिणिनन्दनः / इति श्रीमहाभारते मौसलपर्वणि तदन्तरमुपाधावन्मोक्षयिष्यशिनेः सुतम् // 32 चतुर्थोऽध्यायः॥४॥ स भोजैः सह संयुक्तः सात्यकिश्चान्धकैः सह / बहुत्वान्निहतौ तत्र उभौ कृष्णस्य पश्यतः // 33 वैशंपायन उवाच / हतं दृष्ट्वा तु शैनेयं पुत्रं च यदुनन्दनः / ततो ययुर्दारुकः केशवश्च एरकाणां तदा मुष्टिं कोपाजग्राह केशवः // 34 / बधुश्च रामस्य पदं पतन्तः / म. भा. 364 - 2905 - Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16. 5. 1] महाभारते [ 16. 5. 15 अथापश्नराममनन्तवीर्य दृष्टं मयेदं निधनं यदूनां वृक्षे स्थितं चिन्तयानं विविक्ते // 1 ___ राज्ञां च पूर्वं कुरुपुंगवानाम् / ततः समासाद्य महानुभावः नाहं विना यदुभिर्यादवानां कृष्णस्तदा दारुकमन्वशासत् / पुरीमिमां द्रष्टुमिहाद्य शक्तः // 8 गत्वा कुरूशीघ्रमिमं महान्तं तपश्चरिष्यामि निबोध तन्मे पार्थाय शंसस्व वधं यदूनाम् // 2 रामेण साधं वनमभ्युपेत्य / ततोऽर्जुनः क्षिप्रमिहोपयातु इतीदमुक्त्वा शिरसास्य पादौ श्रुत्वा मृतान्यादवान्ब्रह्मशापात् / . संस्पृश्य कृष्णस्त्वरितो जगाम // 9 इत्येवमुक्तः स ययौ रथेन ततो महान्निनदः प्रादुरासी___ कुरूस्तदा दारुको नष्टचेताः॥ 3 सस्त्रीकुमारस्य पुरस्य तस्य / . .. ततो गते दारुके केशवोऽथ अथाब्रवीत्केशवः संनिवर्त्य / दृष्ट्वान्तिके बभ्रुमुवाच वाक्यम् / शब्दं श्रुत्वा योषितां क्रोशतीनाम् // 10 स्त्रियो भवान्रक्षतु यातु शीघ्र पुरीमिमामेष्यति सव्यसाची नैता हिंस्युर्दस्यवो वित्तलोभात् // 4 ___स वो दुःखान्मोचयिता नराग्यः / स प्रस्थितः केशवेनानुशिष्टो ततो गत्वा केशवस्तं ददर्श मदातुरो ज्ञातिवधार्दितश्च / रामं वने स्थितमेकं विविक्ते // 11 तं वै यान्तं संनिधौ केशवस्य अथापश्यद्योगयुक्तस्य तस्य त्वरन्तमेकं सहसैव बभ्रम् / नागं मुखान्निःसरन्तं महान्तम् / ब्रह्मानुशप्तमवधीन्महद्वै श्वेतं ययौ स ततः प्रेक्ष्यमाणो कूटोन्मुक्तं मुसलं लुब्धकस्य // 5 महार्णवो येन महानुभावः // 12 ततो दृष्ट्वा निहतं बभ्रमाह सहस्रशीर्षः पर्वताभोगवा ___ कृष्णो वाक्यं भ्रातरमग्रजं तु। रक्ताननः स्वां तनुं तां विमुच्य / इहैव त्वं मां प्रतीक्षस्व राम सम्यक्च यं सागरः प्रत्यगृहायावस्त्रियो ज्ञातिवशाः करोमि // 6 नागा दिव्याः सरितश्चैव पुण्याः॥ 13 ततः पुरी द्वारवतीं प्रविश्य कर्कोटको वासुकिस्तक्षकश्च जनार्दनः पितरं प्राह वाक्यम् / पृथुश्रवा वरुणः कुअरश्च / स्त्रियो भवानक्षतु नः समग्रा मिश्री शङ्खः कुमुदः पुण्डरीकधनंजयस्यागमनं प्रतीक्षन् / स्तथा नागो धृतराष्ट्रो महात्मा // 14 रामो वनान्ते प्रतिपालयन्मा हादः क्राथः शितिकण्ठोऽग्रतेजामास्तेऽद्याहं तेन समागमिष्ये // 7 / स्तथा नागौ चक्रमन्दातिषण्डौ / -2906 - Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16. 5. 15] मौसलपर्व [16. 6.5 नागश्रेष्ठो दुर्मुखश्चाम्बरीषः दिवं प्राप्तं वासवोऽथाश्विनौ च स्वयं राजा वरुणश्चापि राजन् / रुद्रादित्या वसवश्वाथ विश्वे प्रत्युद्गम्य स्वागतेनाभ्यनन्द प्रत्युद्ययुर्मुनयश्चापि सिद्धा स्तेऽपूजयंश्चार्घ्यपाद्यक्रियाभिः // 15 __गन्धर्वमुख्याश्च सहाप्सरोभिः // 22 ततो गते भ्रातरि वासुदेवो ततो राजन्भगवानुमतेजा ___ जानन्सर्वा गतयो दिव्यदृष्टिः / नारायणः प्रभवश्वाव्ययश्च / वने शून्ये विचरंश्चिन्तयानो योगाचार्यो रोदसी व्याप्य लक्ष्म्या भूमौ ततः संविवेशाग्र्यतेजाः // 16 स्थानं प्राप स्वं महात्माप्रमेयम् // 23 सर्व हि तेन प्राक्तदा वित्तमासी- . ततो देवैऋषिभिश्चापि कृष्णः द्गान्धार्या यद्वाक्यमुक्तः स पूर्वम् / समागतश्चारणैश्चैव राजन् / दुर्वाससा पायसोच्छिष्ठलिप्ते गन्धर्वाग्र्यैरप्सरोभिर्वराभिः यञ्चाप्युक्तं तच्च सस्मार कृष्णः // 17 सिद्धैः साध्यैश्चानतैः पूज्यमानः // 24 स चिन्तयानोऽन्धकवृष्णिनाशं ते वै देवाः प्रत्यनन्दन्त राजकुरुक्षयं चैव महानुभावः। न्मुनिश्रेष्ठा वाग्भिरानचुरीशम् / मेने ततः संक्रमणस्य कालं गन्धर्वाश्चाप्युपतस्थुः स्तुवन्तः ततश्चकारेन्द्रियसंनिरोधम् // 18 प्रीत्या चैनं पुरुहूतोऽभ्यनन्दत् // 25 स संनिरुद्धेन्द्रियवाड्मनास्तु इति श्रीमहाभारते मौसलपर्वणि शिश्ये महायोगमुपेय कृष्णः / - पञ्चमोऽध्यायः॥५॥ जराथ तं देशमुपाजगाम * 'लुब्धस्तदानीं मृगलिप्सुरुपः // 19 वैशंपायन उवाच / स केशवं योगयुक्तं शयानं दारुकोऽपि कुरून्गत्वा दृष्ट्वा पार्थान्महारथान् / _____ मृगाशङ्की लुब्धकः सायकेन / आचष्ट मौसले वृष्णीनन्योन्येनोपसंहृतान् // 1 जराविध्यत्पादतले त्वरावां श्रुत्वा विनष्टान्वार्ष्णेयान्सभोजकुकुरान्धकान् / स्तं चाभितस्तजिघृक्षुर्जगाम / पाण्डवाः शोकसंतप्ता वित्रस्तमनसोऽभवन् // 2 अथापश्यत्पुरुषं योगयुक्तं ततोऽर्जुनस्तानामय केशवस्य प्रियः सखा / पीताम्बरं लुब्धकोऽनेकबाहुम् // 20 प्रययौ मातुलं द्रष्टुं नेदमस्तीति चाब्रवीत् // 3 मत्वात्मानमपराद्धं स तस्य स वृष्णिनिलयं गत्वा दारुकेण सह प्रभो। जग्राह पादौ शिरसा चार्तरूपः / ददर्श द्वारकां वीरो मृतनाथामिव स्त्रियम् // 4 आश्वासयत्तं महात्मा तदानीं याः स्म ता लोकनाथेन नाथवत्यः पुराभवन् / .. गच्छन्नुध्वं रोदसी व्याप्य लक्ष्म्या // 21 | तास्त्वनाथास्तदा नाथं पार्थं दृष्ट्वा विचक्रुशुः // 5 -2907 - Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16. 6. 6] महाभारते [ 16. 7. 17 षोडशस्त्रीसहस्राणि वासुदेवपरिग्रहः / भ्रातृन्पुत्रांश्च पौत्रांश्च दौहित्रांश्च सखीनपि // 3 तासामासीन्महान्नादो दृष्ट्वैवार्जुनमागतम् // 6 वसुदेव उवाच / तास्तु दृष्ट्वैव कौरव्यो बाष्पेण पिहितोऽर्जुनः / / यैर्जिता भूमिपालाश्च दैत्याश्च शतशोऽर्जुन / हीनाः कृष्णेन पुत्रैश्च नाशकत्सोऽभिवीक्षितुम् // 7 तान्दृष्ट्वा नेह पश्यामि जीवाम्यर्जुन दुर्मरः // 4 तां स वृष्ण्यन्धकजलां हयमीनां रथोडुपाम् / यौ तावर्जुन शिष्यौ ते प्रियौ बहुमतौ सदा। वादित्ररथघोषौघां वेश्मतीर्थमहाग्रहाम् // 8 तयोरपनयात्पार्थ वृष्णयो निधनं गताः // 5 . रत्नशैवलसंघाटां वज्रप्राकारमालिनीम् / यौ तौ वृष्णिप्रवीराणां द्वावेवातिरथौ मतौ / रथ्यास्रोतोजलावर्ता चत्वरस्तिमितह्रदाम् // 9 प्रद्युम्नो युयुधानश्च कथयन्कत्थसे च यौ // 6 रामकृष्णमहाग्राहां द्वारकासरितं तदा / नित्यं त्वं कुरुशार्दूल कृष्णश्च मम पुत्रकः / कालपाशग्रहां घोरां नदी वैतरणीमिव // 10 तावुभौ वृष्णिनाशस्य मुखमास्तां धनंजय / / 7. तां ददर्शार्जुनो धीमान्विहीनां वृष्णिपुंगवैः / न तु गर्हामि शैनेयं हार्दिक्यं चाहमर्जुन / गतश्रियं निरानन्दां पद्मिनीं शिशिरे यथा // 11 अक्रूरं रौक्मिणेयं च शापो ह्येवात्र कारणम् // 8 तां दृष्ट्वा द्वारकां पार्थस्ताश्च कृष्णस्य योषितः / केशिनं यस्तु कंसं च विक्रम्य जगतः प्रभुः / सस्वनं बाष्पमुत्सृज्य निपपात महीनले // 12 विदेहावकरोत्पार्थ चैद्यं च बलगर्वितम् // 9 सात्राजिती ततः सत्या रुक्मिणी च विशां पते। नैषादिमेकलव्यं च चक्रे कालिङ्गमागधान् / अभिपत्य प्ररुरुदुः परिवार्य धनंजयम् // 13 गान्धारान्काशिराजं च मरुभूमौ च पार्थिवान् / / ततस्ताः काश्चने पीठे समुत्थायोपवेश्य च / प्राच्यांश्च दाक्षिणात्यांश्च पार्वतीयांस्तथा नृपान् / अब्रुवन्त्यो महात्मानं परिवार्योपतस्थिरे // 14 सोऽभ्युपेक्षितवानेतमनयं मधुसूदनः // 11 ततः संस्तूय गोविन्दं कथयित्वा च पाण्डवः / ततः पुत्रांश्च पौत्रांश्च भ्रातृनथ सखीनपि / आश्वास्य ताः स्त्रियश्चापि मातुलं द्रष्टुमभ्यगात् / / शयानान्निहतान्दृष्ट्वा ततो मामब्रवीदिदम् // 12 इति श्रीमहाभारते मौसलपर्वणि संप्राप्तोऽद्यायमस्यान्तः कुलस्य पुरुषर्षभ / षष्ठोऽध्यायः // 6 // आगमिष्यति बीभत्सुरिमां द्वारवतीं पुरीम् / / 13 आख्येयं तस्य यद्वृत्तं वृष्णीनां वैशसं महत् / वैशंपायन उवाच / स तु श्रुत्वा महातेजा यदूनामनयं प्रभो / तं शयानं महात्मानं वीरमानकदुन्दुभिम् / आगन्ता क्षिप्रमेवेह न मेऽत्रास्ति विचारणा // 14 पुत्रशोकाभिसंतप्तं ददर्श कुरुपुंगवः // 1 योऽहं तमर्जुनं विद्धि योऽर्जुनः सोऽहमेव तु / तस्याश्रुपरिपूर्णाक्षो व्यूढोरस्को महाभुजः / यद्यात्तत्तथा कार्यमिति बुध्यस्व माधव // 15 आर्तस्याततरः पार्थः पादौ जग्राह भारत // 2 स स्त्रीषु प्राप्तकालं वः पाण्डवो बालकेषु च / समालिङ्गयार्जुनं वृद्धः स भुजाभ्यां महाभुजः / प्रतिपत्स्यति बीभत्सुर्भवतश्चौर्ध्वदेहिकम् // 16 रुदन्पुत्रान्स्मरन्सर्वान्विललाप सुविह्वलः / इमां च नगरी सद्यः प्रतियाते धनंजये। -2908 - Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16. 7. 17] मौसलपर्व [16. 8.23 प्राकाराट्टालकोपेतां समुद्रः प्लावयिष्यति // 17 / ब्राह्मणा नैगमाश्चैव परिवार्योपतस्थिरे // 8 अहं हि देशे कस्मिंश्चित्पुण्ये नियममास्थितः / तान्दीनमनसः सर्वान्निभृतान्गतचेतसः / कालं कर्ता सद्य एव रामेण सह धीमता // 18 उवाचेदं वचः पार्थः स्वयं दीनतरस्तदा // 9 एवमुक्त्वा हृषीकेशो मामचिन्त्यपराक्रमः / शक्रप्रस्थमहं नेष्ये वृष्ण्यन्धकजनं स्वयम् / हित्वा मां बालकैः साधं दिशं कामप्यगात्प्रभुः // इदं तु नगरं सर्व समुद्रः प्लावयिष्यति // 10 सोऽहं तौ च महात्मानौ चिन्तयन्भ्रातरौ तव / सज्जीकुरुत यानानि रत्नानि विविधानि च / घोरं ज्ञातिवधं चैव न भुञ्ज शोककर्शितः // 20 वञोऽयं भवतां राजा शक्रप्रस्थे भविष्यति // 11 न च भोक्ष्ये न जीविष्ये दिष्ट्या प्राप्तोऽसि पाण्डव / सप्तमे दिवसे चैव रखौ विमल उद्गते / यदुक्तं पार्थ कृष्णेन तत्सर्वमखिलं कुरु // 21 बहिर्वत्स्यामहे सर्वे सज्जीभवत मा चिरम् // 12 एतत्ते पार्थ राज्यं च स्त्रियो रत्नानि चैव ह। इत्युक्तास्तेन ते पौराः पार्थेनाक्लिष्टकर्मणा / इष्टान्प्राणानहं हीमांस्त्यक्ष्यामि रिपुसूदन / / 22 सज्जमाशु ततश्चक्रुः स्वसिद्ध्यर्थं समुत्सुकाः॥ 13 इति श्रीमहाभारते मौसलपर्वणि तां रात्रिमवसत्पार्थः केशवस्य निवेशने / सप्तमोऽध्यायः॥ 7 // महता शोकमोहेन सहसाभिपरिप्लुतः // 14 श्वोभूतेऽथ ततः शौरिर्वसुदेवः प्रतापवान् / वैशंपायन उवाच / युक्त्वात्मानं महातेजा जगाम गतिमुत्तमाम् // 15 एवमुक्तः स बीभत्सुर्मातुलेन परंतपः / ततः शब्दो महानासीद्वसदेवस्य वेश्मनि / दुर्मना दीनमनसं वसुदेवमुवाच ह // 1 दारुणः क्रोशतीनां च रुदतीनां च योषिताम् // 16 नाहं वृष्णिप्रवीरेण मधुभिश्चैव मातुल / प्रकीर्णमूर्धजाः सर्वा विमुक्ताभरणस्रजः / विहीनां पृथिवीं द्रष्टुं शक्तश्चिरमिह प्रभो // 2 उरांसि पाणिभिनन्त्यो व्यलपन्करुणं त्रियः॥ 17 राजा च भीमसेनश्चः सहदेवश्च पाण्डवः / तं देवकी च भद्रा च रोहिणी मदिरा तथा / नकुलो याज्ञसेनी च षडेकमनसो वयम् // 3 अन्वारोढुं व्यवसिता भर्तारं योषितां वराः // 18 राज्ञः संक्रमणे चापि कालोऽयं वर्तते ध्रुवम् / ततः शौरि नृयुक्तेन बहुमाल्येन भारत / तमिमं विद्धि संप्राप्तं कालं कालविदां वर // 4 यानेन महता पार्थो बहिनिष्कामयत्तदा // 19 सर्वथा वृष्णिदारांस्तु बालवृद्धांस्तथैव च / तमन्वयुस्तत्र तत्र दुःखशोकसमाहताः / नयिष्ये परिगृह्याहमिन्द्रप्रस्थमरिंदम // 5 द्वारकावासिनः पौराः सर्व एव नरर्षभ / 20 इत्युक्त्वा दारुकमिदं वाक्यमाह धनंजयः / तस्याश्वमेधिकं छत्रं दीप्यमानाश्च पावकाः / अमात्यान्वृष्णिवीराणां द्रष्टुमिच्छामि माचिरम् // | पुरस्तात्तस्य यानस्य याजकाश्च ततो ययुः // 21 इत्येवमुक्त्वा वचनं सुधर्मा यादवी सभाम् / अनुजग्मुश्च तं वीरं देव्यस्ता वै स्वलंकृताः / प्रविवेशार्जुनः शूरः शोचमानो महारथान् // 7 स्त्रीसहस्रैः परिवृता वधूभिश्च सहस्रशः // 22 तमासनगतं तत्र सर्वाः प्रकृतयस्तथा / | यस्तु देशः प्रियस्तस्य जीवतोऽभून्महात्मनः / - 2909 - Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16. 8. 23 ] महाभारते [ 16. 8.52 तत्रैनमुपसंकल्प्य पितृमेधं प्रचक्रिरे // 23 / पुरस्कृत्य ययुर्वनं पौत्रं कृष्णस्य धीमतः // 37 तं चिताग्निगतं वीरं शूरपुत्रं वराङ्गनाः। बहूनि च सहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च। ततोऽन्वारुरुहुः पन्यश्चतस्रः पतिलोकगाः // 24 भोजवृष्ण्यन्धकस्त्रीणां हतनाथानि निर्ययुः // 38 तं वै चतसृभिः स्त्रीभिरन्वितं पाण्डुनन्दनः। तत्सागरसमप्रख्यं वृष्णिचक्रं महर्धिमत् / अदाहयञ्चन्दनैश्च गन्धैरुच्चावचैरपि / / 25 उवाह रथिनां श्रेष्ठः पार्थः परपुरंजयः // 39 ततः प्रादुरभूच्छब्दः समिद्धस्य विभावसोः / निर्याते तु जने तस्मिन्सागरो मकरालयः। . सामगानां च निर्घोषो नराणां रुदतामपि // 26 द्वारकां रत्नसंपूर्णा जलेनाप्लावयत्तदा // 40 ततो वप्रधानास्ते वृष्णिवीरकुमारकाः / तद्भुतमभिप्रेक्ष्य द्वारकावासिनो जनाः / / सर्व एवोदकं चक्रुः स्त्रियश्चैव महात्मनः // 27 तूर्णात्तर्णतरं जग्मुरहो दैवमिति ब्रुवन् // 41 अलुप्तधर्मस्तं धर्म कारयित्वा स फल्गुनः / काननेषु च रम्येषु पर्वतेषु नदीषु च। .. जगाम वृष्णयो यत्र विनष्टा भरतर्षभ / / 28 निवसन्नानयामास वृष्णिदारान्धनंजयः॥ 42 स तान्दृष्ट्वा निपतितान्कदने भृशदुःखितः / स पञ्चनदमासाद्य धीमानतिसमृद्धिमत् / बभूवातीव कौरव्यः प्राप्तकालं चकार च // 29 देशे गोपशुधान्याढ्ये निवासमकरोत्प्रभुः // 43 यथाप्रधानतश्चैव चक्रे सर्वाः क्रियास्तदा / ततो लोभः समभवदस्यूनां निहतेश्वराः / ये हता ब्रह्मशापेन मुसलैरेरकोद्भवैः // 30 दृष्ट्वा स्त्रियो नीयमानाः पार्थेनैकेन भारत // 44 ततः शरीरे रामस्य वासुदेवस्य चोभयोः। ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतसः / अन्विष्य दाहयामास पुरुषैराप्तकारिभिः // 31 आभीरा मत्रयामासुः समेत्याशुभदर्शनाः // 45 स तेषां विधिवत्कृत्वा प्रेतकार्याणि पाण्डवः / अयमेकोऽर्जुनो योद्धा वृद्धबालं हतेश्वरम् / सप्तमे दिवसे प्रायाद्रथमारुह्य सत्वरः। नयत्यस्मानतिक्रम्य योधाश्चमे हतौजसः // 46 अश्वयुक्तै रथैश्चापि गोखरोष्ट्रयुतैरपि // 32 ततो यष्टिप्रहरणा दस्यवस्ते सहस्रशः / स्त्रियस्ता वृष्णिवीराणां रुदत्यः शोककर्शिताः / अभ्यधावन्त वृष्णीनां तं जनं लोप्त्रहारिणः // 47 अनुजग्मुर्महात्मानं पाण्डुपुत्रं धनंजयम् // 33 महता सिंहनादेन द्रावयन्तः पृथग्जनम् / भृत्यास्त्वन्धकवृष्णीनां सादिनो रथिनश्च ये। अभिपेतुर्धनार्थं ते कालपर्यायचोदिताः॥ 48 वीरहीनं वृद्धबालं पौरजानपदास्तथा / ततो निवृत्तः कौन्तेयः सहसा सपदानुगः / ययुस्ते परिवार्याथ कलत्रं पार्थशासनात् // 34 उवाच तान्महाबाहुरर्जुनः प्रहसन्निव // 49 कुञ्जरैश्च गजारोहा ययुः शैलनिभैस्तथा / निवर्तध्वमधर्मज्ञा यदि स्थ न मुमूर्षवः / सपादरक्षैः संयुक्ताः सोत्तरायुधिका ययुः // 35 नेदानीं शरनिर्भिन्नाः शोचध्वं निहता मया॥ 50 पुत्राश्चान्धकवृष्णीनां सर्वे पार्थमनुव्रताः / तथोक्तास्तेन वीरेण कद कृत्य तद्वचः। ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्चैव महाधनाः।।३६ | अभिपेतुर्जनं मूढा वार्यमाणाः पुनः पुनः // 51 दश षट् सहस्राणि वासुदेवावरोधनम्। ततोऽर्जुनो धनुर्दिव्यं गाण्डीवमजरं महत् / -2910 - Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16. 8. 52] मौसलपर्व [16. 9. 6 आरोपयितुमारेभे यत्नादिव कथंचन // 52 . भोजराजकलत्रं च हृतशेषं नरोत्तमः // 67 चकार सज्यं कृच्छ्रण संभ्रमे तुमुले सति / | ततो वृद्धांश्च बालांश्च स्त्रियश्चादाय पाण्डवः / चिन्तयामास चास्त्राणि न च सस्मार तान्यपि // 53 / वीविहीनान्सर्वांस्ताञ्शक्रप्रस्थे न्यवेशयत् / / 68 वैकृत्यं तन्महदृष्ट्वा भुजवीर्ये तथा युधि / यौयुधानि सरस्वत्यां पुत्रं सात्यकिनः प्रियम् / दिव्यानां च महास्त्राणां विनाशाद्वीडितोऽभवत्॥ न्यवेशयत धर्मात्मा वृद्धबालपुरस्कृतम् // 69 वृष्णियोधाश्च ते सर्वे गजाश्वरथयायिनः / इन्द्रप्रस्थे ददौ राज्यं वज्राय परवीरहा / न शेकुरावर्तयितुं ह्रियमाणं च तं जनम् // 55 वत्रेणाकुरदारास्तु वार्यमाणाः प्रवव्रजुः / / 70 कलत्रस्य बहुत्वात्तु संपतत्सु ततस्ततः / रुक्मिणी त्वथ गान्धारी शैब्या हैमवतीत्यपि / प्रयत्नमकरोत्पार्थो जनस्य परिरक्षणे // 56 देवी जाम्बवती चैव विविशुर्जातवेदसम् // 71 मिषतां सर्वयोधानां ततस्ताः प्रमदोत्तमाः / / सत्यभामी तथैवान्या देव्यः कृष्णस्य संमताः / समन्ततोऽवकृष्यन्त कामाच्चान्याः प्रवव्रजुः // 57 वनं प्रविविशू राजस्तापस्ये कृतनिश्चयाः // 72 ततो गाण्डीवनिर्मुक्तैः शरैः पार्थो धनंजयः। द्वारकावासिनो ये तु पुरुषाः पार्थमन्वयुः / जघान दस्यून्सोद्वेगो वृष्णिभृत्यैः सह प्रभुः // 58 यथाहँ संविभज्यैनान्वने पर्यददज्जयः // 73 क्षणेन तस्य ते राजन्क्षयं जग्मुरजिह्मगाः। स तत्कृत्वा प्राप्तकालं बाष्पेणापिहितोऽर्जुनः / अक्षया हि पुरा भूत्वा क्षीणाः क्षतजभोजनाः // 59 कृष्णद्वैपायनं राजन्ददर्शासीनमाश्रमे // 74 स शरक्षयमासाद्य दुःखशोकसमाहतः / इति श्रीमहाभारते मौसलपर्वणि धनुष्कोट्या तदा दस्यूनवधीत्पाकशासनिः॥६० भष्ठमोऽध्याय // 8 // प्रेक्षतस्त्वेव पार्थस्य वृष्ण्यन्धकवरचियः / जग्मुरादाय ते म्लेच्छाः समन्ताजनमेजय // 61 वैशंपायन उवाच / धनंजयस्तु दैवं तन्मनसाचिन्तयत्प्रभुः / प्रविशन्नर्जुनो राजन्नाश्रमं सत्यवादिनः।। दुःखशोकसमाविष्टो निःश्वासपरमोऽभवत् // 62 ददर्शासीनमेकान्ते मुनि सत्यवतीसुतम् // 1 अस्त्राणां च प्रणाशेन बाहुवीर्यस्य संक्षयात् / स तमासाद्य धर्मज्ञमुपतस्थे महाव्रतम् / धनुषश्चाविधेयत्वाच्छराणां संक्षयेण च // 63 अर्जुनोऽस्मीति नामास्मै निवेद्याभ्यवदत्ततः॥२ वभूव विमनाः पार्थो दैवमित्यनुचिन्तयन् / स्वागतं तेऽस्त्विति प्राह मुनिः सत्यवतीसुतः / न्यवर्तत ततो राजन्नेदमस्तीति चाब्रवीत् // 64 आस्यतामिति चोवाच प्रसन्नात्मा महामुनिः // 3 ततः स शेषमादाय कलत्रस्य महामतिः / तमप्रतीतमनसं निःश्वसन्तं पुनः पुनः / हृतभूयिष्ठरत्नस्य कुरुक्षेत्रमवातरत् // 65 निर्विण्णमनसं दृष्ट्वा पार्थं व्यासोऽब्रवीदिदम् // 4 एवं कलत्रमानीय वृष्णीनां हृतशेषितम् / अवीरजोऽभिघातस्ते ब्राह्मणो वा हतस्त्वया। न्यवेशयत कौरव्यस्तत्र तत्र धनंजयः॥ 66 युद्धे पराजितो वासि गतश्रीरिव लक्ष्यसे / 5 हार्दिक्यतनयं पार्थो नगरं मार्तिकावतम् / न त्वा प्रत्यभिजानामि किमिदं भरतर्षभ / - 2911 - Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16. 9. 6] महाभारते [16. 9. 35 श्रोतव्यं चेन्मया पार्थ क्षिप्रमाख्यातुमर्हसि // 6 / येन पूर्व प्रदग्धानि शत्रुसैन्यानि तेजसा / अर्जुन उवाच / शरैर्गाण्डीवनिर्मुक्तैरहं पश्चाद्व्यनाशयम् // 21 यः स मेघवपुः श्रीमान्बृहत्पङ्कजलोचनः / तमपश्यन्विषीदामि घूर्णामीव च सत्तम / स कृष्णः सह रामेण त्यक्त्वा देहं दिवं गतः // 7 परिनिर्विण्णचेताश्च शान्ति नोपलभेऽपि च // 22 मौसले वृष्णिवीराणां विनाशो ब्रह्मशापजः / विना जनार्दनं वीरं नाहं जीवितुमुत्सहे / बभूव वीरान्तकरः प्रभासे रोमहर्षणः // 8 श्रुत्वैव हि गतं विष्णु ममापि मुमुहुर्दिशः // 23 ये ते शूरा महात्मानः सिंहदर्पा महाबलाः / प्रनष्टज्ञातिवीर्यस्य शून्यस्य परिधावतः / भोजवृष्ण्यन्धका ब्रह्मन्नन्योन्यं तैर्हतं युधि // 9 उपदेष्टुं मम श्रेयो भवानर्हति सत्तम / / 24 गदापरिघशक्तीनां सहाः परिघबाहवः / व्यास उवाच / त एरकाभिनिहताः पश्य कालस्य पर्ययम् / / 10 / ब्रह्मशापविनिर्दग्धा वृष्ण्यन्धकमहारथाः। .. हतं पश्चशतं तेषां सहस्रं बाहुशालिनाम् / विनष्टाः कुरुशार्दूल न ताञ्शोचितुमर्हसि // 25 निधनं समनुप्राप्तं समासाद्येतरेतरम् // 11 भवितव्यं तथा तद्धि दिष्टमेतन्महात्मनाम् / पुनः पुनर्न मृश्यामि विनाशममितौजसाम् / उपेक्षितं च कृष्णेन शक्तेनापि व्यपोहितुम् // 26 चिन्तयानो यदूनां च कृष्णस्य च यशस्विनः॥१२ ध्यैलोक्यमपि कृष्णो हि कृत्स्नं स्थावरजङ्गमम् / शोषणं सागरस्येव पर्वतस्येव चालनम् / ' प्रसहेदन्यथा कर्तुं किमु शापं मनीषिणाम् // 27 नभसः पतनं चैव शैत्यमग्नेस्तथैव च // 13 रथस्य पुरतो याति यः स चक्रगदाधरः / अश्रद्धेयमहं मन्ये विनाशं शार्ङ्गधन्वनः / तव स्नेहात्पुराणर्षिर्वासुदेवश्चतुर्भुजः // 28 न चेह स्थातुमिच्छामि लोके कृष्णविनाकृतः // 14 कृत्वा भारावतरणं पृथिव्याः पृथुलोचनः / इतः कष्टतरं चान्यच्छृणु तद्वै तपोधन / मौक्षयित्वा जगत्सर्वं गतः स्वस्थानमुत्तमम् // 29 मनो मे दीर्यते येन चिन्तयानस्य वै मुहुः // 15 / त्वया विंह महत्कर्म देवानां पुरुषर्षभ / पश्यतो वृष्णिदाराश्च मम ब्रह्मन्सहस्रशः। कृतं भीमसहायेन यमाभ्यां च महाभुज // 30 आभीरैरनुसृत्याजौ हृताः पञ्चनदालयैः // 16 कृतकृत्यांश्च वो मन्ये संसिद्धान्कुरुपुंगव / धनुरादाय तत्राहं नाशकं तस्य पूरणे / गमनं प्राप्तकालं च तद्धि श्रेयो मतं मम // 31 यथा पुरा च मे वीर्यं भुजयोर्न तथाभवत् // 17 बलं बुद्धिश्च तेजश्च प्रतिपत्तिश्च भारत / अस्त्राणि मे प्रनष्टानि विविधानि महामुने / भवन्ति भवकालेषु विपद्यन्ते विपर्यये / / 32 शराश्च क्षयमापन्नाः क्षणेनैव समन्ततः // 18 / कालमूलमिदं सर्वं जगद्वीजं धनंजय / पुरुषश्चाप्रमेयात्मा शङ्खचक्रगदाधरः / काल एव समादत्ते पुनरेव यदृच्छया // 33 चतुर्भुजः पीतवासा श्यामः पद्मायतेक्षणः // 19 / स एव बलवान्भूत्वा पुनर्भवति दुर्बलः / यः स याति पुरस्तान्मे रथस्य सुमहाद्युतिः। स एवेशश्च भूत्वेह परैराज्ञाप्यते पुनः // 34 प्रदहरिपुसैन्यानि न पश्याम्यहमद्य तम् // 20 / कृतकृत्यानि चास्त्राणि गतान्यद्य यथागतम् / -2912 - Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16. 9. 35] मौसलपर्व [16. 9. 38 पुनरेष्यन्ति ते हस्तं यदा कालो भविष्यति // 35 | प्रविश्य च पुरी वीरः समासाद्य युधिष्ठिरम् / कालो गन्तुं गतिं मुख्यां भवतामपि भारत / आचष्ट तद्यथावृत्तं वृष्ण्यन्धकजनं प्रति // 38 एतच्छ्रेयो हि वो मन्ये परमं भरतर्षभ // 36 इति श्रीमहाभारते मौसलपर्वणि एतद्वचनमास्थाय व्यासस्यामिततेजसः / नवमोऽध्यायः // 9 // अनुज्ञातो ययौ पार्थो नगरं नागसाह्वयम् // 37 // मौसलपर्व समाप्तम् // म. भा. 365 - 2913 - Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाप्रस्थानिकपर्व मातृभिः सह धर्मात्मा कृत्वोदकमतन्द्रितः।। जनमेजय उवाच। श्राद्धान्युद्दिश्य सर्वेषां चकार विधिवत्तदा // 11 एवं वृष्ण्यन्धककुले श्रुत्वा मौसलमाहवम् / ददौ रत्नानि वासांसि प्रामानश्वारथानपि / पाण्डवाः किमकुर्वन्त तथा कृष्णे दिवं गते // 1 स्त्रियश्च द्विजमुख्येभ्यो गवां शतसहस्रशः // 12 वैशंपायन उवाच / कृपमभ्यर्च्य च गुरुमर्थमानपुरस्कृतम् / श्रुत्वैव कौरवो राजा वृष्णीनां कदनं महत् / शिष्यं परिक्षितं तस्मै ददौ भरतसत्तमः // 13 प्रस्थाने मतिमाधाय वाक्यमर्जुनमब्रवीत् // 2 ततस्तु प्रकृतीः सर्वाः समानाय्य युधिष्ठिरः / कालः पचति भूतानि सर्वाण्येव महामते / सर्वमाचष्ट राजर्षिश्चिकीर्षितमथात्मनः // 14 कर्मन्यासमहं मन्ये त्वमपि द्रष्टुमर्हसि // 3 ते श्रुत्वैव वचस्तस्य पौरजानपदा जनाः। इत्युक्तः स तु कौन्तेयः कालः काल इति ब्रुवन् / भृशमुद्विग्नमनसो नाभ्यनन्दन्त तद्वचः // 15 अन्वपद्यत तद्वाक्यं भ्रातुर्येष्ठस्य वीर्यवान् // 4 नैवं कर्तव्यमिति ते तदोचुस्ते नराधिपम् / अर्जुनस्य मतं ज्ञात्वा भीमसेनो यमौ तथा। न च राजा तथाकार्षीत्कालपर्यायधर्मवित् // 16 अन्वपद्यन्त तद्वाक्यं यदुक्तं सव्यसाचिना // 5 ततोऽनुमान्य धर्मात्मा पौरजानपदं जनम् / ततो युयुत्सुमानाय्य प्रव्रजन्धर्मकाम्यया / गमनाय मतिं चक्रे भ्रातरश्चास्य ते तैदा // 17 राज्यं परिददौ सर्व वैश्यापुत्रे युधिष्ठिरः // 6 ततः स राजा कौरव्यो धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः / अभिषिच्य स्वराज्ये तु तं राजानं परिक्षितम् / उत्सृज्याभरणान्यङ्गाजगृहे वल्कलान्युत // 18 दुःखार्तश्चाब्रवीद्राजा सुभद्रां पाण्डवाग्रजः // 7 भीमार्जुनौ यमौ चैव द्रौपदी च यशस्विनी / एष पुत्रस्य ते पुत्रः कुरुराजो भविष्यति / तथैव सर्वे जगृहुर्वल्कलानि जनाधिप // 19 यदूनां परिशेषश्च वज्रो राजा कृतश्च ह // 8 विधिवत्कारयित्वेष्टिं नैष्ठिकी भरतर्षभ / परिक्षिद्धास्तिनपुरे शक्रप्रस्थे तु यादवः। समुत्सृज्याप्सु सर्वेऽग्मीन्प्रतस्थुर्नरपुंगवाः // 20 वो राजा त्वया रक्ष्यो मा चाधर्मे मनः कृथाः॥९ ततः प्ररुरुदुः सर्वाः स्त्रियो दृष्ट्वा नरर्षभान् / इत्युक्त्वा धर्मराजः स वासुदेवस्य धीमतः। प्रस्थितान्द्रौपदीषष्ठान्पुरा द्यूतजितान्यथा // 21 मातुलस्य च वृद्धस्य रामादीनां तथैव च // 10 / हर्षोऽभवच्च सर्वेषां भ्रातृणां गमनं प्रति / -2914 --- Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17. 1. 22 ] महाप्रस्थानिकपर्व 117.2.5 युधिष्ठिरमतं ज्ञात्वा वृष्णिक्षयमवेक्ष्य च // 22 / अयं वः फल्गुनो भ्राता गाण्डीवं परमायुधम् / भ्रातरः पञ्च कृष्णा च षष्ठी श्वा चैव सप्तमः / परित्यज्य वनं यातु नानेनार्थोऽस्ति कश्चन // 37 आत्मना सप्तमो राजा निर्ययौ गजसाह्वयात् / चक्ररत्नं तु यत्कृष्णे स्थितमासीन्महात्मनि / पौरैरनुगतो दूरं सर्वैरन्तःपुरैस्तथा // 23 गतं तच्च पुनर्हस्ते कालेनैष्यति तस्य ह // 38 न चैनमशकत्कश्चिन्निवर्तस्वेति भाषितुम् / वरुणादाहृतं पूर्व मयैतत्पार्थकारणात् / न्यवर्तन्त ततः सर्वे नरा नगरवासिनः // 24 गाण्डीवं कार्मुकश्रेष्ठं वरुणायैव दीयताम् // 39 कृपप्रभृतयश्चैव युयुत्सु पर्यवारयन् / ततस्ते भ्रातरः सर्वे धनंजयमचोदयन् / विवेश गङ्गां कौरव्य उलूपी भुजगात्मजा // 25 स जले प्राक्षिपत्तत्तु तथाक्षय्यौ महेषुधी // 40 चित्राङ्गदा ययौ चापि मणिपूरपुरं प्रति / ततोऽग्निर्भरतश्रेष्ठ तत्रैवान्तरधीयत / शिष्टाः परिक्षितं त्वन्या मातरः पर्यवारयन् // 26 ययुश्च पाण्डवा वीरास्ततस्ते दक्षिणामुखाः // 41 पाण्डवाश्च महात्मानो द्रौपदी च यशस्विनी।। ततस्ते तूत्तरेणैव तीरेण लवणाम्भसः। . कृतोपवासाः कौरव्य प्रययुः प्राङ्मुखास्ततः // 27 जग्मुर्भरतशार्दूल दिशं दक्षिणपश्चिमाम् // 42 योगयुक्ता महात्मानस्त्यागधर्ममुपेयुषः / ततः पुनः समावृत्ताः पश्चिमां दिशमेव ते / अभिजग्मुर्बहून्देशान्सरितः पर्वतांस्तथा // 28 ददृशुरिकां चापि सागरेण परिप्लुताम् // 43 युधिष्ठिरो ययावने भीमस्तु तदनन्तरम् / उदीची पुनरावृत्त्य ययुभरतसत्तमाः / अर्जुनस्तस्य चान्वेव यमौ चैव यथाक्रमम् // 29 प्रादक्षिण्यं चिकीर्षन्तः पृथिव्या योगधर्मिणः // 44 पृष्ठतस्तु वरारोहा श्यामा पद्मदलेक्षणा / इति श्रीमहाभारते महाप्रस्थानिकपर्वणि द्रौपदी योषितां श्रेष्ठा ययौ भरतसत्तम // 30 प्रथमोऽध्यायः॥१॥ श्वा चैवानुययावेकः पाण्डवान्प्रस्थितान्वने / क्रमेण ते ययुर्वीरा लौहित्यं सलिलार्णवम् // 31 वैशंपायन उवाच / गाण्डीवं च धनुर्दिव्यं न मुमोच धनंजयः / ततस्ते नियतात्मान उदीची दिशमास्थिताः / रत्नलोभान्महाराज तौ चाक्षय्यौ महेषुधी // 32 ददृशुर्योगयुक्ताश्च हिमवन्तं महागिरिम् // 1 अग्निं ते ददृशुस्तत्र स्थितं शैलमिवाप्रतः। तं चाप्यतिक्रमन्तस्ते ददृशुर्वालुकार्णवम् / मार्गमावृत्य तिष्ठन्तं साक्षात्पुरुषविग्रहम् / / 33 अवैक्षन्त महाशैलं मेरुं शिखरिणां वरम् // 2 ततो देवः स सप्तार्चिः पाण्डवानिदमब्रवीत् / तेषां तु गच्छतां शीघ्रं सर्वेषां योगधर्मिणाम् / भो भो पाण्डुसुता वीराः पावकं मां विबोधत // याज्ञसेनी भ्रष्टयोगा निपपात महीतले // 3 युधिष्ठिर महाबाहो भीमसेन परंतप / तां तु प्रपतितां दृष्ट्वा भीमसेनो महाबलः / अर्जुनाश्विसुतौ वीरौ निबोधत वचो मम // 35 उवाच धर्मराजानं याज्ञसेनीमवेक्ष्य ह // 4 अहमग्निः कुरुश्रेष्ठा मया दग्धं च खाण्डवम् / नाधर्मश्चरितः कश्चिद्राजपुच्या परंतप / अर्जुनस्य प्रभावेण तथा नारायणस्य च // 36 | कारणं किं नु तद्राजन्यत्कृष्णा पतिता भुवि // 5 . -2915 Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17. 2. 6 ] महाभारते [17. 3. 3 युधिष्ठिर उवाच / पपात शोकसंतप्तस्ततोऽनु परवीरहा // 18 पक्षपातो महानस्या विशेषेण धनंजये / तस्मिंस्तु पुरुषव्याघ्र पतिते शक्रतेजसि / तस्यैतत्फलमद्यैषा भुङ्क्ते पुरुषसत्तम॥६ म्रियमाणे दुराधर्षे भीमो राजानमब्रवीत् // 19 वैशंपायन उवाच / अनृतं न स्मराम्यस्य स्वैरेष्वपि महात्मनः / अथ कस्य विकारोऽयं येनायं पतितो भुवि // 20 एवमुक्त्वानवेक्ष्यैनां ययौ धर्मसुतो नृपः / युधिष्ठिर उवाच / समाधाय मनो धीमान्धर्मात्मा पुरुषर्षभः / / 7 एकाह्रा निर्दहेयं वै शत्रूनित्यर्जुनोऽब्रवीत् / सहदेवस्ततो धीमान्निपपात महीतले। न च तत्कृतवानेष शूरमानी ततोऽपतत् // 21 तं चापि पतितं दृष्ट्वा भीमो राजानमब्रवीत् // 8 अवमेने धनुर्पाहानेष सर्वांश्च फल्गुनः / योऽयमस्मासु सर्वेषु शुश्रूषुरनहंकृतः / / यथा चोक्तं तथा चैव कर्तव्यं भूतिमिच्छता // 22 सोऽयं माद्रवतीपुत्रः कस्मान्निपतितो भुवि / / 9 वैशंपायन उवाच / युधिष्ठिर उवाच। इत्युक्त्वा प्रस्थितो राजा भीमोऽथ निपपात ह। आत्मनः सदृशं प्राज्ञं नैषोऽमन्यत कंचन / पतितश्चाब्रवीद्भीमो धर्मराज युधिष्ठिरम् // 23 तेन दोषेण पतितस्तस्मादेष नृपात्मजः / / 10 भो भो राजन्नवेक्षस्व पतितोऽहं प्रियस्तव / वैशंपायन उवाच / किंनिमित्तं च पतनं ब्रूहि मे यदि वेत्थ ह // 24 इत्युक्त्वा तु समुत्सृज्य सहदेवं ययौ तदा / / युधिष्ठिर उवाच / भ्रातृभिः सह कौन्तेयः शुना चैव युधिष्ठिरः // 11 अतिभुक्तं च भवता प्राणेन च विकत्थसे। कृष्णां निपतितां दृष्ट्वा सहदेवं च पाण्डवम् / अनवेक्ष्य परं पार्थ तेनासि पतितः क्षितौ // 25 आर्तो बन्धुप्रियः शूरो नकुलो निपपात ह // 12 वैशंपायन उवाच। तस्मिन्निपतिते वीरे नकुले चारुदर्शने / इत्युक्त्वा तं महाबाहुर्जगामानवलोकयन् / पुनरेव तदा भीमो राजानमिदमब्रवीत् // 13 श्वा त्वेकोऽनुययौ यस्ते बहुशः कीर्तितो मया॥२६ योऽयमक्षतधर्मात्मा भ्राता वचनकारकः / इति श्रीमहाभारते महाप्रस्थानिकपर्वणि रूपेणाप्रतिमो लोके नकुलः पतितो भुवि // 14 द्वितीयोऽध्यायः // 2 // इत्युक्तो भीमसेनेन प्रत्युवाच युधिष्ठिरः। नकुलं प्रति धर्मात्मा सर्वबुद्धिमतां वरः // 15 वैशंपायन उवाच / रूपेण मत्समो नास्ति कश्चिदित्यस्य दर्शनम् / ततः संनादयशको दिवं भूमिं च सर्वशः / अधिकश्चाहमेवैक इत्यस्य मनसि स्थितम् // 16 रथेनोपययौ पार्थमारोहेत्यब्रवीच्च तम् // 1 नकुलः पतितस्तस्मादागच्छ त्वं वृकोदर / स भ्रातृन्पतितान्दृष्ट्वा धर्मराजो युधिष्ठिरः / यस्य यद्विहितं वीर सोऽवश्यं तदुपाश्नुते // 17 / अब्रवीच्छोकसंतप्तः सहस्राक्षमिदं वचः // 2 तांस्तु प्रपतितान्दृष्ट्वा पाण्डवः श्वेतवाहनः / | भ्रातरः पतिता मेऽत्र आगच्छेयुर्मया सह / -2916 Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17. 3. 3) महाप्रस्थानिकपर्व [17. 3. 19 न विना भ्रातृभिः स्वर्गमिच्छे गन्तुं सुरेश्वर // 3 त्यक्षाम्येनं स्वसुखार्थी महेन्द्र // 11 सुकुमारी सुखाय च राजपुत्री पुरंदर / इन्द्र उवाच। सास्माभिः सह गच्छेत तद्भवाननुमन्यताम् // 4 शुना दृष्टं क्रोधवशा हरन्ति इन्द्र उवाच / ___ यद्दत्तमिष्टं विवृतमथो हुतं च / भ्रातॄन्द्रक्ष्यसि पुत्रांस्त्वमग्रतत्रिदिवं गतान् / तस्माच्छुनस्त्यागमिमं कुरुष्व कृष्णया सहितान्सर्वान्मा शुचो भरतर्षभ // 5 शुनस्त्यागात्प्राप्स्यसे देवलोकम् // 12 निक्षिप्य मानुषं देहं गतास्ते भरतर्षभ / त्यक्त्वा भ्राहृन्दयितां चापि कृष्णां अनेन त्वं शरीरेण स्वर्ग गन्ता न संशयः // 6 प्राप्तो लोकः कर्मणा स्वेन वीर / युधिष्ठिर उवाच / श्वानं चैनं न त्यजसे कथं नु अयं श्वा भूतभव्येश भक्तो मां नित्यमेव ह। त्यागं कृत्स्नं चास्थितो मुह्यसेऽद्य // 13 स गच्छेत मया सार्धमानृशंस्या हि मे मतिः // 7 युधिष्ठिर उवाच / इन्द्र उवाच / न विद्यते संधिरथापि विग्रहो अमर्त्यत्वं मत्समत्वं च राज मृतैर्मत्यैरिति लोकेषु निष्ठा / श्रियं कृत्स्नां महतीं चैव कीर्तिम् / न ते मया जीवयितुं हि शक्या संप्राप्तोऽद्य स्वर्गसुखानि च त्वं तस्मात्त्यागस्तेषु कृतो न जीवताम् // 14 त्यज श्वानं नात्र नृशंसमस्ति // 8 प्रतिप्रदानं शरणागतस्य युधिष्ठिर उवाच। स्त्रियो वधो ब्राह्मणस्वापहारः / अनार्यमार्येण सहस्रनेत्रं मित्रद्रोहस्तानि चत्वारि शक ___ शक्यं कर्तुं दुष्करमेतदार्य। ___ भक्तत्यागश्चैव समो मतो मे // 15 मा मे श्रिया संगमनं तयास्तु वैशंपायन उवाच / ___ यस्याः कृते भक्तजनं त्यजेयम् // 9 तद्धर्मराजस्य वचो निशम्य इन्द्र उवाच / धर्मस्वरूपी भगवानुवाच। स्वर्गे लोके श्ववतां नास्ति धिष्ण्य युधिष्ठिरं प्रीतियुक्तो नरेन्द्र .. मिष्टापूर्त क्रोधवशा हरन्ति / श्लक्ष्णैर्वाक्यः संस्तवसंप्रयुक्तैः // 16 ततो विचार्य क्रियतां धर्मराज अभिजातोऽसि राजेन्द्र पितृवृत्तेन मेधया। त्यज श्वानं नात्र नृशंसमस्ति // 10 अनुक्रोशेन चानेन सर्वभूतेषु भारत // 17 युधिष्ठिर उवाच / पुरा द्वैतवने चासि मया पुत्र परीक्षितः / भक्तत्यागं प्राहुरत्यन्तपापं पानीयार्थे पराक्रान्ता यत्र ते भ्रातरो हताः॥१८ तुल्यं लोके ब्रह्मवध्याकृतेन। भीमार्जुनौ परित्यज्य यत्र त्वं भ्रातरावुभौ / तस्मान्नाहं जातु कथंचनाद्य मात्रोः साम्यमभीप्सन्वै नकुलं जीवमिच्छसि // - 2917 - Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17. 3. 20] महाभारते [17. 3. 36 अयं श्वा भक्त इत्येव त्यक्तो देवरथस्त्वया। तस्मात्स्वर्गे न ते तुल्यः कश्चिदस्ति नराधिप // 20 अतस्तवाक्षया लोकाः स्वशरीरेण भारत / प्राप्तोऽसि भरतश्रेष्ठ दिव्यां गतिमनुत्तमाम् // 21 ततो धर्मश्च शक्रश्च मरुतश्चाश्विनावपि / देवा देवर्षयश्चैव रथमारोप्य पाण्डवम् // 22 प्रययुः स्वैर्विमानस्ते सिद्धाः कामविहारिणः / / सर्वे विरजसः पुण्याः पुण्यवाग्बुद्धिकर्मिणः // 23 स तं रथं समास्थाय राजा कुरुकुलोद्वहः। / ऊर्ध्वमाचक्रमे शीघ्रं तेजसावृत्य रोदसी // 24 ततो देवनिकायस्थो नारदः सर्वलोकवित्। उवाचोवैस्तदा वाक्यं बृहद्वादी बृहत्तपाः // 25 येऽपि राजर्षयः सर्वे ते चापि समुपस्थिताः।। कीर्ति प्रच्छाद्य तेषां वै कुरुराजोऽधितिष्ठति // 26 लोकानावृत्य यशसा तेजसा वृत्तसंपदा। स्वशरीरेण संप्राप्तं नान्यं शुश्रुम पाण्डवात् // 27 नारदस्य वचः श्रुत्वा राजा वचनमब्रवीत् / देवानामन्य धर्मात्मा स्वपक्षांश्चैव पार्थिवान् // 28 शुभं वा यदि वा पापं भ्रातृणां स्थानमद्य मे। तदेव प्राप्तुमिच्छामि लोकानन्यान्न कामये // 29 राज्ञस्तु वचनं श्रुत्वा देवराज पुरंदरः / आनृशंस्यसमायुक्तं प्रत्युवाच युधिष्ठिरम् // 30 स्थानेऽस्मिन्वस राजेन्द्र कर्मभिर्निर्जिते शुभैः। . किं त्वं मानुष्यकं स्नेहमद्यापि परिकर्षसि // 31 सिद्धि प्राप्तोऽसि परमां यथा नान्यः पुमान्क्वचित् / नैव ते भ्रातरः स्थानं संप्राप्ताः कुरुनन्दन / / 32 अद्यापि मानुषो भावः स्पृशते स्वां नराधिप। स्वर्गोऽयं पश्य देवर्षीन्सिद्धांश्च त्रिदिवालयान् // युधिष्ठिरस्तु देवेन्द्रमेवंवादिनमीश्वरम् / .. पुनरेवाब्रवीद्धीमानिदं वचनमर्थवत् // 34 तैर्विना नोत्सहे वस्तुमिह दैत्यनिबर्हण / गन्तुमिच्छामि तत्राहं यत्र मे भ्रातरो गताः॥३५ यत्र सा बृहती श्यामा बुद्धिसत्त्वगुणान्विता / द्रौपदी योषितां श्रेष्ठा यत्र चैव प्रिया मम // 36 इति श्रीमहाभारते महाप्रस्थानिकपर्वणि तृतीयोऽध्यायः // 3 // / // महाप्रस्थानिकपर्व समाप्तम् // -2918 - Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गारोहणपर्व जनमेजय उवाच / मैवमित्यब्रवीत्तं तु नारदः प्रहसन्निव / स्वर्गे निवासो राजेन्द्र विरुद्धं चापि नश्यति // 11 स्वर्ग त्रिविष्टपं प्राप्य मम पूर्वपितामहाः / युधिष्ठिर महाबाहो मैवं वोचः कथंचन / पाण्डवा धार्तराष्ट्रश्च कानि स्थानानि भेजिरे॥१ दुर्योधनं प्रति नृपं शृणु चेदं वचो मम // 12 एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं सर्वविच्चासि मे मतः / एष दुर्योधनो राजा पूज्यते त्रिदशैः सह / महर्षिणाभ्यनुज्ञातो व्यासेनाद्भुतकर्मणा // 2 सद्भिश्च राजप्रवरैर्य इमे स्वर्गवासिनः॥ 13 वैशंपायन उवाच / वीरलोकगति प्राप्तो युद्धे हुत्वात्मनस्तनुम् / स्वर्ग त्रिविष्टपं प्राप्य तव पूर्वपितामहाः / यूयं सर्वे सुरसमा येन युद्धे समासिताः // 14 युधिष्ठिरप्रभृतयो यद्कुर्वत तृच्छृणु // 3 स एष क्षत्रधर्मेण स्थानमेतदवाप्तवान् / स्वर्ग त्रिविष्टपं प्राप्य धर्मराजो युधिष्ठिरः। भये महति योऽभीतो बभूव पृथिवीपतिः // 15 दुर्योधनं श्रिया जुष्टं ददर्शासीनमासने // 4 न तन्मनसि कर्तव्यं पुत्र यातकारितम् / भ्राजमानामिवादित्यं वीरलक्ष्म्यामिसंवृतम् / द्रौपयाश्च परिक्लेशं न चिन्तयितुमर्हसि // 16 देवैर्धाजिष्णुभिः साध्यैः सहितं पुण्यकर्मभिः // 5 ये चान्येऽपि परिक्लेशा युष्माकं द्यूतकारिताः / ततो युधिष्ठिरो दृष्ट्वा दुर्योधनममर्षितः / संग्रामेष्वथ वान्यत्र न तान्संस्मर्तुमर्हसि // 17 सहसा संनिवृत्तोऽभूच्छ्रियं दृष्ट्वा सुयोधने // 6 समागच्छ यथान्यायं राज्ञा दुर्योधनेन वै / ब्रुवन्नुच्चैर्वचस्तान्वै नाहं दुर्योधनेन वै / स्वर्गोऽयं नेह वैराणि भवन्ति मनुजाधिप // 18 सहितः कामये लोकाल्लुब्धेनादीर्घदर्शिना // 7 नारदेनैवमुक्तस्तु कुरुराजो युधिष्ठिरः / यत्कृते पृथिवी सर्वा सुहृदो बान्धवास्तथा / भ्रातृन्पप्रच्छ मेधावी वाक्यमेतदुवाच ह // 19 हतास्माभिः प्रसह्याजी क्लिष्टैः पूर्व महावने // 8 यदि दुर्योधनस्यैते वीरलोकाः सनातनाः / द्रौपदी च सभामध्ये पाञ्चाली धर्मचारिणी / अधर्मज्ञस्य पापस्य पृथिवीसुहृद्रुहः // 20 परिक्लिष्टानवद्याङ्गी पत्नी नो गुरुसंनिधौ // 9 यत्कृते पृथिवी नष्टा सहया सरथद्विपा / स्वस्ति देवा न मे कामः सुयोधनमुदीक्षितुम् / / वयं च मन्युना दग्धा वैरं प्रतिचिकीर्षवः // 21 तत्राहं गन्तुमिच्छामि यत्र ते भ्रातरो मम // 10 | ये ते वीरा महात्मानो भ्रातरो मे महाव्रताः / -2919 - Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. 1. 22 ] महाभारते [ 18. 2. 23 सत्यप्रतिज्ञा लोकस्य शूरा वै सत्यवादिनः // 22 / अविज्ञातो मया योऽसौ घातितः सव्यसाचिना // तेषामिदानी के लोका द्रष्टुमिच्छामि तानहम् / भीमं च भीमविक्रान्तं प्राणेभ्योऽपि प्रियं मम / कणं चैव महात्मानं कौन्तेयं सत्यसंगरम् // 23 अर्जुनं चेन्द्रसंकाशं यमौ तौ च यमोपमौ // 10 धृष्टद्युम्नं सास्यकिं च धृष्टद्युम्नस्य चात्मजान् / द्रष्टुमिच्छामि तां चाहं पाञ्चालीं धर्मचारिणीम् / ये च शस्त्रैर्वधं प्राप्ताः क्षत्रधर्मेण पार्थिवाः // 24 न चेह स्थातुमिच्छामि सत्यमेतद्भवीमि वः // 11 क नु ते पार्थिवा ब्रह्मन्नैतान्पश्यामि नारद / किं मे भ्रातृविहीनस्य स्वर्गेण सुरसत्तमाः। . विराटद्रुपदौ चैव धृष्टकेतुमुखांश्च तान् // 25 यत्र ते स मम स्वर्गो नायं स्वर्गो मतो मम // 12 शिखण्डिनं च पाश्चाल्यं द्रौपदेयांश्च सर्वशः / देवा ऊचुः / अभिमन्युं च दुर्धर्षं द्रष्टुमिच्छामि नारद // 26 यदि वै तत्र ते श्रद्धा गम्यतां पुत्र माचिरम् / इति श्रीमहाभारते स्वर्गारोहणपर्वणि प्रिये हि तव वर्तामो देवराजस्य शासनात् // 13 प्रथमोऽध्यायः॥१॥ वैशंपायन उवाच / इत्युक्त्वा तं ततो देवा देवदूतमुपादिशन् / युधिष्ठिर उवाच / युधिष्ठिरस्य सुहृदो दर्शयेति परंतप // 14 नेह पश्यामि विबुधा राधेयममितौजसम् / / ततः कुन्तीसुतो राजा देवदूतश्च जग्मतुः / भ्रातरौ च महात्मानौ युधामन्यूत्तमौजसौ // 1 सहितौ राजशार्दूल यत्र ते पुरुषर्षभाः // 15 जुहुवुर्ये शरीराणि रणवह्नौ महारथाः / अग्रतो देवदूतस्तु यथौ राजा च पृष्ठतः। राजानो राजपुत्राश्च ये मदर्थे हता रणे // 2 पन्थानमशुभं दुर्ग सेवितं पापकर्मभिः // 16 क ते महारथाः सर्वे शार्दूलसमविक्रमाः। तमसा संवृतं घोरं केशशैवलशाद्वलम् / तैरप्ययं जितो लोकः कच्चित्पुरुषसत्तमैः // 3 युक्तं पापकृतां गन्धैमा॑सशोणितकर्दमम् // 17 यदि लोकानिमान्प्राप्तास्ते च सर्वे महारथाः / दंशोत्थानं सझिल्लीकं मक्षिकामशकावृतम् / स्थितं वित्त हि मां देवाः सहितं तैर्महात्मभिः॥४ इतश्चेतश्च कुणपैः समन्तात्परिवारितम् // 18 कञ्चिन्न तैरवाप्तोऽयं नृपैर्लोकोऽक्षयः शुभः। अस्थिकेशसमाकीर्णं कृमिकीटसमाकुलम् / न तैरहं विना वत्स्ये ज्ञातिभिर्भ्रातृभिस्तथा // 5 ज्वलनेन प्रदीप्तेन समन्तात्परिवेष्टितम् // 19 मातुर्हि वचनं श्रुत्वा तदा सलिलकर्मणि / अयोमुखैश्च काकोलै|श्च समभिद्रुतम् / कर्णस्य क्रियतां तोयमिति तप्यामि तेन वै // 6 सूचीमुखैस्तथा प्रेतैर्विन्ध्यशैलोपमैर्वृतम् // 20 इदं च परितप्यामि पुनः पुनरहं सुराः। मेदोरुधिरयुक्तैश्च छिन्नबाहूरुपाणिभिः / यन्मातुः सदृशौ पादौ तस्याहममितौजसः॥ 7 निकृत्तोदरपादैश्च तत्र तत्र प्रवेरितैः॥ 21 दृष्ट्वैव तं नानुगतः कणं परबलार्दनम् / स तत्कुणपदुर्गन्धमशिवं रोमहर्षणम् / न ह्यस्मान्कर्णसहिताञ्जयेच्छकोऽपि संयुगे // 8 जगाम राजा धर्मात्मा मध्ये बहु विचिन्तयन् // तमहं यत्रतत्रस्थं द्रष्टुमिच्छामि सूर्यजम् / ददर्शोष्णोदकैः पूर्णा नदीं चापि सुदुर्गमाम् / - 2920 - Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. 2. 28 ] स्वर्गारोहणपर्व [18. 2. 58 असिपत्रवनं चैव निशितक्षुरसंवृतम् // 23 ग्लानानां दुःखितानां च नाभ्यजानत पाण्डवः // करम्भवालुकास्तप्ता आयसीश्च शिलाः पृथक् / अबुध्यमानस्ता वाचो धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः / लोहकुम्भीश्च तैलस्य क्वाथ्यमानाः समन्ततः॥२४ | उवाच के भवन्तो वै किमर्थमिह तिष्ठथ // 39 कूटशाल्मलिकं चापि दुःस्पर्श तीक्ष्णकण्टकम् / / इत्युक्तास्ते ततः सर्वे समन्तादवभाषिरे। ददर्श चापि कौन्तेयो यातनाः पापकर्मिणाम् // 25 कर्णोऽहं भीमसेनोऽहमर्जुनोऽहमिति प्रभो // 40 स तं दुर्गन्धमालक्ष्य देवदूतमुवाच ह / नकुलः सहदेवोऽहं धृष्टद्युम्नोऽहमित्युत / कियध्वानमस्माभिर्गन्तव्यमिदमीदृशम् // 26 द्रौपदी द्रौपदेयाश्च इत्येवं ते विचुक्रुशुः // 41 क च ते भ्रातरो मह्यं तन्ममाख्यातुमर्हसि / / ता वाचः स तदा श्रुत्वा तद्देशसदृशीर्नृप / देशोऽयं कश्च देवानामेतदिच्छामि वेदितुम् // 27 / ततो विममृशे राजा किं न्विदं दैवकारितम् // 42 स संनिववृते श्रुत्वा धर्मराजस्य भाषितम् / किं नु तत्कलुषं कर्म कृतमेभिर्महात्मभिः। देवदूतोऽब्रवीच्चैनमेतावद्गमनं तव // 28 कर्णेन द्रौपदेयैर्वा पाश्चाल्या वा सुमध्यया // 43 निवर्तितव्यं हि मया तथास्म्युक्तो दिवौकसैः। य इमे पापगन्धेऽस्मिन्देशे सन्ति सुदारुणे। यदि श्रान्तोऽसि राजेन्द्र त्वमथागन्तुमर्हसि // 29 / न हि जानामि सर्वेषां दुष्कृतं पुण्यकर्मणाम् // युधिष्ठिरस्तु निर्विण्णस्तेन गन्धेन मूर्छितः। किं कृत्वा धृतराष्ट्रस्य पुत्रो राजा सुयोधनः / निवर्तने धृतमनाः पर्यावर्तत भारत // 30 तथा श्रिया युतः पापः सह सर्वैः पदानुगैः॥ 45 स संनिवृत्तो धर्मात्मा दुःखशोकसमन्वितः / महेन्द्र इव लक्ष्मीवानास्ते परमपूजितः / शुश्राव तत्र वदतां दीना वाचः समन्ततः / / 31 कस्येदानी विकारोऽयं यदिमे नरकं गताः // 46 भो भो धर्मज राजर्षे पुण्याभिजन पाण्डव / सर्वधर्मविदः शूराः सत्यागमपरायणाः। अनुग्रहार्थमस्माकं तिष्ठ तावन्मुहूर्तकम् / / 32 क्षात्रधर्मपराः प्राज्ञा यज्वानो भूरिदक्षिणाः // 47 आयाति त्वयि दुर्धर्षे वाति पुण्यः समीरणः / किं नु सुप्तोऽस्मि जागर्मि चेतयानो न चेतये। तव गन्धानुगस्तात येनास्मान्सुखमागतम् // 33 अहो चित्तविकारोऽयं स्याद्वा मे चित्तविभ्रमः॥४८ ते वयं पार्थ दीर्घस्य कालस्य पुरुषर्षभ / एवं बहुविधं राजा विममर्श युधिष्ठिरः / सुखमासादयिष्यामस्त्वां दृष्ट्वा राजसत्तम // 34 दुःखशोकसमाविष्टश्चिन्ताव्याकुलितेन्द्रियः // 49 संतिष्ठस्व महाबाहो मुहूर्तमपि भारत / क्रोधमाहारयच्चैव तीव्र धर्मसुतो नृपः / त्वयि तिष्ठति कौरव्य यातनास्मान्न बाधते // 35 देवांश्च गर्हयामास धर्म चैव युधिष्ठिरः // 50 एवं बहुविधा वाचः कृपणा वेदनावताम् / स तीव्रगन्धसंतप्तो देवदूतमुवाच ह / तस्मिन्देशे स शुश्राव समन्ताद्वदतां नृप // 36 गम्यतां भद्र येषां त्वं दूतस्तेषामुपान्तिकम् // 51 तेषां तद्वचनं श्रुत्वा दयावान्दीनभाषिणाम् / न ह्यहं तत्र यास्यामि स्थितोऽस्मीति निवेद्यताम् / अहो कृच्छ्रमिति प्राह तस्थौ स च युधिष्ठिरः॥ | मत्संश्रयादिमे दूत सुखिनो भ्रातरो हि मे // 52 स ता गिरः पुरस्ताद्वै श्रुतपूर्वाः पुनः पुनः। इत्युक्तः स तदा दूतः पाण्डुपुत्रेण धीमता / म, भा. 366 -2921 - Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. 2. 53 ] महाभारते [18. 3. 25 जगाम तत्र यत्रास्ते देवराजः शतक्रतुः / / 53 अवश्यं नरकस्तात द्रष्टव्यः सर्वराजभिः // 11 निवेदयामास च तद्धर्मराजचिकीर्षितम् / शुभानामशुभानां च द्वौ राशी पुरुषर्षभ / यथोक्तं धर्मपुत्रेण सर्वमेव जनाधिप // 54 यः पूर्व सुकृतं भुङ्क्ते पश्चान्निरयमेति सः / इति श्रीमहाभारते स्वर्गारोहणपर्वणि पूर्व नरकभोग्यस्तु पश्चात्स्वर्गमुपैति सः // 12 द्वितीयोऽध्यायः // 2 // भूयिष्ठं पापकर्मा यः स पूर्व स्वर्गमभुते। तेन त्वमेवं गमितो मया श्रेयोर्थिना नृप // 13 वैशंपायन उवाच / व्याजेन हि त्वया द्रोण उपचीर्णः सुतं प्रति / स्थिते मुहूर्त पार्थे तु धर्मराजे युधिष्ठिरे। व्याजेनैव ततो राजन्दर्शितो नरकस्तव // 14 आजग्मुस्तत्र कौरव्य देवाः शक्रपुरोगमाः // 1 यथैव त्वं तथा भीमस्तथा पार्थो यमौ तथा / स्वयं विग्रवान्धर्मो राजानं प्रसमीक्षितुम् / द्रौपदी च तथा कृष्णा व्याजेन नरकं गताः // 15 तत्राजगाम यत्रासौ कुरुराजो युधिष्ठिरः // 2 आगच्छ नरशार्दूल मुक्तास्ते चैव किल्बिषात् / तेषु भास्वरदेहेषु पुण्याभिजनकर्मसु। स्वपक्षाञ्चैव ये तुभ्यं पार्थिवा निहता रणे / समागतेषु देवेषु व्यगमत्तत्तमो नृप // 3 / सर्वे स्वर्गमनुप्राप्तास्तान्पश्य पुरुषर्षभ // 16 नादृश्यन्त च तास्तत्र यातनाः पापकर्मिणाम् / कर्णश्चैव महेष्वासः सर्वशस्त्रभृतां वरः / नदी वैतरणी चैव कूटशाल्मलिना सह // 4 स गतः परमां सिद्धि यदर्थ परितप्यसे // 17 लोहकुम्भ्यः शिलाश्चैव नादृश्यन्त भयानकाः / तं पश्य पुरुषव्याघ्रमादित्यतनयं विभो / विकृतानि शरीराणि यानि तत्र समन्ततः। स्वस्थानस्थं महाबाहो जहि शोकं नरर्षभ // 18 ददर्श राजा कौन्तेयस्तान्यदृश्यानि चाभवन् // 5 भ्रातृ॑श्चान्यांस्तथा पश्य स्वपक्षांश्चैव पार्थिवान् / ततो वायुः सुखस्पर्शः पुण्यगन्धवहः शिवः / खं स्वं स्थानमनुप्राप्तान्व्येतु ते मानसो ज्वरः॥ 19 ववौ देवसमीपस्थः शीतलोऽतीव भारत // 6 अनुभूय पूर्व त्वं कृच्छ्रमितःप्रभृति कौरव / मरुतः सह शक्रेण वसवश्वाश्विनौ सह / विहरस्व मया साधं गतशोको निरामयः // 20 साध्या रुद्रास्तथादित्या ये चान्येऽपि दिवौकसः॥ | कर्मणां तात पुण्यानां जितानां तपसा स्वयम् / सर्वे तत्र समाजग्मुः सिद्धाश्च परमर्षयः / दानानां च महाबाहो फलं प्राप्नुहि पाण्डव // 21 यत्र राजा महातेजा धर्मपुत्रः स्थितोऽभवत् // 8 अद्य त्वां देवगन्धर्वा दिव्याश्वाप्सरसो दिवि / ततः शक्रः सुरपतिः श्रिया परमया युतः / उपसेवन्तु कल्याणं विरजोम्बरवाससः // 22 युधिष्ठिरमुवाचेदं सान्त्वपूर्वमिदं वचः // 9 राजसूयजिताल्लोकानश्वमेधाभिवर्धितान् / युधिष्ठिर महाबाहो प्रीता देवगणास्तव / प्राप्नुहि त्वं महाबाहो तपसश्च फलं महत् // 23 एहि पुरुषव्याघ्र कृतमेतावता विभो / उपर्युपरि राज्ञां हि तव लोका युधिष्ठिर / सिद्धिः प्राप्ता त्वया राजल्लोकाश्चाप्यक्षयास्तव // 10 हरिश्चन्द्रसमाः पार्थ येषु त्वं विहरिष्यसि // 24 न च मन्युस्त्वया कार्यः शृणु चेदं वचो मम। मान्धाता यत्र राजर्षिर्यत्र राजा भगीरथः / -2922 - Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. 3. 25] स्वर्गारोहणपर्व [18. 4. 11 दौःषन्तिर्यत्र भरतस्तत्र त्वं विहरिष्यसि // 25 निर्वैरो गतसंतापो जले तस्मिन्समाप्लुतः // 40 एषा देवनदी पुण्या पार्थ त्रैलोक्यपावनी। | ततो ययौ वृतो देवैः कुरुराजो युधिष्ठिरः।। आकाशगङ्गा राजेन्द्र तत्राप्लुत्य गमिष्यसि // 26 / धर्मेण सहितो धीमान्स्तूयमानो महर्षिमिः // 41 अत्र सातस्य ते भावो मानुषो विगमिष्यति / इति श्रीमहाभारते स्वर्गारोहणपर्वणि गतशोको निरायासो मुक्तवैरो भविष्यसि // 27 तृतीयोऽध्यायः // 3 // एवं युवति देवेन्द्र कौरवेन्द्रं युधिष्ठिरम् / धर्मो विग्रहवान्साक्षादुवाच सुतमात्मनः // 28 वैशंपायन उवाच / भो भो राजन्महाप्राज्ञ प्रीतोऽस्मि तव पुत्रक। ततो युधिष्ठिरो राजा देवैः सर्षिमरुद्गणैः / मद्भक्त्या सत्यवाक्येन क्षमया च दमेन च // 29 पूज्यमानो ययौ तत्र यत्र ते कुरुपुंगवाः // 1 एषा तृतीया जिज्ञासा तव राजन्कृता मया। ददर्श तत्र गोविन्दं ब्राह्मण वपुषान्वितम् / न शक्यसे चालयितुं स्वभावात्पार्थ हेतुभिः // 30 तेनैव दृष्टपूर्वेण सादृश्येनोपसूचितम् // 2 पूर्व परीक्षितो हि त्वमासीतवनं प्रति / दीप्यमानं स्ववपुषा दिव्यैरखैरुपस्थितम् / अरणीसहितस्यार्थे तच निस्तीर्णवानसि // 31 चक्रप्रभृतिभिर्घारैर्दिव्यैः पुरुषविग्रहैः // 3 सोदर्येषु विनष्टेषु द्रौपद्यां तत्र भारत / उपास्यमानं वीरेण फल्गुनेन सुवर्चसा / श्वरूपधारिणा पुत्र पुनस्त्वं मे परीक्षितः // 32 अपरस्मिन्नथोद्देशे कर्ण शस्त्रभृतां वरम् / इहं तृतीयं भ्रातॄणामर्थे यत्स्थातुमिच्छसि / द्वादशादित्यसहितं ददर्श कुरुनन्दनः // 4 विशुद्धोऽसि महाभाग सुखी विगतकल्मषः // 33 अथापरस्मिन्नुहेशे मरुद्गणवृतं प्रभुम् / न च ते भ्रातरः पार्थ नरकस्था विशां पते / भीमसेनमथापश्यत्तेनैव वपुषान्वितम् // 5 मायैषा देवराजेन महेन्द्रेण प्रयोजिता // 34 अश्विनोस्तु तथा स्थाने दीप्यमानौ स्वतेजसा। अवश्यं नरकस्तात द्रष्टव्यः सर्वराजभिः। नकुलं सहदेवं च ददर्श कुरुनन्दनः // 6 ततस्त्वया प्राप्तमिदं मुहूर्त दुःखमुत्तमम् // 35 तथा ददर्श पाञ्चाली कमलोत्पलमालिनीम् / न सव्यसाची भीमो वा यमौ वा पुरुषर्षभौ / वपुषा स्वर्गमाक्रम्य तिष्ठन्तीमर्कवर्चसम् // 7 कर्णो वा सत्यवाक्शूरो नरकार्दाश्चिरं नृप // 36 अथैनां सहसा राजा प्रष्टुमैच्छद्युधिष्ठिरः / न कृष्णा राजपुत्री च नरकारे युधिष्ठिर। ततोऽस्य भगवानिन्द्रः कथयामास देवराट् // 8 एोहि भरतश्रेष्ठ पश्य गङ्गां त्रिलोकगाम् // 37 श्रीरेषा द्रौपदीरूपा त्वदर्थे मानुषं गता। एवमुक्तः स राजर्षिस्तव पूर्वपितामहः / अयोनिजा लोककान्ता पुण्यगन्धा युधिष्ठिर // 9 जगाम सह धर्मेण सर्वैश्च त्रिदशालयः // 38 / द्रुपदस्य कुले याता भवद्भिश्चोपजीविता। गङ्गां देवनदी पुण्यां पावनीमृषिसंस्तुताम् / रत्यर्थं भवतां ह्येषा निर्मिता शूलपाणिना // 10 अवगाह्य तु तां राजा तनुं तत्याज मानुषीम् // 39 / एते पञ्च महाभागा गन्धर्वाः पावकप्रभाः / ततो दिव्यवपुर्भूत्वा धर्मराजो युधिष्ठिरः / द्रौपद्यास्तनया राजन्युष्माकममितौजसः // 11 - 2923 - Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. 4. 12 ] महाभारते [ 18. 5. 17 पश्य गन्धर्वराजानं धृतराष्ट्रं मनीषिणम् / आहो स्विच्छाश्वतं स्थानं तेषां तत्र द्विजोत्तम / एनं च त्वं विजानीहि भ्रातरं पूर्वजं पितुः // 12 अन्ते वा कर्मणः कां ते गतिं प्राप्ता नरर्षभाः / अयं ते पूर्वजो भ्राता कौन्तेयः पावकयुतिः। एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं प्रोच्यमानं त्वया द्विज // 5 सूर्यपुत्रोऽग्रजः श्रेष्ठो राधेय इति विश्रुतः / सूत उवाच / आदित्यसहितो याति पश्यैनं पुरुषर्षभ // 13 इत्युक्तः स तु विप्रर्षिरनुज्ञातो महात्मना / साध्यानामथ देवानां वसूनां मरुतामपि / व्यासेन तस्य नृपतेराख्यातुमुपचक्रमे // 6 गणेषु पश्य राजेन्द्र वृष्ण्यन्धकमहारथान् / वैशंपायन उवाच / सात्यकिप्रमुखान्वीरान्भोजांश्चैव महारथान् // 14 गन्तव्यं कर्मणामन्ते सर्वेण मनुजाधिप / सोमेन सहितं पश्य सौभद्रमपराजितम् / शृणु गुह्यमिदं राजन्देवानां भरतर्षभ। अभिमन्यु महेष्वासं निशाकरसमद्युतिम् // 15 यदुवाच महातेजा दिव्यचक्षुः प्रतापवान् // 7. एष पाण्डुर्महेष्वासः कुन्त्या माद्या च संगतः / मुनिः पुराणः कौरव्य पाराशर्यो महाव्रतः / विमानेन सदाभ्येति पिता तव ममान्तिकम् // 16 अगाधबुद्धिः सर्वज्ञो गतिज्ञः सर्वकर्मणाम् / / 8 वसुभिः सहितं पश्य भीष्मं शांतनवं नृपम् / वसूनेव महातेजा भीष्मः प्राप महाद्युतिः / द्रोणं बृहस्पतेः पार्श्वे गुरुमेनं निशामय / / 17 अष्टावेव हि दृश्यन्ते वसवो भरतर्षभ // 9 एते चान्ये महीपाला योधास्तव च पाण्डव। बृहस्पतिं विवेशाथ द्रोणो ह्यङ्गिरसां वरम् / / गन्धर्वैः सहिता यान्ति यज्ञैः पुण्यजनैस्तथा // 18 कृतवर्मा तु हार्दिक्यः प्रविवेश मरुद्गणम् // 10 गुह्यकानां गतिं चापि केचित्प्राप्ता नृसत्तमाः / सनत्कुमारं प्रद्युम्नः प्रविवेश यथागतम् / त्यक्त्वा देहं जितस्वर्गाः पुण्यवाग्बुद्धिकर्मभिः // धृतराष्ट्रो धनेशस्य लोकान्प्राप दुरासदान् // 11 इति श्रीमहाभारते स्वर्गारोहणपर्वणि धृतराष्ट्रेण सहिता गान्धारी च यशस्विनी / चतुर्थोऽध्यायः // 4 // पत्नीभ्यां सहितः पाण्डुर्महेन्द्रसदनं ययौ // 12 विराटद्रुपदौ चोभौ धृष्टकेतुश्च पार्थिवः / जनमेजय उवाच / निशठाकूरसाम्बाश्च भानुः कम्पो विडूरथः // 13 भीष्मद्रोणौ महात्मानौ धृतराष्ट्रश्च पार्थिवः / भूरिश्रवाः शलश्चैव भूरिश्च पृथिवीपतिः / विराटद्रुपदौ चोभौ शङ्खश्चैवोत्तरस्तथा // 1 उग्रसेनस्तथा कंसो वसुदेवस्य वीर्यवान् // 14 धृष्टकेतुर्जयत्सेनो राजा चैव स सत्यजित् / उत्तरश्च सह भ्रात्रा शङ्खन नरपुंगवः। - दुर्योधनसुताश्चैव शकुनिश्चैव सौबलः // 2 विश्वेषां देवतानां ते विविशुनरसत्तमाः॥ 15 कर्णपुत्राश्च विक्रान्ता राजा चैव जयद्रथः / वर्चा नाम महातेजाः सोमपुत्रः प्रतापवान् / घटोत्कचादयश्चैव ये चान्ये नानुकीर्तिताः // 3 सोऽभिमन्युसिंहस्य फल्गुनस्य सुतोऽभवत् // 16 ये चान्ये कीर्तितास्तत्र राजानो दीप्तमूर्तयः। स युवा क्षत्रधर्मेण यथा नान्यः पुमान्कचित् / स्वर्गे कालं कियन्तं ते तस्थुस्तदपि शंस मे // 4 / विवेश सोमं धर्मात्मा कर्मणोऽन्ते महारथः // 17 -2924 Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. 5. 18 ] खर्गारोहणपर्व [ 18. 5. 46 आविवेश रविं कर्णः पितरं पुरुषर्षभ। कृष्णेन मुनिना विप्र नियतं सत्यवादिना // 31 द्वापरं शकुनिः प्राप धृष्टद्युम्नस्तु पावकम् // 18 सर्वज्ञेन विधिज्ञेन धर्मज्ञानवता सता / धृतराष्ट्रात्मजाः सर्वे यातुधाना बलोत्कटाः। अतीन्द्रियेण शुचिना तपसा भावितात्मना // 32 ऋद्धिमन्तो महात्मानः शस्त्रपूता दिवं गताः। ऐश्वर्ये वर्तता चैव सांख्ययोगविदा तथा। धर्ममेवाविशत्क्षत्ता राजा चैव युधिष्ठिरः // 19 नैकतत्रविबुद्धेन दृष्ट्वा दिव्येन चक्षुषा // 33 अनन्तो भगवान्देवः प्रविवेश रसातलम् / कीर्ति प्रथयता लोके पाण्डवानां महात्मनाम् / पितामहनियोगाद्धि यो योगाद्गामधारयत् // 20 अन्येषां क्षत्रियाणां च भूरिद्रविणतेजसाम् // 34 षोडशस्त्रीसहस्राणि वासुदेवपरिग्रहः / य इदं श्रावयेद्विद्वान्सदा पर्वणि पर्वणि / न्यमजन्त सरस्वत्यां कालेन जनमेजय। धूतपाप्मा जितस्वर्गो ब्रह्मभूयाय गच्छति // 35 ताश्चाप्यप्सरसो भूत्वा वासुदेवमुपागमन् // 21 यश्चेदं श्रावयेच्छ्राद्धे ब्राह्मणान्पादमन्ततः / हतास्तस्मिन्महायुद्धे ये वीरास्तु महारथाः। अक्षय्यमन्नपानं वै पितृस्तस्योपतिष्ठते // 36 घटोत्कचादयः सर्वे देवान्यक्षांश्च भेजिरे / / 22 अह्ना यदेनः कुरुते इन्द्रियैर्मनसापि वा / दुर्योधनसहायाश्च राक्षसाः परिकीर्तिताः / महाभारतमाख्याय पश्चात्संध्यां प्रमुच्यते // 37 प्राप्तास्ते क्रमशो राजन्सर्वलोकाननुत्तमान् // 23 धर्मे चार्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ / भवनं च महेन्द्रस्य कुबेरस्य च धीमतः। यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्त्वचित् // 38 वरुणस्य तथा लोकान्विविशुः पुरुषर्षभाः // 24 जयो नामेतिहासोऽयं श्रोतव्यो भूतिमिच्छता / एतत्ते सर्वमाख्यातं विस्तरेण महाद्युते / राज्ञा राजसुतैश्चापि गर्भिण्या चैव योषिता // 39 कुरूणां चरितं कृत्स्नं पाण्डवानां च भारत // 25 स्वर्गकामो लभेत्स्वर्ग जयकामो लभेजयम् / सूत उवाच / गर्भिणी लभते पुत्रं कन्यां वा बहुभागिनीम् // 40 एतच्छ्रुत्वा द्विजश्रेष्ठात्स राजा जनमेजयः / अनागतं त्रिभिर्वषैः कृष्णद्वैपायनः प्रभुः। विस्मितोऽभवदत्यर्थं यज्ञकर्मान्तरेष्वथ // 26 / / संदर्भ भारतस्यास्य कृतवान्धर्मकाम्यया // 41 ततः समापयामासुः कर्म तत्तस्य याजकाः।। नारदोऽश्रावयद्देवानसितो देवलः पितॄन् / आस्तीकश्चाभवत्प्रीतः परिमोक्ष्य भुजंगमान् // 27 रक्षो यक्षाशुको मान्वैशंपायन एव तु // 42 ततो द्विजातीन्सर्वांस्तान्दक्षिणाभिरतोषयत् / / इतिहासमिमं पुण्यं महाथं वेदसंमितम् / पूजिताश्चापि ते राज्ञा ततो जग्मुर्यथागतम् // 28 श्रावयेद्यस्तु वर्णास्त्रीन्कृत्वा ब्राह्मणमप्रतः // 43 विसर्जयित्वा विप्रांस्तान्राजापि जनमेजयः / स नरः पापनिर्मुक्तः कीर्तिं प्राप्येह शौनक / ततस्तक्षशिलायाः स पुनरायाद्गजाह्वयम् // 29 गच्छेत्परमिकां सिद्धिमत्रं ते नास्ति संशयः // 44 एतत्ते सर्वमाख्यातं वैशंपायनकीर्तितम् / भारताध्ययनात्पुण्यादपि पादमधीयतः / व्यासाज्ञया समाख्यातं सर्पसत्रे नृपस्य ह // 30 / श्रद्दधानस्य पूयन्ते सर्वपापान्यशेषतः // 45 पुण्योऽयमितिहासाख्यः पवित्रं चेदमुत्तमम् / / महर्षिर्भगवान्व्यासः कृत्वमा संहितां पुरा / - 2925 - Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. 5. 46] महाभारते " [18. 5.54 श्लोकैश्चतुर्भिर्भगवान्पुत्रमध्यापयच्छुकम् // 46 मातापितृसहस्राणि पुत्रदारशतानि च / संसारेष्वनुभूतानि यान्ति यास्यन्ति चापरे // 47 हर्षस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च / दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम् // 48 ऊर्ध्वबाहुर्विरौम्येष न च कश्चिच्छृणोति मे। धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थ न सेव्यते // 49 न जातु कामान भयान्न लोभा द्धर्म त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः / नित्यो धर्मः सुखदुःखे त्वनित्ये जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः // 50 इमां भारतसावित्री प्रातरुत्थाय यः पठेत् / स भारतफलं प्राप्य परं ब्रह्माधिगच्छति // 51 यथा समुद्रो भगवान्यथा च हिमवान्गिरिः / ख्यातावुभौ रत्ननिधी तथा भारतमुच्यते // 52 महाभारतमाख्यानं यः पठेत्सुसमाहितः / स गच्छेत्परमां सिद्धिमिति मे नास्ति संशयः॥ द्वैपायनोष्टपुटनिःसतमप्रमेयं ___पुण्यं पवित्रमथ पापहरं शिवं च। . यो भारतं समधिगच्छति वाच्यमानं किं तस्य पुष्करजलैरभिषेचनेन // 54 इति श्रीमहाभारते स्वर्गारोहणपर्वणि पञ्चमोऽध्यायः॥५॥ // इति खर्गारोहणपर्व समाप्तम् // // इति श्रीमहाभारतं संपूर्णम्॥ - 2926 -