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दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र - द्वितीय दशा
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अर्थात् जिस प्रकार लाख का घड़ा अग्नि से तप्त होने पर शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार स्त्री-सहवास से अनगार ( मुनि) नष्ट हो जाता है।
यहाँ एक बात विशेष ध्यान देने योग्य है। कामविजयं के लिए प्रयुक्त ब्रह्मचर्य शब्द अपने आप में बड़ा व्यापक अर्थ लिए हुए है । "ब्रह्मण परमात्मनि अथवा परमात्मस्वरूपे चरणं चर्यं वा ब्रह्मचर्यम्” - आत्मा के विशुद्ध स्वरूप में परिणमनशील रहना ब्रह्मचर्य है । वैसी स्थिति प्राप्त होने में जो विघ्न आशंकित हैं, उनमें स्त्री-प्रसंग या काम-भोग अत्यंत प्रबल और दुर्जेय हैं। इसीलिए निषेध की भाषा में काम - भोग परित्याग को ब्रह्मचर्य कहा गया है। परमात्माराधन में इससे बड़ा बाधक कारण अन्य नहीं है।
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आहार या भोजन भौतिक जीवन के लिए परमावश्यक है । गृही या श्रमण सभी को भोजन करना ही होता है। एक श्रमण के लिए भोजन देह निर्वाह का साधन मात्र है क्योंकि देह उसके संयमी जीवन का एक आवश्यक उपकरण या आधार है । अत एव भोजन विषयक आकर्षण से, जिसे जिह्वा लोलुपता कहा जाता है, वह सदैव दूर रहता है। इसके अतिरिक्त जैन श्रमण के आहार की एक असाधारण विशेषता है। वह अपने लिए पकाए हुए, खरीदे हुए, किसी भी प्रकार उस हेतु संग्रह किए हुए भोजन को आहार के रूप में स्वीकार नहीं करता। इसके पीछे एक गहरा मनोवैज्ञानिक कारण यह है कि श्रमण गृहस्थों पर किसी भी प्रकार से भार न आए। दूसरी बात यह भी है कि यदि औद्देशिक- नैमित्तिक आहार विहित हो तो श्रद्धातिरेकवश उपासक अपने पूजनीय श्रमणों को उत्तम से उत्तम आहार देने का प्रयास करता है, जो साधनामय जीवन में प्रतिबंधक है। इसीलिए यहाँ तक कहा गया है - जिस प्रकार साँप बांबी में प्रविष्ट होता है, उसी प्रकार एक श्रमण जरा भी आस्वाद लिए बिना भोजन के कौर - ग्रास को नीचे उतारे । निर्धार और आस्वाद वृत्ति का श्रमण जीवन में बड़ा महत्त्व है।
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चर्या में कितना सूक्ष्मतापूर्ण चिंतन है, जिस भवन में साधु प्रवास हेतु रुके, उसके स्वामी का आहार लेना, उसके लिए वर्जित है। इसमें भी दो बातें हैं, गृहस्वामी पर भार न आए, अथवा अपने स्थान में प्रवसनशील साधु के प्रति आतिथ्यभाव, सत्कारभाव से कुछ तैयारी न कर ले।
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