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२३१ मध्यमरपाद्वादरहस्ये ग्यण्डः २ - का.- * सप्तभाया न्यूनत्वे प्रामाण्यम् ** [प्र.न.त.परि.४/सू.१४] । यः खलु प्रागुपदर्शितान् वस्तुनः सप्तधर्मानवलम्ब्य संशेते, जिज्ञासते, ।।
पर्यनुयुइते च तं प्रतीयं फलवती, प्रश्नस्य तुल्योत्तरनिवर्त्यत्वात् । अत एवैकेनाऽपि भड्रेन | न्यूना सतीयं न प्रमाणम्, समलिया हि-Miss जिज्ञासाजन्यानां सप्तानां प्रश्नानामनिवर्तनात् ।
=: =====* जय = षेधात्मकधर्मप्रकारकबोधजनकसप्तवाक्यपर्याप्तसमुदायत्वम्'' (स.भ.त.प्र.३) इति सप्तभङ्गीलक्षणं दर्शितवान् ।
___ विधिनिषेधार्पणया प्रतिपयीयं वस्तुनि सप्तव मङ्गाः' इति नियमः प्रतिपर्यायं प्रतिपाद्यपर्यनुयोगानां सप्तानामेव सम्भवात, तेषामपि सप्तत्वं सप्तबिधजिज्ञासानियमान. तासामपि च सप्तविधत्वं सप्तधव तत्सन्देहसमुत्सदात, तस्याऽपि सप्तप्रकारकत्वनियमः स्वगोचरवस्तुधर्माणां सप्तविधत्वस्ययोपपत्तेरिति न स्वाश्रय-परस्पराश्रय-चक्रकादिदोषपतिलत्वमित्याशयेनाऽऽह-यः खलु प्रागुपदर्शितान् वस्तुनः सप्तधर्मानवलम्ब्य संशेत इति । तं प्रतीय सप्तभङ्गी फलवती, न त्वसंशितजिज्ञासिनपर्यनुजवन्तं पुरुष प्रत्यपि, हेतुमाह- प्रश्नस्य = पर्यनुयोगस्य, तुल्योनरनिवर्त्यत्वात् = समानप्रकारकप्रत्युत्तरणव निवृनः, अन्यथा 'आम्रान पृष्टः कोविदारागचष्टे भवानि' ति न्यायापात: स्यात् । वस्तुतो न शङ्कादिकं भङ्गप्रयोजकं न तु क्वचिदपि भङ्गे विषयावच्छेदकं, स्वद्रव्यादीनामय तत्त्वस्याऽभियुक्तमतत्वात् ।
अत एव = प्रश्नस्य समानप्रकारकोत्तरनिवर्तनीयत्वादेव, एकेनाऽपि भनेन = सप्तबिधान्यतम भङ्गेन न्यूना सती इयं । । सप्तभङ्गी न प्रमाणम् । हेतुमाह . सप्तेति । अयं भावः सप्त विधसंशयजिज्ञासानिवर्तकशाब्दबोधजनकतापर्याप्तिमद् वाक्यमेव विवक्षित धर्मविषयका पूर्ण बोधकृत । अत एव सप्तमङ्गयात्मकं प्रमाणमित्युन्यते । सप्तविधभङ्गाऽन्यतमभङ्गविकलतायां सत्यां सप्त: विधानपाद्यधर्मविषयकसंशयाना तजन्यसप्तजिज्ञासानां तानसप्तप्रश्नानां च 'एकसत्त्वेऽपि द्वयं नास्ती' ति न्यायेन निवर्तने न स्यात् । तादृशसंशयायनिवर्तकत्वं कुतः तत्प्रामाण्यम : इदमे वा भिनत्य नयोपदेशे “सप्तभङ्गयात्मकं वाक्यं प्रमाण पूर्ण. बोधकृत् । स्यातादादपरोल्लेरिय वचो यचैकधर्मगम् ॥ (नयो.लो.६) इति प्रकरणकृद्धिक्तम् । अत्र च विषये साम्प्रदायिकमतभेदतन्निराकरणं तदर्धिभिः तद्वृत्तितोऽवसेयम् ।
कृतं सोपयोगित्वात् सप्तभङ्गीविषयाणि प्रमाणनयतस्वालोकालङ्कारसूत्राणि प्रदश्यन्ते । तथाहि - तद्यथा स्यादस्त्येव सर्वमिति विधिकल्पनया प्रधमो भङ्गः (प्र.न.त. ४/१५) स्यान्नास्त्येव सर्वमिति निषेधकल्पनया द्वितीयः ।१६।
अपनी जिज्ञासा को शांत करता है, या तो उस विषय के ज्ञाता पुरुष को प्रश्न करता है कि . 'यह वस्तु ऐसी है या नहीं ? इत्यादि । इसी तरह प्रस्तुत उपर्युक्त ७ धर्मों का जिज्ञासु पुरुष भी सप्तभंगी के ज्ञाता को प्रश्न करता है कि . 'घट नित्य है या अनित्य भी ?' इत्यादि । इस तरह प्रश्न करने वाले पुरुष के प्रति सप्तभंगी का ज्ञाता पुरुप सप्तभंगी का प्रयोग कर के उसकी जिज्ञासा का शमन करता है, क्योंकि समानविषयक प्रत्युत्तर से ही प्रश्न का समाधान होना है। जिसे कभी भी 'यट नित्य है या अनित्य ? ऐसी शंका ही नहीं हुई है, उसे उस विषय में जिज्ञासा भी नहीं होती है, तब वह इन सात धर्म के विषय में प्रश्न भी कैसे करेगा ? तथा प्रश्न न करने वाले पुरुष के प्रति सप्तभंगी का ज्ञाता पुरुप सप्तभंगी का प्रयोग क्यों करेगा ? बिना पूछे बोलने वाला मूर्ख समझा जाता है। अतएव उन सात धर्मों के विपय में शंका और जिज्ञासा होने के बाद प्रश करने वाले पुरुष के प्रति ही यह सप्तभंगी सफल है। जिसे स्वप्न में भी इन सात धर्म के विषय में संशयजिज्ञासा नहीं हुई है, वह इन विषय में प्रश्न भी नहीं करता है । अतएव उसके प्रति यह सप्तभंगी सफल नहीं है। कभी गुरुदेव भी वस्तुगत सात धर्मों का बोध कराने के लिये सप्तभंगी बताते हैं - यह ख्याल में रहे ।
६ एक भी भंग से सून्य सप्तभंगी प्रमाण नहीं है अन एव, इति । प्रश्न का समाधान प्रश्न जिस विषय में होता है, उस विषय में प्रत्युत्तर देने से होता है, न कि अन्य विषय में प्रत्युत्तर से । इसलिए जिसे वस्तु के उपर्युक्त सात धर्म के विषय में संशय-जिज्ञासा है और सात धर्म के विषय में आप्त पुरुष को प्रश्न करता है उसके प्रति यदि भाप्त पुरुष एक भी भंग से न्यून सात भंगो का प्रयोग करेगा तब वह सप्तभंगी प्रमाण नहीं हो सकती । प्रमाण से तो संशय जन्य जिज्ञासा का शमन होता है। सात धर्म विषयक प्रश्न करने पर छ या पाँच धर्मसंबंधी जवाब देने पर पुच्छक की पृच्छा का समाधान कैसे होगा ? जिस प्रत्युत्तर से अपने सात प्रश्नों की निवृत्ति न हो, उसे प्रमाण कहना कैसे मुनासिब होगा ? अतः यह सिद्ध होता है कि संपूर्ण सप्तभंगी का