Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 32
________________ २२९ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ . का.५ * उपधेयसाङ्मयेऽप्युपा पसाय॑म् * | 'नित्यानित्यत्वादयो जात्यन्तररूपा अखण्डा' इत्याध्याहुः । अत एवाऽमून धर्मानवलम्ब्य तत्र तत्रोक्ता समभङ्गी सङ्घतिमइति । ___ अथ केयं सप्तभंगीति चेत् ? एकत्र वस्तुन्येकैकधर्मपर्यनुयोगवशादविरोधेन व्यस्तयोः = =* जयलता * अत्रैवाइन्यमतमाह- नित्यानित्यत्वादयो जात्यन्तररूपा इति । आदिशब्देन सदसत्त्वादेहाणम् । अन्येषामयमभिप्रायः तृतीयपश्वमादिधर्माणां न सखण्डोपाथित्वं येन विशेषणविशेष्यभावे त्रिनिगमनाविरहप्राङ्गः किन्तु जातित्वमेव । जातित्वावच्छिन्नस्या खण्डत्वादेव = नगदहा विनिमाविरापर. । भेगाभेन्चर निगाऽनित्यत्वादयोऽपि जात्यन्तररूपा एबोपगन्तुमर्हन्ति । इदन्तु ध्येयम् - सर्वथा जात्यन्तरत्वमपि न युज्यते, तदंशनिबन्धनविशेषप्रतिपनेरभावप्रसङ्गात् । न चासावस्ति, सदसदु|| भयात्मके वस्तुनि स्वरूपादिभिः सत्त्वस्य पररूपादिभिरसत्त्वस्य च तदंशस्य विदोषप्रतिपत्तिनिबन्धनस्य सुनयप्रतातिनिश्चितस्य प्रसिद्धेः, दधिग उर्जातकादिद्रव्याद्भवेशनके तदंशदध्यादिविदोषप्रतिपत्तिवत । न चै जात्यन्तरमेवोभयात्मकमिति वाच्यम, सर्वधो भयरूपत्वे जात्यन्तररातिपत्नरयोगात, पानकवदेव । ततः काञ्चज्जात्यन्तरत्वमुपेयमिति सूचनार्धं 'आहु' रित्युक्तम् । न च तथापि शब्द-समभिरूदेवम्भूतनयमते न विशेषण-विशेष्यभावभेदेऽष्टमादिभङ्गासङ्गो दुर्निवार इत्यारेकणीयम्, तन्मते आद्यभङ्गद्वयस्पैचोपगमात् । सुस्पष्टश्चैतत् तत्त्वं चादमहार्णवे । न चैवमपि अनन्तधर्मात्मके वस्तुनि तत्प्रतिपादकवचनस्याऽष्टमोऽपि विकल्पः किमिति नाङ्गीक्रियत इति शङ्नीयम्, तत्परिकल्पननिमित्तविरहात्, सावयवात्मकस्य निरवयवात्मकस्य चाऽन्योन्यनिमित्तकस्य जिज्ञासायां चतथादि-प्रथमादिविकल्पानामेव प्रवृत्तेः । तथाहि - क्रमेण धर्मद्वयं गुणप्रधानभावन प्रतिपादने प्रथमद्वितीयभङ्गी, क्रमेण प्राधान्येनाऽभिधित्सायां प्रथम-द्वितीयसंयोगनिष्पन्नः तृतीयः, युगपत् प्राधान्येन विवक्षायां चतुर्थः, एकं विभज्या परश्चा-विभज्याम्णायां प्रधम - चतुनिष्पन्नः पञ्चमः, द्वितीय-चतुर्धसमुपजातः षष्ठो वा, द्रो देशी विभज्य चतुर्धञ्चाऽविभज्य प्रतिपिपादयिषायां प्रथम-द्वितीय-चतुर्थसंयोगोत्पन्नः सप्तमो भङ्ग एव प्रवर्तते । तृतीयादिदेशापादाने पि द्वित्र्यादीनामेकविभाजकोपरागपर्यवसानान्न सप्तमाद्यतिक्रमः, एककरदण्डसंयोगे करद्वयदण्डसंयोगे वा दण्डित्वाविशेषात् । तथाप्यनेकान्त उद्भूतद्वित्वादिविवक्षया स्यादव विशेष' इति चेत् ? तर्हि स्यादेव भङ्गावान्तर भेदाऽपि । अत एव द्वादशारनयचक्रादी श्रीमल्लवादिसूरिप्रभृतिभिः कोटिशो भङ्गा अभिहिता । न चैवं सप्तभङ्गल्याचात इति वाच्यम्, विभाजको पाध्यनतिक्रमात, उपधेयसापें 5प्यपाध्यसायांत्र विभागव्याघात इति तात्पर्यणाह- अत एवेति । ___ मध्यस्थः शङ्कते - अथेति । का = कीदृशी इयं सप्तभङ्गी ? अत्र प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारसूत्रमेवोपदर्शयति में घटविशिष्ट पट को माना जाय या पटविशिष्ट घट को माना जाय ? इसमें कोई विनिगमक न होने से भूतल में दोनों को माने जाते हैं फिर भी तथाविध परिणाम में, जो घटादि में रहता है, कोई भेद नहीं होता है । इसी तरह यहाँ घट वेशिष्ट अवक्तव्यत्व माना जाय या कथंचित अवक्तव्यत्वविशिष्ट नित्यत्व माग जाय ? इस विवाद का कोई समाधान न होने पर भी घट में रहा हुआ वह परिणाम तो एक ही है। अतः आप उसे कथंचित् नित्यत्वविशिष्ट अवक्तव्यत्व कहो या कथंचित् अवक्तव्यत्त्वविशिष्ट नित्यत्व कहो, केवल शब्दभेद है, अर्थभेद नहीं । अतः नित्यत्व को केन्द्र बनाने पर सात धर्म से अधिक धर्म का अवकाश नहीं है। ॐ नित्यानित्याप आदि धर्म नातिविशेषात्मक - एकदेशीमत 3e नित्या, इति । व्याख्याकार श्रीमदजी उपर्युक्त विशेपणविशेप्यभावविषयक विनिगमनाविरह दोप का निवारण अन्य विद्वानों के मुख से कराते हैं। अन्य विद्वान मनीपिओं का यह कथन है कि -> 'नित्यानित्यत्व सखंडोपाधिस्वरूप नहीं है, किन्तु जातिविशेषात्मक ही है। जाति सदा के लिए अखंद होती है, सखंड नहीं । अतः कथंचित् नित्यत्वविशिष्टावक्तव्यत्व या कथंचित् अवक्तव्यत्वविशिष्ट नित्यल . ऐसा विशेषणविशेष्यभावविषयक विनिगमनाविरह नहीं है। <-। यह अन्य विद्वानों का कथन है । प्रत्येक वस्तु में उपर्युक्त रीति से जो सात धर्म सिद्ध होते हैं, इनका अवलंबन कर के ही अनेक स्थान में बताई हुई सप्तभंगी की संगति होती है । नित्यत्व को केन्द्र में रखने पर सात धर्म ही संभव है, न तो न्यून और न तो अधिक। इसलिए अन्यत्र भी सप्तभंगी का ही प्रतिपादन किया गया है त्रिभंगी या अभंगी आदि का नहीं । सप्तभंगीतश्पपविचार यहाँ यह प्रश्न हो कि -> 'यह सप्तभंगी क्या है ?' जिसके विषय में आप यह लंबा-चौड़ा निरूपण करते हैं ?

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