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का निराकरण कर, ब्रह्म सर्वशक्तिमान है अतः वह इन्द्रियरहित होकर भी जगत का निर्माण करता है, ऐसा सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं ।
द्वितीय
अध्याय - द्वितीय पाद
प्रथम अधिकरण
सांख्यसम्मत अचेतन भूर्भुवः आदि लोकों का कारण तो है ही इस मत का निराकरण कर सिद्धान्ततः प्रधान की अक्षमता मानते हुए ब्रह्म को ही इन लोकों का कारण स्वीकारते हैं ।
द्वितीय अधिकरण
केवल प्रधान जगत का पर तो वह हो ही सकता है मर्थता का निर्णय करते हैं ।
कारण भले ही न हो किन्तु पुरुष के सचेष्ट होने इस पूर्वपक्ष को निराकृत करते हुए उसकी अस
।
तृतीय अधिकरण
के परमाणु यणुक आदि से सम्भव सृष्टिवाद का निराकरण | चतुर्थ अधिकरण
इस अधिकरण में वाह्यादि मतों का निराकरण करते हैं उनका मत है कि परमाणु समूह और रूपादिस्कन्धपंचक समुदाय ऐसे दो समुदाय हैं । रूप स्कन्ध विज्ञान स्कन्ध, वेदना स्कन्ध, संज्ञा स्कन्ध और संस्कार स्कन्ध ये पांच स्कन्ध हैं । उपर्युक्त दोनों समुदायों के सम्बन्ध से ही जीव को संसार बंधन प्राप्त होता है तथा दोनों के विघटन से मोक्ष होता है । इस मत का सतर्क खण्डन करते हुए कहते हैं कि जब ये सभी को क्षणिक मानते हैं तथा जीवमात्र को क्षणिक मानते है तब दोनों समुदायों का संगठन सम्भव ही कैसे है फिर बन्धन मोक्ष की बात भी अनर्गल है |
पञ्चम अधिकरण
अब विज्ञान वाद सम्मत प्रपञ्चअसत्यत्व मत का निराकरण करते हैं । विज्ञान अतिरिक्त प्रपञ्च का अस्तित्व है या नहीं इस संशय पर पूर्वपक्ष अतिरिक्त अस्तित्व को नकारता है, सिद्धान्तः उसके अस्तित्व को स्वीकारते हैं ।
षष्ठ अधिकरण
अब जैन धर्म का निराकरण करते हैं—उनके मत में जीव और अजीव दो