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सुखोंका स्थान भरतक्षेत्र है । यह भरतक्षेत्र साक्षात् धनुष के समान है क्योंकि जिसप्रकार धनुषमें वाण होते हैं उसी प्रकार इसमें गंगा सिन्धु दो नदी रूपी बाण हैं । इस भरतक्षेत्रके मध्यभागमें रूपाचल नामका विशाल पर्वत है जो चारो ओरसे सिंधुनदीसे वेष्ठित है और जिसकी दोनो श्रेणी सदा रहने वाले विद्याधारोंसे भरी हुई हैं । यह भरतक्षेत्र, अत्यंत पवित्र है और गंगा सिंधु नामकी दो नदियोंसे तथा विजयार्द्ध पर्वतसे छै खंडोंमें विभक्त अतिशय शोभा को धारण करता है ।
इसी भरतक्षेत्रमें तीन खंडोंसे व्याप्त, पुण्यात्मा भव्यजीवोंसे पूर्ण, दक्षिण भागमें आर्यखंड शोभित है । इस देदीप्यमान आर्यखंडमें सुख तथा दुःखसे व्याप्त, पुण्य पापरूपी फलको धारण करनेवाला, सुखमासुखमादि छै कालोका समूह सदा प्रवर्तमान रहता है । इन छै प्रकारके कालोंमें प्रथमकाल सुखमा सुखमा है, जोकि शरीर आहार आदिकसे देवकुरू भोगभूमिके समान है । दूसराकाल सुखमा नामका है जिसमें मनुष्यके शरीरकी उचाई दो कोशके प्रमाण की रहती है, यह काल, स्थिति आहार आदिकसे हरिवर्ष क्षेत्रके समान है तथा शुभ है । तथा तीसराकाल दुखमा मुखमा नामक है, इसमें मनुष्योंके शरीरकी उचाई एक कोशके प्रमाण है । इसकी रचना जघन्य भोगभूमिके समान होती है । चौथा काल
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