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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
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और पुष्कर क्षेत्रमें उन्हें निवासस्थान देकर कहा- सुप्रभा, काञ्चना, प्राची, नन्दा और विशाला नामसे 'आपलोग आरामसे यहीं रहें।' तत्पश्चात् जटा और प्रसिद्ध पाँच धाराओंमें प्रवाहित होती हैं ! भूतलपर मृगचर्म धारण करनेवाले वे समस्त महर्षि ब्रह्माजीकी वर्तमान ब्रह्माजीकी सभामें-उनके विस्तृत यज्ञमण्डपमें यज्ञ-सभाको सुशोभित करने लगे। उनमें कुछ महात्मा जब द्विजातियोंका शुभागमन हो गया, देवतालोग वालखिल्य थे तथा कुछ लोग संप्रख्यान (एक समयके पुण्याहवाचन तथा नाना प्रकारके नियमोंका पालन करते लिये ही अन्न ग्रहण करनेवाले अथवा तत्त्वका विचार हुए जब यज्ञ-कार्यके सम्पादनमें लग गये और पितामह करनेवाले) थे। वे नाना प्रकारके नियमोंमें संलग्न तथा ब्रह्माजी यज्ञकी दीक्षा ले चुके, उस समय सम्पूर्ण वेदीपर शयन करनेवाले थे। उन सभी तपस्वियोंने भोगोंकी समृद्धिसे युक्त यज्ञके द्वारा भगवान्का यजन पुष्करके जलमें ज्यों ही अपना मुँह देखा, उसी क्षण वे आरम्भ हुआ। राजेन्द्र ! उस यज्ञमें द्विजातियोंके पास अत्यन्त रूपवान् हो गये। फिर एक दूसरेकी ओर उनकी मनचाही वस्तुएँ अपने-आप उपस्थित हो जाती देखकर सोचने लगे-'यह कैसी बात है? इस तीर्थमें थीं। धर्म और अर्थके साधनमें प्रवीण पुरुष भी स्मरण मुँहका प्रतिबिम्ब देखनेसे सबका सुन्दर रूप हो गया !' करते ही वहाँ आ जाते थे। देव, गन्धर्व गान करने लगे। ऐसा विचार कर तपस्वियोंने उसका नाम 'मुखदर्शन अप्सराएँ नाचने लगीं। दिव्य बाजे बज उठे। उस यज्ञको तीर्थ' रख दिया। तत्पश्चात् वे नहाकर अपने-अपने समृद्धिसे देवता भी सन्तुष्ट हो गये। मनुष्योंको तो नियमोंमें लग गये। उनके गुणोंकी कहीं उपमा नहीं थी। वहाँका वैभव देखकर बड़ा ही विस्मय हुआ। पुष्कर नरश्रेष्ठ ! वे सभी वनवासी मुनि वहाँ रहकर अत्यन्त तीर्थमें जब इस प्रकार ब्रह्माजीका यज्ञ होने लगा, उस शोभा पाने लगे। उन्होंने अग्निहोत्र करके नाना प्रकारकी समय ऋषियोंने सन्तुष्ट होकर सरस्वतीका सुप्रभा नामसे क्रियाएँ सम्पन्न की। तपस्यासे उनके पाप भस्म हो चुके आवाहन किया। पितामहका सम्मान करती हुई
थे। वे सोचने लगे कि 'यह सरोवर सबसे श्रेष्ठ है।' ऐसा वेगशालिनी सरस्वती नदीको उपस्थित देखकर मुनियोंको विचार करके उन द्विजातियोंने उस सरोवरका 'श्रेष्ठ बड़ी प्रसन्नता हुई। इस प्रकार नदियोंमें श्रेष्ठ सरस्वती पुष्कर' नाम रखा।
ब्रह्माजीकी सेवा तथा मनीषी मुनियोंकी प्रसन्नताके लिये . तदनन्तर ब्राह्मणोंको दानके रूपमें नाना प्रकारके ही पुष्कर तीर्थमें प्रकट हुई थी। जो मनुष्य सरस्वतीके पात्र देनेके पश्चात् वे सभी द्विज वहाँ प्राची सरस्वतीका उत्तर-तटपर अपने शरीरका परित्याग करता है तथा प्राची नाम सुनकर उसमें स्नान करनेकी इच्छासे गये। तीर्थोंमें सरस्वतीके तटपर जप करता है, वह पुनः जन्म-मृत्युको श्रेष्ठ सरस्वतीके तटपर बहुत-से द्विज निवास करते थे। नहीं प्राप्त होता । सरस्वतीके जलमें डुबकी लगानेवालेको नाना प्रकारके वृक्ष उस स्थानकी शोभा बढ़ा रहे थे। वह अश्वमेध यज्ञका पूरा-पूरा फल मिलता है। जो वहाँ तीर्थ सभी प्राणियोंको मनोरम जान पड़ता था। अनेकों नियम और उपवासके द्वारा अपने शरीरको सुखाता है, ऋषि-मुनि उसका सेवन करते थे। उन ऋषियोंमेंसे कोई केवल जल या वायु पीकर अथवा पत्ते चबाकर तपस्या वायु पीकर रहनेवाले थे और कोई जल पीकर । कुछ करता है, वेदीपर सोता है तथा यम और नियमोंका लोग फलाहारी थे और कुछ केवल पत्ते चबाकर पृथक्-पृथक् पालन करता है, वह शुद्ध हो ब्रह्माजीके रहनेवाले थे।
परम पदको प्राप्त होता है। जिन्होंने सरस्वती तीर्थम । सरस्वतीके तटपर महर्षियोंके स्वाध्यायका शब्द तिलभर भी सुवर्णका दान किया है, उनका वह दान गूंजता रहता था। मृगोंके सैकड़ों झुंड वहाँ विचरा करते मेरुपर्वतके दानके समान फल देनेवाला है-यह बात थे। अहिंसक तथा धर्मपरायण महात्माओंसे उस तीर्थकी पूर्वकालमें स्वयं प्रजापति ब्रह्माजीने कही थी। जो मनुष्य अधिक शोभा हो रही थी। पुष्कर तीर्थमें सरस्वती नदी उस तीर्थमें श्राद्ध करेंगे, वे अपने कुलकी इक्कीस