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राठौड़ ओर गहरवार आदि वंशों को विदेशियों से उत्पन्न हुआ मानते हैं।' उनका मत है कि राजपूतों के कुछ वंश आर्यों के और कुछ विदेशियों की संतान है।
___ भण्डारकर ने भी राजपूतों को विदेशियों की संतान माना है। उनका मत है कि उत्तरी पश्चिमी भारत गुजरात में बसी गूजर जाति, जिनका हूणों का निकट सम्बन्ध है, स्वयं को राजपूत ही मानते हैं।'
इतिहासकारों ने राजपूतों को विदेशियों की सन्तान मांना, क्योंकि प्राचीन साहित्य में राजपूत शब्द उपलब्ध नहीं है।
___ डा. स्मिथ ने राजपूतों के विदेशी मत को स्वीकार कर कहा कि शक, गुर्जर और हूण जातियां शीघ्र ही हिन्दू धर्म में मिलकर हिन्दू बन गई। उनमें से जिन कुटुम्बों और शाखाओं ने कुछ भूमि पर अधिकार कर लिया, वे तत्काल क्षत्रिय राजवर्ण में मिला दिये गये हैं। वे लिखते हैं कि इसमें कोई संदेह नहीं कि परिहार और उत्तर के कई राजपूत वंश इन्हीं जंगली समुदायों से निकले हैं, जो ईसा की पांचवी या छठी शताब्दी में भारत में आए थे। उन्होंने हिन्दूधर्म स्वीकार कर लिया
और उन्हीं से चंदेल, राठौड, गहरवाड़ आदि प्रसिद्ध राजपूत वंश निकले और उन्हीं ने अपनी उत्पत्ति को प्रतिष्ठित करने के लिये सूर्य चंद्र से जा मिलाया।
विलियम क्रूक ने भी यह दलील दी है कि चूंकि वैदिक क्षत्रियों और मध्यकालीन राजपूतों के समय में इतना अंतर है कि दोनों के सम्बन्धों को सच्चे वंशक्रम से नहीं जोड़ा जा सकता, इसलिये इनकी मान्यता यह है कि जो शक, शीचियन तथा हूण आदि विदेशी जातियां हिन्दू समाज में स्थान पा चुके थे और देश रक्षक के रूप में सम्मान प्राप्त कर चुके थे, उन्हें महाभारत और महाभारत कालीन क्षत्रियों से सम्बन्धित कर सूर्य और चंद्रवंशी मान लिया गया।' राजपूत विशुद्ध आर्य हैं
यह भ्रामक धारणा है कि राजपूत विदेशी हैं। वाल्मीकि रामायण में भी अश्वमेघ का उल्लेख है, इसलिये इस आधार पर राजपूतों का उद्गम शकों से मानना उचित नहीं है।
इन विदेशी विद्वानों का मत कल्पना की उड़ान है। राजपूतों की जिन प्रथाओं को कर्नल टाड ने शकों और हूणों से ली गई बताते हैं, वे प्रथाएं तो यहाँ वैदिक युग में वर्तमान थी। वैदिक युग में जब अपने पति जलंधर की मृत्यु का समाचार पतिव्रता वृंदा सुनती है, तो तुरंत चिता पर सती हो जाती है। रावण के बलात्कार करने पर कुशुध्वज ऋषि की पुत्री वेदवती अपने अपमान की पीड़ा न सहन करके तुरंत सती हो गई थी। रावण की पुत्रवधू सुलोचना और महाभारत
1. राजपूत वंशावली पृ. 1 2. वही, पृ. 1 3. वही पृ. 2 4. डॉ. गोपीनाथ शर्मा, राजस्थान का इतिहास, पृ. 31 5. वही, पृ. 32
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