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वह मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त ही है।
सत्यकेतु विद्यलंकार के अनुसार 'इस अनुश्रुति में कोई संदेह नहीं करते हैं कि चन्द्रगुप्त नाम का उजियिनी का एक राजा आचार्य भद्रबाहु के साथ श्रवणबोलगोल में आया था और वहाँ पहुँचकर अनशनव्रत कर स्वर्गलोक सिधारा है। परन्तु प्रश्न यही है कि चन्द्रगुप्त है कौन सा ? जैन साहित्य के अनुसार यह अशोक का पौत्र है। - चन्द्रगुप्त द्वितीय सम्प्राति के नाम से प्रसिद्ध है। सम्प्रति और भद्रबाहु की समकालीनता सिद्ध नहीं होती। अशोक के पौत्र सम्प्राति का राज्याभिषेक 40 ई.पू. हुआ, अर्थात् चन्द्रगुप्त प्रथम के राज्याभिषेक के 100 वर्ष पहले। उस समय भद्रबाहु का अस्तित्व किसी भी तरह सम्भव नहीं है। श्वेताम्बर परम्पराओं में सम्प्राति को जैनधर्म का महान् उद्धारक बताया है। आर्य सुहस्ती ने उसे जैन धर्म में दीक्षित किया था। श्वेताम्बर पट्टावलियों के अनुसार भद्रबाहु श्रुतकेवली के 7 5 वर्ष पश्चात् आर्य पदासीन हुए थे।
डा. स्मिथ के अनुसार 'चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्यकाल किस प्रकार समाप्त हुआ, इसका ठीक प्रकाश जैन कथाओं से ही पड़ता है। जैनियों ने सदैव उक्त मौर्य सम्राट को बिम्बसार के सदृश जैन धर्मावलम्बी माना है और उनके इस विश्वास को झूठ कहने के लिये कोई उपयुक्त कारण नहीं है। इसमें जरा भी संदेह नहीं कि शिशुनाग नंद और मौर्य राजवंशों के समय में जैनधर्म मगध प्रान्त में बहुत जोरों पर था। एक बार जहाँ चन्द्रगुप्त के धर्मवलम्बी होने की बात मान ली, फिर उनके राज्य को त्याग कर जैन विधि के अनुसार संल्लदेखना विधि के द्वारा मरण करने की बात सहज ही विश्वसनीय होती है।''
जैन ग्रंथों के अनुसार कि भद्रबाहु ने श्रमणबेलगोल में शरीर त्यागा। राजर्षि चन्द्रगुप्त ने उनसे बारह वर्ष पीछे समाधिमरण किया। इस बात का समर्थन श्रवणबेलगोला आदि के नामों, ईसा की सातवीं सदी के उपरान्त के लेखों तथा दसवीं शताब्दी के ग्रंथों से ज्ञात होता है।
बेलगोला के चन्द्रगिरि पर्वत, पार्श्वनाथ बस्ती के शिलालेख संख्या-1 में भद्रबाहु को श्रुतकेवली न बतलाकर निमित्त ज्ञानी और चन्द्रगुप्त के स्थान पर प्रभाचंद्र का उल्लेख किया है, किन्तु बेलगोला के शिलालेख संख्या 17, 18, 40, 54 और 108 में भद्रबाहु को श्रुतकेवली और चन्द्रगुप्त को उनका शिष्य बतलाया है।'
1. पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री, जैन साहित्य का इतिहास, पूर्वपीठिका, पृ343 2. सत्यकेतु विद्यालंभार, मौर्य साम्राज्य का इतिहास, पृ. 424 3. Dr. Smith, Oxford History of India, Page 75-76 4. जैन शिलालेख संग्रह, भाग-1
(1) श्री भद्रः सर्वतो योहि भद्रबाहुरिति श्रुतः । श्रुतके वली नाथेषु चरमः परमो मुनि ॥4॥ चन्द्रप्रकाशोज्जवल सान्द्र कीर्ति: श्री चन्द्रगुप्तोऽजनि तस्य शिष्य। (2) श्री भद्रबाहुः श्रुतकेवलीनां मुनीश्वराणाम्मिह पश्चिमोऽपि। अपश्चियमोऽभूत् विदुषां विजेता सर्वश्रुतार्थ प्रतिपादनेन ॥8॥ तदीय शिष्यो जनि चन्द्रगुप्त: समग्रशीलानत देववृद्धः ।
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