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jia भारत के उच्च धर्माचार्यों के पुण्यलोक इतिहास में उच्चतम पुरुषों में थे। उन्होंने जैन साहित्य में महान् योगदान रूप विशाल ग्रंथ राशि अर्पित की है। उसी प्रकार उन्होंने जैन योग साहित्य का सर्वप्रथम संकलन किया है। जैन योग साहित्य के नवनवीन युग के सर्वप्रथम उद्भावक थे । ' हरिभद्रसूरि केवल ग्रंथकार ही नहीं थे, अपितु सर्वतोमुखी प्रतिभासम्पन्न महाकवि भी थे । वे जैन परम्परा के महान् साहित्यकार और समाज व्यवस्थापक ही नहीं, अपितु योग साहित्य के प्रथम निर्माता, समभाव के स्पष्ट उद्गाता और स्याद्वाद के प्रमुख प्रचारक सरल महात्मा पुरुष थे । जैन परम्परा को उनकी देन महान् है। उनका उत्सर्ग अविस्मरणीय है और उनकी विरासत अनमोल और अमर है ।' 'समराहच्चकहा' इनका महान् ग्रंथ है ।
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हरिभद्रसूरि के परवर्ती आचार्य भी हरिभद्र के ही अनुगामी रहे हैं, इसलिये मुनि सुशील 1000 तक के काल को हरिभद्रयुग की संज्ञा दी है।
वास्तव में जातियों का इतिहास भी स्पष्ट रूप से यहीं से प्रारम्भ होता है। इसीकाल में जातियाँ और उपजातियां बनी। इसी युग से भारत में जातियों का महाजाल फैला। विद्याधरगच्छीय हरिभद्रसूरि ने पोरवालों को दीक्षित किया ।
इसी युग में उद्योतनसूरि (वि. स. 834 ) ने बाणभट्ट की रचनाशैली के आधार पर अमूल्यकृति 'कुवलयमाला' की रचना की । बप्पभट्टसूरि ( जन्म वि. स. 800, मृत्यु वि.स. 875) ने बंगाल के लक्षणावती नगर के राजा को प्रबोध दिया, प्रसिद्ध चावड़ा वंश पर प्रभाव छोड़ा, आमराज्य के पुत्र भोज राजा पर इनका प्रभाव था। जैनधर्म को प्रचार के द्वारा फैलाने वालों में ये प्रभावशाली आचार्य थे। शीलांकाचार्य (वि.स. 925) ने 10000 श्लोकों का “महापुरुष चरित' नामक वृहद ग्रंथ की रचना की, आचरांगसूत्र और 'सूत्रकृतांग' पर वि. सं. 933 में संस्कृत भाषा में टीकाएं लिखी । सिद्धर्षि सूरि (वि.स. 962 ) - महान् जैनाचार्य थे, जिन्होंने “उपमिति भव प्रपंच कथा' नामक विशाल रूपक ग्रंथ की रचना की । भारतीय साहित्य में अलंकारमयी संस्कृत के कारण इसका विशिष्ट स्थान है। जम्बूस्वामी नाग (वि.स. 1005) ने 'मणिपति चरित्र ' ग्रंथ की रचना की । वैदिक शास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित पद्युम्नसूरि सपादलक्ष और त्रिभुवनगिरि के राजाओं को जैनधर्म की दीक्षा दी। जैनदर्शन के प्रकाण्ड पण्डित अभयदेव सूरि न्याय के विशालभवन
शरी थे, तर्क पंचानन में निष्णात थे । धनेश्वर सूरि (ग्यारहवीं शताब्दी) का धारा नगरी के महाराजधिराज मुंज पर गहरा प्रभाव था । इन्होंने अपने गच्छ का नाम चंद्रगच्छ से बदलकर
राजगच्छ रखा ।
धनपाल मुंज के राजसभा के पण्डित थे, जिन्होंने जैन सिद्धान्तों के अनुरूप 'तिलकमंजरी' नामक संस्कृत में आख्यायिका लिखी । धनपाल के ही भ्राता शोभन ने चौबीस तीर्थंकरों की स्तुतियां लिखी ।
आचार्य शांतिसूरि (ग्यारहवीं शताब्दी) ने 'उत्तराध्ययन' सूत्र पर टीका लिखी और
1. मुनि सुशीलकुमार, जैनधर्म का इतिहास, पृ 203
2. वही, पृ 205
3. वही, पृ 214
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