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196 दिन देवयोग से राजा के जामात्र त्रैत्रोलसिंह को रात्रि में भयंकर सर्प ने डस लिया। इस समाचार से सारे शहर में हाहाकार मच गया। बहुत से मंत्र तंत्र शास्त्री इलाज करने के लिए आए, मगर परिणाम न हुआ। अंत में जब उसे श्मशान यात्रा के लिए ले जाने लगे तब किसी ने आचार्य श्री का इलाज करवाने की भी सलाह दी। जब राजकुमार की रथी आचार्य श्री के स्थान पर लाई गई, तो आचार्य श्री के शिष्य वीर धवल ने गुरुमहाराज के चरणों का प्रक्षालन कर राजकुमार पर छिड़क दिया। ऐसा करते ही वह जीवित हो उठा। इससे सब लोग बड़े प्रसन्न हुए और राजा ने आचार्य श्री से प्रसन्न होकर अनेकों थाल बहुमूल्य जवाहरातों से भरकर आचार्य श्री के चरणों में रख दिये। इस पर आचार्य श्री ने कहा कि राजन ! हम त्यागियों को इस द्रव्य और वैभव से कोई प्रयोजन नहीं है। हमारी इच्छा तो यह है कि आप लोग मिथ्यात्व को छोड़कर परमपवित्र जैनधर्म को श्रद्धा सहित स्वीकार करें, जिससे आपका कल्याण हो, इस पर सब लोगों ने प्रसन्न होकर आचार्य श्री का उपदेश स्वीकार किया और 12 व्रतों को श्रवणकर जैनधर्म को स्वीकार किया। तभी से
ओसियां नगरी के नाम से इन लोगों की गणनाओसवाल वंश में की गई। कुछ ग्रंथों में इस कथा में थोड़ा हेरफेर है। इनमें राजा के जामात्र के स्थान पर राजा के पुत्र का उल्लेख है। कहीं कहीं पर ऐसा भी उल्लेख है कि देवी के कहने पर आचार्य रत्नप्रभ सूरि ने रूई की पूणी का सर्प बनाकर भरी सभा में राजा के पुत्र को काटने के लिये भेजा था।
इसके पूर्व चामुण्डा माता के मंदिर में नवरात्रि के अवसर पर भैंसों और बकरों का बलिदान हुआ करता था। आचार्य श्री ने उसको रोककर उसके स्थान पर लड्डू, चूरमा, लापसी, खोया नारियल इत्यादि सुगंधित पदार्थों से देवी की पूजा करने का आदेश दिया। इससे चामुण्डा देवी बड़ी नाराज हुई और उसने आचार्य श्री की आंख में तकलीफ पैदा कर दी। आचार्यश्री ने बड़ी शांति से इस तकलीफ को सहन किया। चामुण्डा ने जब आचार्य को विचलित होते न देखा तब वह बड़ी लज्जित हुई और आचार्य श्री से क्षमा मांगकर सम्यक्त्व को ग्रहण किया। उसी समय से उसने प्रतिज्ञा की कि आज से मांस और मदिरा तो क्या लालरंग का फूल भी मुझ पर नहीं चढ़ेगा
और मेरे भक्त जो ओसियां में स्वयंभू महावीर की पूजा करते रहेंगे, उनके संकट को मैं दूर करूंगी। तभी से चामुण्डादेवी का नाम सच्चिया देवी पड़ गया और आज भी यह मंदिर सच्चिया माता के मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। जहाँ पर अभी भी बहुत से ओसवालों के बालकों का मुण्डन संस्कार होता है।
ऐसा कहा जाता है कि उसी समय उहड़ मंत्री ने महावीर प्रभु का मंदिर तैयार करवाया और उसकी मूर्ति स्वयं चामुण्डा देवी ने बालूरेत और गाय के दूध में तैयार की, जिसकी प्रतिष्ठा स्वयं रत्नप्रभसूरि ने मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी गुरुवार को अपने हाथों से की। ऐसा कहा जाता है कि ठीक इसी समय कोरंटपुर नामक स्थान में भी वहाँ के श्रावकों ने श्री वीरप्रभु के मंदिर की स्थापना की, जिसकी प्रतिष्ठा का मुहूर्त भी ठीक वही था जो कि उपकेशपट्टण के मंदिर की प्रतिष्ठा का था। दोनों स्थानों पर अपनी विद्या के प्रभाव से आचार्य श्री ने स्वयं उपस्थित होकर प्रतिष्ठा करवाई।
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