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214 थे। यहाँ भी पमाड़ गोत्र ही माना है। दोनों मण्डोवर आए। वर्धमान के पाट पर विक्रम संवत् 52 में रत्नप्रभसूरि पाट पर विराजे। वे ओयसा नगर पधारे। इन्होंने चार लाख चौरासी हजार राजकुलों में प्रतिबोध दिया और इस तरह श्री रत्नप्रभसूरि ने ओयसा नगर में ओसवाल जाति की स्थापना की।' श्रावण पक्ष के 24 संवत में सूर्यवार अष्टम को ओसवंश की स्थापना हुई। इस कवित्त में 18 गोत्रों की स्थापना का भी वर्णन है।
(3) राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, बीकानेर में उपलब्ध गुटके इन कवित्तों में ओसवाल की जाति की उत्पत्ति सम्बन्धी छन्द एशियाइटिक सोसाइटी के गुटकों छन्दों के लगभग समान है। अंतिम गुटका वेलानुत्तरदास द्वारा लिखित है । इस गुटके और साधु-बेलाराम और सुखराम के गुटके में छन्द साम्य निम्ननुसार है।
वर्धमाण जिण थका पीढ़ी बारमी पद लीधो श्री रतन प्रभ सूर नाम ते सत गुर दीधो । ते सुं अठ दस बरस नगर ओईसा आए प्रतिबोधी चामुंड नाम ते , साचल पाए । चार लाख चौरासी सहस थिर राजपुत्र प्रतिबोधिया श्री रतन प्रभसूरि ओईसा आवीया ओसवाल थिरपंथपीया। सावण पख सितात, संवत् बीये बाई से अरकवार आठम ओईस वंश हुयो । उपदेशे प्रतिबोध्या प्रमार उपल जिण धरमा आयो प्रथम गौत सौ पांच नांवल सहित बंधराईयो । मण नव जनोई ब्राह्मणां असंयन रे उतारीया भोजन जीमाकु भोजगां कीया थित आरिमकीरीया ।। प्रथम गोत तातेड़ बीया बाफणी बहादुर ।। कहं तीया कर्णाट बल मोरक सहोदर । कु रहद विरहट सघन श्री श्रीमाल सुजाणां डीडु लघु खंडेलवाल वेद पारख बखाणां ।। आदित्यनाथ मूरज कहै कू भट चींचट कनोजीया
श्री रतन प्रभ जग में अचल, उसवाल थिथं पीया ।।
गुटका संख्या 2 क्रमांक 3334 में दो ही पद्य है, इसके अनुसार भी रत्नप्रभसूरि ओसिया पधारे । इन्होंने चार लाख चौरासी हजार राजकुलों को प्रतिबोधित किया और इस तरह ओसवाल जाति की स्थापना की। यह उन्होंने 24 संवत् के श्रावण के शुक्ल पक्ष में किया। इस दिन रविवार था और अष्टमी थी। यह गुटका 1828 विक्रम संवत् का लिखा प्रतीत होता है। उसवाल गोत्रांरो
श्री वर्धमान जिन थकी पीढ़ी बारह पद लियो श्री रतन प्रभ सूरि नाम दाउल गुरु दियो
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