________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
410
भगवान महावीर ने स्पष्ट कहा, अपरिमित परिग्रह अनन्त तृष्णा का कारण है, वह बहुत दोषयुक्त है तथा नरकगति काम मार्ग है। अत: परिग्रह परिमाणाणुव्रती विशुद्ध चित्त श्रावक को क्षेत्र-मकान, सोना-चाँदी, धनधान्य, द्विपद-चतुष्पद तथा भण्डार (संग्रह) आदि परिग्रह के अंगीकृत परिमाण का अतिक्रमण नहीं करना चाहिये।'
___ महावीर ने श्रमण के अपरिग्रह महाव्रत के संदर्भ में आदेश दिया, निरपेक्ष भावनापूर्ण चारित्र का भार वहन करने वाले साधु का बाह्यामंतर सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करना पांचवा महाव्रत, त्याग नामक महाव्रत है। भगवान महावीर ने परिग्रह को परिग्रह नहीं, मूर्छा कहा।' महावीर ने कहा, साधु लेखमात्र भी संग्रह न करें, पक्षी की तरह संग्रह से निरपेक्ष रहते हुए केवल संयमोपकरण के साथ विचरण करें; संस्तारकशय्या, आसन और आहार का अतिलाभ होने पर भी जो अल्प इच्छा रखते हुए अल्प से अपने को संतुष्ट रखता है, अधिक ग्रहण नहीं करता, वह संतोष से ही प्रधान रूप से अनुरक्त रहने वाला साधु पूज्य है।'
अत: जैनमत में त्रिरत्न व्यक्ति के मोक्ष की प्राप्ति के वैयक्तिक मूल्य है और इन वैयक्तिक मूल्यों के द्वारा वह श्रमण पंच महाव्रतों और श्रावक पांच अणुव्रतों की सहायता से जीवनरूपी वैतरणी को पार कर सकता है। पांच महाव्रत/अणुव्रतों के स्तम्भों पर ही जैनमत का सांस्कृतिक भवन- एक नये समाज रचना और नयी संस्कृति की रचना का दायित्व है। रोमांरोलां ने स्पष्ट कहा कि जिन ऋषियों ने हिंसा के मध्य अहिंसा के नियम की संस्थापना की वे न्यूटन से अधिक प्रतिभाशाली और वैलिंगटन से बड़े योद्धा थे। जैनमत में मूल्यों की स्थापना है, व्यावहारिक
1. समणसुत्तं, पृ102-103
विरया परिग्गहाओ, अपरिमिआओ अणंततण्हाओ। बहुदोससंकुलाओ, नरयगइगमणपंथाओ ॥ खित्ताई हिरण्णाई धणाइ दुपवाइ- कुवियगस्स तहा।
सम्म विसुद्धचित्तो, न पमाण इक्कम कुज्जा ।। 2. वही, पृ 120-121
सव्वेसिं गंथाणं, तागो णिरवेक्खभावणा पुव्वं ।
पंचभवदमिदि भणिदं, चारित्त वहंतस्स ॥ 3. वही, पृ 120-121
न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा ।
मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इइ थुतं महेसिणा ।। 4. समणसुत्तं, पृ 122-123
सन्निहिं च न कुव्वेजा, लेव मायाए संजए ।
पक्खी पत्तं समादाय, निरवेक्खो परिव्वए ।। 5. वही, पृ122-123
संथारसेज्जासणभत्तपाणे, अप्पिच्छया अइलाये वि संते।
एवप्मपाणाभितोसएज्जा, संतोसपाहन्नरए सुज्जो ।। 6. T.G. Kalghatgi, Study of Jainism, Page 191
The Rsis who discovered the law of non-violence in the midst of violence were greater genious than Newton, greater warriors than Wellington.
For Private and Personal Use Only