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श्रावक धर्म के लिये सत्य दूसरा अणुव्रत है। भगवान महावीर ने कहा, स्थूल रूप में असत्य विरति दूसरा अणुव्रत है। इसके भी पांच भेद हैं- कन्या अलीक, गो अलीक, भूअलीक, यथा भूमि के विषय में झूठ बोलना, किसी की धरोहर को दबा देना और झूठी गवाही देना। इसका त्याग असत्य विरति है, सत्य अणुव्रती सहसा न कोई बात कहता है, न किसी का रहस्योद्घाटन करता है, न अपनी पत्नी की कोई गुप्त बात मित्रों आदि में प्रकट करता है, न मिथ्या उपदेश करता है और न कूटलेख क्रिया करता है।
___अचौर्य तृतीय महाव्रत/अणुव्रत है। भगवान महावीर ने स्पष्ट कहा, अचौर्याणुव्रती श्रावक को न चोरी का माल खरीदना चाहिये, न चोरी में प्रेरक बनना चाहिये, न ही राज्यविरुद्ध कोई कार्य करने चाहिये, ग्राम, नगर अथवा अरण्य में दूसरे की वस्तु को देखकर उसे ग्रहण करने वाले भाव त्याग देने वाले साधु के लिये तीसरा अचौर्यव्रत होता है, सचेतन अथवा अचेतन अथवा बहुत यहाँ तक की दांत साफ करने की सींक तक भी साधु बिना दिये ग्रहण नहीं करते।
ब्रह्मचर्य जैनमत का चतुर्थ महाव्रत/अणुव्रत है। श्रमण के लिये ब्रह्मचर्य काअक्षरश: पालन और श्रावक के लिये विवाहित जीवन की सीमा में रहना ही ब्रह्मचर्य है। महावीर ने कहा, स्वस्त्री में सन्तुष्ट ब्रह्मचर्याणुव्रती श्रावक को विवाहित या अविवाहित बदचलन स्त्रियों से सर्वथा दूर रहना चाहिये, अनंग क्रीड़ा नहीं करनी चाहिये, अपनी सन्तान के अतिरिक्त दूसरों के विवाह आदि कराने में दिलचस्पी नहीं लेनी चाहिये और काम सेवन की तीव्र लालसा का त्याग करना चाहिये; मैथुन संसर्ग अधर्म का मूल है, महान् दोषों का समूह है, इसलिये ब्रह्मचर्यव्रती निग्रंथ साधु मैथुन सेवन का सर्वदा त्याग करते हैं; वृद्धा, बालिका और युवती- स्त्री के इन तीन प्रतिरूपों 1. वही, पृ100-101
थूल मूसावायस्स उ, विरई दुचं, स पंचहा होई ।
कन्नागोभु आल्लिय- नासाहरण- कूड साक्खज्जे ॥ 2. समणसुत्तं, पृ 100-101
सहसा अब्भक्खाणं, रहसा य सदारमंत भेयं च।
मोसोवएसयं, कूडलेहकरणं च वजिज्जा । 3. समणसुत्तं, पृ 102-103
वजिज्जा तेनाहड- तक्करजोगं विरुद्धरजं च ।
कूडतुलकूडमाण तप्पडिरूवं च ववहारं ॥ 4. वही, पृ118-119
गामे वा णयरे वा, रणे वा पेच्छिऊण परमत्थं ।
जो मुंचदि गहणभावं, तिदियवदं होदि तस्सेव ।। 5. वही, पृ 118-119
चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं ।
दंतसोहणमेतं वि. ओग्गहंसि अजाइया ॥ 6. समणसुत्तं, पृ102-103
इत्तरियपरिगाहिया- उपरिगहियागमणा-णंगकीडंच।
परविवाहक्करणं, कामे तिव्वामिलासं ॥ 7. वही, पृ120-121
मूलमे अमहम्मस्स महादोसमुस्सयं । तम्हा मेहुणसंसग्गिं निग्गंथा वज्जयंति णं ।।
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