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419 24. देवचंद सूरि
1. शांतिनाथ चरित (प्राकृत- गद्य पद्यमय) 25. देवसूरि- जीवानुशासन 26. मुनिचंद्रसूरि (वृहदगच्छ), अनेक वृतियां और चूर्णिया) 27. मलधारी हेमचंद्रसूरि
1. धर्मोपदेशमाला (वि.सं. 1195)
2. मुनि सुव्रतचरित (वि.सं. 1993) 28. श्रीचन्द्रसूरि- सनतकुमार चरित (सं 1214- प्राकृत में) 29. मुनिरत्नसूरि (चन्द्रगच्छीय) अभयस्वामी चरित (आगामी तीर्थंकर) 30. सोमप्रभसूरि (तपागच्छ)
1. सुमतिनाथ चरित 2. सूक्तिमुक्तावली 3.शतार्थकाव्य
4. कुमारपाल प्रतिबोध
राजस्थान में श्रमणों और श्रावकों ने राजस्थान की सांस्कृतिक और साहित्यिक परम्परा को अक्षुण्ण रखा है। राजस्थान के साहित्यिक आन्दोलन में ओसवंशियों का महत्वपूर्ण योग रहा है। ओसवंशियों के द्वारा सृजित साहित्य ने जैनमत के सांस्कृतिक प्रतिमानों के संरक्षण, सम्प्रेषण
और सूजन में योग दिया है। 13वीं शताब्दी तक राजस्थान के जैन साहित्य का स्वर्णकाल माना जाता है, तेरहवीं शताब्दी तक आगम, दर्शन, साहित्य, आगमिक व्याख्याएं और काव्यग्रंथ आदि मूलरूप में लिखे गये। विभिन्न कथानकों एवं चरितनायकों पर मौलिक साहित्य की रचना हुई। तेरहवीं शताब्दी के पश्चात् व्याख्यात्मक साहित्य की सर्जना की गई, उनमें भाष्य, टीका, बालावबोध, वृतियां, चूर्णियां, वचनिकाएं आदि लिखी गई । जैन साहित्यकारों- ओसवंशीय साहित्यकारों का उद्देश्य जैनमत के सांस्कृतिक प्रतिमानों का संरक्षण और सम्प्रेषण था, पण्डित्य प्रदर्शन नहीं।
___ जैन साहित्य भ्रमणशील मुनियों द्वारा रचा गया। राजस्थान प्राकृत साहित्य का प्रारम्भ चौथी-पाँचवी शताब्दी में हो गया। प्राकृत के अतिरिक्त अपभ्रंश, संस्कृत, राजस्थानी और हिन्दी में विपुल साहित्य रचा गया।
जैन साहित्यकारों- ओसवंशीय साहित्यकारों के लिए साहित्य धार्मिक आचार की पवित्रता का प्रतिमान था। इन साहित्यकारों ने अधिकांश साहित्य लोकभाषा में रचा। उत्तर मध्यकाल में तो राजस्थानी और हिन्दी ने प्राकृत और अपभ्रंश का स्थान ग्रहण कर लिया। 17वीं 18वीं शताब्दी में विपुल मात्रा में हिन्दी में गद्य पद्य साहित्य रचा गया।
राजस्थानी जैन साहित्य की विशालता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि यहाँ के जैनशास्त्र भण्डारों में लगभग 3 लाख हस्तलिखित पाण्डुलिपियाँ, ताड़पत्रों एवं कागजों 1. डॉ. (श्रीमती) राजेश जैन, मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म, पृ 330
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