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420 पर निबद्ध साहित्य सुरक्षित है।' इस संदर्भ में अनुसंधान की आवश्यकता है कि इनमें कितनों के रचयिता ओसवंशी है। श्वेताम्बर जैन परम्परा का अधिकांश साहित्य ओसवंशी साहित्यकारों द्वारा सृजित है।
चरित काव्य में जैन साहित्य ने प्रमुख काव्यरूपों- रास, चौपाई, ढाल, पवाड़ा संधि, चर्चरी, प्रबन्ध, चरित, आख्यानक और कथा आदि है। उत्सव कव्यरूपों में फागु, धमाल, बारहमासा, विवाहलो, धवल, मंगल आदि हैं। गद्यरूपों में टब्बा और बालावबोध मुख्य है।
जैन साहित्य ने आध्यात्मिक चेतना की अभिव्यक्ति की, लोकजीवन की समकालीन घटनाओं को मुख्य अभिव्यक्ति दी और इस प्रकार जैन साहित्य समाज का दर्पण ही नहीं, किन्तु जैनमत के सांस्कृतिक प्रतिमानों का प्रतिबिम्ब ही नहीं किन्तु जैनमत के आदर्शात्मक रूपों का सार और निचोड़ है। राजस्थानी और उत्कृष्ट जीवन आदर्शों को लोकभाषा में लोक कल्याण हेतु अभिव्यक्त किया। यह समस्त साहित्य लोक मंगलकारी है। प्रमुख जैन प्राकृत साहित्य
राजस्थान के जैन साहित्यकारों में प्राकृत के प्रमुख साहित्यकार हरिभद्र सूरि, उद्योतनसूरि, जयसिंह सूरि, पद्मनंदि, दुर्गदेव, बुद्धिसागर सूरि, जिनेश्वरसूरि, धनेश्वर सूरि, जिनचंद्र सूरि, जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि, हेमचंद्र सिंह कवि, जिनचंद्र सूरि, नेमिचंद भण्डारी, यशश्चन्द्र, जिनप्रभसूरि, जिनकुशलसूरि, गुण समृद्धि महत्तरा, जिनहर्षगणी, हीरकलाश, भट्टारक रामचंद्र
और समय सुन्दर आदि मुख्य है। प्रमुख जैन अपभ्रंश साहित्य
अपभ्रंश के साहित्यकारों में हरिषेण (धर्मपरिक्खा) धनपाल प्रथम (महावीर जिनालम सम्बन्धी रचना), धनपाल द्वितीय (भविसयत्तकहा) घाटिल (पडमसिरी चरिय), लक्खण (जिनदत्त चरिउ), विनयचंद्र (नेमिनाथ चतुष्पादिका, उपदेशमाला कल्याण), जिनदत्तसूरि (चर्चरी, उपदेशरसायनरास, काल स्वरूप कुलकाम), जिनप्रभसूरि (ज्ञानप्रकाश) अमरकीर्ति (चक्कम्मोवरास, पुरन्दरविधान कथा), श्रीचंद्र (कथाकोश, रत्नकरणश्रावकाचार), यशकीर्ति (हरिवंशपुराण, पाण्डवपुराण) विबुध श्रीधर ( सुकुमाल चरिउ और भविसयत्त चरिउ, पासनाहचरिउ) आदि मुख्य हैं। डा. देवेन्द्रकुमार ने राजस्थान के ग्रंथ भण्डारों में उपलब्ध 968 प्रतियों का विशेष विवरण दिया है। प्रमुख जैन संस्कृत साहित्य
___ जैन संस्कृत साहित्य में लेखक उमास्वाति के तत्वार्थसूत्र' से प्रारम्भ होता है। जैन साहित्यकारों ने महाकाव्य, पुराण, चरित, कथा, नाटक आदि लिखे। पौराणिक, ऐतिहासिक और शास्त्रीय महाकाव्य रचे गये, उनमें धार्मिक भावना की प्रधानता है। आचार्य रविषेण
1. मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म, पृ416 2. वही, पृ417 3. डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री, अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोधप्रवृतियां, पृ 33-17
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