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434 ही नहीं, कला तीर्थ भी है। 1442 ई में मेह कवि ने इसे 'त्रैलोक्य दीपक कहा। इसे आदिनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। इसमें राजस्थान की जैनकला और धार्मिक परम्परा का अपूर्व प्रदर्शन हुआ है। यह 48000 वर्गफुट जमीन पर निर्मित है। इस मंदिर में कुल 24 मण्डप, 84 शिखर और 1444 स्तम्भ हैं। स्तम्भों का संयोजन ऐसा है कि कोई भी स्तम्भ प्रतिमा के देखने में बन्धक नहीं है। वास्तुशास्त्री फर्ग्युसन के अनुसार “मैं ऐसा अन्य कोई भवन नहीं जानता जो इतना रोचक और प्रभावशाली हो या जो स्तम्भों की व्यवस्था में इतनी सुन्दरता व्यक्त करते हो।।
ऋषभदेव (केसरिया जी) तीर्थ- यह उदयपुर से 64 किलोमीटर दूर धुलेव नामक ग्राम में है। भील लोग ऋषभदेव की श्याम प्रतिमा को 'कारिया बाबा' कहते हैं। यहाँ कुल 72 पाषाण की मूर्तियां है, जिससे केवल 9-10 श्वेतवर्ण की है। इस मन्दिर के बारे में श्वेताम्बरदिगम्बरों में उग्रमतभेद रहा है। ऐसा कहा जाता है कि 13वीं शताब्दी के अंत में यह गुजरात से लाई गई। केसरिया जी की प्रतिमा विश्वविश्रुत मानी गई है।
नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ- यह जसोलगांव से 5 किलोमीटर दूर स्थित है। इसका इतिहास पुराना है। नगर का प्राचीन नाम 'महेवा' या 'वीरमपुर' भी मिलता है। ऐसा माना जाता है कि यह नगर ईसा से 54 वर्ष पर स्थापित हुआ था और आचार्य स्थूलिभद्र ने वीरमपुर में चन्द्रप्रभु की ओर नाकोर नगर में सुविधिनाथ की जिन प्रतिमाएं प्रतिष्ठित करवाई और फिर वीर निर्वाण संवत् 281 में सम्प्रति, वीर निर्वाण संवत् 505 में उज्जेन के विक्रमादित्य और वीर निर्वाण संवत् 532 (5 ई) में मानतुंगसूरि ने इन मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया। 1158 ई में आचार्य देवसूरि ने वीरमपुर व 1164 ई में नाकोर में जीर्णोद्धार करवाकर प्रतिष्ठा करवाई। इसके पश्चात् 852 ई में वीरमपुर निवासी तातेड़ गोत्रीय हरकचन्द्र ने जीर्णोद्धार करवाकर महावीर स्वामी की प्रतिष्ठा
कराई।
राजस्थान के बाहर भी श्वेताम्बर परम्परा के जैनतीर्थों के निर्माण और प्रतिष्ठाएँ और जीर्णोद्धार आदि में ओसवंशीय श्रावकों का महत्वपूर्ण योग रहा है।
'तक्षशिलातीर्थ' में मानदेवसूरि प्रबन्ध के अनुसार एक समय यहाँ 500 मंदिर थे। श्री धनेश्वरसूरि कृत 'शत्रुजय महात्म्य' के अनुसार तक्षशिला के महाजन श्रेष्ठि भावड़शाह के पुत्र जावड़शाह ने वि.सं. 187 में शत्रुजय तीर्थ का उद्धार किया और तक्षशिला से भगवान ऋषभ की मूर्ति लेजाकर वहाँ प्रस्थापित की।
शजय तीर्थ जैनों के प्राचीनतम तीर्थों में एक है। संवत् 477 में आचार्य धनेश्वरसूरि के महाराजा शिलादित्य के समय शत्रुजय महात्म्य किया। सं 1682 में रचित समयसुन्दर उपाध्याय
1. History of Indian & Eastern Architecture, Part I, Page 240-242. 2. भारत के दिगम्बर जैनतीर्थ, पृ 106-126 3. वीर निर्वाण स्मारिका, 1975, पृ2-21 4. वही, पृ2-21 5. इतिहास की अमरबेल, ओसवाल, प्रथम भाग, पृ. 280
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