Book Title: Osvansh Udbhav Aur Vikas Part 01
Author(s): Mahavirmal Lodha
Publisher: Lodha Bandhu Prakashan

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Page 455
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 426 डा. कुमारस्वामी ने इसे जैनकला, एन.सी. मेहता ने 'गुजराती शैली', रामकृष्णदास ने 'अपभ्रंशशैली'', तिब्बती इतिहासज्ञ तारानाथ ने 'पश्चिम भारतीय शैली' कहा। साराभाई नवाब ने इसे 'पश्चिमी जैन शैली 2 कहा है। जैन चित्रकला का समय 3वीं से 16वीं शताब्दी के मध्य माना जाता है। इसके पश्चात् जैनशैली ने मुगल शैली के साथ संयुक्त होकर 16वीं शताब्दी के पश्चात राजस्थान की विविध शैलियों को जन्म दिया। राजस्थानी चित्रकला का प्रारम्भ ताड़पत्रीय ग्रंथों से माना जाता है। जैसलमेर के जिनभद्रसूरि ज्ञानभण्डार में 'दशवैकालिक सूत्र चूर्णि' और 'ओघनिर्युक्ति' के रूप में देखा जा सकता है । राजस्थान में जैनकला वस्त्रों और काष्ठफलक पर भी मिले हैं। सबसे प्राचीन काष्ठफलक 'सेठ शंकरदास नाहटा कला भवन' में है। 12वीं शताब्दी के उपरान्त भी ताड़पत्रीय ग्रंथों की परम्परा सतत् रही है । चित्रनिर्माण के लिये कागज का प्रयोग 14वीं शताब्दी के पश्चात् हुआ । 14वीं शताब्दी से ही वस्त्रांकित ग्रंथ और चित्र मिलना प्रारम्भ हो जाते हैं। 17वीं से 18वीं शताब्दी के भित्ति चित्र अनेक स्थानों पर सुरक्षित है । लघुचित्रशैली, सचित्र कागजग्रंथ, सचित्र वस्त्रपट्ट, काष्टफलक, विज्ञप्तिपत्र आदि के रूप में मिलते हैं। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ताड़पत्रीय चित्रों में तीर्थंकरों, देवी देवियों, मुनियों और धर्मरक्षकों की आकृतियां है। यह कहा गया है कि पश्चिम भारत में उत्पन्न चित्र शैली नख-शिख, रंगविधान एवं रेखा सौष्ठव की दृष्टि से राजस्थानी शैली या अन्य किसी भी चित्र शैली से भिन्न है। इसका आलेखन अजंता की बौद्ध शैली के पर्याप्त निकट है।' जैनचित्रों का आलेखन मुख्यत: नागौर, जालोर, जोधपुर, बीकानेर, चित्तोड़, उदयपुर, जैसलमेर, पाली और कुचामन आदि क्षेत्रों में हुआ । जैन मूर्तिकला तीर्थंकरों की मूर्तियां दो रूपों में मिलती है- 1. कायोत्सर्गमुद्रा (खड़ी हुई), 2. पद्मासन मुद्रा (बैठी हुई) । 8वीं शताब्दी के पूर्व और गुप्तकाल में राजस्थान में धातु प्रतिमाएं उपलब्ध होने लगी । कलात्मक दृष्टि से जैन मूर्तियों में धातु प्रतिमाएं बहुत महत्त्वपूर्ण है। इन धातु प्रतिमाओं में वैविध्य है, वह पाषाण प्रतिमाओं में नहीं है। बसन्तगढ़ में प्राप्त 687 ई की 4 फुट ऊँची दो खड़गासन सवस्त्र धातु प्रतिमाएं धातु मूर्तिकला में नया अध्याय जोड़ती है । इनमें गांधारशैली की बुद्ध प्रतिमाओं की तरह का पहनावा दिखाया गया है।' धातु प्रतिमाओं में पार्श्वनाथ की पद्मासन की मूर्तियां है, जिसमें एक पर 669 ई और दूसरी पर 699 के लेख है । ' ये धातु प्रतिमाएं पश्चिमी भारत की सर्व प्राचीन धातु प्रतिमाएं है। राजस्थान में जैनधातु मूर्तियां विशाल संख्या में प्राप्त है। बीकानेर संग्रहालय में 14 धातु मूर्तियां संग्रहीत है । 1. रायकृष्णदास, भारतीय चित्रकला, पृ 29 2. हीरालाल जैन, भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ 368 3. डॉ. (श्रीमती) राजेश जैन, मध्यकालीन राजस्थान में धर्म, पृ 288 4. मध्यकालीन राजस्थान में जैनधर्म, पृ 295 5. अर्बुद मण्डल का सांस्कृतिक वैभव, पृ42 For Private and Personal Use Only

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