Book Title: Osvansh Udbhav Aur Vikas Part 01
Author(s): Mahavirmal Lodha
Publisher: Lodha Bandhu Prakashan

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Page 443
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 414 वीरता कहीं प्रतिशोध की आग में भड़की और साम्राज्य लिप्सा ने न जाने कितना रक्त बहाया। युद्ध की बलिवेदी पर न जाने कितनी नरबलि दी, रक्तरंजित तलवार से न जाने कितनों का रक्त बहाया, रणचण्डी की हुंकार ने न जाने कितनों का दिल दहलाया। राजपूत के जीवन की कहानी युद्ध से प्रारम्भ होती है और युद्ध में ही समाप्त होती है। इस देश के रक्तरंजित इतिहास के पृष्ठ राजपूतों के रक्त से आप्लावित है। राजपूत युद्ध नीति में निष्णात है किन्तु युद्ध में भी नीति का पालन करते हैं, किन्तु समय के साथ इनका स्खलन भी हुआ है। दुर्गों की रक्षा इनका धर्म है और दुर्गों की रक्षा के लिये न जाने कितनी व्यूह रचना करते हैं। राजपूतों के जीवन में कभी युद्ध है और कभी विवाह, विवाह मण्डप में रणभेरी सुनकर युद्ध के लिये कूच कर जाते हैं और युद्ध से लौटकर पुन: विवाह। 'महाभारत काल के बाद राजपूतों में बहुविवाह का प्रचलन हो गया था। मध्यकाल तक आते आते यह प्रथा अत्यधिक जोर पकड़ती जाती है, जबकि एक राजा के यहाँ दस-बारह रानियां हुआ करती थी।" सभी राजपूत विलासी और कामुक नहीं थे, किन्तु यह सत्य है कि शनैः शनै: राजपूतों में विलासता और कामुकता बढ़ती गई। यह भी सत्य है कि अनेकबार भोगविलासों की तृप्ति के लिये नहीं बल्कि देश रक्षा की भावना से ही राजपूतों में बहुविवाह प्रथा प्रचलित थी। यह निश्चित है कि राजपूतों की संस्कृति में हिंसा थी, अहिंसा नहीं; सत्यनिष्ठ थे किन्तु कालांतर में साम्राज्य लिप्सा और राज्य विस्तार के लिये मिथ्या का भी सहारा लिया; युद्ध में शत्रुओं के धन और सम्पत्ति को लूटना उनका धर्म था; बहुपत्नी प्रथा और विलासता के कारण ब्रह्मचर्य से कोसों दूर थे और पूर्णरूपेण परिग्रही थे- साम्राज्य लिप्सु और राज्यलिप्सु। राजपूत संस्कृति से ओसवंशीय संस्कृति ___जैनाचार्यों ने मुख्यरूप से क्षत्रियों और राजपूतों को जैन धर्मावलम्बी बनाकर जैन जातियों के अन्तर्गत उन्हें ओसवंशीभी बनाया। यह बलात धर्मांतरण नहीं था, यह व्यक्तियों का आभ्यंतर रूप से रूपान्तरण था और इस वैयक्तिक रूपान्तरण के द्वारा सांस्कृतिक रूपान्तरण हुआ। यह कहा जा सकता है कि श्रमण संस्कृति ने क्षत्रिय और राजपूत संस्कृति में पले एक वर्ग को जैन धर्मावलम्बी बनाकर एक नयी जाति के साथ एक नयी संस्कृति की रचना की। ___2500 वर्षों तक जैनाचार्यों ने इस जाति को और अन्य जातियों को भी अनवरत उपदेश दिया कि हिंसा को छोड़कर अहिंसा को अपनाओ, असत्य को छोड़कर सत्य को अपनाओ, चौर्यकर्म को छोड़कर अचौर्य को अपनाओ, परिग्रह को छोड़कर अपरिग्रह को अपनाओ और विलासता और व्याभिचार को छोड़कर ब्रह्मचर्य को अपनाओ। क्षत्रिय और राजपूत शत्रुओं को पराजित करने के लिये युद्ध करते थे, इसलिये महावीर की भाषा में ही कहा कि जो दुर्जेय संग्राम में हजार हजार योद्धाओं को जीतता है, उसकी अपेक्षा जो एक अपने को जीतता है, उसकी विजय ही परमविजय है, बाहरी युद्धों से क्या ? स्वयं अपने 1. राजपूत वंशावली, पृ44 For Private and Personal Use Only

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