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407 सत्य एक शाश्वत जीवनमूल्य है किन्तु स्यादवाद के द्वारा महावीर ने सत्य को शाश्वत के साथ उदारदृष्टि से सापेक्ष भी माना है। स्यादवाद के द्वारा महावीर ने सप्तभंगी न्याय- स्यात् अस्ति, स्यातनास्ति, स्यात् अस्ति-नास्ति, स्यात् अवक्तव्य, स्यात् अस्ति अवक्तव्य, स्यात् नास्ति अवक्तव्यं, स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्यं की स्थापना की। महावीर ने स्यादवाद के द्वारा ऐसी संस्कृति की रचना करनाचाहते थे, जिससे धार्मिक विवाद समाप्त हो जाय। भगवान महावीर कहते हैं, कुछ केवल अपने मत की प्रशंसा करते हैं, तथा दूसरों के वचनों की निन्दा करते हैं और इस तरह पाण्डित्य प्रदर्शन करते हैं। इस संसार में नाना प्रकार के जीव हैं, नाना प्रकार के कर्म है, नाना प्रकार की लब्धियां हैं, इसलिये कोई स्वधर्मी हो या परधर्मी किसी के साथ वचन विवाद उचित नहीं।
इस प्रकार सत्य का अभिप्राय विस्तृत है। प्रमाद से झूठ बोलना भी असत्य है, किसी की हिंसा कर वध करना भी असत्य है, किसी पर आरोप लगाना भी असत्य है, झूठे दस्तावेज तैयार करना भी असत्य है।
सत्य से ही आत्मा को जाना जा सकता है। सत्य से ही वह ज्ञान होता है कि जीव उत्तम गुणों का आश्रय, सब द्रव्यों में उत्तम द्रव्य और सब तत्वों में परमतत्व है। सत्य से ही जाना जाता है कि आत्माज्ञायक है, जो ज्ञायक होता है, वह न अप्रमत्त होता है, न प्रमत्त और उसमें अशुद्धता नहीं होती। आत्मा के शुद्ध स्वरूप को जानने वाला तथा परकीय भावों को जानने वाला ऐसा कौन ज्ञानी होगा, जो यह कहेगा, यह मेरा है, और सत्य का ज्ञाता ही कहेगा, मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, ममता रहित हूँ तथा ज्ञानदर्शन से परिपूर्ण हूँ। अपने इस शुद्ध स्वभाव में स्थित और तन्मय होकर मैं इन सब (परकीय भावों) का क्षय करता हूँ। सत्य को जानने वाला ही त्रिरत्न के द्वारा मोक्ष मार्ग का पथिक है। सत्य को जानने वाला ही पाँच महाव्रतों/अणुव्रतों का पालन करता है। 1. समणसुतं, पृ236-237
णाणाजीवा णाणाकम्म, णाणाविहं हवे लद्धी ।
तम्हा वयणविवादं, सगण्परस मएहिं वज्जिज्जा ॥ 2. Study of Jainism, Page 203
(Truth Speeking) has also a wide
connotation. 3. समणसुतं, पृ 56-57
उत्तमगुणाण धाम, सव्वदव्वाण उत्तमं दव्वं । ।
तच्चाण परं तच्चं, जीवं जाणेह णिच्छयदो।। 4. वही, पृ60-61
णदि होदि अप्पमत्तो, ण पमत्तो जाणओ दुजो भावो।
एवं भणंति सुद्धं णाओ जो सो उ सो जेव ।। 5. वही, पृ60-61
को णाम भणिज्ज बुहो, णाडं सव्वे पराइए भावे।
मज्झमिणं ति य वयणं, जाणतो अप्पयं सुद्धं ॥ 6. वही, 160-61
अहमिक्को खलु सुद्धो, णिम्ममओणाणदंसणसमग्गो। तम्हि णिओ तच्चितो, सव्वे एए खयं णेमि ।।
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