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मूल्य, आध्यात्मिक मूल्यों की स्थापना में सहायक है।' यह एक ऐसे समाज और संस्कृति की रचना का सपना है, जहाँ मूल्यों का अखण्ड साम्राज्य हो, जहाँ चारित्रिक श्रेष्ठता शीर्ष पर हो । जैनमत में सम्यग्चारित्र पूर्णता प्राप्त करने का पथ है । 2 जैनमत के अनुसार व्यक्ति के जीवन में सम्यक्त्व होना चाहिये। मैथ्यु आर्नल्ड ने तो नैतिकता को तो तीन चौथाई जीवन कहा, वस्तुतः यह सम्पूर्ण जीवन है।' जैनमत ने श्रावकधर्म का प्रतिपादन करते हुए आध्यात्मिक के साथ धर्मनिरपेक्षता को भी स्थान दे दिया, धर्मनिरपेक्षता की उपेक्षा नहीं की। इसे पूर्णता के लिये माध्यम माना । '
इस प्रकार जैनमत ने मूल्यपरक नैतिकता पर आधारित एक नयी समाज रचना और एक नयी संस्कृति व्यवस्था का सपना देखा, जो पांच सांस्कृतिक प्रतिमानों- अहिंसामूल प्रतिमान, सत्यमूलक प्रतिमान, अचौर्यमूलक प्रतिमान, ब्रह्मचर्य मूलक प्रतिमान और अपरिग्रह मूलक प्रतिमान पर आधारित है।
ओसवंश :: जैनमत की एक सांस्कृतिक प्रयोगशाला (Osvansh is cultural laboratory of Jainism) जैनाचार्यों ने अपने लम्बे इतिहास में भगवान ऋषभ से लेकर आज तक, ! प्रवर्तनकाल से लेकर प्रवर्द्धनकाल तक, प्रवर्द्धनकाल से विकास काल तक, विकासकाल से लेकर आज प्रसारकाल तक व्यक्ति के रूपान्तरण के द्वारा आध्यात्मिक मूल्यों की स्थापना के लिये सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन के दायित्व को वहन किया ।
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जैनमत एक गैर साम्प्रदायिक चित्तवाला और जातिविहीन मत है, क्योंकि जैनमत के अनुसार जन्म से कोई ब्राह्मण नहीं होता, जन्म से कोई क्षत्रिय नहीं होता, जन्म से कोई वैश्य नहीं होता और जन्म से ही कोई शूद्र नहीं होता। जीव कर्म से ही ब्राह्मण, कर्म से ही क्षत्रिय, कर्म से ही वैश्य और कर्म से ही शूद्र होता है।
जैनाचार्यों ने सांस्कृतिक परिवर्तन की इस प्रक्रिया में पिछले 2500 वर्षों से अधिक समय तक निरन्तर व्यक्ति/व्यक्तियों के रूपान्तरण के द्वारा नयी समाज रचना / नयी सांस्कृतिक व्यवस्था में संलग्न रहे और इसी संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि जैनमत ने ओसवंश को
1. T.G. Kalghatgi, Study of Jainism, Page 192
2. वही, पृ.193
3. वही, पृ 192
It is not the entire negation of empirical values, but only an assertion to the superiority of the spiritual, empirical values are a means to the realizrtion of supreme values.
4. Study of Jainism.
Samyak Carita (moral life) is important as the path way of perfection.
Mathew Arnold said, it is the three fourth of life. In fact it is the whole of life.
In the Jain conception of moral life (of Sravaka) we find, there is the harmonious blending of the secular & spiritual. The secular has not been neglected. It is a stepping stone for the spiritual perfection.
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