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405 जैनमत का मूलमंत्र अहिंसा है। जैनमत के अनुसार अध्यात्म की आधारशिला अहिंसा। श्रमण संस्कृति अहिंसा रूपी स्तम्भ पर टिकी है। अहिंसा के अभाव में संसार में दुख और पीड़ा उत्पन्न होती है। जो हिंसा करता है, वह प्रमत्त होता है, दुखी रहता है, प्रतिशोध की मानसिक वेदना से सदैव पीड़ित रहता है। 'तत्वार्थसूत्र के अनुसार ऐसा व्यक्ति शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न झेलता है और उस मृत्यु के पश्चात् पुन: जन्म लेने की पीड़ा भोगनी पड़ती है।' हिंसा में घमण्ड
और पूर्वाग्रह, मोह और घृणा होती है । हिंसा में दृष्टि और लक्ष्य भी महत्वपूर्ण है जो शारीरिक हिंसा करता है, वह स्थूल हिंसा है, जो मानसिक दृष्टि से हिंसा के लिये सोचता है, वह सूक्ष्म हिंसा है। जैनमत के अनुसार अहिंसा कायरता नहीं है। अहिंसा का निषेधात्मक और प्रतिबोधात्मक पक्ष दोनों है। यह प्रतिबोधात्मक रूप में करुणा, दया और वात्सल्य है।
भगवान महावीर ने स्पष्ट कहा, जीव समूह की हिंसा करता है, या दूसरों के द्वारा त्रसकाय जीव समूह की हिंसा करते हुए दूसरों का अनुमोदन करते हैं, वह हिंसा कार्य मनुष्य के अहित के लिये होता है, वह उसके लिये अध्यात्महीन बने रहने का कारण होता है। हिंसा का कारण कुछ भी हो, फिर भी हिंसा हिंसा ही है। महावीर ने कहा, कुछ मनुष्य पूजा सत्कार के लिये वध करते हैं, कुछ मनुष्य हरिण आदि के चमड़े के लिये वध करते हैं, कुछ मनुष्य मांस के लिये वध करते हैं, कुछ मनुष्य खून के लिये वध करते हैं, कुछ मनुष्य हृदय के लिये वध करते हैं, कुछ पित्त के लिये, कुछ चर्बी के लिये, कुछ पंख के लिये, पूंछ के लिये, बाल के लिये, सींग के लिये, हाथी दांत के लिये, दांत के लिये, दाढ के लिये, नख के लिये, स्नायु के लिये, हड्डी के लिये, भीतरी रस के लिये किसी उद्देश्य के लिया तथा बिना किसी उद्देश्य के लिये वध करते हैं, कुछ करवाते हैं।'
महावीर स्वामी ने स्पष्ट कहा, कोई भी प्राणी, कोई भी जन्तु, कोई भी जीव, कोई भी प्राणवान मारा नहीं जाना चाहिये, शासित नहीं किया जाना चाहिये, सताया नहीं जाना चाहिये, अशांत नहीं किया जाना चाहिये। अह अहिंसाधर्म शुद्ध है, नित्य है, शाश्वत है।'
1. तत्वार्थसूत्र, VII/5 2.डा. कमलचंद सोगानी, आचरांग चयनिका, 13
सयमेव तसकाणसत्थं समारंभति, अण्णे हि वा तसकाय सत्थं सभारंभावेति, अण्णे वा तसकायसत्थं
समुणजाणति तं से अहिताए तं से अबोधीए । 3. आचरांगचयनिका, 14-15
से बेमि- अप्पेगे अच्चाए बधेति, अप्पेगे अजिणाए वधेति, अप्पेगे मंसाए बधेति, अप्पेगे हिमयाए वधेति, एवं पित्ताए वसाए पिच्छाए पुच्छाए बालाए सिंगाए विसाणाए दाढाए नहाए ण्हारुणीय अट्टिए अद्विमिंजाए अट्टाए अणट्ठाए अप्पेगे हिंसिसु मे त्ति वा, अप्पेगे हिंसति वा
अप्पेगे हिंसिस्सातिवाणे वधेति। 4. वही, पृ48-49
सव्वेपाणा सव्वे भूता सव्वेजीवासव्वेसत्ताणहंतण्णए, ण अज्जावेतव्या, न परिवेत्तव्वा, ण परितावेयत्वा, ण उद्देवेयव्वा । एस धम्मे सुद्दे णितिए सासए समेच्च लोयं खेत पणे हिं पवेदिते ।
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