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404 निश्चय चारित्र्य साध्यरूप है और व्यवहार चारित्र्य उसका साधन है;' श्रद्धा को नगर, तप और संवर को अर्गला, बुर्ज,खाई और शतघ्नी स्वरूप त्रिगुणि (मन वचनकाय) से सुरक्षित तथा सुदृढ़ प्रकार बनाकर तप रूपी बाणों से युक्त धनुष से कर्म कवच को भेदकर संग्राम का विजेता मुनि संसार से मुक्त होता है। इस प्रकार भगवान महावीर ने जैनमत के भवन की नींव के द्वारा त्रिरत्नसम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र के द्वारा रखी।
___ जैनमत के भव्य भवन का निर्माण पाँच स्तम्भों रूपी पांच महाव्रतों- अणुव्रतों पर टिका है- ये हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य । यह श्रमण के लिये महाव्रत है और श्रावक के लिये अणुव्रत।
जैनमत का आध्यात्मिक और सांस्कृतिक संदर्भ अहिंसा पर टिका है। महावीर ने कहा, ज्ञानी का सार यही है कि किसीप्राणी की हिंसा न करे। अहिंसामूलक समता ही धर्म है, यही अहिंसा का विज्ञान है; सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना नहीं, इसलिये प्राणवध को भयानक जानकर निाथ उसका वर्जन करते हैं; जैसे तुम्हें दुख प्रिय नहीं है, वैसे ही जीवों को दुख प्रिय नहीं है- ऐसा जानकर पूर्ण आदर और सावधानीपूर्वक आत्मौपम्य की दृष्टि से सब पर दया करो; जीव का वध अपना ही वध है, जीव की दया अपनी ही है; जिसे तू हनन योग्य समझता है, वह तू ही है, जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है, वह तू ही है; हिंसा से विरत न होना, हिंसा का परिणाम रखना हिंसा ही है, इसलिये जहाँ प्रमाद है, वहाँ नित्य हिंसा है; जैसे जगत में मेरुपर्वत से ऊँचा और आकाश से विशाल और कुछ नहीं, वैसे ही अहिंसा के समान कोई धर्म नहीं है; 1. वही, पृ90-91
णिच्छय सज्झसरूवं, सराय तस्सेव साहणंचरणं ।
तम्हा दो वि य कमसो, पडिच्छमाणं पqझेह ।। 2. वही, पृ92-92
सई नगरं किच्चा, तवसंवर मग्गलं । खन्ति निडणपागारं, तिगुतं दुप्प घंसयं ।। तवनारायजुत्तेण, भित्तूणं कम्मकंचुयं ।
मुणी विगय संगामो, भवाओ परिमुच्चए ।। 3. समणसुतं, पृष्ठ 47 4. वही, पृ47 5. वही, पृ49
जह ते न पिअंदुक्ख, जाणिअ एमेव सव्वजीवाणं ।
सव्वायरमुवउत्तो, अत्तोवम्मेण कुणसु दयं ।। 6. वही, पृ49 7. वही, पृ49
तुमं सि नाम स चेव, हंतव्वं ति मनसि ।
तुमं सि नाम स चेव, जं अज्जावेयव्वं ति मनसि ॥ 8. वही, पृ49
हिंसादोअविरमणं, वह परिणामो य होइ हिंसा हु।
तम्हा पमत्तजोगे, पाणव्ववरोवओ णिच्च ।। 9. वही, पृ51
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