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403 देहादिमुक्त जानता है, वह अशुद्ध आत्मा को ही प्राप्त होता है; जो अध्यात्म को जानता है वह बाह्य (भौतिक) को जानता है, जो बाह्य को जानता है वह अध्यात्म को जानता है; जो एक को जानता है, वह सब (जगत) को जानता है और जो सब को जानता है वह एक को जानता है। इस प्रकार अध्यात्म की, मोक्ष की दूसरी सीढी सम्यग्ज्ञान है।
मोक्ष की तृतीय और अंतिम सीढी सम्यग्चारित्र्य है। महावीर ने कहा, अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति ही व्यवहार चारित्र है, चारित्र्यशून्य पुरुष का विपुल शास्त्र ज्ञान भी व्यर्थ ही है, जैसे कि अंधे के आगे लाखों लाखों दीपक जलाना व्यर्थ है; चारित्र्य सम्पन्न का अल्पज्ञान भी बहुत है और चारित्रविहीन का बहुत श्रुतज्ञान भी निष्फल है; निश्चयनय के द्वारा आत्मा का आत्मा में आत्मा के लिये तन्मय होना ही सम्यग्चरित्र है, ऐसे चरित्रशील योगी को ही निर्वाण की प्राप्ति होती है; वास्तव में चारित्र्य ही धर्म है, इस धर्म को शमरूप कहा गया है, मोह या क्षोभ से रहित आत्मा का निर्मल परिणाम ही सम या समता रूप है।' समता, माध्यस्थभाव, शुद्धभाव, वीतरागता, चारित्र, धर्म और स्वभाव आराधना- ये सबएकार्थक शब्द हैं। सम्यग्चरित्र के द्वारा भगवान महावीर ने आध्यात्मिक भित्ति पर समतावाद की प्रतिष्ठापना की।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यम्चारित्र- इन तीन रत्नों का समन्वय अपेक्षित है।
1. वही, पृ84-85
सुद्धं तु वियाणतो, सुद्ध चेक्प्पयं लहइ जीवो।
जाणं तो दु असुद्धं, असुद्धमेवप्पयं लहई ।। 2. वही, पृ84-85
जे अजत्थं जाणइ, से बहिया जाणई ।
जे बहिया जाणइ, ते अज्झत्थं जाणई । 3.समणसुतं, पृ84-85
जे एगं जाणइ, “से सव्वं जाणई ।
जे सव्वं जाणई, से एणं जाणई ॥ 4. वही, पृ86-87
सुबहुं पि सुयमहीयं किं काहिय चरणविप्पहीणस्स ।
अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्स कोडी वि ॥ 5. वही, पृ86-87
थोवम्मि सिक्खदे जिणइ, बहुसुदं जो चरित्त संपुण्णो।
जो पुण चरित्तहीणो, किं तस्स सुदेण बहुएण ।। 6. वही, पृ88-89
• णिच्छयणयस्स एवं, अप्पा अपम्मि अप्पणे सुरदो।
सो होदि सुचरित्तो, जोई सो लहइ णिव्वाणं ॥ 7. समणसुतं, पृ90-91
चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिठो।
मोहक्खोहविहीणो, परिणामो, अप्पणो हु समो। 8. समणसुतं, पृ90-91
समदा तह मज्झत्थं, सुद्धो भावो य वीयरायतं । तह चारित्तं धम्मो, सहावआराहणा भणिया ।।
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