________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
396
पंचम अध्याय जैनमत और ओसवंश : सांस्कृतिक संदर्भ
जैनमत : सांस्कृतिक संदर्भ
जैनमत ने एक नयी संस्कृति की रचना की। जैन संस्कृति या श्रमण संस्कृति का मूलाधार जैनदर्शन है। 'जैनमत ने श्रमण विचारधारा को जन्म दिया। जैनमत एक ऐसा धर्म है. जिसे जिन पालन करते हैं, जिन मुक्त आत्मा है, जो दुखी/पीड़ित मानवता के त्राण के लिये नियमों का प्रवचन करते हैं। यह मुक्त आत्माएं कर्म बंधनों से मुक्त है। यह मुक्त आत्माएं तीर्थंकर हैं, जो धर्म का प्रवचन करती है। इन तीर्थंकरों ने जीवन समुद्र को पार कर लिया है। तीर्थंकरों ने समाज की व्यवस्था का विभाजन चार श्रेणियों में किया- श्रमण और श्रमणियां, श्रावक और श्राविकाएं। जैनमत शाश्वत सत्य और आध्यात्मिकता का धर्म है। प्रत्येक युग की सामाजिक और आध्यात्मिक आवश्यकताओं को दृष्टि में रखकर इन तीर्थंकरों ने उपदेश दिये।
ऐसा माना जाता है कि इस अवसर्पिणी काल में - प्रागैतिहासिक युग में ऋषभ ने अहिंसा और अपरिग्रह का उपदेश दिया। ऋषभ ने अहिंसा और अपरिग्रह का उपदेश देकर जैनमत की नींव रखी। यह जैनमत का प्रवर्तन काल था।
जैनमत के प्रवर्द्धनकाल की चरम सीमा भगवान पार्श्वनाथ के युग में देख सकते हैं। अजितनाथ से लेकर अट्ठारहवें तीर्थंकर मल्लीनाथ ने ऋषभ के ही उपदेशों का विस्तार किया।
___ यह माना जाता है कि प्रथम और अंतिम तीर्थंकर महावीर ने धर्म के पंच महाव्रतों का उपदेश दिया, वहाँ दूसरे से लेकर तेबीसवें तीर्थंकरों ने चतुर्याम का उपदेश दिया। पार्श्व ने चार व्रतों- अहिंसा, सत्य, अदत्तादान (अचौर्य) और अपरिग्रह का उपदेश दिया, किन्तु उसमें ब्रह्मचर्य सम्मिलित नहीं, क्योंकि वे ब्रह्मचर्य को अपरिग्रह का ही अंग मानते थे।
महावीर ने जैनदर्शन और जैन नीतिशास्त्र का उपदेश दिया। महावीर ने बताया कि संसार में दुख ही दुख है, यह संसार दुख बहुत है। व्यक्ति काम में लिप्त है। ये कामभोग क्षणभर सुख और चिरकाल तक दुख देने वाले हैं, बहुत देख और थोड़ा सुख देने वाले हैं, संसार मुक्ति के विरोधी और अनर्थों की खान है। बहुत खोजने पर भी जैसे केले के पेड़ में कोई सार दिखाई नहीं देता, वैसे ही इन्द्रिय सुख में कोई सुख दिखाई नहीं देता है।' नरेन्द्र सुरेन्द्रादि का सुख परमार्थतः
1. T.G. Kalaghati, Study of Jainism, Page 2 2. समणसुतं, पृ16-17
खणमित्त सुक्खा, बहुकाल दुक्खा, पगाम दुक्खा, अणिगाम दुक्खा।
संसार मोक्खस्स विपक्खभूया, खाणी अणत्थाण उ का भोगा। 3. वही, पृ16-17
सुट्ठि मग्गिज्जतो, कत्थ विकेलीइ नत्थि जह सारो। इदि अविसरासुतहा, नथि, सुहं सुटू विगविट्ठ॥
For Private and Personal Use Only