________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
400
जैनमत की नींव के पत्थर तीन रत्न है, जिसे रत्नत्रय कहा जाता है। यह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र्य है। महावीर ने स्पष्ट कहा, धर्म आदि का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। अंगों और पूर्वो का ज्ञान सम्यगज्ञान है, तप में प्रयत्नशीलता सम्यग्चारित्र है। यह व्यवहार मोक्ष मार्ग है।' ज्ञान से जीवादि पदार्थों को जानता है, दर्शन से उसका श्रद्धान करता है, चारित्र्य से विरोध करता है और तप से विशुद्ध होता है, तीनों एक दूसरे के पूरक है। सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता, ज्ञान के बिना चारित्र गुण नहीं होता, चारित्र गुण के बिना मोक्ष नहीं होता और मोक्ष के बिना निर्वाण नहीं होता; आत्मा में लीन आत्मा ही सम्यग्दृष्टि है, जो आत्मा को यथार्थ रूप में जानता है, वही सम्यग्ज्ञान और उसमें स्थित रहना ही सम्यग्चरित्र है। इस प्रकार आत्मा ही ज्ञान है, आत्मा ही दर्शन है और आत्मा ही संयम और योग है। अत: जैनमत मूलत: आत्मवादी दर्शन
___ रत्नत्रय में सम्यग्दर्शन ही सार है और यही मोक्षरूप महावृक्ष का मूल है। यह निश्चय और व्यवहार के रूप में दो प्रकार का है। आत्मा ही सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन सत्य के साक्षात्कार की सही दृष्टि है। महावीर कहते हैं, कोई तो विषयों का सेवन करते हुए भी सेवन नहीं करता और कोई सेवन न करते हुए भी सेवन करता है, जैसे कोई पुरुष विवाहादि कार्य में लगा रहने पर भी उस कार्य का स्वामी नहीं होने से कर्ता नहीं होता;' कामभोग न समभाव उत्पन्न करते हैं
और न विकृति, जो उनके प्रति द्वेष और ममत्व रखता है वह उनमें विकृति को प्राप्त होता है। 1. वही, पृ68-69
धम्मादीसंदहणं सम्मतं णाणमंगपुन्वगदं ।
चिट्ठा तवंसि चरिया, ववहारो मोक्खमग्गो ति ॥ 2. वही, पृ68-69
णाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे ।
चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परि सुज्झई ।। 3. वही, पृ70-71
नादं सणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा ।
अगुणिस्स नस्थि मोक्खो, नत्थि अमोखस्स निव्वाणं ।। 4. समणसुतं, पृ72-73
अप्पा अप्पम्मि रओ, सम्माइट्ठी हवेइ फुडु जीवो।
जाणइ तं सण्णाणं, चरदिह चारित्त मणु ति ।। 5. समणसुतं, पृ72-73
आया हु महं नाणे, आया में दंसने चरित्ते य ।
आया पच्चक्खाणे, आया में संजमे जोगे । 6. वही, पृ72-73
सम्मतरयणसारं, मोक्खमहारुक्खमूलमिदि भणियं ।
तं जाणिज्जइ णिच्छय, ववहारसरू वदोमेयं ॥ 7. वही, पृ74-75
सेवंतो विण सेवइ, असेवमाणो वि सेवगो कोई।
पगरणचेट्ठा कस्स वि, ण य पायरणो त्ति सो होई॥ 8. वही, पृ76-77
न कामभोगा समयं उति, न यावि भोगा विगई उति । जे तप्पओसीय परिग्गही य, सो तेस मोहा विगई उवेडि।।
For Private and Personal Use Only