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223 पमार ने जैनमत स्वीकार किया। उस समय शिष्यों को गोचरी नहीं मिलने पर पीवणा सर्प बनाकर महल में भेजा। राजा उत्पल का पुत्र चेतनाहीन हो गया। उस समय श्री रत्नप्रभसूरि ने राजपुत्र को विषमुक्त कर दिया। यह कवित्त अधूरा है।'
राजा उपलदेव पंवार नगर ओसियो नरेश्वर । राज रीत भोगवे सक्ता (देवी) सचिया दीनहवर ।। नव सौ चरू निधान दिया सोनइया देवी । इंला उपरी अंगज किया सुपा नामा के वी ।। इमकरी राज भोगवे अदल बहुत खलक वदीत होय । नहीं राजपूत चिंतानिपट सगत प्रगट कही कथा सोय ॥ हे राज । किण काज करो चिंता मन माहीं । सुत न उदरत य लिख्यो देउ किम अंक बनाई ।। नृपत होय दीलगीर दीन वायक इम मुख भाखै । पुत्र विना सुर राय राज मारो कुण राखें ।। देवी दया विचार वचन दिनो निरदोशी । रहो रहो रायनिशंक पुत्र निश्चय एक होसी ।। जुग जाहिर जस पुर सुख घणा नरोपण हलट सी। उदुवाणा भाणा फिरसी अहे पँवारा गढ़ पलटसी ।। देवी के वरदान पुन्य राजा फल पायो । नाम दियो जयचन्द वरस पनरो परणायो ।। पुत्र पिता भीड़ पास महल सहलां सुख माणे । तीण अवसर स्षिीराज रत्नप्रभु मास खामणे ।। शिष्य चौरासी साथ व्रत संयम तप साधे । धरे ध्यान एकतार देव जिनराज आराधे । शहर में गये शिष्यवहरवा धर्म लाभ करता फिरे । इण नगर माहि दात्ता न को वसे सुम सारा शीरे । घर घर सब फिर गये पवित्र आहार न पायो ।। विप्र एक तीणवार वचन ऐसो बतलायो ।। हम गृह पावन करो धन धनभाग हमारो । आज हुओ आवणो मुनि ये देश तुमारो ।। सुझतो आहार दोषण बिनो खीर खाँड बहेरावियां । उजले चित दोऊ जण ते गुरू के पास आविया ।। देख गुरू गोचरी ध्यान धर ने आरोहण किया । सबद तणो पाषण तोय ब्राह्मण घर लिया ।।
नगर मही नव लाख बसे घर एक सरीखा । 1. पार्श्वनाथ परम्परा का इतिहास, द्वितीय भाग, 41318-20
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