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'बीये बाइसे' में जग्गा शाह हुआ था। ओसवाल भूषण जग्गाशाह की प्रशस्ति में कवियों ने स्पष्ट कहा
रूपा नो नहीं पार सहस करहा कर माला। बीये बावीसे भल जागियो यो ओसवाल भूपाला॥
आभानगरी के जग्गाशाह ने संवत् 222 में संघ निकाल कर तीर्थयात्रा की। श्री मांगीलाल भूतोड़िया की भ्रामक धारणा है इससे दो बातें सिद्ध जग्गाशाह ओसवाल था और वह 222 में प्रसिद्धि के शिखर पर था । संवत् वीये बाइसे में हुए जग्गाशाह को ओसवाल जाति का प्रतीक स्तम्भ मान कर जाति की उत्पत्ति के छन्दों के साथ बीये बाईसे' का प्रयोग हुआ है- यह संभव है।'
यह बात अधिक उचित लगती है, कहते हैं कि संवत् 222 में खण्डेला ग्राम में समस्त वणिज पेशा जातियों का एक सम्मेलन हुआ। इसमें 12 प्रमुख बस्तियों (प्रदेशों) से लोग आए, जैसे पाली से आने वालों को पालीवाल, ओसिया से आने वालों को ओसवाल, खंडेला के लोगों को खण्डेलवाल, श्रीमाल नगर से आने वालों को श्रीमाली, अग्रोहा के अग्रवाल, पोरवा के पोरवाल नाम से जाने गये।
इसके पहले ओसवालों को महाजन कहते थे, किन्तु 'वीये बाइसे' में ओसवालों का नामकरण हो गया। ओसवंश का बीजारोपण या प्रवर्तन वीरात् 70 में हो गया, किन्तु नामकरण 'वीये बाईसे' में हुआ, यही उचित जान पड़ता है। तृतीय मत: तथाकथित ऐतिहासिक मत
ओसवाल जाति के उद्भव को वैज्ञानिक और तार्किक आधार देने के लिये अनेक इतिहासकारों ने तृतीय मत की अवधारणा प्रस्तुत कर, उसे तथाकथित ऐतिहासिक मत की संज्ञा प्रदान की।
श्री सुखसम्पतराज भण्डारी के अनुसार यह बात तो निर्विवाद सिद्ध है कि ओसिया नगरी की स्थापना उपलदेव परमार ने की जोकि किसी कारणवश देश छोड़कर मण्डोवर के पड़िहार राजा की शरण में आया। यह उपलदेव कहाँ से आया, इसके विषय में कई मत है। ऊपर हमने जिन मतों का उल्लेख किया है, उसमें इसका आनाभीनमाल से सिद्ध होता है और कुछ लोगों के मत से इसक आना किराडू नामक स्थान से पाया जाता है। मगर ये दोनों बातें गलत मालूम होती है। क्योंकि भीनमाल के पुराने मन्दिरों में जो शिलालेख खुदे हुए मिले हैं, उनमें से दो लेख कृष्णराज परमार के हैं। एक संवत् 1113 का है और दूसरा संवत 1123 का है। पिछले लेख में कृष्णराज के बाप का नाम घंघुक लिखा है। यह घंघुक आबू का राजा था। एक पूर्णपाल और दूसरा कृष्णराज । पूर्णपाल के समय का एक लेख संवत 1098 का सिरोही जिले के एक वीरान गांव बसंतगढ में मिला है और दूसरा संवत 1102 का लिखा हुआ मारवाड़ के भंडूद नामक एक गांव में मिला है। इन दोनों लेखों से यह बात पायी जाती है कि घंघुक का बड़ा पुत्र पूर्णपाल अपने पिता की गद्दी पर बैठा और कृष्णराज को भीनमाल का राज मिला। 1. इतिहास की अमरबेल-आसवाल, प्रथम खण्ड, पृ 109 2. वही, पृ112 3. श्री सुखसम्पतराजभण्डारी, ओसवाल जाति का इतिहास, पृ9
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