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255 7. ब्राह्मणगच्छ वि.स. 1242
अर्बुदाचल 8. पिसपालाचार्य गच्छ वि.स. 1208 9. यशसूरिगच्छ वि.स. 1242
अजमेर 10. मदाहरागच्छ वि.स. 1287
मदारा 11. पिथतगच्छ वि.स. 1208
कोटरा 12. वातपीयगच्छ वि.स. 1162
जैसलमेर यह सभी गच्छ पूर्वोत्पन्न है। केवल प्राचीन शिलालेख से इनकी उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती।
___ 'श्री कक्कसूरि द्वारा विक्रम संवत् 1393 में विरचित इस पट्टावली को पाश्चात्य विद्वान प्रो. ए.एफ. रूडोल्क होर्नेल ने पूर्णत: प्रामाणिक मानते हुए इसकी विशद चर्चा की है।।
__इस प्रकार उपकेशगच्छ की प्रामाणिकता और उसकी ऐतिहासिकता को चुनौती देना उचित नहीं। ओसवंश का उद्भव : निष्कर्ष
ओसवंश की उत्पत्ति के सम्बन्ध में इस बीसवीं शताब्दी में गहरा आलोड़न-विलोड़न हुआ है। तथाकथित ऐतिहासिक मत के दावेदारों ने 'उपकेशगच्छ पट्टावली' के ओसवंश के संस्थापक उपलदेव को भोजकों और भाटों के कुछ गुटकों के प्रक्षिप्त अंश में उपलदेव को परमार मानकर, परमारों की वंशावली में से उपलदेव को लेकर केवल अनुमानों के सहारे कल्पना का महल खड़ा कर, उसे इतिहास का जामा पहनाने का निरर्थक प्रयास किया। केवल परमारों की वंशावली में उपलदेव नाम देखकर यह कथा गढ़ ली कि उप्पलदेव आबू से मण्डोवर परिहारों की शरण में गया, परिहारों की कृपा से ओसियां नगरी बसाई, ओसियां में जैनमत स्वीकार कर ओसवंश का मूल पुरुष बना और पुन: आबू में ठीक स्थिति देखकर ओसियां परिहारों को सौंपकर आबूका राज सम्भाला। इतिहास में इन सब घटनाओं का कोई प्रमाण नहीं है, किन्तु उपकेशगच्छ पट्टावली' में उप्पलदेव और भाटों भोजकों के आधार पर कल्पित कथा गढ़ ली। इन्होंने 'कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा, भानुमती का कनुबा जोड़ा' की कहावत को चरितार्थ किया । यह कैसी विडम्बना है कि ओसवंश के उद्भव को इतिहास के धरातल पर खोजने में केवल अनुमानों के सहारे कहानी गढ़ ली। यह सही है कि इतिहास में तथ्य नहीं, सत्य होता है और सत्य के लिये अनुमान भी आवश्यक है, किन्तु किसी तथ्य के अभाव में केवल अनुमानों से सत्य की संरचना नहीं हो सकती। इन तथाकथित ऐतिहासिक मत के पृष्टपोषकों ने कभी कहा कि उपलदेव ने दसवीं शताब्दी में ओसियां की स्थापना की, कभी नवीं शताब्दी में, कभी आठवीं शताब्दी में और कभी उससे भी पहले। श्री भंसाली जी ने माना कि परमारों का समय 8वीं शताब्दी से 10वीं शताब्दी के बीच ही है, इसलिये इसी काल में ओसियां बसाई अर्थात् इसी काल में ओसवंश का उद्भव हुआ।
श्री अगरचंद नाहटा के अनुसार 'कविवर ऋषभदास रचित 'हरिविजय सूरि रास' के 1. Indian Autiqumry Vol. 19, 1890
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